चाक चलाते चलाते
उसकी नाज़ुक कलाइयाँ
कब मजबूत हुई
कब उन पर
सफ़ेद बाल उग आए
उसे मालूम नहीं।
उसे मालूम नहीं
उसकी चाक से
कितनी विदेशी मुद्राएँ
देश में आईं ,
उसे मालूम नहीं
उसके शिल्प को
कितने व्यापारी
माटी के मोल खरीदकर
हीरे के मोल बेच दिए।
उसे मालूम नहीं
उसकी रीढ़ की हड्डी
उभरी हुई है,
और पीठ के नीचे
घुट्ने तक का कपड़ा
जो गुप्ताँग़ को
छिपाने के लिए है
वह फटा हुआ है।
उसे मालूम नहीं
कि राष्ट्रपति से
जो मेडल मिला था उसे
उसके शिल्प के लिए
उसकी पत्नी बेच चुकी है उसे
बेटे के इलाज और अंत्येष्टि के लिए।
वह तो है शिल्पी!
शिल्पकला में तन्मय
नहीं मालूम, नहीं मालूम उसे
होता है क्या आय-व्य्य।
उसकी नाज़ुक कलाइयाँ
कब मजबूत हुई
कब उन पर
सफ़ेद बाल उग आए
उसे मालूम नहीं।
उसे मालूम नहीं
उसकी चाक से
कितनी विदेशी मुद्राएँ
देश में आईं ,
उसे मालूम नहीं
उसके शिल्प को
कितने व्यापारी
माटी के मोल खरीदकर
हीरे के मोल बेच दिए।
उसे मालूम नहीं
उसकी रीढ़ की हड्डी
उभरी हुई है,
और पीठ के नीचे
घुट्ने तक का कपड़ा
जो गुप्ताँग़ को
छिपाने के लिए है
वह फटा हुआ है।
उसे मालूम नहीं
कि राष्ट्रपति से
जो मेडल मिला था उसे
उसके शिल्प के लिए
उसकी पत्नी बेच चुकी है उसे
बेटे के इलाज और अंत्येष्टि के लिए।
वह तो है शिल्पी!
शिल्पकला में तन्मय
नहीं मालूम, नहीं मालूम उसे
होता है क्या आय-व्य्य।
© सुभाष चन्द्र गाँगुली
1996
__________________
*1997 में " प्रस्ताव " में प्रकाशित ।
* 1998 में 'मलथस् का क्रोध 'काव्य संकलन में।
* 11/1999 पत्रिका ' अभियान ' में प्रकाशित ।
* 2000 में ' प्रस्ताव ' ने दुबारा लघु आकार पत्रिका में प्रकाशित किया ।
* 2000 में जनवरी--मार्च अंक में सीएजी कार्यालय की पत्रिका ' लेखापरीक्षा प्रकाश ' में प्रकाशित ।
महत्त्वपूर्ण टिप्पणी :--
" परिश्रम तुल्य पारिश्रमिक न मिलने से उत्पन्न विपन्नता को ढकने के लिए राष्ट्रहित के लिए कार्य करने के लिए मिला उच्च सम्मान भी सुरक्षित नहीं रह पाता और बचपन में बुढ़ापे को कब वरण किया पता ही नहीं चलता अपने काम की तन्मयता में । विपन्नता से घिरी शिल्पी के हुनर और श्रम का लाभ उसे न देकर धनपति अपनी तिजोरी भरते हैं । इसी विरोधाभासी कसक को शब्दबद्ध किया है समाजवादी चिंतक श्री सुभाषचन्द्र गांगुली ' निर्भीक' ने अपनी कविता ' शिल्पी ' में । सारगर्भित रचना के लिए साधुवाद ।" * आत्माराम फोन्दणी 'कमल' , सम्पादक- लेखापरीक्षा प्रकाश
*" सुभाष गांगुली ( शिल्पी ) ने विशेष प्रभावित किया। शिल्पी तो बेहद मार्मिक रचना है । जो वर्ग अपने श्रम व कुशलता से इस समाज के लिए एशो-आराम के साधन जुटाता है, वही सबसे अधिक उपेक्षित है। " ---- कृष्ण मनु, सम्पादक, स्वातिपथ, अभियान वर्ष --12 अंक- 2 में प्रकाशित ।
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