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Saturday, April 30, 2022

मजबूरी



अचानक टेलीफोन से एक अद्भुत आवाज निकली। मेरा ध्यान उधर गया।  कुछ देर बाद दुबारा उसी तरह की आवाज हुई--अस्पष्ट घिसी- घिसी खटकने वाली।  मैंने रिसीवर उठाया और इससे पहले कि है "हैलो" बोल पाता दो लोगों का वार्तालाप सुनाई दिया। कौतूहल हुआ क्या माज़रा है ? इसके पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ, कहीं किसी और का कॉल मेरे बिल पर तो नहीं चढ़ रहा है ? इस बीच दो पक्षों के संवाद से मैं आकृष्ट हो चुका था। कई बार अपना रिसीवर रखा, कई बार उसे उठाकर "हैलो"" "हैलो!" कहा किन्तु न तो मेरा फोन डिसकनेक्ट हुआ और न ही किसी ने जवाब दिया । फोन तभी डिसकनेक्ट हुआ जब जाकर उधर की बातचीत खत्म हुई। हालांकि उन बातों को सुनने में काफ़ी व्यतिरेक हुआ  था मगर जो कुछ सुना था उसमें कुछेक शब्द जोड़कर उन लोगों के घर का किस्सा सुना रहा हूँ--

" दिनेश बोल रहा हूँ. इलाहाबाद से....."

--" क्या बात है ? क्यों फोन किया? ..... "

--" जरा दीपा से बात करा दीजिये ! "

--" दीपा तुम लोगों से कोई बात नहीं करेगी।"

--" प्लीज ! वह हमारी सगी बहन है। कहा न बात नहीं करेगी, कोई खास बात हो तो हमसे बोलो। "

 --" भला अपने घरवालों से वह क्यों बात नहीं करेगी । "

-- " लड़कियाँ किसी और की अमानत हुआ करती है । जब तक वह तुम्हारे बाप के घर थी वह उस घर की थी ,अब वह इस घर की है, यही उसका असली घर है, यहीं से उसकी अर्थी उठेगी और मेरा ही कुलरक्षक मुखाग्नि देगा।"

--" बाबू जी आपके पैर पड़ता हूँ प्लीज बुला दीजिए ना, बस एक मिनट के लिए...."

--" सुनो ! अपना एक स्टेटस है, स्टेटस का अर्थ समझते हो ? हमें स्टेटस का ख्याल रखना पड़ता है, अचुआ-पचुआ से रिश्ता नहीं रखा जाता, रिश्ता बराबरी में रखा जाता है....अब तो तुम्हारे बाप भी नहीं रहे. जब तक वह जीवित रहे तब तक थोड़ा बहुत व्यवहार रख लेते थे, खींच-खांच के चल जाता था.....तब से अब में बहुत अंतर आ गया है। तुम तो ठहरे निखट्टू. एकदम सड़कछाप, व्यवहार रखने के लिए औकात की ज़रूरत रहती है.....सुन रहे हो ना मेरी बातें ?"

--" जी ।"

--" सुनो! अपने पैसे से बहु को भेजूँ, अपने पैसे से उसे वापस बुलाऊँ और जब वह लौटे तो खाली हाथ ? यह कैसा व्यवहार है ? पिछली मर्तवा तो तुम लोगों ने एक पैकेट मिठाई तक नहीं भेजी थी, दरिद्र, फटीचर, कंगाल कहीं के । नाक कटवा देते हो, सगी बहन कहते हुए शर्म नहीं आती ?.... इतनी ही प्रीत है बहन से तो उसके मान-सम्मान का ख्याल रखा करो, तुम लोगों को रिश्तेदार बताते हुए अपना कद छोटा हो जाता है...और तुम्हारे बाप तो वायदे पे वायदा करते रहे मगर वह धूर्त चल बसा ।"

--" बाबू जी! दीपा से कहिएगा मैने रक्षाबंधन का आशीर्वाद दिया है, अच्छा मैं....

-- " आशीर्वाद ?....तुम क्या दोगे आशीर्वाद ? अरे मूर्ख तेरे पास है ही । क्या देने के लिए?....तू क्या भगवान है जो सिर्फ़ आशीर्वाद देकर काम चलाएगा ? अरे भगवान आशीर्वाद देता है तो धन बरसता है...तू क्या बरसायेगा ?"

--"अच्छा रखता हूँ.....

