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Friday, May 18, 2012

कविता- पिंजरे में देवता


शोर-शराबे से दूर
आधुनिकता से दूर
पर्वतों के घेरे में
जंगलों के घेरे में :
बनाये हैं स्वर्ग द्वार
पैसों  से करने वाले प्यार ।                 
दुर्गम है पथ पहुँचने के
फिर भी पहुँचते हैं वे
मीलों पैदल चलके :
क्योंकि सबको दे दी गई है ख़बर
मिलते है ईश्वर वहाँ दर-दर ।

मद्यपान निषेध
मांसाहार निषेध
उल्लंघनकारी होंगे दंडित
मूर्तियों को पूजेंगे सिर्फ़ पंडित
और मंदिर के भीतर
कुछ लोगो का प्रवेश है निषेध् ।
ये सारी हिदायतें
मोटे-मोटे लाल-काले अक्षरों में
दर्ज़ है मुख्य द्वार पर ।

समाजवादी उक्तियाँ
साधुवादी सुक्तियाँ
कबीर, नानक के दोहे
जो सब मन मोहे
खुदे हुए है पत्थरों पे
लिखे हुए है दीवारों पे
रुपहले-सुनहले अक्षरों में ।
फ़र्श पर बिछे हुए हैं पत्थर
लिखे हुए हैं नाम उनपर, उन अनजान लोगों के
जो जा चुके है जग छोड़कर।
रोजाना रौंदे जाते हैं वे नाम
जो कभी थे किसी के लिए
श्रद्धा के पर्याय।
ईश्वर तक पहुँचने के
अजीबो ग़रीब  है रास्ते,
कोई चढ़ाये भेंट
फल-फूल मालाओं की,
कोई चढ़ाय भेंट
मिठाई बेसन-खोये की,
भैंस, बकरे, माला नोटों  की,
और कोई-कोई करे
वायदे बड़े-बड़े घूसों की।

मंज़िल है काफ़ी ऊँची
मूर्तियाँ भी ऊँची-ऊँची,
देवता है कैद, पिंजरों में।
जैसे रहते है शेर पिंजरों में :
मूर्ति चोरों के भय से
जेवर चोरों के भय से
सारे के सारे देवता हैं
सलाखों के ही पीछे।
भद्रजन फेंकते फूल वैसे
लाशों पर फेंके जाते फूल जैसे।
फल-फूल फेंके जाते वैसे
मूंग्फलियाँ, छिलके फेंके जाते जैसे
चिड़ियाघरों के बंदरों को दूर से।
हे मेरे ईश्वर !
छोड़ो बंधन,आओ बाहर !
ठहरो ! मैं आ रहा हूँ
तुम्हें मुक्त करने मैं आ रहा हुँ ।

देखो ! देखो !
देखो वह आती है ,
आहिस्ता-आहिस्ता वह आती है,
भिखारिन सी वह लगती
लाठी के बल चलती
इधर-उधर टुकुर-टुकुर ताकती
ईश्वर से मिलने वह आती,
आँखों में है उमंग
होठों पर है खुशी के तरंग
भेंट चढ़ाने वह आती
भेंट करने वह आती
पेट है उसका खली
पर भरी हुई है भेंट थाली।

सोच-सागर में डूबा मैं बढ़ा
सातवीं मंज़िल पर चढ़ा
पिंजड़े में सुंदर सा एक देवता :
साधु एक निकट आता
दान-पात्र मुझे दिखाता,
पीया हुआ है वह लीकर,
सूरत से लगता है जोकर,
एक सिक्का मैं उसे देता
जोरों से वह मुझे फटकारता
अरे मुर्ख ! सोने का है यह देवता
और तू इसे मात्र एक रुपया चढ़ाता ?

