धर्म के जरिए उगाही -----
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( 16 जून 2020 का एक पोस्ट- कोरोनाकाल में लिखा एक पोस्ट )
क्या अब " कोरोना माई " ही सहारा ??
-- पहले खूब चेचक हुआ करता था । सर्दी जुखाम बुखार बदन में दाने निकल आते थे । दस दिन रहता था फिर ठीक हो जाता था अपने आप। छूत की बीमारी वह भी। कोरेनटाइन लीव मिलता था । कोई दवा नहीं था । " मां शीतला" का आविष्कार किसी पंडित द्वारा किया गया था । मुझे चेचक हुआ था तब मेरी मां ने मां शीतला के नाम मेरी तकिया के नीचे सोलह आना रखा था । यह सन 1952 की बात है । मैं अपने आप हफ्ता दस दिन बाद ठीक हो हो गया था। ठीक हो जाने के बाद मेरी मां ने अलोपी मंदिर ( प्रयागराज )जाकर पूजा चढ़ाया था, मेरे बच्चों को जब हुआ था तब मेरी पत्नी ने भी वैसा ही किया था किया था बच्चों के लिए ।मगर आज मां शीतला की जरूरत खत्म हो गई है । ** अब आईं कोरोना माई । केरल के एक मंदिर में पुजारी जी को " कोरोना माई " की पूजा करवाते देख हंसी आई । हंसी आई उनकेे धंधे को देख । बिहार में महिलाओं के झुंड को देखा ढेर सामग्री लेकर पूजा करते हुए ।
** एक बात है कि माताएं कितनी भी पढ़ी लिखी हो, विज्ञान के शिक्षक ही क्यो न हो, बच्चों के मामले में दुर्बल हो जाती हैं, चुपचाप नज़र बचाकर नजर झाड़ देती हैं । मैं इस मामले में माताओं को नमन करता हूं । आज जो माता हंस रही हैं कल अगर उनके ऊपर आफ़त आती है तो वही माता दौड़ेगी "कोरोना माई " के पास मंदिर में । धर्म इस दुर्बलता का दोहन सदियों से कर रहा है इसलिए अंधविश्वास को बढ़ावा दिया जाता है , वैज्ञानिक सोच की हंसी उड़ाई जाती है धंधा चलाए रखने के लिए बाकायदा एक अलिखित नीति के तहत । ** आपाद काल को अवसर में तब्दील करने के लिए लगे हुए हैं ढेर सारे व्यापारी अलग अलग तरीके से ।