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Tuesday, July 12, 2022

कहानी : बोधि



सीमा जब तीन साल की थी तभी उसे बनारस में पुश्तैनी मकान में रहने के लिए भेज दिया गया था, वज़ह यह थी कि उसकी मां न तो सास के साथ मिलजुल कर रह पातीं और न ही दो बच्चों को सम्भाल पातीं।
जब वह पंद्रह वर्ष की हुई और नवीं कक्षा में पहुंची तब उसकी दादी का देहान्त हो गया । सीमा अपने पिता के घर पर रहने लगी ।
सीमा को पिता के घर की हरेक बात अजीबो-गरीब लगने लगी । 
दादी ने उसे जो ज्ञान दिया था, जिन मनिषियों के अनमोल वचन, गीता, रामायण और उपनिषदों की बातें याद करायी थी , पिता के घर पर सारी चीजें उसके विपरीत हुआ करती ।
रहन-सहन, ठांट-बांट, दफ़्तर के एक दो लोगों का
देर रात घर पर आकर खुसुर-फुसुर करना आदि से वह समझ चुकी थी कि कहीं कोई गड़बड़ी है।
          एक दिन सीमा को पता चला कि सालभर पहले जिस पुल का उद्घाटन मंत्री ने किया था और जिस काम के लिए तारीफ़ों के पुल बांध दिया था लोगों ने, वह पहली बारिश में बाढ़ से ढह गया था और उसके लिए उसके पिता समेत कुल सात लोगों को सस्पेंड कर दिया गया था फिर थोड़े समय बाद सस्पेंशन ऑर्डर वापस ले लिया गया था । ठेकेदार को ग्रेफ्तार कर जेल भेज दिया गया था । ठेकेदार ने पत्रकारों से कहा था कि जब चालीस प्रतिशत कमीशन देना पड़ता है तो कहां से अव्वल काम होगा । 
सीमा ने जब अपनी मां से इस सम्बंध में पूछा तो उसकी मां ने कहा कि यह एक सामान्य सी बात है । मां ने समझाया कि नीचे से ऊपर तक कमीशन पहुंचाना पड़ता है, उसके पिता कोई ग़लत काम नहीं करते, वे अपने हिस्से की रकम ही लेते हैं, यह ' धरम की ही कमाई' है । 
मां ने आगे बताया -" जमाना बहुत आगे निकल गया है, ग़रीबी से लोगों को घृणा होती है इसलिए सभी ऊपरी कमाई के फेर में रहते हैं , अब तो ये हमारे सिस्टम में है, तुम्हारे पिता तभी नौकरी कर सकेंगे जब वह सिस्टम के साथ रहे, वर्ना मंत्री अफसर उसे ही दोषी बनाकर आउट कर देगा । पुरानी शिक्षा पुराने समय के लिए ठीक थी, उस ज्ञान से आज नहीं चल पाएगी । युग बदल गया है, लगातार बदल रहा है, अब तो हमें आभासी दुनिया में रहने की आदत पड़ गई है जहां झूठ भी सच, ईमानदारी ढकोसला, ये मानकर चलना चाहिए कि "आल इज वेल" ।"
सीमा की उम्र कम, आज की दुनिया से कटी हुई, उसके दिमाग में जो साफ्ट वायर डाल दिया गया उसके अलावा कुछ भी रीसिव करने को तैयार नहीं । 
सीमा खोयी-खोयी सी रहने लगी । उसे अवसाद सा हो गया । दादी ने सीमा को बताया था कि अन्याय का विरोध करना चाहिए। अन्याय सहना भी अन्याय होता है।
जब-जब सीमा की मां कामवाली बाई से कहती " पैसे क्या हराम के आते हैं, जब देखो तब नागा करती हो अब नागा करोगी तो तनख्व़ाह से काट लूंगी "  तब-तब सीमा विरोध जताती -" गरीबों को क्यों सताती हो ? अगर कभी वह नहीं आ पाती तो ख़ुद ही बर्तन मांज लिया करो । "
उसकी मां डांट कर कहती " तुझे क्या फ़र्क पड़ता, जिस दिन तुझे करना पड़ेगा उसदिन समझेगी । "
कामवाली की तबीयत जब कभी बिगड़ी सीमा ने ख़ुद ही बर्तन मांज दिया। उसकी मां ने कभी मना नहीं किया उल्टा कहा - "ठीक है आदत डाल लो, तुम्हारी दादी ने जो सिखाया वही किया करो । -
 सीमा ने गौर किया कि खाने में जो भी अन्नशेष रह जाता उसकी मां कामवाली बाई की थाली में रख देती और अगले दिन बाई से खाने के लिए कहती । अगर कोई ख़ास व्यंजन होता तो वो लोभवश खा लेती, अगर वह कहती कि महक गया तो उसकी मां मिट्टी की हांडी में डाल देने को कहती । 
भिखारी आने पर उसकी मां भिखारी के हाथ कागज या पन्नी थमा देती फिर माटी की हांडी उड़ेल दिया करतीं ।
सीमा ने गौर किया कि कूड़े में फेंकने वाली चीजों को देते समय मां अनावश्यक जोर-जोर से दो-चार बातें ‌‌‌‌‌‌‌‌‌करके लोगों का ध्यान आकृष्ट करती जिससे आस पास के लोगों को पता चले कि वह दयालु औरत है, भिखारी को खाना देती ।
उसे यह भी बुरा लगा कि गरीबों और दलितों को ऊंच-नीच, छूत-अछूत दृष्टि से देखते । सफ़ाई कर्मियों को घर के भीतर घुसने नहीं देती । एकबार सफ़ाई कर्मी को लैट्रिन धोने के लिए 
