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Tuesday, May 8, 2012

कविता- कर्मकार


कांडो-महाकांडो का
ज्ञान नहीं है
उस कर्मकार को।
उसकी निगाहें, तितलियों कबूतरों पर नहीं
औजारो पर टिकी रहती हैं,
फटे पुराने जुतों को, देखकर
वह खुश हो जाता है।
जूतों को देखकर, वह
जूते के मालिक का हाल
जान लेता है, वह उसके मालिक के घर के
भीतर तक पहुँच जाता है
आज़ादी के पचास वर्ष की उपलब्धियाँ
जूतों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर/ वह
बखूबी पत्रकारों की तरह सुनाता है।
और अपना अमूल्य वोट, वह
उसके लिए सुरक्षित रखता है
जो उसे, फुटपाथ से हाटाने वालों से बचाता है
और जो उसके परिवार को
पुल के नीचे बसे रहने देता है ।

© सुभाष चन्द्र गाँगुली
*संकलन " समय के साक्षी " , सम्पादक, (तीन) भिण्ड, मध्य प्रदेश 1998 में प्रकाशित ।

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