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Thursday, August 31, 2023

वासना

 



       इम्तहान खत्म होने के बाद सीमा जब घर लौटी तो नवजात शिशु की रोने की आवाज़ से वह स्तम्भित हुई । पता चला कि उसकी मां ने एक बेटे को जन्म दिया है । इकलौती सीमा के मन में बचपन से भाई की प्रबल इच्छा थी  । बचपन में दो फुट ऊंचे गुड्डे को भाई मानकर घंटों बातें किया करती , भाईदूज पर टीका लगाती, किंतु आज जब सचमुच भाई होने की ख़बर मिली तो वह मर्माहत हो गई । पिछले आठ महीने से वह घर नहीं आ सकी थी, न ही उसे भाई होने की ख़बर दी गई थी । 
             सीमा अब पच्चीस वर्ष की हो चुकी थी। उसे अपनी जवानी और ख़ूबसूरती की ढलान की चिंता होने लगी थी । नारी के जीवन में यही वह समय है जब वह सबकुछ पा लेना चाहती है। सीमा भी अपना घर बसाने, मां बनने की सपना देख रही थी मगर यह कैसी विडम्बना है कि सीमा को मां सुनने के बजाय दीदी सुनना पड़ेगा ? जब वह बच्चे को गोद में खिलायगी तो लोग उसे क्या समझेंगे: मां या दीदी ? नवजात शिशु के रहते इतनी जगहंसाई होगी कि शादी में भी अड़चन आ सकता है ।
            लाज- शर्म लोगों के ताने-उलाहनो की दुर्भावना-दुश्चिन्ताओं ने उसके अस्तित्व को झकझोर कर रख दिया । जितना सोचती उतनी ही वह परेशानी हो जाती । फ़िज़ूल की  चिंताओं के कारण उसके आचरण में अजीब सा बदलाव आ गया। बात-बेबात वह बौखला उठती, खिसियाती, झगड़ती । देखते देखते उसकी बौखलाहट उद्दंडता में तब्दील हो गई । कुछ समय बाद उसने पिता से बातचीत करना बंद कर दिया । फिर मां और महरी से भी । अपने कमरे में चुपचाप पड़ी रहती । कभी स्टीरियो बजाकर चिल्लाती तो कभी एकदम सन्नाटा पसर जाता, कभी कामवाली पर बेवज़ह गरजती तो कभी मां से झगड़ती । कभी डिनर टेबल पर नमक ज्यादा, मिर्चा ज्यादा चिल्ला कर थाल में पानी उड़ेल देती, तो कभी दो चार कौर खाने के बाद उठ जाती ।
            एक दिन सीमा को जिज्ञासा हुई कि उसकी बद्तमीजी को घर के सारे लोग क्यों
बर्दाश्त कर रहे हैं ? अभी तक किसी ने विरोध क्यों नही किया ? उसके पिता ने उसे फटकार क्यों नहीं लगाईं ? आख़िर माता पिता ने कोई कत्ल तो नहीं किया । बात तो बस इतनी ही है कि बुढ़ापे में पुत्र हुआ है जो अशोभनीय है परन्तु अपने देश में तो यह आम बात है । इस प्रश्न ने सीमा की उद्दंडता पर ब्रेक लगा दिया । कौतूहल फिर भी बना रहा ।
               सीमा ने गौर किया कि उसके माता-पिता में बोलचाल बन्द है । पिता अधिक से अधिक समय घर से बाहर रहते । भोर होते होते टहलने निकल जाते, घर लौट कर जल्द तैयार होकर दफ़्तर के लिए निकल जाते, देर शाम या रात को घर लौटते । छुट्टियों के दिन भी किसी न किसी बहाने लम्बे समय तक घर से बाहर रहते।
सीमा ने गौर किया कि उसके पिता दफ़्तर से लोटकर कभी बेटे से मिलने नहीं गये, बेटे के लिए कभी कोई सामान नहीं ले आए, बेटे को कभी भी गोद में लेकर खिलाये नहीं । सीमा के मन के भीतर एक जासूस का जन्म हुआ । वह जासूसी करने लगी । उसने पिता के कमरे की एक एक सामान को खंगाला, मां की कमरे की चीजों को, एक एक कागजपत्र, अलमारियों में रखी साड़ियों, स्वेटर कुछ भी नहीं छोड़ा और आख़िरकार अलमारी के लॉकर से उसे एक किताब मिली । उसकी मां की लिखी हुई किताब, एक साल पहले की छपी । किताब देख कर वह प्रसन्न तो हुई किंतु ततक्षण उसके मन में प्रश्न जागा : उसे इस किताब की जानकारी क्यो नही दी गई थी इसे छिपाकर रखने का क्या तुक है ? आख़िर कुछ तो बात होगी ।
