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Friday, July 30, 2021

कविता- जल विवाद

सुखिया किसान सुखी है
खेत है खलियान है
बैलगाड़ी, ट्रैक्टर भी है
और  है  एक  कुआं
यह  है  वही   कुआं
जो  बन  गया  था
राष्ट्रीय राजनीतिक  मुद्दा । 
कुएं से जल खूब मिलता
स्वच्छ जल सदा मिलता ।

‌पडोसी दुखिया दुःखी है
सबकुछ  है  तो  सही
कुएं में जल प्रर्याप्त नहीं
परिवार के सभी दूर दूर से
लाते हैं जल बड़ी मेहनत से
फसल अक्सर सूख जाता
बच्चे बूढ़े गन्दे रहते
कदाचित नाले में ही नहा लेते ।

दुखिया ने बिनती की,
दुआएं दी,मिन्नतें की, 
थोड़े से जल के लिए
बैठे रहे सुखिया ऐंठ के ।
पंचों ने  कहा 
दुखिया को जल दो !
सुखिया ने कहा
साले को मरने दो।
माना नहीं किसी का कहा।
तब दुखिया की पत्नी
आमरण अनशन बैठी
मौत या पानी !

गांव गांव खबर फैलती गई
धीरे धीरे भीड़ उमड़ती गई
नेता लोग झांकने लगे
अनशन में साथ देने लगें
सरकार से वे गुहार लगाने लगे
दो लोगों की कमेटी बनवा लिए
आदेश हुआ  जल देने का
अनशन भंग करने का ।

ड्रामा अभी खत्म हुआ नहीं
सुखिया  चुप  बैठा  नहीं
पैसा फेंक चाहा तमाशा देखना
शुरू हुआ उसका पक्षधर बनना, 
फिर सुखिया बैठा अनशन पर
तुल गया वह आदेश रद्द कराने पर,
कमेटी  बैठी  हल  ढूंढने
किसी तरह सुखिया को मनाने । 
सुखिया जिद्द पर अड़े रहे
उनके समर्थक चढ़े रहे ।

जमीन से पाताल तक
और जमीन से आसमान तक, 
जो कुछ है, है उसी का,
सुखिया ने कहा ।
स्थगन  आदेश  हुआ
अनशन  खत्म  हुआ
पागलपन थम सा गया ।

कमेटी के सुझाव पर
बोरिंग चला महीना भर
बहुत गहरा सुखिया का कुआं
तभी पानी मिलता रहा
कम गहरा दुखिया का
तभी  पानी जाता रहा ।
तीन जजों की अदालत ने
दोनों पक्षों को महीनों सुना
फैसला मगर नहीं सुनाया
फैसला अपना रिजर्व रखा ।

रह रह कर दोनों भिड़त रहे
एक दूसरे को तंग करते रहे
खेत खलियान जलाते रहे
नये नये केस बनाते रहे
अदालत में तारीखें लगती रही
वकीलें पैसे ऐंठते रहें
निर्णय रिजर्व रखा रहा
जनहित में रिजर्व रखा रहा
ख़ामोश अदालत चलती रही ।

नेताओं को मौके मिलते रहे
गुंडों के दबदबे बढ़ते रहे
अफसर चिंतित होते रहे । 
अंत फिर कुछ ऐसा हुआ
' निर्भीक ' ने एक सुझाव दिया
पंचों ने जिसे पारित  किया
बनवा लें सुखिया दीवार,
जमीन के नीचे पाताल तक
और उपर आसमान तक 
जो कुछ मिले वह ले जाए ।

सुखिया को बात समझ में आई
बोले 'क्षमा करो दुखिया भाई
खत्म करें झगड़ा लड़ाई,
बच्चे क्यो नहाते नाले में
आओ मिलकर खाना खाये
एक ही थाली में ।'
जल विवाद खत्म हुआ
दोनों में समझौता हुआ ।
निर्णय फिर भी रिजर्व रहा
जनहित में रिजर्व रखा रहा ।

सुभाष चन्द्र गांगुली
___________________
4/3/1998

कविता- मुद्दे



सावधान !!
मुद्दों की तादाद बढ़ रही है,
तेज रफ्तार से बढ़ रही है ।
चिंताशील जीवों की तादाद से
मुद्दों की तादाद 
दस गुनी हो चुकी है ।
सभागार, डिनर टेबुलों को त्यागकर,
मुद्दे सड़कों पर 
गलियों, नुक्कड़ों में
खेत, खलियान, चौपालों में
पहुंच चुके हैं ।
तेल में, रेल में, साफ्टवेयर में
दवा में,आक्सीजन में,
चुप्पी में, बोलने में,
खाने में, नहाने में, आंसू बहाने में,
सर्वत्र मुद्दे ही मुद्दे ।
मुद्दे हवाओं में बह रहे हैं
सपनों में तैर रहे हैं
भटकाये जाते है ध्यान मुद्दो से
दफना दिए जाते हैं मुद्दे /किन्तु
बार बार जीवित हो उठते हैं वे।
जिन्दगी के लिए,
लोकतंत्र के लिए
जरुरी है मुद्दों का रहना
किन्तु सत्यानाश से बचने के लिए
ज़रूरी है मुद्दों पर लगाम लगाना ।


सुभाष चन्द्र गांगुली
_____________________
30/7/2021

Thursday, July 29, 2021

कविता- कलाकार की कृति


               (1)
कंपकंपाती  ठंड  में
वह अकेली,  एकांत में,
धान  कूटती ।
धान  कूटती,
तन्हाइयां ठेलती
मन ही मन गुनगुनाती
काम में लीन रहती ।
धान कूटती, सिहरती, ठहरती
मां बनने के दिन गिनती ।
प्रकृति की विशालता,
नीरवता की सुंदरता,
मादक कवि को छू लेता ;
अपने अल्हडपन को
सुर, ताल, लय में
अनजान प्रच्छन्न पीड़ा के,
गाते हैं गीत कवि रोमांस के ।

             (2)

झुलसती तपती मरुभूमि पे
चार चार घड़े माथे पे
वह लाती है जल
मीलों पैदल चल
और उसके माथे का बोझ
उसके तालों को करता बेताल
छंद और सुर को बेकाबू । 

नारी वेदना से अनजान
नारी देह से आकृष्ट होकर
सौंदर्य ढूंढ लेता है कलाकार
वक्षो को विस्तृत आकार देता
अनियंत्रित तालों को नियंत्रित करता,
हमेशा के लिए स्थिर कर देता ।

और उधर
भरी गगरिया छलकती छलकती
बदन भिगोती आधी भरी घर पहुंचती ।


सुभाष चंद्र गांगुली
___________________
28/ 7/ 2021

Wednesday, July 28, 2021

कहानी- नौकर



कल रात से तपन दास लापता हैं। तपन दास की ढुँढ़वाई हो रही है। लोगों ने पूरा शहर छान मारा, सारे परिचितों से पूछताछ की, मगर जब सारा प्रयास व्यर्थ हो गया तो आशा के बेटों ने स्थानीय नेता को खबर दी जिनके प्रभाव से पुलिस इस समय बेहद मुस्तैदी दिखा रही है। कोतवाली से जिले की सभी चौकियों को वायरलेस द्वारा सूचित कर दिया गया है, लाउडस्पीकर से शहर की गली-गली में एलान किया जा रहा है। आकाशवाणी और दूरदर्शन से विज्ञापन देने की तैयारी की जा रही है। मगर सभी हैरत में हैं कि तपन दास आशा के घर या कारोबार का कोई सामान लेकर क्यों नहीं गए। सबको इस बात पर भी हैरत है कि तपन दास 'आशा स्पन पाइप फैक्ट्री' के कर्णधार थे मगर उनके मूल निवास की जानकारी आशा को और उसकी कंपनी के किसी और को क्यों नहीं है।

आशा सिर्फ इतनी जानकारी दे सकी कि जब उसकी नई-नई शादी हुई थी, वह कल्याणी देवी मंदिर में माँ का दर्शन कर मोटरकार पर बैठी ही थी कि बीस-बाईस साल का एक लड़का हाथ बढ़ाकर भीख माँगने लगा था। जब उसके पति रवि राय गाड़ी का दरवाजा खोलकर मोटरकार पर बैठे तब उस लड़के ने उनके सामने हाथ फैलाया तो रवि राय ने क्रुद्ध होकर कहा था-" 'तुम्हें भीख माँगते शर्म नहीं आती? सेहत से ठीक-ठाक हो, चेहरे से खाते-पीते घर के लगते हो, फिर क्यों हाथ फैलाते हो? इन हाथों से मेहनत-मजूरी करो।'

लड़के ने प्रत्युत्तर में कहा था-"साहब! मैं इंटर पास हूँ। मेरे पिताजी मेघालय में नौकरी करते थे। भूचाल में सब कुछ तहस-नहस हो गया था, परिवार में मेरे सिवा कोई बचा नहीं, अब तो मेरे पास यह भी साबित करने को नहीं है कि मैं पढ़ा-लिखा हूँ, अनजान होने के नाते मुझे चाय तक की दुकानों में काम नहीं मिलता। लेबर चौराहों पर मौजूद सारे मजूरों को वैसे ही रोजाना काम नहीं मिल पाता और चूंकि मैं अजनबी हूँ, सब लोग मुझे धकिया देते हैं।'

उसकी बातों से आशा इतनी मर्माहत हुई थी कि उसने अपने पति से उसके लिए दो रोटी का जुगाड़ कर देने का अनुरोध किया था। रवि राय उसे अपने साथ ले गए थे और गाँव में स्थित 'आशा स्पन पाइप फैक्ट्री' में मजदूर की हैसियत से उसे रख लिया था । फिर आगे चलकर वह टाइम कीपर और कुछ समय बाद अकाउंटेंट बना दिया गया था। धीरे-धीरे उन्होंने तमाम जिम्मेदारियाँ उसे सौंप दी थीं। अपनी कर्तव्य-परायणता और लगन के कारण तपन दास, रवि राय के खास आदमी बन गए थे ।

आज 'आशा शापिंग कांप्लेक्स' का उद्घाटन होना था तपन दास ने मुझे न्यौता दिया था। तपन दास ने मुझे जानकारी दी थी कि भव्य समारोह का आयोजन किया गया है, शहर की जानी-मानी हस्तियों और धन्ना सेठों के आने की बात है। समारोह में सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा लगभग एक हजार लोगों के डिनर की व्यवस्था की गई है। तपन दास बेहद उत्साहित थे और हों भी क्यों न, आखिर उन्हें बेहद प्रसन्नता जो थी कि रवि राय की अनुपस्थिति में उन्होंने बड़ी भारी जिम्मेदारी बखूबी निभाई है।

करीब दस वर्ष पहले रवि राय की हत्या हो गई थी। उसकी हत्या क्यों की गई थी, किसने की थी, कुछ पता नहीं चल पाया था। मगर आशा को यकीन है कि सारी अशांति की जड़ थी चुनाव में रवि राय का टिकट पाना। जब एक राजनीतिक दल ने रवि राय को टिकट दिया था तब आशा ने कहा था- ' अजी आप जैसन हैं, वैसनइ ठीक हैं। इ चुनाव-उनाव न लड़ें, का फाइदा ? कौनो कमी तो नैना। भगवान तो खूब दिएन हैं।' 

रवि राय ने कहा था--'जनता की सेवा करने का मौका मिलेगा। हम सरकार से पैसा ले पाएँगे, स्कूल खोलेंगे, अस्पताल खोलेंगे।'

आशा सहमत नहीं हो पाई थी। वह रूठकर बोली थी- 'आप कैसे करिहैं, सरकार चाह लेई तो कमवा ऐसनइ होत रही, आपके बिना कमवा होत की नाहीं। उसब पचड़े में आप न पडै , फालूत बवालै होई, दुश्मनी बनी । दस का भला करे के चक्कर मा दस से दुश्मनी होई । रहै दें। मोटर, बंगला, रुपिया-पइसा और का चाही दुई बेटवा खातिर बहुत है, बिटिया का बिया आराम से होय जाई।'

रवि राय ने हँसकर कहा था--' अरे सब कुछ है तो सही पर तुम्हें क्या मिला? देखना, चुनाव जीतकर मैं मंत्री बन जाऊँगा, धीरे-धीरे मुख्यमंत्री बन जाऊँगा फिर मैं दिल्ली की राजनीति में चला जाऊँगा और मुख्यमंत्री वाली कुर्सी पर तुम्हें बिठा दूँगा, तुम रानी बन जाओगी। सचमुच की रानी ।'

आशा की आशंका सही निकली थी। चुनाव के ठीक एक पखवारे पहले जब रवि राय अपने गाँव की फैक्ट्री से लौट रहे थे, बीच रास्ते में अचानक चार-चार मोटरकारों ने उन्हें रोक लिया था और उन्हें गाड़ी से उतारकर गोलियों से भून डाला था। संदेह आधार पर कइयों को गिरफ्तार किया गया था मगर सबूत के अभाव में सभी रिहा हो गए थे। आज तक उनकी मौत रहस्य बनी हुई है मगर आशा को ऐतबार है कि उनके प्रतिद्वंद्वी ने, जिसने बाद में जीत हासिल की थी, हत्या करवाई थी।

रवि राय की मृत्यु बाद आशा के परिवार और कारोबार के मामले में दखलंदाजी करने आशा के ससुराल व मायके के कई लोग कूद पड़े। दोनों पक्ष वास्तविक हितैषी होने का दावा पेश करने और दोनों एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने लगे। आशा की खामोशी की वजह से घर में घोर अशांति छा गई और उधर फैक्ट्री में कामकाज की ढिलाई व प्रबंधकों की मनमानी तथा लूट के चलते फैक्ट्री में लाकआउट की नौबत आ गई।

अंततः आशा ने तपन दास को बुलवा भेजा और फैक्ट्री तथा उसकी गृहस्थी के देख-रेख का जिम्मा उसे सौंप दिया। तपन दास ने अवाक् होकर कहा था- ' बीबीजी! इतनी बड़ी जिम्मेदारी आप हमें क्यों सौंप रही हैं ? फैक्ट्री में जनरल मैनेजर हैं, काफी सीनियर हैं, ढेर पढ़े-लिखे हैं, सरकारी आफिस के बड़े पद से रिटायर हुए हैं, और भी कई काबिल व अनुभवी लोग हैं, आप उन्हें दे सकती हैं, मैं ठहरा सामान्य आदमी, अनुभव भी कम है।'

आशा ने कहा था-'तपन जी ! हमार मनई आपका मानत रहे, हर गोपन काम आपै को देत रहें एही से हम आपै का देना चाहित हैं, आपे पे हमार भरोसा है ।'

तपन दास ने विवश होकर कहा था-'बीबी जी ! मैं वकील बुला देता हूँ. आप उन्हें कागजात दिखा दीजिए। फैक्ट्री, मकान सब कुछ आपके नाम से हो जाना चाहिए, मैं नहीं चाहता कि कोई मुझ पर किसी तरह का इलजाम लगाए। बाकी काम-काज मुझसे जितना संभव है, मैं देख लूँगा ।'

आशा ने राहत की साँस ली और कहा--'जइसा आप उचित समझें, वइसा करें। हमका कुछौ नहीं मालूम। कागज-पत्तिर जौन धरा है ऊ अलमरिया मा है ऊ सब हम आपका दै देब.... उनका मिहनत व्यर्थ न जाए, हमार बच्चन का भविष्यत हम आपैका देईथी, आपुन समझ के देख लैं । '

आशा सुबकने लगी थी तपन दास की आँखें भी नम हो गई थीं। वे कुछ भी न कह सके थे आगे ।

तब से पूरे बारह वर्ष बीत गए, तपन दास ने सब कुछ अपना समझकर संभाला। आशा के बेटे अब अट्टारह, सोलह और बेटी दस साल की हो गई है। तपन दास ने उन सब की पढ़ाई-लिखाई का पूरा ध्यान रखा था सबके लिए प्राइवेट ट्यूटर रखा। बच्चों के रेजल्ट अच्छे हेते गए। तपन दास की प्लैनिंग के मुताबिक एक बेटे के नाम आशा स्पन पाइप फैक्ट्री' और दूसरे के नाम आशा शॉपिंग कांप्लेक्स' होना है। 

स्पन पाइप का काम जोर-शोर से चल रहा है। प्रचुर आमदनी होती है। उसी की कमाई का पैसा जोड़कर तपन दास ने विराट मार्केट तैयार करवाया। मार्केट को तैयार करने में छह करोड़ रुपए खर्च हुए। तीन साल में यह बनकर तैयार हुआ। तपन दास ने मार्केट में बयालिस कमरों का निर्माण करवाया तथा एक छोर पर एक 'आराम गृह' भी तैयार करवायाहै। सारी दुकानें किराए पर उठ गई हैं। बयालीस साइन बोर्ड भी टंग गए हैं। उद्घाटन समारोह के बाद दुकानदारी की शुरुआत होनी है।

'आशा स्पन पाइप फैक्ट्री के कैंपस के एक कमरे में तपन दास का अपना निवास है। अपने लिए वह उतनी ही तनख्वाह लेता है जितनी वह अकाउंटेंट के पद पर कार्यरत रहने से प्राप्त करता। वही पुराने जनरल मैनेजर आज भी अपने पद पर बने हुए हैं। महीने में एक-दो बार तपन दास आशा से मिलकर हालचाल पूछ लेते और धंधे का हिसाब-किताब समझाते। घूँघट डालकर आशा तखत के एक कोने बैठे उन्हें सुनती, फिर कहती--' का हमका इसब समझावत हैं, हम तो आपै पर सब छोड़ दिए हैं, हमका कुछ समझ मा नहीं आवत है, आपै पे भरोसा है....इ लड़कन बच्चन का आप अपना समझकर खियाल करिहैं। इ उनकर भाग्य है....ऊपरवाला आपका भला करी।'

एक बार, मात्र एक बार आशा ने कुछ हटकर बातकी थी-'तपन जी ! आप शादी-बिया कर लें, कब तलक अकेले रहैं... बुढ़ापे में के देखी?' तपन दास कुछ बोल न सके थे, अत्यंत भावुक होकर कुछ देर तकवहीं बैठे रह गए थे।

थोड़े दिन पहले तपन दासने मुझसे घर का पता लिया था. और उद्घाटन समारोह में हाजिर होने का वादा करवा लिया था। चूँकि व्यस्तता के कारण मेरे लिए जाना संभव नहीं था इस कारण कल रात बधाई देने की मंशा से आराम गृह' में फोन किया। पता चला कि तपन दास आशा के घर गए हुए हैं। मैंने आशा के घर पर फोन मिलाया।

'हैलो! एक लड़के की आवाज । '  मिस्टर तपन दास से बात करनी है।'

'आँ...हाँ....नहीं, आप ऊपर फोन कर बात कर लीजिए, फिर से फोन मिलाइए।' 'ऊपर? ऊपर कहाँ ? किस नंबर पर?' 'मैं फोन रख रहा हूँ, आप
फिर से फोन मिला लीजिए.....ठीक है? मैं रख रहा हूँ, ठीक है?' 'क्या ठीक है, ठीक है, कर रहे हो। आप उनसे कह दो ना ऊपर फोन उठा लें, आप नीचे रख दो।' मैंने गुस्सा झाड़ा।

'जी...वह ऊपर चढ़ रहे हैं, कई सीढ़ी चढ़ चुके हैं, आप फिर से...' उसने चोंगा रख दिया। मैंने दुबारा फोन मिलाया। काफी देर बाद फिर लड़के ने कहा- 'हैलो!'

