Search This Blog

Tuesday, June 29, 2021

खुश रहने के लिए ----



" जीवन एक जीने की कला है । जीवन में सुन्दर असुन्दर कुछ भी नहीं होता उसे हम अपनी अपनी नजरिया देते हैं । खुश होने के लिए किसी बड़ी चीज की जरूरत नहीं होती है। छोटी छोटी चीजें ही खुशी दे सकती है । खुश होने की वजह एक फूल, एक बच्चे की हंसी, एक नयी कमीज़, किसी के हाथ का बना कुछ, मैरिज डे पर पत्नी की खुशी , कुछ भी । " ( ' मोक्षदायिनी ' संग्रह में संकलित कहानी " आभासी दुनिया " से )

Monday, June 28, 2021

कविता- आग


यहां मैं आया था
किंतु स्वेच्छा से नहीं,
जिस घर में मैं जन्मा था
स्वेच्छा से वहां नहीं जन्मा था ।
                ज्ञान होने पर पता चला था
                मेरा एक धर्म, एक पंथ है,
                 वर्ण, गोत्र, जाति, पदवी है,
                 भूमिष्ट होने से पहले ही तय था,
                  मेरा धर्म-कर्म भाषा बोली तय था
                  तय था मेरा ऊंच नीच ‌‌‌‌‌‌‌होना,
                  कुछ भी नहीं था इच्छा से मेरी
                  कुछ भी नहीं था वश में मेरे ।
मैंने देखा यहां मनुष्य को
पशुओं से अधम होते हुए,
देखा उन्हें बारुद से खेलते
देखा कोमल कलियों को मसलते,
देखा सौंदर्य बिखारता गुलाब को रौंदते
देखा किडनियों के महल बनते ।
जाना इतिहास का अर्थ है युद्ध
जाना भूगोल बदल देता है युद्ध ।
                  जो आग मेरे सीने में दहल रही
                  बहुतों में धधक रही है वही आग,
                  आग लगाते कईयों को देखा
                  आग बुझाते किसी को नहीं देखा ।।

© सुभाष चन्द्र गांगुली
( बांग्ला से हिन्दी अनुवाद अनिल अनवर , सम्पादक, ' मरुगुलशन' , जोधपुर )
-----------------------------------------------
* ' मरुगुलशन ' , जोधपुर में प्रकाशित 1998 तथा ' मधुमति' में प्रकाशित ‌।
*'यरंग' पत्रिका अक्टूबर-दिसंबर 1999
*' नीलाम्बर ' काव्य संग्रह, जागृति प्रकाशन मलांड, मुम्बई - 1997 ( सम्पादक- डा॰ हीरालाल नन्दा 'प्रभाकर' ) ‌‌‌‌‌‌‌

                  

Saturday, June 26, 2021

कहानी- बाँसुरीवाला






आज फिर बहुत दिनों के बाद, बहुत लंबे इंतजार के बाद बाँसुरी की धुन सुनाई दे रही है। अभी वह दूर है, काफी दूर है, गली के उस मोड़ पर है। लेकिन उसकी बाँसुरी से निकला राग यमन, जनरेटर्स और पंपो की गड़गड़ाहट के बीच उसी तरह बहकर मेरे पास आया है, जैसे किसी बच्चे की किलकारी दुखों को चीरकर मन हिला देती है। सच! बाँसुरी की धुन के आगे दुनिया की सारी धुनें फीकी पड़ जाती हैं।

आज मुझे वह धुन शायद इसलिए और अधिक मधुर लग रही है। क्योंकि मुझे फटे-चिथड़े जोकर की पोशाक में सजा उस बाँसुरीवाले का बेसब्रीसे इंतजार था। अभी वह आहिस्ता-आहिस्ता कदम बढ़ा रहा होगा, दरवाजे-दरवाजे रुकेगा। कोई रोकेगा। कहीं कोई बच्चा कुलाँचे मार दरवाजे के बाहर आकर पुकारेगा-'बाँसुरीवाले! बाँसुरीवाले! इधर आओ, जल्दी आओ, कहीं कोई किशोर हंसता-मुस्कराता, तनिक शरमाया हुआ बाँसुरीवाले को रोकेगा, कई बाँसुरिया रिजेक्ट करने के बाद एक छाँटेगा और कहेगा-“मेरा मन डोले तन डोले....कौन बजाये बाँसुरिया सुनाओ ना। सुनने के बाद वह पू.पू.. पू-पू. करके बजाने की कोशिश करेगा: फिर कहेगा- नहीं हो रहा है, हमें सिखा दो ना, और बाँसुरीवाला मुस्कुराकर बोलेगा-'बजाते रहो, आ जायेगा।'

कहीं किसी बच्चे का मन वाकई डोल उठेगा और वह रो-धोकर पचास पैसा लेकर दौड़ता हुआ आयेगा, मगर बाँसुरीवाला बोलेगा-'पचास पैसे में भोंपू मिलेगा, लो भोंपू बजाओ और पास खड़ा एक नन्हा बच्चा पच्चीस पैसे का सिक्का बढ़ायेगा या खाली हाथ ऊपर उठायेगा और फिर नीचे गिरा लेगा, उसकी ओर एक बार देखकर बाँसुरीवाला आगे बढ़ जायेगा और वह नन्हा बच्चा मन मसोस कर उसकी पीठ देखता रह जयेगा, जब तक वह आँखों से ओझल न हो जाये, और उसके बगल में खड़ा लड़का उसे चिढ़ाने के लिए उसके कानों के पास जोरों से भोंपू बजाता रहेगा, अपनी गरीबी और विवशता से त्रस्त वह नन्हा बच्चा क्रोध भरी निगाहों से भोंपूवाले बच्चे को देखकर मुँह बिचकाकर दौड़ लगायेगा....और फिर धीरे-धीरे बड़ी तन्मयता के साथ पूरा का पूरा राग यमन भाँजता हुआ, खुला मैदान पार कर वह बाँसुरीवाला मेरे घर के पास पहुँचेगा, द्वार के पास ठहरकर, "मेरा मन डोले तन डोले" तान छेड़ेगा, मेरा बच्चा अगर नहीं पहुँचा तो वह एक बड़ा सा भोंपू बल्कि भोंपा निकालेगा और पूरी शक्ति से फूँककर कर्णभेदी आवाज निकालेगा....मगर नहीं आज शायद वह नहीं आयेगा। घर के सामने नहीं रुकेगा, शायद मैदान पार करने से पहले ही चुप्पी साध लेगा, आखिर पिछली मर्तबा मैंने उसे कितना डाँटा था-'क्या रोज-रोज खोपड़ी खाते हो पैसे क्या आसमान से टपकते हैं? चुपचाप निकल जाया करो यहाँ से, और मेरा बेटा फूट फूट कर रोने लगा था। जाने कितनी बार मैंने बेटे को डाँटकर कहा था 'बाप का पैसा क्या फालतू है? सरकारी नौकर हूँ. थोड़ी-सी तनख़्वाह है, ऊपरी कमाई भी नहीं है, हर दूसरे दिन कहाँ से दिलायें तुम्हें बाँसुरी? न तो बजाना आता है और न ही रखना आता, हाथ में लेने की देर नहीं कि तोड़-ताड़ कर धर देते हो, चलो अंदर। किन्तु बेटा सुर रोता रहा और में अंततः मुझे हार माननी पड़ी थी।

उस दिन भी मैं बेटे को कुछ उसी तरह डाँट लगा रहा था कि वह अधेड़ जोकरनुमा बाँसुरीवाला बोल पड़ा था-'अरे बाबूजी बच्चा है, आखिर सारी कमाई बच्चों के लिए ही तो है, यह तो सस्ता सामान है, लोग तो बच्चों के लिए महंगे-महंगे खिलौने खरीदते हैं।'

उसकी बात से मैं अपना आपा खो बैठा था-हाँ, हाँ तुम्हारा फायदा जो होगा....और लोग क्या करते हैं पता है? अपनी औकात दिखाने के लिए हजार दो हजार के खिलौने खरीदकर अलमारी में ठूंस देते हैं. बच्चे छूने... के लिए तरस जाते हैं... लाओ दो क्या क्या माँग रहा है, और कल से यहाँ दिखाई न देना वर्ना....।

और फिर सचमुच वह दिखाई नहीं दिया। मेरा मुन्ना तरस गया। आये दिन वह उसकी राह देखता। इस बीच मैं कई बार बाजार से उसके लिए बाँसुरी ले आया मगर उसे अहमद चाचा की ही बाँसुरी चाहिए थी। बेटे का लगाव लाजमी था। एक बार जब मैंने अहमद से कहा था कि बेटे को टाइफाइड हो गया है तब कुछ दिनों तक वह मेरे घर के सामने बिना आवाज़ किये आता, बेटे का हालचाल पूछता और चला जाता। एक बार वह बेटे से मिलने के लिए घर के भीतर आया था, कमरे के बाहर से चुपचाप झाँककर चला गया था। फिर जब मेरा बेटा ठीक होकर बाहर निकलने लगा तो उसने जो पहली बाँसुरी दी थी, वह उसकी तरफ से भेंट थी।

जिस दिन अहमद मेरे बेटे को देखने घर के भीतर आया था मुझे थोड़ी सी मेहमाननवाजी करनी ही थी सो की थी। चाय पीते-पीते उसने अपने पेशे की जानकारी दी थी। उसने कहा था उसके खानदान में पुश्त दर पुश्त बाँसुरी का यह धंधा चला आ रहा है। एक व्यापारी के कारखाने में उसका बाप, चाचा, ताऊ और उसके रिश्ते के ढेर सारे लोग काम करते हैं। दिन भर में जो मजूरी मिलती है उससे परिवार का भरण-पोषण नहीं हो पाता। सभी को ओवरटाइम करना पड़ता है। उसने कहा था प्रायः सुबह जब तक वह सोता रहता, उसके पिता काम कर निकल जाते हैं.. और रात को जब तक वह लौटते तब वह सो जाता है। उनसे बहुत कम मुलाकात हो पाती है, परिवार के बच्चे नाबालिग होते हुए भी इस धंधे में जुट जाते हैं मगर बाँसुरी बनाना एक खास शिल्प है, सभी लोग इस कला को सीख नहीं पाते। जो बच्चे सीख नहीं पाते वे बाँसुरी बेचने के काम में लग जाते हैं। उसने कहा था कि सरकार इस शिल्प और उद्योग के प्रति उदासीन है, असम से रेलगाड़ी द्वारा छोटी लान से बाँस मँगाया जाता है.. इसमें काफी खर्च आता है। इस कारण से बाँसुरी की लागत भी ज्यादा आती है लिहाजा बच्चों को कम कीमत पर बाँसुरी बेची नहीं जा सकती. कभी-कभी तो मेले में सारी बाँसुरियाँ धरी रह जातीं। बड़ी दार्शनिक मुद्रा में उसने कहा था कि वे लोग दिन रात मेहनत करके दुनिया को संगीतमय बनाना चाहते हैं मगर दुनिया है कि दिनों दिन बेसुरी होती जा रही है!

