बहुत देर से मकान ढूँढते ढूँढ़ते जया को मकान मिल ही गया। बाउन्ड्रीवाल के फाटक पर नेमप्लेट पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था- अमर परिहार-एडवोकेट स्ट्रीट लाइट की मध्यिम रोशनी में नाम पढ़ा जा रहा था, फिर भी जया ने करीब से जाकर देख लिया।
दस कदम की दूरी पर वकील साहब का चेम्बर। काम में तल्लीन थे ये वकील साहब। आहिस्ता से फाटक खोल तीन सीढ़ी चढ़कर जया ने चिक हटाकर झाँका, हाँ, अमर परिहार ही है। कुछ अकुलाहट से जया ने गला खखारा, हाथ हिलने से चूड़ियाँ भी खनक उठी। अमर ने सिर उठाकर देखा फिर कहा-'आइए अन्दर ।
बैठिए।" भीतर दाखिल होते ही जया को देख अमर जरा सा विचलित हो उठा। सहमी, सकपकायी, सिर पर पल्लू डाली उस औरत को कुछ पल देखने के बाद उसने कहा- 'आज का काम ख़त्म। ऐसा करिए आप अपना नाम और फोन नम्बर लिख दीजिए, कल मैं आपको टाइम दूँगा।'
-'मैं ज्यादा टाइम नहीं लूँगी सर ।'
- नहीं आज नहीं होगा, कल जरूरी केस है। मैं थका हुआ हूँ. सोने का टाइम भी हो गया है।'
- प्लीज सर। मात्र दस मिनट मुझे सुन लीजिए। बहुत जरूरी है।... शायद मैं कल न आ पाऊँ।' जया ने अपना घुंघटा हटाते हुए कहा। घुँघट हटते ही अमर उसको अपलक देखता रह गया। वह शब्द ढूँढ़ने लगा।
जया ने कहा-'आपने ठीक ही पहचाना। मैं जया... जया चन्द्रा थी पहले।'
कोलाहल विहीन रात किन्तु उन दोनों के मन में अजीब सा कोलाहल । जया बहुत कुछ बोलना चाहती और अमर यह जानने के लिए बेताब था कि परायी स्त्री इतनी रात को अकेली क्यों मिलने आयी है?
वर्षों पहले वे दोनों यूनिवर्सिटी में एक ही क्लास में थे। इसी जया को वह दिलोजान से चाहता था। उसकी एक अदा पर उसके मन के सारे तार झनझना उठते। अमर हमेशा उससे बात करने का बहाना ढूँढ़ता। बड़ी कोशिश के बाद उससे दोस्ती करने में वह कामयाब हो गया था। करीब साल भर बाद एक दिन अमर ने अवसर देख कर अपने प्रेम का इज़हार कर दिया था किन्तु उत्तर में जया ने जो कुछ कहा था उससे अमर इतना मर्माहत हुआ था कि वह अभी भी उस सदमे से उबर नहीं पाया था। जया ने कहा था कि उसका मेलजोल महज एक दोस्ती थी जो एक ही क्लास में साथ-साथ उठने बैठने से हो जाता है। जया ने यह भी कहा था कि अमर का प्यार एकतरफा प्यार था जो यंग लड़कों को अक्सर हो जाता है।
आज जब जया परायी स्त्री है और मुसीबत के मारे आयी हुई है तो अमर को हमदर्दी होने लगी। उसका पुराना प्रेम सामने आकर खड़ा हो गया। अकेली इतनी रात को क्यों आयी है जान लेना उचित होगा।
उसने पूछा- 'इतनी रात तुम अकेली आयी हो?"
-‘जी। अकेली हूँ।'
'तुम परायी स्त्री.... अकेली? मेरे घर? क्या चाहती हो? किस काम से आयी ?... तुम्हें पता मैं अनमैरिड हूँ अकेला हूँ हाँ, साथ में मेरी माँ और मेरी बुआ रहती है।
- मालूम है। मुझे तुम्हारे बारे में सब कुछ मालूम है।
-'मालूम है? अच्छा बोलो अपनी बात किस काम से आयी हो?"