'मिस्टर तपन दास से बात करनी है।'

'होल्ड कीजिए।'

मैंने बहुत देर होल्ड किया हुआ था फिर उधर से एक लड़के की आवाज आई-"हैलो! आप कौन हैं?'

'मैं...तुम नहीं पहचान पाओगे। मिस्टर तपन दास से बात कराओ।"

। 'कौन तपन दास?' उसने चीत्कार किया।

'तपन दास-वही, जो आशा स्पन पाइप और आशा शॉपिंग कांप्लेक्स के मालिक हैं। मेरे मुख से अनायास मालिक शब्द निकल गया।

'मालिक? मैं रवि राय का बड़ा बेटा छबि राय बोल रहा हूँ....तपन दास अपने यहाँ नौकर हैं नौकर.... आपको क्या उसी ने बताया है कि वह मालिक है? खैर, काम बताइए .....'

आगे कुछ भी कहने का मेरा मन नहीं चाहा। मैंने रिसीवर रख दिया। पता चला मुझसे बात करने के बाद छवि राय अपनी माँ पर बरस पड़ा था और जवाब-तलब करने लगा था--'बताइए! आज उसकी यह हिम्मत कि वह खुद को हमारे कारोबार का मालिक कहता है। कार्ड में अपना नाम छपाएगा, नाम के नीचे व्यवस्थापक लिखाएगा तो लोग समझेंगे ही....हम सब क्या मर गए थे? आपके नाम से भी तो कार्ड दिया जा सकता था।"

'तू लोग भी बच्चा हो और हमका के जानत, उन्हेई से सबका चीन्ह पहचान है। एही से आपुन नाम दिए हैं। एमा गलत का भवा?" आशा ने सहज-सरल ढंग से किन्तु अचरज से उत्तर दिया। किन्तु छवि अधिक उत्तेजित हो गया माँ ! अब हम बच्चे नहीं हैं, मैं तो हूँ ही नहीं? मुझे वोट देने का अधिकार मिल चुका है, मैं रवि राय का बेटा हूँ, मुझे हर कोई जानता है....एक सड़क छाप आदमी को आपने जरूरत से ज्यादा चढ़ा रखा है, नौकर के संग नौकर सा सलूक करना चाहिए, आपने उसे पनाह क्या दी, उसने सोने और ऐश करने की व्यवस्था कर ली, आज उसकी यह हिम्मत कि वह हमारे घर के मामले में दखल देता है....आप ही के कारण, आप जिम्मेदार हैं।'

उसकी बातों से आशा स्तंभित हो गई। आहत भी हुई। खुद को संभालकर उसने कहा--'उनकर बारे में भला-बुरा कहै में तोका शरम आए चाही। तोहर बाबू जब हमका छोड़ गइन, तब हम एकदमै बेसहारा होय गइलीं, ऊ हमका सहारा दिएन, तू लोगन का खियाल रखिन उन्हई का खातिर सब ठीक-ठाक चलत है... तू लोगन का खातिर ऊ शादी बिया नहीं किएन और तू आज उल्टा-सीधा जौन मुख पे आवत है वही कह देत....हे भगवान !छवि राय का क्रोध उफान पर उठा-'आपका दरद ऊ मनई खातिर कुछ ज्यादा ही है, कौन लगता है ऊ आपका? क्या संबंध है उससे? क्यों इतनी हमदर्दी है उससे ?"

और फिर आशा अपना सुध-बुध खो बैठी और रोते-रोते बेटे को मारने लगी।

सीढ़ी के बीचो-बीच खड़े तपन दास माँ-बेटे की कहासुनी अवाक होकर सुन चुके थे। अचानक ऊपर कमरे के भीतर घुसकर उन्होंने आशा का हाथ पकड़ लिया और कहा- 'बीबीजी! यह क्या कर रही हैं... आपका बेटा अब बड़ा हो गया है, लायक हो गया है. हमारी ही भूल थी जो हम उसे नादान समझ बैठे थे....अब इस घर को मेरी जरूरत नहीं है।'

फिर धीरे-धीरे वे सीढ़ी से नीचे उतर गए। फाटक से बाहर निकलते-निकलते उन्होंने एकबारगी पीछे मुड़कर ऊपर देखा और कहा- येशू आप सबका भला करें!' बारजे में खड़े-खड़े आशा चीख उठी- तपन जी! तपन जी! रुक जाएँ. रुक जाएँ... कहाँ जैहें? कहाँ रहें ?......

मगर डग बढ़ाते हुए तपन दास बोले-'बीबी जी! मैं येशू से आपके लिए दुआएँ माँगूंगा।'

सुभाष चन्द्र गांगुली
Written in 1993
Revised Rewritten in 1999
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* ' जनसत्ता सबरंग '-- 26/11/2000 मे
प्रकाशित ।
* पत्रिका ' जनप्रिय ज्योति', सम्पदक, उषा अग्रवाल, मोरादाबाद के मार्च- मई 1999 में प्रकाशित ।
* बांग्ला अनुवाद 'चाकर' बांग्ला पत्रिका' पदक्षेप, में तथा बांग्ला संग्रह ' शेषेर लाइन' अक्टूबर 2003 में प्रकाशित ।

कहानी- कुबेर

        
                         
दोपहर से छिटपुट बारिश हो रही थी । शाम होते होते बारिश तेज हो गई । बादल फटने के साथ-साथ बिजली गुम हो गई । कुर्सी से उठकर मैंने खिड़की का पल्ला खोला। मूसलाधार बारिश होने लगी थी। मुझे चिंता होने लगी एक डेढ़ घंटे की तेज बारिश से मेरे मोहल्ले में वाटर लॉगिंग हो जाती है । पानी की स्थिति जानने के लिए थोड़ी-थोड़ी देर पर मैं घर पर फोन करने लगा । मैंने जब चौथी बार फोन किया तो मेरे बेटे ने जवाब दिया 'क्यों फिजूल में परेशान कर रहे हैं ? मालूम तो है कितनी देर में कितना पानी इकट्ठा होता है । यह कहकर उसने फोन काट दिया । उसने बड़ी बेरहमी से फोन रखा । मुझे सॉरी तक बोलने का अवसर नहीं दिया ।

देखते-देखते अंधकार छा गया, पूरा दफ़्तर खाली हो गया । केयरटेकर ने मुझे कमरा खाली करने को कहा।  मैं उठ गया । अभी भी बारिश तेज थी । मेरे पास बरसाती नहीं थी । पानी में भीगने से मेरी रीढ़ की हड्डी दर्द करने लगी है फिर भी मजबूरन मुझे निकलना पड़ा क्योंकि मेरे मन में वाटर लॉगिंग का भूत सवार था । मात्र दो मिनट में मैं पानी से तर हो गया। मेरे इलाके में पानी लग चुका था। स्कूटर के पहिए पानी में डूब गए। जोखिम उठाते हुए बचते बचाते जैसे-तैसे घर पहुँचा। देर तक हॉर्न बजाया। बूढ़ी माँ ने फाटक खोला।  गाड़ी बंद करते ही मैं घनघोर अंधेरे में फँस गया । किसी ने दीया तक नहीं जलाया था। ड्राइंग रूम से ठहाके की आवाज आयी । साहबजादा यार दोस्तों के साथ गपशप में मशगूल था । गलियारे से भीतर प्रवेश करते ही लाडली बेटी पूछती 'डी. डी. एल. .जे. का कैसेट लाये हैं ?' मैं निरुत्तर । दीवारों के सहारे मैं आहिस्ता-आहिस्ता सीढ़ी पर चढ़ने लगा । मेरी बेटी पीछे से दौड़ती हुई सीढ़ी पर चढ़ने लगी । मैंने कहा- 'आहिस्ता आहिस्ता गिर जाओगी । ऊपर पहुँछकर मैंने कहा 'जरा मोमबत्ती जला देना।' 'एक मिनट अनुराधा का फोन है ।' 'उससे फिर बात कर लेना, मैंने कहा।  उसने झुंझलाकर उत्तर दिया- 'एक मिनट, गम खाइए ना। अनुराधा मेरी बेटी के साथ पढ़ती है, उसके पिता टेलीफोन डिपार्टमेंट में काम करते हैं अनुराधा प्रायः रोज ही फोन करती, घंटों बातें करती है, दीवार के सहारे मैं बाथरूम पहुँचा । कमीज और बनियान उतारी फिर एक झाडू उठाकर छत पर चला गया । मुझे छत का पानी निकालना था। चार साल पहले जब नया कमरा बना था जमीन नहीं बन पायी थी। पानी इकट्ठा हो जाता है । पानी निकालने के लिए काफ़ी मेहनत करनी पड़ती है । पिछले चार साल से परेशानी झेलता चला आ रहा हूँ । कमर में प्रॉबलम के मारे झुकना मना है, झुकता हूँ क्या करूँ ? न तो मेरा कहा कोई मानता और ना ही मेरे मुँह पर इन्कार करता है । छत की जमीन बनवाने के लिए पाँच सात हजार की जरूरत है जिसे मैं जुटा नहीं पाया था । काटपीट के बाद जो तनख़्वाह हाथ में आती उससे तीन दिन का खर्चा ही मुश्किल से चलता है । मुझसे कम वेतन पाने वाले लोगों की कुतुबमीनार जैसी ऊँची उठती इमारतों और उन लोगों की ठाट बाट देख मेरे घर वाले मुझे बेवकूफ़ समझते हैं। उनका ख़्याल है कि मेरे दकियानूसी विचारों के कारण उन्हें तकलीफ़ होती है । उनका स्पष्ट विचार है कि मुझे भी दो नंबरी कमाई करनी चाहिए । आये दिन वे ताने उलाहने देते हैं--'बस नाम भर के आफिसर हैं आप! जब भी किसी चीज की फ़रमाइश करो तो कहते हैं अगले महीने में।'

काफ़ी मेहनत के बाद छत का पानी निकाल दिया। अब मेरी कमर टूट चुकी थी । थक के एक कोने बैठ गया । मुझे खुली छत नंगे बदन देखकर सामने वाले मकान से एक लड़के ने कहा--"अंकल जी! ठंड लग जायेगी ।' मन में सोचा अच्छा बेटा इमेज बना रहे हो । उधर तुम्हारा बाप दिनभर खटता रहता है, मैंने फिर भी कहा, 'हाँ जा रहा हूँ । थैंक यू । मैं भीतर जाने लगा तो बिजली चमक उठी, इसी बीच पत्नी की आवाज़ सुनाई पड़ी । बड़े अच्छे मूड में गाना गा रही थी । 'माने ना पायलिया शोर करे।' शायद पड़ोसन के घर गई थी गाना गाते-गाते अचानक चुप हो गई फिर बिजली सी कौंधती हुई आयी और बोली, 'अरे ! आप कब आये ? चाय बनाऊँ या थोड़ी देर में?' मैंने कहा 'बनाओ । ठंड लग रही है । उसने कहा 'मैं गर्म कर दूँगी....अभी चाय लाती हूँ ।' आँचल लहराती हुई वही गीत गाती हुई वह नीचे उतर गई । मेरे शरीर में ठंड ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया । मुझे छींके आने लगीं । मुझे गीले कपड़े बदलने थे । मेरी बेटी अब टी. वी. देख रही थी, मैंने गला खंखारा, उसने देखा तक नहीं, आदेश देकर उसका मूड ऑफ करना उचित नहीं समझा । मैंने खुद अपना कपड़ा ढूँढ लिया ।

कपड़ा बदल तख़त पर बैठा ही था कि पत्नी चाय ले आयी । चाय थमाकर वह भी टी. वी. देखने में व्यस्त हो गयी । टी. वी. देखते-देखते वह अपनी मौजूदगी का एहसास कराने लगती--'आज अच्छी बारिश हुई है...कौन-कौन सी तरकारी लाये? सब्जी ताजी है ना...पिंटू को न्यू पोर्ट की जींस कब दिलवायेंगे ? उसे मोटरसायकिल कब दिलवायेंगे ? पिंटू आपसे ख़फ़ा है, दफ़्तर से एडवांस क्यों नहीं लेते ?.... अगले महीने के बजट में मेरी साड़ी है ना ? मालूम है न हम-दोनों का मैरिज डे है ? '  चित्रहार, खत्म होते ही बेटी उठकर अपने कमरे में चली गयी । पत्नी ने टी. वी. बन्द कर दिया । कमरे से बाहर निकलते निकलते पत्नी ने कहा 'कल पिक्चर जाना है, दो सौ रुपए दे दीजिएगा । मेरी इच्छा हुई कि थोड़ी देर के लिए हिटलर बन जाऊँ, हर एक चीज तहस-नहस कर दूँ मगर किसी तरह खुद को काबू में रखा ।

मेरे दिल की धड़कनें तेज ही गई थीं, सिर की नसें फरफरा रही थीं, पैर काँप रहे थे, कमर ऐंठ रही थी ब्लड प्रेशर की दवाईयाँ ले लीं, नींद की गोली भी ले ली फिर निढाल गंदे बिस्तर पर लेट गया । मेरी बूढ़ी माँ सीढ़ी चढ़ हाँफती हुई कमरे आ सिरहाने बैठी, मेरे सिर पर हाथ फेरती हुई बोली-- 'तबियत ख़राब है क्या ?' मैं आँख चुराना चाहता था, मैंने लाइट बुझा दी फिर कहा-- 'थकान महसूस कर रहा हूँ, आज आफिस में ज्यादा काम था....मैंने नींद की गोली ले ली है, सोना चाहता हूँ । बहू से कहना वह खाना खा ले, मुझे डिस्टर्ब ना करे.... मैं खाना नहीं खाऊँगा, इच्छा नहीं है... माँ! मुझे नींद आ रही है । माँ चली गई ।

अगले दिन सुबह आठ बजे टेलीफोन की आवाज से मेरी नींद खुली । मैं हाँफ रहा था, पसीने से तर था । मैंने एक सपना देखा, एक भयानक सपना । मैंने देखा एक विराट, पर्वत के शिखर पर एक विकट राक्षस खड़ा था । उस राक्षस के सिर पर एक स्वर्ण मुकुट था । पर्वत के चारों ओर छोटे-छोटे पहाड़नुमा टीले थे, नोटों के टीले। एक टीले के ऊपर मेरी बेटी टेलीफोन थामे बैठी थी । मैंने आवाज लगायी....बेटी सुनो !' उसने चीत्कार किया- 'एक मिनट। अनुराधा का फोन है ।' एक बेशकीमती साड़ी पहन, आँचल लहराती पर्वत के चारों ओर नाचती झूमती मेरी पत्नी गाना गा रही थी और उसका गीत 'माने ना पायलिया शोर करे आसमान से टकराकर मेरे कानों पर प्रहार कर रहा था । मेरा लाडला बेटा उस विराट पर्वत के बीचो बीच फँसा था जिस पर वह राक्षस खड़ा था । वह राक्षस मेरे बेटे से कह रहा था--'आ, आ, ऊपर चढ़ जा... मुकुट ले ले....मैं कुबेर हूँ मेरा मुकुट ले ले...तू जींस और मोटरसायकिल के लिए हाय हाय कर रहा है ? तू मेरा मुकुट ले ले, तुझे दुनिया का सारा सुख मिल जाएगा.... आ आ ।'

