Search This Blog

Thursday, August 31, 2023

वासना

 



       इम्तहान खत्म होने के बाद सीमा जब घर लौटी तो नवजात शिशु की रोने की आवाज़ से वह स्तम्भित हुई । पता चला कि उसकी मां ने एक बेटे को जन्म दिया है । इकलौती सीमा के मन में बचपन से भाई की प्रबल इच्छा थी  । बचपन में दो फुट ऊंचे गुड्डे को भाई मानकर घंटों बातें किया करती , भाईदूज पर टीका लगाती, किंतु आज जब सचमुच भाई होने की ख़बर मिली तो वह मर्माहत हो गई । पिछले आठ महीने से वह घर नहीं आ सकी थी, न ही उसे भाई होने की ख़बर दी गई थी । 
             सीमा अब पच्चीस वर्ष की हो चुकी थी। उसे अपनी जवानी और ख़ूबसूरती की ढलान की चिंता होने लगी थी । नारी के जीवन में यही वह समय है जब वह सबकुछ पा लेना चाहती है। सीमा भी अपना घर बसाने, मां बनने की सपना देख रही थी मगर यह कैसी विडम्बना है कि सीमा को मां सुनने के बजाय दीदी सुनना पड़ेगा ? जब वह बच्चे को गोद में खिलायगी तो लोग उसे क्या समझेंगे: मां या दीदी ? नवजात शिशु के रहते इतनी जगहंसाई होगी कि शादी में भी अड़चन आ सकता है ।
            लाज- शर्म लोगों के ताने-उलाहनो की दुर्भावना-दुश्चिन्ताओं ने उसके अस्तित्व को झकझोर कर रख दिया । जितना सोचती उतनी ही वह परेशानी हो जाती । फ़िज़ूल की  चिंताओं के कारण उसके आचरण में अजीब सा बदलाव आ गया। बात-बेबात वह बौखला उठती, खिसियाती, झगड़ती । देखते देखते उसकी बौखलाहट उद्दंडता में तब्दील हो गई । कुछ समय बाद उसने पिता से बातचीत करना बंद कर दिया । फिर मां और महरी से भी । अपने कमरे में चुपचाप पड़ी रहती । कभी स्टीरियो बजाकर चिल्लाती तो कभी एकदम सन्नाटा पसर जाता, कभी कामवाली पर बेवज़ह गरजती तो कभी मां से झगड़ती । कभी डिनर टेबल पर नमक ज्यादा, मिर्चा ज्यादा चिल्ला कर थाल में पानी उड़ेल देती, तो कभी दो चार कौर खाने के बाद उठ जाती ।
            एक दिन सीमा को जिज्ञासा हुई कि उसकी बद्तमीजी को घर के सारे लोग क्यों
बर्दाश्त कर रहे हैं ? अभी तक किसी ने विरोध क्यों नही किया ? उसके पिता ने उसे फटकार क्यों नहीं लगाईं ? आख़िर माता पिता ने कोई कत्ल तो नहीं किया । बात तो बस इतनी ही है कि बुढ़ापे में पुत्र हुआ है जो अशोभनीय है परन्तु अपने देश में तो यह आम बात है । इस प्रश्न ने सीमा की उद्दंडता पर ब्रेक लगा दिया । कौतूहल फिर भी बना रहा ।
               सीमा ने गौर किया कि उसके माता-पिता में बोलचाल बन्द है । पिता अधिक से अधिक समय घर से बाहर रहते । भोर होते होते टहलने निकल जाते, घर लौट कर जल्द तैयार होकर दफ़्तर के लिए निकल जाते, देर शाम या रात को घर लौटते । छुट्टियों के दिन भी किसी न किसी बहाने लम्बे समय तक घर से बाहर रहते।
सीमा ने गौर किया कि उसके पिता दफ़्तर से लोटकर कभी बेटे से मिलने नहीं गये, बेटे के लिए कभी कोई सामान नहीं ले आए, बेटे को कभी भी गोद में लेकर खिलाये नहीं । सीमा के मन के भीतर एक जासूस का जन्म हुआ । वह जासूसी करने लगी । उसने पिता के कमरे की एक एक सामान को खंगाला, मां की कमरे की चीजों को, एक एक कागजपत्र, अलमारियों में रखी साड़ियों, स्वेटर कुछ भी नहीं छोड़ा और आख़िरकार अलमारी के लॉकर से उसे एक किताब मिली । उसकी मां की लिखी हुई किताब, एक साल पहले की छपी । किताब देख कर वह प्रसन्न तो हुई किंतु ततक्षण उसके मन में प्रश्न जागा : उसे इस किताब की जानकारी क्यो नही दी गई थी इसे छिपाकर रखने का क्या तुक है ? आख़िर कुछ तो बात होगी ।
              एक दिन पोस्टमैन ने एक लिफ़ाफा डाला । सीमा ने उसे लपककर उठा लिया । लिफ़ाफा उसकी मां के नाम था । उसने लिफ़ाफा खोला और खोलते ही वह दंग रह गयी । उसके भीतर उसकी मां की अनेक तस्वीरें थी । उसने अपना कमरा भीतर से बंद कर दिया । तस्वीरों को एक एक करके देखा । सारी तस्वीरें चौंकाने वाली थी । भेजने वाले का नाम था अजय कुमार । यह वही अजय जिसने मां का उपन्यास प्रकाशित किया था । सीमा को अब अपनी मां से सचमुच नफ़रत होने लगी उसने बिना कुछ आगे का सोचे समझे घर छोड़ने का मन बना लिया। कहां जाना मालूम नहीं । पढ़ी लिखी है कुछ न कुछ कर ही लेगी । क्या होगा आगे राम जाने पर इस नर्क में रहना असम्भव । 
                  अगले दिन सुबह सुबह सीमा ने जाने की तैयारी कर ली । एक अटैची में अपना सामान भरा । मां ने पूछा कहां की तैयारी है? कहां जा रही हो ? सीमा निरुत्तर। रात के क़रीब आठ बजे सीमा जब घर से निकलने लगी तो मां ने रास्ता रोका । " कहां जा रही हो ? किसके संग भाग रही हो ? ....इतने दिनों बाद घर लौटी और जब से आई हो मुंह फुलाकर बैठी हो ! तुम्हारी इतनी इच्छा थी कि एक भाई हो, जब भगवान ने भाई भेजा तो तुमने उसे देखा तक नहीं । "
सीमा चीख उठी  " छोडो रास्ता नहीं बताती । मर गई सीमा, मर गई मेरी मां ।" 
सीमा घर से निकलने के थोड़ी देर बाद उसके पिता घर लौटें।
अपने में घुसते ही पत्नी की तस्वीर दूसरे पुरुष के साथ देख उनका पारा चढ़ गया । पत्नी ने सीमा के चले जाने की सूचना दी । वे तत्काल घर से बाहर निकल गये।
इधर उधर देखने के बाद वे रेलवे स्टेशन पहुंचे । पांच नम्बर प्लैटफार्म पर सीमा दिख गई । एक बेंच पर अकेली बैठी थी। उसके निकट जाकर पिता ने कहा " चल बेटी घर चल।" 
सीमा सहम गई । रोते-रोते बोली " पापा आपको मालूम नहीं, मम्मी..." 
उसकी बात काटकर उन्होंने कहा " मुझे सब मालूम । ये सब उन दिनों की बात है जिन दिनों मैं लन्दन में था । तेरी मां उस प्रकाशक के चंगुल में फंस गई थी । उसने तेरी मां को अवार्ड दिलवाने का सपना दिखाया था ।वह वासना का शिकार हो गयी थी ....... गलतियां तो इंसानों से हो जाती है, एक गलती किसी के जीवन भर के समर्पण से बड़ी नहीं हो सकती ... वो तेरी माँ है, सारे जीवन उसने हम सब का ख़्याल रखा, उसी के वजह से तू इस दुनिया में है इस सच को तू झुठला नहीं सकती,  चल घर चल ।"
सीमा बोली " पापा आपके लिए मुझे अफ़सोस है मगर मैं उनके साथ नहीं रह सकती ।
पिता ने बेटी के आंसुओं को पोंछ कर कहा " इस राज़ को राज़ ही रहने दे, हर एक के जीवन का एक 'पास्ट' होता है। हमे आज में जीना चाहिये और आज का सच यही है की तेरी माँ हमारे साथ है। पिता की बातें सुन बेटी की आँखों से अश्रु गिरने लगे ... वो बोली पापा आप कितने नेक इंसान हो... आपका दिल कितना बड़ा है।  
पिता ने उसके आंसू पोंछ के कहा  तुझे तो चंद महीने ही रहना है । तेरे लिए मैंने बर ढूंढ लिया है, बस तिथि तय करनी है । अशोक को तो तू जानती ही हैं। " 
सीमा उठ खड़ी हुई, पिता को प्रणाम किया फिर पिता के वक्ष में सिर रखकर रोने लगी ।

सुभाष चन्द्र गांगुली
--------------------------------
पत्रिका "जगमग दीपज्योति" दीपावली एवं वार्षिक विशेषांक 1999 में प्रकाशित ।

Tuesday, August 22, 2023

मॉब लिन्चिंग


नन्दू भैया जिधर से गुजरते उन्हें देख बच्चे आवाज़ देते-

"हेला हेला, हेइ लल्ला

नन्दू भैया हेइ लल्ला ।”

'हेइ लल्ला' बोलते हुए नन्दू भैया सायकिल से उतर कर कहीं एक-दो मिनट, कहीं थोड़ा ज्यादा वक्त के लिए रूक जाते। जहाँ कहीं अधिक बच्चे होते, बच्चों में होड़ लग जाती नन्दू भैया के दुलार पाने की। नन्दू भैया एक-एक लाइन बोलते और बच्चे समवेत स्वर में बोलते जाते-

"हेला हेला, हेइ लल्ला

हम सब बच्चे हेइ लल्ला

वीर बहादुर हेइ लल्ला ।

खेल खेले, स्वस्थ रहे, हेइ लल्ला स्कूल जाए, पढ़ाई करे, हेइ लल्ला साफ रहे, सफाई रखे, हेइ लल्ला ।

हेला हेला हेइ लल्ला

हम सब बच्चे हेइ लल्ला

नन्दू भैया हेइ लल्ला।"

सभी बच्चों के प्यारे नन्दू भैया ने साल भर में कई मोहल्ले में 'हेला हेला हेइ 'लल्ला' नाम से क्लब का गठन कर दिया। प्रतिदिन शाम को बच्चे मोहल्ले में किसी मैदान या पार्क में एकत्र हो जाते और किसी वरिष्ठ नागरिक पुरुष या महिला जिस किसी ने सहमति जतायी हो, के देख रेख में पी टी करते, खेल खेलते। यह क्लब

केवल पाँच साल से बारह साल तक के बच्चों के लिए ही था। रोज़ाना किसी एक मोहल्ले में खेल के समय नन्दू भैया दूर से 'हेला हेला, हेइ 'लल्ला' बोलते हुए पहुँच जाते और थोड़ी देर के लिए बच्चों के संग बच्चे बन जाते। फिर एक-एक बच्चे का दाँत देखते, गंदा रहने पर कहते 'गंदी बात। दाँत साफ किया करो हर रोज।' नाखून चेक करते, बढ़ा हुआ पाते तो जेब से नेल कटर निकाल कर काट देते। बाल गंदे या बेतरतीब देखते तो कहते 'रोजाना नहाया करो। कंधा किया करो। किसी बच्चे से गिनती सुनते, किसी से पहाड़ा। कभी खुद चुटकुले सुनाकर बच्चों को हंसाते तो कभी कोई शिक्षाप्रद छोटी कहानी सुनाया करते। फिर साँझ होते ही कहते 'चलो बच्चे अपने-अपने घर, आज का खेल खत्म। और सायकिल हाथ में थामे चलते-चलते बोलते जाते-

'हेला हेला, हेइ लल्ला'

वीर बहादुर हेइ लल्ला

हम सब बच्चे हेइ लल्ला ।"

बच्चे भी उनके साथ जोश से बोला करते, और फिर जब सायकिल पर चढ़ कर पैडल मारते तो बच्चे शोर मचाते-

"नन्दू भैया हेइ लल्ला हेला हेला, हेइ लल्ला ।"

बच्चों का नियमित देखभाल करना, खेल भावना द्वारा उनमें एकता की भावना जगाना, उनके सर्वांगीण विकास का ध्यान रखना बिल्कुल एक 'मिशन' जैसा था नन्दू भैया के लिए। अनेक लोग उनके काम की सराहना करने लगे।

किन्तु अनजाने में उनके न चाहने वाले भी बनते गये। कुछ लोग कहते पता नहीं कहाँ कहाँ से बच्चे बटोर लाते हैं, गन्दे बच्चों के साथ अच्छे घर के बच्चे खेलेंगे तो गन्दी बातें सीखेंगे, बिगड़ जायेंगे।

कुछ लोगों को पार्कों में खेलने पर आपत्ति थी। अलग-अलग पार्क की अलग-अलग कहानी। कहीं सौन्दर्यकरण के नाम रखरखाव की जिम्मेदारी 'वेलफेयर एसोसिएशन' की थी जो सुबह-शाम अपने लोगों के लिए मात्र दो घन्टों के लिए फाटक खोलते। कहीं आये दिन किसी आश्रम या मठ का अपना कार्यक्रम चलता और वे ही देखभाल करते। कहीं किसी पार्क में प्रभावशाली व्यक्ति का दबदबा था। और कहीं किसी मैदान में बच्चों के संग संग बड़े-बड़े लड़के भी जुट जाते जिससे मैदान के पास मकानों में रहने वालों को परेशानी होती, अक्सर कोई न कोई नन्दू मैया से कहता ले जाए अपने बच्चों को कहीं और। किसी मैदान से लगे कोचिंग सेन्टर या मंदिर होता तो वे आकर चिल्लाते। तमाम समस्याओं के बावजूद नन्दू भैया अपना प्राग्राम जारी रखे हुए थे ।

एक शाम जब नन्दू भैया 'हेला हेला, हेइ लल्ला' हाँकते हुए किसी खेल के मैदान में जा रहे थे तब एक वृद्ध व्यक्ति ने उन्हें रोककर एक कागज़ देते हुए कहा- 'आप इसे अभी पढ़िए।' फिर वह व्यक्ति तेज डगों से निकल गए। 

कागज में लिखा था-

'कल रात से शहर के दो बच्चे गायब हैं। ख़बर फैली है कि आप बच्चा चोर गिरह के सरगना हैं। 'व्हाटस एप्स' पर ख़बर वायरल हो रही है। बच के रहिएगा

नन्दू भैया को यकीन नहीं हुआ। वे हँसते हुए सायकिल पर चढ़कर 'हेला हेला, हेइ लल्ला' करते हुए दस कदम आगे बढ़े ही थे कि मैदान के पास घात लगाये बैठे दस-बीस लोग शोर मचाने लगे-'चोर चोर बच्चा चोर बच्चा चोर पकड़ी। पकड़ो और फिर दौड़ लगाने लगे। भीड़ के साथ लोग जुड़ते गये। नन्दू भैया निःशब्द एक गली से दूसरी गली होते हुए गमछे से सिर ढक कर 'चोर चोर पकड़ो। पकड़ो। चिल्लाते हुए भीड़ का हिस्सा बन कर जान बचाकर भाग निकले।

उस घटना के बाद नन्दू भैया को किसी ने देखा नहीं। वे कहाँ के निवासी थे, कहाँ से आये थे, उनका असल नाम क्या था, किसी को पता नहीं था। अपने बारे में उन्होंने कभी किसी से कुछ नहीं कहा था। एक बार किसी ने कहा था कि वे किसी स्कूल में स्पोर्टस टीचर थे, रिटायरमेन्ट के बाद यहाँ आये थे। अकेला थे। घर-दुआर, परिवार कुछ नहीं था।

उस दिन नन्दू भैया के बच निकलने के बाद अगले दिन के अखबार में ख़बर छपी थी- 'मॉब लिन्चिंग में बच्चा चोरी के संदिग्ध आरोपी की हत्या। लाश की शिनाख्त अभी तक नहीं हो सकी। दोषियों की तलाश में जुटि पुलिस।'

मालिक

सुबह-सुबह कॉल बेल बजती, ग्राउंड फ्लोर के कमरे में सो रही बेटी सरिता उठकर फाटक का ताला खोल देती, महरी मालती भीतर आकर हाथ-पैर धोकर किचन में चाय का इंतजाम करती। चाय खौलाते खोलाते वह किचन में लगा स्विच दबाती जिससे ऊपर मिसेस पंत के कमरे में लगी घंटी बज उठती। मिसेस पंत स्कूल जाने की तैयारी करने लगती और मिस्टर पंत बिस्तर पर लेटे-लेटे चाय व अख़बार की प्रतीक्षा करते।

मालती चाय के साथ-साथ मिसेस पंत के लिए स्कूल का टिफिन भी तैयार करती और जब दोनों तैयार कर लेती तब वह फाटक के पास जाकर देखती, अख़बार पड़ा हुआ दिखता तो उसे उठा लेती, अगर नहीं दिखता तो वह सरिता के कमरे में झाँकती। सरिता अगर अखबार पढ़ती नज़र आती तो मालती उससे माँगती और फिर एक ट्रे में चाय, बिस्किट और अख़बार लेकर और कभी सिर्फ चाय व बिस्किट लेकर ऊपर मिसेस पंत के कमरे में दाखिल होती। मिस्टर पंत बेड टी लेते और चश्मा पहनकर अखबार देखते। यह रोज का किस्सा था।

कदाचित अखबार न देख मिस्टर पंत पूछते-'अभी तक अखबार नहीं आया मालती कभी कहती 'जी नहीं। कभी कहती दीदी पढ़ रही है; दीदी नहीं छोड़ रहीं।

'नहीं छोड़ रही है सुनते ही मिसेस पंत दनदनाती नीचे उतरती फिर बेटी से माँग कर या कभी छीन कर ले जाती। जबरदस्ती करने पर सरिता अख़बार दे देती किंतु बड़बड़ाती 'क्या जरूरी है कि पापा ही सबसे पहले अखबार पढ़े और हम लोग सबसे बाद में? थोड़ी देर बाद पढ़े तो क्या बिगड़ जायेगा ?"