जया बोली- 'सोचा मरने से पहले तुमसे एक बार मिल लेना चाहिए। मन के भीतर बहुत घुटन है, मन की बात कह देनी जरूरी है... मन का बोझ हल्का हो जाने से चैन से मर पाऊँगी।' जया की आँखों से अविरल आँसू बहने लगे। कंठ सँघ गया। अमर आसमान से गिरा।
वह चीख कर बोला- 'क्या ? मरने की बात कहाँ से आ गयी? केस क्या है? क्या तुम बीमार हो? कोई लाइलाज बीमारी हो गयी है क्या?.
...क्या हुआ? क्या प्राबलम जल्दी से बोलो।'
-'बीमारी शरीर में नहीं, मन में है, बल्कि मेरे जीवन में, लाइलाज बीमारी, मौत से ही मुक्ति मिलेगी।'
"मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है, सीधा-सीधा बोलो क्या बात है ?.... तुम्हारी शादी किसी अच्छे आदमी के साथ हुई थी न?
-खाक अच्छी शादी के बाद पाँच साल बड़ी मुश्किल से मैंने झेला, जैसे-तैसे मन मारकर एडजस्ट करने की कोशिश की, तमाम अत्याचारें सही मगर हालात बद से बदतर होती चली गयी। अब वह घर, घर नहीं नरक है। आत्महत्या के सिवा अब कोई उपाय नहीं है।'
- क्या? क्यों? आत्महत्या के सिवा कोई उपाय क्यों नहीं? उपाय ढूँढना पड़ता है। मैं वकील हूँ, हम लोग हार नहीं मानते कभी भी।
नहीं कोई उपाय नहीं। उस नीच, दुराचारी के हाथ से बचने का कोई और उपाय नहीं है। जिन्दा रहूंगी तो वह मुझे वेश्या बना देगा या जान से मार डालेगा।' अमर स्तब्ध, हतप्रभ। उसकी जिज्ञासा बढ़ती गयी। उसने कहा- 'तुम्हारा पति ऐसा क्यों करेगा? मेरा मतलब उसने तुम्हारे साथ ऐसा क्यों करना चाहा ? मुझे साफ-साफ बताओ शायद मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकूँ।'
जया का क्रोध फूट पड़ा 'एकदम नीच, कमीना, दुराचारी। रातोरात धनवान बन जाना चाहता था। जब मेरी शादी हुई थी, उसकी एक जनरल स्टोर की दुकान थी। ज्यादा कमाने के फेर में उसे बंद कर मोटर सायकिल, स्कूटर पार्टस की दुकान खोली। घाटा हुआ। फिर भारी कर्जा लेकर टी0वी0 की दुकान खोली। उसमें भी घाटा हुआ। फिर दूसरा धन्धा । इस क्रम में खड़े होने की जगह वह बैठने लगा, कर्ज पर कर्ज़ फिर इतनी कम रकम रह गयी कि वह कहीं का नहीं रहा। मैंने दफ्तर से लोन लेकर दिया, मैंने कहा आप फिर से जनरल स्टोर की दुकान खोल लीजिए, जब मेरी शादी हुई थी मैं खुश थी, मुझे ज्यादा पैसा नहीं चाहिए, मैं खुद भी तो कमाती हूँ।'
उसने कहा 'मैं जोरू का गुलाम नहीं हूँ, अपना निर्णय खुद ले सकता हूँ। मुझे धन बटोरना है, सारा सुख भोगना है, अभी इसी वक्त, बुढ़ापे में नहीं।.... मेरे पिताजी ने बुरे दिन के लिए जो रकम बचाकर रखा था, हड़कम्प मचाकर, मुझ पर अत्याचार कर, और अधिक अत्याचार करने की धमकी देकर पिताजी से सब ले लिया। फिर एक बड़ी सी दवाई की दुकान खोली, थोड़े दिनों के बाद फिर पैसा, पैसा करने लगा, मेरे सारे गहने बिक गए, मैंने सोचा चलो अब खत्म होगा बवाल...