मेरे बेटे की निगाहें कंगूरे पर टिकी थीं, उसका पैर बार बार फिसल रहा था । मेरी निगाहें ज्यों ही उसके धूल सने पैर और खून रिसते घुटनों पर पड़ीं मैंने आर्तनाद किया--पिंटू! पिंटू मत चढ़, मत चढ़ बेटा, लौट आ. यह यमदूत है, तू उसके चक्कर में मत पड़ । थोड़े में खुश रहना सीख, संतोष धन सबसे बड़ा धन है ।' पिंटू ने पीछे पलट कर देखा और कहा "पापा! आप कायर हैं, बुद्ध हैं, धन के बगैर दुनिया में सुख नहीं मिलता...अपना पेट तो कुत्ते के पिल्ले भी पाल लेते हैं....खाक आप आफिसर है, धिक्कार है.... मुझे स्वर्ण मुकुट लेना है, किसी भी कीमत पर लेना है चाहे मेरी जान ही क्यों ना चली जाए ।'

उसने अपनी यात्रा जारी रखी। जब वह स्वर्ण मुकुट के बहुत करीब था, चारों ओर हो हल्ला होने लगा, "पकड़ो", "पकड़ो", "मारो", "मारो", गोलाबारी होने लगी, भयभीत हो कर पिंटू गिर पड़ा, वह एक वृक्ष पर अटक गया । उसे उस हाल देख राक्षस ने अट्टहास किया और हुंकार कर बोला-- अरे मूर्ख तूने मेरी जीवनी नहीं पढ़ी ? मैं कुबेर हूँ.... हा...हा: ......हा..... ।' मैं दौड़ रहा था मैं अपने बेटे को किसी कीमत पर खोना नहीं चाहता था, मैं अपने बेटे को वापस पाना चाहता था। 

सुभाष चन्द्र गांगुली
__1993 Revised in 1996
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*अखबार ' हिन्दुस्तान ' दिनांक 2/12/1998 में प्रकाशित ।
*पत्रिका ' जनवचन ' अक्टूबर-- दिसम्बर 2000
*पत्रिका ' अंचल भारती' देवरिया अंक 74 अगस्त 1998 में प्रकाशित ।
* कार्यालय पत्रिका ' तरंग ' 12/1999
*'समय संवाद' 1999 
*बांग्ला अनुवाद  ' झिलमिल' पत्रिका, सम्पादक बाबुल भट्टचार्या, इलाहाबाद  1999
* बांग्ला अनुवाद ' शेषेर लाइन ' कहानी संग्रह 10/2003 में प्रकाशित ।

Saturday, July 24, 2021

कहानी- झील



चचेरी बहन की शादी में मैं इलाहाबाद से कलकत्ता पहुँचा। शादी वाले घर में बहुत से मेहमान आये हुए थे। काफी चहल-पहल थी। एक लड़की घर मेहमानों की आवभगत में लगी थी। प्रथम दृष्टि में ही वह जिज्ञासु बना गयी। फिर तो मैंने कभी पानी के बहाने तो कभी चाय के बहाने उससे ही उसके बारे में और अधिक जानना चाहा। उन्हीं क्षणों में थोड़ी देर के लिए हम दोनों में बातचीत भी हुई-"क्या नाम है आपका?"

'अनुराधा"

"वाह! कितना सुंदर नाम है।"

"नाम में क्या धरा है। वैसे आपकी तारीफ़? मेरा मतलब क्या करते हैं आप?

"पिताश्री के भोजनालय में खाता हूँ।"

"क्या क्वालिफिकेशन है आपकी ?”

"पढ़ा-लिखा हूँ। नौकरी की तलाश में हूँ। कमबख़्त बेरोजगारी की प्रॉब्लम ने जीना दूभर कर रखा है। इस मामले में सरकार गंभीर नहीं ।"

"सरकार को क्यों दोष दे रहे हैं? आप क्या सरकार के दामाद हैं?....आजकल के लड़के आरामप्रिय, सुस्त हैं, मेहनत नहीं करते, बात बात पर सरकार को कोसते हैं।"

"आप ही कोई तरक़ीब सुझाइए।"

"तरक़ीब सुझाने की नहीं होती... मेरे घर के सामने तापस दा रहते हैं, अपाहिज हैं, किन्तु बेकार नहीं हैं। किसी के भरोसे नहीं हैं....जाने-माने साहित्यकार हैं।"

'अपाहिज हैं!!...उनकी कई कहानियाँ मैंने पढ़ी हैं। बहुत अच्छा लिखते हैं। मगर वे अपाहिज हैं मुझे पता न था!....क्या उनसे आप मिलवा सकती हैं !!"

"ठीक है, कोशिश करूँगी ।"

शादी हो गयी! बहन की विदाई हो गयी। पिछली रात अनुराधा की माँ अपने पति के साथ घर लौट गयी। अनुराधा जब अटैची लेकर अपने घर जाने लगी तो मैं उसके पीछे हो लिया। थोड़ी दूरी के बाद उसके क़रीब जाकर बोला-" तापस दा से नहीं मिलाओगी?" उसने मुझे घूरकर देखा।

मैं निडर होकर बोला-"कोई गलती हो गयी क्या? मुझे भी कविता, कहानी लिखने का शौक है।"

उसने पैर आगे बढ़ा दिए। मैं भी आगे बढ़ा और कान के पास जाकर बोला-" सुनिए मैडम ! मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हूँ अभी एडहॉक हूँ, अँगरेजी पढ़ाता हूँ दो-दो साहित्य से एम. ए. हूँ. रिसर्च कमप्लीट होने को है। "

अनुराधा ने कहा-"क्या?...तो पहले झूठ क्यों बोल रहे थे?" मैंने कहा-"सच बोलने की जरूरत कहाँ थी? कोई गवाही तो नहीं दे रहा था कि जो कुछ कहता सच कहता, सच के सिवा कुछ न कहता।"

'चलिए', कहकर अनुराधा खिलखिलाकर हँस दी।

टैक्सी में अगल-बगल बैठकर हम दोनों रवाना हुए। रास्ते में ढेर सारी बातें हुईं। अनुराधा के घर के मोड़ पर गाड़ी रुकी। अपने घर के पास पहुँचकर वह बोली-“यही है तापस दा का घर, मिल लीजिए.... हाँ, मेरा हवाला न दीजिएगा। थोड़ी देर बाद चले आइएगा... तब तक आपकी चर्चा माँ से करती हूँ।"

"मेरी चर्चा ?"

"क्यों नहीं? आपसे मिलकर मेरे माता-पिता प्रसन्न होंगे... जल्दी आइएगा, मैं राह देखूँगी।"

" 'अच्छा।"

....आई विल वेट फॉर यू।"

तापस दा के घर की सिकड़ी हिलायी। अवाज़ आयी-"आसछी, आसछी।" (आ रही हूँ) दरवाजा खुलते ही मैंने अपने समक्ष पचास वर्षीया महिला को पाया। सिर के बाल पुरुष कट किन्तु बेतरतीब ढंग से कटे हुए थे। मटमैली-सी धोती पहनी हुई थी। चेहरे पर इतनी सिलवटें जैसे दुनिया का सारा बोझ अकेली ढो रही हो। अपनी बनारस यात्रा के दौरान मैंने ऐसी सैकड़ों विधवाओं को देखा था। झुंड-के-झुंड घाट पर नहाने जाती थीं। फिर वे मंदिर में प्रवचन सुनतीं। वे उसे काशीवास कहतीं। काशीवास को बंगाली विधवाओं के लिए कालापानी माना जाता था। बंगाली समाज में कमोबेश आज भी विधवाओं की स्थिति वैसी ही है जैसी पचास वर्ष पहले थी। भले ही उन्हें कालापानी में न भेजा जाता तो। समाज में रहते हुए भी समाज से निष्कासित रहती हैं। उसे इतने सारे सुखों से वंचित कर दिया जाता है, इतनी सारी पाबंदी उस पर लगा दी जाती हैं कि वह खुद को अभिशप्त समझने को विवश हो जाती है। अंदर-बाहर से इतना भीतरघात होता है कि वह खुद को अस्पृश्य, अछूत समझने लगती है। जो नारी मेरे सम्मुख खड़ी थी वह भी एकदम वैसी ही थी।

उन्होंने पूछा-"काके चाई? तापस के ?" (किससे मिलना चाहते हो? तापस से?)

"जी हाँ।" 

"भेतोरे एसो।" (अंदर आओ) कहकर वह दीवार से चिपककर खड़ी हो गयीं। दो फिट चौड़ी गली। मैं अंदर जाने लगा तो वह गौर करने लगी कि कहीं छू न जाऊँ। अगर उन्हें मैं छू लेता तो उन्हें अपने कपड़े बदलने पड़ते।

मैं भीतर पहुँचा। छोटा-सा कमरा । किताबों से लदी दो काठ की अलमारियाँ । काग़ज़ कापी, अखबार बिखरे हुए। मसनद पर टेक लगाए तख़त पर बैठे हुए मिले तापस दा । तनदुरुस्त, खूबसूरत, घुँघराले बाल, गोरा बदन, किन्तु बायाँ पैर और बायें हाथ की अंगुलियाँ मुड़ी हुई उम्र छब्बीस-सत्ताइस वर्ष । कुल मिलाकर तापस दा का व्यक्तित्व आकर्षक। अपना परिचय देकर मैं बैठ गया। बातचीत शुरू हुई।

पता चला तापस दा को बचपन में पोलियो हो गया था। उसी के कारण वह आंशिक रूप से अपंग हो गये थे। बाल्यावस्था में उनके पिता चल बसे थे। पिता की मृत्यु के बाद भुखमरी की स्थिति आ गयी थी। उनकी माँ पढ़ी-लिखी नहीं थीं। रात-रात जागकर सिलाई-कढ़ाई करती थी। तापस दा ने कहा-"जब आर्थिक संकट आता है रिश्ते टूटने लगते हैं। सभी मुँह फेर लेते हैं। चाचा, मामा, ताऊ सभी इस पोजिशन में थे कि अपने-अपने तालाब से एक-एक लोटा भी पानी निकाल देते तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता, किन्तु किसी ने इस अभागिन की ख़बर तक नहीं ली; उलटा सभी ने कहा, दुरात्मा है, पति को खा गयी है। इसकी छाया से भी अनिष्ट होगा....। जब हमारे दिन फिर गये हैं वही लोग आत्मीयता की दुहाई देकर अधिकार जताते हैं। अपने बेटे-बेटियों की शादी में हमसे कुछ पाने की उम्मीद रखते हैं.... अभी पिछले हफ्ते रईस चाचा का ख़त आया था, उन्होंने ऑर्डर किया था कि 'विशाल समाचार के मालिक को मैं ख़त लिख दूँ। मेरे लिखने से उनका बेटा सब-एडिटर बन जाएगा.... बड़े-बड़े शब्दों में उन्होंने मेरी माँ की तारीफ़ की थी। "

विषय बदलते हुए मैंने पूछा-" आपकी कितनी कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं?" अपनी जगह से उठकर दो किताबें अलमारी से निकालकर मेरी ओर बढ़ा दीं। मैंने देखा दोनों ही बड़े प्रकाशकों ने छापी थीं। तापस दा की माँ आकर बोली-“की रे खाबार खाबीना? देरी होच्छे"

(क्या हुआ, खाना नहीं खाओगे? देर हो रही है)

"आनो" (ले आओ) तापस दा ने कहा। तुमि खाबे?" (तुम खाओगे?) उन्होंने मुझसे पूछा।

"नहीं, भूख नहीं है। शादी से आया हूँ। चलता हूँ।" मैंने कहा।

उन्होंने कहा-"ना ना तुमि अतिथि, खाली मुखे चोले गेले गृहस्थीर अकल्याण होबे" (नहीं नहीं तुम अतिथि हो, बिना खाये चले जाने से गृहस्थी का अकल्याण होगा)। माँ तापस दा के लिए खाना ले आयीं। कुछ देर बाद मेरे लिए हलुआ ले आयीं।

मेरा पेट खाली था। मैंने गपागप हलुआ खा लिया। आचमन करने के बाद तापस दा खाना खाने में व्यस्त हो गये। खाना खाते समय तापस दा ने मुझसे कोई बात नहीं की। उसी बीच मैंने उनकी चार छोटी-छोटी कहानियाँ पढ़ डालीं। मैंने महसूस किया कि उनकी हर कहानी में एक लड़की या औरत है जिसका नाम बाबली है। उससे पहले जो कहानियाँ मैंने पढ़ी थी उसमें भी बाबली थी। कौतूहलवश मैंने पूछा-"बाबली नाम से आपका लगाव क्यों हैं?"

"वह मेरी प्रेयसी है।" उनके मुख से अनायास निकल पड़ा। "सच!” चकित होकर मैंने कहा।

बाबली के बारे में मेरी जानने की इच्छा बढ़ गयी। मैंने तापस दा से उसके बारे में और अधिक जानने के मकसद से पूछा, "मैं बाबली के विषय में विस्तार से जानना चाहता हूँ। यदि आप बताना चाहें तो...।"

"अरे छोड़ो मैंने यों ही कहा था।"

"घबराइए नहीं मैं जासूस नहीं हूँ। कहानीकार अवश्य हूँ, किन्तु फिलहाल आपको लेकर कहानी गढ़ने की इच्छा नहीं है। वैसे मैं कहानियाँ गढ़ता नहीं हूँ।"

"सुनो! बाबली उसका घर का नाम है। उसका शुभ नाम है अनुराधा ।"

"अनुराधा!... अनुराधा नाम है उसका!!”

"क्या हुआ? चौंके क्यों ? पहचानते हो क्या?"

"नहीं! सुंदर नाम है । इत्तफ़ाक से मेरी कजिन का नाम अनुराधा है इलाहाबाद में रहती है...आपकी अनुराधा यानी बाबली क्या करती है?"

"बी. ए. फाइनल में है। बचपन से अब तक उसे जैसा देखा है, हू ब-हू वैसा उतारा है.... अधिक उम्रवाली बाबली मेरी कल्पना है, जैसा मैं चाहता हूँ....वह दिन में दो-चार बार आती है, मेरे कामों में हाथ बँटाती है...प्रतिदिन सूरज ढलते ही हाजिर हो जाती है, एक-डेढ़ घंटा बैठती है, मेरा लिखा पढ़ती है, कमेंट करती है, बहस करती है, मेरे पत्र तैयार करती है....वही मेरी प्रेरणा का स्रोत है.... हम दोनों का पूर्वजन्म में प्यार का संबंध रहा होगा....बी. ए. पास करने के बाद हमारी शादी होगी।"

"उसके माता-पिता राजी होंगे?"

"उन लोगों को मालूम है कि वह मेरे बगैर रह नहीं सकती। मेरी माँ उसे समझती हैं।"

"शादी की बात आप लोगों में साफ़-साफ़ हो गयी है ?"

"साफ़-साफ़ क्या? साफ़-साफ़ से क्या मतलब है?" वह तिलमिला उठे-"प्रेम समझते हो? किसी से प्रेम हुआ है कभी? प्रेम हुआ होता तो ऐसी बातें न करते। प्रेम एतबार की नींव पर खड़ा रहता है। उसकी जड़ें पाताल तक पहुँचती हैं... ऐसा अपाहिज नहीं हूँ कि पति धर्म का निर्वाह न कर सकूँ। मेरी इनकम भी कम नहीं है...तुम्हें शायद पता नहीं है कि मैं इस शहर की सबसे लोकप्रिय पत्रिका का संपादक हूँ।" 

"अच्छा, अब अनुमति दीजिए। देर हो रही है। आपकी बाबली आती होगी।"

"बाबली से नहीं मिलोगे?"

'नहीं। अगली बार जब जाऊँगा भाभी के हाथका खाना खाऊँगा।" मुझे काफी देर हो गयी थी। मैं लौट आया।

अनेक व्यस्तताओं के कारण लंबे समय बाद ही फिर कलकत्ता जाना हुआ। कालीघाट पहुँचते ही बहन की शादी, अनुराधा, तापस दा हरेक का ख़याल आ गया। तापस दा से मिलने बेहाला पहुँचा। तापस दा के मकान का नक्शा बदल चुका था। किसी और की नेमप्लेट टँगी हुई थी। अनुराधा के घर पर उसी की नेमप्लेट टँगी हुई थी। मैंने सोचा उसी से तापस दा का पता मिल जाएगा। मैंने घंटी बजायी। एक औरत ने दरवाजा खोला। आश्चर्य चकित होकर कुछ देर तक उसे देखता ही रह गया। वही शक्ल, वही सूरत, किन्तु चेहरे पर जर्द उदासी और माथे पर मंद विषाद की रेखाएँ देख मैं विस्मित हुआ।

"तुम अनुराधा हो!” मैंने पूछा।

"जी।"

"भीतर नहीं बुलाओगी?'

"मैंने आपको पहचाना नहीं।"

"लेकिन मैंने पहचान लिया है। चलो भीतर। ढेर-सी बातें करनी हैं। और बिना उसके उत्तर की प्रतीक्षा किये मैंने भीतर प्रवेश कर लिया।"

"अरे, अरे, आप कहाँ जा रहे हैं?"