मिसेस पंत उसे अनसुनी कर देती बल्कि यूँ कहूँ कि वह बेटी के मुँह नहीं लगती।

उस दिन नींद टूटते ही मिस्टर पंत ने पत्नी से पूछा-'अखबार नहीं आया?'- मालती ला रही होगी? पत्नी ने कहा, -पे कमीशन की रिपोर्ट छपी होगी, आज ही छपनी चाहिए देखना है क्या मिला, कितना फायदा हुआ, सरकार ने कुछ दिया भी है या ऐसे ही...'

'अच्छा देखती हूँ' कहके मिसेस पंत नीचे उतरी फिर लौटते समय मालती को

सहेज आयी कि जैसे ही अखबार आये ऊपर पहुँचा दे।

चाय लेकर जब मालती जाने लगी तो उसने देखा सरिता अखबार में डूबी हुई है उसने अखबार मांगा तो सरिता ने देने से इन्कार कर दिया। दाँये हाथ में ट्रे थामे बायें हाथ से मालती ने पूरा अखबार खींच लिया और तेज डगों से ऊपर पहुँची। पीछे-पीछे गुस्से से लाल सरिता ऊपर पहुँचकर अपना गुस्सा झाड़ा-'मम्मी ! आपने इसे इतना सिर चढ़ाया कि इसने मेरे हाथ से अखबार छीन लिया... अच्छा नहीं लगता इसका बेहूदापन समझा दीजिए।'

-'तो क्या ? कौन सी आफत आ गयी ? मालती तुमसे कितनी बड़ी है तुम पाँच साल की थी जब वह आयी थी। ऐसे कहा जाता है? तुम्हारे पापा को पढ़ना रहता है यह रोज-रोज कहना क्यों पड़ता है ?' मिसेस पंत ने तार सप्तक में कहा। - 'क्या जरूरी है कि हम सब रोजाना बासी अख़बार पढ़े? हमें भी कभी-कभार

खास ख़बर का इन्तजार रहता है, हम पाँच मिनट पढ़ ले तो क्या बिगड़ जायेगा ?"

सरिता तर्क में जीतना चाहती थी।

मिस्टर पंत स्तब्ध। क्या बोले बोले भी या चुप रहे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। फिर बोले 'ठीक है पढ़ ले बाद में दे जाना ।'

मालती हक्की-बक्की बल्कि कुछ सकपकायी सी दरवाजे के कोने में खड़ी माँ-बेटी की बातें सुनती हुई। सरिता अपनी बातें माँ को सुनाती मगर उसकी क्रोध भरी आँखे मालती की ओर रहती। बगल वाले कमरे के दरवाजे को ढकेल कर मिसेस पंत ड्रेस पहनने में जुट गई।

नीचे उतरते हुए सरिता ने अपना सवाल दुहराया- 'रोज पापा पहले अखबार पढ़े यह कहाँ का नियम है। कहाँ लिखा है? उन्हें दफ्तर जाना रहता है तो हमें भी तो कालेज जाना रहता है, मैं तो थोड़ी देर में ही निकल जाऊँगी। पता नहीं कहाँ का नियम है। आपके हर नियम केवल लड़कियों के लिए। भईया के लिए कोई नियम नहीं, उसके लिए सब छूट है।'

सरिता के सवाल का जवाब मालती ने दिया-पता नहीं कॉलेज मा आप का लिखा पढ़ी करत ही इत्ती अकिल नाही है कि घर का मालिक को पहिले अख़बार पढ़े चाहि, चाहे फल हो या परसाद हो कुच्छी हो हर चीज पहिले मालिक को ही दे चाही। लड़कियन से ही घर मा शान्ति रहत हैं। नियम मान के चलवो तो तोहरे घर मा शांति बनी रही। मालिक का सनमान देइवो तो तुमहू सनमान से रहो।' -अब मुँह बंद रखों, बहुत बोल चुकी। याद रखना तुम नौकरानी हो, मालकिन नहीं।'

गुस्से से लाल सरिता बिना नाश्ता किए समय से पहले ही सायकिल उठाकर घर से निकल गयी।

मिसेस पंत मालती को समझाती रही कि दीदी बड़ी हो गयी है, जमाना बदल रहा है, सरिता की बातों का वह बुरा न माने।


Sunday, June 25, 2023

मेरी कथा यात्रा

   


देश की आजादी के समय मैं एक वर्ष का था। लगभग पांच वर्ष की उम्र से मुझे सबकुछ याद है।
पांच साल की उम्र तक घर आंगन और छत पर उछल-कूद किया करता था। दादी मेरा ख्याल रखती थी। खाना खिलाते समय सुलाते समय दादी मुझे कहानियां सुनाया करतीं थीं। उनकी कहानियां छोटी छोटी शिक्षाप्रद या फिर परियों की कहानियां हुआ करती। कदाचित मनगढ़ंत कहानी सुना देती या फिर किसी अन्य कहानी से जोड़ देती।
दादी ने एक कहानी सुनाई थी। एक लड़का बड़ा अभागा जन्मा था। उसके जन्म के बाद डॉक्टर ने उसकी मां को बच्चे को अपना दूध पिलाने के लिए मना कर दिया था। क्यों कि मां के खून में टीवी के किटाणु पाये गये थे।
दादी ने कहा कि जब यह बात अस्पताल में फ़ैल गई तब एक दलित महिला जिसने दो दिन पहले एक बच्चे को जन्म दिया था नर्स से कहलवाया कि वह दूध पिलाने के लिए तैयार है। बच्चे के माता पिता दोनों राजी हो गए थे। 
दादी बहुत देर चुप थी। मैंने पूछा ' फिर ? '
दादी ने कहा था कि फिर वह लड़का बड़ा होकर बहुत बहादुर निकला। थोड़ा सा बड़ा होकर मां को घुमाने ले गया। लड़का घोड़े पर सवार था और मां पालकी में बैठी थी। बीच रास्ते में डाकुओं ने हमला किया, घोड़े से उतर कर ढाल तलवार लेकर भीषण युद्ध कर डाकुओं को मार गिराया।
पालकी से उतरकर उसकी नयी मां ने बेटे को गले से लगा लिया और कहा किस्मत अच्छी थी जो खोका ( लड़का)साथ था वर्ना नामालूम क्या कुछ हो गया होता।
जब मैं कक्षा छह में पहुंचा तब पता चला कि दादी ने जो कहानी सुनाई थी वह कहानी रवीन्द्र नाथ टैगोर की कविता ' वीर पुरुष ' थी और जब मैं इंटर में था तब पता चला था वह अभागा जन्मा लड़का कोई और नहीं मैं ही था। और दादी चुप इसलिए रह गई थी क्योंकि वह नहीं कहना चाहती थी कि मेरी मां मेरी दूसरी मां थी।
किन्तु दादी ने जो कहानी सुनाई थी उससे उसने मेरे मन में एक बड़ी कहानी की बीज बो दी थी जो आगे चलकर एक लम्बी कहानी ' खून का रंग '  बना जो प्रतिष्ठित पत्रिका ' कथ्य रूप ' में सन् 2001 में छपी थी। पहले यह लघु उपन्यास धा किन्तु बार बार काट छांट कर मैंने उसे लम्बी कहानी बना दी ताकि अधिक से अधिक लोग पढ़ सकें।
जब मैं कक्षा पांच में था तब पता चला था कि वह दादी मेरे पिताजी की बुआ थी जो पिताजी के बुरे वक्त पर परिवार को सम्हालने आयी थी। 
आज की तारीख़ में ऐसी दादियां विरले ही मिलेंगी।
मेरे जमाने में पांच वर्ष की उम्र तक बच्चों को बाल गोपाल माना जाता था। लाड प्यार से पाला जाता था। बालक बालिकाओं में पांच- सात साल तक कोई भेद नहीं था पांच किलो बस्ता तो क्या पांच सौ ग्राम वजन भी नहीं दिया जाता था। संस्कृत में श्लोक भी है --" लालयते पञ्च वर्षाणि ,ताडयाते दश वर्षाणि/प्राप्ते सम्प्राते षोडशे वर्षे पुत्र मित्र समाचरेत  ।" 
            आदमी अपना बचपन और विद्यार्थी जीवन कभी भूलता नहीं। मैं और मेरे दो मित्र बचपन में मेरी बहन और उसकी सहेलियों के साथ खेलता था। गुड्डा -गुड्डी की शादी भी रचाई थी। मेरी मां ने घराती बाराती के लिए पूड़ी सब्जी, रायता, खीर भी बनाई थी। इस पुतुल खेला से  निकली थी कहानी ' लाली ' जो जनसत्ता दीपावली विशेषांक 1999 में प्रकाशित हुई थी। यह मेरे प्रथम कहानी संग्रह ' सवाल ' में है। भूमिका लिखते हुए अमरकांतजी ने इसका विशेष उल्लेख किया था।
 मेरे बचपन की सहेली पार्वती जब विधवा हो गई और 'अनुकम्पा' के आधार पर किसी एक बेटे को अनुकम्पा के आधार पर नौकरी देने की बात लेकर दो बेटों में कलह होने लगा था तब उसके बचपन के खेल के साथी वृद्ध अनिल पांडेय पार्वती के घर पंहुचते हैं कलह निवारण का उपाय बताने। कहानी ' अनुकम्पा ' कहानी संग्रह 'सवाल' में है।
जब मैं पांच वर्ष का हुआ तब रीति अनुसार बसन्त पंचमी के दिन मां सरस्वती के सामने पिताजी ने मेरे हाथ स्लेट खड़िया थमाकर पुरोहित द्वारा मंत्रोच्चारण के साथ बांग्ला में अ आ क ख लिखाना शुरू कराया। 
सात वर्ष पूर्ण होने पर एंग्लो बंगाली इंटर कॉलेज में कक्षा चार में भर्ती कराया गया । कक्षा चार और पांच मे बांग्ला मीडियम, परीक्षाएं मौखिक।‌ कक्षा छह से हिन्दी मीडियम, लिखित परीक्षा। 
अंग्रेजी एक विषय के रूप में शुरू। ABCD से।
मेरे समय में हिन्दी मीडियम के  स्कूल कॉलेज बहुत अच्छे थे। 
हाईस्कूल 1961 में इंटर 1963 में उसी विद्यालय से किया। उन दिनों नम्बर नहीं लुटाये जाते थे आज की तरह। नम्बर देते थे सुनार के तराजू की तरह। साढ़े तीन, पौने चार, सव चार, साढ़े चार, पौने पांच इस तरह। सांइस में मार्क्स  मिलते थे मगर कम,आर्ट्स में तो  लगभग साठ प्रतिशत  से अधिक पाना लगभग नामुमकिन था। 
इंटर में हिन्दी साहित्य से अच्छा परिचय हुआ। लगभग सभी चोटी के साहित्यकारो से परिचित हुआ। प्रेमचंद की एक पतली सी किताब दस बारह कहानियों की। इतनी अच्छी लगी थी कि गर्मी की छुट्टियों में उनकी और कहानियां पढ़ी, उपन्यास पढ़ा। आगे चलकर  मोपाशा, शरतचंद्र, चेखाव, गोर्की, हेमिंग्वे अनगिनत बड़े कथाकारों को पढ़ा किन्तु मैं प्रेमचन्द को अब तक का श्रेष्ठतम कथाकार मानता हूं। 
  सन् 1965 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बीए पास किया। अंग्रेजी मजबूत करने तथा अंग्रेजी साहित्य से परिचित होने के लिए अंग्रेजी साहित्य एक विषय के रूप में चुना था।
बीए पास करने के बाद 1965 में ही यूनिवर्सिटी में कॅनवोकेशन हुआ था। प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री आये हुए थे। उन दिनों पाकिस्तान से युद्ध चल रही थी। भाषण देते देते किसी ने आकर उनसे कुछ कहा, 'एक मिनट' कह कर वे थोड़ा साइड में चले गए, फोन पर कुछ निर्देश दिए होंगे फिर माइक के पास आकर युद्ध के सम्बन्ध में बड़ी चुटिले अंदाज में बोले कि वे छिप छिपकर आयें, कुछ सलवार कमीज़ पहन कर आएं इत्यादि। मैंने देखा कि एक बहुत ही गंभीर परिस्थिति में कितने ठंडे दिमाग से काम करते हैं। यह मेरे लिए अनुकरणीय था। 
शायद उन दिनों ग्रैजुएशन करना बड़ी बात थी, पोस्ट ग्रेजुएट होना तो और भी बड़ी बात थी, पोस्ट ग्रेजुएट बहुत ही कम मिलते थे। इसलिए कन्वोकेशन में जो गाउन मिलता था उसे पहनकर फोटो खिंचवाकर घरों की दीवारों पर टांग दिया करते थे। आज यह एक कहानी जैसी लगती है।
    ‌‌‌‌‌बीएमें अंग्रेजी साहित्य पढ़ते हुए मुझे अंग्रेजी साहित्य से प्यार हो गया और मैंने एम ए अंग्रेजी साहित्य से किया 1967 में। मुझे लगा कि अंग्रेजी साहित्य ने मुझे काफ़ी समृद्ध किया।
 दो महीने बाद मै उपाधी महाविद्यालय, पीलीभीत पहुंचा इंटरव्यू देने। चूंकि मुझे गाड़ी पकड़नी थी मैंने प्रिंसिपल साहब से अनुरोध किया था कि वे अगर मेरा इंटरव्यू पहले करा दें तो बड़ी कृपा होगी। 
मैं समय से पहले ही कमरे के बाहर बैठा हुआ था। प्रिंसिपल साहब के कमरे में तीन लोग बैठे हुए थे। कैंडिडेट्स के कागजात देख रहे थे। किसी ने मेरे कागजात देख कर कहा देखिए इनके मार्क्स। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट,गुड सेकेंड डिवीजन, क्या मार्क्स 54,56,48,42,50,60,57,58,62 इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का है ! इनसे क्या पूछना।‌‌मैं शर्मा रहा था और नर्वस भी था। सचमुच मुझसे ज्यादा कुछ नहीं पूछा गया था। आज की पीढ़ी को शायद ही मालूम होगा कि उन दिनों इलाहाबाद यूनिवर्सिटी को 'ऑक्सफोर्ड ऑफ एशिया' कहा जाता था।  फर्स्ट क्लास बहुत ही कम मिलते थे। लोग शान से कहते थे फोर सेकेंड डिवीजनर।
 मुझे तीन हफ़्ते बाद पीलीभीत डिग्री कॉलेज से नियुक्ति पत्र मिल गया था। मैं जाने की तैयारी कर ही रहा था कि मुझे इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में लेक्चरर पद की नियुक्ति पत्र मिला।  मैंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी चुना। 
उन्ही दिनों देश में 'भाषा विवाद' राजनेताओं की कृपा से एक वृहद आन्दोलन का रुप ले चुका था। दक्षिण बनाम उत्तर। दक्षिण भारत हिन्दी का विरोध कर रहा था तो उत्तरी भारत अंग्रेजी का। परिणामस्वरूप सामान्य अंग्रेजी जिसे कम्पल्सरी इंग्लिश भी कहा जाता था और बीए, बीएससी बीकॉम में अनिवार्य था हटा दिया गया। इंटर और हाईस्कूल में भी अनिवार्य नहीं रह गया था। विद्यार्थी खुश नेता खुश। नतीजतन हिन्दी मीडियम में पढ़ने वाली पूरी एक पीढ़ी अंतरराष्ट्रीय भाषा से महरूम रह गए। खामियाजा भुगतना पड़ा। 
1967-68 पूरा सेशन पढ़ाने के बाद यूनिवर्सिटी में एक्सटेंशन नहीं मिला।
भाषाविद डॉक्टर हरदेव बाहरी ने हिन्दी अंग्रेजी शब्दकोश संकलन अक्षर 'अ से म' तक का ऑफर दिया ।यह मेरी अभिरुचि काम था । मैंने तीन साल में काम पूरा किया था।
      1969 की  बात।  मैं काम की तलाश में था कि एक दिन मेरे मोहल्ले के एक एजी ऑफिस के कर्मचारी मेरे घर आकर पूछा कि क्या मैं एजी ऑफिस में काम करने को तैयार हूं। मैंने उनके हाथ अप्लीकेशन दे दिया। एक महीने बाद एजी  ऑफिस में ही लिखित परीक्षा तथा शाम को इंटरव्यू दिया। एक महीने बाद नौकरी मिल गई।
 इतना ही सरल था केंद्र सरकार नौकरी पाना। बैंक मैनेजर को भी क्षमता थी नियुक्त करने का। एक महीने बाद मुझे बैंक से भी नियुक्ति पत्र मिला, मैं गया नहीं था। 
दो अवसर और मिले थे डिग्री कॉलेज के लिए। किन्तु एजी ऑफिस की नौकरी में प्रमोशन, पेंशन, मेडिकल सुविधा देखते हुए और अंग्रेजी की दुर्दशा देखकर मैं कहीं गया नहीं।
1971 की बात। मैं बांग्ला में कहानी और इंग्लिश में कविता आदतन लिखता ही था। एक रात बादल सरकार का नाटक पढ़ कर लेटे लेटे 'एवं इन्द्रजीत ' के चारों चरित्रों अमल विमल कमल एवं इंद्रजीत के बारे में सोचता रहा। सोचते सोचते अचानक चार पुरुष पात्रों का आविर्भाव हुआ। उन सबोका हुलिया, बर्ताव, संवाद,मंच पर उनका अभिनय सबकुछ मेरे मानस पटल पर छा गया। बिस्तर से उठ कर आधी रात मैंने पूरी की पूरी कहानी के रूप में बांग्ला में लिख ली। 
अगले दो तीन दिनों में उसका नाट्य रूपांतरण कर उसका नामकरण किया 'चतुरंग ' ! एक बांग्ला प्रकाशक ने उसे छापा था। हावड़ा, हुगली शोधपुर वर्धमान अनेक जगहों से मंचस्थ होने की खबर मिली थी। मेरे मोहल्ले के दुर्गोत्सव में मंचस्थ किया गया था और मैंने भी एक रोल प्ले किया था।
1975 में ऑफिसर्स ग्रेड एग्जाम क्लियर कर लिया। 
1980-82 ऑडिट कार्य के लिए उत्तर प्रदेश में घूमता रहा। तब उत्तराखंड यूपी में ही था। पहाड़ों में गया, जिला जिला, तहसील, दूर दराज क्षेत्रों के गांवों में भी गया, तरह तरह के लोगों के रहन सहन,सुख दुःख सब जानने का अवसर मिला। शहरों से भिन्न भारतीय जीवन।
जहां कहीं कुछ नज़र आता या कुछ स्ट्राइक करता उसे डायरी में नोट करता। सबकुछ काम आया कहानी लेखन में।
कार्यकाल में मुझे और दो प्रोमोशन मिले थे और दो दशकों तक वरिष्ठ लेखाधिकारी पद पर काम किया था। उस दौरान ढेर सारे अनुभव प्राप्त हुए, हर तपके के लोगों से सम्पर्क हुआ, अलग अलग लोग अलग मानसिकता, अलग अलग परेशानियों से साक्षात हुआ। वे सब मेरी कहानियों में प्रकट हुए किसी न किसी तरह।
           टेहरी टॉप से उतरते समय एक विशाल वृक्ष पर एक जीप को देखा था। ड्राइवर से पता चला था कि वह गाड़ी लुढ़क गई थी। सेना की मदद से लोगों को निकाल लिया गया था। 
आगे चलकर प्रशासनिक अनुभव को समेटते हुए यह कहानी ' सवाल 'के रूप में निकली जो दस्तक के कहानियों का शताब्दी अंक में 09/1998 में छपी थी। लालबहादुर वर्मा ने लिखा था कि कहानी सवाल शताब्दी अंक की उपलब्धि है।
1986 से रिटायरमेंट तक सारा काम मैंने हिन्दी में किया । भाषा का विकास करने में मददगार सिद्ध हुई।
मेरे पास पेंशन वितरण अधिकारी का चार्ज था। उसी अनुभव से निकली थी ' कहानी की तलाश ' कहानी की सुमन की दर्दनाक कहानी। उसी अनुभव से बनी थी ' आख़िरी लाइन ' के डॉक्टर राय की कहानी ।
1993 स्थानीय पाक्षिक पत्रिका ' के सम्पादक रवींद्र कालिया जी ने मुझसे आग्रह किया कि 'इलाहाबाद का बंग समाज ' विषय पर मै लेख लिखूं जिसमें बंगालियों का योगदान शिक्षा, साहित्य, संगीत, व्यापार आदि में क्या रहा दिखे। काम मेरे लिए चैलेंज था। मैंने सब ढूंढ निकाला। सात आठ कड़ियां में धारावाहिक निकला। मेरा आत्मविश्वास बढ़ा।
2000 कहानी 'पलंग ' पत्रिका 'साक्षात्कार ' में 05/2000 में छपी थी। 13 अगस्त को ' जनवादी  लेखक संघ ' के तत्वावधान में प्रोफेसर दूधनाथ सिंह की अध्यक्षता में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के निराला सभागार में विशद चर्चा हुई थी। प्रोफेसर दूधनाथ सिंह ने कहा कि पलंग मध्य वर्ग के बदलते स्वरूप की कहानी है। श्री गांगुली ने बड़ी खूबसूरती से एक अर्थशास्त्र को दूसरे अर्थशास्त्र में हस्तांतरण की समस्या दर्शाया। कथाकार श्री श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा कि कहानी में पिछड़ा वर्ग आगे बढ़ता है। पलंग शीर्षक से ही दो कहानियों से तुलना करते हुए उन्होंने इस कहानी को बेहतर बताया। 
यह कहानी मेरे लिए मील का पत्थर साबित हुई।
  2002 पहला हिन्दी कहानी संग्रह ' सवाल तथा अन्य कहानियां ' अनुभूति प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुई थी। भूमिका कथाकार अमरकांत ने लिखी थी। कुल अठ्ठारह चर्चित कहिनिया थी। अनेक समीक्षाएं छपी थी। 2005 और 2011 में और दो संस्करण छपे थे।
2002 में ही बांग्ला कहानी ' शेषेर लाइन ' ( अपनी ही हिन्दी कहानी 'आखिरी लाइन' का अनुवाद) किसी पत्रिका में छपी थी, पढ़ने के लिए कोलकाता के प्रकाशक' विश्वज्ञान प्रकाशन ' ने कहानी पाठ के लिए रवीन्द्र सदन,कोलकाता में आयोजित प्रोग्राम में बुलाया। तीन कोलकाता वासी भी पढ़ें ।तदुपरांत उस पर चर्चा हुई थी। सुनील गंगोपाध्याय, अनन्दा शंकर राय,नवेंदु घोष के हस्ताक्षर से प्रशस्ति पत्र मिला था। ंं
कहानी ने इतनी बाहवाही लूटी कि प्रकाशक ने मुझसे पुस्तक प्रकाशन हेतु कहानियां मांग ली।
मेरे लिए यह उत्साहवर्धक अवसर था। मैंने हिन्दी संग्रह की कहानियां बांग्ला में लिख कर भेज दी।
2003 अक्टूबर  में बांग्ला कहानी संग्रह 'शैषेर लाइन' शीर्षक से अट्ठारह कहानियों का संग्रह प्रकाशित हो गया और विमोचन कोलकाता में ही रवीन्द्र सदन में दिसंबर 2003मे ख्यातिप्राप्त समालोचक डॉ सरोज मोहन मित्र ने किया था। उन्होंने ही पुस्तक की लम्बी चौड़ी समीक्षा लिखी थी। डॉक्टर मित्र ने लिखा " उनकी कहानियों के लिए कल्पना नहीं करना पड़ता। लगता है जैसे सारे चरित्र, सारी घटनाएं पाठकों की अभिज्ञता में ही मौजूद हैं। साधारणतया कहानियों में ( बांग्ला कहानी ) नारी पुरुष प्रेम एवं यौवनता ही प्रधानता पाता है। सुभाष की कहानियां सम्पूर्णतया भिन्न है। प्यार मोहब्बत के बाहर भी हमारे जीवन में कितनी समस्याएं हैं, ढेर सारी हृदयविदारक घटनाएं हैं, सुभाष ने उन्हीं सबको प्रधानता दी है ।"
सुनील गंगोपाध्याय ने संक्षिप्त प्राक्कथन लिखा था। इस संग्रह ने मुझमें भरपूर ऊर्जा भर दिया।
2004  ' नया ज्ञानोदय ' पत्रिका में कहानी 'पद्मा मेरी मां ' प्रकाशित हुई थी। देश विभाजन के कारण भारत में आये शरणार्थियों की व्यथा कथा, किस्से सबकुछ सुनता रहा, कुछ विश्वास होता रहा और कुछ अविश्वास। मैं सबकुछ वर्षों से डायरी में नोट किया करता।‌उसीमे से पहले बनी थी कहानी ' खून का रंग ' फिर निकली यह कहानी। इस कहानी को गम्भीर साहित्यकारों ने पढ़ा, प्रतिक्रियाएं मिली। प्रोफेसर प्रणय कृष्ण, अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी ने लिखा " 'पद्मा मेरी मां ' जैसी कहानी लिखकर कोई कथाकार खुद को सराह सकता है। देश विभाजन की पृष्ठभूमि में व्यक्ति की पहचान, विरासत, वल्दियत सबकुछ को फिर से जांचने परखने और महसूस करने की जरूरत को उभारती यह कहानी आज के भारत में और भी ज्यादा प्रासंगिक हो उठी है। इस कहानी में लेखक ने बहुत कुछ ऐसा अनकहा छोड़ दिया है जो पाठकों को देर तक और दूर तक मथता रहे और वे स्वयं सत्य के साक्षात्कार तक पहुंचे। "
2005 'कहानी की तलाश ' कहानी संग्रह के लिए मैंने शेखर जोशी को पांडुलिपि देते हुए मैंने प्राक्कथन  लिख देने का अनुरोध किया, उन्होंने कहा कि समय लगेगा, मैंने कहा ठीक है सर। दो तीन महीने बाद उन्होंने मुझसे कहा  ' कहानी की तलाश ' कहानी में पांचवां अध्याय अगर आप निकाल दे तो बेहतर होगा क्योंकि वह गम्भीर विमर्श का विषय है।' कुछ देर बातचीत के बाद पांचवां अध्याय यानी पांचवीं कहानी जो सबसे बड़ी थी, तकरीबन बीस पेज मैंने निकाल लिया। उन्होंने कहा कि मैं फिर से सोच लूं। मैंने कहा 'सर ये मेरी कहानी के हक में है। आभारी हूं आपका।'
वह कहानी 'मेरी प्रतिनिधि कहानियां' जो प्रकाशानाधीन है, में संकलित है। 
ऐसी ही घटना और घटित हुई थी। मेरी एक ' कहानी है 'बेटी की विदाई ' ( 2006 में प्रकाशित 'कहानी की तलाश ' संग्रह में) हाथ का लिखा दस पेज। काफी दिनों बाद मैंने उसे करीब चौबीस पेज तक खींच दिया। दफ़्तर में मैं अपने कमरे में काम कर रहा था। कवि व लेखक श्रीरंग किसी के साथ आएं, मैं ज्यादा व्यस्त था। मैंने कहानी देते हुए कहा  'अभी फ्री हो जाऊंगा तब तक आप जरा इसे पढ़ लीजिए।' दोनों मिलकर पढ़ें फिर बार-बार वहीं पर पलट कर देख रहे थे जहां मैंने पहले कहानी खत्म की थी। और एक दूसरे से मशविरा कर रहे थे। मैंने पूछा ' क्या हुआ ? '
श्रीरंग बोलें ' आपकी कहानी शायद यहीं खत्म हो जाती है।' मैंने उनसे पांडुलिपि ली फिर उन्ही के सामने चौदह पेज निकाल कर फाड़ कर टोकरी में डाल दिया। कभी कभार लेखक को निर्मम होना पड़ता है है, होना चाहिए आखिर वह पाठकों के लिए ही तो लिखते हैं। 
 लिखने के लिए बहुत कुछ है किन्तु मैंने सीमा में रखा। सुधी पाठकों का आशीर्वाद साथ रहें तो इस चौथे संकलन के बाद भी कथा यात्रा जारी रहेगी।