              एक दिन पोस्टमैन ने एक लिफ़ाफा डाला । सीमा ने उसे लपककर उठा लिया । लिफ़ाफा उसकी मां के नाम था । उसने लिफ़ाफा खोला और खोलते ही वह दंग रह गयी । उसके भीतर उसकी मां की अनेक तस्वीरें थी । उसने अपना कमरा भीतर से बंद कर दिया । तस्वीरों को एक एक करके देखा । सारी तस्वीरें चौंकाने वाली थी । भेजने वाले का नाम था अजय कुमार । यह वही अजय जिसने मां का उपन्यास प्रकाशित किया था । सीमा को अब अपनी मां से सचमुच नफ़रत होने लगी उसने बिना कुछ आगे का सोचे समझे घर छोड़ने का मन बना लिया। कहां जाना मालूम नहीं । पढ़ी लिखी है कुछ न कुछ कर ही लेगी । क्या होगा आगे राम जाने पर इस नर्क में रहना असम्भव । 
                  अगले दिन सुबह सुबह सीमा ने जाने की तैयारी कर ली । एक अटैची में अपना सामान भरा । मां ने पूछा कहां की तैयारी है? कहां जा रही हो ? सीमा निरुत्तर। रात के क़रीब आठ बजे सीमा जब घर से निकलने लगी तो मां ने रास्ता रोका । " कहां जा रही हो ? किसके संग भाग रही हो ? ....इतने दिनों बाद घर लौटी और जब से आई हो मुंह फुलाकर बैठी हो ! तुम्हारी इतनी इच्छा थी कि एक भाई हो, जब भगवान ने भाई भेजा तो तुमने उसे देखा तक नहीं । "
सीमा चीख उठी  " छोडो रास्ता नहीं बताती । मर गई सीमा, मर गई मेरी मां ।" 
सीमा घर से निकलने के थोड़ी देर बाद उसके पिता घर लौटें।
अपने में घुसते ही पत्नी की तस्वीर दूसरे पुरुष के साथ देख उनका पारा चढ़ गया । पत्नी ने सीमा के चले जाने की सूचना दी । वे तत्काल घर से बाहर निकल गये।
इधर उधर देखने के बाद वे रेलवे स्टेशन पहुंचे । पांच नम्बर प्लैटफार्म पर सीमा दिख गई । एक बेंच पर अकेली बैठी थी। उसके निकट जाकर पिता ने कहा " चल बेटी घर चल।" 
सीमा सहम गई । रोते-रोते बोली " पापा आपको मालूम नहीं, मम्मी..." 
उसकी बात काटकर उन्होंने कहा " मुझे सब मालूम । ये सब उन दिनों की बात है जिन दिनों मैं लन्दन में था । तेरी मां उस प्रकाशक के चंगुल में फंस गई थी । उसने तेरी मां को अवार्ड दिलवाने का सपना दिखाया था ।वह वासना का शिकार हो गयी थी ....... गलतियां तो इंसानों से हो जाती है, एक गलती किसी के जीवन भर के समर्पण से बड़ी नहीं हो सकती ... वो तेरी माँ है, सारे जीवन उसने हम सब का ख़्याल रखा, उसी के वजह से तू इस दुनिया में है इस सच को तू झुठला नहीं सकती,  चल घर चल ।"
सीमा बोली " पापा आपके लिए मुझे अफ़सोस है मगर मैं उनके साथ नहीं रह सकती ।
पिता ने बेटी के आंसुओं को पोंछ कर कहा " इस राज़ को राज़ ही रहने दे, हर एक के जीवन का एक 'पास्ट' होता है। हमे आज में जीना चाहिये और आज का सच यही है की तेरी माँ हमारे साथ है। पिता की बातें सुन बेटी की आँखों से अश्रु गिरने लगे ... वो बोली पापा आप कितने नेक इंसान हो... आपका दिल कितना बड़ा है।  
पिता ने उसके आंसू पोंछ के कहा  तुझे तो चंद महीने ही रहना है । तेरे लिए मैंने बर ढूंढ लिया है, बस तिथि तय करनी है । अशोक को तो तू जानती ही हैं। " 
सीमा उठ खड़ी हुई, पिता को प्रणाम किया फिर पिता के वक्ष में सिर रखकर रोने लगी ।

