पता नहीं क्यों
मन कहीं अटक गया है
जहां अटकने की बात नहीं थी
वहीं अटका हुआ है मेरा मन
जहां विरक्ति जन्म ने की बात थी
वहीं आसक्त हुआ है मेरा मन
जितना खोजता उपाय गांठ छुड़ाने का
उतनी ही कसती जाती है गांठ
जोंक जैसे चिपक गई है गांठ
सुना था ऐसा कुछ नहीं है
जिसे असाध्य कहा जाए
सुना था मन पर नियंत्रण रखा जा सकता है
किंतु गोधूलि बेला की इस क्षण में देखता हूं
शरीर का बन्धन छुडाया जा सकता है
मन का बन्धन छुड़ाना नामुमकिन है
मन जहां अटक गया है
वहीं अटका रहेगा..........
रहे न रहे
अतृप्त का सुख अलग ही सुख है
भाषा मैं नहीं समझाया जा सकता ।
© सुभाष चंद्र गाँगुली
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)
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मूल : बांग्ला
अनुवाद : अनिल अनवर, सम्पादक
मरु गुलशन, जोधपुर
" मधुमति " , "मरु गुलशन" में प्रकाशित ।
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