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Sunday, July 28, 2024

समय बदलता है

समय बदलता है  >
वह आदमी जो अपने 'मन के भीतर' ही रहा करता था, घर के बाहर वाले कमरे या ड्राइंगरुम तक आते-  आते बदल जाया करता था , आज वही भीतर का आदमी बाहर निकल आया हैं अपने मूल स्वरूप में ।कोई  आवरण  नही, कोई  लुका छिपी  नहीं । जैसा  उसका  स्वभाव, जैसा व्यवहार, जैसी सोंच घर के  भीतर , जैसा संस्कार  मिला, उसी रूप मे वह खड़ा  है समाज  मे  । जाति धर्म,  ऊंच-नीच,गरीब -अमीर ,,कट्टर - मुलायम आदि आदि  । आज जो स्थिति है, नामुमकिन न सही बहुत मुश्किल लग रहा है उसे सम्भालना, क्योंकि अब बलात्कार,  हत्या,माॅब  लिंचिग से हो रही हत्याओं के समर्थक भी सीना तानकर खड़े हो गए हैं । गुनहगारो को माला पहनाया जा रहा है,  निर्दोष अपराधी बन सजा काट रहा है,ज्ञानी शिक्षित की खिल्ली उडा रहे तैयार की गई  विशेष  भीड़ । राजनीति,  अर्थव्यवस्था , सामाजिक संगठन,  टीवी सीरियल,  मीडिया ( गोदी) सब वैसा चल रहा है जैसा पूंजीवाद चाहता है । ** अब हमें इंतजार करना होगा उस दिन का जब जनता अपने विवेक से पूछेंगे कि बड़ी दिखती बहुत छोटी सी जिंदगी को वे थोपी गई नफरत के कारण मार-काट, खून-खराबा में गंवा देंगे या कि सुख शांति से मानवीय मूल्यों के साथ बिता देंगे । समय बदलता है । इतिहास  गवाह है।जय हिन्द !

Monday, June 17, 2024

धर्म के जरिए उगाही

धर्म  के  जरिए  उगाही -----
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( 16 जून  2020 का  एक  पोस्ट- कोरोनाकाल में लिखा एक  पोस्ट )
  क्या अब " कोरोना माई " ही सहारा ??
-- पहले खूब चेचक हुआ करता था । सर्दी जुखाम बुखार बदन में दाने निकल आते थे । दस दिन रहता था फिर ठीक हो जाता था अपने आप। छूत की बीमारी वह भी। कोरेनटाइन लीव मिलता था । कोई दवा नहीं था । " मां शीतला" का आविष्कार किसी पंडित  द्वारा किया गया था । मुझे चेचक हुआ था तब मेरी मां ने मां शीतला के नाम  मेरी तकिया  के नीचे  सोलह  आना रखा  था । यह  सन  1952 की  बात  है । मैं अपने आप हफ्ता  दस दिन बाद  ठीक  हो  हो गया था। ठीक  हो  जाने  के बाद मेरी मां ने अलोपी मंदिर ( प्रयागराज )जाकर पूजा  चढ़ाया था, मेरे बच्चों को जब हुआ था तब मेरी पत्नी ने भी वैसा ही किया था किया था बच्चों के लिए ।मगर  आज  मां शीतला की जरूरत खत्म हो गई है ।  ** अब आईं कोरोना माई । केरल के एक मंदिर में पुजारी जी को " कोरोना माई " की पूजा करवाते  देख हंसी आई । हंसी आई उनकेे धंधे को देख । बिहार में महिलाओं के झुंड को देखा ढेर सामग्री लेकर पूजा करते हुए । 
**  एक बात है कि माताएं कितनी भी पढ़ी लिखी हो, विज्ञान के शिक्षक ही क्यो न हो,  बच्चों के मामले में दुर्बल हो जाती हैं, चुपचाप नज़र बचाकर नजर झाड़ देती हैं । मैं इस मामले में माताओं को नमन करता हूं । आज जो माता हंस रही हैं कल अगर उनके ऊपर आफ़त आती है तो वही माता  दौड़ेगी "कोरोना माई " के पास मंदिर में । धर्म इस दुर्बलता का दोहन सदियों से कर रहा है इसलिए अंधविश्वास को बढ़ावा दिया जाता है , वैज्ञानिक सोच की हंसी उड़ाई जाती है धंधा चलाए रखने के लिए बाकायदा एक अलिखित नीति के तहत । ** आपाद काल को अवसर में तब्दील करने के लिए लगे हुए हैं ढेर सारे व्यापारी अलग अलग तरीके से ।