--" ले बात कर, आ गयी है तेरी प्यारी बहना।"

--" हैलो ! हैलो ! "

--" कौन? भइया ! "

--" हाँ, मैं... ' राखी ' मिल गई है मेरे पास तुझे देने के लिए कुछ भी नहीं है रे, फूटी किस्मत लेकर जन्मा हूँ क्या करूँ। अपने अभागे भाई का आशीर्वाद ही ले ले।....

--" कैसी हो ? घर में सब लोग कैसे हैं? तेरा राजा बेटा "मम्मी" बोलने लगा होगा.. है ना ? तेरे दूल्हे मियाँ का मिजाज ठीक है ना ?"

--" हाँ भइया, हम सब यहाँ ठीक हैं....सब कुशल है....बहुत आराम है. यहाँ किसी चीज की कमी नहीं है, मुँह से निकलते ही सब कुछ हाजिर....बाबू जी ने मुन्ने को सोने का हार दिया है । माँजी ने पायल दिया है, उसकी खीरचटाई बड़ी धूम-धाम से मनायी गयी, सात-आठ सौ लोग आये थे........."

--" तू चिट्ठी क्यों नहीं लिखती ? चिट्ठी तो लिख सकती है, तू तो जैसे हम सबों को भूल गई है, चंपा की शादी में.....

--" हाँ, हाँ यहाँ सब ठीक-ठाक है, तुम्हारा बहनोई अभी लौटा नहीं है. में टी० वी० में फिल्म देख रही थी.............

--" चम्पा की शादी में तुम लोग.....

--" माँ जी मंदिर गई हुई है। आज उनका जन्मदिन है, बाबू ढेर सारी मिठाइयाँ ले आये थे...

--" क्या बकती है?....मैं रखता हूँ...मम्मी से बात करेगी ? "

--" हाँ दे जल्दी जल्दी दे, अभी-अभी बाबूजी निकल गये है, बाहरकोई आया है।

(ससुर की उपस्थिति में दीपा दिल खोलकर बात नहीं कर पा रही थी। वह अनावश्यक अपने ससुराल की तारीफ़ किए जा रही थी)

--" हाँ, बेटी, बोल! तू ठीक है ना ?"

--" हाँ माँ ! ठीक हूँ. मैं ठीक हूँ बिल्कुल ठीक हूँ तुम मेरी फिकर न करना, अपना हालचाल सुनाओ, चंपा की शादी की तैयारी चल रही है ना?"

--" हमने कार्ड भेजा, चिट्ठी पे चिट्ठी भेजी कोई जवाब नहीं दिया तुमने....चम्पा की शादी में आओगी ना ? "

--" पता नहीं....भेजें तो.....

--" प्रार्थना है ! "

--" माँ!! तुम यह क्या कह रही हो ? भला मैं क्यों न आना चाहूँ ?"

--" जमाई बेटे से मेरी ओर से प्रार्थना करना....वह नहीं आना चाहता क्या ? अब तो तुम्हारे पिता भी नहीं रहे......खैर, रखूँ? "

--" माँ!! अभी न छोड़ो !! बाबूजी घर के बाहर निकल गए हैं, इस समय घर में मैं अकेली हूँ । "

--" चंम्पा को मात्र पाँच तोला सेना दे पा रही हूँ.... देने के लिए अब मेरे पास बचा ही क्या है ? तेरे ससुर की फरमाइशें पूरी करने के लिए एक एक गहना बेचती रही, जमा राशि निकालती रही... सोचा था तेरे पिता धीरे-धीरे सब कुछ जुटा लेंगे, चम्पा की शादी तक कुछ धन इकट्ठा हो जायेगा मगर ऊपरवाले ने मुझे ऐसी मुसीबत में डाल दिया कि क्या बताऊँ.....और दिनेश भी कितना अभागा है....एम० ए०बीएड किया किन्तु एक अच्छी नौकरी नहीं जुटा पाया, जहाँ काम करता है वहाँ से उसे मात्र आठ सौ रुपये मिलते हैं, क्या होता है आठ सौ में ? उसकी बीबी है बच्चे भी हैं....

