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Wednesday, September 29, 2021

लघु कहानी- स्पीड टैक्सी


ट्रेन से उतरकर ज्योंहीं मैं प्लेटफार्म के बाहर निकला कईयों ने मुझे घेर लिया , सभी ने एक स्वर से पूछा --" बाबू टैक्सी ?" 
बड़ी फ़जियत , किससे बात करुं ! मैंने सिर हिलाकर ना का संकेत दिया ।
वे  मेरे पीछे पीछे चलते रहे और मैं अपना गर्दन हिलाता रहा । कुछ दूर बाद एक-एक करके सब खिसक गये मगर एक आदमी तब भी पिछलग्गू था, गिडगिडाता रहा । मैंने उससे कहा  --" नेताजी मार्ग चलना है ।"
--" डेढ सौ रुपए लेंगे ।" उसने कहा ।
---" क्या डेढ़ सौ रुपए ?" मैंने कहा।
---" बाबू इससे कम में कोई नहीं जाएगा ।"
----" मेरे भाईसाहब यही रह रहे हैं बीसों साल से उन्होंने बताया है कि चालीस पैंतालीस लगेगा ।"
----" अरे वो तो लाइन वाली टैक्सी में । धूप में अभी पचास मिनट खड़े  रहेंगे फिर टैक्सी मिलेगी । मेरी स्पीड टैक्सी है, तुरंत पहुंच जाएंगे ........ बाबू कहां धूप में खड़े रहेंगे ! खूबसूरत आदमी, रंग जल जाएगा । धूप में घूमने की आदत भी नहीं है आपकी ......"
इतनी देर में हम सड़क तक पहुंच गये । देखा सचमुच एक विराट लम्बी लाइन लगी हुई थी । लाइन देख मेरा पसीना छूटने लगा ।
असहाय महसूस कर मैंने उस टैक्सीवाले को देखा । मुस्कराकर उसने कहा --" देख रहे हैं न ? बीस रुपए कम दीजिएगा आइए ।"
---"तब भी बहुत ज्यादा है ।"
---" बाबू पचास मिनट लाइन में खड़े रहेंगे तो धूप में सौ रुपए की एनर्जी लास होगी, समय भी बर्बाद होगा । पचास मिनट किसी की जिंदगी में मायने रखता है ।"
उसकी बातों से मैं हिप्नोटाइज्ड-सा हो गया । उसने मेरे हाथ से दोनों एटैची ले ली ।
मैं उसके पीछे-पीछे सड़क की दूसरी ओर टैक्सी तक पहुंच गया ।
उस आदमी ने मुझे टैक्सी पर बिठाया, मेरा सामान अंदर रखा। मैंने देखा ड्राइवर की सीट पर दूसरा आदमी बैठा हुआ था । उस आदमी ने बीठाकर कहा-- "बाबू जल्दी से पचास रुपए दीजिए । "
---" क्यों ?" मैंने पूछा ।
--" दीजिए ना ! जल्दी कीजिए । "
मैंने रुपया दे दिया । उसने कहा--" बाकी अस्सी रुपए ड्राइवर को दे दीजिएगा ।"
              
ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट कर दिया । रास्ते में मैंने उस आदमी के बारे में ड्राइवर से पूछा । उसने बताया " वह आदमी दलाल था । टैक्सी का बिल पचास साठ तक चढ़ेगा, रास्ता खाली हो तो कम, भीड़ या जाम हो तो ज्यादा होगा । वह मात्र बीस रुपए ज्यादा ले रहा है और उसके लिए उसे कभी कभार  पच्चिस तीस मिनट खड़े रहना पड़ता है, सवारी मिलने में बहुत दिक्कत होती है ......उसी रुपए से उसका गुजर बसर होता है । ।"
मैंने पूछा --" उसने पचास रुपया एडवांस क्यो लिया ?"
ड्राइवर ने कहा --" वह पचास रुपए ब्रोकर सर्विस चार्जेज है । ब्रोकर्स एसोसिएशन संस्था द्वारा यह सेवा प्रदान किया जाता है । यह संस्था चार लोग द्वारा चलाया जाता है ।"
--" यानी कि वह सर्विस एजेंट है ? सस्था की नौकरी करता है ?" 
--" जी । सही पकड़े है । "
--" यानी कि वह पचास रुपए अपने मालिक को दे देता है ? "
--" जी । कानून तोड़वाने में जो लोग मदद करते हैं वे लोग ले जाते हैं । उसके बीस कटने के बाद जो तीस बचते हैं, उसके दो ढाई सौ हिस्से होते हैं ।  किसी किसी के हिस्से में पांच पैसे तक आते है। एक एक पैसा का हिसाब सही रखा जाता, एक बाबू है , ईमानदारी से काम होता है......बेलागन पाइंट पर ड्यूटी लगवाने के लिए मोटी राशि दी जाती है । "
--" ये सब मुझे मालूम नहीं है, अंदर खाने की बात है । किसे दिया जाता, कितना दिया जाता है, ये सब बड़े लोगों की बात है......  आप क्या पहली बार महानगर में आए हैं ?"
--" नहीं पहले भी आया था ।"
--" बचपन में ?"
--" जी । कैसे पता ?"
--" चल जाता है पता । चालीस साल से यही कर रहा हूं । "
थोड़ी देर तक चुप रह कर उसकी बातों पर सोचते रहने के बाद मैंने फिर पूछा --"ऐसा गैर कानूनी काम क्यों करते हैं लोग ? "
---" दादा जिंदगी की गति बढ़ गई है। सभी लोग तेज़ रफ़्तार से चलना चाहते हैं । स्पीड पोस्ट की देखा-देखी स्पीड टैक्सी  चली है। आखिर आपको भी तो घर पहुंचने की जल्दी थी न? और हमने आपको गति दी है । इसीलिए न आपको ' स्पीड टैक्सी' पसंद आयी है ना ? आप जैसे स्पीड पसंद लोगों के कारण सही ढंग से चल रही है ये व्यवस्था , कितने सारे लोगों के पेट भर रहे हैं.... लीजिए आ गया है आपका घर । दो पैसे बचाने के चक्कर में अभी तक बीच लाइन में ही दो अटैची लेकर खड़े रहते । हाथ में अलग दर्द होता । जिनके पास पैसा है वे सब इसे ही पसंद करते हैं । गाड़ी रोक कर उसने दोनों अटैची उतार दी । मेरे बड़े भाईसाहब फाटक खोल कर मुझसे बात करने लगे थे । 
ड्राइवर ने कहा बाबू जल्दी करिए । मैं जेब टटोल रहा था, पांच सौ का नोट निकाला, उसने कहा," है तो फुटकर, फुटकर दीजिए , जल्दी कीजिए, इतना टाइम लगाने से कैसे चलेगा, सवारी लेनी है जल्दी कीजिए ।"

सुभाष चन्द्र गांगुली
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पत्रिका ' स्वातिपथ ' अंक अक्टूबर--दिसम्बर 1998 में प्रकाशित।