बीसों तल्ला घंटों देखा
देवताओं को बंद पिंजड़े में देखा
मन को जो न भाये सो देखा।
मन भावन कुछ भी ना देखा।
था मैं थका-हारा
सरोवर के पास आकर रुका,
देखा मछलियों को लोग आटा खिलाते
नब्बे के बूढ़े को देखा आटा बेचते
मैंने एक पुड़िया ली
बीस पैसे न देकर
एक रुपए का सिक्का दिया,
ज्योही मैं आगे बढ़ा
उसने मेरा बाजू पकड़ लिया,
अस्सी पैसा उसने लौटा दिया
बीस ही पैसा लिया :
मैंने पूरा लेने को कहा
मगर उसने बीस ही लिया
कंपित अधरों से उसने कहा
बाबू मैं ज़न्म से अंधा सही
पर लाचार तो नहीं ।

चिंता सागर में डूबा मैं बढ़ा
व्यर्थ नहीं था भ्रमण मेरा।


© सुभाष चंद्र गाँगुली 
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)
___________________
* मूल अंग्रेजी में : Gods in Cages written in October 1973.
* हिन्दी अनुवाद "पिंजड़े में देवता ' अमरकांत द्वारा सम्पादित' बहाव ' पत्रिका अंक तीन 5/2006 में प्रकाशित ।

कविता- आज रात लिख सकता मै

दुनिया कि सर्वाधिक करुण पंक्तिया।
लिख सकता मैं --
तारों से जगमग है आज की रात,
चमक रहे हैं ग्रह-नक्षत्र दूर दिगन्त,
लहरा रहा है संगीत हवा के संग मस्त-मस्त। 
आज रात लिख सकता मैं बेहतरीन मार्मिक पंक्तियाँ, 
कितना गहरा प्यार किया था मैंने उससे, 
कितना गहरा प्यार किया था उसने मुझसे।
ऐसी ही मनोरम एक रात
घण्टों बैठे थे हम, हाथ में डाले हाथ
और विशाल अनन्त आकाश के नीचे बैठे बैठे 
भर दिया था चुम्बन मैंने उसके पूरे चेहरे पर्।
कभी करती थी मुहब्बत वह मुझसे बेपनाह्।
वृहद, विस्तीर्ण, भावुक, आकर्षक उन नयनों से
प्यार न हो- यह मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है।

आज रात लिख सकता मैं 
दुनिया कि सर्वाधिक मार्मिक पंक्तिया-
सिर्फ इसी बात पर कि वह मुझे नहीं मिली, 
खो दिया मैंने उसे हमेशा के लिए अति निर्ममता से।
हाय ! कितनी लम्बी है आज की रात उसके बिना, 
घासनुमा मेरे हृदय में 
कविता के बोल ओस जैसे झर रहे हैं;
मगर क्या फ़र्क पड़ा, अगर मेरा प्यार उसे बाँध न सका ?
मेरे लिए तो बस, इतना पर्याप्त है कि वह मेरे क़रीब नहीं है। 
दूर, बहुत दूर, जाने कौन गीत गा रही है?
उसकी जुदाई से मेरा हृदय विदीर्ण हुआ है । 
अपलक मेरी निगाहें ढूँढ़ती हैं उन बाहों को :
मेरा पूरा वजूद, मेरा अस्तित्व ढूँढ़ रहा है उसे,
किन्तु हाय ! मेरे समीप नहीं है आज वह् ,
ठीक वैसी ही है आज की रात,
ठीक वैसा ही उद्भासित है वह विराट वृक्ष, 
पर हम दोनो मौजूद नहीं है वहाँ। 

नहीं रहा मेरा अब उससे कोई वास्ता यह सच है, 
मगर कभी बेहद प्यार किया था मैंने उसे, यह भी सच है;
बेताब है मेरी इन्द्रियाँ इस आबोहवा में उसे पाने के लिए। 

किसी और की अमानत है आज वह, 
किसी और की हो चुकी है अब वह् ।
उसका कण्ठ-स्वर, उसकी आँखे 
सब ठीक वैसे ही होंगे उनके लिए
चुम्बन के पहले, जैसे थे ये वे मेरे लिएमेरा और उसका अब कोई सम्बन्ध नहीं है यह सच है।
वस्तुतः कितना गहरा प्यार कर सकता था मैं !
प्यार कितना क्षणिक  और अविस्मृत 
स्मृति कितनी स्थायी !