अहमद के न आने से मैं खुद को कसूरवार समझता। रह-रहकर मुझे उसकी याद सताती, कई बार मैंने उसे ढूँढ़ने की कोशिश की। इस बीच मेरे घर के सामने एक-दो बार बाँसुरी की आवाज सुनाई पड़ी थी. मुझे पता था वह अहमद की धुन नहीं है फिर भी मैं यह सोचकर निकल आया था कि शायद अहमद ने अपने आपको डिस्को युग के साथ एडजस्ट कर लिया हो। घर के सामने खड़े होकर मैंने बेटे को बाँसुरी दिलायी मगर मेरा बेटा खुश नहीं दिखा। मैंने दो-दो बाँसुरीवालों से अहमद के बारे में पूछा मगर किसी का उससे परिचय नहीं था।

किन्तु आज मुझसे गलती नहीं हो रही है, वही मधुर धुन, वही राग, वही तन्मयता....अहमद के सिवा और कोई हो ही नहीं सकता... लेकिन आज मेरे घर के द्वार पर नहीं रुकेगा, मेरा बेटा घर पर नहीं है, उसे न देख अहमद भोंपा भी नहीं बजायेगा....गरीब है तो क्या स्वाभिमानी है और हो भी क्यों न ? किसी का कर्जा तो नहीं खाया, जीने के लिए घुटना तो नहीं टेका, अपनी गरीबी को दूर करने के लिए ईमान को ताक पर तो नहीं रखा, मेरी अपनी ही गलती थी जो उसे दो कौड़ी का समझ बैठा था... और उसे गुमान भी है कि उसके खानदान के सभी शिल्पी हैं, उसके पास भी हुनर है, एक से एक कठिन राग मामूली सी बाँसुरी से निकाल लेता है....मुझे ही रोकना पड़ेगा, आदर से बुलाना पड़ेगा, उसे आहत करने   का खेद व्यक्त करना पड़ेगा।

फिर मैं घर से बाहर निकल आता हूँ, उसे देख मैं चकित हो रहा। हूँ....अहमद की शक्ल-सूरत, अहमद का हुलिया, वही चाल उसी तन्मयता के साथ राग यमन भाजता हुआ मैदान पार कर मेरे घर के सामने से गुजर रहा है, मैं उसे बुलाता हूँ 'अहमद! अहमद! ए... बाँसुरीवाले!' 
वह पलटा, मैं हतप्रभ, सब कुछ एकदम अहमद जैसा मगर यह अहमद नहीं है, कम उम्र का एक लड़का, धानी रंग की मूँछ की रेखाएँ, कोमल, लावण्यमय मुखड़ा किन्तु उस पर एक अजीब भारीपन, बल्कि एक परिपक्वता है ।
 मैं पूछता हूँ- 'तुम अहमद बाँसुरीवाले को जानते हो?'
- 'वह 'मेरे अब्बू थे', एक, करुण, मार्मिक, हृदय विदारक उत्तर । 
- ' थे??.. क्या मतलब ? अब वे.....
- ' इस दुनिया में नहीं रहे।' उसने वाक्य पूरा कर दिया ।
थोड़ी देर खामोश रहने के बाद उसने पूछा- 'बाबूजी बाँसुरी लेंगे?...बाँसुरी लेंगे?'

- ' हाँ?...हाँ लेंगे।' पता नहीं मैं कहाँ खो गया था। उसके हाथ से बाँसुरी लेकर मैं पूछता हूँ-'अब से तुम यह धंधा करोगे ?....या बाँसुरी बनाना सीखोगे।'

- 'नहीं जो बाँसुरियाँ घर पर धरी हैं उन्हें बेचना है....अम्मा ने मुझे मना किया था...अम्मा ने कहा था कि मेरे दादा, परदादा, नाना, सबका इंतकाल भुखमरी से हुआ था, सबको टी. वी. हो गयी थी...मेरी अम्मा बाँसुरी की आवाज़ नहीं सह पाती, वह कहती है लगता है जैसे कहीं गमी हो गयी है, उन्हें बाँसुरी की आवाज़ में मौत की पुकार सुनाई देती है...उनके सामने बाँसुरी बजाने से वह खीझकर कहती, "बन्द करो मौत की धुन, फेंक दो सब उठाकर, मजूरी करो, रिक्शा चलाओ, खोनचा लगा लो, भीख भी माँग लो मगर मत छूना इसे "...बाबूजी! आज दो बाँसुरी ले लीजिए ना!! '

"तुम सारी यहीं रख दो, मैं खरीद लेता हूँ। मैंने कहा। मैं प्रायश्चित करना चाहता था।

© सुभाष चन्द्र गाँगुली
   12/11/1999
Reedited on 15/05/2023

(कहानी संग्रह: ' सवाल तथा अन्य कहानियाँ ' से,
प्रथम संस्करण: 2002)
____________________________
* पत्रिका "कथाबिम्ब " सम्पादक, अरविंद सक्सेना, अक्टूबर--दिसम्बर अंक 1999
** " रविवारीय " अखबार 2/7/2000 में प्रकाशित ।
** पत्रिका ' तटस्थ ' सम्पादक कृष्ण बिहारी सहल, सीकर, राजस्थान के अंक जनवरी- मार्च 2011 में प्रकाशित।
-----------------------+--------------_-----------
कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां :------
** ' कथाबिम्ब' में प्रकाशित ' मेरी प्रतिक्रिया से आप संतुष्ट हैं यह जानकर तृप्ति मिली । आपकी कहानी का अंत अब भी कानों में बजता है । ' मिठाई वला'  'काबुलीवाला' आदि कहानियों की चर्चा मैंने आपकी कहानी के फ्रेमवर्क को स्पष्ट करने के लिए की है साहित्य भी अन्य विधाओं की तरह कहानी भी शिल्पगत कथागत या उद्देश्यगत एक धारा बनती है जो आगे चलती है नये नये रुप लेकर । इससे किसी की मौलिकता पर प्रश्नवाचक नहीं लगता अपितु इसने कुछ नया इज़ाफ़ा किया है यह सिद्ध होता है। कुटीर उद्योग से भी अधिक आपकी कहानी में बांसुरी के साथ जुड़ी त्रासदी का मानवीकरण है । "
डॉ किशोर काबरा, एम ए, पी एच डी, सम्पादक, ' भाषा सेतु' अहमदाबाद 382424 पत्र दिनांक 24/8/2000
** " आपकी कहानी  ' बांसुरी वाला ' पढ़ी, चिंतनीय के साथ  हृदय को रुला देने वाली है । बड़ी ही लगन के साथ कहानी को लिखे हैं। उपर्युक्त कहानी मार्मिक  है ।" अनिल कुमार दुबे , छत्तीसगढ़ सरयू पारीण ब्राह्मण महासंघ, मुग्य पोस्ट आफिस,करगीकला, विलासपुर । पत्र दिनांक 17/11/2000
** ' कथाबिम्ब' में आपकी कहानी 'बांसुरीवाला ' पढ़ी। कहानी हृदयस्पर्शी है । हमारे आसपास बहुत से अपरिचित लोग हमसे कितनी गहराई से जुड़े होते हैं, इसका अहसास हुआ । रचना के चरित्र समाज के विसंगतियों को सामने लाते हैं । अपने परिवेश के उपेक्षित पात्रों पर रचनाएं कम ही पढ़ने को मिलती है। कथ्य प्रस्तुतिकरण हर लिहाज से रचना प्रभावित करती है ।'
मोहन सिंह रावत, रोहिला लाज परिसर, तल्लीताल, नैनीताल 263002 पत्र दिनांक 31/7/2000ंश
** ' बांसुरीवाला ' कहानी में यह पढ़कर " बांसुरी से निकला राग ' यमन' पम्पो और जेनरेटर्स की गड़गड़ाहट के बीच उसी तरह बहकर मेरे पास आता है जैसे किसी बच्चे की किलकारी दु:खो को चीर कर मन हिला देती है । " ऐसा लगता है जैसे पाठक कोई कहानी न पढ़कर कविता की कोई पंक्ति पढ़ रहा है । जब कहानी का नायक ' बांसुरी वाला ' की दास्तान उसके बेटे से सुनकर कहता है " तुम सारी ( बांसुरी ) यहां रख दो, मैं खरीद लेता हूं ।" मैं प्रायश्चित करना चाहता था। यह केवल उसका प्रायश्चित नहीं वरन् सारे समाज का प्रायश्चित है जिसको लेखक ने सशक्त ढंग से व्यक्त करके बहुआयामी बना दिया है -- लघु उद्यमों का विनाश, शोषित वर्ग की अपने कार्य के प्रति तथा कला के प्रति निष्ठा उनकी आर्थिक विपन्नता, पूंजीवादी संस्कृति का विकास जैसे अनगिनत मुद्दे उभर कर आते हैं ।"
कृष्णेश्वर डींगर
-------------------------
' सवाल तथा अन्य कहानियां ' की समीक्षा करते हुए पत्रिका ' तटस्थ ' अंक जनवरी-- मार्च 2004 मे लिखा ।
** " ' बांसुरी वला' कहानी में सुभाषचन्द्र गांगुली ने एक अलग ढंग के कथ्य को नये अंदाज में प्रस्तुत किया है । बांसुरी वाला की मृत्यु पर फिर उसकी जगह उसके बच्चे का बांसुरी बेचना और इस व्यवसाय के प्रति असंतोष की पराकाष्ठा यहां दिखती है । साथ ही ग्राहक के मन के द्वन्द्व को भी यहां विशेष अभीव्यक्ति मिलती है । कला के क्षरण नये खिलौनों के संसार में पुराने और पारंपरिक खिलौने की स्थिति और उससे जुड़े शिल्पकारों की नियति और विडंबनाओं को रेखांकित करने में यह कहानी पूरी तरह कामयाब रही है । "
श्रीरंग ( ' सवाल तथा अन्य कहानियां' की समीक्षा करते हुए श्रीरंग पत्रिका ' विमर्श' 2005 चतुर्थ अंक में ।)

Sunday, June 20, 2021

कहानी- मोक्षदायिनी

कहानी -- मोक्षदायिनी 

सम्पादकीय टिप्पणी --" पाप धोने  वाली गंगा  मिया मे हमारे पाप  इतने  इकट्ठे हो गए  हैं कि अब  वे  पलटकर  हमे ही  सताने  लगे  हैं । गंगा  की गुहार  से  अनजान  अपने  स्वार्थों के लिए हम उसे  मिटाने पर आमादा  है । " -- अनिल सिद्धार्थ , सम्पादक 

जेठ की दोपहर रमादेवी का शव लेकर हम पहुंचे गंगा के तट पर जानलेवा लू. बालू के कण तेज़ हवा के साथ बदन में चुभ रहे हैं. कानों में रूमाल बांधे हुए हूं, सिर पर टोपी और जेब में है प्याज़, घने वृक्ष के नीचे, चबूतरे पर बैठे-बैठे चारों ओर देख रहा हूं. थोड़ी दूर चाय की दुकान पर एक बुजुर्ग श्मशान-बंधुओं के नाम लिख रहे हैं. मैं जाकर लिस्ट देखता हूं. अपना नाम नोट करवाकर लौट आता हूं.

पड़ोसी होने के नाते झख मारकर मुझे आना पड़ा है वरना ऐसी भयंकर गर्मी में मैं कहां आनेवाला. आज इतवार न होता, तो बला टल जाती.

मुझ जैसे ही और चार-छह लोग लोक-लाज की खातिर आ पहुंचे हैं. वे सब अपने-अपने वाहनों से आये हैं. सभी इधर-उधर छितरे हुए हैं.

शव जलना शुरू होने की देर नहीं कि लोक-लाज से बंधे लोग बिना किसी औपचारिकता के चंपत हो जायेंगे. उनकी भी क्या गलती. ऐसे मौसम में किसी की भी तबियब खराब हो सकती है.

रमादेवी की मौत जब भोर रात को हुई थी, तो सुबह-सुबह धूप तेज़ होने से पहले ही अर्थी उठा लेनी चाहिए थी. सूरज सिर के ऊपर आते-आते लोग अपने- रहे. अपने घर लौट गये होते.