                                       सुभाषचन्द्र गांगुली
                                   
 



Wednesday, June 14, 2023

कहानी: बेटी


दफ्तर के लिये तैयार होकर बनर्जी बाबू नीचे उतरे और बेटी रानी से बोले "खाना लगाओं।"

-"अच्छा, बैठिये।” कह कर रानी किचन में चली गई। बरामदे में खड़े-खड़े बनर्जी बाबू अखबार देखने लगे। रानी अचानक ऊपर चली गई फिर बनजी बाबू की नज़र बचा कर किचन में घुस गई। चीनी, चावल, आटा, तेल आदि कुछ सामान ऊपर के कमरे में रखना पड़ता था। रानी क्या लाई होगी? बनर्जी बाबू ने सोचा? एकाध मिनट बाद रानी की दीदी भी दनदनाती हुई नीचे उतर कर किचन में पहुँच गई। फिर बड़े वाले कमरे से फ्रिज खोलकर एक कटोरी निकाली और वह भी पिता की नज़र बचा कर किचन में चली गई।

क्या बात है दस मिनट बीत गए, मगर अभी तक खाना नहीं परोसा गया क्या कर रही है ये लड़कियाँ? आज कुक नहीं आई। हर शुक्रवार वह संतोषी माता का व्रत रखती है शुक्रवार छुट्टी। सुबह स्कूल जाने से पहले मिसेज बनर्जी खाना बना कर गई थी फिर देर होने का कारण?

बनर्जी बाबू सोच रहे थे कि किचन में जाएं या न जाएं कि दोनों बहनों की दबी जुबान में बहस सुनाई दी। बनर्जी बाबू के किचन में पहुँचते ही दोनों बहने एक साथ बोल पड़ी-"बैठिये, अभी ला रही हूँ।'

बड़ी बेटी चूल्हे पर एक ओर रोटी सेक रही थी और रानी दूसरे चूल्हे को बगल में खड़ी थी। रानी रूँआसी थी। बनर्जी बाबू ने पूछा- क्या बात है?" बड़ी में जवाब दिया- "माँ ने रानी से कहा था चावल पका लेना, दाल और सब्जी रखी है पर वह सजने-धजने में लगी रही। आपके निकलने के बाद हम लोगों को भी सी०जी०एच०एस० जाना है मगर वह अभी से सजने लगी-फिज में आटा था। में रोटी बना रही हूँ। जल्दी ही जाएगी।"

दीदी की बातों से खिन्न होकर रानी बोली-"मैं भूल गई" थी ना, कहाँ सज रही थी?" बनर्जी बाबू बोले- "कोई बात नहीं रोटी खा लूंगा" कह कर बनर्जी वायू किचन के बाहर निकले ही थे कि रानी रोने लगी। बनर्जी बाबू का दिल धक्क से धड़का। उन्होंने पैरों को वापस खींचा और पूछा- "क्या हुआ? बात क्या हुई?" रानी तब भी रोये जा रही थी। उन्होंने ऊँची आवाज़ में कहा- “क्या हुआ? कुछ कहोगी भी?" फिर बड़ी बेटी से पूछा- "तुमने डॉटा है क्या?" रोते-रोते रानी बोली-"इतनी देर में चावल पक जाता। दीदी ने भात बनाने नहीं दिया। मूंग की दाल और दो मेल की तरकारी है। सारे आइटम भात से खाने के हैं आप रोटी के साथ कैसे खायेंगे? - माँ ने कहा था पर मैं भूल गई थी।”

बनर्जी बाबू भावुक हो उठे। उनकी आँखे नम हो गई। उन्होंने सोचा, अब रानी की सम्वेदना को कुचल कर दफ्तर नहीं जाया जा सकता, दिन भर मन में अशांति बनी रहेगी। मगर मीटिंग ?-मीटिंग सीटिंग चलती रहेगी। कौन सी आफत आ जाएगी। अगर वे मीटिंग में न पहुँचे? बाकी लोग तो रहेंगे ही और अगर उनका रहना उतना आवश्यक है तो बड़े साहब उनके पहुँचने का इंतज़ार कर लेंगे या मीटिंग बाद में रख लेंगे। दफ्तर में देर से पहुँचने का कोई बहाना ढूंढ लिया जायेगा। आधे दिन का सीएल अप्लीकेशन दे दिया जाएगा।

बनर्जी बाबू ने कहा- "नहीं, रानी ठीक कह रही हैं। सारे आइटम भात से ही खाने वाले हैं। मैं भात खाकर ही जाऊँगा, तुम बनाओ। मुझे ख्याल नहीं था, अभी-अभी याद आया है कि मीटिंग तो कल है।"

बनर्जी बाबू भात खाकर दफ्तर पहुँचे। उन्होंने अपनी कहानी सहकर्मी मित्र हरीश जी को सुनाई। सुनते-सुनते हरीश जी भावुक हो उठे और कहानी खत्म होते ही बोले -"पिता से इतना प्यार कोई बेटी ही कर सकती है। वही रख सकती है उनकी पसंद का इतना ध्यान....

आज मेरे पास भी दो बेटियाँ होती! सोनोग्राफी से जब पता चला था कि कोख में लड़की है तो मैंने एवारर्शन करवा दिया था...एक ही लड़का है... बीस वर्ष का. ...हरीश जी की आँखों से दो-चार बूँदे गालों पर लुढ़क गए।


- सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "मोक्षदायिनी" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2021)

कहानी: पोता


"पोता बड़ा या नाती? कर्कश स्वर में लम्बी-चौड़ी कद-काठी के दादाजी ने तीन वर्ष के पोते अमन को प्रश्न किया। प्रश्न को समझने की कोशिश की मुद्रा में अमन दादाजी का मुंह ताकता रहा।

दादाजी ने अपना प्रश्न दुहराया।

थोड़ी देर बाद उन्होंने दूसरा प्रश्न किया-'पहले पोते का नम्बर आता है या नाती का?... बोल पोता बड़ा है या नाती? बोल बात तो कर सकता है ना? 

वैसे ही अमन दादाजी की भारी भरकम आवाज़ से कदाचित सिहर उठता है, उन्हें देख कन्नी काटता, अब वह ज़रा सा भयभीत होकर अवाक् दृष्टि से दादाजी को देखने लगा।

अमन का हाव-भाव देख दादाजी को गुस्सा आया। उन्होंने पुनः दूसरे ढंग से उसी प्रश्न को 'दुहराया जो उनके मन को कुछ दिनों से कचोट रहा था। उन्होंने पूछा- 'बोल में अच्छा आदमी हूँ या तेरा नाना?' 

-'नाना। नाना। अमर ने तपाक से उत्तर दिया फिर 'नाना' 'नाना' कहके उछलने लगा। दरअसल उसे नाना की याद आ गयी।

दादाजी को और बुरा लगा। उन्होंने कहा-'मैं जो तुमसे इतना प्यार करता हूँ मैं अच्छा आदमी नहीं हूँ? गंदा हूँ?' 

