आग नफ़रत की जलते मैंने देखा तो नहीं ।
दरिया प्यार का सूखते मैंने देखा तो नहीं ।।
तन्हा सफ़र में वो ग़ज़ल जो हमदर्द होती है ।
हक़ीक़त में जिंदगी में उसे उतरतेदेखा तो नहीं ।।
मिरी आरज़ू थी कि हर शख़्स बन जाये साथी ।
बेमतलब किसी शख़्स को क़रीब देखा तो नहीं ।।
शरीफ़ो को देखा मैंने शराफ़त से सेंध लगाते ।
बदतमीज़ी बदसलूकीसे सेंध लगाते देखा तो नहीं।।
मुहब्बत में गिला शिकवा आम बात है तो सही ।
शिकवे से मुहब्बत को बिखरते देखा तो नहीं ।।
घर-घर तो क्या आंगन भी बंट चुके हैैं ।
आंगन के उस पार बेख़बर रहते देखा तो नहीं ।।
उन्हें शिक़ायत रहती है ' निर्भीक' के कल़ाम से ।
'निर्भीक' लबों को दरकिनार होते देखा तो नहीं ।।
सुभाष चन्द्र गांगुली
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ग़ज़ल संग्रह"लहरें सागर की ", सम्पादक डॉ हीरालाल नन्दा , जागृति प्रकाशन, मलाड (पश्चिम) मुंबई 15/9/1998 में प्रकाशित ।
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