रमादेवी के बेटे संतोष का ऐसा ही प्लान था. उसने भाई-बहन को आधी रात में ही खबर कर दी थी कि मां मरणासन्न है, शीघ्र आ जाये. बहन अपने पति के साथ आधी रात ही में आ गयी थी, मगर छोटा भाई राजेश देर से आया और आते ही लाश देखकर भड़क उठा. उसने कहा, 'यह स्वाभाविक मृत्यु नहीं लग रही है. मुंह से फेन निकल रहा है. नाक टेढ़ी हो गयी है. शरीर से दुर्गंध आ रही है. मां को जहर देकर मारा गया है.'

उसकी बातों से सभी लोग हक्के-बक्के हो गये. सभी ने रमादेवी के शव को गौर से देखा फिर संदेह की दृष्टि से संतोष को देखने लगे.

अप्रत्याशित हमले से संतोष के होश उड़ गये. संभलने में उसे थोड़ा सा वक़्त लगा. फिर उसने गुस्सा झाड़ा, 'क्या पागलपने की बात करते हो? तुम्हे मालूम है। तुम क्या कह रहे हो?"

"खूब अच्छी तरह मालूम है. मैंने जो देखा, लोग जो देख रहे हैं मैंने वहीं कहा. यह ज़हरीली लाश नहीं है, तो क्या है ? "

संतोष ने अपना आपा खो दिया, उसने कहा- 'यह तुम्हारी पगलौटी नहीं, तो और क्या?.... हम क्यों मारेंगे उन्हें? क्या था उनके पास? ज़मीन-जायदाद, रुपये-पैसे, सोना दाना कुछ भी नहीं था. पेंशन भी नहीं पूरी तरह मुझ पर डिपेंडेंट थीं. जबकि तुम ज्यादा कमाते हो, दो रुपये देकर कभी मदद नहीं की खोज-खबर तक नहीं ली, महीने भर से वह परेशान थी, पूरे शरीर में बड़े-बड़े दाने निकल आये थे. मुंह के भीतर तक दाने निकल आये थे, खा-पी नहीं सकती थी. राजेश, राजेश रटती रह गयी. मैने दो-दो बार तुमसे कहा कि आकर मिल लो, पर तुम ऐसे लायक बेटे कि झांकने नहीं आये. अब बेसिर-पैर के लांछन लगा रहे हो.

दोनों काफ़ी देर तक एक दूसरे को भला-बुरा कहते

तनातनी ख़त्म करने के लिए बहन और बहनोई ने पहल की. दोनों ने राजेश को अहसास दिलाया कि उसने भारी ग़लती की है. संतोष के सारे रिश्तेदार, पड़ोसी जो भी उपस्थित थे सबने उन दोनों की हां में ही मिलायी. अंततः अफ़सोस जाहिर करते हुए राजेश ने अपनी बातें वापस लीं, माफ़ी मांगी, फिर भी संतोष का मुंह फूला हो रहा.

गंगा किनारे में जिस वृक्ष के नीचे बैठा हुआ हूं यह सड़क से लगा हुआ है. यहां से दस क़दम चलकर बीस बाइस गज बलुआ मिट्टी की काल से उतरकर लगभग एक किलोमीटर ऊबड़-खाबड़ जमीन, दलदल पार कर नदी के पास रमादेवी की अर्थी रखी गयी है. वहीं पर चिता जलायी जायेगी. वहीं दो-तीन गज की दूरी पर गंगा की धार बह रही.

गंगा सूख गयी है. संकरा, सर्पीला, गंदा नाला लग रही है. नदी की चौड़ाई आधी से भी कम हो गयी होगी और गहराई तो इतनी कम कि कुछ लोग तैरते-तैरते डुबकी मारने के बाद उठ खड़े हो रहे हैं. कहीं-कहीं वे लोग थोड़ा बहुत पैदल चलते हुए दिख रहे हैं.

हवा इतनी तेज़ है, किंतु नदी का जल ठहर-सा गया है. कहीं कोई लहर नहीं. तेज़ हवा के दौरान तालाब में जिस तरह की तरंगें उठती हैं बिल्कुल वैसी ही तरंगें दिख रही हैं.

दक्षिण दिशा में पचास गज़ की दूरी पर एक सुअर मरा पड़ा है. कुत्ते उसे नोच रहे हैं. एक दूसरे को ठेल कर आगे बढ़ने की होड़ है उनमें मंदिरों के सामने प्रसाद लेने का दृश्य मेरी आंखों के सामने आ जाता है.

के थोड़ी-थोड़ी देर बाद लू के साथ सड़ांध का थपेड़ा मेरी नाक के भीतर से दाखिल होकर अंतड़ी में कंपन पैदा कर रहा है. गंगा के उस छोर पर दुनियादारी से बेखबर बीस-पच्चीस भैंसें दलदल और अल्पजल में कलेजे को शीतल कर रही हैं. और नदी के उस पार खुला मैदान दूर क्षितिज में जाकर मिल गया है. धू-धू करती दस-बीस फीट ऊंची उठती हवा बादलों का आकार लेकर लहरा रही हैं जो अभी तक अप्रदूषित है. गंगा प्रदूषण इकाई के पास मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा है. 'गंगा मइया, जीवन दइया, इसे बचाओ बहना
भइया.' और 'भागीरथी करे गुहार मुक्त करो गंगा की धार.'मगर गंगा मइया को भाई-बहन सब मिलकर कैसे बचायेंगे ? किस तरह से मुक्त होगी, गंगा की धार? उपाय कहीं नहीं लिखा है, मुझे याद आता है कि इलाहाबाद, कानपुर, वाराणसी, मुरादाबाद, कन्नौज, गढ़ मुक्तेश्वर कहाँ भी सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट नहीं है, सभी जगहों के नालों का पानी सीधे गंगा में विलीन हो जाता है. क्या करेंगे बहना भइया ?

और लाशें? लाशें तो जलेंगी ही, और लकड़ियों पर ही जलेंगी. क्योंकि बात आस्था की जो है. आस्था की ही बात है कि जहां रमादेवी का दुबला-पतला शरीर तीन मन लकड़ी से जल सकता है वहां टालवाला तथा महाराज ने रमादेवी के बेटों को कनविंस कर लिया कि सात मन लकड़ी जलाने से अधिक पुण्य मिलेगा, चंदन काठ जलाने से पुण्य और भी बढ़ जायेगा. इस कारण से से बेटों ने एक मन चंदन और छह मन चीर ख़रीद लिया. सारा जलाशेष नालानुमा गंगा में बहा दिया जायेगा. बहाया जायेगा और भी बहुत कुछ.

शव जलाने के स्थान से सौ गज़ की दूरी पर नहाने की व्यवस्था है. वहीं लोग पानी में उतर कर मंत्र पढ़कर सूर्यदेवता को प्रणाम करते हैं, डुबकी लगाते हैं. डुबकी लगाते और नहाते समय दोनों हाथों से जली-भुनी लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़े, गुलाब के पत्ते, प्लास्टिक पन्नियां, टहनियां आदि कचरा हाथों से हटाते रहते, कदाचित मुंह में आ जाने से मुंह साफ़ करते, कुल्ला कर लेते हैं. जल के भीतर दोनों हाथ डालकर अंजुरियों में जल लेकर आचमन करते और गला सूखने पर प्यास भी बुझा लेते हैं.

वहीं जल के भीतर जहां तक हाथ जाये बोतल डालकर गंगाजल भर कर ले जाते हैं. सब का ख्याल है कि भीतर का जल स्वच्छ है, अमृत है. नित्य गंगा-स्तुति पाठ करनेवाली, सुबह-शाम पूजा उपरांत गंगाजल पीनेवाली प्रति एकादश तथा महान पर गंगा स्नान करने वाली बात-बात पर गंगाजल छिड़ककर घर को शुद्ध करने वाली, गंगा में विसर्जित होकर मोक्ष की प्राप्ति पर विश्वास रखनेवाली रमादेवी की खुशियों का कोई ठिकाना तब न था, जब सालभर पहले उनके बेटे संतोष ने गंगा के पास राधानगर कॉलोनी में मकान बनवाया और मां को अपने साथ ले आया था.

वह कहती गंगा मइया की कृपा से ही संतोष का निजी मकान बना, गंगा की कृपा से उन्हें नित्य गंगा- दर्शन और गंगा स्नान का अवसर मिला.

मगर रमादेवी को कभी-कभार हल्का-फुल्का बुखार आता, बदन में छोटे-छोटे दाने निकलते फिर ठीक भी हो जाती. दो-चार दिन गैप देती फिर गंगा स्नान करने लगती. संतोष ने मां को कई बार समझाया उन्हें पैंसठ वर्ष की उम्र में नित्य गंगा स्नान नहीं करना चाहिए, सेहत का ख्याल रखना चाहिए, वैसे भी गंगा इन दिनों काफ़ी मैली हैं मगर गंगा-उपासक रमादेवी कहां सुननेवाली. गंगा महिमा बखान करने लगती. वह कहा करती नित्य गंगा स्नान करने वाले रोग मुक्त रहते हैं. उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती हैं.

फागुन का महीना था. शहर में चेचक और हैजा फैला हुआ था. रमादेवी के बदन में भी छोटे-छोटे दाने निकल आये. रमादेवी ने नहाना, धोना बंद कर रखा था. मां शीतला की पूजा की मत्रत रखी.

दो चार दिन बाद दाने बड़े-बड़े नज़र आये, शरीर के अंग-अंग में फैल गये. रमादेवी ने खुद को घर के एक कोने में क़ैद कर लिया, खजुवाहट से आरास पाने के लिए नीम की पत्तियां मंगवा ली. बीच-बीच में वह अपने ऊपर दो चार बूंद गंगाजल छिड़क लेती और गंगाजल के दो-चार घूंट भी जाती.

किंतु तकलीफ़ कम होने के बजाये बढ़ती गयी. मुंह के भीतर तक दाने निकल आये, मुंह पर छाले दिखने लगे. आहार पर विराम लग गया. तरल पदार्थ भी मुश्किल से ले पाती. उस पर भी वह डॉक्टर बुलाने का विरोध करती रही, बार-बार यही कहती रही कि बड़ी माता है ठीक होने में समय लगता है, इस बीमारी में डॉक्टर का कोई काम नहीं है. मगर संतोष ने अंततः मां की नहीं सुनी और घर पर डॉक्टर बुला लाया.

डॉक्टर ने कहा कि उन्हें किसी चीज़ की एलर्जी हो गयी है, संभव है कि जल से इन्फेक्शन हो गया हो. वैसे किस चीज़ की एलर्जी है यह खून, पेशाब, खाद्य पदार्थ आदि तमाम परीक्षण के बाद ही पता चल पायेगा. उन्होंने एक मरहम लिख दिया. कुछ एंटी एलर्जी दवाइयां लिख दीं और किसी चर्मरोग विशेषज्ञ को दिखाने की सलाह दी. रमादेवी अपनी ही बात पर अडिग थी. मगर संतोष ने डांट डपटकर, ज़ोर-ज़बरदस्ती कर बहू से मरहम लगवा दिया और दवाइयां पानी में घोलकर पिला दी.

तीन दिनों तक दवाइयों का कोई असर न होते देख, मौत से दो दिन पहले संतोष ने चर्मरोग विशेषज्ञ बुलाया. उन्होंने कहा रमादेवी को त्वचा रोग हो गया है जो अक्सर पानी या कीचड़ या किसी अन्य गंदी चीज़ से हो जाता है. समय रहते पकड़ में आ जाने से हालात इतनी खराब न होती. उन्होंने संतोष को लापरवाही बरतने के लिए भला बुरा कहा. मरहम तथा दवाइयां जारी रखी. कुछ जांच परीक्षण की बात कही, और कहा कि शरीर पर किसी प्रकार का पानी का इस्तेमाल न किया जाये, न ही मुंह, सिर धुलाया जाये. पीने और मुंह पोंछने के लिए कुनकुने पानी का प्रयोग किया जाये.