"घबराओ नहीं मैं एक शरीफ़ आदमी हूँ। परिचित भी हूँ। आओ, अंदर आओ... इलाहाबाद से आया हूँ, कथाकार हूँ।"

"समझी नहीं।" हम दोनों बैठक में बैठ गये!

"कालीघाट में मेरी बहन की शादी में परिचय हुआ था, नेपाल भट्टाचार्य स्ट्रीट पर सुभाशिष बाबू के घर... तुम्हारे साथ तापस दा से मिलने आया था।"

'ओ हो!....इतने बरसों के बाद! मैं राह देखती रह गयी थी। आएँगे कहकर आप नहीं आये थे।"

"तापस दा से मिलने आया था। तुमको यहाँ पाने की उम्मीद नहीं थी। तापस दा कहाँ चले गये हैं?"

'उसका खिल उठा चेहरा मुरझा गया। आँखें नम हो गयीं। दबी चुबान से बोली-" अब वह नहीं रहे।"

"नहीं रहे? क्या मतलब?"

"लगता है, आप बाँग्ला नहीं पढ़ते।"

"नहीं। एक दशक हो गया है। हिन्दी से जुड़ गया हूँ। लगता है, तुम भी हिन्दी नहीं पढ़ती यदि पढ़ती तो अभी कहती, अरे! आपका तो बड़ा नाम हैं। इन दिनों आप छाये हुए हैं। क्या लिखते हैं इत्यादि...”

"तापस दा कब गुजर गये? क्या हुआ था उन्हें?''

"पागल हो गये थे।"

"पागल!" ?*

"तुमने शादी नहीं की?'

"की थी। डिवोर्स हो गया था।"

"क्यों?"

'आपके तापस दा के कारण।"

"क्यों? उन्होंने ऐसा क्या किया था?"

'आपसे मुलाकात होने के बाद मेरे पैरेन्ट्स सोच ही रहे थे कि आपके घर रिश्ता लेकर जाएँगे कि एक से मेरा परिचय हो गया था।"

"मुझसे बेहतर कैंडिडेट रहा होगा।"

"खाक बेहतर..बदमिजाजी, शंकालु, पाजी था. बुरा आदमी था।" "क्या उससे तुम्हारा प्रेम हो गया था ?"

"नहीं, मेरा परिचय हुआ था। मेरी एक सहेली का बड़ा भाई था। माँ को मैंने उसके बारे में कहा था...मेरी शादी उसी से तय कर दी गयी।"

"क्या करता था?"

"डॉक्टरी...डॉक्टर है....माँ-बाप का इकलौता।"

"डिवोर्स के लिए तापस दा कैसे जिम्मेदार हो गये?'

"मेरी शादी में वे नहीं आये थे....अगले दिन जब विदाई हो रही थी, घर से निकली तो देखा वह अपने घर के द्वार पर बैठे हैं ....गाड़ी पर चढ़ने लगी तो वह मेरे समीप आकर बोले-रिक्त आमि निःस्व आमि, देबार किछु नेइ /आछे शुछु भालो वासा दिए गेलाम ताई" (रिक्त हूँ, निःस्व हूँ मैं/कुछ भी तो नहीं है/ है तो सिर्फ़ प्यार है/वही देता हूँ मैं) फिर फूट फूटकर रोने लगे....बड़ी भयानक, विकट स्थिति, जैसे वज्रपात हुआ हो, प्रलय का संकेत था। मेरे हाथ-पैर थरथराने लगे....मेरी माँ, बुआ, चाची सब लोग रोते-रोते हठात् चुप हो गये, चारों ओर नीरवता छा गयी। तापस दा का रुदन आसमान से टकराने लगा...मेरे पिता और चाचा दोनों ने मिलकर उनको हटाया....मेरी सुहागरात अद्भुत ढंग से बीती। पति का उग्र रूप झेल नहीं पायी। सारी रात वह मुझसे पूछते रहे तापस दा के साथ मेरा क्या संबंध है...कठघरे में मुजरिम की तरह खड़ी थी मैं। कुछ नहीं, कुछ नहीं कहती रही, वह मेरे पीछे पड़ गया। मैं रोजाना तनाव में रहती। उत्पीड़न झेलती... एक माह भी नहीं बीता था कि खबर मिली तापस दा ने आत्महत्या कर ली है....खुद को सँभाल नहीं पायी, बिलख बिलखकर रोने लगी...मुझे रोते देख उसका शक और पक्का हो गया और अंततः...

"तापस दा कुछ लिख गये थे?"

"तमाम कापी और किताबों में मेरा नाम लिख गये थे...एक कागज पर लिखा था- "माँ माफ़ करना तुम्हारा हतभाग्य, संतान तुम्हें छोड़कर जा रहा है। ईश्वर से दुआएँ माँगना अगले जन्म में मैं तुम्हारा बेटा बनूँ, किन्तु अपाहिज न बनूँ।"

"फिर क्या हुआ?"

"पति की मार सह नहीं पायी। तलाक हो गया।"

"तापस दा से शादी क्यों नहीं की थी?"

"क्या?.... विकलांग से?"

"ऐसे विकलांग नहीं थे कि पति धर्म का निर्वाह न कर पाते।"

'औरत को कुछ और भी चाहिए.....चढ़ पाते मेरे साथ पहाड़ों पर? दौड़ पाते सागर के तट पर?"

"हरेक जगह जा पाते तुम्हारे साथ वाहन से जाते, हवाई जहाज से जाते, उड़न खटोले से जाते... प्यार क्यों किया था? क्यों प्यार किया था विकलांग से?"

"मैंने प्यार नहीं किया था।"

"तुम झूठ बोल रही हो, उनसे तुम्हारा प्यार था।"

"नहीं, मैने प्यार नहीं किया था। उनसे मेरा प्यार... मैंने सोचा था प्यार और शादी अलग-अलग चीजें होती हैं...मैंने सोचा था प्यार सागर की लहर होती है, आँखों से ओझल हो जाऊँगी वे भूल जाएँगे, मैं भी भूल जाऊँगी...मगर मेरे लिए तो प्यार झील का पानी सिद्ध हुआ...इतनी काई जम चुकी है...इतनी काई जम चुकी है कि मौत से ही मुक्ति मिलेगी।"

'अच्छा अब चलूँ... फिर मुलाकात होगी।" **

"बैठिए न और दो मिनट, अच्छा लग रहा है। लग रहा है, मेरा भी कोई अपना है जिससे अपनी बात कह सकती हूँ।"

मैं बैठ गया। " आती हूँ" कहकर अनुराधा भीतर गयी। थोड़ी देर बाद चाय लेकर आयी। अलमारी से दो किताब निकालकर देते हुए मुझसे कहा- आप पढ़ने में रुचि रखते हैं, पढ़िएगा। "झील" बी. ए. के पाठ्यक्रम में लगी है। इसे पुरस्कार भी मिला है...एक मिनट।" कहकर उसने साष्टांग प्रणाम किया और उठते हुए कहा-" फिर आइएगा।"

जिज्ञासावश मैंने चलते-चलते 'झील' किताब का जिल्द खोला। खोलते ही दंग रह गया। किताब लिखी हुई थी तापस बनर्जी की और प्रकाशक का नाम था "अनुराधा प्रकाशन"।


-सुभाष चंद्र गागुली
(कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ से, प्रथम संस्करण: 2002)
______________________
27/10/1998--- ' इन्द्रप्रस्थ भारती ' जनवरी-- मार्च 2000 में  प्रकाशित ।
* ' लेखा परीक्षा प्रकाश' जुलाई 1999 में ।
* 'गंगा यमुना ' इलाहाबाद  पाक्षिक में जून 1999 में प्रकाशित ।
* 'जनप्रिय ज्योति ' मुरादाबाद,उ प्र अंक जून 1999 में प्रकाशित ।

Thursday, July 22, 2021

कहानी- शंख


पहली बार घूस लेने में तपन को इतनी घबराहट हुई कि जब रूपया लेने का वक्त आया तो तपन ने मना कर दिया। उस आदमी ने अवाक् होकर कहा- 'अरे ! क्या हो गया ?"

तपन ने कहा 'नहीं, कुछ नहीं। यूँ ही।'

उसने कहा 'आपने इतना बड़ा काम कर दिया अब मुझे भी तो सेवा करने का मौका दीजिए।'

-नहीं, नहीं रहने दीजिए। मेरा काम था, मैने कर दिया। थैंक्स। मुझसे नहीं होगा।'

'अरे आप फालतू संकोच कर रहे हैं। यह तो 'सेवा शुल्क' है, धरम की कमाई है, हमारे दफ्तर में भी सिस्टम बना हुआ है। आप क्या नये आये हैं?'

'नहीं। पहले 'टाइप सेक्शन में था।'

उस आदमी ने मुस्कराकर कहा 'ओहो! ठीक है जी आप अगर नकद लेने में डर रहे हैं या फिर आपको मुझ पर भरोसा न हो तो नगद न लीजिए, किसी सामान की फरमाइश कीजिए आपके घर पहुँच जाएगा। उसकी बात तपन को जँच गई। तपन ने कहा- मेरी पत्नी को एक शंख चाहिए। आपके कोलकाता में 'कालीघाट काली मन्दिर के पास अच्छा शंख मिल जाएगा। अगली मर्तबा जब आना होगा लेते आइएगा।'

उसने हँसते हुए कहा- 'अजी आपने माँगा भी तो क्या माँगा! चलिए मेरी तक़दीर अच्छी है कम से कम भाभीजी के जरिए हम भी कुछ पुण्य कमा लेंगे। अगले महीने ही मुझे फिर आना है। कलकत्ता आना जाना लगा रहता है। '

थोड़े दिनों के बाद तपन को शंख मिल गया शंख देख तपन की पत्नी माला गद्गद् हो गई। उसने एक कलश खरीदा, साड़ी खरीदी, फिर शुभ मुहुर्त देख कलश स्थापित कर दिया। शंखनाद होते ही वह उल्लसित होकर बोली -'अब से हर बृहस्पति को लक्ष्मीपूजा करूंगी। लक्ष्मीव्रतकथा पढ़ने से धन की वृद्धि होती है, खुशहाली आती है। अब से पूजा के नाम आप प्रतिमाह मुझे दो सौ रूपए देंगे।'

तपन बोला 'उफ्फ दो सौ रूपए महीने? यानी कि सालाना दो हजार चार सौ रुपए खर्च बढ़ गए इस शंख के आने से।'

-' क्या? जिनकी कृपा से आप कमाते हैं उनके लिए भी वैसी बात?.मुझको देते समय एक-एक रूपया गिनते है, वहाँ तक तो ठीक है मगर भगवान के नाम पर भी?' माला ने गुस्सा झाड़ा।

माला ने जब लक्ष्मीपूजा कर शंख फूँका तो वह ऐसा फफा कि तपन का भय, डर, संकोच, ईमान, संस्कार, नैतिकता सब निकलकर भागा।

अगले ही दिन से तपना 'सेवा शुल्क लेने के चक्कर में जुट गया मगर उसकी कुर्सी ऐसी थी कि अधिकतर चाय समोसा मिठाई तक ही रह जाता कभी-कमार कुछ रकम मिल जाती, जबकि तपन के कई दोस्त अच्छा खासा कमाते और उन सबों के जीवन स्तर तपन से ढेर बेहतर थे तपन दरअसल इसी वजह से हीन भावना से ग्रस्त था। वह अपने दोस्तों से कटा-कटा रहता।

एकदिन जब उसके दोस्तों ने दूरी बनाने का कारण पूछा तो तपन ने खुलकर अपनी पीड़ा व्यक्त कर दी।

एक दोस्त ने सलाह दी कि उस कुर्सी पर पैसा नहीं है तो वह साहेब से कहकर कोई 'मलाईदार कुर्सी पर अपनी पोस्टिंग करवा लो इस समय कई सीटें खाली पड़ी हुई हैं। तुम सीनियर हो गए हो, तुम्हारी इमेज भी अच्छी हैं, साहब भरोसा रख पायेंगे, तुम रिक्वेस्ट करोगे तो साहेब मान जायेंगे। सब ठीक हो जाएगा।'

दोस्तों के कहने के मुताबिक ही तपन ने काम किया और साहब की कृपा से वह मनचाही कुर्सी पर तैनात हो गया।

धीरे-धीरे तपन के दिन फिरते गए। पाँच-छह सालों में उसने काफी कुछ जुटा लिया, पॉश एरिया में उसने एक जमीन भी खरीद ली। उसके दोनों बच्चे इंगलिश स्कूल में पढ़ते कोचिंग इन्स्टिट्यूट जाते तपन खुश था कि वह बीबी बच्चों की जरूरतें तथा साधारण इच्छाएं पूरी कर पाता।

फिर एकदिन एक अप्रत्याशित घटना ने तपन की शांति में खलल डाल दिया। हुआ ये कि तपन बेहद अच्छे मूड में दफ्तर से घर लौटा था। उसदिन अच्छी कमाई हुई थी। तपन ने माला से कहा- 'मैं फ्रेश हो लेता हूँ, तुम तैयार हो जाओ। बिटिया के बर्थडे की शॉपिंग करा दूँ फिर 'एलचिको' में डिनर कर लेंगे।'

माला ने बेरुखी से कहा- 'पैर उतना ही फैलाना चाहिए जितनी लम्बी चादर हो।'

--'अरे अभाव तो लगा ही रहता है, कभी-कमार मौज-मस्ती भी कर लेनी चाहिए। एक दिन होटल में खाना खाने से गरीबी थोड़े न आ जाएगी! तपन ने स्वाभाविक ढंग से उत्तर दिया।

अचानक माला चीख उठी मौज-मस्ती, ऐश करना सबको अच्छा लगता है, मगर इस तरह ऐश नहीं करना चाहिए कि किसी की बददुआ लगे और सर्वनाश हो जाए। मैं नहीं समझ पा रही थी कि मेरी गृहस्थी पर किसकी कुदृष्टि पड़ी है, इतनी विपदायें कहाँ से आने लगी.. का
 ...आपही के कारण।'

-'मेरे कारण ? अमंगल, बद्दुआ, सर्वनाश ये सब क्या बक रही हो? तुम्हारा दिमाग तो ठीक है?" तपन ने आश्चर्य व्यक्त किया।

-'जी, मेरा दिमाग बिल्कुल ठीक हैं' कहकर माला घर के भीतर गई फिर दो मिनट बाद एक मिठाई का पैकेट और एक लिफ़ाफे के भीतर से पाँच-पाँच सौ के कई नोट निकाल कर मेज पर रखकर बोली- लीजिए ये रहा आपका ईमान जिस आदमी का काम आपने रोक रखा है वह अपनी अँगूठी बेचकर इसे दे गया है, बोला बाकी रकम काम हो जाने के बाद देगा... शर्म नहीं आती आपको ये पाप करते हुए? बिना दहेज लिए आपने शादी की हमारे सारे रिश्तेदार मोहल्ले वाले जिस किसी ने सुना था, भूरि-भूरि प्रशंसा की थी, मुझे गर्व था कि मेरा पति ईमानदार व्यक्ति हैं, संस्कारी हैं, मगर आप इस हद तक आप गिर सकते हैं मैंने कभी सोचा न था।'

तपन खिन्न होकर बोला- ' क्या बकवास कर रही हो ? मैं क्या अपने सुख की खातिर कमाता हूँ? तुम्ही लोगों के लिए.....'