-'गंदा, गंदा' बोलकर अमन पीछे पलटा फिर इधर-उधर घूमते-दौड़ते 'गंदा' 'गंदा' रट लगाता रहा मानो उसे एक नया खेल मिल गया हो। अब वह खुशमिज़ाज, मस्त बच्चा दिखने लगा।

दादाजी को अब सचमुच में गुस्सा आ गया। उनका चेहरा लाल-पीला होता गया। वे कुछ ऊँची आवाज़ में बोलने लगे-'पाँच दिन के लिए आकर नाना चला गया वह ज़्यादा प्रिय हो गया और मैं जो रोज़-रोज़ भाग कर अपने पोते से मिलने आ रहा हूँ, टॉफी देता हूँ, कपड़ा-लत्ता देता हूँ में कुछ नहीं? मैं गंदा हूँ?... अमन बीच मैं बोल पड़ा-'गंदा' 'गंदा' 'गंदा', दादाजी बोलते गए 'बुद्ध कहीं के तू इस घर की औलाद है, इस खानदान के परिचय से तेरा परिचय है, तेरा परिचय मेरे नाम से है, मेरे बेटे के नाम से है, नाना-बाना का कोई नाम नहीं लेता.. बाप-दादा का नाम लेगा तभी तुझे वैध संतान माना जाएगा। याद रख पहले पोता, नाती नहीं, पहले दादा नाना नहीं।'

दादाजी ने अपनी भड़ास निकाली, जिसे सुनाना था सुना दिया। उधर अमन अपनी ही धुन में मगन था। कभी कागज पर लकीरें खींचता, कभी दौड़कर माँ को छूकर आता तो कभी बारजे पर बैठे कबूतरों से बातें करता।

दादाजी एकबारगी उठ खड़े हुए फिर अमन की कलाई पकड़कर बोले-'पता नहीं तेरे नाना ने तुझे कौन सा पाठ पढ़ाया, कौन सी घुट्टी पिला दी कि तू बेईमान बन गया है... बेईमान । 

अमन ने अपनी कलाई छुड़ा ली फिर ऊँची आवाज़ में बोला- मैं बेईमान नहीं, मेरा नाम अमन है, अमन।'

-नहीं तू बेईमान है, बेईमान ।' 

-'मैं अमन हूँ। मेरा नाम अमन है। अमन वर्मा, याद रहेगा ना। पूरी ताकत के साथ अमन ने कहा।

दाँत पीसते हुए दादाजी बोले- 'मुझे तेरा नाम याद रहेगा मगर तू याद रख पहले दादा फिर नाना, पोता बड़ा होता है नाती नहीं। फिर उन्होंने आहिस्ता से अमन को एक तमाचा जड़ दिया। अनचाहे तमाचा चेहरे की जगह गर्दन पर पड़ गया और कुछ जोर से पड़ने के कारण अमन फर्श पर गिर पड़ा। गिरते ही वह फूट-फूट कर रोने लगा। फिर चीख उठा- 'मम्मी! देखों, दादाजी ने गिरा दिया... दादाजी ने मुझे मारा।'

अमन की माँ चम्पा तनफनाती हुई किचन से निकल आयी, अमन को गोद में उठाकर घूँघट संम्भालती हुई बोली-'बहुत देर से बकवास किए जा रहे हैं आप, अस्सी के क़रीब उम्र है, मगर इतना ज्ञान नहीं हुआ कि किससे क्या बात करनी चाहिए...इतने छोटे बच्चे से जाने क्या-क्या बके जा रहे हैं... उसे क्या पता पोता क्या होता है और नाती क्या। बच्चा तो बच्चा होता है, यह भी नहीं मालूम आपको.... वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूँ आजकल पोता और नाती में कोई भेद नहीं मानता, संतान चाहे बेटे की हो या बेटी की, मा-बाप के लिए दोनों समान है। कानूनन भी लड़का लड़की दोनों बराबर । 

ससुरजी ने अपना आपा खो दिया-'बहू। यही सिखाया तुम लोगों ने मेरे पोते को... तुम्हारे बाप का कोई बेटा नहीं है तो उसने यह मंत्र दिया तुम्हें और तुम्हारे बेटे को? अपना पोता होने से रहा तो अब नाती को हथियाना चाहता है।' 

चम्पा का चेहरा तमतमा उठा। उसने कहा- मेरे पूज्य ससुरजी मैं कोई गंवारू, अनपढ़, बेजुबान छोरी नहीं हूँ कि आपकी बेसिर पैर की बातों पर आँसू बहाऊँ। लखनऊ शहर की प्रतिष्ठित परिवार की पढ़ी-लिखी लड़की हूँ. आप तो मंदिर- वंदिर  जाते हैं, पूजा-पाठ करते हैं, प्रवचन सुनते हैं। जात-पात, ऊँच-नीच सब मानते हैं, संस्कारों के बारे में भी खूब ज्ञान बघारते हैं तो आपको इस बात का भी ज्ञान होगा कि जो पिता कन्यादान नहीं कर पाता उसके हाथ का जल शुद्ध नहीं माना जाता. ...आप लड़कियों को इतनी हीन दृष्टि से देखते हैं इसीलिए ऊपर वाले ने आपके घर लक्ष्मी नहीं भेजी, ऊपर वाला अपात्र को दान नहीं देता। आप अपनी जीवन भर के लिए गंदी, दकियानूसी सोच मेरे बेटे पर न घोपिए कच्चा घड़ा है... रही बात मेरे पिताजी की तो सुनिए दो बेटियों के बाद उन्होंने ऑपरेशन करवा लिया था, अगर उन्होंने फैमिली प्लैनिंग न करवायी होती तो उनके भी सात-आठ बच्चे होते, हो सकता मेरे भी चार-पाँच भाई रहते। लड़के जन्में तो इसमें आपका कोई कमाल नहीं है।" 

ससुरजी का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। वे चीख उठे-बहू तुम हदें पार कर रही हो। उम्र में मैं तुम्हारे बाप से ढेर बड़ा हूँ, तुम्हें मर्यादा में रहकर बात करनी चाहिए। कुछ नहीं तो सामने वाले की उम्र का लिहाज तो करना ही चाहिए। तुम्हारे बाप ने इतना भी नहीं सिखाया?'

चम्पा ने अपना आपा खो दिया। उसने उसी तेवर में कहा-'बाबूजी मैं आपसे कह देती हूँ अब अगर आपने मेरे पिता के बारे में उल्टा सीधा कहा तो... जब से व्याह के ससुराल आयी हूँ जाने कितनी मर्तबा आपने पिताजी के बारे में भला-बुरा कहा। मेरे पिताजी यूनिवर्सिटी में इंगलिश के प्रोफेसर हैं, उनका काफी मान-सम्मान है, आप उनके सामने कहीं नहीं ठहरते। आपके मन की भावनाओं को ये अच्छी तरह से समझते हैं, इसी कारण से वे कभी भी मेरे यहाँ नहीं आते रहे। शादी हुए ग्यारह साल बीत गए, इस फ्लैट को लिए हुए छह साल अमन भी तीन साल का हो गया है मगर पिताजी ने यहाँ न आने के लिए हमेशा कोई न कोई बहाना ढूंढ लिया। आप ही के बेटे ने कई बार आग्रह किया था तब जाकर वे आने के लिए तैयार हुए थे। इतनी बार दामाद ने न कहा होता तो शायद वे कभी नहीं आते। और उसकी वजह हैं आप, आपकी दकियानूसी सोच।

ससुरजी बोले- बहुत पाँच चलने लगी है तुम्हारी को आज मैं बेटे से तुम्हारी शिकायत करता हूँ। तुम्हें नसीहत देने की जरूरत है। 

चम्पा बोलती गयी जब देखिए तब अमन को डाँटते हैं आप पोते को इतना कोई डाँटता है भला। गुस्सा मेरे पिता पर है या मुझ पर मगर निकालते हैं मेरे बेटे पर... न जाने कितनी बार अमन ने आपसे रिमोट कंट्रोलवाली कार माँगी, आपके पास रूपए की कमी नहीं है, सैकड़ों रूपए इधर-उधर बाँटते फिरते हैं मगर पोते को एक रूपए की टॉफी थमाकर सोचते हैं बहुत कर दिया, पोता आपका पालतू हो जाएगा, दुम हिलाकर आपके आगे-पीछे घूमेगा और उसके नानाजी को देखिए जिस दिन वापस जा रहे थे नाती के कहने की देर नहीं हुई कि उन्होंने पर्स झाड़कर पच्चीस सौ रूपए निकाल दिए, अपने पास रास्ते के लिए मात्र सौ रख लिए थे। रास्ते में पैसे की कमी के कारण असुविधा न हो इसलिए मैंने पाँच सौ रूपए जबरदस्ती वापस कर दिये, वे नहीं ले रहे थे, मैंने कहा आप मनी आर्डर कर दीजिएगा। मनी आर्डर आता होगा। अब तक मोटर कार आ गयी होती मगर मेरा ही मार्केट जाना नहीं हुआ, ऐसे ही अमन नाना को याद नहीं करता। नानाजी पाँच दिन में अमन को जितना प्यार दे गये उतना प्यार आप इतने दिनों में नहीं दे पायें।'

चम्पा की जुबान चालू थी। वर्षों का जमा गुबार खाली हो रहा था। आँसू की धार भी बह रही थी- ससुरजी अब धीरे-धीरे, शान्त भाव से डगों को बढ़ाते हुए फाटक तक आ पहुँचे। दो कदम आगे बढ़कर चम्पा ने विनम्रता से कहा- बाबू जी ! बाबूजी! रुकिए... बाबूजी! आइ एम सॉरी...बाबूजी ज़रा सुनिए ना...बाबूजी !...

ससुरजी पीछे पलटकर बोले-'अब सुनने और कहने के लिए बचा ही क्या बहू" ।ससुरजी फाटक से निकल गए। 

चम्पा फाटक पर खड़े-खड़े आँसू बहाती रही, बिलबिलाती रही।

करीब डेढ़ घंटे बाद सास का फोन आया तो पता चला अमन के दादाजी घर नहीं पहुँचे। चम्पा ने कहा वे तो बहुत देर हुआ निकल गये। शायद रास्ते कोई मिल गया होगा। फिर एक घंटे बाद सास का फोन। अब चम्पा चिन्ता में पड़ गयी। मात्र दस मिनट का रास्ता किधर चले गये? फिर भी ढांढस दिलाती हुई सास से बोली, 'पहुँच जाएंगे, चिन्ता की क्या बात। कोई मिल गया होगा। घर पहुंच जाए तो मुझे खबर कर दीजिएगा। चिंता लगी रहेगी।'

समय गुजरता गया। दिन ढल गया। साँझ भी उतर आयी। दादाजी निखोज । जहाँ कहीं भी आना जाना था, पुराने यार-दोस्त जहाँ वर्षों से आना-जाना भी न था सभी जगह पता लगाया गया। अमन के पिता, चाचा इधर-उधर घूम-घाम कर घर लौट आये। जहाँ जहाँ खबर की गयी थी अब वहाँ से भी फोन आने लगे।

सबसे ज़्यादा हैरान-परेशान हो गयी चम्पा वह अपनी सुध-बुध खो बैठी। ससुरजी उससे रूठ कर घर से निकले थे उस बात की जानकारी पति को देने का क्या अंजाम हो सकता है इस कल्पना से वह सिहर उठती, गला सूखने लगता। चुप रहने में ही उसने अपनी भलाई समझी। 

साँझ भी ढल गयी। रात के करीब आठ बजे घर पर अमन के पिता और चाचा पिता को ढूंढने की तरकीब पर माथापच्ची कर रहे थे कि तभी दादाजी गम्भीर मुद्रा में आ पहुँचे। दोनों बेटे एक साथ जवाब-तलब करने लगे। पिता ने डाँट लगायी चुप रहो मैं तुम्हारा बाप हूँ या तुम लोग मेरे बाप हो?  बेकूफी करते हो मैं कोई बच्चा हूँ जो इधर-उधर दस जगह पूछताछ करते हो।'

दो मिनट बाद अपार्टमेन्ट का गार्ड एक बड़ा पैकिंग बॉक्स लेकर दाखिल हुआ। पैकिंग खोली गयी। एक बड़ी मोटर कार निकल आयी।

दादाजी ने अमन से कहा, 'देखो, क्या लाया हूँ। रिमोट कंट्रोलवाली मोटरकार है। मँहगी है। तुम सायकिल जैसा पैडल मार कर भी चला सकते हो।' कार देख अमन कूदने लगा।

दादाजी ने कार के भीतर अमन को बिठाते हुए पूछा- 'दादाजी अच्छा आदमी है या गंदा? 

अमन ने हाजिर जवाब दिया- 'गंदा गंदा।' 

अमन का सारा ध्यान मोटरकार पर था। वह गाड़ी चलाने की कोशिश में जुट गया। चम्पा की आँखे नम थी।

दादाजी की बाँछे खिल उठी।

- सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "मोक्षदायिनी" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2021)

Monday, May 8, 2023

बहू का स्वार्थ


         जाड़े का मौसम । दोपहर का वक्त़। मीठी-मीठी सर्द हवा और सुनहरी धूप तन-मन को सुकून दे रहा है। पार्क लगभग खाली है ।
        मैदान के चारों ओर क्यारियों में खिले रंग- बिरंगे फूल देखते ही बनता है।‌‌ मैं इधर देखूं या उधर समझ में नहीं आता कि मैं किधर देखूं । कितना मनभावन ! पार्क के बीचों-बीच एक लैम्प पोस्ट है, पूरा पार्क तो क्या एक किलोमीटर दूर तक एक दर्जन हैलोजेन लाइटें रोशनी बिखेरती हैं । इस समय एक नीलकंठ ( नीले कंठ एवं नीले डैनों वालवाला पक्षी। ) आकर लैम्प पोस्ट पर बैठा । बड़े दिनों के बाद इस पक्षी का दर्शन हुआ । टीवी टावर और मोबाइल टावर के लगातार फैलते रहने से ढेर सारे पक्षियों का दर्शन दुर्लभ हो गया है।
नीलकंठ के बैठते ही एक आदमी कहां से तेज डगों से चलकर लैम्प पोस्ट से थोड़ी दूरी पर रुक गया फिर दोनों हाथों से पक्षी को नमस्कार किया । इसकी गर्दन नील होने के कारण सामान्य मान्यता है कि नीलकंठ महादेव का प्रतीक है ।
दूसरी छोर पर झूला और झाड़ी के पीछे से निकल आई एक महिला। लगता है कि आज उसके साथ वह वृद्ध व्यक्ति जिनका हाथ पकड़ कर वह महीनों से ले आती रहीं, टहलाती रही, नहीं आये हैं । उसके साथ दो-ढाई साल का बच्चा जिसका नाम है सोनू ,मुझे देखते ही दूर से नन्हे-नन्हे पांवों से दौड़कर मेरे पास आता है, कभी हाथ पकड़ कर टहलाता तो कभी मेरे पास बैठ कर मेरी गल-मुच्छों पर हाथ सहलाता । अपना पोता तो नहीं है, नाती है पर वह भी सात समंदर पार रहता है, बच्चे के कोमल स्पर्श से मुझे अद्भुत सुखानुभूति होती है । शायद हर दादा-दादी, नाना- नानी को भी सुख की अनुभूति इसी तरह होती होगी। सोनू फिर मेरे पास दौड़ा चला आ रहा है । 
सोनू की मम्मी ने अत्यंत भक्तिभाव से  नीलकंठ को नमन किया ।
नीलकंठ वहां से उड़कर विशाल आंवला वृक्ष पर बैठ गया।
साल में एक बार कार्तिक महीने में आंवले लगने पर महिलाएं उस वृक्ष की पूजा करती हैं। वेदों में प्रकृति की पूजा पर विशेष बल दिया गया है क्योंकि प्रकृति हमारी मां है।
सोनू अब मेरे पास आ पहुंचा । हाथ पकड़ कर मुझे उठाने लगा । 
मैं उठने के मूड में नहीं था चूंकि मैं कहानी ढूंढने आया था, ध्यान लगाकर सारी चीजों को याद करना चाहता था मगर सोनू अपने इरादे में अडिग था । बच्चे के आगे ‌‌‌‌हार मानना ही था सो उठ गया उसकी हाथ थामे । वह जिधर ले जाना चाहता था, मैं उधर ही चलने लगा ।
इधर-उधर घुमाकर सोनू मुझे झाड़ी के पीछे जहां उसकी मां बैठी थी, ले गया । खड़ी होकर सोनू की मां ने मेरा चरण स्पर्श कर स्वागत किया। फिर बोली -"अंकलजी  बैठिए। आपको बाबूजी बहुत याद कर रहे थे। आप काफ़ी दिनों से दिखाई नहीं दिए । मैंने सोनू से कहा था वह आपसे कह दे मगर बदमाश आपको पकड़ कर ले आया ।"
मैंने कहा -" नहीं नहीं सोनू बहुत प्यारा बच्चा है ।"
-" अंकलजी यह लड़का दिनभर नकदम किए रहता है।"
मैंने हंसते हुए कहा--" ये तो अच्छी बात है । बच्चे जितना उछल-कूद करेंगे उतना ही हेल्थ ठीक रहेगा। ...कहां है आपके बाबूजी ?" 
-"आज नहीं आयें, बोलें इच्छा नहीं है । अंकल पहले आप बैठ जाइए न !"
मै बेंच पर बैठ गया । सोनू झूला झूलने लगा । मैंने पूछा -" बाबूजी आपके कौन हैं ? पिता या ससूर ?"
--"वे मेरे ससुरजी हैं । फौज में सिपाही थे । पांच साल पहले रिटायर हुए थे ।"
-"क्या नाम है आपका ? कहां रहती हैं ?"
-" मेरा नाम है प्रिया, यहीं अलकापुरम में 'त्रिपथगा ' अपार्टमेंट में अपना एक छोटा सा फ्लैट है। मेरा मायका धनवाद में है ,ससुराल उन्नाव में है।"
-" पति क्या करते हैं ?" 
-" सोनू के पापा भी आर्मी में हैं, सुबेदार मेज़र । उन्हे ज़्यादातर नॉन फैमिली स्टेशन में पोस्टिंग मिलती है । जब फैमिली स्टेशन मिलता है तब वे हम सबको ले जाते हैं । वैसे सालभर में एक बार लम्बी छुट्टी लेकर घर आ जाते हैं ।"
--" उन्नाव में कहां ? अपना घर है ?"
- " उन्नाव जिले के तहसील ' बांगरमऊ ' के अंतर्गत एक गांव में बाबूजी के नाम एक छोटा सा पक्का मकान है । दस बिघा खेत था । बाबूजी एकलौता बेटा थे। उनके पिता ने उन्हें उत्तराधिकारी बना दिया था । हमारी एक ननद है, उसकी शादी गांव में एक किसान परिवार में हुई थी।‌ बाबूजी बहुत अच्छे आदमी थे, उन्होंने दो बिघा जमीन अपनी बेटी के नाम कर दिए थे ।"
-"‌ बाबूजी के कितने बेटे हैं ?"
-"दो बेटे। सोनू के पापा छोटे हैं । बड़ा बेटा किसान हैं ।"
-" मतलब कि दो भाइयों के चार-चार बिघा खेत हैं । सोनू के पिता के नाम जो खेत है उसका देखभाल कौन करता है ? आप के जेठ जी ?"
-" जी नहीं । बाबूजी ने 'अधिया' दिया है ।"
-" हिसाब-किताब कैसे रखा जाता है, आपलोग जाते हैं क्या ?" 
--" नहीं । जिसे खेत दिया गया है वह ईमानदार आदमी हैं। जब खेत लहलहाता है या जब सूखा पड़ता है वह विडियो कालिंग करके दिखा देता है । समय-समय जानकारी देता रहता, रुपए भी ऑन लाइन भेज देता है । सोनू के पापा जब छुट्टी पर आते हैं तब एक-दो दिन के लिए 'बांगरमऊ' हो आते हैं ।"
--" बांगरमऊ में अब मोटा-मोटी सब सुविधाएं उपलब्ध हैं । अच्छा स्कूल-कालेज, बाजार, डॉक्टर । अस्पताल के लिए उन्नाव है ही बगल में । कानपुर भी दूर नहीं । आपका अपना मकान है, खेत है, गांव में खुली हवा छोड़कर यहां क्यो आ गयीं ?"
--" क्या बताऊं घर की बातें बताने में भी बुरा लगता है !"
-" नहीं-नहीं तब रहने दीजिए । मैंने तो यूंही पूछ लिया था।"
-" नहीं आप पिता तुल्य हैं , वैसे छिपाने वाली कोई बात नहीं । मेरे पिताजी धनवाद कोल माइंस में काम करते थे । उस समय मेरी उम्र उन्नीस साल थी । मै पिताजी के साथ उनके एक मित्र के बेटे की बहूभात में गयी थी । वहीं पर बाबूजी ने मुझे पसंद किया था । दो दिन बाद शादी की बात पक्की कर मेरे हाथ में शगुन दे गये थे । "
-" वाह इन्टरेस्टिंग ! क्या दामादजी ने नहीं देखा था ?"
-" देखा था न ! बाबूजी  व्हाट्स ऐप पर वीडियो कॉल कर दिखा दिए थे और बात भी करा दिए थे।"
-" कितने दिनों के बाद शादी हुई थी ?"
-" दो महीने बाद ।"
-" मात्र दो महीने बाद ?"
-" जी । मैंने तो बीए में एडमिशन ले लिया था, मैं शादी के लिए एकदम तैयार नहीं थी ।‌‌‌‌‌‌‌‌ पिताजी ने कहा कि यह रिश्ता घर चलकर आया है, लड़का अच्छा है, घर-दुआर सब अच्छा है ईश्वर की कृपा है, कोई डिमांड नहीं है । ईश्वर की यही इच्छा है, अकारण ठुकरा देना ठीक नहीं होगा । बाद में लड़का मिलने में दिक्कत हो सकती है ।"
-" रोचक कहानी है। बाबूजी अच्छे इन्सान है, दामाद भी अच्छा, तो परेशानी किस बात की 
   थी ?"
-" अंकल ! मेरे पिताजी बहुत साधारण नौकरी करते थे, वेतन कम था, शादी के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे । हमलोग दो बहन एक भाई है। बाबूजी का कोई डिमांड नहीं था फिर भी पिताजी जितना कर सकते थे, किए थे ।"
-" तो इस कारण से सतायी गयी थी ? किसने सताया था ?"
-" पहले सास सताती थी फिर इसी बात पर जेठानी सताने लगी थी । जेठानी के घर से काफ़ी रुपए मिले थे, सामान गहने भी मिले थे । मुझे बात-बेबात ताने उलाहने दिया करते "ग़रीब बाप की बेटी खाली हाथ चली आई है ऊपर से नखरें दिखाती है । सात जन्मों का फल है जो इतने बड़े घर में आ गई ।‌‌‌‌‌‌‌‌ इतने बरस बीत गए एक बच्चा भी नहीं दे पायी !" 
    