उसकी दवाई की दुकान ठीक-ठाक चलने लगी, मगर उसने दुकान को दौड़ाना चाहा। हमसे कहा दफ्तर से छुट्टी लेकर या चाहे बिना वेतन दुकान पर बैठो, तुम्हारी खूबसूरती कैश करनी है... मैंने आपत्ति की। मैं हरगिज़ नहीं बैठना चाहती थी, मगर वह भी हाथ धोकर पीछे पड़ गया, कहा-सुनी हुई, नोक-झोक हुई, हफ्तों बोलचाल बंद था...मेरे बीमार पिता ने उसे समझाया पर उसने उनके साथ बदसलूकी की... फिर उसने मुझे घर पर कैद कर दिया, बात-बेबात लात-जूता मारने लगा, किसी से मिलने नहीं देता, बात नहीं करने देता, मुझ पर निगरानी रखने के लिए एक नौकरानी को लगा दिया... मैंने हालात के साथ समझौता कर लिया, सोचा अगर इसी में मेरी मलाई हो...दुकान पर बैठने लगी, दुकान की आमदनी सचमुच बढ़ती गई। मगर उसकी जरूरतें और बुरी आदतें भी बढ़ती गई। वह हमेशा एक ही बात लेकर परेशान रहता था, कैसे धन जुटाया जाय, किधर से पैसा आये। उसके सिर पर हमेशा धन का भूत सवार रहता था। डुप्लिकेट दवाइयां भी बेचता था। जब में उससे कहती कि डुप्लीकेट दवाई से जानें जा सकती, बीमारियाँ ठीक नहीं होगी तो वह कहा करता कि धन की कदर सब जगह होती है, धन बटोरने का हरेक तरीका सही है, धनी आदमी का कोई ऐब नहीं ढूँढ़ता, धनी आदमी की बुराई कोई नहीं देखता
अमर ने आश्चर्य व्यक्त किया-'मकान, दुकान, तुम्हारी खुद की कमाई सब कुछ तो था फिर....
जया और उत्तेजित हो गई। उसने कहा- 'पिशाच था वह, पिशाच। उसने मेरी कोख में पल रहा बच्चा गिरवा दिया। उसने कहा पहले धन बटोर ले बच्चा-बच्चा बाद में देखा जाएगा। उसने कहा तुम अपनी खूबसूरती से दसियों लाख कमा सकती हो, उन पैसों से हम फैक्ट्री खोल लेंगे, करोड़ों बना लेंगे, दुनिया हमारी जूती के नीचे फिर तुम रानी बनकर ऐश करोगी।'
- अमर ने पूछा 'क्या?... तुम्हारे घर वालों ने शादी से पहले खोज-खबर नहीं ली थी?' अमर ने पूछा।
जया ने कहा- 'ली थी। क्यों नहीं लेते, मगर किसी के मन के भीतर कैसी-कैसी बदइच्छाएं रहती, किसके मन के भीतर कितना पाप है यह कौन जान सकता?... मैंने उसे छोड़ देने की ठान ली, घर से निकल रही थी कि नशे में धूत उस शैतान ने मुझे दबोच लिया। मेरी चोंटी पकड़ कर धमकी दी 'अगर तूने चालाकी करने की तो कोशिश की मैं तुझे और तेरे माँ-बाप को जान से मार डालूँगा', फिर दो-चार दिन बाद उसने कहा 'कल रात पूरे मेकअप में रहना, खूब सज-धज कर अपना मूड भी ठीक रखना, एक नेता के घर जाना है, बहुत बड़ा नेता है, उसने कहा है कि गैस एजेन्सी या पेट्रोल पम्प खुलवा देगा। हमारे बहुत अच्छे दिन आ जायेंगे। ड्राइवर लेने आयेगा, चुपचाप चली जाना उसके साथ.... नेताजी के साथ किसी प्रकार की बेहूदी हरकत न करना। अगर तूने बदतमिजी की तो अंजाम बुरा होगा।'