बात काटकर माला बोली- 'नहीं चाहिए ऐसा सुख। कोई अपनी शादी की अंगूठी बेचे, कोई खून बेचे और उन पैसों से आप अपनी औकात बढ़ाये | उन लोगों की आह लगती है नहीं चाहिए मुझे ऐसा सुख।'

रोती-बिलखती माला घर के भीतर चली गई तपन पीछे-पीछे गया। उसे समझा बुझाकर शांत करने की कोशिश करने लगा। माला बोली- मैं स्वतंत्रता सेनानी की पोति हूँ, मेरे पिता स्कूल टीचर थे। वे गरीब थे मगर इज्ज़त थी। आज भी लोग इज्जत देते हैं हमारे पूरे परिवार को... मगर आपने तो..... मैं सोच नहीं पा रही हूँ कि मैं जिसे देवता मानती हूँ | माला सुबकती रही।

तपन ने कहा- 'जरा समझने की कोशिश करो जमाना बहुत आगे निकल चुका है। सम्पन्नता के मामले में होड़ लगी हुई है, एक दूसरे से आगे बढ़ने की। ईमानदार वही बना हुआ है जिसकी कमाई नहीं है। ईमानदार आदमी सिर्फ रोता है, अपने से कम वेतन पाने वालों को आगे बढ़ते देखता रहता, अपने अपनों से ताने उलाहने सुनता, हीन भावना कर शिकार हो जाता है। तुम्हारे बाप-दादे का जमाना बहुत पीछे छूट गया है। बड़े-बड़े नेता, अधिकारी सब धनाढ्य बनते जा रहे हैं, उस जमाने जैसा चरित्रवान नेता शायद ही कहीं मिले। लोग लाखों करोड़ो कमा रहे हैं, अरबों लूट रहे हैं बड़े-बड़े उद्योगपत्ति बैंक से कर्जा लेकर कर्जा नहीं चुकाते, बड़े-बड़े उद्योगपति हजारों करोड़ रूपए कर्जा लेकर देश छोड़कर भाग जाते हैं, सब जनता के रूपए... ईमानदारी हूँ ! कम वेतन पाने वाला कर्मचारी पाँच दस रूपए ले लें तो भ्रष्टाचारी...अरे जरा पास-पड़ोस देश दुनिया की खबर भी रखा करो। तुम तो पुराने जमाने की औरतों की तरह ही बनकर रह गयी हो। खाना पकाना, पूजा करना, मन्दिर मठ जाना, जब देखो तब व्रत रखना - छत्! बोरिंग।'

माला बोली-' मैं जैसी हूँ वैसी ही रहूँगी। धर्म पथ पर रहना चाहिए। धर्म भ्रष्टाचार नहीं सिखाता... आप किसी के सामने हाथ नहीं फैलाइएगा। बस में कह देती हूँ।'

तपन ने फिर समझाने की कोशिश की हाथ नहीं फैलाना पड़ता अपने आप सब हो जाता है। दफ्तर में सिस्टम बना हुआ है। हर काम का रेट फिक्सड है। देने वाले को पहले से मालूम रहता है कि उसे देना है। नीचे से ऊपर तक पैसा जाता है सबका फिक्सड परसेन्टेज रहता हैं... मैं किसी दफ्तर में काम करवाने जाता हूँ तो मुझे भी देना पड़ता है। बिना दिए काम नहीं होता।'

माला क्षुब्ध होकर बोली- 'मैं कुछ नहीं सुनना समझना चाहती। मैं जानती हूँ घूस लेना-देना दोनों पाप है। पाप का घड़ा कभी न कभी फूटता जरूर और जब फूटता है तो लोग अर्श से फर्श पर गिरते हैं। भगवान की मार जब पड़ती है तो सारी अक्ल घुटने पर आ जाती है, नर्क भोगना पड़ता है, तब माथे पर टीका लगाकर जय श्री राम जय माँ काली बोलने वाले भी नहीं बचते। अपनी बात ख़त्म कर माला किचन में चली गई।'

चाय-नाश्ता लेकर जब माला लौटी तब भी उसका चेहरा उदास, गमगीन था। तपन ने कहा- 'चलो अब आँसू बहाना बन्द करो। बच्चे घर लौट रहे होंगें, कोचिंग बन्द होने का टाइम हो गया हैं। फिर तपन ने उसकी कलाई पकड़कर कहा- 'यह गृहस्थी आपकी है मैडम ! आप घर की लक्ष्मी हैं। मैं हमेशा आपको खुश रखना, खुश देखना चाहता हूँ।'

थोड़ी सी मुस्कान भर माला ने कहा- मैं कब खुश न थी ? मैंने तो आपसे कभी कुछ माँगा ही नहीं। मुझे जो माँगना रहता मैं भगवान से माँगती हूँ। भगवान मेरी सुनते भी हैं। मेरे माँगने से आपने अफसरवाला इम्तहान पास कर लिया। जगह खाली होने पर अधिकारी भी बन जायेंगे और क्या चाहिए।

तपन ने माला के सिर पर हाथ रख विनम्रता से कहा- 'तुम्हारी कसम अब से गलत कमाई बन्द मैं पूजा-पाठ नहीं करता किन्तु धर्म अधर्म तो जानता ही हूँ। भगवान के नाम पर डरता भी हूँ। मैं बहक गया था। तुम्हारे दिल दुखाने का मुझे खेद है। आई एम सॉरी ।'

माला ने उसका हाथ अपने सर से हटा दिया। माला का मुरझाया हुआ चेहरा अचानक खिल उठा। तपन ने उसे बाँहों में लेकर उसके गालों को चूम लिया।

उक्त घटना ने तपन को भीतर से हिलाकर रख दिया था धर्म-परायण पत्नी की बातों ने उसे उसके सामने बौना बना दिया था। कई दिनों तक माला की एक-एक बात उसके कानों में गूंजती रही। जब कभी दफ़र में लेन-देन की बात होती या सुविधा शुल्क लेता माला का वह रोता हुआ चेहरा, पूजा करता हुआ चेहरा सामने आ जाता, उसे अपनी कसम याद आ जाती और वह सिहर उठता जब कभी साँझ होने पर माला दीया बाती जलाकर शंख फूँकती तो वह फूँक उसकी देह के भीतर प्रवेश कर धमनियों में कम्पन पैदा कर देती । आख़रकार वह खुद से ही हार गया और अन्तरात्मा की पुकार के अनुसार 'मलाईदार कुर्सी' का मोह त्याग कर स्वाभिमान से जीने वाली कुर्सी पर पोस्टिंग करवा लिया।

समय के साथ-साथ तपन सहज हो गया। स्वाभाविक शान्तिपूर्ण जीने लगा। अपने स्वभाव और संस्कार के अनुरूप की जिन्दगी जीने लगा। भयमुक्त जिन्दगी जीने का रास्ता दिखाने के लिए माला के प्रति उसका प्रेम और सम्मान बढ़ गया। वह उसका ज़्यादा ख़्याल रखने लगा।

किन्तु वह शंख उसके क्लेश का कारण बना हुआ था। जब-जब माला शंख फूँकती तपन की इच्छा होती कि उसके हाथों से छीनकर फेंक दे कहीं। कई बार उसके मन में आया कि दफ्तर जाते समय चुपके से शंख को झोली में ढाल ले और उसकी सद्गति कर दें किन्तु वह साहस नहीं जुटा पाया। उसके मन में भय था कि पूजा स्थल के शंख का गुम होना माला अपशकुन मानकर कामवाली को जिरह करेगी, कोहराम मचा देगी। उसकी दिमागी हालत भी ख़राब हो सकती है।

तपन उपाय सोचता रहा किन्तु अचानक उसका सारा ध्यान अपनी जमीन पर मकान बनाने पर चला गया। हाउस बिल्डिंग एडवांस की राशि उसके नाम स्वीकृत होकर मुख्यालय से आ चुकी थी, पहली किश्त की राशि पाने के लिए प्राधिकरण द्वारा पास किया हुआ मकान के नक्शे की कापी देना अनिवार्य था। नक्शा पास कराने के लिए बाबू ने जितनी राशि की माँग की थीं तपन देने के लिए राजी नहीं था नतीजन उसका काम भी लटका हुआ था। पास किया हुआ मकान का नक्शा कार्यालय को न दिखा पाने के कारण मुख्यालय द्वारा भेजी गई राशि मुख्यालय को सरेंडर करने की नौबत आ गयी।

नक्शा पास करवाने के लिए तपन घूस माँगनेवाले बाबू से सम्पर्क किया, उसने घूस की राशि कम करने के लिए बहुत गिड़गिड़ाया अपनी कोई ऊपरी कमाई न होने की बात कही, पिता की गम्भीर बीमारी पर लम्बा खर्च होने की बात कही किन्तु बाबू टस से मस नहीं। बाबू ने कहा कि उस रकम में से उसके हिस्से बहुत थोड़ा ही आयेगा, तपन चाहे तो थोड़ा सा कम कर दे। तपन ने अगले हफ़ मिलने की बात कर घर लौट गया। 

रात को सोने से पहले के सपन ने माला को नक्शा पास करवाने के सम्बन्ध में जो बातें बाबू से हुई उसे सुनवाकर खुश किया। फिर मकान कैसा बनेगा आदि बातें कह कर माला को प्रसन्न करके पूजा घर में रखे को उसे देने के लिए कहा। माला एकदम से चौक उठी क्या? शंख ? शंख का क्या काम? क्या करेंगे आप? तपन ने कहा- शंख और उसके साथ जो स्पेशल सिल्क का कुर्ता कलकत्ते से आया था, वह आदमी दुबारा आया नहीं, उसका उधार रह गया है। उधार के शंख की फूँक सुनते ही मुझे उसकी याद आ जाती है बात काटकर माला बोली- मतलब कि पूजा का सामान आपने घूस में लिया था ? छिः छिः ये क्या किया था आपने?'

- 'मैंने कहा न तब से वह आदमी आया नहीं। शंख मैंने मंगवाया था। पैसा दे देता किन्तु तो घर पर तुम्हें दे गया था। मैं क्या करता? अब उसे मुझे दे दो, मैं किसी पुरोहित को दे दूँगा। हम लोग गर्मी में कोलकाता जायेंगे तुम्हें तुम्हारी मनपसंद शंख खरीद दूंगा।'

माला बहुत खिन्न हुई। गिडगिडाती हुई बोली- 'क्या आफत ! पूजास्थल का शंख कैसे दे दूँ। मुश्किल में डाल दिया आपने, अब तो इस शंख से पूजा भी नहीं की जा सकती। छिः छिः घूस के शंख से आपने एक दशक पूजा करवायी, देवी का आह्वान करवाया तभी तो घर में इतना अमंगल है कोई न कोई बीमार रहता।'
 तपन ने झुंझलाहट के साथ कहा-' ठीक है, अब चुप भी रहो, जैसे कि दुनिया में कोई बीमार नहीं पड़ता बहुत ज़्यादा अंधविश्वासी हो तुम चोरी की कमाई से लोग सोने की मुकुट, हार पता नहीं क्या-क्या चढ़ाते हैं, स्वस्थ रहते, मस्त रहते और तुम मैं अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुन काम करता हूँ तभी परेशान हूँ मैं ख़ुद आग में जल रहा हूँ और तुम हो कि पानी डालने की जगह घी डाल रही हो।'

माला ने शंख देकर कहा- ' इसे इधर-उधर मत फेकिएगा। गंगाजी में डाल दीजिएगा।'

अगले दिन तपन में शंख को अच्छे से साफ़ कर दफ़्तर के बैग में रखा। शाम को एक पैकेट मिठाई खरीदी और जितने रूपए घूस में देने थे उसका आधा लिफाफे में भरकर उस बाबू के घर पहुँचा जिसे मकान का नक्शा पास करना था। उसने तीनों चीजें उसे दे दिया।

शंख देखकर वह बाबू चकित हुआ। बहुत देर तक शंख को देखता रहा। तपन ने कहा 'कलकत्ता गया था, कल लौटा। आपका ख़्याल आया ले लिया। यह शंख कलकत्ते का स्पेशल शंख है। इसकी कीमत दो हजार रूपए है।'
वह बाबू पुलकित होकर बोला- 'कितने भलेमानुष हैं आप कितने उत्तम आपके। आजकल तो लोगों का ध्यान भजन-पूजन से उचटता जा रहा है। आपने बड़ा पुण्य किया। मेरी पत्नी इसे पाकर खुश हो जाएगी। जबसे उसने पूजा-पाठ शुरू किया एक शंख के लिए कह रही थी मगर बस अपनी ही लापरवाही थी।'

तपन ने पूछा- 'आपकी पत्नी भी बहुत धार्मिक है? बहुत पूजा पाठ करती?'

उसने कहा- ' उम्र का तकाजा है। दादी बन गई, नानी बन गई बूढी हो चली, जितना सजना-धजना था सब कर चुकी अब दो चार घंटे वही बैठी रहे तो बेहतर वर्ना आप तो जानते ही हैं बुढ़ापे में पति-पत्नी की खिटिर-पिटिर बढ़ जाती है।'

तपन ने पूछा- 'आप भी पूजा-पाठ करते होंगे?'

उसने हँसकर कहा 'हम मर्दो को तो रिटायरमेंट के बाद ही यह सब सोचना चाहिए। पत्नियों इतना धर्म-कर्म करती उसका फल मिलता है कि नहीं?... पंद्रह दिन बाद मिलिएगा।'

काफी दिनों के बाद पूस की एक रात तपन के घर के सामने किसी ने चीत्कार किया ' तपन, मिस्टर तपन ! तपन दादा! दादा जी!'

दरवाजा खोलते ही तपन भौंचक उसके सामने वहीं मकान का नक्शा पास कराने वाला बाबू खड़ा था और उसके हाथ में था वही शंख तपन को देखते ही उसने कहा- 'यह शंख वाकई में स्पेशल शंख है। इसे वापस करने आया हूँ।'

- 'क्यों? क्या हुआ?' तपन ने आश्चर्य व्यक्त किया।

- 'बड़ी लंबी कहानी है. फिर कभी बताऊंगा, फिलहाल इसे आप ले लीजिए। मैं पूजा का शंख है इस कारण इसे में फेंक नहीं पा रहा हूँ और आपने भेंट किया था इसलिए किसी को दे भी नहीं सका आपका सामान आप ही को मुबारक। सम्भालिए।'

तपन ने कहा-' सॉरी इसे मैं वापस नहीं ले सकता। आप अंदर आइए। संक्षेप में अपनी कहानी सुनाइए। दोनों मिलकर कोई निर्णय लेंगे।'

उसने कहा- 'लगता है इसमें काला जादू है। इस शंख ने मेरे घर की शांति भंग कर दिया। जब जब मेरी पत्नी इसे फूँकती है, मेरा शरीर कॉप उठता है। मेरे दिमाग में तनाव हो जाता है। दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं। एकदिन घर में कथा हो रही थी, पुरोहित जब-जब शंख बजा रहे थे मेरी धुकधुकी बढ़ रही थी। मैंने सोचा घूस में लिए गए शंख की आवाज़ भगवान नहीं सुन रहे होंगे। रात को मेरी तबियत अचानक खराब हो गयी थी। पत्नी ने कहा इस शंख में कोई तंत्र-मंत्र है।'

तपन ने उहाका मारकर कहा- 'अरे पंडित जी धूस के पैसों से आप पहले भी पूजा करवाते थे, कथा भी सुनते थे तब कुछ नहीं हुआ ? ये आपका दिमागी फितुर है अंधविश्वास हैं '।
उस आदमी ने कहा-' नहीं। मेरे दिमाग का कपाट खोल दिया इस शंख ने, मैं चलता हूँ। '

• उसकी बात समाप्त होते ही तपन ने कहा- 'पूजा का सामान दान करना नेकी है, मगर दान में दिया गया सामान वापस लेना पाप है। आपके घर में इस्तेमाल किया हुआ सामान में वापस नहीं ले सकता।'

उस आदमी ने खिसियाकर कहा- 'आपने जानबूझ कर बदमाशी की है। इसमें बंगाल का जादू है। आप ही इसे रखिए।'

तपन ने उत्तर दिया-'अजी जादू तो जादू होता है चाहे कहीं का हो । लगता है इसने अपना काम कर दिया है, अब आपको इसकी जरूरत नहीं है। आप सही रास्ते पर आ गए हैं। अब कृपया इसे मेरे घर ट्रांसफर न करें। इसे आप पार्सल द्वारा किसी ऐसे व्यक्ति को भेज दीजिए जिसने कोई घोटाला किया हो या बैंक से कर्जा लेकर विदेश भाग रहा हो या फिर अपने बेटे की शादी में लंबा दहेज लेना चाहता हो... हाँ, अपनी और आपकी पीड़ा को उजागर करते हुए मैं एक कहानी अवश्य लिखूँगा।'

- सुभाष चन्द्र गाँगुली
4/8/1998
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*" जनप्रिय ज्योति " सितंबर 1998 में प्रकाशित  * सीएजी कार्यालय की पत्रिका "लेखापरीक्षा प्रकाश " 42 वां अंक 1997 में प्रकाशित ।
* " दैनिक जागरण " समाचार पत्र 1/8/1999 को प्रकाशित ।
* शंख का बांग्ला अनुवाद 'शेषेर लाइन ' संकलन October 2003 published by Vishwa--Jann
* ' इन्द्रप्रस्थ भारती ' सितंबर 2021के अंक में      प्रकाशित ।

कहानी- हीरक जयंती



अपने कॉलेज के तीन दिवसीय ' हीरक जयंती ' समारोह के एन्ट्री कार्ड पाने से नेहा वंचित रह गयी थी । वज़ह यह थी कि नेहा ने डांस करने से इन्कार कर दिया था । करती भी क्या, डांस करना उसके लिए नामुमकिन जो था । अभी तीन महीने पहले ही कॉलेज के प्रथम तल पर स्थित भौतिक शास्त्र प्रयोगशाला में क्लास करके लौटते समय बिना बाउंड्रीवाल वाली छत से सीधे मैदान पर आ गिरी थी । जाने क्या-कुछ हो सकता था मगर ख़ुदा का लाख लाख शुक्र है कि उसका एक  ही पैर टूटा था ।

नेहा के पिता ने जब मैनेजर से शिक़ायत की कि नेहा के हादसे के लिए कॉलेज मैनेजमेंट जिम्मेदार है तो मैनेजर ने बेरुखी से कहा था '' इतनी बड़ी बिल्डिंग क्या एक दिन में बन जाती है ? बाउंड्रीवाल नहीं है तो क्या फ़र्क पड़ता है ? नेहा कोई दूध पीती बच्ची नहीं है, और भी लड़कियाँ हैं, सब आँखें खोलकर चलती हैं, आपकी लाडली डांस करती चलती है, हाथ-पैर तो टूटेगा ही....समझ में नहीं आता है तो ले जाइये अपनी बेटी को यहाँ से, डाल दीजिए किसी देहाती स्कूल में, यहाँ की डिसिप्लिन की जानकारी आपको होनी चाहिए थी ।'

मैनेजर की बदसलूकी से क्षुब्ध होकर नेहा के पिता ने कॉलेज मैनेजमेंट के ख़िलाफ़ कानूनी कार्यवाही करने का मन बना लिया था मगर नेहा ने ही पिता को कुछ भी करने नहीं दिया था, उसने कहा था कि ख़बर के तूल पकड़ने से कॉलेज की बड़ी बदनामी होगी ।

