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Wednesday, May 9, 2012

कविता - जोड़ो

अपने को
अपने आप से
अपने आप को
अपने अपनों से
जोड़ो।

माँ की ममता से
बाप की फ़िक्र से
भाई के रिश्ते से
राखी के धागों से
जोड़ो। 

भाई को भाई से
बहन को बहन से
चाचा को भतीजे से
मामा को भांजे से
जोड़ो।

घर को पड़ोसी से
पड़ोसी को पड़ोसी से
गली को गली से
मोहल्ले को मोहल्ले से
जोड़ो।

मोहल्ले को समाज से
समाज को राष्ट्र से
राष्ट्र को राष्ट्रभाषा से
राष्ट्रभाषा को विश्व से
जोड़ो।

नेता को पार्टी से
पार्टी को विचारों से
विचारों को मानवता से
मानवता को धर्म से
जोड़ो।

धर्म को कर्म से
कर्म को पूजा से
पुजा को ईश्वर से
ईश्वर को ऐक्य से
जोड़ो।

अपने को
अपने आप से
अपने आप को समाज से
समाज को देश से
जोड़ो।

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)
__________________
7/11/1999 
* ' लेखापरीक्षा प्रकाश --जनवरी - मार्च 1999
* " आजादी के पचास वर्षों में निस्संदेह कुर्सी बटोरो की चटोरी चाल ने समाज को तोड़ा है,घायल किया है और निरन्तर उसकी कमजोर रग पर अभी भी अंगुली यानी अंकुश लगाया हुए हैं । ऐसे में इस टूटे हुए समाज ने यदि स्वतः जोड़ना शुरू नहीं किया तो राष्ट्र क्षत विक्षत हो जाएगा । अतः आवश्यकता है " अपने को अपने आप से / अपने आप को समाज से / समाज को 'निर्भीक' से जोड़ने की " आवश्यकता है। बहुत अच्छी प्रस्तुति दी है सुभाष चन्द्र गांगुली ने । "
                 आत्माराम फोन्दणी
                 सम्पादक, लेखा परीक्षाप्रकाश
                  सीएजी कार्यालय, नयी दिल्ली

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