रात को ड्राइवर आया था, मैं गाड़ी पर सवार हुई थी, रास्ते में टॉयलेट जाने के बहाने अपने कार्यालय के सामने मैंने गाड़ी रुकवाई। कार्यालय में घुसकर पीछे के दरवाज़े से भाग निकली, भागते-भागते एक टेम्पो में बैठकर रेलवे स्टेशन पहुँची किसी ट्रेन के नीचे मर जाने के लिए, देखा बनारस आने वाली ट्रेन सामने खड़ी है, एक बारगी तुम्हारा ख्याल आया... एक आखिरी उम्मीद... शायद तुम कोई रास्ता फिर मुझे यह भी लगा कि मरने से पहले मुझे तुमको अपनी सफाई देनी चाहिए नहीं तो मरने के बाद भी तुम मुझे माफ़ नहीं करोगे....।' अमर की चिन्ता और जिज्ञासा लगातार बढ़ती जा रही थी। उसने अवाक होकर पूछा- 'माफी! किस बात की माफी ?*
मुझे मालूम था कि तुम मुझे बहुत चाहते हो, मैं भी तुम्हें प्यार करने लगी थी पर मैं क्या करती... तुम मुझसे तीन साल के छोटे हो। बीबी उम्र में बड़ी नहीं हो सकती, कोई स्वीकार नहीं करता, जिन्दगी में कई तरह की दिक्कतें भी आती है... मैंने अपना प्यार मन में ही दबा लिया था...शायद मेरे जीवन की सबसे बड़ी गलती यही थी कि मैंने इस सच्चाई को तुमसे छिपायी थी, पहले ही कह दी होती तो सालों से मेरे मन में गुनहगार होने का बोझ न रहता...न ही तुम्हारे मन में मेरे प्रति कोई घृणा होती... मैंने तुम्हें धोखा नहीं दिया था... अब मेरे मन का बोझ उतर गया...मुझे अब चलना चाहिए...।' -'कहाँ ठहरी हो? कहाँ जाओगी?'
-'कहीं नहीं। पता नहीं कहाँ जाऊँगी...अब तक मेरे सुइसायड नोट को लेकर कोहराम मच गया होगा।'
-'सुइसायड नोट?"
'घर से निकलते समय सुइसायड नोट रख लिया था। दफ्तर के दरवाजे से निकलते वक्त चौकीदार को लिफाफा देकर कहा था कि मेरे अधिकारी को वह लिफाफा अगले दिन दे दे।' वापस जाने के लिए जया चिक हटाकर कमरे से निकली ही थी कि अमर ने उसकी कलाई पकड़ ली। उसने कहा- 'कायर, बुजदिल आत्महत्या करते हैं... पढ़ी-लिखी लड़कियों के साथ भी इतना अमानवीय अत्याचार और तुम उसे छोड़ दोगी? क्या लड़कियाँ इसी तरह सतायी जाती रहेगी? तुम्हें हार नहीं मानना चाहिए, लड़ना चाहिए। उसे उसके किए की सजा भुगतनी पड़ेगी, तुम्हें इंसाफ मिलेगा, मैं तुम्हारी मदद करूँगा, तुम्हारी लड़ाई में मैं साथ रहूँगा । हिम्मत न हारो।'
जया शान्त हो गई। अमर के सीने में सिर रख कर रोते-रोते बोली, 'अमर! मुझे बहुत डर लग रहा है।' अमर ने कहा, 'मन से भय निकाल कर फेंक दो। तुम्हें अत्याचार के खिलाफ लड़ना होगा....सब ठीक हो जाएगा... मुझ पर भरोसा रख सकती हो...तुमसे तीन साल का छोटा सही, मैं तुम्हें संभाल सकता हूँ।"
© सुभाष चंद्र गाँगुली
( "मोक्षदायिनी" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2021)
( "मोक्षदायिनी" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2021)
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