Tuesday, September 28, 2021

कहानी- घर, बाग़ और वो


मुकदमे की सुनवाई के दिन अभिजीत और सीमा अपने-अपने वकीलों के साथ अदालत पहुंचे । अदालत में सीमा ने कहा --"माननीय न्यायमूर्ति जी ! मुझे केवल दो बातें करनी है........... मैं अधिकार की बात करना चाहूंगी, अर्द्धांगिनी बनने का अधिकार । अग्निदेव समेत सारे देवताओं को साक्ष्य मानकर मांग में सिन्दूर भरकर, आजीवन साथ रहकर सुखी जीवन व्यतीत करने की जो कसमें मेरे पति ने खायी थीं, उस धर्मानुष्ठान से प्राप्त अधिकार की बात.........  अपने पति की संतान को नौ महीनें कोख में पालकर उसे जन्म देने से मातृत्व का जो हक़ प्राप्त हुआ है , उस हक़ की बात पर गम्भीरता से विचार करने की अपील मैं अदालत से करती हूं ......... जज साहब ! हम पति-पत्नी के बीच सामान्य, स्वाभाविक नोंक झोंक और मनमुटाव के सिवा कभी ऐसा कलह नहीं हुआ जिससे डिवोर्स का केस बने, यह केस निरधार, तथ्यहीन है, मुझे जबरदस्ती घर से बाहर कर दिया गया, में छली गई हूं । डिवोर्स नोटिस पाकर मैं सातवें आसमान से गिरी हूं ....... मुझे  मेरा अधिकार दिलाया जाए......... जज साहब ! .मै अबला नारी हूं, मैं न अकेली रह सकती और न रहना चाहूंगी । मैं हरगिज़ तलाक नहीं चाहती, अदालत से विनती है कि केस को खारिज़ कर दिया जाए । और मेरे पति को समुचित आदेश दिया जाए !"
                 जब अभिजीत से कहा गया कि वह अपनी दलील पेश करे तो वह कटघरे में खड़े रहकर एक ही बात दोहराता रहा "मैं सीमा से  तंग आ गया हूं । उसका आचरण ठीक नहीं है । उसके साथ एक छत के नीचे बीताना असम्भव है 
जब उसके वकील ने उसे समझाया कि उसे मुंह खोलना चाहिए, अपनी बात साफ़- साफ़ रखनी चाहिए वर्ना सीमा के पक्ष में निर्णय हो जाएगा, उल्टा अदालत उस पर हर्जाना भी लगा सकती तब अभिजीत ने अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया ---" मि लार्ड ! तीन कारणों से मैं इस औरत को तलाक़ देना चाहता हूं : मेरा पहला कारण यह है कि जिन पेड़ पौधों के साये में खेल-कूद कर बड़ा हुआ हूं, जिनकी डालियों पर बैठ कर मैंने प्रकृति की सुन्दरता देखी, जिन पेड़ों के फलों से मेरे शरीर का रक्त मांस तैयार हुआ, उन पेड़ों से जो औरत नफ़रत करती है वह मुझसे कैसे प्यार कर सकती है ? ............
प्रकृति हम सब की मां है उसकी हरेक चीज सुन्दर है । पेड़ -पौधे , सूखी पत्तियां, टहनियां, यहां तक की पंछियों की बीट से भी मेरा लगाव है । मां की रक्षा करना बेटे का परम धर्म होना चाहिए चाहे उसके लिए कोई भी कुर्बानी क्यो न देनी पड़े । मेरा जीवन साथी बनने का हक़ उसे ही मिलना चाहिए जो मेरे बाग- बगीचे और खेतों को सहर्ष स्वीकार कर सके ।‌......... 
          दूसरा कारण यह है कि यह औरत अपनी शारीरिक ख़ूबसूरती पर इतना ध्यान देती है कि दिनभर यह अपने में ही व्यस्त रहती है, यह इतनी निर्दयी है कि अपने एकमात्र नन्हे बेटे को घर से दूर ' चाइल्ड केयर सेंटर' में भेज दिया । मां- बाप के रहते हुए भी उस मासूम को अनाथ सी जिन्दगी बितानी पड़ रही है ..............
मुझे बच्चों की मां चाहिए थी, बच्चों को जन्म देने वाली मशीन नहीं, मुझे घर संसार चाहिए मकान नहीं, मुझे जीवन साथी चाहिए, बार्बी डॉल नहीं ।"
अभिजीत फूट फूट कर रो पड़ा । थोड़ी देर के लिए अदालत में ख़ामोशी छा गई । ख़ामोशी भंग करते हुए जज साहब ने पूछा --" आपका तीसरा कारण क्या है ?"
           अपने आंसुओं को पोंछ कर अभिजीत ने उत्तर दिया --" मेरा तीसरा कारण यह है कि मैं एक असाधारण लम्बा आदमी हूं , मैं क़रीब सात फुट का हूं, मेरे सामने सीमा बौनी लगती है । उसनेे चुन चुन कर वही पेड़ कटवा दिए है जो बहुत ऊंचे थे और उसकी यह हरकत एक बहुत बड़ी सच्चाई को व्यक्त करती है कि वह मुझसे ईर्ष्या करती है । मेरे प्राण से प्रिय पेड़ों को जमींदोज करवा दिया । जज साब ! ये तीनों कारण तलाक़ के लिए प्रर्याप्त होने चाहिए । "
              अभिजीत के द्वारा लगाए गए आरोपों के स्पष्टीकरण देने के लिए जब सीमा को अवसर दिया गया तब वह काफ़ी कन्फ्यूज्ड दिखी, जिस आत्मविश्वास के साथ पहले अपनी बात रखी थी, वह आत्मविश्वास अब एकदम डगमगा चुका था , उसके  हाथ पैर फूलने लगे, होंठ थरथराने लगे ।
अचानक उसने सारे आक्षेपों को कबूल कर लिया और तलाक़ के लिए राजी हो गई । अदालत की कार्यवाही कुछ देर और चली, दोनों से ढेर सारे सवाल पूछे गए और अंत में दोनों की रजामंदी से तलाक़ की मंजूरी दे दी गई । बेटे की परवरिश की जिम्मेदारी अभिजीत ने मांग ली जिसकी अनुमति अदालत ने दे दी । 
                       
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 अभिजीत की आंखों के सामने सीमा के साथ अब तक के बिताये हुए दिन तैरने लगे । चौबीस वर्ष की उम्र में उसने सीमा से शादी की थी । सीमा बड़े शहर की लड़की, साज सज्जा, बोलचाल, रहन सहन, वेश भूषा सबकुछ पूरी तरह से शहरी, अंग्रेजीयत की नकल । भारतीय संस्कृति से नफ़रत, पाश्चात्य संस्कृति का पक्षधर ।
और इसके विपरित अभिजीत को अपना गांव, गांव के लोग, बागान बाड़ी, गांव का सादा जीवन सबकुछ से गहरा लगाव है । अपने घर से लगभग चालीस किलोमीटर दूर स्थित एक शहर में सरकारी नौकरी करता था अभिजीत । अपने ही वाहन से प्रतिदिन आना-जाना । 
गांव का पुश्तैनी घर " जमींदार का बंगला" नाम से मशहूर है । मोटे-मोटे खपरैलों की छतें, पतली- पतली ईंटों से बनी चौड़ी चौड़ी दीवारें, अनगिनत छोटी-छोटी खिड़कियां, विराट आंगन, आंगन के चारों ओर बड़-बड़े दालान, बंगले के सामने बहुत सुन्दर बागान और दूर- दूर तक फैला हुआ बाग़ है । उस बाग में आम, आंवला, कटहल, जामुन, महुआ, इमली,नीम, बरगद, देवदार, अशोक, पलाश, लीची, बेर, अमरूद, अनार, नारंगी आदि नाना प्रकार के बेशुमार पेड़ हैं । अभिजीत पंछियों के गीत सुना करता, उन्ही पेड़ों के नीचे बैठकर अपना पाठ याद करता ।  प्रकृति उसके रोम रोम में समा चुकी थी ।
 मगर सीमा को पूरा वातावरण असहनीय था । सूखे पत्तों और टहनियों को देख मुंह बिचकाती, गिड़गिड़ाती, बिडबिडाती, पंछियों के बीट देख  खीझ उठती। चिक-चिक, झिक-झिक करते करते दो बरस बीत गए। बेटा प्रशांत जब नन्हे-नन्हे पैरों से चलने लगा तो सीमा उसके कमरे के बाहर जाने से रोकने लगी । बात-बेबात वह कहा करती --" इस देहाती दमघोंटू वातावरण में लड़का बीमार पड़ जाएगा, पढ़ाई-लिखई  ठीक से नहीं हो पाएगी, सबकुछ बेचबाच कर शहर चलिए । "
           प्रशांत का पहला जन्मदिन था । एक महीने पहले से ही समारोह की तैयारियां शुरू हो गई थी । अभिजीत और सीमा दोनों ही गर्मजोशी से तैयारी में लगे हुए थे मगर सारा मजा तब किरकिरा हो गया जब अभिजीत ने समारोह के तीन दिन पहले चार दिन के दौरे के बाद घर लौट कर देखा कि उसका बाग़ उजड़ा हुआ है । कुछ बड़े-बड़े  पेड़ उखड़ चुके थे ।
              अभिजीत ने जब अप्रसन्नता व्यक्त की तो सीमा ने कहा था- " मैंने जो भी किया सब ठीक किया । मेरी न सही आपको कम से कम अपनी औलाद की चिंता तो होनी चाहिए । उसकी सेहत दिनों-दिन ख़राब हो रही है, उसकी अच्छी परवरिश चाहते हैं तो मेरा कहा मानिए, गांव का मोह त्यागकर शहर चलिए ।"
            उसने कहा था " मैं हाउस वाइफ बनकर नहीं रह सकती । मुझमें जो हूनर है वह मर रहा है । मुन्ने को मैं हास्टल में भेज दूंगी और मैं थियेटर में काम करूंगी या माडलिंग करुंगी ।" अभिजीत को दोनों ही नागवार था । दो महीने बाद फिर जब अभिजीत को हफ्तेभर के लिए दौरे पर जाना पड़ा तो उसने घर पर लौटकर देखा कि करोटन, मोरपंख, गुड़हल, साइकस, हरश्रृंगार, रबड़ प्लांट आदि पेड़ कट गये हैं। उसे रोना आ गया । उसने जब घर का हाल लिया तो पता चला कि उस
बेटे को ' चाइल्ड केयर सेंटर'  में भेज दिया गया है । अभिजीत ने जब गुस्सा झाड़ा तब सीमा ने कहा " या तो आप इस जंगल में देहाती लोगों, और सांप - बिच्छुओं के साथ रहिए या फिर परिवार को लेकर कहीं और चलकर रहिए । दोनों में से किसी एक को चुनना है ।"
                काफ़ी देर तक चुप रहने के बाद अभिजीत ने कहा " तुम कितनी निष्ठुर हो ! पत्नी हो मां भी हो पर गुड फॅर नथिंग हो ।" 
                उसदिन बिना खाए पिए अभिजीत दफ़र चले गए । जाते समय सीमा न भी उससे कुछ नहीं पूछा था । कार्यालय पहुंचने के बाद उसकी तबियत अचानक इतनी ख़राब हो गई थी कि दफ़्तर में ही डॉक्टर को बुलाना पड़ा था फिर मेडिकल कॉलेज के एमरजेंसी वार्ड में दो घंटे के लिए रखा गया था । शाम को एक ड्राइवर ने अभिजीत को घर पहुंचा दिया। 
घर पहुंच कर उसने जब एक कटहल के पेड़ को कटते हुए देखा तो उसका पारा चढ़ गया । वह चीख उठा --" अरे अरे पागल हो गये हो क्या ?"
नौकर ने कहा था " मालकिन का आदेश है ।"
- " ठीक है जहां तक काट चुके हो बस ...... भाग मेरे सामने से, नालायक उल्लू कहीं का । जा:भाग भाग जा । खड़े- खड़े मुंह क्या ताक रहा है !"
अभिजीत अपने बेडरूम में जाकर लेट गया । लेटे-लेटे चिंता में डूब गया । 
सीमा अपने पति से मिलने नहीं गयी, न ही उसने हालचाल पूछवाया ।
एक घंटे बाद जब अभिजीत कमरे से बाहर निकला तो देखा कि कटहल का पेड़ लुप्त है । वह स्तब्ध रह गया । उसे यकीन हो गया कि सीमा के साथ अब रहना असम्भव है ।
           अगले दिन सुबह सुबह उसने सीमा से कहा " एक जगह रहते रहते जी ऊबने लगा है, चलो पांच सात दिन कहीं घूम टहल आए । मौज मस्ती करेंगे और बाहर दोनों मिलकर तय करेंगे कि गांव की जमीन ज़ायदाद बेचकर कहा मकान बनाए, नौकरी छोड़कर कौन सा धंधा करे, किस शहर में रहें ।"
            सीमा पुलकित हो गई । चाय नाश्ता करके वह जल्दी से तैयार हो गई, दो अटैची में दोनों के लिए अलग-अलग सामान रख लिया, फिर थोड़ी देर बाद दोनों मोटरकार पर सवार होकर निकल पड़े ।
               गाड़ी चलाते चलाते अभिजीत ने ससुराल के सामने अचानक गाड़ी रोक दी। जैसे ही सीमा गाड़ी से उतरी अभिजीत ने उसकी अटैची उतार कर सड़क पर रख दी । सीमा ने आवाक होकर पूछा -" अरे ! यहां क्यो उतार रहे हैं ? आपने तो कहा था ........"
अभिजीत ने गाड़ी का दरवाजा बन्द करते हुए कहा -" मेरे घर बाग़ में आज से तुम्हारे लिए कोई स्थान नहीं । मैं तुम्हारे साथ अब और नहीं रह सकता, तुम्हें डिवोर्स नोटिस दो एक दिन में मिल जाएगी।"
                          