संतोष ने घबराते हुए कहा, 'डॉक्टर साब! मां बात नहीं सुनती रोने लगती है. कहती है बड़ी माता है, गंगाजल छिड़कती है, पीती भी है देखिए कितनी सारी बोतलें..."

एक बोतल उठाकर डॉक्टर ने कहा- 'इसमें भी गंगाजल है? तलछट में मिट्टी की कितनी मोटी परत है, देख रहे हैं.'

रमादेवी ने बुदबुदाया- 'ये डॉक्टर लोग न गंगा नहाते न पूजा करते हैं, ये क्या जाने? गंगा का पानी अमृत हैं. सालों खराब नहीं होता."

डॉक्टर को हंसी आ गयी. उन्होंने कहा- 'माताजी आप इस समय थोड़ा सा सहयोग कीजिए. गंगा की कृपा से आप ठीक हो जायेंगी, फिर स्नान करना, जल भी पीना. हो सकता 'बड़ी माता' ही निकली है, परीक्षण के बाद ही पता चल पायेगा. थोड़ा सा धीरज धरिए.'

शव जलने, नहाने-धोने, सारा काम संपन्न होते-होते सूरज ढल गया. दूर-दूर तक इक्के-दुक्के तारे भी दिखने लगे. लू का प्रकोप अभी भी खत्म नहीं हुआ, हवा अभी भी गर्म है. इस गरमी में दिन भर धूप में तरबूज, खरबूजा, खीरा, ककड़ी, आम पना, गन्ना रस आदि बेचनेवाले तथा दिनभर सवारी ढोने वालों की रोटी की क़ीमत क्या होती

होगी यह कुछ-कुछ मुझे समझ में आया. जब हम घर लौटे तो संतोष की पत्नी ने कागज़ात देकर संतोष से कहा- 'ये डॉक्टर साहब ने भिजवाया है. कागज़ों को ध्यान से पढ़ने के बाद संतोष ने कहा, 'गंगाजल की जो बोतलें डॉक्टर साहब परीक्षण के लिए ले गये थे, उनमें विषाक्त कीटाणु पाये गये हैं.'

© सुभाष चंद्र गांगुली
( "मोक्षदायिनी" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2021)
-----------------------------
* "अमर उजाला" Sunday आनंद ( रविवार 20 जून  2012 )
* पत्रिका "कथाबिम्ब " सम्पादक- अरविन्द सक्सेना, अप्रैल-जून 2011



कविता- जहां गली गली में नेता


 जहां गली गली में नेता
 घर  घर  अभिनेता,  
 भूले  जहां  लोग तिरंगा
 लहराये झंडा एक दो रंगा :
 नुक्कड़ नुक्कड़ जहां हो गंदा
 गंगाजल भी हो जाए गंदा :
 ईश्वर अल्लाह में हो भेदभाव
 धर्म जाति के नाम हो टकराव,
 सरकारी माल जहां हो अपना
 और रामराज  हो महज एक  सपना
 वह  महान देश है अपना  ।

 वह प्यारा देश है अपना
 जहां मेरा तेरा, तेरा मेरा 
 घर आंगन करे बंटवारा :
 जहां कालाधन हो सबका प्यारा
 जहां जनतंत्र गणतंत्र मनतंत्र
 में छिपा हुआ हो षड़यंत्र :
 और बूढ़ा हो रहा हो प्रजातंत्र
 जहां राजनीति हो सबसे बड़ा यंत्र :
 वह प्राण प्रिय देश है अपना
 सबका प्यारा सबसे न्यारा
 वह  महान देश है अपना  ।।


© सुभाष चंद्र गाँगुली 
-------------------------------
       20/11/1997

("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)

Wednesday, June 16, 2021

कविता- द्वन्द्व


एक हाथ कहता 
कर्म करो
दूसरा कहता 
भरोसा रखो
एक पैर कहता
आगे बढ़ो
दूसरा कहता
पीछे रहो
एक नयन कहता
गौर करो
दूसरा कहता
नज़र अंदाज़ करो
एक कान कहता
तुमने सुना
दूसरा पूछता 
क्या कहा ???
एक दूजे के 
द्वन्द्व में
छूट गयी जिंदगी
मझधार में । 

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)

Monday, June 14, 2021

कहानी- आखिरी लाइन



डॉक्टर राय का इंतकाल हो गया। उनके बेटे नरेश को मैंने ख़बर दी। लगभग एक घंटे बाद वह एक डॉक्टर लेकर आ पहुँचा। उसकी बनावटी सूरत देख मुझे गुस्सा आ गया।

'अब डॉक्टर साहब क्या करेंगे? ही इज डेड। मैंने कहा।

'वह मेरे पिता हैं। आपसे ज्यादा फिक्र मुझे थी, और है। आज भी वह ठीक थे। मेरा नौकर देखकर गया था। नरेश की आँखें अँगार हो गई।

'आई एम सॉरी। मेरे कहने का मतलब यह नहीं था। मेरे मुख से यूँ ही निकल पड़ा था। दरअसल मैं.... मैंने मैनेज करना चाहा।

'डॉक्टर काइंडली आप जरा ठीक से देखिए ना! शायद अभी भी....आप अगर कहें तो किसी नर्सिंग होम में....

'ले जा सकते हैं। तसल्ली हो जाएगी बट ही इज नो मोर। पल्स नहीं मिल रही है, बॉडी स्टिफ है। लगभग आधा घंटा या पौन घंटा हुआ होगा।

-जी हाँ, पूरा एक घंटा हुआ है। मरते समय वह एकबारगी सक्रिय हो गए थे। पिछले दो दिनों से मृत लग रहे थे. बूँद-बूँद पानी ही ले सके थे। मैंने उन्हें तिल-तिल मरते देखा। पहले बोलना बंद हुआ था. फिर देखना, फिर सुनना। इस बार मैंने जानबूझ कर कहा और नरेश को देखकर मन ही मन कहा 'अब बोलो'। नरेश का चेहरा तमतमा उठा। दाँये बाँये देख उसने कहा-डॉक्टर साहब! आपका आना फिर भी जरूरी था। श्मशान में और अन्य कई जगह डेथ सर्टिफिकेट देना पड़ेगा।'

वृद्ध डॉक्टर ने नरेश को आँख फाड़कर देखा फिर 'चलता हूँ, सर्टिफिकेट ले जाइएगा' कह कर तेज डगों से निकल गए।

नरेश अब काफी व्यस्त हो गया। उसने एक के बाद एक कई फोन किए। उसने दोनों भाइयों से कहा कि वह उनके आने का इंतजार करेगा, अगले दिन अर्थी उठेगी।

नरेश ने पिता के प्राचीन जंग लगे भारी ट्रंक, चमड़े की बेढब, वृहद जर्जर अटैची, खादी का झोला, यहाँ तक कि कपड़े-लत्ते, कापी-किताब और दवाइयों के पैक्टों को उलट-पलट कर देखा। ढेर सारे सिक्के समेत तेइस हजार चार सौ सत्तावन रुपया निकला। नरेश ने नोटों को जेब में भरा और फुटकर ट्रंक में डाल दिया।

'आज छब्बीस तारीख़ है ना?' नरेश ने पूछा।

'आज तक की पेंशन का पेमेंट कैसे मिलेगा? आपके दफ़्तर का

मामला है, आपको मालूम होगा।"

'सक्सेशन सर्टिफिकेट देना पड़ेगा।"

'सक्सेशन सर्टिफिकेट ? मात्र सत्ताइस दिन के लिए?"

"उन्होने ढाई साल से पेंशन नहीं लिया था।"

'क्या ???... यह कैसे संभव है ?.... उनका सारा खर्च? इतनी प्रैक्टिस तो नहीं थी....'

'पता नहीं। यह आपका घरेलू मामला है।'

'एफिडेविट से काम हो जाना चाहिए। मैं जिम्मेदार पद पर काम

करता हूँ।'

'पद-वद से मतलब नहीं रहता। नियम सबके लिए एक है....सर्टिफिकेट पाने के लिए पंद्रह-बीस हजार खर्च करना पड़ेगा, हो सकता है कुछ ज्यादा भी लगे।"

'पंद्रह-बीस हजार क्यों?"

'कुछ तो फीस, बाकी 'कर्टसी'..... सर्टिफिकेट में आप तीनों भाइयों का नाम रहेगा।'

कुछ देर बाद नरेश ने डाकघर बचत खाता दिखाकर कहा

'इसमें साढ़े चार हजार हैं यह रकम डूब जाएगी ना?" 'पता नहीं। डाकघर में पूछिएगा, शायद किसी के नाम नामिनेशन हो।'

'ओहो! याद आया, इसे मैंने ही खुलवाया था। पुराना अकाउंट है, इसका नामिनी मैं ही हूँ....वकील से बात करनी पड़ेगी। बचत खाते का नामिनी मैं अकेला हूँ यानी पिताजी ने सिर्फ मुझे वरिस माना था, और हो भी क्यों न मैं अकेला ही देखभाल किया करता था.... एफिडेविट देकर अपील करूँ तो?"

'नहीं मिलेगा। सक्सेशन सर्टिफिकेट के बगैर एक ढेला नहीं मिलेगा। पोस्ट आफिस सेविंग अकाउंट के नामिनेशन का अर्थ यह नहीं है कि आप अकेले वारिस हैं।'

'अजीब बात! बचत खाते के लिए मैं अकेला बाकी के लिए मैं अकेला नहीं ऐसा नहीं हो सकता।"

"ऐसा ही है।'

'वकील से बात करूंगा.....आपको जल्दी तो नहीं है? थोड़ी देर में मेरे दफ़्तर के लोग आ जाएँगे। 'नहीं। जहाँ सत्तर घंटे वहाँ सत्तर मिनट और सही। तीन दिन से हिल नहीं पाया।

सात दिन पहले जब में डॉक्टर साहब से मिलने आया था तभी पता चला था वे एक माह से बिस्तर पर थे। उनकी हालत नाजुक थी। मैंने जब हमदर्दी जतायी तो वे अत्यंत भावुक होकर बोले- घर-दुआर-संसार सब कुछ होते हुए भी आज मैं अकेला हूँ, एकदम अकेला हूँ. आठ कमरों का यह मकान और मैं अकेला, एकाकीपन का दंश मुझे बुरी तरह डस रहा है। रात को अक्सर सिहर उठता हूँ. छोटी-छोटी आवाज भी भय का कारण बनती है....अकेलापन इंसान को भीरु बना देता है, आत्मविश्वास निकल जाता है....नरेश का नौकर दिन में दो बार आता है, छोटा-मोटा काम उसी से करवा लेता हूँ, सामने ढाबे से खाना भी ला देता है.... अब तो बस जब शरीर की घड़ी रुक जाए.......

'आपको देखकर नहीं लगता कि आपके दिन गिने हैं, आप और जिएँगे। मैंने सान्त्वना देनी चाही।

'मेरी दीर्घायु की कामना करके मुझे फ्रस्ट्रेट मत करो, यह कामना मेरे लिए बददुआ है....तुमसे एक रिक्वेस्ट करता हूँ, तुम अगर थोड़ा सा वक्त मेरे पास रहा करो! ज्यादा कष्ट नहीं दूंगा। हर पल मौत को क़रीब आते देख रहा हूँ, हर साँस में उसे अनुभव कर रहा हूँ।'

"मैं आऊँगा। अवश्य आऊँगा। मुझे अच्छा लगेगा। जब मैं छोटा था, मेरे पिताजी चल बसे थे....'

