उल्टी गिनती
गिन रहा हूं
सबकुछ उलटते पलटते
देख रहा हूं ।
बमों को गेंद
सांप को रस्सी
दुर्ग को मकान कहते
सुन रहा हूं ।
झूठ को सच
सच को झूठ
शासकों को बोलते
सुन रहा हूं ।
निर्दोष को कैद होते
दोषी को माला पहनाते
विफलताओं पर जश्न मनाते
देख सुन रहा हूं ।
ज्ञान को अन्धकार में
मूर्खो को ज्ञान बघारते
ईमानदार को ईमान बेचते
देख रहा हूं ।
सूझ-बूझ को कायरता
बड़बोले को निर्भीकता
बहुरूपता को महानता
कहते सुन रहा हूं ।
धर्म के नाम अधर्म
ग़रीबों से नफ़रत
नेताओं की बादशाहत
देख रहा हूं ।
जीर्ण किन्तु निर्भीक
नाउम्मेद नस्लों में
आखिरी व्यूह ज्ञाता को
ढूंढ रहा हूं ।
उल्टी गिनती
गिन रहा हूं
सब कुछ उलटते पलटते
देख रहा हूं ।
सुभाष चन्द्र गांगुली
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* ' काव्य गंगा ' संकलन' 1998 में प्रकाशित ।
* ' जर्जर कश्ति ' 1999 मे प्रकाशित ।
Written in April,1998. Rewritten on 12/8/2021.