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  तलाक मंजूर हो जानें के बाद हफ्तेभर बाद अभिजीत अपनी एक विधवा बुआ को घर ले आया और दूसरे दिन प्रशांत को ।
          देखते देखते दिन बीतते गए और प्रशांत अब किशोर अवस्था में आ चुका था । इतने साारे वर्षों में अभिजीत ने अनुभव किया कि सीमा को वह भूल नहीं पाया है । सीमा को वह जितना भूल जाना चाहता था यादें उतनी ही सताती । सीमा के साथ बिताए हुए पल जो कभी कडुए थे अब खट्टी-मीठी यादें बनकर उसके साथ चलने लगी और उसके मन-मस्तिष्क का अंग बन गई। सीमा की यादें अब जीवन का सहारा थीं। 
       उसकी यादों के साथ वह तिल तिल मरता रहा, जीता रहा । सोचता रहा सीमा शिक्षित सम्पन्न परिवार की पढ़ी लिखी आधुनिक लड़की थी, ख़ूबसूरती से भरपूर, हिरोइन मटिरियल, माडेलिंग मेटिरियल , भला उसे क्यो सुहाता ये घर बाग़ !
अभिजीत अब अधेड़ हो चुका था, उसकी जीवन शैली बदल चुकी थी । सीमा के विछोह से वह मानसिक रूप से इतना आहत हो गया था 
 कि वह दफ़्तर में खोया-खोया रहता,उसे अपने ऊपर कोफ्त होता शायद उसने उसने सीमा को समझाने की कोशिश नहीं की थी, शायद शान्ति से बैठकर दोनों वार्ता करते तो कोई उपाय निकल आता । 
दफ़्तर के काम में उसका एकदम मन नहीं लगता । रिटायरमेंट की उम्र से बहुत पहले उसने रिटायरमेंट ले लिया।              
वह सुबह शाम बाग़ बगीचे में जुटा रहता, निराई- गुड़ाई करता, फूल पत्तो से बातें करता, कभी कभार उससे अगर कोई बात करता तो वह हर बात के आगे पीछे कहता " पेड़ों को मत काटो, वे तुम्हें फल देंगे , फूल देंगे, तुम्हारे तन मन को स्वस्थ रखेंगे । "
 सीमा ने जिन जिन पेड़ों को कटवाया था उन स्थानों पर वही वही पौधे अभिजीत ने लगवा दिया था जो देखते देखते लगभग पहले जैसे हो गये थे ।

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अपने मायके में सीमा तलाक के बाद कुछ समय रही फिर वह मुम्बई जाकर बस गयी । मुंबई में उसने थियेटर टीम के साथ काम करना शुरू किया, उसने अपने आप को उन्मुक्त पंछी महसूस किया । थोड़े दिनों के बाद एक फीचर फिल्म में नायिका की भूमिका मिली, फिर टीवी सीरियल में भी काम मिला। मात्र चार साल में उसने उम्मीद से ज्यादा सोहरत हासिल कर ली।  प्रशंसकों की भीड़, पत्रकारों द्वारा इंटरव्यू लिया जाना, संस्थाओं द्वारा प्रशस्ति पत्र मिलना, पत्र पत्रिकाओं में नाम आना सबकुछ उसे अच्छा लगता ।
                  लेकिन कुछ समय बाद यह सारी चीज़ें सीमा को मिथक लगने लगी । उसने अपने आप को चलित यंत्र महसूस किया । वही रोज़ रोज़ का सजना संवरना, घंटों मेकअप लेना, चेहरे पर नकली हंसी- मुस्कान लाना, कृत्रिम वर्ताव, चापलूसों की जमावट, किसी न किसी बहाने करीब आने की चेष्टा, बड़े बूढों तक की गिद्धि निगाहें, क्या रखा है ऐसी जिंदगी में ! !.... क्या यही सब पाने के लिए उतना अच्छा घर वर यहां तक कि पति का दिया उपहार प्रशान्त  तक को त्याग दिया था ? एकांत में सीमा जब तब सुबकती ।
                सीमा को उठते- बैठते अहसास होने लगा कि उसने सूझ-बूझ से काम नहीं किया, उससे भारी गलती हुई है , उसने जो कुछ खोया वह बेशकीमती मोती की मानिंद है जिसका नाम जिंदगी है और उसके एवज उसने जो कुछ प्राप्त किया वह दरअसल आत्ममुग्धता के सिवा कुछ नहीं। अजीब सा मायावी संसार है यह । अपना तो कुछ भी नहीं चलता !
                पत्नी की ऐक्टिंग करते समय उसे अभिजीत की याद आती, मां की ऐक्टिंग करते समय प्रशान्त की याद सताती, उसे शुटिंग का हरेक स्थल बागान बाड़ी की याद दिलाता । धीरे- धीरे उसकी खुशी नाखुशी फिर मायूसी में तब्दील हो गई।
               जिस जिंदगी को उसने वर्षों पहले पैरों तले रौंदा था उसे वापस पाने के लिए वह व्याकुल हो उठी । वह इतनी तनावग्रस्त हो गई कि काम से उसका मन उचटता गया । हाइपरटेंशन इतना कि बिना नींद की गोली के नींद नहीं आती ।

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                  आख़िरकार  वह ख़ुद के इमोशन्स को सम्भाल नहीं सकी और एक तूफानी रात में जब बड़े-बड़े वृक्ष की डालियां झूम रही थी, हवा की झोंकों से छोटे-छोटे पेड़ पौधों विशाल वृक्ष के भय से दुबकने की कोशिश कर रहे थे, मानो पवन देवता मदिरा पीकर उन्मत्त हो उठे हो, जब मेघों के भयंकर गर्जन से बड़ बड़े दरवाज़ कांप रहे थे जब निशाचर भी डर कर छिपा हुआ था, अभिजीत को लगा उसके द्वार पर किसी ने दस्तक दी है । वह कई बार फाटक तक गया और लौट आया फिर उसे आर्तनाद सुनाई दी, उसनेे साहस जुटाकर फाटक खोल दिया । टार्च की रोशनी फेंकते ही वह आश्चर्यचकित हो गया । उसके सामने खड़ी एक नारी, लाल किनारे वाली सफेद साड़ी, लाल ब्लाउज, लाल कांच की चूड़ियां, माथे पर लाल बिंदी, मांग में सिंदूर जगमगाता हुआ, एक भारतीय औरत -- उसकी सीमा, उसका खोया हुआ प्यार ।
               दोनों एक दूसरे को अपलक देखते रहे कुछ पल, फिर आहिस्ता आहिस्ता सीमा बोली "- क्या आपके घर बाग़ में वो आ सकती है ?"
               अभिजीत ने अपनी लम्बी लम्बी भुजाएं फैला दी । टार्च की रोशनी बूझ गई।

सुभाष चन्द्र गांगुली

1996 में लिखा 
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पत्रिका ' जान्हवी ' नयी दिल्ली अंक सितम्बर 1998 में प्रकाशित ।

