बेटी को रिसीव करने के लिए मैं रेलवे स्टेशन पहुंचा । ट्रेन आने में थोड़ा वक्त बाकी था । ह्वीलर बुक स्टाल पर किताबें देख रहा था कि अचानक एक महिला ने बगल से मेरा बाजू पकड़ा । नाटे कद काठी की, सिर में बिखरे हुए छोटे-छोटे सफेद बाल, धूप में जल कर काली हुई सांवली रंग, गालों पर झुर्रियां, चेहरे पर रुखापन, हाथों पर कुछ सफ़ेद बाल, सफेद मैली धोती, और कन्धे पर लटका हुआ था एक झोला । मैंने झुंझलाकर कहा " कौन हो तुम, हटाओ अपना हाथ ।"
वह बोली -"आप बगीचे वाले दादाजी हैं ना ? "
-"जी मैं वही हूं मगर आप कौन ?"
-" अच्छा अपनी शान्ति बुआ को नहीं पहचानेगा, बहुत बड़ा आदमी बन गया है ना ? "
-- " नहीं, नहीं बुआ हम पहचान गए हैं । सालों, बाद आपको देखा न । जबसे अपना मकान बना और पिता वाला मकान बिक गया तब से बहुत कम आना जाना होता है उधर।आप कैसी हैं बुआ ?"
सन्न मार गई बुआ, आंखें डबडबा आईं । क्षण भर में हंसते चेहरे पर उदासी छा गई । कुछ पल बाद बोली - "तुम्हार फूफा छोड़ कर चले गए तीन साल पहले। अकेले पड़ गए हम । अब हमसे कुछ नहीं होता। सबकुछ खतम ।"
बात करते हुए हम दस कदम आगे बढ़ कर रुक गये जहां ट्रेन का डिब्बा ठहरना था । ये गाड़ी थी बिकानेर एक्सप्रेस, बेटी गौहाटी से आ रही थी ।
शान्ति बुआ को हरद्वार जाना था अपने मोहल्ले के कुछ महिलाओं के साथ । वे सब थोड़ी ही दूर पर बैठे थे ।
गाड़ी आ पहुंची । हाथ में ट्राली बैग, जीन्स-टी-शर्ट पहनी बेटी ने जब उतरकर मेरा चरण स्पर्श किया शान्ति बुआ एकटक देखे जा रही थी, फिर एकबारगी उसे गले से लिपट कर खुशी से रोने लगी। बेटी अनइजी महसूस कर पैर आगे बढायी । मैंने चुपके से एक पांच सौ का नोट शान्ति बुआ के हाथ में ठूंस दिया और कहा - " एक साड़ी खरीद लेना बुआ ।"
मोटरकार में बैठ कर बेटी ने पूछा - " आपसे वह बूढ़ी औरत क्या पूछ रही थी ? आप पहचानते हैं क्या उसे ?"
मैंने कहा -" बहुत जिन्दा दिली औरत थी । मैं जब पुराने मकान के बगीचे में काम किया करता था अक्सर दो मिनट रुक कर फूल पौधे देखती, हाल चाल लेती। पूरे मोहल्ले के लिए वह 'बुआजी' थी । उसका हसबैंड कम्पांउडर था और वो दाई का काम करती थी यानी कि डिलिवरी करवाती थी। "
बेटी बोली -" अच्छा मम्मी कहा करती थी कि मैं घर पर पैदा हुई थी , तो क्या यही दाई थी? "
- " हां यही थी .......अचानक तुम्हारी मम्मी को तकलीफ़ होने लगी थी, मैं अकेला था घर पर, जोशी भाभी बोली अस्पताल में ले जाने का टाइम नहीं है,वह दौड़ कर शान्ति बुआ को घर ले आयी थी । बुआ और फिर जोशी भाभी ने ढांढस बंधाया, मुश्किल से बीस मिनट बाद तुम्हारा जन्म हुआ था । उस औरत को साज श्रृंगार खूब पसंद था । एक से एक रंगीन कपड़े पहनती थी । तुम्हारे जन्म के बाद हमसे साड़ी मांगी थी । तुम्हारी मम्मी ने एक प्रिंटेड साड़ी खरीद लायी थी मगर उसे पसंद नहीं आया । मैंने कहा था " ये तो ठीक है बुआजी, महंगी भी है, आप बुजुर्ग हो रही हैं, ये आपके ऊपर अच्छा लगेगा । कब तक रंग बिरंगी पहनेंगी ? " "
शान्ति बुआ ने तपाक से कहा था " जब तक मेरा हसबैंड रहेगा मैं छमक- छमक, मटक-मटक चलूंगी , तड़क-भड़क पहनुंगी ।"
" आज उसे देख बार बार वही बात याद आ रही थी ।"
© सुभाषचंद्र गांगुली
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22/06/2022
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