Thursday, August 31, 2023

वासना

 



       इम्तहान खत्म होने के बाद सीमा जब घर लौटी तो नवजात शिशु की रोने की आवाज़ से वह स्तम्भित हुई । पता चला कि उसकी मां ने एक बेटे को जन्म दिया है । इकलौती सीमा के मन में बचपन से भाई की प्रबल इच्छा थी  । बचपन में दो फुट ऊंचे गुड्डे को भाई मानकर घंटों बातें किया करती , भाईदूज पर टीका लगाती, किंतु आज जब सचमुच भाई होने की ख़बर मिली तो वह मर्माहत हो गई । पिछले आठ महीने से वह घर नहीं आ सकी थी, न ही उसे भाई होने की ख़बर दी गई थी । 
             सीमा अब पच्चीस वर्ष की हो चुकी थी। उसे अपनी जवानी और ख़ूबसूरती की ढलान की चिंता होने लगी थी । नारी के जीवन में यही वह समय है जब वह सबकुछ पा लेना चाहती है। सीमा भी अपना घर बसाने, मां बनने की सपना देख रही थी मगर यह कैसी विडम्बना है कि सीमा को मां सुनने के बजाय दीदी सुनना पड़ेगा ? जब वह बच्चे को गोद में खिलायगी तो लोग उसे क्या समझेंगे: मां या दीदी ? नवजात शिशु के रहते इतनी जगहंसाई होगी कि शादी में भी अड़चन आ सकता है ।
            लाज- शर्म लोगों के ताने-उलाहनो की दुर्भावना-दुश्चिन्ताओं ने उसके अस्तित्व को झकझोर कर रख दिया । जितना सोचती उतनी ही वह परेशानी हो जाती । फ़िज़ूल की  चिंताओं के कारण उसके आचरण में अजीब सा बदलाव आ गया। बात-बेबात वह बौखला उठती, खिसियाती, झगड़ती । देखते देखते उसकी बौखलाहट उद्दंडता में तब्दील हो गई । कुछ समय बाद उसने पिता से बातचीत करना बंद कर दिया । फिर मां और महरी से भी । अपने कमरे में चुपचाप पड़ी रहती । कभी स्टीरियो बजाकर चिल्लाती तो कभी एकदम सन्नाटा पसर जाता, कभी कामवाली पर बेवज़ह गरजती तो कभी मां से झगड़ती । कभी डिनर टेबल पर नमक ज्यादा, मिर्चा ज्यादा चिल्ला कर थाल में पानी उड़ेल देती, तो कभी दो चार कौर खाने के बाद उठ जाती ।
            एक दिन सीमा को जिज्ञासा हुई कि उसकी बद्तमीजी को घर के सारे लोग क्यों
बर्दाश्त कर रहे हैं ? अभी तक किसी ने विरोध क्यों नही किया ? उसके पिता ने उसे फटकार क्यों नहीं लगाईं ? आख़िर माता पिता ने कोई कत्ल तो नहीं किया । बात तो बस इतनी ही है कि बुढ़ापे में पुत्र हुआ है जो अशोभनीय है परन्तु अपने देश में तो यह आम बात है । इस प्रश्न ने सीमा की उद्दंडता पर ब्रेक लगा दिया । कौतूहल फिर भी बना रहा ।
               सीमा ने गौर किया कि उसके माता-पिता में बोलचाल बन्द है । पिता अधिक से अधिक समय घर से बाहर रहते । भोर होते होते टहलने निकल जाते, घर लौट कर जल्द तैयार होकर दफ़्तर के लिए निकल जाते, देर शाम या रात को घर लौटते । छुट्टियों के दिन भी किसी न किसी बहाने लम्बे समय तक घर से बाहर रहते।
सीमा ने गौर किया कि उसके पिता दफ़्तर से लोटकर कभी बेटे से मिलने नहीं गये, बेटे के लिए कभी कोई सामान नहीं ले आए, बेटे को कभी भी गोद में लेकर खिलाये नहीं । सीमा के मन के भीतर एक जासूस का जन्म हुआ । वह जासूसी करने लगी । उसने पिता के कमरे की एक एक सामान को खंगाला, मां की कमरे की चीजों को, एक एक कागजपत्र, अलमारियों में रखी साड़ियों, स्वेटर कुछ भी नहीं छोड़ा और आख़िरकार अलमारी के लॉकर से उसे एक किताब मिली । उसकी मां की लिखी हुई किताब, एक साल पहले की छपी । किताब देख कर वह प्रसन्न तो हुई किंतु ततक्षण उसके मन में प्रश्न जागा : उसे इस किताब की जानकारी क्यो नही दी गई थी इसे छिपाकर रखने का क्या तुक है ? आख़िर कुछ तो बात होगी ।