एन्ट्री कार्ड पाने के लिए नेहा ने बड़ी कोशिश की । शायद चिरौरी, बिनती भी कर लेती और सचमुच अगर सिर फोड़ने से कोई बात बनती तो वह भी कर बैठती किन्तु उसे उसके पापा की याद आ गयी । जिस कदर उनका अपमान हुआ था उसे वह भूल नहीं सकी थी । यह पहला अवसर नहीं था जब उनका अपमान हुआ था । अभी दो वर्ष पहले जब विज्ञान भवन के लिए डोनेशन लिया जा रहा था ड्यू डेट पर डोनेशन न दे पाने के कारण नेहा की ख़ुद की छीछालेदर तो हुई ही थी उसके पापा को भी कालेज में बुलवाकर सभी टीचर्स के सामने जलील किया गया था उ। अजीब ऊहापोह और कशमकश में नेहा फँस गई । उसकी मन की पीड़ा उस समय और बढ़ गई जब उसने सुना कि कॉलेज कप्तान ने उसके लिए कार्ड माँगते हुए कहा था कि नेहा का पैर सचमुच अभी डांस करने लायक नहीं हुआ है, तो कार्ड तो दूर उलटा उसके माथे पर यह इलज़ाम मढ़ दिया गया ' पैर-वैर सब ठीक है, कॉलेज को बदनाम करने का नायाब तरीका अपनाया है इस लड़की ने !' 
हमदर्दी के बजाए ऐसे ओछे बयान से नेहा इतनी मर्माहत हुई कि इलज़ाम के विरोध में कुछ भी कहने का मन नहीं चाहा । आँखों के आँसू उसने खुद ही पी लिया । जब उसकी सहेलियों ने उसे समझाया कि उसे प्रतिवाद करना चाहिए था तो उसने कहा- ' तुममें से है किसी में साहस जो मेरा साथ दे ?' सहेलियाँ चुप थी ।

दरअसल एन्ट्री कार्ड न देने के लिए कॉलेज को बहाना चाहिए था । कुछ ख़ास लड़कियों के लिए ही बहाना ढूँढ़ना आवश्यक था, बाकी लड़कियाँ तो चूँ नहीं बोल सकती । क्या मजाल कि किसी सिस्टर के सामने कोई कुछ कहे । सिस्टर तो नहीं जैसे कोई डरावनी देवी  या धरती पर राज करने वाली पटरानी । भले ही नेहा सीनियर स्टुडेंट व 'ग्रीन हाउस' की कप्तान रही हो उसे भी नतमस्तक रहना पड़ता ।

कॉलेज तो नहीं जैसे वैदिक काल का कोई आश्रम। उनके काम-काज के तौर-तरीके भी पौराणिक हैं । उनका एरिया उनका अपना है, वहाँ किसी की दख़़लांदजी नहीं चल पाती है । उसी व्यवस्था के तहत नब्बे प्रतिशत सीटें आरक्षित रखी गयी थीं । बिरादरी के कुछेक मठाधीशों को इन्वाइट करना है फिर उन्हीं के मार्फ़त जो कोई कार्ड माँगने आये उन्हें देना है । मंत्री-संत्री और उनके साथ चलने वाले जत्थे के लिए सीट रिजर्व । अख़बारों के सम्पादकों, संवाददाताओं, पत्रकारों, फोटोग्राफर्स के लिए सीट रिजर्व बड़े-बड़े अधिकारियों को सपरिवार ससम्मान बुलाना कॉलेज के हित में है । शहर के बड़े-बड़े व्यापारियों को भी बाइज्ज़त बिठाना है । आखिर 'स्मारिका' में विज्ञापन के नाम उनसे काफ़ी धन जो ऐंठा गया है । टीचर्स के  ज्ञाति-कुटुम्ब तो रहेंगे ही, कॉलेज के केयर टेकर, बाबू , बड़े बाबू, चपरासी, आया, गिने-चुने प्राक्तन टीचर्स व स्टुडेंट्स भी रहेंगे । अब जो शेष बचे हैं उसी में घनचक्कर है । जो हजार बच्चों में मात्र दो सौ का चयन करना है । कॉलेज कप्तान, उपकप्तान, अलग-अलग हाउस के कप्तान, प्रोग्राम में हिस्सा लेने वाले बच्चों के अभिभावकजन आदि को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है । अब कॉलेज अपनी सफ़ाई में कुछ भी कहे, हक़ीक़त तो यही है । कॉलेज को नेहा के सेन्टिमेंट से क्या लेना देना ?

मगर नेहा को भी इससे क्या मतलब कि उसके कॉलेज में कौन आ रहा है और कौन नहीं आ रहा है, किसे किस मकसद से बुलाया जा रहा है और किसे किस कैल्कूलेशन के तहत बाहर रखा जा रहा है । वह जानती है तो सिर्फ़ यही कि उसके कॉलेज में 'हीरक जयंती' है जहाँ उसे हर हाल में मौजूद रहना है । यह वही कॉलेज है जहाँ वह चौदह वर्ष पहले प्रेप में भरती हुई थी, और क्लास में दूध की बोतल ठूंस कर उसे सुला दिया जाता था । उसे याद है कि जब वह के.जी. में थी एक दिन डर के मारे टीचर से नहीं कह सकी थी कि उसे टॉयलेट जाना है और जब उसकी चड्ढी गीली हो गई थी तो उसे दिनभर दरवाज़े के बाहर रहना  पड़ा था, उसे याद है कि जब वह क्लास नाइन्थ में थी तब बास्केटबॉल में डिस्ट्रिक्ट चैम्पियन बनी थी और कॉलेज ने ख़ूब वाहवाही लूटी थी।

पिछले चौदह वर्ष में नेहा ने यही जाना है कि 'दुनिया' का मतलब है उसका कॉलेज । तमाम खट्टी-मीठी यादों के साथ उसका कॉलेज ही उसका सब कुछ है । जब वह घर पर रहती है वह कॉलेज को याद करती, कॉलेज का काम करती, साथियों की बातें और टीचर्स की बातें याद कर मन ही मन मुस्कराती रहती है । जब वह घर से बाहर जाती तो कॉलेज उसके साथ-साथ चलता । कॉलेज ही उसका दिल और कॉलेज ही उसका दिमाग है। कॉलेज उसके दिमाग में इस कदर पैठ जमा चुका है कि जब वह गहरी नींद में रहती है तो कॉलेज के खेल का मैदान, कॉलेज का ख़ूबसूरत बागान, म्यूजिक रूम, स्टेडियम का बड़ा हॉल, क्वीन विक्टोरिया की मैली होती श्वेत आदमकद मूर्ति और राजकुमारी डायना के पोर्ट्रेट उसके सपने में होते। कॉलेज की ईंट-ईंट से उका अटूट सम्बन्ध है । कॉलेज में घुसने के लिए उसे किसी की इजाज़त की ज़रूरत नहीं है । एन्ट्री कार्ड की ऐसी-तैसी । अगर गैर इजाज़त कॉलेज उसके सपने में आ सकता है तो उसे भी सम्पूर्ण अधिकार है कॉलेज में जाने का । घर में माँ ने अच्छे-अच्छे पकवान तैयार किए, औरों ने खाया उँगलियाँ चाटीं, सराहा मगर उसके अपने बच्चे चखने से भी रह गए तो ख़ाक अच्छा खाना पका! कौन-सा धर्म है यह ? नेहा प्रोग्राम अटेंड करने का मन बना लेती है।

पहले दिन का प्रोग्राम अटेंड करने के लिए नेहा घर से निकली। कॉलेज के फाटक तक पहुँचते-पहुँचते लगभग आधा घंटा लग गया और फिर वही हुआ जा होना था। उसे फाटक से ही खदेड़ दिया गया। मुँह लटकाये वह घर लौट गयी। उसके माता-पिता ने उसे तसल्ली दी मगर उसका कोई असर नहीं हुआ और वह अगले दिन फिर पहुँच गई । उस दिन ख़ास भीड़ नहीं थी । वज़ह यह थी कि उम्मीद के विपरीत पहले दिन का कार्यक्रम फ्लॉप गया था । फाटक से एक-एक करके लोग भीतर प्रवेश करते रहे । नेहा ने तीन-तीन बार भीतर जाने की कोशिश की और तीनों बार उसे डाँट सुननी पड़ी । चौथी बार जब वह दुखी होकर वापस जाने लगी तब एक टीचर ने कहा कि वह वहीं खड़ी रहे, जगह खाली रहने पर भीतर जाने दिया जायेगा । फिर लगभग पौन घंटे की प्रतीक्षा के बाद उसे अनुमति मिली । 

अंदर और बाहर की साज-सज्जा, हॉल के भीतर और बाहर की कड़ी सुरक्षा व्यवस्था, विशिष्ट अतिथियों के लिए विशेष किस्म की कुर्सियाँ, मेहमान नवाजी में प्रोग्राम से ज़्यादा दिलचस्पी, और प्रोग्राम के पहले पौन घंटे की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त कि कॉलेज में क्या-क्या सुविधाएँ हैं, आगे क्या-कुछ करने का इरादा है, कॉलेज के टीचर्स कितने काबिल हैं, कितने विद्यार्थी डॉक्टर, इंजीनियर और आई. ए. एस. बने हैं तथा यहाँ के अनुशासन की चर्चा फॉरेन मैगजीन तक में होती है तथा अंत में यह बयान कि विद्यार्थियों को स्कूल के माहौल के बजाय घर-परिवार जैसा वातावरण मुहैया करवाया जाता है । यह सुनकर नेहा स्तंभित हो गयी थी । भाषण के बाद तालियों की गड़गड़ाहट थमती ही न थी । एक अकेली नेहा भाव-विह्वल होकर पत्थर की मूरत बन गई थी।

तीसरे दिन सुबह-सुबह नेहा के घर फोन घनघनाया, नेहा ने चोंगा उठाया। उधर से उसकी सहेली, कॉलेज के रेड हाउस की कप्तान ''अभी-अभी कॉलेज आ जाओ, आज डांस का प्रोग्राम हैं, लड़कियाँ आ रही हैं, दो बजे तक प्रैक्टिस चलेगी फिर मेक-अप शुरू होगा, म्यूजिक टीचर ने कहा है तुम्हारी मौजूदगी जरूरी है।''

नेहा ने उत्तर दिया- '' हूँ: जरूरी है । मुझे तो दरकिनार कर दिया गया है । मैं अफ़सोस कर रही हूँ कल क्यों चली गई थी । मुझे नहीं जाना चाहिए था। कल मैं जैसे ही हॉल के अंदर जा रही थी प्रिंसिपल ने मुझे इस कदर घूर के देखा जैसे मैं कोई क्रिमिनल हूँ । अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती, म्यूजिक टीचर से कह देना उन्हें और प्रिंसिपल को उनका कॉलेज मुबारक।'

सहेली ने जोशीली आवाज़ में कहा--''कम-ऑन यार ! थूक दो अपने गुस्से को। यह कॉलेज है और रहेगा... यह तुम्हारा कॉलेज है और आगे भी कहती रहोगी कि तुम इस कॉलेज की स्टुडेंट थी। वही हाल सिस्टर लोगों का है, वही लोग क्या पर्मानेंट हैं ? जाने कितनी टीचर्स आयीं और चली गयीं। जो होना था हो गया अब तो तुम्हें याद किया जा रहा है...अरे अब छोड़ो भी ! थूक दो अपना गुस्सा आज इज़्ज़त का सवाल है, मंत्रीजी आयेंगे, नगर प्रमुख आयेंगे, टी. वी. पर हमारे कॉलेज की लड़कियों को दिखाया जायेगा, वी शुड बी दि बेस्ट !''
-'ओ. के. अभी खाना-वाना खाकर आती हूँ'' नेहा बोली।
-''ओ नो यार! अभी आ जाओ, सारी लड़कियाँ सुबह-सुबह आ रही हैं, घर लौटते-लौटते रात दस' बज जायेंगे, सभी लड़कियों के लिए पूड़ी सब्जी की व्यवस्था है, मैं भी दो बिस्किट खाकर निकली हूँ।'' सहेली ने कहा।
-''ओ. के. देन कमिंग, तुम नहीं मानोगी, अभी आ रही हूँ ।" नेहा ने फोन रख दिया ।

 ‌‌‌‌‌‌‌‌      ठीक नौ बजे नेहा कॉलेज पहुँच गई । उसने कई राउंड प्रैक्टिस करवायी, मेक-अप भी शुरू हो गया । मगर कहाँ पूड़ी ? कहाँ सब्जी ? कोई झाँकने तक नहीं आया । लगभग साढ़े चार बजे बाहर का नज़ारा देखने के लिए नेहा बॉलकनी पर आकर खड़ी हो गई । उसकी निगाहें फाटक से थोड़ी दूर खड़ी उसकी सहेली अमृता पर गई। अमृता ने हाथ हिलाकर इशारे से समझाया कि उसे घुसने नहीं दिया जा रहा है।

अमृता को भीतर लाने की मंशा से नेहा वहाँ से चलने लगी । चलते समय उसने देखा ढेर सारे बच्चे एक कमरे के भीतर कैद हैं और एक बूढ़ी आया उन पर निगरानी रखे हुए है । उसी आया से पता चला कि प्रोग्राम में बच्चों का प्रवेश वर्जित है । जो माता-पिता प्रोग्राम में बच्चों को ले आये हैं वे प्रोग्राम के बाद अपने-अपने बच्चों को ले जायेंगे ।                नेहा ने अपनी एक सहेली से कहा--''धिक्कार है माता-पिताओं को अपने सुख और मौज-मस्ती की ख़ातिर ये लोग कौन-सा बीज बो रहे हैं ? जब यहीं बच्चे बड़े होंगे तब वे सहज-सरल ढंग से औरों को वंचित करने लगेंगे । मन के अचेतन धरातल पर आज की घटना पैठ जमा रही है और आगे चलकर यही बच्चे बाप बनकर माता-पिताओं की सारी उम्मीद पर पानी फेर देंगे । फिर उसने बूढ़ी आया को तरेर कर देखा और ''माई फुट'' कहके दनदनाती अपनी सहेली अमृता को लेने पहुँच गई ।

फाटक के बाहर निकल जाने के बाद नेहा जब दुबारा प्रवेश करने लगी तो कई हाथ उसकी ओर बढ़ने लगे । एन्ट्री कार्ड रहता तब न किसी का हाथ सुशोभित करती । अपनी सफ़ई में उसने सुबह से बीती सारी बातें सुनायी पर किसी को फुर्सत हो तब न उसकी सुने, सबकी निगाहें तो सजे-धजे, हँसते-मुस्कराते शरीर और अदा के साथ कार्ड बढ़ाते चेहरों पर थीं । नेहा ने जो कहा वह सिर्फ़ अमृता ने सुना और अब अमृता उसकी वकालत करने लगी तो वे दोनों ऐसे धकिया दिये गए जैसे मंदिर में प्रसाद माँगते बच्चे धकिया दिए जाते हैं । क्रोध और घृणा से नेहा का चेहरा तमतमा उठा । 
बाउंड्रीवाल के पास खड़ी होकर नेहा ने अमृता से कहा '' लगता है इस कॉलेज को मल्टिनैशनल्स ने खरीद लिया है । एजुकेशन का प्राइवेटाइजेशन और व्यवसायीकरण बंद होना चाहिए । यह कॉलेज धन्नासेठों की तिजोरी में है, हमारे सेन्टिमेंट से इन्हें क्या लेना ? इस 'हीरक जयंती' से कॉलेज के कई लोग रईस बन जायेंगे।''
अमृता ने कहा- ''मेरी नानी कह रही थी इस साल इस कॉलेज की 'हीरक जयंत' है ही नहीं, अभी दो साल बाकी हैं।''
-''धत् ! ऐसा क्यों होगा?'' नेहा ने आश्चर्य व्यक्त किया।
'-'सच एकदम सच....नानी जी कह रही थी जिस साल यह कॉलेज खुला था उसी साल नानी यहाँ भर्ती हुई थी । कई वर्ष तक यहाँ सिर्फ़ प्राइमरी सेक्शन था।''
-''फिर क्यों इस साल समारोह मनाया जा रहा है? जल्दी क्या थी?” 'इसलिए कि एजुकेशन मिनिस्टर मैनेजर के रिश्तेदार हैं। उनके रहते-रहते हो जाए तो मजे का ग्रांट मिल जायेगा । दो साल बाद मंत्री पद पर कौन रहेगा किसे पता, यहाँ तो आये दिन सरकारें बदलती रहती हैं।''
-'अच्छा!!... हाँ, ये लोग सिर्फ़ नोट पहचानते हैं।''

भूखी-प्यासी सुबह से कॉलेज का बोझ ढोती नेहा ने अपना आपा खो दिया-''धत् तेरी ऐसी-तैसी । ये यांत्रिक-टकसाली लोग वैसे नहीं मानेंगे, इनके साथ तो गुंडई की जरूरत है, अधिकार माँगने की नहीं, छीनने की चीज होती है । क्या कर लेंगे ये ? चलो अमृता !" कह कर नेहा जबरीयन भीतर घुसकर दौड़ने लगी और उसे दौड़ते देख जाने कितने कंठ चीख उठे,उठें, जाने कितने कदम उसकी ओर बढ़ गए और अंततः सौ गज की दूरी पर कई लोगों ने उसे दबोच लिया । कॉलेज की प्रिंसिपल भी वहाँ पहुँच गई । नेहा ने अपनी बातों को दुहराया मगर प्रिंसिपल ने कहा--''झूठी है यह लड़की, मक्कार है, डांस करने के लिए टाँगें दुखती हैं, दौड़ने के लिए प्रोग्राम देखने के लिए टाँगें सही हैं, टाँग पकड़ कर बाहर कर दो इसे, थ्रो हर आउट।''

नेहा चीख उठी-''बहुत हो चुका अब रहने भी दीजिए, खुद ही चली जाती हूँ...इतना बड़ा मैदान है यहाँ प्रोग्राम करवाते तो सारे लोग आ सकते थे, कॉलेज गर्ल्स नहीं हैं और कॉलेज की 'हीरक जयंती मनायी जा रही है....शेम! शेम! शेम!'