कुछ संकोचवश और कुछ मोहवश मै अधिक से अधिक समय डॉक्टर साहब को देने लगा। उस दौरान उन्होंने ढेर सारी आपबीती सुनायी। उनकी उन तमाम बातों से मुझे लगा कि उनके मन में 'लाइन लगाने की गहरी पीड़ा थी। विश्वयुद्ध के बाद गेहूँ, चावल, तेल, चीनी, कोयला आदि के लिए कंट्रोल में लाइन लगाते-लगाते उनका बचपन बीता था. पढ़ाई का नुकसान हुआ था। जवानी में भारत-चीन, भारत पाकिस्तान युद्धों के बाद हरेक सामान यहाँ तक कि टायर, ट्यूब और मछली के लिए इतनी अधिक लाइन लगानी पड़ी थी कि उसके चक्कर में उनके सारे अर्जित अवकाश खत्म हो गए थे। और तो और बुढ़ापे में भी लाइन से राहत नहीं मिली। बिजली बिल, टेलीफोन बिल, हाउस टैक्स, वाटर टैक्स, इनकम टैक्स और पेंशन के लिए दिन-दिन भर ट्रेजरी में लाइन लगाते-लगाते उन्हें कमर दर्द की बीमारी हो गई। अत्यंत दुःखी .होकर उन्होंने कहा- 'लाइन सिस्टम ने मुझे इतना कष्ट दिया कि दो वर्ष से ज्यादा बल्कि ढाई वर्ष से मैंने पेंशन नहीं उठायी।'

'आपको शायद पेंशन की जरूरत नहीं पड़ी। पच्चीस-तीस मरीज रोजाना देख लेते होंगे।

'हाँ इतने लोगों को तो देख ही लिया करता था बल्कि ज्यादा ही। अकेला आदमी, जरूरत ही कितनी...जब तक बूढ़ी थी, दो पैसे की जरूरत थी....अच्छा हुआ वह पहले चली गई. वह रहती तो सुकून से मर नहीं पाता।'

"आप कहें तो पेंशन ड्रा करने में मैं आपकी मदद कर सकता हूँ।'

"नहीं, पेंशन लेने के लिए मुझे स्वयं वहाँ हाजिर होना पड़ेगा। साल में एक बार 'लाइफ सर्टिफिकेट के लिए हाजिर होना जरूरी है। अब तो मैं चलने-फिरने की स्थिति में नहीं हूँ। लाइन से छुट्टी नहीं मिल रही थी. मैंने खुद ही अपनी छुट्टी कर ली।"

'मगर यह आपने ठीक नहीं किया। दो साल की पेंशन दो-ढाई लाख, फोर्थ पे कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार 1986 से पहले के रिटायर्ड लोगों का रिवीजन का एरियर भी ढाई-तीन लाख यानी करीब पाँच-छह लाख डूब सकता है।'

'सरकारी पैसा डूबता नहीं है।'

'पेंशन रिवाइज करवा लेना आसान काम नहीं है। अभी भी बहुतों का नहीं हो पाता है। आप ही करवा सकते थे। आपका अपना दफ्तर है। सबसे जान-पहचान है। हाँ थोड़ा सा लगना पड़ता, लिखा-पढ़ी करनी पड़ती मगर आपके लड़के दौड़-धूप कर रुपए खर्च कर काम करवा लेंगे इसमें मुझे संदेह है।'

'सब कुछ करवा लेंगे...रुपए की बात है।"

'चाहे सक्सेशन की बात हो या पेंशन रिवीजन का मामला हो, ढेर खर्च होगा। पाँच-छह लाख पाने के लिए पचास-साठ हजार खर्च करना पड़ सकता है....कौन देगा? राकेश-मुकेश बाहर हैं। नरेश कहेगा उसके पास समय नहीं है। वह किसी को लगाएगा और उस पर शक भी करेगा, कहीं ज्यादा न ले ले। फिर पहले रुपया देना पड़ेगा, कौन किसके हाथ देगा? रूपया देते समय सोचेगा कहीं डूब न जाए। अगर नरेश काम कराये तो दोनों भाई कहेंगे जब रकम मिलेगी तब वे अपना-अपना शेयर दे देंगे। नरेश को भरोसा नहीं होगा। इस गोरख धंधे में मामला लटका रहेगा। मैं समझता हूँ। आपका रुपया डूब ही जायेगा।

"क्या डूबेगा डूबेगा की रट लगाए हो? कुछ नहीं डूबेगा। लड़के ले ही लेंगे। पैसा है भाई पैसा कोई नहीं छोड़ता। न किसी का ज्यादा होता है। और न ही यह किसी को काटता है... इन पैसों को लिए मैंने बहुत लाइन लगायी है. अब वे भी लाइन लगाएँ दौड़ें मेरी मौत के बाद ही सही, हो सकता है पैसों के लिए भाई-भाई में मेल हो जाए।'

'फिर भी आप कहें तो मैं कोशिश कर सकता हूँ, आपको कहीं जाना नहीं पड़ेगा।

'रहने भी दो मुझसे जितना हुआ मैंने बच्चों के लिए किया, जब वे विमुख हो गए तो मेरा मन उचट गया.....नरेश अशोक नगर में सोलह लाख का फ्लैट खरीद कर चले जाने का प्लैन कर रहा था, मुझे जब पता चला कि वह एच० डी० एफ० सी० से दस लाख लोन लेने वाला है तो मैंने सोचा वह जीवनभर लोन में फँसा रहेगा, उसे कष्ट होगा, मैंने उसे इस प्लाट से दो सौ गज जमीन दे दी और उससे कहा कि वह मनपसंद मकान बनवाकर यहीं रहे....उसे भारी कर्जे से बचा लिया और सोचा बुढ़ापे में माँ-बाप को देख ही लेगा, हमारा सहारा बनेगा.... इससे मुकेश और राकेश इस क़दर मुझसे खफा हो गए कि वे जमीन-जायदाद रुपए-पैसे की बँटवारे की बात करने लगे, बहुएँ भी जब-तब फोन करके खरी खोटी सुनात.....अरे भाई दस बिसवा जमीन में से मात्र दो सौ गज उसे दिया है, तुम्हारा ही छोटा भाई है, वह पास रहेगा तुम्हारे ही माँ-बाप का भला होगा, कर्ज में डूबेगा भी नहीं, कौन सा गुनाह किया ?..... दोनों के बेहूदापन से तंग आकर दोनों को एक-एक लाख देकर चुप कराया...राकेश जुनियर इंजीनियर है जितनी तख़्वाह है उसकी दुगनी ऊपरी कमाई है, पैसा ही पैसा, क्या नहीं है उसके पास? मुकेश का अपना धंधा है, अच्छी कमाई है, उसकी सास को मायके से ढेर संपत्ति मिली है। सब मुकेश को मिलनी है...दोनों की तुलना में नरेश जरा कमजोर है, कर्जा करता तो उसका भट्टा बैठ जाता। बताओ एक टुकड़ा जमीन देकर मैंने गुनाह किया था?'

'नहीं....मगर डॉक्टर साहब! नरेश भी तो झाँकने नहीं आता, उसका पास रहना और न रहना....चलिए कम से कम अपना नौकर तो भेज देता है।

'ऐसे नहीं आता है, पैसा देकर रखा है उसे दिन में दो बार आता है, घड़ी देखकर दिन में आधा घंटा पौन घंटा रहता है, बीस रुपया रोजाना हिसाब, दो सौ रुपया एडवास देना पड़ा, उसने सोचा होगा कहीं बुड्ढा मर गया तो रुपया नहीं मिल पायेगा। अपना नौकर गाँव गया है, उसका बाप मर गया है।'

'फिर भी पास रहने से कुछ तो सहारा है ही, वैसे वह अधिकारी है समय की कमी रहती होगी....'

'दगा दे दिया। बेईमान निकला। उसे मालूम था उसके अलावा मेरी गति नहीं है। वह मुझे ब्लैकमेल करने लगा।

'ब्लैकमेल ? मतलब ??"

'हाँ. इसे इमोशनल ब्लैकमेलिंग कहते हैं। वह जब-तब मुझसे किसी न किसी बहाने रुपया माँगता, कभी पोते को लगा देता। बाप हूँ. दादा हूँ, मन पिघल जाता मैं दे देता....तुम किसी को चाय दो वह नाश्ते की उम्मीद करेगा, बैठने की जगह दो वह सोने का जुगाड़ करेगा, हम हिंदुस्तानियों को मुफ्तखोरी बहुत सुहाती है....एक बार नरेश तीन लाख माँग बैठा। मेरे पास जो पूँजी थी उसे मैं बुरे दिनों के लिए रखे हुआ था, पता नहीं कब कैसी जरूरत आ पड़े, मैं देना नहीं चाह रहा था, वह मेरे पीछे पड़ गया, मैंने कहा मेरे और भी दो बेटे हैं वैसे ही वे मुझसे ख़फ़ा हैं, उसने कहा वह किसी से कुछ नहीं कहेगा, मैंने नहीं दिया....बस वह इतना रूठ गया कि आना-जाना बंद कर दिया, बोलता तक नहीं। उसकी बीबी भी। वे दोनों इतने निष्ठुर हैं कि मेरे पोते को भी मुझसे अलग कर दिया....न राकेश मेरी ख़बर लेता है न मुकेश... अकेला दुनिया में आया था फिर अकेला हो गया हूँ, मैं तो कभी का मर चुका....अब जल कर राख होना शेष है।'

मौत की सूचना भेजने के एक-दो घंटे के भीतर अनेक लोग आ पहुँचे। आने वालों में ज्यादातर नरेश के दफ़्तर के लोग थे। अधिकारी, बाबू, चपरासी, डेली लेबर। उन सबों ने मिलकर नरेश की सारी जिम्मेदारी संभाल ली। रात जगने से लेकर लाश उठाना, दाह-संस्कार. यहाँ तक कि तेरही की जिम्मेदारी बँट गई। न किसी ने रुपए-पैसे की बात की और न ही कोई मुँह ताके खड़ा रहा।

अगले दिन सुबह-सुबह राकेश आ पहुँचा। जैसे ही उसे पता चला कि बड़ा भाई मुकेश नहीं पहुँचा है तो उसका पारा चढ़ गया। उसने कहा 'दिल्ली से मैं आ सकता हूँ लखनऊ इतना पास होते हुए भी मुकेश भाई साहब नहीं आये अभी तक? उन्हें तो कल ही आ जाना चाहिए था।

'आते ही होंगे। उन्हें मालूम था तुम आज आओगे। शायद रास्ते में हों। 'नरेश ने कहा।

'सुनो! हम जल्दीबाजी में चले आये हैं रुपया-पैसा नहीं ला सके अगली बार जब आऊँगा, ले आऊँगा, मेरे हिस्से जो आयेगा... पिताजी रुपए-पैसे छोड़ कर गए कि...'