Monday, September 20, 2021

कहानी- लिपिका के नाम

सुबह करीब नौ बजे मैंने साहित्यकार- पत्रकार देशराज को फोन किया--
 --"अभी एक घंटे के भीतर आना चाहता हूं घर पर रहोगे ना ? "
--"खैरियत तो गरीब का घर कैसे याद आ गया ?"
--" एक कहानी भेजनी है तुम्हारे नोयडा मुख्यालय में दीपावली विशेषांक के लिए । ' डाक हड़ताल ' का आठवां दिन है, पता नहीं कब तक चलेगा । कुरियर वाले बहुत पैसे लेते हैं और इन दिनों तो उनकी चांदी-चांदी । फिर उनका काम एकबारगी बढ़ गया है। कब तक पहुंच पाएगा ठीक नहीं । तुम्हारी जीप तो रोज अप ऐंड डाउन करती है । "
--" ठीक है आ जाइए , रहूंगा । बाई चांस निकल पड़ूं तो लिपिका को दे दीजिएगा ।"
--" लिपिका ?" 
-- " मेरी पत्नी का नाम ।"
--" अच्छा हां तुम्हारी तो शादी हुई थी पिछले साल : आता हूं थोड़ी देर में ।"
लिपिका से मिलने की इच्छा मन में जाग गई । उभरती हुई चर्चित कथाकार थी । दो तीन कहानियां पढ़ी भी थी । देशराज से मेरी घनिष्ठता इतनी नहीं थी कि वह एट होम में मुझे इन्वाइट करता । शहर के जाने-माने साहित्यकार एट- होम में पहुंचे थे मगर मैं वंचित था क्योंकि मैं जुमा जुमा लिखने लगा था ।
जानबूझकर मैं दो घंटे बाद उसके घर पहुंचा था ताकि लिपिका से दो चार बातें हो सके ।
घंटी बजने के दो तीन मिनट बाद ग्रिलदार लोहे के फाटक के पीछे आकर खड़ी हो गई लिपिका । 
--" देशराज जी घर पर हैं ? " मैंने पूछा ।
--" जी नहीं वे जरुरी काम आ जाने से जल्दी निकल गये हैं....... कोई मैसेज ?"
--"कहानी देनी थी छपने के लिए, कुछ बातें भी करनी थी। कहिएगा नुक्कडवाले दादा आए थे  ।"
--" क्या ? नुक्कड वाले दादा ?" वह हंस दी ।
--" जी । "
मैंने स्कूटर किक किया । चढ़ते- चढ़ते मैंने पीछे पलटकर देखा । लिपिका के चेहरे पर मुस्कराहट लहरा गई आंखें चमक उठीं । मै निकल गया। मेरे साथ साथ लिपिका का सुन्दर सा मुखड़ा कुछ दूर तक चला , फिर मैं स्कूटर चलाने में मगन हो गया।
दिनभर रह रह कर लिपिका की लिखी पढ़ी हुई
कहानियां और उसका मुरझाया हुआ चेहरा सामने आता रहा । उसकी उदासी का कारण क्या हो सकता जानने के लिए जिज्ञासु हो उठा । दफ़्तर बंद होने से थोड़ी देर पहले निकल कर देशराज के घर पहुंचा । मैंने काल बेल बजा दिया। थोड़ी देर में लोहे का फाटक पूरा का पूरा खुल गया । मेरी आंखों के सामने हल्की मुस्कान के साथ लिपिका खड़ी थी । 
उसकी  देह आपाद- मस्तक देखता हूं मगर पल भर में होश में आता हूं , अरे मैं ये क्या कर रहा हूं , अधेड़ उम्र का आदमी हूं, कोफ्त़ होता है ।
--"देशराज हैं ? "
--" नहीं । पत्रकार आदमी न निकलने का टाइम फिक्स न ही लौटने का..... अभी थोड़ी देर पहले आपही के बारे में उनसे बात हुई....आप अपना लिफ़ाफा मुझे दे दीजिए । लौटने में देर होगी ।"
स्कूटर की डिग्गि से लिफ़ाफा निकाल कर मैंने कहा "‌ इसमें एक कहानी है देशराज जी को दे दीजिएगा।
---" आपकी लिखी हुई कहानी है क्या ?"
--"नहीं, इसमें विमल मित्र की बांग्ला कहानी का अनुवाद है । 'अनकही कहानी ' पढ़ लीजिएगा।
कहानी बेहद इन्टरेस्टिंग है .....लव स्टोरी है .... कामेडी भी और ट्रैजडी भी, दोनों साथ साथ। लिपिका जी यह कहानी आप के टेस्ट की है ।"
               अपना नाम सुनते ही लिपिका का चेहरा सद्द प्रस्फुटित कमल सा खिल उठा ।
स्कूटर स्टार्ट करने के मूड से मैंने किक पर पैर रखा ही था कि लिपिका बोल पड़ी --" मुझे आप कैसे जानते हैं ?" 
इस सवाल का जवाब तो आपही के पास है...... वैसे आपकी दो तीन कहानियां मेरी पढ़ी हुई है । 'ताज' अखबार और किसी पत्रिका में आपको पढ़ा । क्या  ख़ूब लिखती हैं आप । तबियत ख़ुश हो जाती है । आपका लिखा जो कुछ पढ़ा सारा का सारा याद है । किंतु अब मैं ' ताज' नहीं पढ़ता ।"
--"क्यों ?"
---" जब लम्बे समय तक आपका लेख, कहानी नहीं देखा तो मैंने दूसरा अख़बार लेना शुरू कर दिया ....... हां इधर एक अरसे बाद आपकी कहानी 'रोटी का टुकड़ा ' पढ़ी थी । बधाई ! आजकल आप कम लिख रही होंगी । "
--" मैंने 'ताज' की नौकरी छोड़ दी । आजकल मैं कागज़ों पर नहीं दीवारों पर लिखती हूं । " अत्यंत मायूसी से वह बोली । थोड़ी देर पहले उसका खिल उठा चेहरा औचक मुरझा गया ।
यह सोचकर कि अनजाने में मैंने उसे चोट पहुंचाई होगी, मैं दुःखी हो गया, कौतूहलवश मैंने पूछा --" क्या हुआ कोई गम्भीर बात है क्या ? "
---"नहीं, कुछ नहीं ।" एक कृत्रिम मुस्कान के साथ आंसू पोछती ।
--" आप कुछ छिपा रही है ! बेझिझक आप अपनी बात कर सकती हैं, शायद मैं आपका मन कुछ हल्का कर सकूं । शायद आपकी पीड़ा कुछ कम कर सकूं।"
--" आपने मेरी कहानियां पढ़ी जानकर अच्छा लगा.... अब मैंने पढ़ना लिखना बंद कर दिया । शादी हुए कई वर्ष बीत गए, अभी भी मैं अकेली हूं , दिनभर कमरे में पड़े ऊंघती हूं.....आपके मित्र को मेरा आगे बढ़ना पसंद नहीं है.... ‌‌‌अपने आप में एक कहानी बनकर रह गई हूं..... सम्भव हो तो इस आखिरी कहानी को आप ही लिख दीजिएगा।"
             आंसूओं के धार उसके गालों पर झरझर झरने लगे ।
काश ! मैं उसके हाथ कलम थमाकर कह पाता ---" फिर से शुरू करो लिपिका । तुम्हारे भीतर जो साहित्यकार है उसे जीवित रखो । मै और मुझ जैसे पाठकों के लिए लिखो ! " मगर मैं बस इतना ही कह पाया --" आपकी कहानी और लेख का इंतज़ार रहेगा ।  पत्नी धर्म और साहित्य धर्म दोनों पृथक चीजें हैं...... तुम्हें स्वाभिमान से जीना चाहिए, बंधवा मजदूर बनकर नहीं... अगर तुमने हार मान ली तो नारी जागरूकता की बात कौन करेगा ? "
          यह सच है कि मैं उसके लिए न कुछ कर सकता था, और ना ही कर पाऊंगा मगर इस कहानी को लिपिका के नाम से छोड़ रहा हूं ।

सुभाष चन्द्र गांगुली
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**पत्रिका 'तमाल' (प्रतापगढ़) जनवरी- मार्च 1999 में प्रकाशित ।
** ' जगमग दीपज्योति, अलवर, राजस्थान 6/2000 (  ' कसक ' नाम रखा था। बाद में 'लिपिका के नाम' ही ठीक लगा )


Wednesday, September 15, 2021

कहानी- अम्मा


रात को किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी। मेरी नींद खुल गई। पिता जी बाहर के कमरे में सो रहे थे। वे चीख उठे--"कौन ? कौन है ?"
- " मैं बजरंगी।' 'बजरंगी? कौन बजरंगी ?"
- " हम अम्मा पाने वाली का लड़का।"
- "अम्मा पान वाली का लड़का? कौन हो भाई? क्या काम है ? किससे काम ? इतनी रात ? पान वाली का लड़का, इतनी रात ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है।"
- " दादा से काम है।" (बंगालियों में बड़े भाई को दादा का सम्बोधन दिया जाता है वैसे भी आमतौर पर लोग बंगाली बाबू को दादा कहकर पुकारते ) 
- "कौन दादा ? यहाँ तो सभी दादा हैं । चार-चार दादा हैं । मैं भी दादा और मेरे तीनों बेटे भी दादा, सबके सब दादा ।" पिताजी झुंझलाए ।
- " जो दादा पान खाते हैं ।' बजंरगी ने ऊँचे स्वर में कहा ।
- 'इतनी रात खामख्व़ाह परेशान कर रहे हो। रात को सोने का टाइम है, सोने दो। यहाँ कोई पान-वान नहीं खाता ।"
पिताजी काफ़ी गुस्से में आ गए । मगर बजरंगी ने नर्मी से उत्तर दिया-खाते हैं, खाते हैं, जो दादा यूनिवर्सिटी में पढ़ते हैं, वह खाते हैं, उन्हें बुला दें ।'
- " खाता होगा । हमें मालूम नहीं । काम बोलो किस काम से इत्ती रात आये हो ? फालतू डिस्टर्व कर रहे हो । ऐसा क्या काम कि अभी मिलना है ? कल मिल लेना ।"
-' " हमार घर में भइया का दावत रहा । हमार बेटवा का मुंडन रहा । भैया नहीं गये तो हमार अम्मा भूखी बैठी हैं । भैया को अभै चलै पड़ी।" इस बार बजरंगी ने अपना आपा खो दिया।

भीतर के कमरे में लेटे-लेटे मैं उन दोनों का वार्तालाप सुन रहा था मगर चूँकि मेरे पिताजी को मालूम नहीं था कि मैं पान खाता हूँ इसलिए चुपचाप बिस्तर पर पड़ा हुआ था । मुझे भय था कि पान खाता हूँ जान कर पिता जी मेरे ऊपर बरस सकते हैं । आख़िर स्टुडेंट लाइफ में पान खाने की बात जानकर किस पिता को क्रोध नहीं आयेगा ?