सुभाष चन्द्र गांगुली
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पत्रिका "जगमग दीपज्योति" दीपावली एवं वार्षिक विशेषांक 1999 में प्रकाशित ।

Tuesday, August 22, 2023

मॉब लिन्चिंग


नन्दू भैया जिधर से गुजरते उन्हें देख बच्चे आवाज़ देते-

"हेला हेला, हेइ लल्ला

नन्दू भैया हेइ लल्ला ।”

'हेइ लल्ला' बोलते हुए नन्दू भैया सायकिल से उतर कर कहीं एक-दो मिनट, कहीं थोड़ा ज्यादा वक्त के लिए रूक जाते। जहाँ कहीं अधिक बच्चे होते, बच्चों में होड़ लग जाती नन्दू भैया के दुलार पाने की। नन्दू भैया एक-एक लाइन बोलते और बच्चे समवेत स्वर में बोलते जाते-

"हेला हेला, हेइ लल्ला

हम सब बच्चे हेइ लल्ला

वीर बहादुर हेइ लल्ला ।

खेल खेले, स्वस्थ रहे, हेइ लल्ला स्कूल जाए, पढ़ाई करे, हेइ लल्ला साफ रहे, सफाई रखे, हेइ लल्ला ।

हेला हेला हेइ लल्ला

हम सब बच्चे हेइ लल्ला

नन्दू भैया हेइ लल्ला।"

सभी बच्चों के प्यारे नन्दू भैया ने साल भर में कई मोहल्ले में 'हेला हेला हेइ 'लल्ला' नाम से क्लब का गठन कर दिया। प्रतिदिन शाम को बच्चे मोहल्ले में किसी मैदान या पार्क में एकत्र हो जाते और किसी वरिष्ठ नागरिक पुरुष या महिला जिस किसी ने सहमति जतायी हो, के देख रेख में पी टी करते, खेल खेलते। यह क्लब

केवल पाँच साल से बारह साल तक के बच्चों के लिए ही था। रोज़ाना किसी एक मोहल्ले में खेल के समय नन्दू भैया दूर से 'हेला हेला, हेइ 'लल्ला' बोलते हुए पहुँच जाते और थोड़ी देर के लिए बच्चों के संग बच्चे बन जाते। फिर एक-एक बच्चे का दाँत देखते, गंदा रहने पर कहते 'गंदी बात। दाँत साफ किया करो हर रोज।' नाखून चेक करते, बढ़ा हुआ पाते तो जेब से नेल कटर निकाल कर काट देते। बाल गंदे या बेतरतीब देखते तो कहते 'रोजाना नहाया करो। कंधा किया करो। किसी बच्चे से गिनती सुनते, किसी से पहाड़ा। कभी खुद चुटकुले सुनाकर बच्चों को हंसाते तो कभी कोई शिक्षाप्रद छोटी कहानी सुनाया करते। फिर साँझ होते ही कहते 'चलो बच्चे अपने-अपने घर, आज का खेल खत्म। और सायकिल हाथ में थामे चलते-चलते बोलते जाते-

'हेला हेला, हेइ लल्ला'

वीर बहादुर हेइ लल्ला

हम सब बच्चे हेइ लल्ला ।"

बच्चे भी उनके साथ जोश से बोला करते, और फिर जब सायकिल पर चढ़ कर पैडल मारते तो बच्चे शोर मचाते-

"नन्दू भैया हेइ लल्ला हेला हेला, हेइ लल्ला ।"

बच्चों का नियमित देखभाल करना, खेल भावना द्वारा उनमें एकता की भावना जगाना, उनके सर्वांगीण विकास का ध्यान रखना बिल्कुल एक 'मिशन' जैसा था नन्दू भैया के लिए। अनेक लोग उनके काम की सराहना करने लगे।

किन्तु अनजाने में उनके न चाहने वाले भी बनते गये। कुछ लोग कहते पता नहीं कहाँ कहाँ से बच्चे बटोर लाते हैं, गन्दे बच्चों के साथ अच्छे घर के बच्चे खेलेंगे तो गन्दी बातें सीखेंगे, बिगड़ जायेंगे।

कुछ लोगों को पार्कों में खेलने पर आपत्ति थी। अलग-अलग पार्क की अलग-अलग कहानी। कहीं सौन्दर्यकरण के नाम रखरखाव की जिम्मेदारी 'वेलफेयर एसोसिएशन' की थी जो सुबह-शाम अपने लोगों के लिए मात्र दो घन्टों के लिए फाटक खोलते। कहीं आये दिन किसी आश्रम या मठ का अपना कार्यक्रम चलता और वे ही देखभाल करते। कहीं किसी पार्क में प्रभावशाली व्यक्ति का दबदबा था। और कहीं किसी मैदान में बच्चों के संग संग बड़े-बड़े लड़के भी जुट जाते जिससे मैदान के पास मकानों में रहने वालों को परेशानी होती, अक्सर कोई न कोई नन्दू मैया से कहता ले जाए अपने बच्चों को कहीं और। किसी मैदान से लगे कोचिंग सेन्टर या मंदिर होता तो वे आकर चिल्लाते। तमाम समस्याओं के बावजूद नन्दू भैया अपना प्राग्राम जारी रखे हुए थे ।