--"क्या बाबूजी कुछ नहीं बोलते थे ?"
--" कहते थे न ! तभी तो उतने दिनों तक मैं वहां रह पायी थी । वे मेरे पक्ष में खड़े रहते थे । उन्होंने मुझे अपनी ही बेटी मान लिया था । मेरे विरुद्ध कुछ भी सुनने को तैयार नहीं रहते थे। अक्सर इसी कारण मांजी से अनबन हो जाता था । सोनू के पापा जब-जब घर आते अपने कानों से घरवालों की बात सुनकर कहते -" दुःखी मत होना । सब ठीक हो जाएगा । भगवान के घर देर है अंधेर नही। " फिर उन्होंने वन बीएचके फ्लैट खरीदकर हमें ले गए । थोड़े दिनों के बाद मुझे मायके पहुंचा दिए थे । सोनू का जन्म वहीं हुआ था । "
--" बहुत अच्छा । आख़िरकार भगवान ने प्रार्थना सुन लिया ।"
--"  अंकल घर छोड़ने के बाद मुझे सबलोगों की बात बहुत याद आती रही मगर बाबूजी को मैंने बहुत ज़्यादा मिस किया । अक्सर बाबूजी का फोन आया करता। मेरे माता-पिता से वे मेरा हाल- चाल नियमित लिया करते थे ।
--" अच्छा ! बहुत भाग्यशाली हैं आप !"
--"जब मैं बेटे को लेकर उन्नाव में बाबूजी को दिखाने गई थी तो उन्होंने मेरे हाथ पकड़ कर इशारे से कहा था कि वे मेरे साथ रहना चाहते हैं । मैंने इनसे कहा कि मैं ले जाना चाहती हूं, उन्हें सेवा-सुश्रुषा की ज़रूरत है।  बाबूजी को, उनके बेटे ने हामी भर दी । हम अपने साथ ले आएं ।"
--" क्या हुआ था आपके ससुरजी को ?"
 --" पैरालिटिक अटैक हुआ था, बड़ी मुश्किल से उठ पाये थे, अभी भी बात नहीं कर पाते ।"
--"तभी मैंने दो-तीन बार हाथ जोड़कर नमस्कार किया था किन्तु वे केवल हाथ उठाये थे ।"
--" वैसे डॉक्टर बोल रहे थे कि थोड़े दिनों में साफ़-साफ़ बोलने लगेंगे ।"
--"अच्छा हम उठते हैं। भगवान सबको ऐसी बहू दें, आजकल ऐसी बहुएं मिलती कहां । "
--" अंकलजी ! उनके साथ रहने में मेरे ख़ुद का भी स्वार्थ है ।"
--" स्वार्थ ! वह क्या ?"
--" सोनू को दादा का भरपूर प्यार मिलता है, और मुझे बल मिलता है कि मैं अकेली नहीं हूं । अकेली रहती हूं तो अपने लिए खाना पकाने की इच्छा नहीं होती । सोनू डेढ़ साल तक दूध पर था, उसके लिए खाने की चिंता नहीं रहती, दिनभर टीवी सीरियल और पिक्चर, और मोबाइल ; कभी कुछ पका लेती, कभी कुछ मंगवा लेती । अब हमें नियम से रहना पड़ता है, बुजुर्ग आदमी समय से नाश्ता, समय से खाना, बिस्तर लगाना, बिस्तर उठाना, उनके साथ-साथ मेरा लाइफ भी डिसिप्लिन्ड हो गया है !" 
--" अच्छा लगा तुम्हारी दलील । बेटी चाहे जिस स्वार्थ से तुमने ससुर को साथ रखा, सेवा करती हो, बाबूजी का भरपूर आशीर्वाद तुम्हें मिल ही रहा है, तुमको मेरा भी भरपूर आशीर्वाद । 



© सुभाषचंद्र गांगुली 
31/03/2023
( 'कहानी कहानियां पार्क की'' के अंतर्गत 18/03/2023 से शुरू 20/04/2023को खत्म हुआ)
 *********************************
 

Friday, May 5, 2023

माया महा ठगिनी


रिटायर्ड कार्नर के अध्यक्ष न्यायाधीश सुधीर मल्लिक को एक रिटायर्ड अनिल दास ने आवेदन देकर उनकी नीजी समस्या की सुनवाई कर समस्या का निदान के लिए मार्ग दर्शन की गुहार लगाई।
एसोसिएशन के अध्यक्ष महोदय ने एक तिथि बता दी और एसोसिएशन के सचिव के जरिए सभी सदस्यों तथा अनिल दास एवं माया राय की उपस्थिति सुनिश्चित करने का आग्रह किया।
       अपने रिटायरमेंट के एक -डेढ महीने बाद अनिल दास रिटायर्ड कार्नर पर आये थे। उन्होंने एसोसिएशन का मेम्बर बनने का आग्रह किया था लेकिन उस समय पूरे बीस सदस्य थे इसलिए उनसे कहा गया कि वे अपना आवेदन-पत्र सचिव प्रभात कुमार जी को दे दें, जगह ख़ाली होने पर सदस्य बना लिया जाएगा, इस बीच वे चाहें तो सदस्यों के साथ बैठ सकते हैं।
       अनिल दास के बारे में किसी को ज्यादा कुछ मालूम नहीं था सिवाय इसके कि वे कहीं प्राइवेट नौकरी करते थे। वह बहुत खूबसूरत हैंडसम व्यक्ति थे। सुन्दर कद काठी, काले घुंघराले बाल, हृष्ट पुष्ट। भले ही रिटायर हो गए थे, हैंडसम इतना कि अनचाहे ही निगाहें चली जाती।
क़रीब दो महीने तक हफ़ में एक दो बार कार्नर पर आकर बैठते रहे, जगह मिलने पर बैठ जाते वर्ना खड़े खड़े बातें करते थोड़ी देर फिर निकल जाते। उसी दौरान टहलने आती एक खूबसूरत कम उम्र वाली महिला माया राय जिसका नाम था, को अनिल दास से आंख मिचौली करते हुए देखा गया। एक दिन कार्नर के दूसरी छोर पर देखा कि वे दोनों एक बेंच पर थोड़ी दूरी बनाकर बैठे हुए थे। दो चार दिन उसी तरह बैठे दिखें । आहिस्ता-आहिस्ता दूरी दूर हो गई, हाथ में हाथ डाल कर चलने लगे दोनों । थोड़े दिनों तक चले उसी तरह । थोड़े दिनों बाद दोनों को पार्क में नहीं देखा गया।
महीनों बाद अनिल दास कार्नर पर हाजिर होकर अपनी नीजी समस्या के बारे में थोड़ी देर बातें की फिर वे अनिल दास को साथ लेकर अध्यक्ष महोदय के आवास पर राय मशविरा करने गए। 
पता चला कि अनिल दास का पार्क में जिस महिला से परिचय हुआ था उस महिला से तीन महीने पहले शादी की थी किन्तु जब वह हर्ट अटैक के कारण अस्पताल में भर्ती थे तब वो औरत सोना दाना रुपए पैसे सब लेकर फरार हो गई। 
अध्यक्ष महोदय ने उसे अपने मोहल्ले के थाने में नंबर नोट कर दें। पत्र प्राप्ति के दो महीने बाद कमिटी द्वारा विस्तृत चर्चा के उपरांत ही कोई राय दी जाएगी।
थोड़े दिनों बाद ' रिटायर्ड कार्नर एसोसिएशन ' के सचिव के पत्र पाकर निश्चित तिथि पर अनिल दास उपस्थित हुए। 
पुलिस ने माया को भी हाजिर किया। एक महिला पुलिस उसे लेकर आई हैं।
पेंशनर्स एसोसिएशन के सचिव ने महिला पुलिस से पूछा कि उस औरत के साथ वो क्यों आईं है तो उन्होंने जानकारी दी कि अनिल दास द्वारा दर्ज़ कराई गई एफआईआर तथा जज साहब के पत्र पाकर थानेदार साहब ने कारवाई की। 
इसे गोंडा के गांव से गिरफ़्तार किया गया। तीन दिन के लिए पुलिस रिमांड पर लिया गया है।
            सभा शुरू होते ही अनिल दास द्वारा दिया गया पत्र जो कि उनकी नवविवाहिता पत्नी माया द्वारा ठगे जाने से संबंधित था सचिव द्वारा पढ़ा गया। 
अनिल दास से अपनी बात रखते के लिए कहा गया। अनिल दास ने कहा --"माया से मेरी मुलाकात इसी साल इसी पार्क में हुई। पहली मुलाकात में ही मैं उसकी ख़ूबसूरती से आकृष्ट हो गया था। आंखें चार होने पर मेलजोल हुआ, निकटता बढ़ी फिर एक दिन हम दोनों ' जुबली पार्क ' घूमने गए तो इसने एकबारगी शादी के लिए प्रोपोज कर दिया...." 
माया चीख उठी " जज साहब यह आदमी झूठ बोल रहा है।जज साहब मैं इसकी पत्नी नहीं हूं। "
माया से कहा गया कि उन्हें भी पंद्रह मिनट का टाइम दिया जाएगा, उनकी बारी जब आयेगी तभी बोले।
अनिल दास पुनः बोलने लगे " मैंने कुछ समय मांगा फ़िर हां कह दिया। उसने तब यह शर्त रखी कि शादी धूमधाम से, रीति-रिवाज से नहीं होगी बल्कि किसी मन्दिर में करनी होगी। ना-नुकुर कर मैंने उसकी शर्त मान ली। मैंने इनको पंद्रह लाख के गहने खरीद दिए। रिटायरमेंट पर जो रुपए मिले थे क़रीब आधा गहनों पर यह सोच कर खर्च कर दिया कि ये अच्छा इनवेस्टमेंट होगा, बैंक में व्याज बारह प्रतिशत से घटते-घटते अब पांच पर उतर आया, शेयर मार्केट का कोई भरोसा नहीं। गहनों से रुपए सुरक्षित और पत्नी भी खुश होगी। हमे थोड़ी सी भी भनक नहीं लगी कि यह औरत नहीं नागिन है......"
माया फिर चीख उठी। उसे फिर शांत कराया गया।
हफ़ दस दिन बीता न था कि इसकी फरमाइश बढ़ती गई। रोजाना होटल का खाना और तरह तरह की फरमाइशें।पूरा न करने पर उपद्रव करती। इसने मेरा जीना दुभर कर दिया । 
इतना बवाल इतना बवाल कि खाना पीना सोना सब मेरे लिए कठिन होता गया । 
तबियत बिगड़ी। बिगड़ती चली गई। एक दिन तेज बुखार, कम्पन और उठ बैठने पर चक्कर। होश रहते रहते मैंने दोस्त अविनाश को अपना हाल बताते हुए अविलम्ब घर आने के लिए कहा। मुझे बेहोश अवस्था में ' हार्ट केयर ' नर्सिंग होम ले जाया गया था। मुझे जब होश आया तो मैंने खुद को आईसीयू में पाया।  ़़......... जब मेरी छुट्टी होनेवाली थी, मैं अपने छोटे मोबाइल से अनेक फोन किया, घंटियां बजीं किन्तु फोन नहीं उठा । तब मैंने अविनाश से रिक्वेस्ट किया कि वह माया से मिलकर कहे कि अस्पताल का भुगतान करने के लिए मेरी अलमारी के लाकर में रखे रुपए में से दो हजार नगद और मेरा डेबिट कार्ड तुम्हें दे दे, साथ में मेरा स्मार्टफोन भी ले आएं। ........
मेरा दोस्त वापस लौट कर बोला कि घर पर ताला लटक रहा है, पड़ोसी ने सूचित किया कि तीन दिन से बंद है । उधर अस्पताल में डिस्चार्ज सर्टिफिकेट तैयार होकर दो घंटे से पेमेंट का इंतजार कर रहा था, मुझे तीन बार रिमांइडर देने के बाद कमरे से निकाल कर बाहर बैठा दिया गया था। आखिरकार मेरे मित्र अविनाश ने सारा भुगतान कर मुझे लेकर घर पहुंचाया। मामूली सा ताला लटक रहा था। अविनाश ने आसानी से उसे तोड दिया ........ मुझे मित्र को रुपए वापस करना था। बेडरूम में गया, देखा उसकी अलमारी खुली हुई थी, लाकर खुला और पूरा खाली। अलमारी लगभग खाली, नयी साड़ियां, कुछ कपड़े लत्ते गायब। दो अटैची थे दोनों गायब ।
मैं समझ गया कि यह औरत सारे सामान लेकर भाग गयी । मेरी अलमारी में कपड़े जस के तस। अपना स्मार्टफोन आधे घंटे तक ढूंढने के बाद बाथरूम में मिला, स्वीच ऑफ था। फोन थोड़ा सा चार्ज होने के बाद एसबीआई योनो खोला तो देखा खजाना खाली। अलमारी का लाकर खोला तो पता चला कि डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड सब गायब। मैं अपना सुध बुध खो बैठा। दिल की धुकधुकी बढ गई। अविनाश मुझे समझाता रहा,सम्हालता रहा..... अविनाश बैंक जाकर कन्फर्म कर आया कि खाते में पैसा नहीं है।"
अनिल दास फूट फूट कर रोने लगे, सम्हालने के लिए सभा से थोड़ी दूर ले गए, फिर ढांढस बंधाने के बाद लौट कर गोल -बार पर बिठा दिया।
           फिर अध्यक्ष महोदय ने माया से अपना पक्ष रखने को कहा गया।उसका चेहरा तमतमाया हुआ था। बहुत गुस्से से वह ऊंची आवाज़ में बोली "हम लिव इन रिलेशन में चार महीने थे फिर अलग हो गए थे। इनको मालूम था कि मैं चली जाऊंगी । ये साथ रहने वाला आदमी नहीं है, ये निहायत बद्तमीज है ।"
--" आपके ऊपर आरोप है कि उन्हीं दिनों में आपने इनके घर से चालीस पैंतालीस लाख रुपए के गहने लूटी, बाइस लाख इनके बैंक खाते से निकाले। "
--" झूठ्ठा है ये आदमी, मक्कार है। अंट शंट कुछ भी आरोप लगा देता है। इसने मुझे मात्र पांच सात लाख रुपए का गहना खरीद दिया था। और पांच साड़ियां हजार बारह सौ वाली। बस। मैं अपना ही सामान लेकर गयी थी। "
-- " बिना शादी के कोई आपको छह लाख के गहने क्यो कोई दे देगा ?"
--" क्यो नही देंगा ? लिव इन रिलेशनशिप में थे हम। एक बुड्ढा एक खूबसूरत जवान लड़की को तीन चार महीने भोगेगा, मौज मस्ती लेगा फोकट में ? कोई अनपढ़ गंवार लड़की भी ऐसा नहीं करने देगी। कहावत है - " मेहरी से बड़ा सुख / खर्ची का बड़ा दुःख।" वैसा ही है यह आदमी।
माया चीख चीखकर अनर्गल बकती गई फिर बोली" मुझे जाने दिया जाए। मैं और बेज्जती नहीं करा सकती । मैं शरीफ़ बाप की शरीफ़ लड़की हूं। ये आदमी महा दुष्ट है, मुझे नहीं छोड़ रहा था, खूब झगड़ा करता, गालियां देता, यहां तक कि झोंटा खींच कर मारता था, मैं इसके जंगलीपन से छुटकारा पाना चाहती थी, अवसर मिलते ही भाग निकली। "
अनिल दास फिर उठ खड़े होकर बोले " जज साहब! यह औरत महा ठगिनी है। पंद्रह लाख के गहने जो मैंने खरीद दिए थे वो तो ले ही गई साथ ही मेरी पत्नी के तकरीबन सात सौ ग्राम गहने थे वो भी ले गयी। "
--" पत्नी की ?‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌आपकी पत्नी ?"
--"जी मेरी पत्नी । नाम भी सुना होगा आप लोगों ने। नाम था सुधा दास। समाजसेवी। अनाथालय चलाती थी। साज सज्जा का शौक नहीं था। शादी में करीब सात सौ ग्राम गहने मिले थे। कोविड के दौरान रोगियों की दिन रात सेवा की फिर खुद ही कोविड का शिकार होकर चल बसी। मैंने शादी से पहले माया को सबकुछ बता दिया था। माया ने जब हाथ बढ़ाया था तो मैंने कहा था कि मैं अपने बेटे से परामर्श कर इस पर बात करुंगा । ....... मेरा बेटा सपरिवार कनाडा में रहता है। मैंने उससे बात की। बेटे ने बहू से मशविरा कर केवल सहमति नहीं जताई बल्कि खुशी भी जताई। बेटे ने कहा कि वे लोग निश्चिंत हो जायेंगे कि उसके पिता का देखभाल करने वाला कोई है क्योंकि वृद्धावस्था में मर्दों का अकेला रहना मुश्किल होता है और बिल्कुल यही सोचकर मैंने भी यही सोचकर पहले से ही मन ही मन राजी था।बेटे ने आगे कहा कि वह मेरी शादी से एक हफ्ता पहले आकर  रजिस्ट्री मैरिज की तथा पार्टी की व्यवस्था कर देगा किन्तु यह लड़की अपनी ज़िद पर अड़ी रहीं और मन्दिर में शादी करने के लिए हमें मजबूर कर दिया। मेरे दिमाग में ये बात आई ही नहीं कि ये ठगिनी भी हो सकती है वर्ना मैं मन्दिर में शादी हरगिज न करता। विधिवत शादी की होती तो प्रमाण रहता।
अचानक अविनाश दो लोगों के साथ हाजिर हुआ। उसने उन दोनों का परिचय कराते हुए कहा कि एक मन्दिर के पूजारी है और दूसरा मन्दिर का ओनर। इन्हीके  मन्दिर में दोनों की शादी हुई थी सबूत के तौर पर इनके पास रिकॉर्ड है जिसमें मन्दिर ट्रस्ट द्वारा मन्दिर परिसर में शादी की अनुमति दी गई थी।  शादी के फोटोग्राफ्स इनके पास उपलब्ध हैं क्योंकि जो शादियां इनके मन्दिर से होती है उनके फोटोग्राफ्स ट्रस्ट द्वारा रिकॉर्ड में रखा जाता है। "
अविनाश ने यह जानकारी दी कि यह महिला किसी गिरोह की सदस्य है। नाम बदल बदल कर शादियां करती ठगती लूटती है, गिरोह में और लड़कियां हैं, ज्यादातर बूढ़ों को ही फंसाती हैं, कुछ शिकायतें पुलिस विभाग को मिली है मगर ज्यादातर लोग शिकायत दर्ज ही नहीं कराते क्योंकि उन्हें पुलिस पर भरोसा नहीं रहता, पुलिस भय दिखाकर रुपए ऐंठते हैं फिर कानूनी प्रक्रिया इतनी लम्बी चलती है कि लोग हिम्मत ही नहीं जुटा पाते। रिटायर्ड कार्नर के अध्यक्ष पूर्व न्यायाधीश के पत्र पाकर सब इंस्पेक्टर एफआईआर पर छानबीन कर रहे हैं।
    अध्यक्ष महोदय ने सलाह दी कि अनिल दास जी पुलिस जांच में पूर्ण सहयोग करें ताकि पूरे गिरोह का पर्दाफाश हो जिससे अनिल दास को इंसाफ़ मिले ।