कहा, साथ ही यह भी कह दिया कि वह नहा धोकर आए । सफ़ाई कर्मी को इतना बुरा लगा कि उसने साफ़ मना कर दिया।
सीमा को मालूम था कि स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि समग्र भारतवासी आपस में सब भाई-भाई हैं, सब का खून एक सा ही है। उसे मालूम था कि स्वामीजी ने कहा था कि दरिद्र नारायण की सेवा ईश्वर की ही सेवा है । दादी ने उसे समझाया था कि ईश्वर किसी भी रूप में आ सकते हैं, भिखारी के रूप में भी आ सकते हैं । 
सीमा मां से इतनी क्षुब्ध थी कि अनेक बार उसने दादी से सुनी साधुवचनों को मां को सुनाया था किन्तु हर बार मां ने प्रत्युत्तर में कहा था कि दादी की बातें अब दकियानूसी हैं, जमाना बदल गया है, देश बदल रहा है, समय के साथ चलो  गरीबों दलितों को सिर पर नहीं चढ़ाया जाता, सिर पर चढ़ाने से वे बराबरी करने लगते हैं ।
एकबार इसी मुद्दे पर बहस करते समय मां ने झोंटी खींच कर कहा था "अभी से बड़ों के मुंह लगती है, यही सिखाया था तेरी दादी ने ?"
उस दिन सीमा दादी दादी रट लगाती हुई खूब रोयी थी।
अगले दिन सुबह जब नाश्ते के लिए बुलाया गया तो उसने कहा कि उसके पेट में दर्द है । मां ने उसे पुदीनहरा पिलाया और आराम करने के लिए कहा । सीमा अपने कमरे में चली गई। उसकी मां नहाने चली गई ।
कमरे में लेटे-लेटे सीमा मां के बारे में सोचती रही।
भिखारियों को दिए जाने वाले अन्नशेष की याद आते ही सीमा के रोंगटे खड़े हो गए । एकबारगी बिस्तर से उठ कर वह जूठे बर्तनों के पास बैठ कर भिखारी के लिए रखा खाना खाने लगी । ठीक उसी समय उसकी मां बाहर निकल आईं और सीमा को उस हाल में देख चीख उठी- " अरे अरे ये क्या कर रही हो, पागल हो गई हो क्या ? "
नफ़रत भरी आंखों से सीमा ने मां को देखा फिर निडर होकर बोली-" मैं देख रही थी कि जो खाना तुम भिखारियों को लेती हो उसे वे लोग कैसे खा लेते हैं ।"
मां आगबबूला होकर बोली -" तुम बीमार पड़ जाओगी, यही उनलोगों के लिए पौष्टिक आहार है, उनके नसीब में यह भी कहां होता है? सभी तो कह देते हैं"आगे बढ़ " , मैं तो कम से कम खाना तो देती हूं ।"
सीमा ने गुस्से से कहा " बड़ा ‌‌‌अहसान करती हो । असहाय गरीबों के साथ जो सुलूक करती हो उसके लिए भगवान तुम्हें माफ़ नहीं करेगा । तुम्हें नरक गमन करना पड़ेगा ।"
कुछ नरम होकर मां बोली -" बेवकूफ़ लड़की बीमार पड़ जाएगी तो कौन देखेगा तुझे ? किसे तकलीफ़ होगी ?"
सीमा ने हाजिर जवाब दिया " क्यो मेरे पापा तो बहुत कमाते हैं, मैं बीमार पड़ जाऊं तो अस्पताल में भर्ती कर दीजियेगा, मेरा इलाज हो जाएगा मगर तुमने कभी सोचा कि जब भिखारी लोग बीमार पड़ेंगे तो उन्हें कौन देखेगा ?"
उसकी बातों से खिन्न होकर मां ने उसे बेरहमी से मारा । सीमा फूट-फूट कर रोती हुई अपने कमरे में चली गई। मां चीखती पुचकारती दरवाज़ा पीटती रह गई किंतु सीमा ने उत्तर नहीं दिया।
    शाम को जब सीमा के पिता घर लौटें तो पत्नी ने सारा किस्सा सुनाया और कहा कि वह दिनभर बिना खाए पिए दरवाज़ा बंद कर भीतर है, खोली नहीं। पिता भावुक हो गए। वह अपने कमरे में कुछ देर बैठे, फिर सीमा के कमरे का दरवाज़ा खटखटाये और बोले-" सीमा मेरी प्यारी बेटी , मेरी गुड़िया रानी दरवाजा खोलो ! बेटी तु्म्हें क्या हो गया है, क्यों ऐसी हरकतें कर रही हो ? क्या तुम्हारे मां बाप जो कुछ कर रहे हैं सब ग़लत है ? खोलो बेटी हमसे बात करो !"
सीमा ने दरवाज़ा खोला फिर रुआंसी होकर बोली " पापा मुझे आपकी ही मां से शिक्षा प्राप्त हुई, दादी ने अपने बेटे और पोती को अलग अलग शिक्षा क्यो दी है ?"
शर्म के मारे पिता का सिर झुक गया । कुछ पल बाद उन्होंने कहा " बेटी वाकई में मैं शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूं, मेरी मां ने मुझे सही शिक्षा दी थी । तुमने मेरी आंखें खोल दी । "
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© सुभाषचंद्र गांगुली
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Written in 1997 
उन्मुक्त - समस्तीपुर
आनंद रेखा - तिलजला, कोलकाता
तरंग - एजी यूपी कार्यालय पत्रिका 1998
कहानी संग्रह ' कहानियाँ  पार्क  की ' 2024 में  संकलित  ।

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