एक शाम जब नन्दू भैया 'हेला हेला, हेइ लल्ला' हाँकते हुए किसी खेल के मैदान में जा रहे थे तब एक वृद्ध व्यक्ति ने उन्हें रोककर एक कागज़ देते हुए कहा- 'आप इसे अभी पढ़िए।' फिर वह व्यक्ति तेज डगों से निकल गए। 

कागज में लिखा था-

'कल रात से शहर के दो बच्चे गायब हैं। ख़बर फैली है कि आप बच्चा चोर गिरह के सरगना हैं। 'व्हाटस एप्स' पर ख़बर वायरल हो रही है। बच के रहिएगा

नन्दू भैया को यकीन नहीं हुआ। वे हँसते हुए सायकिल पर चढ़कर 'हेला हेला, हेइ लल्ला' करते हुए दस कदम आगे बढ़े ही थे कि मैदान के पास घात लगाये बैठे दस-बीस लोग शोर मचाने लगे-'चोर चोर बच्चा चोर बच्चा चोर पकड़ी। पकड़ो और फिर दौड़ लगाने लगे। भीड़ के साथ लोग जुड़ते गये। नन्दू भैया निःशब्द एक गली से दूसरी गली होते हुए गमछे से सिर ढक कर 'चोर चोर पकड़ो। पकड़ो। चिल्लाते हुए भीड़ का हिस्सा बन कर जान बचाकर भाग निकले।

उस घटना के बाद नन्दू भैया को किसी ने देखा नहीं। वे कहाँ के निवासी थे, कहाँ से आये थे, उनका असल नाम क्या था, किसी को पता नहीं था। अपने बारे में उन्होंने कभी किसी से कुछ नहीं कहा था। एक बार किसी ने कहा था कि वे किसी स्कूल में स्पोर्टस टीचर थे, रिटायरमेन्ट के बाद यहाँ आये थे। अकेला थे। घर-दुआर, परिवार कुछ नहीं था।

उस दिन नन्दू भैया के बच निकलने के बाद अगले दिन के अखबार में ख़बर छपी थी- 'मॉब लिन्चिंग में बच्चा चोरी के संदिग्ध आरोपी की हत्या। लाश की शिनाख्त अभी तक नहीं हो सकी। दोषियों की तलाश में जुटि पुलिस।'

मालिक

सुबह-सुबह कॉल बेल बजती, ग्राउंड फ्लोर के कमरे में सो रही बेटी सरिता उठकर फाटक का ताला खोल देती, महरी मालती भीतर आकर हाथ-पैर धोकर किचन में चाय का इंतजाम करती। चाय खौलाते खोलाते वह किचन में लगा स्विच दबाती जिससे ऊपर मिसेस पंत के कमरे में लगी घंटी बज उठती। मिसेस पंत स्कूल जाने की तैयारी करने लगती और मिस्टर पंत बिस्तर पर लेटे-लेटे चाय व अख़बार की प्रतीक्षा करते।

मालती चाय के साथ-साथ मिसेस पंत के लिए स्कूल का टिफिन भी तैयार करती और जब दोनों तैयार कर लेती तब वह फाटक के पास जाकर देखती, अख़बार पड़ा हुआ दिखता तो उसे उठा लेती, अगर नहीं दिखता तो वह सरिता के कमरे में झाँकती। सरिता अगर अखबार पढ़ती नज़र आती तो मालती उससे माँगती और फिर एक ट्रे में चाय, बिस्किट और अख़बार लेकर और कभी सिर्फ चाय व बिस्किट लेकर ऊपर मिसेस पंत के कमरे में दाखिल होती। मिस्टर पंत बेड टी लेते और चश्मा पहनकर अखबार देखते। यह रोज का किस्सा था।

कदाचित अखबार न देख मिस्टर पंत पूछते-'अभी तक अखबार नहीं आया मालती कभी कहती 'जी नहीं। कभी कहती दीदी पढ़ रही है; दीदी नहीं छोड़ रहीं।

'नहीं छोड़ रही है सुनते ही मिसेस पंत दनदनाती नीचे उतरती फिर बेटी से माँग कर या कभी छीन कर ले जाती। जबरदस्ती करने पर सरिता अख़बार दे देती किंतु बड़बड़ाती 'क्या जरूरी है कि पापा ही सबसे पहले अखबार पढ़े और हम लोग सबसे बाद में? थोड़ी देर बाद पढ़े तो क्या बिगड़ जायेगा ?"