बजरंगी की बात सुनकर मैं विचलित हो उठा । एक अजीब सी उद्विग्नता, उद्दीपना, व्याकुलता ने मुझे विभ्रांति में डाल दिया । मैं सोचने लगा मेरे कारण अम्मा क्यों भूखी हैं ? आख़िर उससे मेरा क्या रिश्ता ? 

मैंने सोचा फ़िलहाल बजरंगी से मिलकर उसे शांत कर समझा बुझाकर वापस भेज दूँ । मैं उठा । मैंने लाइट जलाई । इतने में पिताजी ने आवाज़ लगाई । मैं झट से कमरे में दाख़िल हुआ ।

मुझे देख बजरंगी ने कहा-- "भैया, चलैं, अम्मा आपै के खातिर भूखी बैठी है।"

भौंहें सिकोड़ कर पिताजी ने मुझे गौर से देखा फिर धीरे से कहा '' जा बेटा जल्दी जा। उसके घर होकर जल्दी आ जाना, तूने जब अम्मा से कहा था जाएगा तो तुझे जाना चाहिए था । शरीफ़ आदमी की एक बात । ज़बरदस्ती किसी को परेशान क्यों करता ? जा जल्दी जा बाहर से ताला डाल देना ।"

अम्मा के प्रति पिताजी की हमदर्दी देख मैं अवाक् हुआ । मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी। मैंने साहस जुटा कर पिता से पूछा--" बाबा ! (बांग्ला में पिता को बाबा कहकर पुकारा जाता है) मेरे न जाने से अम्मा क्यों भूखी है ?"

दीर्घश्वास छोड़ते हुए गुरु-गंभीर स्वर में पिताजी ने कहा--'' अभी तू बच्चा है, नहीं समझेगा । जब उम्र बढ़ेगी और तेरे बच्चे जवान हो जायेंगे तब अपने आप समझ में आ जायेगा ।"

जल्दी से तैयार होकर मैं बजरंगी के साथ निकल गया । रास्ते में उसने मुझसे एक ही सवाल पूछा था--''भैया आप क्यों नहीं आये? हम सब आपका आसरा देखत रहें ।''

मैंने उत्तर में कहा था--" सिर में दर्द है। अभी भी सिर फटा जा रहा है ।"
 मैंने बजरंगी से झूठ बोला था । दरअसल मुझे उसके घर जाना ही नहीं था । उसके घर जाने का मन नहीं बना पाया था । मैं ऊँची जात का संभ्रात परिवार का और एक बड़े अधिकारी का बेटा जो था । अम्मा एक मजदूर की पत्नी, छोटी सी दुकान में बैठकर पान बेचती, लोग उसे पान वाली. 'ए बुढ़िया', 'सुनो', 'चंपाकली' (नाम) आदि से पुकारते । अम्मा के दो बेटे खोमचा लगाते और ठेला चलाते, उसके घर भला मैं क्यों जाता ? 
भले ही मैं शराफ़त और शिष्टाचार के कारण 'अम्मा' कहके पुकारता था पर थी तो वह पान वाली ही । मुझे अपने और उसके बीच की दूरी का अहसास था । मैंने सोचा था अम्मा को भी इस दूरी का अहसास अवश्य होगा । उसने मुझे यूँ ही बुला लिया होगा और मेरा जाना या न जाना उसके लिए कोई मायने नहीं रखता । फिर उसकी दुकान से प्रतिदिन एक ही जोड़ा पान खाया करता था । कितनी बचत होती रही होगी कि वह मुझे इतनी अधिक अहमियत दे रही थी । मैंने सोचा शायद वह मुझसे इस कारण प्रभावित है कि मैं उसे अम्मा कहता और मेरे सामने कोई अगर उसे 'ए बुढ़िया' 'मजूरिन' आदि गलत सम्बोधन देता तो मुझसे रहा नहीं जाता, कदाचित मारपीट की नौबत आ जाती ।

तमाम बातें सोचते-सोचते अत्यंत भावुक होकर मैं अम्मा के घर पहुँचा। मुझे देखते ही अम्मा पुलकित हो उठी। उसकी आँखें नम हो आयीं। अम्मा के घर के लोग मेरे आसपास खड़े हो गए। उनसबों ने बारी-बारी से मुझसे न आने का कारण पूछा। सभी की व्याकुलता और अपनापन देख मैं अवाक हो गया। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि मैं किसी गैर के घर हूँ । मुझसे झूठ नहीं बोला जा रहा था, मेरा कंठ अवरुद्ध होने लगा, फिर भी मैंने सभी से झूठ बोला ।

सभी ने मेरी ख़ातिरदारी बड़े अपनेपन से की। यह मेरे लिए एक अनोखा, हृदयस्पर्शी अनुभव था। मेरे कहने पर अम्मा ने भी मेरे साथ खाना खाया। अभी मेरा खाना ख़त्म भी नहीं हुआ था कि बजरंगी ने अम्मा से कहा--" जा तू उसे घर तक छोड़ दे। बच्चा है ।''

अम्मा की आँखों से आँसू के दो कतरे लुढ़क गए। साड़ी का पल्लू खींचकर उसने आँसू पोंछा । मेरा हृदय आवेग से लबालब हो उठा । थोड़ी देर पहले मैं बर्फ की चट्टान था, अब मैं पिघल कर पानी-पानी हो रहा था । शरीर के रोम-रोम में मैंने अद्भुत संगीत का अनुभव किया ।

दो महीने बाद मुझे टाइफायड हो गया । मैं काफ़ी दिनों तक बीमार रहा । अम्मा दुकान जाने से पहले रोजाना मुझसे मिलती । एकाध घंटा मेरे सिरहाने बैठती, मेरे माथे पर हाथ फेरती, बालों को सहलाती, हाथ पैर मींजती और जब मेरा बुखार उतर गया, मैं ठीक होने लगा तब वह मेरे लिए हर रोज़ एक जोड़ा पान लाने लगी । उसके आँचल में पान बंधा रहता, जाने से पहले, इधर उधर देखकर सबकी नज़रें बचाकर मुझे पान खिला देती ।

उसकी बूढ़ी, खुरदरी उँगलियों से मुझे तकलीफ़ नहीं होती । उसकी मैली धोती मुझे मैली नहीं लगती, रोजाना शाम होते ही मैं बार-बार घड़ी देखता, अम्मा के लिए छटपटाता । वह बूढ़ी, कुरूप, मजदूर की पत्नी अब मुझे दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत, सबसे प्यारी माँ लगने लगी ।

मेरी पढ़ाई-लिखाई समाप्त होते ही मुझे दूसरे शहर में नौकरी मिल गई। अपना घर परिवार छोड़ते हुए मुझे स्वाभाविक कष्ट था, मगर अम्मा से जुदा होते हुए मुझे अस्वाभाविक कष्ट हो रहा था। स्टेशन जाते समय मैं अम्मा की दुकान पर रुका। अम्मा ने मेरे लिए पान तैयार कर रखा था। 

.उसने अपने हाथों से मेरे लिए दुआएँ माँगी फिर मेरे कपाल पर सिंदूर का लंबा टीका काढ़ दिया। एक नज़र मुझे देख रुआँसी होकर वह बोली " बेटा परदेस जा रहा है देख सुन कर रहना, रात को इधर-उधर न घूमना, अनजान लोगों से फ़ालतू बात न करना, किसी के मुँह न लगना... छुट्टी लेकर जल्दी घर आना हो सके तो अपनी इस अम्मा के लिए लाल किनारे वाली सफेद धोती ले आना।'' 'अच्छा' कह कर मैं रिक्शे पर बैठा। अम्मा ने मुझे देखा फिर एकबारगी अपना सिर घुमा लिया। सिर घुमाते ही उसकी आँखों से दो बूंद आँसू मेरे पाँव पर टपक पड़े। मेरा हृदय भारी हो गया। भावुकता अपने उत्कर्ष पर थी। मैं आँख चुराना चाहता था। मैंने धूप का चश्मा पहना और रिक्शे वाले से चलने को कहा।

बाहर जाकर कोई दिन ऐसा नहीं बीता कि अम्मा की याद न आयी हो। दसियों दुकानें बदलीं मगर किसी का पान अच्छा नहीं लगा। अंततः पान की आदत छूट गई।

दशहरे की छुट्टी यानी लगभग दस माह बाद मैं घर लौटा। पहुँचते ही पिताजी ने ख़बर दी--''तेरी पान वाली अम्मा अब इस दुनिया में नहीं रही। पिछले हफ़्ते उसका देहांत हो गया। जब से तू बाहर गया वह चार पाँच बार तेरा हालचाल पूछने आयी थी।''

मेरा सिर भन्नाने लगा, हाथ पैर फूलने लगे, मैं चुपचाप भीतर के कमरे में चला गया । बिस्तर पर निढाल होते ही अम्मा की यादों में खो गया । मैं फूट-फूट कर रोना चाहता था किन्तु रो न सका। बड़ी मुश्किल से अपनी आवाज़ को शरीर के भीतर कैद रखा।

मुझे लगा मैंने सब कुछ खो दिया है । मुझे बहुत जल्दी समझ में आ गया अम्मा मेरी क्या थी, उस दिन वह मेरे लिए क्यों भूखी थी ।

मेरे सामने एक विकट संकट था । अम्मा के नाम जिस साड़ी को मैं लाया था उसका क्या करता ? किसे देता ? अपनी माँ को वह साड़ी नहीं दे सकता था क्योंकि सच्चाई जानने के बाद मेरी माँ उस साड़ी को हरगिज़ नहीं लेतीं उल्टा मुझे डाँटती क्योंकि जिस औरत के लिए वह साड़ी लाया था अब वह इस दुनिया में नहीं रहीं।

कई बार मैंने सोचा क्यों न किसी ग़रीब को उसे दान देकर उसकी सद्गति कर दूँ पर भावुकता के कारण ऐसा नहीं कर पा रहा था । मेरे मन में दो प्रकार की भावनाएँ थी । एक, यह कि अम्मा की साड़ी को किसी और को कैसे देता और दूसरी बात यह कि सच्चाई बोले बगैर किसी और को देना अपराध होगा और फिर सच्चाई जानने के बाद कोई क्यों उसे ग्रहण करेगा ?