© सुभाषचंद्र गांगुली 
31/03/2023
( 'कहानी कहानियां पार्क की'' के अंतर्गत 18/03/2023 से शुरू 20/04/2023को खत्म हुआ)
 *********************************

‌‌ला‌‌पता हो गए सिंहसाहब


   ‌‌पा‌र्क में एक दिन पता चला कि सिंहसाहब लापता हो गए हैं । उनके घर से उनकी बहू आई थी ख़ोज-ख़बर लेने। उन्हीं से पता चला कि सिंह साहब सात दिन से घर नहीं लौटे।
--' क्या ? सात दिनों से लापता ? घर से मात्र सात गज दूर और यहां तक आने में सात दिन लग गए ?' मेरे मुंह से बरबस निकल गया।
--' घर की मुखिया का यह सम्मान ? किसी का किसी से कोई मतलब है ही नहीं?'
बहू ने उत्तर में कहा -' घर में किसी से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं समझते,जब मर्ज़ी घर से निकल जाते हैं। एक बार बड़े बेटे से बहस होने के बाद गुस्सा दिखाकर घर से निकल गये थे, पांच दिन बाद लौट आए थे। पता चला था कि वे बनारस गये थे अपने मित्र के घर। सिंहसाहब का एक भाई कर्नल और एक भाई वाइस चांसलर हैं। उन दोनों को ख़बर कर दी गई है। पिछले बार भी भाइयों के कारण ही वे घर वापस लौट आएं थे। '
--' यह कब की बात है ?'
--' दो साल पहले की।'
--' अर्थात् तब उनकी पत्नी जीवित नहीं थीं। '
         ' रिटायर्ड कार्नर ' में मौजूद कुछ लोगों ने बहू की बात सुनी । सुनने के बाद एसोसिएशन के सचिव ने कहा- ' आपके ससुरजी हमारे एसोसिएशन के सदस्य नहीं हैं और न ही यहां बैठने वाले किसी से सम्बन्ध रखते थे । इस वज़ह से हमें उनके बारे में जानकारी नहीं है। वृद्ध आदमी पत्नी के देहांत के बाद ऐसे ही गुमसुम रहते हैं,अब आपसे जो कुछ सुना हमें भी डर सताने लगा है। आखिर हम सब बूढ़े हैं। हम चिन्ता में रहेंगे । ख़बर मिलने पर कृपया हमें सूचित करिएगा । '
बिना कुछ बोले सिर का पल्लू खींच कर बहू निकल गई ।
सिंहसाहब का पूरा नाम क्या है किसी को मालूम नहीं। अपना परिचय देते हुए वे कहते हैं -' मुझे सिंह कहते हैं ।' 
-' सिंह? सिंह तो सरनेम होगा। पूरा नाम क्या है? '‌
--' नाम का क्या काम ? यहां तो सभी लोग सरनेम से सम्बोधन देते हैं । यहां जाति को ही प्रमुखता दी जाती है। सिंह साहब, ठाकुर साहब, शर्माजी, त्रिपाठी जी, पंडित जी, श्रीवास्तव साहब, राय साहब आदि आदि।'
--' फिर भी नाम तो होगा ही । '
--' क्यों नहीं होगा ? नाम तो आपका भी है किन्तु शायद ही किसी को आपका नाम मालूम हो। लोग तो आपको भी सरनेम से सम्बोधन देते हैं। ठाकुर हूं, आप मुझे ठाकुरसाहब भी कह सकते हैं ।'
सिंहसाहब ने कभी किसी से नहीं कहा कि वे क्या करते थे, किस विभाग में थे, किस पद से रिटायर हुए थे। अपने परिवार के बारे मे भी किसी से कुछ नहीं कहते थे। लोग तरह-तरह के कयास लगाते। 
किसी ने कहा था कि सिंहसाहब सतर्कता विभाग में हैं। ये लोग अपना वास्तविक परिचय नहीं देते।
सिंहसाहब पार्क में नियमित रूप से नहीं आते रहें, कभी-कभी आते रहें। दो चार राउंड मारने के बाद किसी बेंच पर बैठ जाते रहें। अकेला। अकेले ही रहना पसंद था उन्हें।
क़रीब तीन साल पहले पत्नी के देहांत के बाद और भी ख़ामोश हो गये थे। 
पार्क में ' रिटायर्ड कार्नर ' के लोग उन्हें नापसंद करते थे। वे कहते कि सिंहसाहब के पास एक ही कहानी थी। वे अपने जीवन में कहां-कहां घूमें, और उनकी पत्नी के विछोह का दर्द। अत्यंत भावुक होकर एकबार उन्होंने कहा था-' जब तक वह थी घर में मेरा सम्मान था, मेरे पास सबकुछ था, वह मेरे महत्व को बनाए रखती, बेटे बहू सब महत्व दिया करते थे, उसके जाते ही मैं अर्श से फर्श पर गिर पड़ा, मेरा अस्तित्व संकट में पड़ गया ।'
पार्क में वाकिंग करते-करते सिंह साहब से मेरा दुआ-सलाम होने लगा था। एक बार उन्होंने ख़ुद ही मुझे पास बुलाकर अपने पास बिठाकर परिचय लिया। फिर जब कभी पार्क में आते मुझे बुलाकर बैठाते, बातें करते।
मैं बंगाली हूं जानकर मुझसे कोलकाता की बातें अनेक बार किए थे। टूटी-फूटी बांग्ला भी बोल लेते। 
उन्हें कोलकाता बहुत ज़्यादा पसंद था। वहां की भाषा, साहित्य, संस्कृति, खुलापन, जीवन शैली सबकुछ पसंद था।
वे असम, मेघालय मिजोरम, अरुणाचल, नागालैंड के बारे में ख़ूब बोलते थे किन्तु किस सम्बन्ध में उन राज्यों में जाया करते थे या कहां कितने दिन रहें कभी नहीं कहा, पूछने पर सवाल टाल जाते।
बात चाहे किसी भी विषय पर होता, घूम फिर कर पत्नी की बात पर आ जाते वे। भावुक हो जाते, गला भर आता, आंखें नम हो जातीं और वे ख़ामोश हो जातें। मैं भी ख़ामोशी से उठ जाता।
सिंहसाहब ने कई बार अपने बाग, खेत और बंगले की बात कर चुके थे। उनके बार-बार आग्रह करने पर एक दिन मैं उनके साथ जाने के लिए राजी हो गया।
पार्क से निकल कर दस कदम की दूरी पर रोड पर आ गया । बायें जाने पर मेन रोड, दायें जाने पर 'न्यू टाउनशिप' के और भीतर। हम दायीं ओर घूम गये।
सिंहसाहब ने हाथ उठाकर आगे दिखाते हुए कहा - 'वो जहां सड़क ख़त्म होती है वहां एक गहरा चौड़ा नाला है।'
-- ' बाप रे वहां तक जाना है ? वो तो दूर है ! नाला पार कर फिर कितना दूर ?'
--' नहीं-नहीं उससे आगे ही आ जाएगा मेरा घर।
नाले पर पुल नहीं है। नाले के पार किसी को अगर जाना होगा तो तीन किलोमीटर घूमना पड़ेगा। नाला पार कर बायीं ओर बहुत बड़ा एरिया है जो कैंटोनमेंट कहलाता है। दायें तरफ़ उत्तर की ओर जाने पर अनेक गांव हैं, फिर गंगा मैया मिलेगी।
सौ गज चलकर हम दायें घूम गये। बायें हाथ बंगला दिखाकर बोले ' यही मेरा घर है '।
एक बड़ा सा ऊंचा फाटक । दो-तीन बार कॉल बेल बजाया फिर ख़ुद ही भीतर हाथ डालकर फाटक खोल दिया। भीतर प्रवेश करते ही मै खुश हो गया। बायीं ओर ख़ूबसूरत बगीचा, बीच में ख़ूबसूरत मखमली घास का लान। बाउंड्री के पास आम, आंवला और एकदम किनारे बेल का पेड़। 
मैं जब तक देखता रहा तब तक विराट् चबूतरे पर खड़े-खड़े वे कॉल बेल बजाते रहे।
अत्यंत निराश होकर चबूतरे पर रखी पांच सात बेंत की कुर्सियों में से एक मेरे लिए ले आएं। लॉन में रख कर बोले ' बैठिए इस पर' । तब तक मैं कदम बढ़ाकर चबूतरे से दूसरी कुर्सी उठा लाया। उन्होंने कहा ' ये कुर्सियां 'शान्ति निकेतन' की हैं ।'
थोड़ी देर बाद वे उठ खड़े हुए और बोले 'मै अभी आता हूं। चाय के लिए बोल दूं।'
मैंने कहा ' रहने दीजिए।' मगर वे माने नहीं। उठकर चबूतरे पर दरवाज़े के पास कॉल बेल का स्वीच पुश किया। चार-पांच बार पुश किया। फिर दो मिनट बाद लौटकर वे कुर्सी पर बैठ गये। अनमने भाव से बैठे रहें।
मैंने कहा-' सिंह साहब मुझे आज्ञा दीजिए।'
-'अरे नहीं नहीं। बिना चाय पानी के कैसे जाएंगे ? आप इस समय हमारे गेस्ट हैं। दालान पार कर किचन और बाथरूम है, सुनाई नहीं दे रही होगी। देखता हूं, पीछे भी दरवाज़ा है। मेरा अपना कमरा बैक साइड में हैं।'
-'आपका बगीचा बहुत सुन्दर है।'
-' अभी आपने देखा ही कहां ? आइए।'
 मैं उठकर उनके पीछे-पीछे चलने लगा। मकान के बग़ल से। पार्किंग एरिया बहुत बड़ा है। एक दर्जन मोटरकारें खड़ी हो सकती हैं। पीछे जाकर मैं दंग रह गया। मकान के बाद बागान ।
सिंहसाहब बोले -' आप बाग़ान देखिए, मैं दो मिनट मे आता हूं, चाय नाश्ता के लिए कह दूं।'
       बहुत बड़ा बाग़ । अनगिनत पेड़ पौधे। अमरूद, अनार, सन्तरा, पपीता, नींबू, नारंगी, शरीफा, बेर ,केला, क्या नहीं है। पूरे मैदान का  चक्कर लगा कर मैं थक चुका था।
क़रीब पंद्रह मिनट बाद सिंह साहब वापस आये।
देखा उनका चेहरा तमतमाया हुआ है। मैंने कहा यह बाग़ तो बहुत बड़ा है।'
वे बोले- ' जहां से नाला शुरू होता है लगभग वहीं तक यानी कि यहां से तक़रीबन तीन सौ गज। यह मकान छह बिस्वा जमीन पर है। दो बिस्वा कवर्ड एरिया। मेरे मकान के बायें तरफ़ सीधा सड़क तक पूरी जमीन मेरी है। डेढ़ एकड़ से अधिक। एक किसान के जिम्मे है सालों से। वही सबकुछ करता है। इन दिनों खरीफ की बुआई चल रही है। जो कुछ उगता, मिलता, आधा मेरा होता है। किसान ही हिसाब रखता है। ईमानदार हैं।'
मैंने पूछा ' यह पुश्तैनी मकान है?'
वह तपाक से बोले-' नहीं । साठ के दशक में, साठ साल पहले मैंने इसे खरीदा था। तब यहां आबादी थी नहीं । दूर-दूर तक पक्का मकान नहीं 
था किंतु धीरे-धीरे मकान बन रहे थे, बहुत फासले पर दो-चार मकान दिखते थे । नगर निगम जमीन कब्ज़ा कर रहा था, औने-पौने दामों पर लोग जमीन निकाल रहे थे । मुझे लगा कि शहर में कहीं जमीन नहीं है, नदी काफ़ी दूर तक खिसक चुकी है, और इस क्षेत्र का विकास कभी न कभी होगा, यहां सस्ते दामों में जमीन खरीद लेना अच्छा हो सकता है। 
-'मुझे मेरे पिता ने उत्साहित किया था, कुछ आर्थिक मदद भी की थी, पूरी जमीन मैंने बीस हजार रुपए  में खरीदा था।'
-' कितने दूरदर्शी थे आप और आपके पिता ,दाद देनी पड़ेगी !' बाग़ में खड़े-खड़े सिंह साहब ने सारी कहानी सुना दी।
             हम दोनो लान में लौट कर अपने-अपने स्थानों पर बैठ गये। सिंह साहब का गोरा चेहरा अभी भी गुस्से से लाल था। पता नहीं क्या माज़रा ! यहां से निकल लेना अच्छा होगा, सोचकर मैं एकबारगी उठ खड़ा हुआ। उन्होंने तत्काल हाथ पकड़ कर बैठा दिया और कहा- ' बैठिए। पहली बार मेरे घर आयें है ऐसे कैसे जा सकते ! पत्नी रहतीं तो कितनी खातिर करतीं आपकी , कितना खुश होती। अतिथि आप्यायन करना उसे पसन्द था। आपके पुस्तक विमोचन समारोह में मैं उन्हें ले गया था ।
 जब से ' अमर उजाला ' और 'इंद्रप्रस्थ भारती' में पत्नी ने आपकी कहानियां पढ़ी थी, वह आपकी प्रशंसक बन गई थी। उनके रहते मैंने कई बार आपको आने के लिए कहा था। पत्नी ने एक बार कहा था 'अपने कहानीकार मित्र को चाय पर बुलाइए ।'
पत्नी की बात करते हुए सिंहसाहब भावुक हो गएं । आंखों की कोर पोछते हुए सिंहसाहब मकान के पीछे जाने लगें । कामवाली बाई को आते देख वे बोले-' गीता जरा चबूतरे से बेंत की मेज लाकर यहां रख दो और भीतर जाकर देखो बहू ने चाय बना ली होगी। साथ में पानी भी ले आना ।
गीता गयी तो गई। क़रीब पंद्रह मिनट तो हो  गयें। उनको उठते देख मैंने कहा-'आती ही होगी। इतना बड़ा मकान है आपका, आने जाने में पंद्रह मिनट तो लगता ही है।' थोड़ी देर बाद गीता आई। मुंह लटकाकर खड़ी रही।
सिंहसाहब बोले-' क्या बात है?'
गीता बोली-' बीबी जी ने कहा बोल दो बहू जी खाना खाकर सो गयी है। बाबूजी का खाना उनके कमरे में रख दिया दिया है।'
सिंहसाहब ने अपना आपा खो दिया। न आव देखा न ताव, तेज डगों से मकान के पीछे जाने लगें।
मैंने दो बार चिल्लाया ' सिंहसाहब ! सिंह साहब ! आप परेशान न होइए ।' 
मुझे अनसुनी कर वे निकल गयें।
मैं बार-बार घड़ी देख रहा था। मेरे भोजन का टाइम ओवर हो चुका था। पत्नी भूखी बैठी होगी। उफ्फ़ ! कहां फंस गया मैं ! 
थोड़ी देर में भीतर से लडने-झगड़ने की आवाज़ आने लगी। कुछ-कुछ साफ़ सुना 'आपने क्या इसे होटल समझ रखा है ? जब खुशी आर्डर करते हैं....... जाने कब रिटायर हो गए हैं और अभी भी ख़ुद को आई जी समझ रहे हैं....... बहुत गुरूर है आपको अपने ज़मीन जायदाद पर । उसी कारण इतनी दबंगई आपकी। क्या चाहते हैं आप ? सब आपके कहने पर उठक-बैठक करें ? बेचारी आराम कर रही थी। अगले महीने से आप पूरी पेंशन दीजिएगा, पचास हजार में क्या होता है ?'
मेरा सिर भन्नाने लगा। दिल की धुक-धुकी बढ़ गई। मैं उठकर चलने लगा, फाटक पर पहुंचा ही था कि सिंह साहब भीतर से निकल कर चबूतरे पर  खड़े-खड़े आवाज़ लगाई ' दादा जी रुक जाइए।'
मैं रुक गया। मेरे पास आकर वे बोले -' मेरा बड़ा बेटा चीख रहा था। वकील है । वकालती चलती नहीं। अक्सर बात-बेबात झगड़ता है, अपना मानसिक संतुलन खो देता है।' 
सिंह साहब का गला भर आया। उनका हाथ पकड़ कर मैंने कहा ' सिंह साहब मैं भी बूढ़ा हूं, सब समझता हूं ।'
                    देखते-देखते चार महीने बीत गए। सिंह साहब पार्क में नहीं दिखाई दिए। इस बीच रिटायर्ड कार्नर के एक सदस्य से जानकारी मिली कि सिंहसाहब ने मकान बेच दिया है। उनके दोनों बेटों को क्रेता से मकान खाली करने की नोटिस मिली है। तीस दिन का समय दिया गया है। उसने कहा कि सिंहसाहब कहां है पता नहीं चला।
                जब से सिंहसाहब के घर वह अप्रिय घटना घटी थी और सात दिन बाद उनकी बहू आकर बोली थी कि सिंहसाहब सात दिन से लापता है तब से सिंह साहब की याद हमें सताती रही है, किन्तु उनके बारे में जानकारी प्राप्त करने का उपाय नहीं था।
जाड़े में मैं धूप में टहलता हूं। धूप मिल जाती है और घूमना -फिरना भी हो जाता है।
टहलते-टहलते मैं पार्क पहुंचाने वाली मेन रोड पर पहुंच गया। दूर से दिखाई दिया कि सिंहसाहब के घर से थोड़ी दूर मेन रोड पर पुलिस वैन, पीएसी ट्रक और कुछ मोटर कारें खड़ी थी। 
एक परिचित व्यक्ति जो उधर से आ रहे थे, मैंने उनसे पूछा- 'आगे क्या हुआ कुछ पता है ? '
उन्होंने कहा- ' सुना ठाकुरसाहब के घर डिप्टी कलेक्टर पुलिस फोर्स के साथ पहुंचे हैं जिसने ख़रीदा उसे मकान पर कब्जा देने।
--' बेच दिया ! ठाकुरसाहब है यहां ?'
--' पता नहीं।'
--आपके पास उनका फोन नंबर है ?'
--'जी नहीं।' वह आगे निकल गया।
मेरी जिज्ञासा बढ़ गई। पांच-सात कदम आगे बढ़ कर रुक गया। सामने से जाना मुश्किल था क्योंकि काफ़ी भीड़ थी। मैं दूसरे रास्ते से पीछे की ओर पहुंच गया। एक छोर से दूसरी छोर तक भीड़ ही भीड़। 
सिंहसाहब का खेत उजड़ चुका था। कच्ची सड़क पर खेत के बाउंड्री पर लगे कांटा तार और लोहे का फाटक हटा दिया गया था। हरा भरा खेत अब मैदान दिख रहा था। दर्जनों मजदूर काम करते हुए दिखे। ड्रिलिंग मशीन से बोरिंग चल रहा था।
समूह में जगह-जगह लोग उसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। किसी को सटीक जानकारी नहीं थी । क़रीब हफ़्तेभर बाद 'रिटायर्ड कार्नर' के एक सदस्य से जानकारी मिली कि सिंहसाहब ने अपना ज़मीन-जायदाद एक पूंजीपति को साठ करोड़ में बेच दिया है। उस खेत पर एक मॉल बनेगा और मकान के स्थान पर एक मल्टीस्टोरिड अपार्टमेंट। 
सिंहसाहब ने दोनों बेटों को दो-दो करोड़ और किसान को एक करोड़ रुपए दिए हैं । 
बाकी राशि से एक भव्य सुख-सुविधा सम्पन्न वृद्धाश्रम बनेगा जिसके लिए एक ट्रस्ट का गठन किया गया है । सिंहसाहब भी एक ट्रस्टी हैं'। 