'पता नहीं। अभी देखा नहीं शायद ही कुछ मिले। रेगुलर प्रैक्टिस तो करते नहीं थे....पेंशन पाते ही थे। जब से बिस्तर पकड़े सारा खर्च मैंने ही किया। उसका हिसाब रखा नहीं।'

समय निकलता जा रहा था। लोग अधीर हो रहे थे। बर्फ पिघलती जा रही थी। पूरे कमरे में पानी फैल रहा था, एक लेबर पोंछा लगाने, शव पर इत्र छिड़कने तथा अगरबत्तियाँ सुलगाने में लगा हुआ था। गुलाब की पत्तियाँ चारों ओर फैल चुकी थीं. सुबह से पावर कट' के कारण कमरे में भीषण ऊमस थी, मक्खियाँ भिनभिना रही थीं, हवा में दुर्गन्ध तैर रही थी, लोग शव के निकट जाने से कतरा रहे थे।

राकेश और नरेश दोनों पोर्टिको में बैठ बातें कर रहे थे। पाँच-सात हाथ की दूरी पर मैं कइयों से बात कर रहा था। मेरी पीठ दोनों भाइयों की और थी। यूँ तो दोनों भाई खुसुर-फुसुर कर रहे थे पर उनका वॉल्यूम इतना था कि मैंने उनकी सारी बातें सुन लीं। राकेश ने कहा-'जब से आया हूँ देख रहा हूँ सफेद कमीज पहना आदमी कुछ ज्यादा दिलचस्पी ले रहा है। कौन है ? क्या करता है?

'यहीं कहीं रहता है। इसी मोहल्ले में कहानी-ओहानी लिखता है। पिताजी इसकी कहानियों के कायल थे।

"तुमने इसकी कोई कहानी पढ़ी?'

"नहीं। फुरसत कहाँ? कभी-कभार समय मिलता तो टी. वी. देख लेता हूँ। किताब-सिताब अब कौन पढ़ता ?'

'किताबी कीड़े पहले भी कम थे आज भी कम हैं। हो सकता है एकाध प्रतिशत घटा हो। पढ़ने वाले पढ़ते ही हैं वर्ना लोग लिखना बंद कर देते। साहित्यकारों को खासतौर से कथाकारों को दूर ही रखना चाहिए. ऐसे लोग ख़तरनाक होते हैं, घर-घर के छेद उजागर करते हैं।'

है ही क्या जो उजागर करेगा ?"

'तुम्हें और हमें छेद दिखाई नहीं पड़ता पर है नहीं क्या? घर-घर में है। आज का युग इतना जटिल है शायद ही कोई बचा हो....ऐसे लोग जल्दी छेद ढूँढ़ लेते हैं और अगर छेद छोटे-छोटे हो तो मनगढ़ंत कहानियाँ गढ़ कर बड़ा बना लेते हैं।'

'अगर हर घर में छेद हो तो डर किस बात का? लिखने दो जो

मर्जी...वैसे अब वह आयेगा भी नहीं।

नरेश के दफ़्तर के आज्ञाकारी लोग अब धीरज खोने लगे। सभी लोग अर्थी उठाने की बात करने लगे। राकेश ने मुकेश से बात करने की आख़िरी कोशिश की और वह सफल हो गया।

"मैं राकेश! सुबह से फोन मिलाते-मिलाते थक गया हूँ. कभी घर पर कभी दुकान पर, आप अभी भी वहाँ क्यों? उधर लाश बदबू कर रही है।....

'अरे! अभी भी अर्थी नहीं उठी?"

"आपके बगैर?"

'स्ट्रेंज! मुझे अगर आना होता तो कल ही न पहुँच गया होता?'

'ऐसी कौन सी आफ़त आ पड़ी?"

'सास की तबीयत ठीक नहीं है।'

'सास! सास की तबीयत !! मरी तो नहीं? मर भी गई होती तो भी क्या? पिता से ज्यादा?"

'ह्वाट? मुझे नसीहत दे रहे हो? छोटा मुँह बड़ी बात? मुझे मालूम है कब कहाँ क्या करना है।' 'आपको पिता को मुखाग्नि देनी चाहिए, आप सबसे बड़े हैं, मुखाग्नि का अधिकार आपको है....अभी भी आप अगर टाटा सुमो से....'

"मैंने कहा न मैं नहीं आ पाऊँगा, तुम दोनों में कोई भी कर दो, इसमें छोटा-बड़ा क्या? पिता पर सबका समान अधिकार रहता है। पिताजी का मकान, जमीन बेचना पड़ेगा, हम तीनों का बराबर का हिस्सा रहेगा या छोटा-बड़ा देखा जाएगा?.

....हाँ हाँ सुनो! जरूरी बात, मैंने पिताजी से कहा था नरेश की जमीन की कीमत पाँच-छह लाख है, हमारे साथ अन्याय हुआ है, मैंने उनसे कहा था मकान मेरे और तुम्हारे नाम लिख दें, वह राजी हो गए थे. तुम कागजात देख लेना नरेश गड़बड़ न करने पाये, महाधूर्त है।'

'ठीक है, मगर भाई साहब...."

'ओ. के. तेरहीं पर मुलाकात होगी। बाई।

मैंने सोचा मैं उन दोनों से कह दूं कि पुस्तैनी जमीन पर पचासों केले के पेड़ जो खड़े हैं और उनमें जो सैकड़ों केले दिख रहे हैं उनमें से एक केला भी नहीं मिल पायेगा तुम सब को, तुम लोगों ने डाक्टर साहब को इतना क्लेश दिया था कि उन्होंने मकान, जमीन, पाँच लाख फिक्स्ड डिपाजिट 'वृद्धाश्रम' के उद्देश्य से एक संस्था के नाम कर दिया था। मैं ही वकील बुला लाया था।

लगभग दो बजे डेड बॉडी लेकर हम सब श्मशान पहुँचे। श्मशान से बहुत पहले ही सारी गाड़ियाँ रोक दी गयीं। दूर से हजारों लोगों की भीड़ देख हम सब हैरत में पड़ गए। मैंने सोचा डॉक्टर साहब स्वतंत्रता सेनानी थे. सुबह अखबार में ख़बर छपी थी शायद उसी वजह से हम सब तरह-तरह के कयास लगा रहे थे कि नरेश के दफ्तर का बाबू, जिसे श्मशान की जिम्मेदारी दी गई थी. आकर बोला- इतना बड़ा शहर और मात्र दो बर्निंग घाट हैं, दूसरे वाले में कोई जाता नहीं है। इन दिनों नदी दूर खिसक गई है, मीलों पैदल चलना पड़ता है। डेड बॉडी जलाने के लिए इलेक्टिक मशीन है मगर उसका रहना, न रहना दोनों बराबर, जब देखिए तब ख़राब पता नहीं हक़ीकत क्या पर सुनते हैं लोगों का धन्धा चौपट होता है इसलिए जानबूझ कर मशीन को ख़राब रखा जाता है.....

नरेश के नीचे के अधिकारी ने फटकारा-'शॉर्टकट, शॉर्ट में. फ़ेहरिस्त देने की. बकबक करने की बुरी आदत पड़ गई है. फाइलों में भी फ़ालतू लिखते हो, जल्दी बोलो।

बाबू बोला-'सॉरी सर! पिछले तीन-चार दिनों से हैजा के कारण
अनेक लोगों की मौत हुई है, लाइन लगी हुई है, डॉक्टर साहब का टोकननंबर है तिरसठ। घंटों लाइन में रहना पड़ेगा।

"फिर लाइन??"

नरेश और राकेश ने मुझे अवाक् होकर देखा। मैंने बाबू से पूछा- इस समय कौन सा नंबर चल रहा है?'

'इस समय प्रदेश के नेता महंत श्री श्री एक सौ आठ भीम जी महाराज जिनके ख़िलाफ़ अदालत में सेक्स स्कैंडल की सुनवाई चल रही थी, जल रहे हैं। वह वी. वी. आई. पी. थे, उनका नंबर नहीं है। उसके बाद शायद सत्ताइस नंबर होगा।"

नरेश ने जुनियर ऑफिसर पर गुस्सा उतारा- सब कुछ मिसमैनेज्ड है। किसी रिसपानसिबल आदमी को लगाना चाहिए था। टोकन घर पर ला सकता था, फोन कर सकता था, पहले खबर लगती तो सोर्स लगाकर आउट ऑफ टर्न करवा लेता आफ्टर ऑल मेरे पिताजी साधारण आदमी नहीं थे।"

मैंने देखा इस बीच काफी लोग खिसक चुके थे. कुछ लोग अभी भी स्कूटर में किक मार रहे थे।

नरेश ने जूनियर आफिसर को हुक्म दिया- ओ. के. देन हम लौटते हैं, आप देख लेंगे, ख़ास दिक्कत हो तो इनफार्म करिएगा।'

नरेश और राकेश मोटरकार पर बैठ गए। कार पर बैठे-बैठे नरेश ने मुझसे कहा- आप तो स्कूटर नहीं लाये हैं चलना हो तो पीछे बैठ जाइए।'

'नो थैंक्स! मैं टोकन नंबर तिरसठ का इंतजार करूँगा। डॉक्टर साहब के जीवन की आख़िरी लाइन में मैं रहूँगा।' गाड़ी स्टार्ट होकर आगे बढ़ी ही थी कि मैंने आवाज लगायी-राकेश बाबू! राकेश जी।
गाड़ी थोड़ी दूर पर रुक गई।

मैंने कहा- 'मुझे कहानी मिल गई है। छपने के बाद भेज दूंगा। पढ़िएगा जरूर।'

राकेश चीख उठा- धत् ! साला पागल...ड्राइवर गाड़ी चलाओ।' गाड़ी चलने लगी। दोनों भाई पीछे पलट-पलट कर मुझे घूर रहे थे। अदृश्य होने तक मैं उन्हें देखता रहा। पीछे पलटा तो देखा डॉक्टर साहब का पार्थिव शरीर लावारिस पड़ा हुआ था। उनके पैरों के पास बाँस पकड़ मैं बैठ गया। डॉक्टर साहब चिरनिद्रा में थे। अकेले। एकदम अकेले। उन्हें किसी की जरूरत नहीं थी। मेरी भी।

अचानक मैंने महसूस किया मेरे चारों ओर हजारों मनुष्य हैं, कोलाहल है किन्तु मैं अकेला हूँ, एकदम अकेला। एकाकीपन का दंश मुझे चुभ रहा था।


© सुभाष चंद्र गाँगुली
(कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ से, 
प्रथम संस्करण: 2002)
_____________________________
" गंगा यमुना " पाक्षिक 12/9/1998 में प्रकाशित ।

कहानी- पलंग



शर्माजी के घर का मशहूर, बहुचर्चित पलंग बिकाऊ है। उसे खरीदने के लिए शर्माजी के घर की भूतपूर्व महरी बेला, शर्माजी के घर पहुँची। शर्माजी ने कहा- 'तुम इसको लेकर क्या करोगी? दो झुग्गी में दस जने रहते हो, पहले रहने की उचित व्यवस्था करो फिर साधन जुटाना। मैं खुद इससे परेशान हूँ. मेरा इतना बड़ा मकान है फिर भी इसे रख नहीं पा रहा

'बाबूजी! इ हमार चिन्ता है। हम सोच-विचार के आए हैं। आपन आदमी और बेटवन से बातव कर लिए हैं।'

'क्या सोच लिए हो?... मेरा ख़याल है तुम अपने लिए नहीं लेना चाहती होगी, हमसे लेकर किसी और को ऊँचे दाम बेच दोगी, किसी और को बेचना हो तो सीधा हमसे बात करा दो, हम तुम्हें अच्छा कमीशन दे देंगे।

'बाबूजी! एका हम न बेचब, अपने पास रखब... जगह-वगह की चिन्ता हमार है, आपका बेचै से मतलब है, आपका दुई हजार नकद लाए हैं।' पैसा चाहि... इ हम

'देखो, इस समय इस पलंग की कीमत पन्द्रह-सोलह हजार होगी। अगर पुरातत्त्व दृष्टि यानी पुराने जमाने का सामान समझकर कोई खरीदे तो इसके लिए चालीस-पचास हजार भी दे सकता है।'

'आप तो पहिले दस हजार माँगत रहे फिर घटावत-घटावत अभी  
केहू से दुई हजार माँगे रहे, हमहूँ दुई हजार देईत है। आप चाहें तो सौ पचास और देई सकित ही। 'देखो बेला, मेरा पलंग तो आज नहीं कल बिक जाएगा, मगर क्या है कि तुम हमारे घर की हो इसलिए हम तुम्हें समझा रहे हैं, जो कुछ कह रहे हैं तुम्हारी भलाई के लिए कह रहे हैं, पैर उतना ही फैलाना चाहिए जितनी बड़ी चादर हो, तुम अपना रुपया फ़ालतू बर्बाद करना चाह रही हो, बाल-बच्चेदार औरत हो, बड़ी गृहस्थी है, मेहनत की कमाई से मुश्किल से पैसा जोड़े हो, संभालकर रख दो पैसा काम आएगा, तुम्हारे लिए दो हजार रुपया माने रखता है।

'बाबूजी! आप हमरे बारे में इत्ता सोचत हैं इ हमार तकदीर है। पर हमार बलवा धूप मा सफेद नहीं भवा है, आपन भला-बुरा हमहूँ अच्छी तरह समझित है, हम सोच समिझकर आए हैं....आप तो इ पलंगवा कब से बेचै चाहत हैं अब तलक कौनो न मिला। अब आप सोच लें हाथ की लक्ष्मी ठुकराए न चाही नाही तो बाद में पछतावे पड़ी, दुईऔ हजार न मिली, हम जाईथी, आप सोच लें, आपका मन्जूर हो तो हमका ख़बर पठैयें।'

'ठीक है, मैं जरा सोच लूँ. अभी माँजी घर पर नहीं है, जरा उनसे भी

बात कर लूँ....!"

