(1)
कंपकंपाती ठंड में
वह अकेली, एकांत में,
धान कूटती ।
धान कूटती,
तन्हाइयां ठेलती
मन ही मन गुनगुनाती
काम में लीन रहती ।
धान कूटती, सिहरती, ठहरती
मां बनने के दिन गिनती ।
प्रकृति की विशालता,
नीरवता की सुंदरता,
मादक कवि को छू लेता ;
अपने अल्हडपन को
सुर, ताल, लय में
अनजान प्रच्छन्न पीड़ा के,
गाते हैं गीत कवि रोमांस के ।
(2)
झुलसती तपती मरुभूमि पे
चार चार घड़े माथे पे
वह लाती है जल
मीलों पैदल चल
और उसके माथे का बोझ
उसके तालों को करता बेताल
छंद और सुर को बेकाबू ।
नारी वेदना से अनजान
नारी देह से आकृष्ट होकर
सौंदर्य ढूंढ लेता है कलाकार
वक्षो को विस्तृत आकार देता
अनियंत्रित तालों को नियंत्रित करता,
हमेशा के लिए स्थिर कर देता ।
और उधर
भरी गगरिया छलकती छलकती
बदन भिगोती आधी भरी घर पहुंचती ।
सुभाष चंद्र गांगुली
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28/ 7/ 2021
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