चूँकि ऐसी ही तारोंभरी रात में
वह थी पूर्ण्तः मेरे आगोश में,
मेरा हृदय भरा नहीं उसके बिछोह से।
शायद उससे मिली वेदना का यही मेरा अन्तिम क्लेश है,
शायद उसके नाम यही मेरी अन्तिम कविता है। 


-- पाबलो नेरूदा -पोलिश कवि
-- भावानुवाद:  सुभाष चन्द्र गाँगुली
-----------------------------------
*  ' भाषा सेतु ' अहमदाबाद के अंक 22 जनवरी- मार्च 1998 में प्रकाशित ।
* "समुच्चय " इलाहाबाद 1999 में प्रकाशित

Wednesday, May 16, 2012

POLITICAL CARTOONS ARE SHORT LIVED

The political cartoon by Shanker on Dr. Ambedkar, now under controversy was drawn in the year 1949 when Dr. Ambedkar was in active politics.

Political cartoons as widely known is a comical drawing on certain current political issue with the object of passing a satirical remark rather humor-sly, and as soon as that issue ends the cartoon dies its natural death. 

Cartoon is not a fine form of Art which carries human social values of  permanent character. Therefore, the very use of a political cartoon after decades that too in a text book raises serious question about the intention of selectors. 

NCERT is supposed to be and should be a pious institution because it has been entrusted with a huge responsibility of building of the mindset of future citizens. As is known the Education Departments refuse to recognize the degrees of educational institutions whose syllabus is not approved syllabus of NCERT.

The political cartoon of a remote past when used appears to be in the nature of a malicious personal satire which is the work of a Lampoon-er and not a work of a cartoonist and that is the point of controversy and reason of unhappiness. NCERT should comprise of Educationist having wide knowledge and experience and having unblemished record.

Dr. Babab Sahib Bhimraw Ambedkar is a pride of the nation. The names of Dr. Ambedkar and the Constitution of India go side by side. If democracy in India has been a great success and has become exemplary despite many religions caste and languages thanks to Dr. Ambedkar's historic contributions . He will remain in the hearts of the Indian forever.     

Thursday, May 10, 2012

अनाज बचाओ ...कोई भूख से मर रहा है....


महात्मा गाँधी ने कहा था कि अगर आप अपनी खुराक से एक रोटी अधिक खाते हैं तो वह चोरी है, क्योंकि वह किसी और का हिस्सा है।

कुरान' में कहा गया है कि रात को सोने से पहले यह देख लें कि आपका  कोई पड़ोसी भूखा तो नहीं सो गया।

यह नेकी नहीं, मानव धर्म है। भोजन करने का अधिकार हर एक प्राणी को है उसे बर्बाद नहीं होने देना चाहिए। इसी कारण से अनेक लोग पशु-पक्षी, जानवरों को दाना-पानी देते रहते हैं।

इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि जब ज़रुरत से दो-तीन गुना ज़्यादा फसल पैदा हो तब हमारे पास रखने की जगह न हो, बोरी न हो इत्यादि अस्वीकार्य कारणों से हम राजनिती करें और फसल को बर्बाद होने दें।

जब मैं इण्टरमीडिएट में था मैंने हिंदी से अँग्रेजी में एक पैसेज का अनुवाद किया था। वह कुछ इस प्रकार था - एक किसान चावल के बोरे ऊँट पर लाद कर कहीं जा रहा था। चलते-चलते वह ऊँट को चावल खिलाता जा रहा था। मुमकिन है कि चावल के दाने लगातार सड़क पर गिरेंगे ही।
वह आदमी दर-दर रुकता नीचे उतरता, चावल बटोरता। फ़जीयत तो थी ही, उसे रास्ता पूरा करना भी कठिन लगने लगा। उसने ईश्वर से विनती की- हे ईश्वर! हमें इतना अनाज न दो। हम लोग मात्र दो प्राणी है। हमें ज़रूरत भर का अनाज दिया करो। तभी उसे आकाश से दिव्यवाणी सुनाई दी- तुम अनाज की कीमत समझते हो, उसका कदर करते हो इस कारण से अगली मर्तबा तुम्हें दो गुना अनाज दुँगा। तुम गरीबों को बाँट देना ताकि कोई भूखा न रहे।