'बाबूजी, जियादा न सोचैं, जल्दी कह दैहें नाही तो हमार मन बदल जाई तो आपका मुसीबत बना रही मनई ढूँढ़त-ढूँढ़त और चार साल गुजर जाई, चलित ही, पाँव लागी।

'ठीक है, मैं ख़बर भेजूँगा।'

शर्माजी ने पलंग को बेला के हाथ बेचने का मन बना लिया। जब उन्होंने इस बात की जानकारी पत्नी को दी तो वह रूठ गई- फटी कथरी पर लेटने वाली सोने के पलंग का सपना देख रही है. बड़ी आई है... अभी भी तो उतरन पहनकर घूमती है, उससे कह देना था अपनी औकात में रहे, ऐसा नया पलंग खरीदे तो समझें... आयी है चुड़ैल दो हजार लेकर रईसी झाड़ने। आपही ने उसे सिर चढ़ाया था। उसकी यह हिम्मत कि वह मेरे घर का पलंग खरीदना चाहती!..रखेगी कहाँ ? झुग्गी के सामने खुले मैदान में ?"

पत्नी को मनाते हुए शर्माजी ने कहा-बेला ठीक ही तो कह रही थी। हमें इससे क्या मतलब कि पलंग को लेकर क्या करेगी, कहाँ रखेगी। अगर वह दो हजार में खरीदकर दस हजार में बेच भी देती है तो भी हमें क्या लेना देना ? हम तो इसे बेच भी नहीं पा रहे हैं। बेला से मैंने ही कई बार कहा था कोई खरीदना चाहे तो बताना। बहू हर चिट्ठी में रिमाइंड कराती है, फोन पर अलग कहती है और सबसे बड़ी बात यह पलंग मेरे लिए गले का फंदा बन गया है, इससे मुक्ति मिले तो किराए पर कमरा उठा दूँ। दोनों बेटे अपना-अपना मकान बना लिङमा-खाकर मस्त हैं, इन बूढ़ों को फिकिर तो किसी को है नहीं... कुछ किराया आ जाए तो सहूलियत हो, बाईस सौ पेंशन और जायसवाल का किराया तीन सौ. पचीस सौ में चलता नहीं हमेशा कड़की बनी रहती और जाने कब से तुम्हें चश्मा नहीं दिला पा रहा हूँ, एकाध फल तक सोच कर खरीदना पड़ता है. जायसवाल को आए हुए चौदह बरस हो गए. तीन सौ में आया था. कहा था हर साल पचीस रुपया भाड़ा बढ़ा देगा, जल्दी से जल्दी अपना मकान बनवाकर चला जाएगा मगर तीन सौ पे डटा है तो डटा है। अपने लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा....मैंने मन बना लिया है बेला के हाथ बेच दूँगा. फिर वह तो गैर नहीं है, अपने ही घर की महरी थी. बरसों हमारी सेवा की, उचित दाम भी दे रही है।'

पत्नी का चेहरा तमतमा उठा और आवाज ऊँची हो गई- उसने हमारी सेवा की या आपने उसकी सेवा की, मुफ्त में उसके बच्चों को पढ़ते तनख्वाह अलग से देते...बड़ी हमदर्दी है उस कंटाइन से, गोरी है ना खूब सिर चढ़ाते रहे वर्ना उसकी यह हिम्मत कि वह मेरे घर की बहू को उल्टी-सीधी कहे, उषा ने भगा दिया था ठीक ही किया था।" "क्या बेतुकी बात करती हो, बेला मेरी बेटी समान है, उसके बेटों को मैं पढ़ता रहा तभी वह मेरा कितना सम्मान करती थी, आज भी मानती है....उषा तो हर महरी के पीछे पड़ जाती थी।'

कुछ नहीं सुनना चाहती, आप इस पलंग का टुकड़ा-टुकड़ा करके लकड़ी के भाव बेच दीजिए मगर उस नौकरानी के हाथ नहीं बेचेंगे...कोई और नहीं मिला बेला को बेचेंगे, हुँ! लोग क्या कहेंगे कभी सोचा है?'

'क्या कहेंगे? लोगों से हमें क्या लेना-देना? लोगों के कहने पर ही न आपने उस पलंग की कीमत समझी थी? तब न आप फूलने लगे थे? तब न बेटे की ससुराल पर बलबल खाने लगे थे?

'बात तो सही है' शर्माजी बुदबुदाए।

बेटे की शादी में दहेज के तमाम सामान के साथ उस पलंग को देखकर शर्माजी का पारा चढ़ गया था। बिदाई के लिए अनेक मेहमानों की मौजूदगी में शर्माजी समधी से उलझ गए थे-'आप क्या हमें बेवकूफ समझ रहे हैं। अरे, हम इलाहाबादी हैं, हम सारी दुनिया की चालाकी जल्दी समझ लेते हैं....यह आपका खानदानी पलंग होगा। जब हम बर्मा में थे तब मेरे पिताजी के पास ऐसा पलंग था, बर्मा छोड़ते समय वे उसे पानी के भाव बेच आए थे, लगता है आपके पिताजी ने ही खरीदा था, आजकल ऐसा पलंग वही खरीदता है जो मूर्ख हो, कौन इस्तेमाल करता है....इतना बड़ा पलंग लेकर हम क्या करेंगे? पति-पत्नी के लिए छह बाई साढ़े तीन काफी होता है, यह तो उसके डबल से भी ज्यादा है।

बिना धीरज खोए समधी बोले- आप खामखाह गुस्सा कर रहे हैं. छोटा घरेलू पलंग जैसा अमूमन लोग दहेज में दिया करते हैं वैसा ले लिया होता तो मेरा ही रुपया बच जाता. इस पलंग के लिए मैंने दस गुना ज्यादा खर्च किया है, अब आप मूर्ख कहिए या महामूर्ख कहिए, मैंने सोचा बेटी और दामाद को यादगार चीज भेंट करूँ और साथ ही आपके महल की भी शोभा बढ़े। 'यह तो बेटे का पूरा कमरा घेर लेगा, बाकी सामान कहाँ रखेगा? आपको सोच लेना चाहिए था।

मैंने आपका घर, आपके बेटे का कमरा देखा हुआ है। इस पलंग में ढेर सारी सुविधाएँ हैं जिसे मैंने अलग से ऑर्डर देकर बनवाया। इनमें रजाई गद्दा, कपड़ा-लत्ता, गर्म कपड़े सब कुछ रखने की व्यवस्था है। बड़ी सी मच्छरदानी टाँगी जा सकती है। दीवारों पर कील ठोकने की और रोज-रोज मच्छरदानी टाँगने-उतारने का झमेला नहीं होगा, दो-तीन बच्चों के साथ आराम से सोया जा सकेगा, छोटे-छोटे बच्चों के लिए रोजाना छोटी-छोटी खाटफैलाना, बिस्तर बिछाना, बखेड़ा तो है ही गंदा कितना लगता है। इस एक आइटम से कमरे की डिसेंसी बनी रहेगी। और हाँ. इसी में शृंगारदान है, बड़ा आइना लगा हुआ है, गहने और रुपए-पैसे सुरक्षित रखने के लिए चोर डिब्बा बना हुआ है किसी को पता तक नहीं चलेगा कहाँ क्या है.... आप जरा ठीक से देख तो लीजिए क्या गजब की चीज है मेरी बेटी को सबसे अधिक यही पसंद आया है, आप इत्मीनान से ले जाइए जब सब लोग तारीफ करेंगे तो आप भी मान जाइएगा आपकी हवेली की शोभा अगर न बढ़े और दरअसल अगर आपको और आपके घरवालों को नापसंद हो तो बताइएगा. मैं इसे वापस ले आऊँगा और आप जैसा कहेंगे वैसा ही पलंग दे दूँगा।"

वापस लौटते समय शर्माजी झुंझलाते रहे-'क्या बेढब पलंग है. लड़की के साथ-साथ एक सिरदर्द लिए जा रहा हूँ, क्या तमाशा, कहाँ रखें, कैसे एडजस्ट करें समझ में नहीं आता।

मगर पलंग को जब अतरसुईया की सकरी गली के मुहाने सड़क पर उतारा गया तो उसे देखने के लिए इतनी भीड़ हो गई कि गली तो गली सड़क तक जाम हो गई और जब परचित अपरिचित सबों ने उसकी भरपूर तारीफ़ की तब शर्माजी की समझ में आया कि वाकई समधी ने धुआँधार पलंग दिया है। 

बहूभात की रात नई दुल्हन के साथ-साथ पलंग भी आकर्षक बिन्दु था। उसी दिन सुहागरात थी। सागौन की लकड़ी से बना मोटा-मोटा पाँवा 'चारों तरफ ऊपर से नीचे तक मुगलकालीन इमारतों से मिलने वाली नक्काशी, जगह-जगह अमरीकन डायमंड जड़ा, रंग-बिरंगे खुशबूदार फूलों से लदा वह विराट भव्य पलंग किसी राजकुमार का ही पलंग लग रहा था। उसे देखने के लिये बहूभात में आमंत्रित लगभग सारे लोगों का ताँता लगा हुआ था। उस अद्भुत अनोखे नजारे को देख शर्माजी और उनके घर वाले अत्यन्त पुलकित हो गए।

किन्तु शर्माजी की आशंका भी कुछ हद तक सही निकली। बारह बाई चौदह का कमरा उनके घर में सबसे बड़ा कमरा था। उसमें पलंग के अलावा स्टील की दो अलमारियाँ, एक ड्रेसिंग टेबुल, एक छोटा स्टूल और एक कॉर्नर टेबुल रखने के बाद कमरे में हिलना-डुलना दुश्वार हो गया। दीवार से सटकर चलना पड़ता।

