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Sunday, February 5, 2017

कविता- पूँजी निवेश

       

       

       देखो !

       नन्हा सा बच्चा
       स्कूल जाने की उम्र है जिसकी --
       ' सैनिक ' की दुकान में बर्तन धो रहा है ।
       एक गिलास टूटता इधर
       दस तमाचा खाता उधर --
       महीने भर की पगार से हरजाना अलग ।
       ' यूनिसेफ ' के कार्ड उसके नाम
       बाल श्रम कार्यशाला उसके नाम
       चाचा नेहरू का 'बालदिवस' भी उसीके नाम ।
       नहीं मालूम उसे --
       मानवाधिकार के हिमायत करने वाले
       कितनी बुलन्द आवाज उठाते हैं
       उसकी बेहतरी के लिए ;
       कितने एनजीओस है उसके लिए
       कितनी योजनाएं ऐलान होती हैं
       हर बालदिवस पर उसीके नाम
       किन्तु हाँ --
       चाय की दुकान पर
       पूँजी निवेश की चर्चा सुनते सुनते
       उसमे भी जग गई
       उम्मीद की किरण;
       उसे भी यकीन होने  लगा है
       कि आजादी के पचहत्तर वर्ष पर
       उसका अपना मकान होगा,
       उसका  अपना एक दुकान भी होगा
       और वह बन जाएगा
       भारत की युवा शक्ति ।
       
        

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)

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23/4/1997 Revised in February 2015

' साहित्यसंगम' संकलन 1998-- गुना ( म प्र )

Saturday, February 4, 2017

कविता- वहीं का वहीं

 


मनोहर साहू गुजर गए
बेटा हरिहर मालिक बन गए।
तिलपट्टी दलपट्टी मूँगफलीपट्टी वहीं
बन गए अब चिकी पर है सब वही ।
जूनियर लालू वहीं बैठ गए  
कालू मोची बूढे हो गये। 
दूध में पानी पिताजी टोका करते
धंधे की कसम केवल खा लेते;
पचास साल का बेटा मै अब टोकता
केवल का बेटा धंधे की ही कसम खाता।
कामवाली को मम्मी अक्सर डांटती
देर व नागा फिर भी वह करती;
कामवाली आज भी नागा करती
मेरी पत्नी आये दिन उसे डांटती।
भिखारियों को वे डांट भगाते
उनके बच्चे भी कहते आगे बढो;
बाबू सस्पेंड होते दस रुपए के लिए
बाबू सस्पेंड हुए अभी दस हजार के लिए।
मंत्री धन बटोरता था चुपके चुपके
मंत्री धन बटोरता अब बेशर्मी से।
दहेज वाली सायकिल पिता चलाते
दफ्तर जाते देर जल्द घर लौटते;
 दहेज वाली मोटरसाइकिल बेटा चलाता
जल्दी घर लौट कर टहलने जाता।
पडोसी जोरों से ' बिनाका ' सुनता
पढाई छोड मैं कान लगाता;
पडोसी अब जोरो से स्टीरियो बजाता
पढाई छोड बेटा मेरा डान्स करता।
सत्ता का जंग पर चढा और रंग
पक्ष विपक्ष चलते हैं संग संग।
चुनावी मुद्दे सारे वहीं के वहीं
जनता की उम्मीदें भी वहीँ के वहीँ ;
कहते हैं लोग जमाना बदल गया
कहता है कवि सब वहीं तो रह गया ।।


© सुभाष चंद्र गाँगुली 
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)