मुझे याद है कि 'हरित क्रांति' से पहले हमारे देश में लाल-लाल छोटे आकार के गेँहू आते थे, रोटी भी लाल लगती थी, उसे प्राप्त करने के लिए राशन की दुकानों में घंटों लाइन लगानी पड़ती थी। 'राइट टू फ़ूड' बिल की ख़बर से मैं प्रसन्न हूँ किंतु जब टी-वी पर अनाज को अवहेलित तथा सड़ते हुए देखता हूँ, मर्माहत, भावुक हो जाता हूँ। कदाचित खाना खाते वक्त टी- वी में देखा अनाज का दृश्य आँखों के सामने आ जाता है तो रोटी का  टुकड़ा गले में फँसने लगता है, निगलने में तकलीफ़ होती है।

\जिन दिनों लाल रोटी खा रहा  था, लगातार तीन वर्ष देश सूखे के चपेट में था। बाबू जगजीवन राम जी के कृषिमंत्री बनते ही मूसलाधार बारिश हुई थी, अच्छा फसल आया था, फिर तो 'हरित क्रांति' आयी, कृषि एक उद्योग बना, कृषि ने बेहद प्रगति की, आज जो अनाज की बाढ़ है वह वर्षों की मेहनत का नतीजा है जिसका कदर हमें करना चाहिए।

देश में पानी की कमी होती जा रही है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण हम फिर सूखे के चपेट में आ सकते हैं। अनाज सोने से भी मूल्यवान है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज भी हमारी खेती बारिश पर आश्रित है, इतनी अनाज के बावजूद आज भी ईश्वर के बेशुमार संतान हमारे देश और पूरी दुनिया में भूख मारकर सो जाते हैं, दो वक्त की रोटी बहुतों के लिए सपना है।

- सुभाष चन्द्र गाँगुली

Wednesday, May 9, 2012

कविता - जोड़ो

अपने को
अपने आप से
अपने आप को
अपने अपनों से
जोड़ो।

माँ की ममता से
बाप की फ़िक्र से
भाई के रिश्ते से
राखी के धागों से
जोड़ो। 

भाई को भाई से
बहन को बहन से
चाचा को भतीजे से
मामा को भांजे से
जोड़ो।

घर को पड़ोसी से
पड़ोसी को पड़ोसी से
गली को गली से
मोहल्ले को मोहल्ले से
जोड़ो।

मोहल्ले को समाज से
समाज को राष्ट्र से
राष्ट्र को राष्ट्रभाषा से
राष्ट्रभाषा को विश्व से
जोड़ो।

नेता को पार्टी से
पार्टी को विचारों से
विचारों को मानवता से
मानवता को धर्म से
जोड़ो।

धर्म को कर्म से
कर्म को पूजा से
पुजा को ईश्वर से
ईश्वर को ऐक्य से
जोड़ो।

अपने को
अपने आप से
अपने आप को समाज से
समाज को देश से
जोड़ो।

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)
__________________
7/11/1999 
* ' लेखापरीक्षा प्रकाश --जनवरी - मार्च 1999
* " आजादी के पचास वर्षों में निस्संदेह कुर्सी बटोरो की चटोरी चाल ने समाज को तोड़ा है,घायल किया है और निरन्तर उसकी कमजोर रग पर अभी भी अंगुली यानी अंकुश लगाया हुए हैं । ऐसे में इस टूटे हुए समाज ने यदि स्वतः जोड़ना शुरू नहीं किया तो राष्ट्र क्षत विक्षत हो जाएगा । अतः आवश्यकता है " अपने को अपने आप से / अपने आप को समाज से / समाज को 'निर्भीक' से जोड़ने की " आवश्यकता है। बहुत अच्छी प्रस्तुति दी है सुभाष चन्द्र गांगुली ने । "
                 आत्माराम फोन्दणी
                 सम्पादक, लेखा परीक्षाप्रकाश
                  सीएजी कार्यालय, नयी दिल्ली

Tuesday, May 8, 2012

Article- MY TRIBUTE TO VISHV KAVI RAVINDRA NATH TAGORE




When I woke up this morning I remembered that it was hundred fiftieth birthday of kavi guru Ravindra Nath Thakur. The opening lines of one of his poems flashed in my inward mind –                      

“ aaji hote shotoborsho pore
ke tumi poricho boshi amar kobita khani
koutuhol bhore
aaji hote shoto borsho pore!”