खैर, बेटा और बहू तो दो-चार हफ्ते में एडजस्ट हो गए मगर एडजस्ट नहीं हो पाईं महरियाँ महरी ठीक से झाडू-बुहार नहीं कर पाती. पलंग के नीचे धूल की परतें जमते जमते मोटी हो जातीं, पलंग के कोने कोने मकड़े जाले बुनते, चींटियाँ लम्बी कतार में चलकर प्रीतिभोज में शामिल होतीं और उषा की टोकाटोकी व डाँट-फटकार के बाद कभी ज्यादा सफाई के चक्कर में पलंग की देह पर जगह-जगह महरी की उँगलियों के निशान पड़ जाते और फिर उषा बुरी तरह बरसती। जब डाँट-डपट हद से ज्यादा हो जाती तो महरी के स्वाभिमान को ठेस पहुँचती, महरी अपना रास्ता नाप लेती। दो बरस के भीतर तीन-तीन महरिनें बदल गई।

पूरे मोहल्ले में काम करने वाली औरतों में खासा चर्चा का विषय बन गया कि शर्माजी के घरमें काम करना किसी के बस की बात नहीं। चौथी महरी बेला को शर्माजी काफ़ी चिरौरी कर कुछ ज्यादा रुपए का लालच देकर समझा बुझाकर ले आए थे।

शर्माजी बेला के दोनों बेटों को खुद पढ़ाने लगे थे। बेला शर्माजी की इस नेकी से कृतज्ञ थी. कृतज्ञता बोध के कारण ही उसने कई बरस तक उषा के नखरे बर्दाश्त किए मगर एक दिन जब पलंग पॉछते समय पलंग का एक काँच जमीन पर गिर पड़ा और उषा ने कहा-'अंधी हो गई हो क्या? दिखाई नहीं देता ? इससे पहले भी दो-दो बार काँच टूटा पड़ा मिला था. अब समझी, तुम्हारा ही काम है. इस पलंग को देखने के लिए लोगों की आँखें तरस जाती हैं और तुम हो कि जानबूझकर हरकत करती हो।' बेला ने कहा- 'बहूजी, हम काहे को जानबूझ कर ऐसा करें, हमका का मिली. धीरे-धीरे समनवा पुरान होत है खराब तो होबै करि।'

कमरे से बाहर निकलकर उषा चीखने-चिल्लाने लगी-'माँजी! इसकी हिम्मत देखिए, जब तक बाबू जी इसके बच्चों को पढ़ाते रहे यह भीगी बिल्ली बनी रहती थी, अब मतलब निकल गया तो यह चोंच चलाने लगी है, एक तो देखकर काम नहीं करती, काँच निकलता चला जा रहा है ऊपर से जबान लड़ाती है कहती "समनवा पुरान होत है, खराब तो होबे करि...अरे बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद, इसके खानदान में न कभी किसी न ऐसा पलंग देखा है और न ही देखेगा....मैं पूछती हूँ तुझे मालूम कितना महँगा सामान है? मालूम मेरे बाबू ने कितने हजार खर्च किए थे?

बेला ने पलट कर वार किया-'तनिक बोली तो सुनो! बड़ी आयी है महारानी! अरे हमार मरद अच्छा कमावत रहा, सरकारी दफ्तर मा ड्रेवर रहा, नोकरिया न जात तो तोहरे यहाँ के आवत, बात करे का सहूर नहीं.. महिंगा सामान बाबू कित्ते हजार खरच किए...अरे बाप दिए हैं तो औकर जतन खुद काहे नाही करते हो, एक नम्बर का कामचोर जब देखो पलंग पर महारानी बनकर बैठी रहत, बैठे-बैठे खाए के मुटाए गए है...हम जाए रहे हैं. अब कौनो न आई इ घरवा मा. आपन कमवा जब खुद करबो तब समझ मा आयी, माजी बहुत सीधी है तोका हमार जईसा सास चाहि रहा, माजी का खटावत शरम नहीं आवत?" बात ख़त्म करके वह तनफनाती हुई निकल गई।

बेला के जाने के बाद उस घर का काम सचमुच किसी ने नहीं लिया। थोड़े दिनों के बाद शर्माजी के बेटे का प्रोमोशन हो गया और साथ-साथ ट्रांसफर भी हुआ। बाहर क्वार्टर के कमरे छोटे-छोटे होने के कारण पलंग जस का तस धरा रहा। बेटे ने कहा था अपना मकान बनवाने के बाद पलंग ले जाएगा मगर उसने एक एल. आई. जी. फ्लैट खरीदा जहाँ उस पलंग को रखने की गुंजाइश नहीं थी। फिर उषा ने उस पलंग को बेच देने की फरमाइश की।

अत्यन्त निरुपाय होकर शर्माजी ने पलंग को बेला के हाथ बेच दिया। पलंग खरीदने के लगभग एक माह बाद बेला ने शर्माजी और उनकी पत्नी को अपने घर भोज पर बुलाया। बेला ने शर्माजी से दोनों हाथ जोड़कर कहा- 'बाबूजी, आपन जमीनिया पर हम एक छोटा मकान बनवाए हैं। गिरह परवेश है, हमार घर मा आपका पैर पड़े तो घरवा पवित्तर होय जाई। आप की किरपा से हमार दुईनों पढ़ लिख नौकरी करत हैं आप ऐहें जरूर, हम आसरा देखब।'

शर्माजी अकेले बेला के घर होकर लौटे। पत्नी ने कटाक्ष किया-'हो आए? कहाँ रखा पलंग को ? झुग्गी के सामने खुली जमीन पर?"

"अब उसके दिन फिर गए हैं। उसकी हालत हम लोगों से बेहतर है' शर्माजी ने गंभीरता से कहा। 'वह कैसे?'

पत्नी चकित हुई। शर्माजी ने कहा- अब झुग्गी-उग्गी का नामोनिशान नहीं है, सब तोड़ ताड़कर दो मंजिला मकान बनवाया है.... उसका पति कोर्ट केस जीत गया है, पूरे दस साल की तनख़्वाह इकट्ठी मिली है....ग्राउंड फ्लोर में दो बड़े बड़े कमरे हैं, काफ़ी बड़े-बड़े हैं. एक ड्राइंग रूम है और दूसरे में पलंग रखा है, पलंग को खूब सजाकर रखा है, एक फुट ऊँचा गददा बिछाया है....चार-पाँच सौ लोगों को दावत दिया था।'

इतने में उषा का फोन आया - -'बाबूजी! बैंक ड्राफ्ट मिल गया है, बहुत मौके पर आपने पलंग को बेचा है, हमें रुपए की सख्त जरूरत थी. बाजूजी! आपसे एक शिकायत भी है, आपने पलंग को उस नौकरानी के हाथ क्यों बेचा? सौ दो सौ कम सही किसी और को बेच सकते थे।'

शर्माजी ने कहा-'बहू! बहुत कोशिश तो की थी, यह मौका अगर गँवा देता तो पता नहीं कब बिकता या न भी बिकता, आजकल इतना बड़ा सामान रखने का स्थान किसी के पास नहीं रहता! बेला ने बहुत सुन्दर और बड़ा सा मकान बनवाया है... अभी-अभी मैं उसके घरसे लौट रहा हूँ, आज वह अपनी शादी के पचीस वर्ष मना रही है, खूब सजधजकर पलंग पर बैठी हुई थी...एकदम महारानी लग रही थी।'

© सुभाष चंद्र गाँगुली

(कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ से, 
प्रथम संस्करण: 2002)
______________________________
* " साक्षात्कार " मई 2000 अंक में प्रकाशित ।
** " मरू गुलशन " सम्पादक अनिल अनवर, एयरफोर्स कालोनी, जोधपुर में 2003मे ।
** बांग्ला कहानी संग्रह ' शेषेर लाइन' ( आखिरी लाइन)10/2003 में संकलित ।
----------------------++-++++---+----+--------
** जनवादी लेखक संघ, इलाहाबाद द्वारा निराला सभागार, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रख्यात साहित्यकार दूधनाथ सिंह की अध्यक्षता में दिनांक 13/8/2000 मेंचर्चा आयोजित की गई थी ।
--------------------------------------------
कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां :--
** " ' पलंग ' मध्य वर्ग के बदलते स्वरुप की कहानी है । श्री गांगुली ने बड़ी खूबसूरती से एक अर्थशास्त्र को दूसरे अर्थशास्त्र में स्थानांतरण की समस्या दर्शाया है ।"
प्रो॰ दूधनाथ सिंह, 
हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय तथा
अध्यक्ष, जनवादी लेखक संघ 

** ' पलंग' कहानी में पिछड़ा वर्ग आगे बढ़ता है । बदला लेने की भावना नहीं विकास मे है । उसी शीर्षक की उपेंद्र नाथ 'अश्क ' की कहानी ' पलंग' तथा प्रियंवद की कहानी 'पलंग' से बेहतर यह कहानी है ।''
श्रीप्रकाश मिश्र, 
प्रतिष्ठित उपन्यासकार एवं कवि

* " आपकी कहानी ' पलंग ' काफ़ी अच्छी बन पड़ी है। ' सबरंग', में भी एक कहानी पढ़ी थी " -- पलाश विश्वास । पत्र दिनांक 31/12/2000

*  " ' पलंग ' इस संग्रह की पहली और महत्त्वपूर्ण कहानी है। इस कहानी के माध्यम से सुभाष चन्द्र गांगुली ने महानगरों में उपस्थित दो समानांतर उपस्थित जीवन, स्थितियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। नक्काशीदार पुराने पलंग को जहां एक ओर बहू और बेटे के बीच बेचने की बेसब्री है क्योंकि वह अब आज के हिसाब से गैर जरूरी वस्तु की श्रेणी में शामिल है वहीं उनकी नौकरानी के लिए उसे खरीदना एक उपलब्धि है। नये फैशन की दौर और किसी तरह पुराने से ही खुद को समृद्ध दिखाने की ललक दो अलग-अलग बिंदु है जिन्हें बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से सुभाषचन्द्र गांगुली ने सम्प्रेषित किया है। "
 --श्रीरंग
 प्रतिष्ठित साहित्यकार एवं समालोचक (विमर्श- चतुर्थ अंक 2005मे 'सवाल तथा अन्यकहानियां' संग्रह की समीक्षा से।)

** " ' पलंग' शीर्षक कहानी में मध्यम वर्ग के सदस्यों की मानसिकता तथा आर्थिक बदहाली का यथार्थवादी चित्रण जिस रोचक ढंग से किया गया है वह बेजोड़ है। निम्न वर्ग की महत्वाकांक्षा तथा परिवार के मुखिया शर्माजी का कहना " अब उसके दिन फिर गये हैं। उसकी हालत हमलोगों से बेहतर है " निम्न वर्ग के उज्जवल भविष्य की ओर संकेत भी करता है ।"
--कृष्णेश्वर डींगर( 'तटस्त' जनवरी-मार्च 2004 से ) अध्यक्ष, वैचारिकी संस्था , इलाहाबाद

** पलंग कहानी सशक्त और रोचक है और बांधे रखती है। यह कहानी पूरा सुख और मनोरंजन देने में सफल से ।
--डॉ तिलकराज गोस्वामी
** पलंग कहानी की भाषा बहुत आकर्षक है। इसमें कथा का विकास भला लगा । रोचकता भी जबरदस्त है।
--रतीनाथ योगेश्वर
** सुभाष चंद्र गांगुली ने कहानी के शिल्प को संवारने का प्रयास किया । उनकी कहानी में बांग्ला कहानी और उपन्यासों का प्रभाव दिखता है । पलंग को सार्वजनिक कहना रचनात्मक विशेषता ।
--मत्स्येंन्द्र नाथ शुक्ल
** श्री गांगुली ने जिस तरह से समाज का चेहरा उकेरा है वह अप्रतिम है । कहानी खासी इलाहाबादी तेवर की है ।
-- यश मालवीय