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Friday, March 3, 2023

डूबता सूरज



           एक दिन कार्यालय का एक कर्मचारी पर्दा हटाकर ' में आई कम इन ?' कह कर सहसा कमरे में दाखिल हुआ। मैंने दीवार की ओर रखी विजिटर्स कुर्सियों की ओर संकेत देकर बैठने को कहा , फिर पूछा - 'बोलिए !'
उसने कहा -' सर यह जानना था कि आपको मेरे पिताजी की चिट्ठी मिल गई है या नहीं ?'
-' किस सम्बन्ध में ? फंड या पेंशन ?'
- ' यह सब नहीं सर, कुछ और होगा। मेरे पिताजी आपको या आपके पिताजी को जानते रहें होंगे ।'
- 'अच्छा बोलिए काम क्या है ?'
-'सर मेरे पिताजी का देहान्त हो गया है। कानपुर में बहन के ससुराल में तीन साल से थे। उन्होंने कभी आपके नाम एक पत्र लिखा था । पिताजी ने जब बिस्तर पकड़ लिया था, बहन के हाथ वह पत्र लगा , पिताजी से पूछने पर उन्होंने कहा कि वे पोस्ट करना भूल गए थे, वह बहुत जरूरी लेटर है, उसके बाद पिताजी ने बहन को याद भी दिलाया था किन्तु लिफ़ाफ़े पर आपका नाम, पदनाम, कार्यालय का अधूरा पता था । बहन ने मुझसे आपके घर का पता मांगा था, मैंने कलेक्ट कर भेज दिया था । लगभग एक महीना हो गया है। बहन ने मुझसे  पता करने को कहा कि आपको पत्र मिल गया है या नहीं ।'
- ' नहीं । कोई लेटर नहीं मिला। नाऊ यू में गो। '
                बड़ा अचरज लगा कि उसके पिताजी को कौन सा जरूरी काम था! किस वज़ह से पत्र लिखे होंगे। ऐसा क्या कि बेटे को भी मालूम नहीं था। वह बोला , चला गया, बाद ख़त्म।
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               महीनों बाद दीपावली से पूर्व घर की सफ़ई चल रही थी, मैं अपनी पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों  को अरेंज कर रहा था, तभी मेरे हाथ एक लिफ़ाफ़ा लगा जिसे खोला ही नहीं गया था। पत्र बांग्ला में था जिसका  अनुवाद --' महाशय, आपका रजिस्टर्ड लिफ़ाफ़ा मिल गया था। फ़ॉर्म जमा करने के तीन महीने बाद मुझे पेमेंट भी मिल गया था। आपका आभार। आप खूब उन्नति करें, सुखी रहें। एक पिता का आशीर्वाद ग्रहण करिएगा। पत्र का उत्तर देने की जरूरत नहीं।'
पत्र में न नाम और न ही ठिकाना था।
बड़ी हैरानी हुई। कुछ समझ में नहीं आया। तरह- तरह के कयास लगाने लगा। शायद इसी पत्र की जानकारी लेने आया था वह कर्मचारी । बहुत माथापच्ची के बाद याद आ गया एक वाक़या ।
उन दिनों मैं अस्वस्थ था । इलाज चल रहा था। रीढ़ की हड्डी का एक्सरे कराने सुबह-सुबह मैं 'कमला नेहरू अस्पताल ' पहुंचा था । कुछ लोग मेरे आने से पहले से ही डटे हुए थे। आठ बजे से काम शुरू होने वाला था। 
जिन्हें आठ नम्बर मिला था वे क़रीब अस्सी वर्ष के बुजुर्ग थे, स्मार्ट, आकर्षक। मेरे पास आकर बैठ गए। वे थोड़ी-थोड़ी देर बाद एक्सरे क्लिनिक में झांकते या फिर अस्पताल के कार्यालय में जाते, फिर वापस आकर अपनी जगह बैठ जाते। 
उनकी बेचैनी देख मैंने उनसे कहा -' चार नम्बर चल रहा है, अभी देर है। आप चाहें तो मेरे टर्न पर चले जाइएगा । मुझे सात नम्बर का टोकन मिला है। '
अब वे थोड़े इत्मिनान से मुझसे बात करने लगे।
' आप कहां के बंगाली हैं ? पूर्व बंगाल या पश्चिम बंगाल के ? 
- 'पता नहीं कहां का। मैं इलाहाबादी हूं। जन्म, शिक्षा, नौकरी सब यहीं।'
-' बांग्ला समझते हैं ? प्रवासी बंगाली तो बांग्ला से दूर हो गये हैं।'
-' जी। बांग्ला जानता हूं। अच्छी तरह। बांग्ला साहित्य भी खूब पढ़ा। किन्तु मैं पक्का इलाहाबादी हूं । हिन्दी जुबान पर पहले आती है मातृ भाषा की तरह।'
-'देश विभाजन के बारे में जानते हैं?' 
'-थोड़ा बहुत।'
-' मैं पूर्वी बंगाल का हूं। ' बांगाल' कहते हैं लोग।चट्टोग्राम का नाम तो जानते ही होंगे। वहीं का हूं। पार्टिशन के समय आया था रिफ्यूजी बन कर। ....... कठिन समय था । बहुत बड़ी आफ़त थी। चारों ओर लूटपाट आगजनी ।  अभूतपूर्व भगदड़ मची थी। हम पागलों की तरह दौड़ रहे थे घर दुआर छोड़ कर, कहां जा रहे थे पता न था, रास्ते में लोग छूट रहे थे, मर रहे थे। 