© सुभाषचंद्र गांगुली 
31/03/2023
( 'कहानी कहानियां पार्क की'' के अंतर्गत 18/03/2023 से शुरू 20/04/2023को खत्म हुआ)
 *********************************

रिटायर्ड कॉर्नर


         रिटायर्ड कॉर्नर 
            --------------------
        
 इस पार्क में बैठने की काफ़ी अच्छी व्यवस्था है । पार्क के चारों कोने सिमेन्ट के दो बड़े-बड़े बेंच बने हुए हैं । एक-एक पर कम से कम छह लोग बैठ सकते हैं । एक कोने के दोनों बेंच वृद्ध लोगों से भरे रहते हैं। मार्निंग वाक, ईवनिंग वाक के बाद सब यहीं आकर बैठते हैं ।              
  जब से यह पार्क बना है शायद तभी से रिटायर्ड लोग इसी कोने में बैठते आ रहे हैं । इसी वज़ह से इसका नाम पड़ गया है 'रिटायर्ड कॉर्नर'। 
'रिटायर्ड कॉर्नर ' कभी खाली नहीं रहता । 
दो बड़े-बड़े बेंच बारह लोगों के बैठने के लिए हैं । तीन चार नये रिटायर्ड लोग हमेशा खड़े मिलते हैं और मिलते रहेंगे । ' वेलफेयर एसोसिएशन ' बनने के बाद से  ' रिटायर्ड कॉर्नर ' यथेष्ठ व्यवस्थित हो गया है।
  हर साल एक-दो तो कभी तीन बूढ़े भगवान को प्यारे हो जाते हैं और क़रीब इतने ही लोग अवकाश प्राप्त करने के बाद बूढ़े होकर शामिल हो जाते हैं 'रिटायर्ड कॉर्नर' में।
           जिस दिन किसी की मौत की ख़बर आती है, अचानक सबके चेहरे पर उदासी छा जाती है । माहौल गमगीन बना रहता है एक दो दिन, जबकि आये दिन कोई न कोई कहता ' एक टांग शमशान की और बढ़ चुका है पता नहीं कब बुलावा आ जाए ।'
शोक सभा होती है, दिवंगत आत्मा को श्रद्धांजलि दी जाती है, प्रस्ताव पारित किया जाता है फिर भारी मन से सब प्रस्थान करते हैं अपने-अपने घरों के लिए।
   ' रिटायर्ड  कॉर्नर' से थोड़ी दूरी पर चांदनी का एक पेड़ 'गोल-बार' से घिरा हुआ है । जब कभी मीटिंग होती है उस 'गोल-बार ' पर चार-पांच लोग बैठ जाते हैं । 
             यहां बैठने वालो में एक अलौकिक आत्मिक सम्बन्ध दिखता है । कुछ लोग जिस कुर्सी से रिटायर हुए थे उसे अपने भीतर ऐसे चिपकाए रहते हैं मानो मरते दम उससे उतर नहीं पाते। फिर भी हर कोई एक दूसरे का राह देखता है । दो-तीन दिन गैप होने पर किसी न किसी का फोन पहुंच जाता है, तबियत ख़राब होने की स्थिति में कोई न कोई हाल-चाल लेता । 
       ‌‌  ' रिटायर्ड कॉर्नर ' पर बैठने वालों ने एक 'एसोसिएशन' बना रखा है। सदस्यों की संख्या बीस तक सीमित रखी गई है । कभी यह संख्या दो-तीन कम ज़्यादा होता रहता है । एक न्यूनतम सदस्यता शुल्क देना पड़ता है । कोई भी रिटायर्ड व्यक्ति सदस्यता ग्रहण कर सकता है।
            प्रायः प्रतिमाह किसी न किसी का बर्थ डे मनाया जाता है। एसोसिएशन का अपना 'कोड आफ कंडक्ट' बना हुआ है जिसका पालन करना पड़ता है । एसोसिएशन में एक मुखिया होता है जिसका चयन सभी सदस्य मिलकर हर साल जनवरी माह में करते हैं ।
एसोसिएशन का अध्यक्ष सामान्यतः भूतपूर्व न्यायाधीश, भूतपूर्व प्रोफेसर, कर्नल जैसे कोई  होते हैं।
             पेंशन तथा अन्य वित्तीय, मेडिकल सम्बन्धी मामले, सम्पत्ति विषयक मामले या अन्य
घरेलू मामले में कोई सदस्य चर्चा करना चाहते या विधिक राय लेना चाहतें हो तो अध्यक्ष द्वारा दी गई तिथि में उनकी उपस्थिति में राय- मशविरा  की जाती है, तदुपरांत राय दी जाती है ।
              यहां की एक रोचक बात यह है कि स्कूल कॉलेज लाइफ की तरह यहां भी किसी किसी का एक नाम पड़ जाता है और उसी से वह जाने जाते हैं।
रिटायर होने के बाद जब मैं यहां शामिल हुआ था मेरा पहला परिचय जिनसे हुआ था उन्हें सब 'डॉक्टर साहब' कहते थे। मैंने भी उन्हें "डॉक्टर साहब नमस्ते" कहा था, उन्होंने सिर हिलाकर उत्तर दिया था। 
जब पता चला उनकी उम्र तीरानवे वर्ष है तो मैं दंग रह गया था। अपने जीवन में इस उम्र में इतना फिट वृद्ध आदमी मैंने कभी नहीं देखा था। आंखें सही, दांत सही, श्रुति सही, स्मृति शक्ति ठीक, शुगर नहीं, हाथ पैर सबकुछ सही।   
क़रीब सालभर बाद चलते वक्त वे ज़रा सा लड़खड़ा गये थे। एक ने उन्हें सम्हाल लिया था। मैंने जब उन्हें छड़ी लेने की सलाह दी तो वे मुस्कराकर " थैंक यू " बोले थे।
अगले दिन पता चला कि वे घर पर भी उसी तरह लड़खड़ा कर गिर पड़े थे। डॉक्टर आते-आते वे दम तोड चुके थे।
जब तेरही का कार्ड रिटायर्ड कॉर्नर पर पहुंचा तो मैंने गौर किया कि कहीं पर ' डॉक्टर ' नहीं लिखा था। उनका नाम था बाबूलाल नागर।
पूछने पर पता चला कि वे जल संस्थान में जल की शुद्धता की जांच प्रयोगशाला में किया करते थे इस कारण से उनका नाम पड़ गया था डॉक्टर साहब।
                    रिटायर्ड कॉर्नर में नब्बे पार और एक व्यक्ति को मैंने दो साल देखा था। शारिरिक रुप से मोटामोटी ठीक थे। ऊंचा सुनते थे। कान में मशीन लगाते थे। उन्हें सब ' सतगुरु ' कहा करते । उन्हें सनातन धर्म का बहुत अच्छा ज्ञान था। वेद, पुराण,उपनिषद, गीता,भागवत के बारे में जब भी पार्क में आते चर्चा करते, समझाते। 
दो साल बाद जब वे बिरान्वे वर्ष के थे बेटे का ट्रांसफर हो गया था, वे भी चले गए थे। कब चले गए थे पता नहीं चला था।
उनकी मृत्यु के बाद उनके एक रिश्तेदार तेरही का कार्ड देने आए थे। उनसे पता चला था कि सतगुरु का नाम था इंद्रजीत श्रीवास्तव । तीस के दशक के मैट्रिक पास, सहायक पोस्टमास्टर के पद से चालीस साल पहले रिटायर हुए थे।  वे चालीस साल से ज़्यादा किसी महापुरुष के सान्निध्य में थे।  आध्यात्म पर उनकी चार बहुत महत्वपूर्ण किताबें हैं। इन सब बातों की जानकारी हम सब रिटायर्ड कॉर्नर में बैठने वालों के लिए एकदम नई थी ।
सौ साल पूरे होने में एक महीना रह गया था तभी सतगुरु ने प्राण त्याग किया था। उस महापुरुष को शत् शत् नमन।
                    कहानी लिखते-लिखते और एक रोचक प्रसंग याद आ गया। वे कॉर्नर के नियमित सदस्य थे। उन्हें सब ' इन्जीयर साहब ' बोला करते । इनका नाम मालूम नहीं। जब परिचय हुआ था तब बोले थे' मुझे इन्जीयर कहते हैं। मैं पीडब्ल्यूडी में अधिशासी अभियंता था।'
 बात चाहे किसी विषय पर हो, चर्चा के दौरान उनकी राय पूछे जाने पर वे गम्भीर मुद्रा में कहा करते 'इसमे टेक्निकल पेंच है,विशद चर्चा की जरूरत है, बताऊंगा बाद में।' 
एकबार इन्जीयर साहब ने कहा था ' कल एक कागज पर लिखकर अपना फोन नंबर दीजिएगा, मेरे पास आपका नम्बर नहीं है।'
-' अरे अभी लिजिए, मैं मिस कॉल देता हूं, आप सेव कर लीजिएगा।'
-' नहीं नहीं ये सब हमसे होता नहीं। मेरे पास नोकिया का छोटा सा फोन है ।'
-' छोटा बड़ा क्या, इसमें भी सेव होता । आपके पास स्मार्टफोन नहीं है?'
-' नहीं। था,  बहू को दे दिया। ये सब नये जमाने का है । '
-' इसका मतलब यह है कि ऑनलाइन पेमेंट आप नहीं करते,सब कैश। सरकार कहती है अधिक से अधिक ऑनलाइन पेमेंट करें और मिनिमम कैश।'
-' कहने दीजिए। ज़रा सा इधर से उधर हुआ तो डूब जाएगा रुपया ।'
-' अरे आप तो इन्जीयर थे।'
-' मैं बिल्डिंग इन्जीयर था। पन्द्रह साल हो गए रिटायर हुए।'
चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी।
  
  *********************************


© सुभाषचंद्र गांगुली 

31/03/2023
( 'कहानी कहानियां पार्क की'' के अंतर्गत 18/03/2023 से शुरू 20/04/2023को खत्म हुआ)
 *********************************
      

Sunday, April 23, 2023

मुन्नीबाई ( यह मेरे कहानी संग्रह ' कहानियां पार्क की ' मे है )