प्रिंसिपल ने चीखा-''आई से थ्रो हर आउट'  तुरंत एक टीचर ने उसकी कलाई पकड़ कर खींचना चाहा मगर नेहा ने एक झटका देकर कहा- डोन्ट टच मि...थू! थू !'' फिर पीछे पलट कर बाहर निकल गई।
प्रिंसिपल ने कहा-''आई विल सी हर।''

           सुबकती हुई नेहा फाटक के बाहर खड़ी हो गई। दूर से अपने कॉलेज की इमारतों को देखने लगी। ईंट के रंग की ताजा पोताई, दीए जैसी लौ फेंकती हजारों बत्तियाँ उसे आग सी प्रतीत होने लगीं। उसे लगा कि सारी इमारतें आग की चपेट में हैं। सब कुछ जल कर भस्म हो जायेगा और अब वह कभी नहीं जा पायेगी वहाँ, कौन चल सकता है। अंगारों के ऊपर से? नेहा के मन की आग, क्या-कुछ कर डालने के लिए बेताब हो उठी। 

बाहर मंत्री के आगमन की तैयारी पूरी हो चुकी थी। बहुत दूर सारे. वाहनों को रोक लिया गया था। कॉलेज के कर्ता-धर्ता-विधाता सभी सड़क पर विराजमान थे, दूर से लाल-नीली बत्तियाँ दिखने लगीं, सिंई सिंई की आवाज कानों को चीरने लगी, बड़े-बूढ़ों के हाथ-पैर हिलने -डुलने लगे, और ज्योंही मंत्री महोदय की गाड़ी फाटक के पास आकर रुकने को थी, सारे अवरोध तोड़कर निमिष भर में मोटरकार के सामने दोनों हाथ ऊपर उठाकर नेहा खड़ी हो गई, मोटरकारें रुक गईं। एकबारगी ब्रेक लगने की आवाज़ से लगा कि भयंकर हादसा हो गया है। सारे लोग स्तब्ध-हतप्रभ हो गए। गाड़ी से उतरकर मंत्री महोदय ने नेहा की पीठ पर हाथ रखा और कहा-''अपनी प्रॉबलाम बताओ।'' 
नेहा बोली- "आप अगर फिल्मों में दिखाये जाने वाले मंत्री जैसे न हों तो मैं अपनी बात कहूँगी।'' मंत्री जी हँस पड़े और बोले-''मैं तुम्हारी बातों को अवश्य सुनूँगा।''

नेहा और अमृता दोनों को मंत्री जी अपने साथ भीतर ले गए। कमेटी रूम में एकान्त में अपने सचिव की उपस्थिति में उन्होंने उनकी बातें सुनीं, प्रोग्राम शुरू होने में तनिक विलम्ब हुआ। नेहा और अमृता दोनों हॉल में बैठीं। प्रोग्राम की शुरुआत पिछली शाम की तरह हुई। वही बड़े बड़े अल्फ़ाज़, वही बढ़ा-चढ़ा कर कॉलेज की प्रगति के लिए मंत्रीजी से विशेष अनुदान का विनम्र निवेदन और फिर मंत्री जी को आमंत्रित किया गया।

गुरु-गंभीर मुद्रा में मंत्री जी भाषण देने खड़े हुए। तो बैठी नेहा की आँखों में उत्सुकता फैल गई। मन में आशाएँ हिलोरें लेने लगीं। अमृता भी उसकी उत्सुकताओं और आशाओं में शामिल -सी हो गयी थी। दोनों की आँखें मंत्रीजी पर आकर टिक गयी थीं, आख़र मंत्रीजी न्याय दिलवाने में क्या पहल करते हैं।

मंत्री जी के भाषण में जितनी ही देर हो रही थी, नेहा की परेशानी उतनी ही बढ़ती जा रही थी। खैर, इंतज़ार की घड़ी ख़त्म हुई और मंत्री जी का भाषण शुरू हुआ। पहले तो 'हीरक जयंती समारोह में बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किये जाने के प्रति कॉलेज प्रबंधन और विशेष तौर पर प्रिंसिपल के प्रति आभार ज्ञापन करते रहे मंत्री जी, फिर मौन भाव से तालियों की गरमाहट सहेजते रहे काफ़ी देर तक ।

इधर नेहा दम साधे बैठी रही। शायद आगे वह....। वह सोच रही थी कि मंत्री जी की आवाज़ फिर गूँज उठी.... मुझे प्रसन्नता है कि यह कॉलेज और इस कॉलेज के प्रिंसिपल और सारे स्टाफ इतने वर्षों से सफलतापूर्वक हमारी नन्ही-मुन्नी लड़कियों को शिक्षित, सुसंस्कृत बनाकर न केवल उनका भविष्य संवारने में लगे हैं बल्कि मैं तो कहूँ देश का भविष्य बनाने में जुटे हैं।

मंच से तालियाँ उठीं तो सारे माहौल में पसरती चली गयीं, इस बीच में नेहा के प्रतिवाद में कहे शब्द दबते-कुचलते चले गये। उस शोर में कुछ भी सुना नहीं जा सकता। सुन सकी थी तो सिर्फ़ अमृता और पास की कुछ लड़कियाँ ।

        तालियाँ जब थमीं तो फिर से खामोशी पसर गई। कॉलेज मैनेजमेंट के लोग और ख़ासकर प्रिंसिपल उत्साह से काफ़ी भर उठी थीं। वह अपनी पीठ मानो खुद थपथपा रही थीं । नेहा उतनी ही उत्तेजना से भरी जा रही थी। मंत्री जी का कहा एक-एक शब्द काँटों की तरह चुभ रहा था। कुछ ही देर पहले मंत्रीजी के द्वारा दिये गये आश्वासन भरे शब्द याद आ रहे थे और सभी कोरे शब्द से प्रतीत हो रहे थे। मंत्रीजी के दोहरे चरित्र का उसे पल-पल एहसास हो रहा था।

इसी बीच मंत्री जी ने फिर से कहना शुरू किया-"यहाँ आने पर उन दोनों लड़कियों की कुछ बातें मैंने सुनी। बड़ी प्यारी बच्चियाँ हैं, फूल-सी कोमल! मैं समझता हूँ प्रिंसिपल खुद अपने स्तर से उन्हें समझा-बुझा लेंगी... इनमें....' 

''नहीं सर, नहीं.... " एक तेज आवाज़ मंत्री जी की आवाज़ से टकरायी । सभी स्तब्ध रह ग ये। मंत्री जी से आगे कुछ कहते नहीं बना उन्होंने दूर तक नजरें दौड़ायीं। यह शायद नेहा की आवाज़ थी। हाँ, यह नेहा ही थी जो काफ़ी उत्तेजना से भरी तेज कदमों से मंच की ओर भागी चली आ रही थी।

-सुभाष चंद्र गागुली
___________________
**(कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ से, प्रथम संस्करण: 2002)
** दस्तक - राघव आलोक , सम्पादक , जमशेदपुर नवम्बर 1999 में प्रकाशित ।
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* कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां देखें:---------
" गांगुली की कहानियों में एक बहुत बड़ा गुण है-- छोटी-सी बात को अपनी संवेदना, चिन्तन, शिल्प के माध्यम से बहुत बड़ी बात कहकर पाठक की भावनाओं को झकझोर देना । कुछ ऐसी ही परिस्थितियां '  हीरक जयंती ' में देखने को मिलती है । बड़े बड़े शिक्षा संस्थानों में मैनेजमेंट की दादागिरी, उसके साथ- साथ  मंत्रियों का दुम हिलाना और एक बच्ची की,शिक्षासंस्थान जिसका वह छात्रा है, निष्ठा तथा भावनात्मक आकर्षण, इस कहानी में अत्यंत सुंदर ढंग से उभरकर आए हैं। "
कृष्णेश्वर डींगर 
अध्यक्ष, वैचारिकी ( ' तटस्थ ' जनवरी- मार्च 2004 में प्रकाशित समीक्षा से )

** " ' हीरक जयंती ' में शिक्षालयो में पनपते भाई भतीजावाद और अनियमितता को आधार बनाया गया है । .......(हीरक जयंती) अपने कथ्य के साथ स्पष्ट प्रभाव छोड़ती है ।"
--- कथाकार कृष्ण मनु 
सम्पादक, स्वातिपथ 
** 

Tuesday, July 20, 2021

कविता - कविताएँ खत्म नहीं होती


मेरी कविताएँ 
शीशों की अलमारियों में
कैद हो गई, और
कालान्तर में उनमें धूल की परतें जम गई
दीमक लग गई, पर
फर्क क्या पड़ता मुझे
मेरी कविताओं की गफलियत से,
आखिर उन्हीं संग्रहों के सहारे
अपना कद ऊंचा किया मैंने ।
भले ही मेरी भावनाओं को
दीमक ने ठेस पहुंचाई हैं
पर मुझे यकीन है
आज से सौ साल बाद
कोई न कोई काव्य प्रेमी
उन्हीं धूल भरी, दीमक लगी
कविताओं को
उत्सुकता से पड़ेगा 
और चीख कर कहेगा
कवि तुम अमर हो
अमर रहोगे ।


© सुभाषचंद्र गांगुली 
लेखन : 1995
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)
_______________



कविता- जीवन के संध्याबेला



न जाने क्या कुछ करने का
अक्सर मन में ख्याल आया था,
बड़े बड़े काम बहुत सारे
करने को सोचा था,
धरती की माटी पर अपना नाम
लिख जाने को सोचा था,
न जाने क्यो कहां
सोच मेरा डूब कर रह गया था
भीड़ ही में कहीं 
खुली हवा मैं तलाश रहा था ,
छोटी सी दुनिया में ही
सिमट कर रह गया था,
अभिलाषाएं थी जो मन में
फंसी रही बस तन में,
दो और दो जोड़ते जोड़ते
बीत गए दिन दम तोड़ते तोड़ते ।
                  (2)
 कल तक छोटी लगने वाली दुनिया
आज लगने लगी अचानक बड़ी,
बादल अभी घिरे नहीं
बिन बादल बरसात स्पष्ट देख रहा हूं,
घड़ी घड़ी मैं देखता घड़ी
थोड़ी ही दूर है नाव खड़ी
कविता बनकर नाच रही जिन्दगी
हर मोड़ पर कविता देख रहा हूं,
निश्चिन्त निर्मुक्त तैयार
अलविदा बोलने वाला हूं,
खत्म हो रहा है सफर / मगर
' निर्भिक ' को मां की छाती से लिपटा
देख रहा हूं ।


सुभाष चन्द्र गांगुली
________________
2019

कविता- अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं

अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं
पैरों तले जमीन खिसकी नहीं
चांद सूरज पर कब्जा हुआ नहीं अभी भी
दिन में तारे निकलते नहीं अभी भी
उल्लू दिन में दिखते नहीं अभी भी
अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं ।
चन्दन और खैर के सारे पेड़ उखडे नहीं
पेड़ों का रिश्ता माटी से मिटा नहीं
चोरों को कुत्ते भौंकते हैं अभी भी
अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं
पैरों तले जमीन खिसकी नहीं ।

सुभाष चन्द्र गांगुली
2003



कविता- कल का आदमी


एक नवजात शिशु
जिसने रोना भी न सीखा था 
कल तक ,
चीख चीखकर रो रहा था
अपने गर्भ  गृह में,
अकेला ......
एकदम अकेला
कंठ चीर कर रो रहा था । 
और उधर
घर के बाहर
सरकारी पहरेदार,
मूंछें ऐंठे ,लाठी लिए 
स्टूल पर बैठा ऊंघ रहा था । 
कल रात दंगाइयों ने
उसके पूरे परिवार को कूट डाला था
मगर उस नवजात शिशु पर रहम किया था । 
आखिर वह बच्चा
कल का आदमी जो था । 

सुभाष चन्द्र गांगुली
12/2001

Monday, July 19, 2021

कविता- क्या होगा ?



क्या होगा
मेरा, आपका
पूरे देश  का 
जब / निर्णय लेने वाले
एक दूसरे पर हमला बोलें ?
क्या होगा
जब / व्यवस्था कायम रखने वाले
खुद ही अव्यवस्थित हो जाएं,
जब / नियम बनाने वाले
खुद ही नियमों का पालन न करें,
जब / रक्षा करने वाले
अपनी ही रक्षा के लिए परेशान हो जाये ?
और, क्या होगा
मेरा, आपका
पूरे देश का
जब / महिला सशक्तिकरण,
महिला सम्मान की बात करने वाले
एक महिला की रक्षा न कर सके ?
क्या होगा
जब / सभागार में कुर्सियां चलने से
लहूलुहान हो जाएं महिला ?


सुभाष चन्द्र गांगुली
12/11/1997
_________________
अमृत प्रभात दिनांक 12/11/1997
 में  प्रकाशित ।

कहानी- अनुकम्पा



दफ्तर से वापस जैसे ही मैंने अपनी गली में प्रवेश किया दुबेजी के घर के सामने भीड़ देख स्तंभित हुआ। स्कूटर बंद कर उसे ठेलते हुए घर तक पहुँचा और पाँच-सात लोगों के बीच खड़ा हो गया। पता चला दुबेजी की मौत हो गयी है। मेरे मुख से निकल पड़ा-'अरे! अभी सुबह वह अपने गार्डन में टहल रहे थे, मुझसे दुआ-सलाम हुआ था, ठीक-ठाक थे, अचानक कैसे चल बसे?"

एक ने पूछा- 'उनकी उम्र क्या थी ?' मैंने कहा- 'दुबेजी मेरी उम्र के थे, हट्टे-कट्टे, जिंदादिल, बीच में शुगर बढ़ गया था, अभी कल ही तो अस्पताल से ठीक होकर लौटे थे। इतनी जल्दी चले गये!'

नत्थूबाबू ने सहजता से कहा-'अरे ठीक है, दुबे के नाती-पोते हैं, सब कुछ निपटा कर गये हैं' मैं उत्तेजित तो उठा-'नत्थूबाबू! गाँव में शादी जल्दी होती है, दुबेजी की शादी भी जल्दी हुई थी, शादी जल्दी हुई तो जल्दी बाप बने, जल्दी बाप बने तो दादा-दादू सब कुछ जल्दी बन गये थे, वे मेरी उम्र के थे यानी उनचास साल, बेतुकी बात करते हुए आपको शर्म आनी चाहिए आखिर आप सत्तर के ऊपर हैं, दुबेजी आपके बेटे समान थे।'

• नत्थूबाबू का चेहरा तमतमा उठा। उन्होंने अपनी लुंगी घुटने तक उठाई और गला फाड़कर कहा-- आप मेरी मौत की कामना करते हैं? अरे गिद्ध के अभिशाप से कभी गाय मरी है क्या ', दुबे को मरना था मर गया, मैं क्या करूँ? मैंने मारा है क्या? ' चूँकि दुबेजी मेरी उम्र के थे और मैं अपनी मौत की कल्पना नहीं कर सकता था इस वजह से मेरी उत्तेजना बढ़ गयी और मैं बोल पड़ा दूसरों के जरा-मरण के बारे में यह जनाब दार्शनिक हो जाते हैं। मगर अपने बारे में कुछ भी बुरा नहीं सोच सकते हैं...उस दिन जब बाबरी ढाँचा गिरने के बाद दंगा हो रहा था तब यह जनाब बड़े जोश से कह रहे थे "हो जाए हो जाए इस पार या उस पार रोज-रोज का किच-किच, ठीक नहीं है और फिर जब सड़क पर पुलिस वाले बंदूक तानकर लोगों को खदेड़ रहे थे तब आप सड़क की ओर "बबुआ! बबुआ! साला सूअर किधर गया। कहते हुए दौड़े और बबुआ को अपने साथ लेकर ही घर लौटे थे....हमारी इच्छा से मौत नहीं आती है बात सही है मगर हम यह इच्छा तो रख सकते हैं न कि जो पहले इस दुनिया में आये वही पहले जाये । "

इससे पहले कि नत्थूबाबू कुछ और कह पाते हम सब का ध्यान दुबेजी के घर की ओर चला गया। दुबजी के दोनों बेटे झगड़ा करते करते घर के भीतर से बाहर निकल आये और पीछे-पीछे दुबेजी की सास। सास ने चीत्कार किया--अरे कमीनो ! अभी बाप की अर्थी औ नहीं उठी तू भाई-भाई झगड़ै ऽ लागे? काहे का झगड़ा बा रे!....चुप काहे होई ? तनिक हमहूँ तो सुनि प्रभु! बोल काहे बरे लड़त बा?'