चट्टोग्राम, फरितपुर,बरिशाल,नोआखालि सब जल रहा था। गांधी जी बार बार शांति की अपील कर रहे थे, अब इतना उन्माद फैल चुका था कि उन्हें कोई सुनने वाला नहीं था। गांधी नोआखली में अनशन पर बैठ गए थे।
 पन्द्रह-सोलह लाख लोग मर गए थे। दो-ढाई करोड़ लोग  बेघर हो गए थे। शरणार्थियों को जगह-जगह स्थापित किया गया था, रिफ्यूजी कॉलोनियां बनाईं गई, लोगों को सरकारी नौकरियों  में रखा गया, गैर सरकारी नौकरियां भी मिलीं। फिर भी अनेक लोग संघर्षरत रहें, आज भी विस्थापित होने का दर्द झेल रहे हैं। '
-' छोड़िए जो होना था हो गया। अतीत लेकर पड़े रहने से कोई आगे नहीं बढ़ सकता।'
क्लिनिक से एक आदमी बाहर आकर बोला- 'टोकन नंबर सिक्स।'
अचानक वह बृद्ध उठ खड़े हुए। 
मैंने उनसे कहा - 'अभी नहीं। इसके बाद चले जाइएगा।'
मुझे अनसुनी कर वह आगे बढ़ गयें । नंबर बोलने वाला भीतर जा चुका था, तब भी वह बृद्ध भीतर झांक कर तुरन्त निकल आयें, फिर अस्पताल के भीतर झांककर लौट आएं ।
 बड़े गुस्से से बोलें -' एक तो लोग टाइम से नहीं आते फ़िर कुछ पूछो तो सीधे मुंह बात नहीं करते । मदद करना दूर उल्टे परेशान करते। लाटसाहेब हैं सब लाटसाहेब हैं। क्या दिन आ गए.... हमारे समय तो.....'
-' क्या हुआ कोई ख़ास प्रॉब्लम?'
उन्होंने जोश में कहा - ' हमारे समय कितना डिसिप्लिन था, लोग पंचुअल और रिस्पांसिबल थै। अब कौन किससे कहेगा, किस मुंह से कहेगा, वे भी तो उसी रंग में रंग गए हैं।' 
मैने बात काट कर कहा- 'ऐसी बात नहीं है, दो चार प्रतिशत हो सकते हैं किन्तु अधिकतर लोग हाथ पर हाथ धरे रहते हैं, डिमाक्रेसी जो है , चले न जायेंगे बाबू लोग किसी नेता को बुलाने, माइनारिटी कमीशन,एस सी एस टी कमीशन,किसी न किसी को शिकायत कर देंगे, कम्यूनल, कास्ट कोई चार्ज लगा देंगे, टोटल सिस्टम फेल।'
उनके अनर्गल प्रलाप से ऊब कर मैंने उनसे कहा-'अभी आपका नम्बर आएगा, शांति से बैठिए यहां। मैं भी सिस्टम का पुर्जा हूं, इसी सिस्टम में रहकर काम करना और काम करवाना पड़ता है, आपका कोई काम हो तो बताइए।'
-' में पेंशनर हूं, थोड़ी सी पेंशन मिलती है उसी मे से कुछ खर्च कर मेडिकल टेस्ट कराया, रुपया पाने के लिए मेडिकल क्लेम करना पड़ेगा मेडिकल क्लेम के लिए फार्म चाहिए जिसके लिए दर-दर भटक रहा हूं। '
--' यहां नहीं मिलेगा, सीजीएच डिस्पेंसरी में मिलेगा, वैसे मेरे कार्यालय में भी मिलता है।'
-'आप किस कार्यालय में हैं?'
-' आडिट आफिस में '
- 'वहीं तो मेरा बेटा है '।
-' क्या नाम है उसका ?'
ख़ामोश हो गये थे थोड़ी देर के लिए। फिर एक रुपए का सिक्का मेरे हाथ में रख कर बोलें-'मै अपने घर का पता लिख देता हूं, लिफ़ाफ़े में फ़ार्म भर कर कांइडलि भेज दीजिएगा।'
हालांकि मैं उनके चेहरे से जान गया था कि उनके साथ उनके बेटे का सम्बन्ध स्वाभाविक नहीं था फिर भी मेरे मुंह से अनचाहे ही निकल गया  ' आपके बेटे का नाम बताइए मैं उसे दे दूंगा।'
उनका चेहरा तमतमा उठा। कानों की बगल की नसें केंचुए जैसे चलने लगें।
 वे बोलें - 'तो फिर मैं आपसे क्यों कहता ? आप अगर भेज सकते तो बताइए मैं घर का पता लिख दूंगा।'
-' प्लीज़ नाराज़ न होइए, घर का पता लिख दीजिए, मैं भेज दूंगा ।'
अपने जेब से नोटबुक निकाल कर पता लिखकर कागज़ का टुकड़ा मुझे दे दिया और एक रुपए सिक्के को मेरे जेब में डाल दिया। सिक्के को मैं लौटाना चाहता था किन्तु उनकी हालत देख मैंने चुप रहना उचित समझा।
इतने में एक्सरे क्लिनिक से वही सहायक निकल कर जोर से बोला -' सात नम्बर ! सात नम्बर !'
मैंने उनसे कहा - ' आप जाइए! '
वह उठ खड़े हुए,चार कदम आगे चलकर फिर पलट कर देखा, आंखों की कोर हल्की गिली थी किन्तु चेहरे पर गम भरी मुस्कान, मेरे निकट आकर से बोलें -' डूबते सूरज को कौन पूजता ?'

 © सुभाषचंद्र गांगुली 
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* Published in October -December issue 1996 'दस्तक ' बहादुरगढ़, हरियाणा, सम्पादक - सूरत सिंह
* Re-written 29/2/2023--3/3/2023