--" भईया ने तो उस बार कहा था सरकार उसके स्कूल को बहुत जल्ब अनुदान सूची में लेने वाली है, मान्यता प्राप्त स्कूल है, पिछड़ी जाति के बच्चों को वजीफा दी जाती है, अब पूरी तख्खाह़ भी मिलने लगेगी। "

--" पाँच साल से यही सुनती आ रही हूँ । वजीफ़ा बाँटा गया है दिसंबर से तनख्वा मिलेगी, फिर दिसंबर में कहेगा जुलाई से फिर दिसंबर से यही सब। लोग कहते हैं बेसिक शिक्षा अधिकारी भगवान का दफ्तर है भगवान मालिक है, सब कुछ अधर में लटका रहता है एक-एक टीचर के लिए एक एक लाख मांग रहा है, मैनेजर कहता है सब एक-एक लाख दो तो बी.एस.ए. से करवा लेगा ।"

--" एक-एक लाख ! प्राइमरी स्कूल की नौकरी के लिए ?

--" पता नहीं क्या सच है? ये मैनेजर लोग भी कम हैं क्या? वजीफ़ा से खुद रईस बन जाते है सब काम फर्जी। बहुत घोटाला है। गरीब जन्मता है मार खाने के लिए खैर! जिसके भाग्य में जो है.....

--"चम्पा की तकदीर फूटी निकली...तेरी जैसी......

-" नहीं माँ, मैं खुश मेरे पास तो सब कुछ है, तुम जितना कर सकती थी. तुमने किया है, मेरे सुख की खातिर चम्पा के लिए कुछ न रहा...मुझे सुकून है तुम्हारा दामाद भला आदमी है, वह मुझे खुश रखता है, तुम लोगों की तकलीफ़ को समझता है. चंपा की शादी के लिए मदद करना चाहता है मगर क्या बताऊँ.....चम्पा का होने वाला क्या करता है ?"

--" क्या बताऊँ। चंपा पढ़ी-लिखी है. बी० टी० सी० भी किया है, नौकरी तो मिलनी ही है किन्तु हमने कुछ दिया नहीं तो हमें मनपसंद घर-घर-वर मिला भी नहीं...लड़का कचहरी में कैजुअल लेबर है आगे चलकर चपरासी बनने की उम्मीद है , खूबसूरत पढ़ी-लिखी लड़की, बाप मरते ही अभागिन हो गई (कुछ पल रोने की आवाज होती रही थी 'माँ... माँ ! ")

--" माँ ! क्या कहूँ आपके दामाद के नाम न तो दुकान है, न ही यह मकान, सास- ससुर के कहने पर हम दोनों को उठना बैठना पड़ता है...मैं मजबूर हूँ। मैं आना चाहती हूँ. मदद करना चाहती हूँ, मगर मेरी मजबूरी.....मेरी मजबूरी है मां ।"

--" बेटी तुम्हारे पिता अब नहीं रहे, हम अपनी मजबूरी और लाचारी कैसे समझायें, वह रहते तो....तुम नहीं आओगी तो लोग तरह-तरह की बातें करेंगे, हम किस-किस को जवाब देंगे ?....तुम चाहोगी तो दामाद ना नहीं करेगा, तुम इतनी सुखी हो तो क्या दामाद तुम्हें इन्कार कर सकता है, वह तुम्हारी बात कैसे काटेगा ?"

--"माँ ! तुम्हारी परिस्थिति और दुःखों को मैं समझ रही हूँ पर मेरी जो मजबूरी है उसे तुम नहीं समझ रही हो वर्ना तुम अपनी बेटी से प्रार्थना नहीं करती और न ही वैसी बातें करती जिससे मुझे लगता कि मैं परायी हो गयी हूँ....मेरी मजबूरी है माँ, मजबूरी है, मैं अपने घर में नहीं, कारावास में हूँ।"

दीपा जोरों से रोने लगी और फिर किसने रिसीवर रखा समझ में नहीं आया। मेरा अनुमान है कि दीपा की माँ ने ही रखा था।

दीपा के क्रन्दन ने मेरे शरीर में सिहरन और मन में हलचल पैदा कर दी थी, मैंने अत्यन्त भावुक होकर दीपा की कहानी दीपा की जुबानी लिखी ताकि दीपा जैसी बेटियों को अगर सचमुच अपना जीवन कारावास लगता हो और अगर वे स्वाभिमान से जीना चाहती हैं तो वे कानूनी सलाह ले लें या मानवाधिकार संगठन या किसी नारी संगठन से सम्पर्क करें, अपने को असहाय और मजबूर मान कर पिंजड़े में कैद न रहें।


-सुभाष चंद्र गागुली
* " उत्तरा, नैनीताल से प्रकाशित पत्रिका में 1998 में ।
*(कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ से, प्रथम संस्करण: 2002)



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