I translate – hundred years after from today/ who are you reading my poem/ with curiosity/ hundred years after from today! I took out Tagore’s “sanchayita (collection of poems) and saw that the title of the poem is 1400 saal (bangle calendar year) and that the poem was written in falgun 1302 (bangle year). Present English 2012 is 14019 in bangle calendar. I read the entire poem once again, 117 years after its composition and interestingly, even though I had read the poem dozen of time earlier, recited it on several occasions I was enchanted to recite it again and had felt the same intense feeling which was there when it was first recited by me. That speaks of the quality of writing of the vishw kavi.
            Undoubtedly, Tagore will stay for centuries reasons being – his understanding of human values man’s realization of inner self, man’s close affinity with Nature, and man’s connection with the Almighty God. What made my life changed is “GITANJALI”. Ravindra Sangeet shakes the singer as well as listener. Themes of songs as contained in Gitanjali and elsewhere have been brought out from an unassailable height, unveiling the mysteries of birth and death and man’s eternal quest for Truth. Likes of Valmiki Ved Vyas, Kalidas, Shakespeare and Tagore are born once in hundreds of years and make people tremble to think if they were human beings or God incarnate. Bemused with the versatile works of Shakespeare, people started researching weather Shakespeare was one single person or name of a group comprising many. The same question may be raised for Tagore centuries later.  
                        

कविता- लौट गये


बापू गये खादी भवन में
लौट गये
दाम सुन कर

टैगोर गये
शांतिनिकेतन में
लौट गये
डोनेशन सुनकर

विवेकानंद गये
आश्रम में
लौट गये
ठाट देखकर

बाबासाहब गये
संसद में
लौट गये
नोटों की  गड्डी देखकर

बु्द्धा गये
बोधि गया में
लौट गये
मारपीट देखकर

लिंकन गये
अमेरिका में
लौट गये
टावर देखकर

लेनिन गये
रुस में
लौट गये
ध्वस्त मुर्तियाँ देखकर

जिन्ना गये
कराची में
लौट गये
हालात देखकर

मूजीबर गये
ढाका में
लौट गये
लज्जा पढ़कर

ब्रह्मा उतरे
धरती पर
आंसू बहाए
अपने किए पर।


©  सुभाष चंद्र गाँगुली
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)

कविता- प्रशन पत्र



मेरा बीता हुआ कल
बहुत सारे प्रश्नों को लेकर
मेरे सामने खड़ा हो गया है,
उसने अपना पैर
अंगद जैसा जमा दिया है
वह माँग रहा है मुझसे
अपना जन्म सिद्ध अधिकार।
उसे मैं लाँघ नहीं सकता
उसे दुत्कार नहीं सकता
उसे उसका अधिकार
दे नहीं सकता, फिर भी
वह अडिग है, अट्ल है
मेरे लिए अवरोध बना हुआ है
वह मेरे बर्तमान का
सुख चैन छीन रहा है
मेरे वर्तमान को अतीत के साथ
जोड़ रहा है
और मेरे आने वाले कल के लिए
प्रश्न पत्र तैयार कर रहा है
जिसका उत्तर मुझे नहीं
आगामी पीढ़ी को देना होगा। 


© सुभाष चंद्र गाँगुली 
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)
_______________________
11/8/1997 
" रैन बसेरा " के अक्टूबर 2000 में प्रकाशित ।
'आनन्द मंजूषा' कोलकाता में
* कार्य संकलन 'नीलाम्बर' जागृति प्रकाशन, मलांड मुम्बई ( सम्पादक -- डाक्टर हीरालाल नन्दा ' प्रभाकर ')

कविता- डर





भीड़ से नहीं
भीड के सूनेपन से
डर लगता है

सूरज से नहीं
ओजोन के छेद से
डर लगता है

हथियारों से नहीं
लावारिस खिलौनों से
डर लगता है

काटों से नहीं
फूलों के हार से
डर लगता 

नक्षत्रों से नहीं
नक्षत्रों के ठेकेदारों से
डर लगता है

इन्सान  से नहीं
इन्सानियत के ठेकेदारों से
डर लगता है

महँगाई से नहीं
नेताओं के भाषणों से
डर लगता है

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)