काफ़ी दिनों तक मैं अजीब ऊहापोह में था। अम्मा की आत्मा हमेशा मेरे साथ रहती । हर पल, हर क्षण मैं अपने भीतर उसकी मौजदूगी महसूस करने लगा। हर पल हर क्षण मुझे उसकी यादें सतातीं और बड़ी मुस्तैदी से उस साड़ी से निष्कृति पाने का उपाय ढूँढ़ने लगा। तमाम उपाय मेरे दिमाग में आते मैं उन पर चिंतन करता, फिर ख़ारिज करता। उस साड़ी ने मेरा जीना दूभर कर रखा था। खाने-पीने में काम करने में, किसी चीज में मेरा मन नहीं लगता।

फ़िर एक दिन मैंने एक सपना देखा । बड़ा अद्भुत सपना था वह । मैंने देखा अम्मा, माँ दुर्गा के रूप में मेरे सामने खड़ी हैं । उसके चेहरे पर अलौकिक प्रसन्नता है । वह अपने दोनों हाथ आगे बढ़ाती है। मैं समझ नहीं पाता हूँ वह क्या कहना चाहती है । मैं साड़ी लेकर आगे बढ़ता हूँ । वह उसी मुद्रा में पीछे हटती है । मैं और आगे बढ़ता हूँ, वह और पीछे हट जाती है ।
* अचरज होकर मैं दायें-बायें देख एक जगह रुक जाता हूँ। दोनों हाथों को नीचे कर अम्मा भी रुक जाती है। मैं गौर से देखता हूँ उसके पैर जमीन से तीन फिट ऊँचाई पर शून्य में हैं। तनिक मुस्कराकर वह पूछती है '' तू फ़ालतू क्यों परेशान है ? तू याद करके अम्मा के लिए साड़ी ले आया है, अम्मा ने पहन ली है।''

'मैं इसका क्या करूँ? दुर्गा मंदिर में चढ़ा दूँ ?'

"मंदिर में ?" अम्मा कुछ उस तरह चौंकी मानो उसे मेरे मन की बात मालूम थी । मंदिर में चढ़ाने की बात पहले भी दिमाग में आयी थी पर मैंने उसे ख़ारिज कर दिया था । मुझे मालूम है कि मूर्तियों पर चढ़ाने के लिए ख़ास किस्म की साड़ियाँ बाजार में मिलती हैं, वे कम दाम की होती हैं। अमूमन लोग जिस दाम की साड़ियाँ अपने लिए खरीदते हैं उस दाम की साड़ियाँ मंदिरों के लिए नहीं लेते हैं शायद लोगों को भलीभाँति मालूम है कि मूतियाँ साड़ियाँ नहीं पहनती हैं। शायद उन्हें यह भी मालूम है कि उन साड़ियों का और भगवान के नाम चढ़ाने वाले और सामानों का धंधा किस प्रकार चलता है।

- 'इसे तू किसी ग़रीब को दे दें, उसका भला होगा।" अम्पा का स्वर आदेशनुमा था।

- 'मृतक की साड़ी? यह तो धर्म और संस्कार के ख़िलाफ़ है । पाप होगा।'

- 'कैसा संस्कार ?' मैंने तो यह साड़ी पहनी भी नहीं पहनी भी होती तो भी क्या यह शरीर नष्ट हो जाता है । दुनिया में जो आता है वही मरता है । मरने के बाद मकान-दुकान, सोना, चाँदी, रुपया पैसा कुछ भी बेकार नहीं जाता है तो साड़ी जूता चप्पल क्यों बेकार होगा ? यह कैसा संस्कार ? तू इस साड़ी को उस औरत को दे दे जो अपनी लाज नहीं बचा पा रही है।'

- 'मगर अम्मा सभी लोग संस्कार मानते हैं । मैं किसी को कैसे धोखा दे दूं ?"

- 'तू जिसे यह साड़ी देगा उसे बोल कर देना यह साड़ी मेरे लिए लाया था । जो लोग तन नहीं ढक पाते वे संस्कारी नहीं होते हैं । जब बाढ़ आती है, भूचाल आता है और खाते-पीते लोग बेघर हो जाते हैं तब वे भी धर्म संस्कार भूल जाते हैं । जहाँ से जो मिला पहना, खाया.... जा इसे किसी ग़रीब को दे दे, तेरे कारण मैं दुनिया नहीं छोड़ पा रही हूँ, मुझे मुक्ति दे।' 

अम्मा ने दोनों हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया। वह ऊपर उठ गई, उठती गई, उठती गई दूर, बहुत दूर, फिर आँखों से ओझल हो गई।

अगले दिन सुबह-सुबह मैं माघ मेला पहुँचा। मैं जिधर नज़र दौड़ाता उधर ही ग़रीब औरतें नज़र आतीं। मुझे तलाश थी एक ऐसी औरत की जिसकी शक्ल सूरत अम्मा से मिलती-जुलती हो । अब मैं इस बात को ध्यान में रखकर चारों ओर देखने लगा । थोड़ी देर में काफ़ी उलझन में पड़ गया । हर बूढ़ी ग़रीब का चेहरा मुझे अम्मा जैसा लगने लगा । वही ममता, वही स्नेह, वही मातृत्व, सारे के सारे भाव बिलकुल एक जैसे।

अंततः एक बूढ़ी भिखारिन जिसकी देह पर बहुत जरा सा कपड़ा था दिख गई । उसे मैंने अम्मा के नाम खरीदी गई साड़ी और अम्मा द्वारा सपने में दिये गये आदेश के बारे में बताया । उसके चेहरे पर एकबारगी इतनी प्रसन्नता झलक उठी मानो उसे एक करोड़ की लाटरी मिल गई हो। उसने कहा- ''यह तो नई साड़ी है हम तो मुर्दों का उतरन भी पहन लेते हैं। भगवान करे हर औरत को तन ढ़कने का कपड़ा मिल जाए।''

उसने दोनों हाथों से साड़ी लेकर माथे पर लगायी फिर मायूसी से कहा- "मैं तो किसी काम की नहीं, भिखारिन हूँ आशीर्वाद भी नहीं दे सकती। भगवान से विनती करती हूँ अगले जन्म में तुमको अम्मा मिल जाए।"

मुझे लगा मैंने अम्मा को ही साड़ी भेंट कर दी है। अम्मा मरी नहीं है, अम्मा मर नहीं सकती।

सुभाषचन्द्र गांगुली
( कहानी संग्रह सन 2002 में प्रकाशित " सवाल तथा अन्य कहानियां " से )
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** सीएजी कार्यालय की पत्रिका ' लेखापरीक्षा -- प्रकाश ' के जुलाई- सितम्बर 2000 अंक 88
 में प्रकाशित ।
** पत्रिका ' उन्मुक्त ' मऊ शेरपुर, समस्तीपुर , बिहार प्रधान सम्पादक, सीताराम शेरपुरी,( अंक 11/2000 में प्रकाशित ।
** बांग्ला संग्रह " शेषेर लाइन" 10/2003 में कोलकाता से प्रकाशित ।
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*** कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां :------
* *" गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में " जो जेहि भाव नीक तेहि सोहि " अर्थात् जो जिसको अच्छा लगता है, उसके लिए वही अच्छा है । इसमें धर्म जात-पात, अमीरी- गरीबी की दीवार आड़
 नहीं आती और यदि कहीं भाग्यवश, मातृत' स्नेह मिल जाए तो अवर्णनीय हितकर और सुखकर की ही आनन्दानुभूति होती है । प्रस्तुत कहानी ' अम्मा ' में श्री सुभाषचन्द्र गांगुली ने सरल शैली में सचमुच सद्व्यवहार से उत्पन्न सद्भावनापूर्ण मानवीय रिश्तों की सुमधुर व्याख्या की है । सुन्दर प्रस्तुति हेतु कोटिश: साधुवाद । "

आत्माराम फोन्दणी, सम्पादक-- लेखापरीक्षा- प्रकाश सीएजी कार्यालय, नयी दिल्ली ।

** ' उन्मुक्त' में आपकी कहानी पढ़ने का अवसर मिला । इसमें आपने जीवन के यथार्थ को बड़े ही सूक्ष्म व यथार्थ रुप में संजीव व सटीक ढंग से प्रस्तुत किया है । कहानी श्रेष्ठ , रोचक, पठनीय एवं शिक्षाप्रद बन पड़ी है । श्रेष्ठ एवं स्तरीय कहानी हेतु हार्दिक बधाई !
विजय सिंह बलवान, जयपुरा,( जहांगीराबाद ) बुलन्दशहर ( पत्र दिनांक 28/12/2000)
** ' अम्मा' एक महत्वपूर्ण कहानी है जिसके  माध्यम से गांगुली ने दो वर्गों की असमानता के बावजूद उसके भीतरी जुड़ाव को रेखांकित करने की कोशिश की है । एक बुढ़िया पानवाली और एक अधिकारी के बेटे के आत्मीय सम्बन्ध को उकेरती यह कहानी एक अलग तरह का उदाहरण प्रस्तुत करती है । जहां विषमता के प्रति सटीक नकार है । 
साहित्यकार आलोचक श्रीरंग ( ' सवाल तथा अन्य कहानियां' की समीक्षा जो ' विमर्श'- अंक 4, 2005 से )