              समाचार पत्र में पढा कि साध्वी राधा देवी उर्फ़ मुन्नी माई चुनाव जीत गयी हैं। उन्होंने सत्तारूढ़ दल के दो दशकों से अविजित अपनी प्रतिद्वंद्वी विजय सिंह की जमानत जब्त करा कर ऐतिहासिक जीत हासिल की। जहां जो भक्त थे सबके सब पार्टी बैनर तले गाजा बाजा लेकर सड़को पर उतर आए। मुन्नी माई ने अकल्पनीय जीत हासिल की है, इस कारण से उनका मंत्री बनना तय । पार्टी की ओर से लड्डू बांटे जा रहे हैं और भक्तों के मन में लड्डू फूट रहे हैं कि माई जरुर उनके परिवार में खुशियां उड़ेल देंगी ।
अख़बार  में फोटो बहुत साफ़ नहीं था फिर भी मैं पहचान गया था कि यह तो अपने पार्क की हिफाज़त करने वाली मुन्नी बाई ही है जो तीन साल काम करने के बाद अचानक फ़रार हो गई थी। 
    तब से क़रीब पांच साल बीत गए ,चेहरे पर ख़ास फ़र्क नहीं आया था, उसकी ऊपरी होंठ पर एक कट और माथे पर बड़ी बिन्दी देख कर मैंने उसे पहचान लिया । 
भोली सी सूरत वाली, दर्जा चार तक पढ़ी, मुन्नी बाई, बाई से माई बन गई थी, माई से बहुत बड़े नेता बन गई , अब शिक्षा, रेल सोचकर मैं हैरान हो रहा था और खुश भी हो रहा था कि वह मेरे पार्क की हिफाज़त करती थी कभी। और मुझे भलिभांति जानती है।
लाजुक स्वभाव वाली मुन्नी बाई कहां से कहां पहुंच गई। 
          इस पार्क के एक कोने में विशाल नीम वृक्ष के नीचे, एक छोटा सा कुटीरनुमा पक्का छत वाला कमरा है । कभी वह कमरा बना था चौकीदार के रहने के लिए  किंतु कोई चौकीदार उसमें रहने के लिए तैयार नहीं हुआ क्योंकि पार्क में कहीं भी टॉयलेट नहीं है और ना ही नहाने की कोई जगह है । किचन भी नहीं है । 
 बहुत दिनों के बाद 'वेलफेयर एसोसिएशन' का एक सदस्य अविनाश बाबू एक प्रौढ़ महिला को साथ लेकर  ' वेलफेयर ' एसोसिएशन के अध्यक्ष से बोले कि यह महिला यहां रहने के लिए तैयार हैं । कमरे के पीछे बाउंड्री वॉल के पास एक बहुत छोटी सी जगह में टाइल्स लगाकर यूरिनल की व्यवस्था की जा सकती । भीतर से पाइप डाल देने पर बाउंड्री के पीछे नाली में पानी गिरेगा। दोनों तरफ़ ऊंची बांउड्री वाल और एक तरफ़ घनी झाड़ियां होने से वह जगह कहीं से दिखाईं भी नहीं देती। लैट्रिन के लिए पार्क से थोडी दूरी पर 'सुलभ' है ही । 
            इनके कमरे में एक कोने कमरे में पानी डालने वाला पाइप, खुरपी, कैंची, गदाला, फावड़ा तथा अन्य सामग्री पड़ी रहेगी । वह अपना खाट डाल लेगी। कमरे के बाहर ईंटे का चूल्हा बनाकर अपना खाना बना लेगी । रात को कमरे में रहेगी, पार्क की चाबी इन्हींके पास रहेगी। शाम को  फाटकों पर ताला डालना और सुबह खोलना इनकी जिम्मेदारी होगी । महीने में पांच हजार रुपए लेगी ।
अध्यक्ष महोदय ने अविनाश से पूछा 'फुल टाइम रहना है, छुट्टियां नहीं मिलेगी सब बता दिया है न ? जब पार्क खुला रहेगा आस पास अपने काम के लिए जा सकती।'
- ' जी। बता दिया सबकुछ।'
अध्यक्ष महोदय ने पूछा -' क्या नाम है तुम्हारा ?
-' मुन्नी सिंह। लोग मुझे मुन्नी बाई के नाम से जानते हैं।'
-' कौन लोग ?'
-' आश्रम के लोग।'
- कौन सा आश्रम ? कहां का आश्रम ?'
-' हरद्वार के एक आश्रम में पंद्रह साल से ज़्यादा काम किया था। उससे पहले एक मन्दिर में काम किया था।'
-' फिर यहां क्यों चली आई ?'
-' वहां बहुत काम करना पड़ता। अब हमारी उम्र बढ़ रही है, हमसे उतना होता नहीं। '
- ' पति क्या करता है?'
-' साधु है। वह शादी के पांच साल बाद हमें छोड़कर चले गए थे।'
-' साधु है? कहां गए?'
-' पता नहीं। बहुत दिनों के बाद पता चला किसी ने उनको 'प्रयागराज कुंभ मेला' में देखा था। कहां है मालूम नहीं,अब हमने आसरा देखना छोड़ दिया।'
-' घर दुआर कहां है?'
-' पीलीभीत में था,गांव में। अब वहां मेरे सौंतन का बेटा रहता है।"
-' क्या मतलब ?'
-' साहेब ! मैं उनकी दूसरी बीबी हूं। पहली वाली मरने के बाद मुझसे शादी हुई थी। मेरी कोख बंद निकली। बच्चा न होने के कारण मेरी सास मुझे गाली देती, फिर आदमी भी चला गया घर छोड़कर, सास जल्दी मर गई। हमारे सौंतन का बेटा हमें घर से बाहर निकाल दिया........बस इतना ही है मुन्नीबाई की कहानी।'
-' चलो अब रोना धोना बंद करो। इनसे अपना काम समझ लो, सम्भाल लो...... अविनाश जी, इन्हें रख लीजिए काम पर। समझा बूझा दीजिए।'
-' ओ के सर !'
                      मुन्नीबाई ने काम पकड़ लिया और रहने लगी। कुछ दिनों के बाद वेलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष से मिलकर अपने कमरे के आगे और पीछे पानी तथा धूप और बारिश की बौछारों से बचने के लिए शेड बनवा देने का अनुरोध किया। उसने यह समझाया कि आगे पीछे शेड बनने से उसे तो लाभ मिलेगा ही, अचानक बारिश आंधी आ जाने पर पार्क में उपस्थित रहने वालों को भी सिर छिपाने की जगह मिल जाएगी।
                        अध्यक्ष को मुन्नीबाई की बात अपील कर गयी। उन्होंने एसोसिएशन की मीटिंग बुलाई।
 मीटिंग में उन्होंने कहा कि मुन्नीबाई को जो कमरा दिया गया है वह छः बाईं सात फिट का है,उसकी ऊंचाई भी मात्र सात फिट है। उसमें पांच फिट ऊंचा दो फिट चौड़ा दरवाज़ा है। 
दरवाज़े के ठीक ऊपर और उसी हाइट पर चारों दीवारों पर कारनिस है। अचानक आई बारिश के दौरान कुछ लोग कारनिस के नीचे पनाह लेते हैं किन्तु केवल मात्र सिर ही बचा पाते हैं।
 वह कमरा दरअसल सामान रखने के लिए बना था। 
             पहले पार्क दिनभर खुला रहता था और उस कमरे में ताला पड़ा रहता था। एक ही फाटक खुलता था, उसी फाटक के सामने रहने वाले रिटायर्ड आदमी के पास चाबी रहती थी, रात को फाटक बंद कर दिया करते थे और सुबह खोल देते। हफ़्ते में एक दिन नगर पालिका का माली दिनभर रहकर काम कर जाता।
                            लेकिन जब से वेलफेयर एसोसिएशन बना तीसों दिन काम करने के लिए माली रख लिया। 
देखते-देखते पार्क में फल-फूलों से बहार आ गई। इसकी रखवाली तभी सम्भव जब पार्क में कोई चौबीस घंटे रहे।
 मुन्नीबाई रहने के लिए तैयार हो गई किन्तु उसने जो प्रस्ताव रखा वह मिनिमम सुविधाएं हैं जिन्हें नकारने से बड़ी मुश्किल से मिली मुन्नीबाई हाथ से निकल जाएगी।
                सभा ने आम सहमति से प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। थोड़े समय बाद वह क्रियान्वित भी हो गया। 
कमरे के पीछे दो दीवारें उठाई गयी, उसमें सामान रखने के लिए ताक़ बनाया गया।
कारनिस के ऊपर से ऍसबेस्टस शीट डाल दिया गया ताकि आंधी बारिश में लोग शेल्टर ले सकें। कमरा और उसके बाहर लाइटें लगा दी गई। सोने के लिए एक तख्त़पोश डाल दिया गया। प्लास्टिक की दो बाल्टियां,मग, झाड़ू आदि छोटी मोटी ज़रूरी चीजें दे दी गई।
मुन्नीबाई बहुत खुश हुई । कमरे के पीछे पार्क के सामान यथा रबड़ की पाइपें, खुरपी, फावड़ा आदि रख दिया। 
दीवाल अलमारियों पर तथा खूंटियों पर अपना कुछ सामान रख दिया। दूसरी दीवाल के पास उसने एक छोटा सा देशी चूल्हा बना लिया । कमरे के अंदर बाहर पोताई करवा दी गई। मुन्नी बाई ने दीवार पर कपड़े टांगने के लिए एक हैंगर फिक्स कर दिया। उसके बगल मे कुछ कीलें ठोंकी फिर देवी देवताओं की तस्वीरें टांग दी।
                मुन्नी बाई ने अपना काम सम्भाल लिया और अच्छी तरह से काम करने लगी। 
शरीर से मजबूत, लम्बी-चौड़ी, कपाल पर बड़ी बिन्दी, मांग में सिन्दूर,गले से मोटी आवाज़। कुल मिलाकर एक रोबीला व्यक्तित्व।
अविनाश बाबू ने काम-काज समझाते हुए कहा कि वह सुनिश्चित करें कि पार्क में किसी प्रकार का ग़लत काम न हो, कोई वैसा काम न हो जिससे पेड़ पौधों को तथा मैदान का नुक़सान न हो। किसी प्रकार की समस्या हो तो उन्हें या अध्यक्ष को सूचित करें।
मुन्नी बाई ने बड़े बच्चों का फुटबॉल, क्रिकेट, गुल्ली-डंडा खेलना बंद कर दिया। बहस करने पर वह बोली कि थोड़ी दूरी पर सदर के पास विराट् खेल का मैदान है, वही जाकर खेलें, पार्क में नहीं चलेगा।
        दो-तीन महीने बाद बड़े बूढ़े जो नन्हे-नन्हे बच्चों को ट्रायसिकल और दुपहिया सायकिल के साथ टहलाने आते उन्हें मना करना शुरू किया, न मानने पर एक दिन कड़ाई से मना कर दिया। 
उसके इस काम से जहां कुछ लोग असंतुष्ट हुए और शिकायत लेकर अध्यक्ष, सचिव से मिले, वही अधिकतर लोग खुश हुए। नाखुश होने वालों में वेलफेयर एसोसिएशन के कुछ मेम्बर्स भी थे।
मगर उनलोगों ने शिकायत करने वालों को समझाया कि नियमित रूप से मशीन से घास की छिलाई होती है,उस पर सायकिल चलने से खूबसूरती नष्ट हो जाती है। पार्क के बाहर चार सड़कों में दो लगभग खाली रहती है, वहां टहला सकते हैं।
सभी नाखुश मेम्बर्स कनविन्सड हो गये। 
देखते-देखते सात आठ महीने में पार्क की रौनक लौट आई। चौतरफ़ा हरियाली ही हरियाली। कालीननुमा मैदान में नन्हे मुन्ने बच्चे बूढ़ों की उंगलियां थामे चलना सिखते, कोई-कोई छोटे-छोटे पांओं से दौड़ते, झूला झूलते, सी-सॉ पर चढ़ते, अत्यंत मनोरम पार्क बन गया।
      वेलफेयर एसोसिएशन की तारीफ़ तो होती ही, मुन्नी बाई का नाम भी ज़रूर आता।
    मुन्नी बाई शुरू से ही भक्तिन रही है, सुबह शाम नियमित पूजा पाठ करती।
अब पार्क में सबकुछ व्यवस्थित हो जाने के बाद मुन्नी बाई को भजन-कीर्तन के लिए और अधिक समय मिल गया।
मुन्नी बाई ने तुलसी माला पहनी, रुद्राक्ष का बड़ा सा माला धारण किया। 
मंगलवार और शनिवार गेरुआ वस्त्र धारण करती और बाकी दिनों में श्वेत वस्त्र।
सुबह पांच सात मिनट पूजा करती फिर शाम को दिया बाती जलाती, शंख फूकती, कमरे के भीतर घंटी बजा कर आरती करती।
लोग मुन्नी बाई के पूजा पाठ से आकृष्ट होने लगे। टहलते-टहलते शंख की आवाज़ सुनने पर एकाध मिनट रुक कर दूर से हाथों को जोड़कर नमन करते। 
कमरे के बाहर दोनों दीवारों पर भक्तों ने राम लक्ष्मण और हनुमान जी के फोटो लगा दिया।
अब मुन्नी बाई का कमरा दूर से रहने वाला कमरा के बजाय छोटा मोटा मंदिर प्रतीत होने लगा।
टहलने वाले लगभग हर कोई राम लक्ष्मण, बजरंगी के पास पहुंच कर दोनों हाथों से नमन करते और आये दिन माई के हाथ में कुछ न कुछ रुपए पैसे देते।
            हर मंगलवार और शनिवार को शाम पार्क लगभग खाली हो जाने के बाद पाठ करती 'सुन्दर काण्ड' पाठ करती। 
कोई न कोई सुनने के लिए थोड़ी देर रुक जाता।
फिर देखा पास पड़ोस से तीन चार महिलाएं आकर कमरे के सामने कारनिस के नीचे हाथों में फूल लिए पाठ सुनती।
चढ़ावा चढ़ने लगा। मिठाई, फूल माला, अगरबत्ती, दियासलाई,धूप, लड्डू,बताशा,फल कुछ न कुछ चढ़ाते। मुन्नी बाई थोड़ा बहुत प्रसाद बांटने के लिए बाकी प्रसाद भक्तों के हाथों में दे देती।
     अब लोग उसे प्रहरी या कामवाली की नज़र से नहीं देखती बल्कि उसमें मां देखने लगें। कोई मुन्नी माई तो कोई कोई माताजी कहके पुकारने लगे।
इस पार्क से एक डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर घनी आबादी वाली गरीबों की बस्ती है जहां आठ दस छोटे-छोटे पक्के मकान दिख जाएंगे बाकी सब झुग्गियां या खपरैले हैं। यहां किसी घर की बात किसी से छिपी नहीं रहती।
घर में जगह की कमी होने के कारण पहले लोग अपनी कन्याओं को किसी मन्दिर परिसर में ले जाते रहे। पिछले दो-तीन सालों से कोई कोई परिवार गोधूलि बेला में पार्क में कन्या दिखाने ले आते ।
            एक दिन एक वाकया हुआ जिससे मुन्नी बाई के जीवन में एक नया मोड़ आया। 
कन्या दिखलाने आईं माता पिता परिवारजनों को मैदान में बिठा कर मुन्नी बाई के दरवाज़े पहुंच कर बेटी की विवाह के लिए आशीर्वाद मांगा।
फर्श पर बैठी मुन्नी बाई ने माला जपते-जपते दायां हाथ उठाकर आशीर्वाद दे दिया।
लड़की देखने में सामान्य थी और उसके पिता दहेज़ देने में असमर्थ थे, फिर भी लड़की पसंद हो गई और विवाह की तिथि भी तय हो गई। 
ऐसी घटनाएं दो तीन और घटित हुई। इससे इतर भी कुछ घटी।
        किसी ने मुन्नी बाई से कहा कि बच्चे को तेज़ बुखार है तो वह एक फूल मां दुर्गा के चरणों पर स्पर्श कर उसे देते हुए बोली कि फूल को बच्चे की तकिया के नीचे रख दे वह ठीक हो जाएगा।
किसी को कहा कि पति के हाथ एक लौंग  छुआकर ले आए। किसी औरत ने कहा कि उसका पति उसकी बात एकदम नहीं सुनता,उसे खूब डांटता पीटता है, मुन्नी बाई ने एक चम्मच चीनी मंत्र फूंक कर पुड़िया में देकर बोली कि उसे पति की तकिया के नीचे रात को रख दें फिर सुबह चाय में मिला दें ।
मुन्नी बाई अब हर समय गेरुआ वस्त्र ही धारण करने लगी । चलते फिरते दुर्गा स्तुति या हनुमान चालीसा पढ़ती।
भक्तों की संख्या लगातार बढ़ती गई। कमरे के सामने हमेशा जमावड़ा बना रहता। एसोसिएशन के अध्यक्ष को यह पसंद नहीं था किन्तु बात धर्म की होने के कारण खुद कुछ कहना उचित नहीं समझे। उन्होंने इस संबंध में एक मीटिंग बुलाकर अपनी बात रखी।
मीटिंग में अधिकांश लोगों ने अध्यक्ष की बात पर सहमति जताई। एक ने सुझाव दिया कि उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए, पीछे बस्ती से कोई मिल जाएगा। इस पर अध्यक्ष ने कहा कि अब वह सामान्य महिला नहीं रहीं, यहां से निकाल देने पर काफी उत्तेजना फैलेगी, पार्क में आने वाले सभी लोग बहुत नाराज़ होंगे।
तीन सदस्यों ने कहा कि वे मुन्नी माई के भक्त हैं, उनलोगो ने कहा कि मंगलवार और शनिवार पार्क बंद होने के बाद वे अपने घरों में सुंदर काण्ड, हनुमान चालीसा पाठ रखेंगे, जो लोग माई से आशीर्वाद लेना चाहते वे पार्क के बजाए उन्हीके घरों पर मिल सकते हैं। इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से मान लिया गया था।
         पार्क वाली मुन्नी बाई अब बन गई साध्वी मुन्नी बाई । मुन्नी बाई को प्राप्त दैवीय शक्ति की ख़बर पूरे शहर में फ़ैल गई। पढ़ें-लिखे लोग आते, धनी लोग आए, नेता लोग भी आए, मठ और आश्रम से कुछ साधु भी आए। 
सबकुछ ठीक ही चल रहा था फिर बिना किसी से कुछ कहे मुन्नी बाई पार्क छोड़ कर चली गई। यह सुबह तब पर चला जब बूढ़े लोग सुबह-सुबह पार्क पहुंचे।
अविनाश बाबू से पूछे जाने से वे बता नहीं सके थे मुन्नी बाई के घर का पता। यह भी नहीं बता पाए कि किसने उनसे अनुरोध किया था काम पर रखने के लिए। सिवाय अपने कपड़ों के कुछ भी नहीं ले गयी थी।
लगभग तीन हफ़्ते बीत गए कहानी को लिखते हुए, कहानी लेखन समाप्त होते होते पता चला है कि मुन्नी बाई को मंत्री मंडल में शामिल किया गया है।
( 'कहानी कहानियां पार्क की'' के अंतर्गत 18/03/2023 से शुरू 20/04/2023को खत्म हुआ)
 *********************************

© सुभाषचंद्र गांगुली  31/03/2023