कविता- हाल अपना ठीक है


ओजोन में छेद है
धर्मो में मतभेद है
देहरी में मनभेद है
महँगाई का खेद है
हाल अपना ठीक है
हरि बोल बोल हरि ।

दाल बिना थाल है
माछ बिना बंगाल है
तेल बिना तरकारी है
नाही कुछ दरकारी है
हाल अपना ठीक है
हरि बोल बोल हरि ।

बिना चरित मिनिस्टर है
बिना गणित एस्ट्रोलाजर है
बिना ईमान अफसर है
बिना वेतन डाक्टर है
हाल अपना ठीक है
हरि बोल बोल हरि ।

बिना पुछे कवि है
बिना पूजे रवि है
छाया ही छवि है
छवि ही विप्लवी है
हाल अपना ठीक है
हरि बोल बोल हरि ।

मन में तो डर है
तन किंतु निडर है
अपना ही देश है
अपने ही लोग है
हाल अपना ठीक है
हरि बोल बोल हरि ।

कानों में रुई है
जुबाँ पे सुई है
आँखो पे पट्टी है
धोखे की टट्टी है
हाल अपना ठीक है
हरि बोल बोल हरि ।

अयोद्धा का हिस्ट्री है
रामसेतू बना मिस्ट्री है
कैसी हुई सृष्टि है
किसकी कुदृष्टि है
हाल अपना ठीक है
हरि बोल बोल हरि ।

छक्कों की बौछार है
विराट की जय जयकार है
नेता सारे भगवान हैं
वाकई हम सब महान हैं
हाल अपना ठीक है
हरि बोल बोल हरि । ।


कोरोना महामारी है
वैक्सीन की मारामारी है
ऑक्सीजन की कालाबाजारी है
चोरी है सीनाजोरी भी जारी है 
हाल अपना ठीक है
हरी बोल बोल हरी । ।


             © सुभाष चंद्र गांगुली *              
    _________________________
Written in 1997
Revised twice. Latest in 2021

कविता- कर्मकार


कांडो-महाकांडो का
ज्ञान नहीं है
उस कर्मकार को।
उसकी निगाहें, तितलियों कबूतरों पर नहीं
औजारो पर टिकी रहती हैं,
फटे पुराने जुतों को, देखकर
वह खुश हो जाता है।
जूतों को देखकर, वह
जूते के मालिक का हाल
जान लेता है, वह उसके मालिक के घर के
भीतर तक पहुँच जाता है
आज़ादी के पचास वर्ष की उपलब्धियाँ
जूतों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर/ वह
बखूबी पत्रकारों की तरह सुनाता है।
और अपना अमूल्य वोट, वह
उसके लिए सुरक्षित रखता है
जो उसे, फुटपाथ से हाटाने वालों से बचाता है
और जो उसके परिवार को
पुल के नीचे बसे रहने देता है ।

© सुभाष चन्द्र गाँगुली
*संकलन " समय के साक्षी " , सम्पादक, (तीन) भिण्ड, मध्य प्रदेश 1998 में प्रकाशित ।

कविता- शिल्पी


चाक चलाते चलाते
उसकी नाज़ुक कलाइयाँ
कब मजबूत हुई
कब उन पर
सफ़ेद बाल उग आए
उसे मालूम नहीं।

उसे मालूम नहीं
उसकी चाक से
कितनी विदेशी मुद्राएँ
देश में आईं ,
उसे मालूम नहीं
उसके शिल्प को
कितने व्यापारी
माटी के मोल खरीदकर
हीरे के मोल बेच दिए।

उसे मालूम नहीं
उसकी रीढ़ की हड्डी
उभरी हुई है,
और पीठ के नीचे
घुट्ने तक का कपड़ा
जो गुप्ताँग़ को
छिपाने के लिए है
वह फटा हुआ है।

उसे मालूम नहीं
कि राष्ट्रपति से
जो मेडल मिला था उसे
उसके शिल्प के लिए
उसकी पत्नी बेच चुकी है उसे
बेटे के इलाज और अंत्येष्टि के लिए।