'तू नहीं समझेगी, तू भीतर जा, जा।' बड़े बेटे राजेश ने दुतकारा।

नानी आग बबूला हो गयी हाँ, हाँ हम काहे समझी , हम तो रहिल अनपढ़, गँवा ! दुई ठो किताब का पढ़ लिएस छोट-बड़न का ज्ञान घुस गवा , सरवा तू हमार कदिर न कर, आपन बापौ का सनमान न कर ऊपरवालन का तो डर, इ लड़े--मिड़ै का समय बा का? " दोनों भाई चुप हो गये मगर नानी के भीतर जाते ही दोनों भाइयों में बहस शुरू हो गयी । छोटे भाई मुकेश ने कहा--'जब तक तू पापा की दी हुई रकम नहीं निकालता तब तक अर्थी नहीं उठेगी । कल रात को पापा ने तुझे तीन हजार रुपये दिये थे , पूरा धरा है तेरे पास, पापा का पर्स खाली है, अलमारी, दराज, तिजोरी सब कुछ टटोलने के बाद मात्र एक सौ तीस रुपये मिले हैं । क्या होगा इससे?" ' मुझे इंटरव्यू में जाना है, गाड़ी-भाड़ा, ठहरने का खर्च, कमीज-टाई सब इसी में होना है मैं एक रुपया भी नहीं दे सकता।'

'इंटरव्यू में अभी देरी है, तब तक पापा के दफ्तर से आज तक की तनख्वाह और कुछ रुपये मिल जाएंगे।'

'तो तभी अनिलजी का कर्जा चुका दिया जाता, क्या जरूरत थी उन्हें मना करने की ?'

'पापा की अंत्येष्टि उधार के रुपये से हरगिज नहीं होगी। उनकी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी। 'माँ की अलमारी में कितने गहने हैं। वे कब काम आयेंगे?"

'वे बुरे दिनों में काम आ सकते हैं।'

'यह बुरा दिन नहीं है तो क्या है? '

' साला टुच्चा, बेईमान तू साला विषखोपड़े से भी खतरनाक है' । 'क्या? क्या कहा तूने? ' और राजेश ने छोटे भाई की गर्दन दबोच कर चार-पाँच हाथ जमा दिये।

' बेईमान ! हरामखोर ! अहसान फरामोश ! बाप की लाश पड़ी हुई है। और तुम्हें इंटरव्यू की पड़ी है। पिछले तीन सालों में बीसन इंटरव्यू दिया है कौन सा तीर मार लिया ?.... पापा ने मोटा डोनेसन दिया था तब जाकर एडमिशन हुआ था , इतना तेज रहा होता तो इंजीनियरिंग पास करने के साथ ही नौकरी मिल जाती.....अभी इंटरव्यू में देर है पैसा नहीं निकाल सकता .....मुकेश गला फाड़कर चिल्ला रहा था । मैंने समझाते हुए कहा 'अब चुप भी हो जाओ, धीरज से काम करो, चिल्लाने से क्या फायदा ? सारा मोहल्ला सुन रहा है। '

मुकेश की आवाज और बुलंद हो गयी-'सुन ले सारा मोहल्ला, सारी दुनिया सुन ले, दुनिया वाले पहचान लें ऐसी औलादों को, सारे बाप सबक ले लें....'

फिर राजेश ने शेर की तरह गरज कर मुकेश को दो घूँसे मारकर जमीन पर पटक दिया। तभी नानी रौद्र रूप में वहाँ प्रकट हुईं--' अरे हरामजादों तू लोगन तो कुकुर होय गइलि। हमनि बिटिया इत्ति कम उमर मा बेवा होय गइलि और तू सरवा लहास उठावे खातिर लड़त भिड़त बा।'

पुनः नाना ने दोनों भाईयों को अलग किया। अनिल पांडे ने नोटों की गड्डी राजेश की ओर बढ़ा दी और कहा ' बेटा रख लो, पापा का काम-काज शांति से कर दो, हमें जब सुविधा हो तब लौटा देना। तुम लोग खामखाह लड़ रहे हो। '

मुकेश चीख उठा--' नहीं !! उधार के पैसे से पापा की अंत्येष्ठि नहीं होगी। ' ठीक उसी समय पार्वती अपने हाथों में एक जोड़ा कंगन लेकर दाखिल हुई। दोनों कंगन राजेश के सामने फर्श पर रखकर बोली-'मेरे पति को शांति से पहुँचा दे। '

नानी ने दोनों कंगन फर्श से उठा लिया और बेटी से कहा-'बिटिया तोर माई अबहिन जीयत बा।'

•मगर पार्वती अब कुछ कठोर हो चुकी थी। उसने अपना घूँघट उठाया और माँ के हाथों से कंगन छीनकर जमीन पर पटकती हुई बोली--  ' ले राजेश उठा उठा देखता क्या है, अगर इससे काम न बने तो मेरे पास और गहने हैं अपना खून भी है। फिर रोती बिलखती वह घर के भीतर चली गयी।

यह पहला अवसर था जब पार्वती ने लोगों के सामने अपना घूँघट उठाया था। चौखट के बाहर किसी ने उसे बिना घूँघट नहीं देखा था।

पार्वती को देख अनिल पांडे की आँखें नम हो गयीं। उन्होंने आहिस्ता आहिस्ता दोनों कंगन जमीन से उठाया और नानी के हाथ कंगन देते हुए कहा-माँ आप दोनों खुद को संभाले, आपका दूसरा बेटा अभी जिंदा है....राजेश और मुकेश अभी बच्चे हैं, ना समझ हैं।'

मगर मामला शांत नहीं हुआ। भावना से उत्पन्न उस कलह ने मुकेश के मन में विद्वेष को जन्म दे दिया । उसके मन की ज्वाला उस दिन भड़क उठी जिस दिन राजेश नई कमीज पर नई टाई लटकाए हँसता खेलता चेहरा लेकर इंटरव्यू के बाद दिल्ली से लौटकर माँ से बोला- माँ! पापा के आशीर्वाद से इस बार मुझे सफलता मिल गयी....नौकरी मिल जाएगी. मगर तुम तो जानती हो बिना दान-दक्षिणा दिए आजकल कुछ नहीं मिलता...वे तीन लाख माँग रहे थे. मैंने दो लाख में मना लिया है, पिताजी के दफ्तर से तीन लाख के करीब मिलेंगे ही। '

पार्वती ने सिर हिलाकर अपनी सहमति जतायी। मुकेश ने अपना गुबार निकाला-'वाह! क्या खूब! बिना लिए-दिये काम नहीं होता, जब तक पापा रहे तूने उन्हें लूटा, अब उनके जाने के बाद भी तू उनके पैसों को लूटेगा?...तेरे चक्कर में मैं आगे नहीं बढ़ सका, दोनों को हायर एजुकेशन दिलाने की क्षमता पापा की नहीं थी इस कारण उन्होंने मुझे साइंस नहीं दिलाया, भूगोल, नागरिकशास्त्र, समाजशास्त्र सब फालतू विषय दिला. दिये, मैंने उनसे कहा था उन सबों में मेरी रुचि नहीं हैं इससे भविष्य नहीं बनता मगर वे माने नहीं, सिर्फ तेरे चक्कर में....अब तो मेरा ग्रेजुएशन भी नहीं हो पायेगा, मैं तुझे एक रुपया भी नहीं लेने दूँगा। राजेश चिल्लाया-तू क्यों बकैती मार रहा है? मैं माँ से बात कर रहा हूँ । तू छोटा है छोटे की तरह रह, हर बात पर टाँग मत अड़ाना । मुकेश ने गुस्सा झाड़ा-क्यों न बोलू ? पापा के रुपयों पर तेरे अकेले का अधिकार है क्या ? नौकरी जुटा नहीं सकता तो रिक्शा चला, ठेला चला, पैसा देकर एडमिशन, पैसा देकर नौकरी, उल्लू का पट्टा गुस्से से लाल होकर राजेश न लाठी थामी ही थी कि पार्वती चीख उठी-ख़बरदार! मैं अभी जिन्दा हूँ.. मुकेश तू आजकल ज्यादा बोलने लगा, जुबान पर लगाम दे, वह तेरा बड़ा भाई है, उसकी पढ़ाई के लिए जो खर्चा हुआ वह तेरे पापा ने किया है तू उससे क्यों खफ़ा है ? तेरे पापा रहते तो तुझे भी आगे पढ़ाते, लायक बनाते अपने पिता की आत्मा को शांति से रहने दे।'

पार्वती की डाँट से राजेश और मुकेश तो चुप हो गये मगर अब राजेश की बीबी चोंच चलाने लगी...
'माँ जी! आपही ने इस लड़के को सिर चढ़ा रखा है वर्ना क्या मजाल कि यह छोकरा इनके मुँह लगता....एक नंबर का बैलट, भेजा में कुछ है तो नहीं दिन भर किताब रटता रहता है। तब भी नंबर नहीं ला पाता और इंजीनियर भाई को गधा कहता है, कितनी जलन है, आप इसे समझा दीजिए ठीक से बात किया करें।'

मुकेश बोल पड़ा-- 'इनकी सुनिये ! खाए का ठिकाना नहीं नहाये के तड़के। क्या जरूरत थी बेरोजगार लड़के से शादी करने की? जाओ अपने डैडी से दो लाख रुपये माँग लाओ । बेरोजगार लड़के से कोई बेवकूफ़ ही आजकल अपनी बेटी का ब्याह करता है। जैसी करनी वैसी भरनी। जाओ घर से रुपये ले आओ।'

राजेश की बीबी बोली-'अभी मैं अपने भाइयों को बुला लाती हूँ, दिमाग ठिकाने में आ जाएगा, इसे सबक सिखाने की जरूरत है।'

पार्वती बोली- तुम लोगों ने अभी चुप नहीं किया तो मैं खुदकुशी कर लूँगी।' फिर वह फूट-फूट कर रोने लगी।

दो-चार दिन बात पता चला दुबेजी के दफ्तर में उनके परिवार के किसी एक को अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिल सकती है। पार्वती ने कहा-'राजेश की जरूरत ज्यादा है, वह शादीशुदा है, राजेश कर ले।'  

मगर राजेश बोला-'मैं इंजीनियर हूँ, अपनी हैसियत के मुताबिक नौकरी करनी चाहिए, इसे मुकेश कर ले तुम्हें पेंशन मिलेगी, पापा के रुपये में से दो लाख मुझे दे दो, अभी भी समय है, मैं उनसे दस दिन की मुहलत माँग लूँगा। मुझे नौकरी मिल जाएगी, पापा का सपना पूरा हो जाएगा, उनकी आत्मा को शांति मिलेगी।

इस बार मुकेश ने एतराज नहीं किया। पार्वती ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। मुकेश ने पिता के कार्यालय में अर्जी डाल दी।

थोड़े दिनों के बाद एक नई समस्या खड़ी हो गयी। पैसों की भागदौड़ कर सब पैसा मिलने को हुआ तो पता चला दुबेजी को जो रुपये मिलने थे उसमें से हाउंस बिल्डिंग एडवांस, कोआपरेटिव लोन, स्कूटर एडवांस आदि काटने के बाद मात्र तीस-बत्तीस हजार रुपये ही मिलेंगे और इस खबर से राजेश को बेहद हताशा हुई और घर में बिना किसी से कुछ कहे उसने दुबेजी के कार्यालय में अनुकंपा के आधार पर नौकरी प्राप्त करने का दावा पेश कर दिया ।

हफ्ते भर बाद जब एक पत्र द्वारा पार्वती से स्पष्टीकरण माँगा गया कि राजेश या मुकेश किसके पक्ष में नौकरी पर विचार किया जाए तो पार्वती धर्म संकट में पड़ गयी । राजेश पर उसका भरोसा नहीं था मगर उसकी हताशा को वह समझ सकती थी। उसकी जरूरतों को नजरअंदाज नहीं कर सकती थी और दूसरी ओर मुकेश कम पढ़ा-लिखा है उसे नौकरी मिलने में असुविधा हो सकती थी । बहुत चिंतन-मंथन के बाद जब किसी एक के पक्ष में निर्णय लेने का साहस वह नहीं जुटा सकी, तब उसने चुप्पी साथ ली।

उधर दोनों भाई रोजाना पिता के कार्यालय में चक्कर लगाने लगे और छोटे-बड़े अधिकारियों को अपनी-अपनी जरूरत समझाने लगे और एक-दूसरे को परिवार के प्रति गैर-जिम्मेदार ठहराने लगे। दुबेजी के घर की बातें बतंगड़ बनकर सबके मुँह चढ़ गयी ।

एक रोज अनिल पांडे ने मुझसे मुलाकात की और दुबेजी के घर की जानकारी माँगी । मैंने उन्हें सारी बातें कहीं । सुनते ही उनका चेहरा उतर गया। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उन्होंने कहा- ' मालूम उस दिन जब पार्वती ने घूँघट उठाया था तब उसे देख मैं दंग रह गया था। मैंने देखा वही शक्ल, सूरत, वही लावण्य, वही मासूमियत और कमनीयता आश्चर्य! उम्र के इस पड़ाव पर पार्वती पारो प्रतीत हो रही थी। मेरी आँखों के सामने मेरा बचपन नाचने लगा था।

जमशेदपुर में हम दोनों एक ही गली में अगल-बगल रहते थे। मैं, पारों और कई लड़के-लड़कियाँ एक साथ मिलकर सुरपिट्टी, कबड्डी, इक्कट-दुक्कट खेला करते थे। उस दिन मुझे अचानक एक अद्भुत घटना याद आ गयी। पारो और उसकी सहेली सीमा ने गुड्डा-गुड्डी की शादी रचायी थी। शादी में मैं मेहमान के रूप में आमंत्रित था। समारोह में पहुँच कर मैंने कहा था 'अरे पारो। यहाँ ससुर नहीं हैं ?'

जवाब में उसने कहा था-" अब ससुर कहाँ से ले आऊँ?" मैंने कहा था-"फ्रॉक पहनकर सास नहीं बनते, तुम दोनों साड़ियाँ पहन लो अभी मैं ससुर ढूँढ़ कर लाता हूँ ।"

फिर थोड़ी देर बाद मैं और मेरा मित्र अपने-अपने पिता की धोती लपेट कर अँगोछा चादर जैसा डाल पारो के घर पहुँचे । पारो और सीमा ने साड़ियाँ लपेट ली थीं । मैंने सीमा का हाथ अपनी मुट्ठी में ले लिया था । खेल के उस मनोरम दृश्य को देख पारो के माता-पिता हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये थे । पारो बार-बार पूछती रही-"माँ! साड़ी गलत पहनी हूँ क्या? ठीक पहना दो ना "--पैंतीस साल का अंतराल दीर्घ अंतराल होता है। लगभग एक जीवन काल स्मृति-पटल से बाल्यकाल तो क्या युवावस्था की बातें भी लुप्त हो जाती हैं। उस दिन मुझे लगा पारो एक मीठा अतीत है।

पार्वती उसका वर्तमान पार्वती पारो नहीं बन सकती। अलबत्ता मन के आँगन में फुदक सकती है...पारो को असहाय स्थिति में देख मैं तार-तार हो गया था। मैं पारो को दुःखी नहीं देखना चाहता हूँ । मैं उसे हँसते मुस्कराते देखना चाहता हूँ ।

अनिल पांडे के आग्रह पर मैं उनके साथ दुबेजी के घर पहुँचा । घर पहुँच कर अनिल पांडे ने पार्वती की ओर एक कागज बढ़ाकर कहा--“यह नौकरी के लिए आवेदन-पत्र है, आपकी ओर से अनुकंपा के आधार पर आपको आपकी योग्यतानुसार नौकरी आराम से मिल जायेगी । पहला हक आपका है, आप अगर नौकरी क़बूल करती हैं तो समस्त झंझट-बखेड़ा दूर हो जायेगा... इस पर दस्तख़त कर दीजिए ।

'मैं ??' पार्वती मेरा मुँह ताकने लगी । अनिल पांडे ने कहा- जी! आप नौकरी करेंगी। राजेश को नौकरी ढूँढने दीजिए । वह पढ़ा-लिखा है, आज नहीं तो कल नौकरी ढूँढ ही लेगा । मुकेश को पढ़ने दीजिए । उसके मन का क्षोभ मिट जाएगा। आप नौकरी करके गृहस्थी संभालिये, सब कुछ जैसा पहले चल रहा था वैसा ही चलने दीजिए..... अनुकंपा के आधार पर नौकरी देने का उद्देश्य दिवंगत कर्मचारी परिवार को सुचारू रूप से चलते रहने देना है न कि इसकी वजह से परिवार में विघटन या बिखराव लाना, अनुकंपा का अर्थ इस संदर्भ में दया या दान नहीं है बल्कि मजबूती प्रदान करना है... तुम्हें शक्ति चाहिए. तु पारो बनकर दुनिया में नहीं जी पाओगी... तुमने घूँघट उठाकर फेंक दिया है । दुनिया देख ली है, जमाने के हिसाब से काम करो।"

'अनिल !!!' पार्वती के मुख से अनायास निकल पड़ा। 'हाँ पारो! मैं....अनिल ' ।

और पार्वती ने आवेदन-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिया ।

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
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' लेखा परीक्षा प्रकाश' 
जुलाई 1999 में प्रकाशित ।

(कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ से, प्रथम संस्करण: 2002)