Monday, September 13, 2021

कहानी--- मार्केट में सिर्फ हिन्दी



महानगर कलकत्ता मई 1995 । विकट गर्मी किंतु अजीब किस्म की। इलाहाबाद से एकदम भिन्न ।लू नहीं, सूरज की तपिस में चुभन नहीं, न आम का पना जरूरी, न ही कूलर एसी जरूरी। फिर भी सही नहीं जाती गर्मी । उमस, उमस और उमस । ड्रेस पहनने की देर नहीं कि पसीना आने लगता ट्राम या बस में थोड़ा सा सफर किया और बनियान गीली हो गई। उस नगर के निवासियों की तो आदत थी पर मैं तो झेल नहीं पा रहा था।

मैंने गौर किया कि ज़्यादातर लोग अपने साथ एक छाता लेकर चलते हैं । मेरे चाचाजी ने बताया कि गर्मी से बचने के लिए लोग छाता तो रखते ही हैं, बारिश का भी भरोसा नहीं है, गर्मी के चलते-चलते हठात् बारिश भी आ सकती है इसलिए छाता रख लेना अपने पास । मैंने छाता खरीदने का मन बना लिया।

बड़ी तारीफ सुन रखी थी कलकत्ते की छाते की, एक से एक छाता मिलता है । आमतौर पर के सी पाल का छाता लोग खूब पसंद करते हैं। कुछ तो ऐसे भी है कि मुट्ठी या जेब में रखा जा सकता । शायद ख़ास अंदाज़ से ही उन्हें बनाया जाता है ताकि खचाखच भरी बस या ट्राम में किसी को तकलीफ़ न हो । एक बेहतरीन यादगार छाता खरीदना चाहता था मैं । मेरे चाचाजी ने ' श्याम बाजार ' के एक ख़ास मार्केट से ख़ास दुकान से छाता खरीदने के लिए कहा ।

श्याम बाजार पहुँचा । विशाल मार्केट । घूमते-घूमते थक गया । चाचाजी ने पूछा था - " ढूँढ पाआगे ? कहो तो मैं चलूँ मैंने कहा था कितना बड़ा बाजार होगा ? आप कहाँ परेशान होंगे, मैं पक्का इलाहाबादी हूँ , हम इलाहाबादी तो भूलभूलैया से बाहर निकल आते हैं, यह तो कलकत्ता है । लेकिन सचमुच मैं ढूँढते-ढूँढ़ते इतना परेशान हो चुका था कि हार मानकर वापस लौटने का मन बना लिया । उसी समय अचानक मेरी नज़र एक बहुत छोटी दुकान पर पड़ी । यह वही दुकान थी जिसका नाम चाचा ने कहा था । मैने सोचा इतनी छोटी सी दुकान में बढ़िया छाता कैसे मिल सकता ? 
 खैर, मैं दुकान के क़रीब पहुँचा । एक बूढ़ा आदमी आँखों के ऊपर मोटे-मोटे शीशे का चश्मा, काली- सफेद बेतरतीब दाढ़ी, गर्दन झुकी हुई बड़ी तन्मयता से किताब पढ़ रहा था । किताब का कवर चमक रहा था । पावलो नेरूदा की कविताएं, पोलिश कविताओं का बांग्ला अनुवाद । छाता और कविता ? दोनों में क्या संबंध है ? मैं जवाब ढूँढने लगा । दरअसल मैं साहित्य प्रेमी , मेरे लिए एक अद्भुत, अनोखा दृश्य था यह । 

वह जिस एकाग्रता से किताब पढ़ रहे थे उसे देखकर में इतना मंत्रमुग्ध हो गया कि उन्हें डिस्टर्व करना उचित नहीं समझा, लेकिन छाता भी उसी दुकान से लेना था इस कारण से उस दुकान के ठीक सामने पान की दुकान पर खड़ा हो गया। पान खाया, पान बँधवाया , फिर देखा ग्राहकों ने उनका ध्यान भंग कर दिया है और वह सज्जन किताब में पेज मार्क रखकर भीतर जाने लगे । झट से मैं भी पहुँचा और बांग्ला में कहा- " दादा एकटा छाता चाई कोलकातार स्पेशल छाता।"( दादा एक छाता चाहिए कलकत्ते का स्पेशल छाता )। 
भीतर जाते-जाते उन्होंने उत्तर दिया--" ठहरो आता हूँ "। 
मैंने जोर से फिर बांग्ला में कहा-- " दादा छाता स्पेशल छाता, जेन्ट्स छाता चाई ।"( दादा स्पेशल छाता, जेन्ट्स छाता चाहिए) । चलते-चलते वह रुक गए, मुझे घूरकर देखा और हिन्दी में उत्तर दिया " गम खाओ आता हूँ। "

मेरे बगल में दो लोग खड़े थे एक ने मुझे सिर से पैर तक देखा फिर पूछा-- "आपने बांग्ला सीखा है क्या?" 
मैंने कहा-- " जी नहीं मैं बंगाली हूँ ।"
 उसने कहा-- " मगर लगते नहीं, न उच्चारण से और न ही चेहरे से । आपका उच्चारण साफ़ नहीं है ।" मुझे अटपटा लगा, क्रोध भी आया लेकिन मैंने संयम से उत्तर दिया-- " संभवतः बंगाल के बाहर जन्म-कर्म  के कारण । मै जन्म से इलाहाबाद में रहता हूँ । अधिकतर हिन्दी बोलना पड़ता है। हिन्दी में काम भी करता हूँ । " 
उसने कहा- " तभी तो आपके उच्चारण में हिन्दी का असर है।" 
मैंने कहा--" दरअसल जब मैं हिन्दी बोलता हूँ मेरे दोस्त मुझे टोका करते हैं कि मेरे उच्चारण में बंगला का असर है। जब मैं इंग्लिश में पढ़ता  हूं लोग कहते हैं कि अंग्रेजी धाकड़ है किन्तु उच्चारण से पता चलता है कि आप बंगाली हैं। आपही बताइए मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? " 
वे दोनों जोरों से हँसने लगे। उनको हँसते देख मैंने मुस्कराकर कहा-- " हिन्दुस्तानी लग रहा हूँ ना ?" मुझे अप्रसन्न देख वे चुप हो गए। अब मैंने उन्हें छेड़ना चाहा--" आपकी हिन्दी बहुत ख़राब है । उच्चारण छोड़िए , लिंग का अता पता नहीं । खैर हिंदी बोलते रहिए, फिल्म देखते समय वाक्यों पर ध्यान दीजिएगा जल्दी सीख लेंगे । "

एक ने कहा- "मेरा घर बिहार में है, बल्कि हम दोनों ही बिहारी है, घर में मैथली बोलते हैं, गाँवों में भोजपुरी और अवधी हाई स्कूल तक अंग्रेजी पढ़ा था। तीस साल से यहाँ रहता हूँ हम टैक्सी चलाते हैं, बांग्ला भी आ गया इसलिए हमारी स्थिति और ख़राब है। अब वे मुझसे बांग्ला में बोलने लगे। व्याकरण और उच्चारण संबंधी त्रुटियों के बावजूद मैं भरपूर आनन्द ले रहा था यह सोचकर मुझे बेहद प्रसन्नता हो रही थी कि वे दोनों भाषा के धनी हैं और दोनों मेरी मातृ भाषा बोल रहे थे, मैंने सोचा थोड़ी बहुत गलती चल जाती है। भाषा का मुख्य काम है सम्प्रेषण, सम्वाद। भाव को व्यक्त करना और इस मामले में वे दोनों अच्छे थे।
               वह दुकानदार कई छाता ढो लाये। सबसे पहले जो पहुँचा था उसे दिखाने लगे । मैंने बांग्ला में कहा-- " दादा आमार (मेरा ) छाता?" उन्होंने कहा-- " गम खाओ बुड्ढा आदमी एक-एक करके दिखाता है । मेरे बगल में खड़े एक टैक्सी चालक ने पूछा--" सुनील गंगोपाध्याय की कहानियाँ कैसी लगती है ? "अच्छी" मैंने झूठ बोला । दरअसल मैंने उनकी दो-चार कहानियाँ ही पढ़ी थीं जिसे मैं भूल भी गया था । आगे उसने पूछा--" क्या ख़्याल है आपका शक्ति चट्टोपाध्याय को ज्ञानपीठ एवार्ड नहीं मिलना चाहिए ? क्या सुभाष मुखोपाध्याय से कम अच्छी कविताएं है उनकी ? " 
मैं क्या कहता ? मैंने किसी की भी कविता नहीं पढ़ी थी पर मैंने उसे इस बात का आभास नहीं. होने दिया और आहिस्ता से कहा--"आप ठीक कह रहे हैं।"