वह तो है शिल्पी!
शिल्पकला में तन्मय
नहीं मालूम, नहीं मालूम उसे
होता है क्या आय-व्य्य।


© सुभाष चन्द्र गाँगुली
     1996
__________________
 *1997 में " प्रस्ताव " में प्रकाशित ।
* 1998 में 'मलथस् का क्रोध 'काव्य संकलन में।
* 11/1999 पत्रिका ' अभियान ' में प्रकाशित ।
 * 2000 में ' प्रस्ताव ' ने दुबारा लघु आकार पत्रिका में प्रकाशित किया ।
* 2000 में जनवरी--मार्च अंक में सीएजी कार्यालय की पत्रिका ' लेखापरीक्षा प्रकाश ' में प्रकाशित ।
महत्त्वपूर्ण टिप्पणी :--
" परिश्रम तुल्य पारिश्रमिक न मिलने से उत्पन्न विपन्नता को ढकने के लिए राष्ट्रहित के लिए कार्य करने के लिए मिला उच्च सम्मान भी सुरक्षित नहीं रह पाता और बचपन में बुढ़ापे को कब वरण किया पता ही नहीं चलता अपने काम की तन्मयता में । विपन्नता से घिरी शिल्पी के हुनर और श्रम का लाभ उसे न देकर धनपति अपनी तिजोरी भरते हैं । इसी विरोधाभासी कसक को शब्दबद्ध किया है समाजवादी चिंतक श्री सुभाषचन्द्र गांगुली ' निर्भीक' ने अपनी कविता ' शिल्पी ' में । सारगर्भित रचना के लिए साधुवाद ।"  * आत्माराम फोन्दणी 'कमल' , सम्पादक- लेखापरीक्षा प्रकाश
*" सुभाष गांगुली ( शिल्पी ) ने विशेष प्रभावित किया। शिल्पी तो बेहद मार्मिक रचना है । जो वर्ग अपने श्रम व कुशलता से इस समाज के लिए एशो-आराम के साधन जुटाता है, वही सबसे अधिक उपेक्षित है। " ---- कृष्ण मनु, सम्पादक, स्वातिपथ, अभियान वर्ष --12 अंक- 2 में प्रकाशित ।

कविता - गुणा और भाग


जब तुम जोड़ रहे थे
तब मैं घट रहा था।
जब तुम
गुणा कर रहे थे
तब मैं
अपना भाग देख रहा था।
जब तुम
गुणनफल के अंको को
जोड़ रहे थे और
गुणा और जोड़
जोड़ और गुणा
दोहराते तिहराते
बेशुमार आँकड़ो के गोरखधंधे में
खुद को तलाश रहे थे  
तब मैं
तुम्हें देखकर
तरस खा रहा था और 
तब तक मैं
धरती को 
अपना कर्ज चुकाकर
दश्मलव के आगे वाले शुन्य से निकलकर
महाशुन्य में विलीन हो चुका था।

© सुभाष चंद्र गाँगुली
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)

कविता- मेरी बेटी बड़ी हो गयी है




आज मेरी बेटि बड़ी हो गयी है
आज वो ज़िन्दगी से रुबरु हो गयी है
आज ही उसने सोलहवीं वर्षगाँठ मनायी है



आज ही उसकी आंख खुली है
आज ही उसे वेदना का एहसास हुआ है
आज ही वह ज़िन्दगी से वाकिफ़ हुई है
आज मेरी बेटी बड़ी हो गयी है

मम्मी ने आज सोलह बत्तियाँ जलने न दी
पापा ने आज दफ़्तर से छुट्टी न ली
मम्मी ने आज गीत नहीं गाया
पापा ने आज डांस नहीं किया
सहेलियों ने आज शोर नहीं मचाया
किसी ने आज गुब्बारा नहीं उड़ाया
आज वह सोलह साल की हो गयी है
आज मेरी बेटी बड़ी हो गयी है

दादी ने आज पास नहीं सुलाया
नानी का आज फ़ोन नहीं आया
भाभी का कार्ड भी नहीं आया
सीमा ने विश् न की थी
रीमा तो भूल ही गयी थी
आज मेरी बेटी बड़ी हो गयी है