मिसेस पंत उसे अनसुनी कर देती बल्कि यूँ कहूँ कि वह बेटी के मुँह नहीं लगती।

उस दिन नींद टूटते ही मिस्टर पंत ने पत्नी से पूछा-'अखबार नहीं आया?'- मालती ला रही होगी? पत्नी ने कहा, -पे कमीशन की रिपोर्ट छपी होगी, आज ही छपनी चाहिए देखना है क्या मिला, कितना फायदा हुआ, सरकार ने कुछ दिया भी है या ऐसे ही...'

'अच्छा देखती हूँ' कहके मिसेस पंत नीचे उतरी फिर लौटते समय मालती को

सहेज आयी कि जैसे ही अखबार आये ऊपर पहुँचा दे।

चाय लेकर जब मालती जाने लगी तो उसने देखा सरिता अखबार में डूबी हुई है उसने अखबार मांगा तो सरिता ने देने से इन्कार कर दिया। दाँये हाथ में ट्रे थामे बायें हाथ से मालती ने पूरा अखबार खींच लिया और तेज डगों से ऊपर पहुँची। पीछे-पीछे गुस्से से लाल सरिता ऊपर पहुँचकर अपना गुस्सा झाड़ा-'मम्मी ! आपने इसे इतना सिर चढ़ाया कि इसने मेरे हाथ से अखबार छीन लिया... अच्छा नहीं लगता इसका बेहूदापन समझा दीजिए।'

-'तो क्या ? कौन सी आफत आ गयी ? मालती तुमसे कितनी बड़ी है तुम पाँच साल की थी जब वह आयी थी। ऐसे कहा जाता है? तुम्हारे पापा को पढ़ना रहता है यह रोज-रोज कहना क्यों पड़ता है ?' मिसेस पंत ने तार सप्तक में कहा। - 'क्या जरूरी है कि हम सब रोजाना बासी अख़बार पढ़े? हमें भी कभी-कभार

खास ख़बर का इन्तजार रहता है, हम पाँच मिनट पढ़ ले तो क्या बिगड़ जायेगा ?"

सरिता तर्क में जीतना चाहती थी।

मिस्टर पंत स्तब्ध। क्या बोले बोले भी या चुप रहे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। फिर बोले 'ठीक है पढ़ ले बाद में दे जाना ।'

मालती हक्की-बक्की बल्कि कुछ सकपकायी सी दरवाजे के कोने में खड़ी माँ-बेटी की बातें सुनती हुई। सरिता अपनी बातें माँ को सुनाती मगर उसकी क्रोध भरी आँखे मालती की ओर रहती। बगल वाले कमरे के दरवाजे को ढकेल कर मिसेस पंत ड्रेस पहनने में जुट गई।

नीचे उतरते हुए सरिता ने अपना सवाल दुहराया- 'रोज पापा पहले अखबार पढ़े यह कहाँ का नियम है। कहाँ लिखा है? उन्हें दफ्तर जाना रहता है तो हमें भी तो कालेज जाना रहता है, मैं तो थोड़ी देर में ही निकल जाऊँगी। पता नहीं कहाँ का नियम है। आपके हर नियम केवल लड़कियों के लिए। भईया के लिए कोई नियम नहीं, उसके लिए सब छूट है।'

सरिता के सवाल का जवाब मालती ने दिया-पता नहीं कॉलेज मा आप का लिखा पढ़ी करत ही इत्ती अकिल नाही है कि घर का मालिक को पहिले अख़बार पढ़े चाहि, चाहे फल हो या परसाद हो कुच्छी हो हर चीज पहिले मालिक को ही दे चाही। लड़कियन से ही घर मा शान्ति रहत हैं। नियम मान के चलवो तो तोहरे घर मा शांति बनी रही। मालिक का सनमान देइवो तो तुमहू सनमान से रहो।' -अब मुँह बंद रखों, बहुत बोल चुकी। याद रखना तुम नौकरानी हो, मालकिन नहीं।'

गुस्से से लाल सरिता बिना नाश्ता किए समय से पहले ही सायकिल उठाकर घर से निकल गयी।

मिसेस पंत मालती को समझाती रही कि दीदी बड़ी हो गयी है, जमाना बदल रहा है, सरिता की बातों का वह बुरा न माने।