दुकानदार ने मुझे देखकर कहा-- "लो देख लो" कौन सा पसंद है ? जोन सा पसंद है ले लो। मैंने बांग्ला में कहा- "दादा खूब भालो छाता दिन (दीजिए)। एक छाता हाथ में थमाकर उन्होंने कहा-- "लें इसे रख लें, खूब अच्छा छाता है, सस्ता भी है. मात्र एक सौ दस रूपया का है । उनकी अशुद्ध हिन्दी खटक रही थी और मुझे गुस्सा भी आ रहा था । मैंने अब हिन्दी में कहा-- "दादा मैं बंगाली हूँ, आपसे बांग्ला में बोल रहा हूँ और आप तब से गलत-सलत हिन्दी में जवाब दिए जा रहे हैं । वह नाराज़ हो गए, चश्मा नाक के नीचे उतारकर आँखें उठाकर बोले--" बांग्ला बोलने का शौक है तो मेरे घर में आओ मेरा घर श्याम बाजार में ही है । अभी दुकान बंद होगा ये लो मेरा कार्ड, घर का पता है। घर पर खूब बात करेंगे, बांग्ला में। इ मार्केट है, महानगर का मार्केट । यहाँ दूर-दूर से लोग आते हैं। मार्केट में सिर्फ़ हिन्दी चलेगा ।" शर्म से मेरा सिर झुक गया । अब मैं जल्द से जल्द भागना चाहता था। मैंने वही छाता उठा लिया और एक सौ दस रूपये दे दिया । 
उन्होंने पाँच रुपया वापस देकर कहा--" बाहर से आये हो कनशेसन दे रहा हूँ । याद रखना। 
चलते-चलते मैंने कहा--" दादा आपसे मिलकर बेहद खुशी हुई। आपको याद रखूँगा । सचमुच अगर हिन्दुस्तान के हर मार्केट में आप जैसे समर्पित लोग हो जाए और मार्केट में सिर्फ़ हिन्दी बोलें तो हिंदी की प्रगति निश्चित हो जाएगी । पूरे राष्ट्र में एकता, सद्भावना, प्रेम बढ़ेगा । नमस्कार  चलता हूं ।"

-सुभाष चंद्र गांगुली
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प्रकाशित: 
* तरंग " संयुक्तांक : ७१-७२"
* हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद के ' राष्ट्रभाषा सन्देश ' में प्रकाशित।
* साहित्यिक आयाम, अमर उजाला में ।

Saturday, September 11, 2021

English Poem- Man-eater



A Man-eater I saw
Behind a Cage In a special Jail
Crippled, confined 
Agitated and perplexed
Mad for flesh and blood. 
The Man-eater I saw
Had stayed in a VIP Cell
Of a hospital
Taking vitamins and juices
Cared by ten doctors fifty others.
And the Man-eater I saw
Had ten thousand spectators.
Dumbfound were beggars and orphans,
Pensive even frenzied were fools ( like me ).

Subhash Chandra Ganguly
Composed in 1979
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Published in Brotherhood, AG UP Magazine in 1979




English Poem-- Fake Dawn

I live in a world of my own
Where :
By the wings of fancy
I roam beyond the horizon
Away from reality. 
Vain glorious ! 
I blow my own trumpet
Into the void
Into the void.
Believe me or not
A sense of arrogance
An illusion of distinct identity
Sustain me.
More often than not
I take you to sublimity
Digging my own profanity
Sneaking clandestine intents
But---
Bemused on cross roads
I promise you a Fake Dawn
A new world --
My own selfish Utopia
Unseen, unrealised, unheard
Where --
In gloating illusions
I spend my days
In joyful pains
And she'd crocodile tears.

Subhash Chandra Ganguly
June 1977
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* Published in  Brotherhood,AG UP
Magazine 1979
* Published in Mandakini , August 1999 Editor Dr Mahashweta Chaturvedi, Professors Colony, Shyamgang, Bareilly 243005
In 1998
* Published hindi adaptation in Tarang Hindi magazine.

English Poem-- Call for love

            Call for Love

        ( 1 )
Open the gate
Of my defiled heart
Cleanse filth and dirt
Then shut the gate.
Make me adequate
For love, my Lord !
       (  2 )
Bring forth a new heart
Fill my brain with thought
Infuse new blood in my veins
Give me transmission belt
To hold the world tight
Make me worthy of thy love !
          ( 3)
Stars get gleaning
For worldly delight
But they move me not
Let one big star alight
Over my roof top
And purify my heart.
           ( 4 )
I crave not
Power and pelf
I lament not
What is not
A sordid heart, I regri :
Mend me mye Master !
           ( 5 )
Ifpain and miseries
Give the taste to life.
If strifes ay struggles
Strengthen  mind and soul
Put  me in trial
Remake me Maker !
            ( 6 )
After day's labour
Buffalo plunges into water
For me ? no reservoir.
Give me respite
Into the sea of love
Help ! Hey you Lord !

Subhash Chandra Ganguly
September 1978
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Published in Allahabad Kalibari
Magazine 1981

English Poem- Someone stops me

Someone holds my tounge
When I abuse and scold someone
Asks me not to : 
Someone holds my hand
When I raise my hand
Asks me not to :
Someone knocks my heart
When I try to snatch one's right
Asks me to retreat:
Someone looks at me attentively
From an unassailable height
Asks me not to;
I stare at that quiet height
Day and night.
And,
I search him like my partner
In hide and seek :
I search him like my partner
Missed in a sojurn.

Subhash Chandra Ganguly
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Composed in 1977
Published in Allahabad Kalibari
Magazine --Nov 1980

Tuesday, September 7, 2021

गीत- आज कहीं री नुपुर बाजे

आज कहीं री नुपुर बाजे
रुनझुन रुनझुन नुपुर बाजे
गीत अनोखे मन में गूंजे
तार ह्रदय के झनझन बाजे
आज कहीं री नुपुर बाजे----

मेघों ने मल्हार सुनाया
मधुकर ने रसपान कराया
मन में गूंजे अनन्त तालियां
नृत्यांगना की बजे पैंजनिया
आज कहीं री नुपुर बाजे -----

मंदिर मस्जिद गिरजा साजे
तीनों लोक मन में बिराजे
आज कहीं री नुपुर बाजे
रुनझुन रुनझुन नुपुर बाजे ------

सुभाष चन्द्र गांगुली 
20/1/1997
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" फनकार " सम्पादक - कैलाश गुरुस्वामी, सीहोर, मध्य प्रदेश में 5/1997 में प्रकाशित ।
* आकाशवाणी, इलाहाबाद से प्रसारित तथा 
कवि सम्मेलनों/ गोष्ठियों में नियमित पाठ ।

गीत- मेरे मन के अन्तःपुर में


मेरे मन के अन्त:पुर में 
कौन  आया  है  आज
कल- कल, कल-कल अविरल धुन में
बज  उठता मन  साज !

हलचल हलचल प्रतिपल करता
मन्द समीकरण आंचल भरता
मेरे सुने मन आंगन में
देता है आवाज ! 

भाव विहग को टेर रहा है
सरगम की धुन छेड़ रहा है
तन मन बेसुध किए दे रहा है
आए न इसको लाज !

प्रीत निगोडी व्यथा बनी
हर जुबान की कथा बनी
नगर ढिंढोरा चर्चा घर घर
खोल गया सब राज !

सुभाष चन्द्र गांगुली
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* गीत संकलन : "वक्त की परछाइयां " सम्पादक गीतकार सतीश गुप्ता , अप्रेल 1998 में प्रकाशित 



ग़ज़ल -- मेरी मजबुरियों ने



मेरी मजबुरियों ने मजबूर कर दिया लगता है ।
वरना ज़माने को समझने में ज़माना लगता है ।।

वक्त़ को भी होता है देना सबूत वज़ूद का ।
दरख़्त पे लिखा जज़्बात अफ़साना लगता है ।।

कैसे कैसे दलिलें दें अब मौत भी अपनी ।
हर कत्ल़ को जब वो नज़राना कहता है  ।।

जाने किसकी नज़रें लग गई है ज़माने को ।
ज़माने का हर शख़्स मुझे बेगाना लगता है ।।

थामा है दामन जब से उसने मिरी माशुका का।
मिरी अपना जिगर का टुकड़ा बेगाना लगता है।।

जाने किसने कर दिया साफ़ आसमां, मटमैला।
ज़मीं का हर फूल अब वीराना लगता है ।।

वह ख़फ़ा रहे या रहे ख़ुश  ' निर्भीक' तुमसे ।
तुम्हें तो हर लफ्ज़ उनका तराना लगता है ।।

सुभाष चन्द्र गांगुली
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ग़ज़ल संग्रह " लहरें सागर की " सम्पादक, डॉ हीरालाल नन्दा, जागृति प्रकाशन, मलांड, मुम्बई में 15/9/1998.



ग़ज़ल --- आग नफ़रत की



आग नफ़रत की जलते मैंने देखा तो नहीं ।
दरिया प्यार का सूखते मैंने देखा तो नहीं  ।।

तन्हा सफ़र में वो ग़ज़ल जो हमदर्द होती है ।
हक़ीक़त में  जिंदगी में उसे उतरतेदेखा तो नहीं   ।।

मिरी आरज़ू थी कि हर शख़्स बन जाये साथी ।
बेमतलब किसी शख़्स को क़रीब देखा तो नहीं ।।

शरीफ़ो को देखा मैंने शराफ़त से सेंध लगाते ।
बदतमीज़ी बदसलूकीसे सेंध लगाते देखा तो नहीं।।

मुहब्बत में गिला शिकवा आम बात है तो सही ।
शिकवे से मुहब्बत को बिखरते देखा तो नहीं ।।

घर-घर तो  क्या आंगन भी  बंट चुके  हैैं ।
आंगन के उस पार बेख़बर रहते देखा तो नहीं ।।

उन्हें शिक़ायत रहती है ' निर्भीक' के कल़ाम से ।
'निर्भीक' लबों को दरकिनार होते देखा तो नहीं ।।

सुभाष चन्द्र गांगुली
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ग़ज़ल संग्रह"लहरें सागर की ", सम्पादक डॉ हीरालाल नन्दा , जागृति प्रकाशन, मलाड (पश्चिम) मुंबई 15/9/1998 में प्रकाशित ।