रात को उसने सबकी ख़बर ली 
देर रात तक थी गुमसुम अकेली
 मैं बोला, सो जाओ बेटी, मत रोओ 
अब तुम बड़ी हो गयी हो,


जीवन पथ पर अकेली चल पड़ी हो
डगर कठिन है पनघट की
आज मेरी बेटि बड़ी हो गयी है
आज वो ज़िन्दगी से रुबरु हो गयी है

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)



Monday, May 7, 2012

कविता- आज की नारी

बहुत हो चुका
अब नहीं सहनी
तुम्हारी यातनाएं :
मैं नारी हूं 
मैं शेरनी हूं ।
अबला नहीं 
दुर्बल, कोमल नहीं,
दुर्गे दुर्गतिनाशिनी,
काली कात्यायनी,
चामुंडे, मुंडमालिनी,
स्वाभिमानी, अभिमानी
मैं नारी ।
हो अगर झपटना
बला अपनी समझना
तुम्हारी गिद्धी आँखें
गिद्ध को दूंगी उखाड़ के 
अकल हो तो न भिड़ना
अपनी मौत न बुलाना।
वह नारी
जिसे तुम दबोचते 
अपनी जंगली पजों से 
मर चुकी।
मर चुकी
वह नारी, जिसे
बेचते कौड़ी से
बेजुबान बनाकर रखते
आजीवन कारावास में :
मर चुकी
वह नारी, जिसे
जब चाहा भोगा,
जब चाहा त्यागा
गला घोट दिया 
जला दिया 
दफ़ना दिया
इतिहास साक्षी 
जो न किया
कम किया।
कसम पवन औरअग्नि की
कसम भारत माता की
कसम इस धरती की-
जिस नारी ने संरचना की
विशाल विश्व की,
जिस नारी ने सृष्टि की 
सम्पुर्ण मानवजाति की,
जिसने बागडोर संभाली
घर घर की,
उस जननी जगधात्री
विश्वसृष्टा नारी का
अब यदि होगा अपमान
मैं अपने स्तन में 
विष भर दुँगी। 

© सुभाष चन्द्र  गाँगुली
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18/12/1996
* पत्रिका ' तमाल' फरवरी 1997 में प्रकाशित ।
* पत्रिका ' जनप्रिय ज्योति ' जुन 1997 में प्रकाशित ।
* कार्यालय पत्रिका 'तरंग ' में प्रकाशित ।
* संकलन 'क्षितिज' 12/1998 में प्रकाशित ।
* आकाशवाणी इलाहाबाद से प्रसारित ।   
* आर्यकन्या डिग्री कालेज, इलाहाबाद के गोल्डन जुबिली समारोह में वाचन ।

("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)

कविता- अतीत

आया था कभी
सामने के दरवाजे से
मेरा अतीत
जिसे--
ढकेला था मैंने
भीड़ में पीछे
होने को कालातीत।
न जाने कैसे
पुनः सामने से
नये परिधान में
आया बनके
मेरा वर्तमान

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)

कविता- उफ़ान


सुप्त अवस्था में समुन्दर को
देखा नहीं
कभी किसी ने
तरंगित उफ़ान को
अतरंगित होते हुए
धरती कि छाती में
सुप्त अवस्था में
जाते हुये --
देखा कहीं - कहीं
किसी - किसी ने।

© सुभाष चन्द्र गाँगुली
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' दिशाविद ' काव्य संकलन, जून 1990.
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)


कविता- खिलौने


खिलौने
जो बचपन में मुझे मिले थे 
मेरे जन्म-दिन पे,
और वे महँगे महँगे खिलौने
जो पापा मम्मी ने खरीदे थे
मेरे नाम से
मुझसे छीन लिये गये थे।

उन्हें कैद कर लिया गया था 
बंद शिशे की अलमारी में।


शायद इसलिये
कि वे कीमती थे 
सोफ़ा और कालीन के 
शायद इसलिए
कि वे स्टैटस थे
पिता और माता के। 


क्या पता 
शायद वे अधिक कीमती थे
मेरे अल्हड़पन से, 
शायद वे
अधिक खूबसुरत थे
मेरे चेहरे से।   

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)