              एक दिन पोस्टमैन ने एक लिफ़ाफा डाला । सीमा ने उसे लपककर उठा लिया । लिफ़ाफा उसकी मां के नाम था । उसने लिफ़ाफा खोला और खोलते ही वह दंग रह गयी । उसके भीतर उसकी मां की अनेक तस्वीरें थी । उसने अपना कमरा भीतर से बंद कर दिया । तस्वीरों को एक एक करके देखा । सारी तस्वीरें चौंकाने वाली थी । भेजने वाले का नाम था अजय कुमार । यह वही अजय जिसने मां का उपन्यास प्रकाशित किया था । सीमा को अब अपनी मां से सचमुच नफ़रत होने लगी उसने बिना कुछ आगे का सोचे समझे घर छोड़ने का मन बना लिया। कहां जाना मालूम नहीं । पढ़ी लिखी है कुछ न कुछ कर ही लेगी । क्या होगा आगे राम जाने पर इस नर्क में रहना असम्भव । 
                  अगले दिन सुबह सुबह सीमा ने जाने की तैयारी कर ली । एक अटैची में अपना सामान भरा । मां ने पूछा कहां की तैयारी है? कहां जा रही हो ? सीमा निरुत्तर। रात के क़रीब आठ बजे सीमा जब घर से निकलने लगी तो मां ने रास्ता रोका । " कहां जा रही हो ? किसके संग भाग रही हो ? ....इतने दिनों बाद घर लौटी और जब से आई हो मुंह फुलाकर बैठी हो ! तुम्हारी इतनी इच्छा थी कि एक भाई हो, जब भगवान ने भाई भेजा तो तुमने उसे देखा तक नहीं । "
सीमा चीख उठी  " छोडो रास्ता नहीं बताती । मर गई सीमा, मर गई मेरी मां ।" 
सीमा घर से निकलने के थोड़ी देर बाद उसके पिता घर लौटें।
अपने में घुसते ही पत्नी की तस्वीर दूसरे पुरुष के साथ देख उनका पारा चढ़ गया । पत्नी ने सीमा के चले जाने की सूचना दी । वे तत्काल घर से बाहर निकल गये।
इधर उधर देखने के बाद वे रेलवे स्टेशन पहुंचे । पांच नम्बर प्लैटफार्म पर सीमा दिख गई । एक बेंच पर अकेली बैठी थी। उसके निकट जाकर पिता ने कहा " चल बेटी घर चल।" 
सीमा सहम गई । रोते-रोते बोली " पापा आपको मालूम नहीं, मम्मी..." 
उसकी बात काटकर उन्होंने कहा " मुझे सब मालूम । ये सब उन दिनों की बात है जिन दिनों मैं लन्दन में था । तेरी मां उस प्रकाशक के चंगुल में फंस गई थी । उसने तेरी मां को अवार्ड दिलवाने का सपना दिखाया था ।वह वासना का शिकार हो गयी थी ....... गलतियां तो इंसानों से हो जाती है, एक गलती किसी के जीवन भर के समर्पण से बड़ी नहीं हो सकती ... वो तेरी माँ है, सारे जीवन उसने हम सब का ख़्याल रखा, उसी के वजह से तू इस दुनिया में है इस सच को तू झुठला नहीं सकती,  चल घर चल ।"
सीमा बोली " पापा आपके लिए मुझे अफ़सोस है मगर मैं उनके साथ नहीं रह सकती ।
पिता ने बेटी के आंसुओं को पोंछ कर कहा " इस राज़ को राज़ ही रहने दे, हर एक के जीवन का एक 'पास्ट' होता है। हमे आज में जीना चाहिये और आज का सच यही है की तेरी माँ हमारे साथ है। पिता की बातें सुन बेटी की आँखों से अश्रु गिरने लगे ... वो बोली पापा आप कितने नेक इंसान हो... आपका दिल कितना बड़ा है।  
पिता ने उसके आंसू पोंछ के कहा  तुझे तो चंद महीने ही रहना है । तेरे लिए मैंने बर ढूंढ लिया है, बस तिथि तय करनी है । अशोक को तो तू जानती ही हैं। " 
सीमा उठ खड़ी हुई, पिता को प्रणाम किया फिर पिता के वक्ष में सिर रखकर रोने लगी ।

सुभाष चन्द्र गांगुली
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पत्रिका "जगमग दीपज्योति" दीपावली एवं वार्षिक विशेषांक 1999 में प्रकाशित ।