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Saturday, April 30, 2022

मजबूरी



अचानक टेलीफोन से एक अद्भुत आवाज निकली। मेरा ध्यान उधर गया।  कुछ देर बाद दुबारा उसी तरह की आवाज हुई--अस्पष्ट घिसी- घिसी खटकने वाली।  मैंने रिसीवर उठाया और इससे पहले कि है "हैलो" बोल पाता दो लोगों का वार्तालाप सुनाई दिया। कौतूहल हुआ क्या माज़रा है ? इसके पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ, कहीं किसी और का कॉल मेरे बिल पर तो नहीं चढ़ रहा है ? इस बीच दो पक्षों के संवाद से मैं आकृष्ट हो चुका था। कई बार अपना रिसीवर रखा, कई बार उसे उठाकर "हैलो"" "हैलो!" कहा किन्तु न तो मेरा फोन डिसकनेक्ट हुआ और न ही किसी ने जवाब दिया । फोन तभी डिसकनेक्ट हुआ जब जाकर उधर की बातचीत खत्म हुई। हालांकि उन बातों को सुनने में काफ़ी व्यतिरेक हुआ  था मगर जो कुछ सुना था उसमें कुछेक शब्द जोड़कर उन लोगों के घर का किस्सा सुना रहा हूँ--

" दिनेश बोल रहा हूँ. इलाहाबाद से....."

--" क्या बात है ? क्यों फोन किया? ..... "

--" जरा दीपा से बात करा दीजिये ! "

--" दीपा तुम लोगों से कोई बात नहीं करेगी।"

--" प्लीज ! वह हमारी सगी बहन है। कहा न बात नहीं करेगी, कोई खास बात हो तो हमसे बोलो। "

 --" भला अपने घरवालों से वह क्यों बात नहीं करेगी । "

-- " लड़कियाँ किसी और की अमानत हुआ करती है । जब तक वह तुम्हारे बाप के घर थी वह उस घर की थी ,अब वह इस घर की है, यही उसका असली घर है, यहीं से उसकी अर्थी उठेगी और मेरा ही कुलरक्षक मुखाग्नि देगा।"

--" बाबू जी आपके पैर पड़ता हूँ प्लीज बुला दीजिए ना, बस एक मिनट के लिए...."

--" सुनो ! अपना एक स्टेटस है, स्टेटस का अर्थ समझते हो ? हमें स्टेटस का ख्याल रखना पड़ता है, अचुआ-पचुआ से रिश्ता नहीं रखा जाता, रिश्ता बराबरी में रखा जाता है....अब तो तुम्हारे बाप भी नहीं रहे. जब तक वह जीवित रहे तब तक थोड़ा बहुत व्यवहार रख लेते थे, खींच-खांच के चल जाता था.....तब से अब में बहुत अंतर आ गया है। तुम तो ठहरे निखट्टू. एकदम सड़कछाप, व्यवहार रखने के लिए औकात की ज़रूरत रहती है.....सुन रहे हो ना मेरी बातें ?"

--" जी ।"

--" सुनो! अपने पैसे से बहु को भेजूँ, अपने पैसे से उसे वापस बुलाऊँ और जब वह लौटे तो खाली हाथ ? यह कैसा व्यवहार है ? पिछली मर्तवा तो तुम लोगों ने एक पैकेट मिठाई तक नहीं भेजी थी, दरिद्र, फटीचर, कंगाल कहीं के । नाक कटवा देते हो, सगी बहन कहते हुए शर्म नहीं आती ?.... इतनी ही प्रीत है बहन से तो उसके मान-सम्मान का ख्याल रखा करो, तुम लोगों को रिश्तेदार बताते हुए अपना कद छोटा हो जाता है...और तुम्हारे बाप तो वायदे पे वायदा करते रहे मगर वह धूर्त चल बसा ।"

--" बाबू जी! दीपा से कहिएगा मैने रक्षाबंधन का आशीर्वाद दिया है, अच्छा मैं....

-- " आशीर्वाद ?....तुम क्या दोगे आशीर्वाद ? अरे मूर्ख तेरे पास है ही । क्या देने के लिए?....तू क्या भगवान है जो सिर्फ़ आशीर्वाद देकर काम चलाएगा ? अरे भगवान आशीर्वाद देता है तो धन बरसता है...तू क्या बरसायेगा ?"

--"अच्छा रखता हूँ.....

--" ले बात कर, आ गयी है तेरी प्यारी बहना।"

--" हैलो ! हैलो ! "

--" कौन? भइया ! "

--" हाँ, मैं... ' राखी ' मिल गई है मेरे पास तुझे देने के लिए कुछ भी नहीं है रे, फूटी किस्मत लेकर जन्मा हूँ क्या करूँ। अपने अभागे भाई का आशीर्वाद ही ले ले।....

--" कैसी हो ? घर में सब लोग कैसे हैं? तेरा राजा बेटा "मम्मी" बोलने लगा होगा.. है ना ? तेरे दूल्हे मियाँ का मिजाज ठीक है ना ?"

--" हाँ भइया, हम सब यहाँ ठीक हैं....सब कुशल है....बहुत आराम है. यहाँ किसी चीज की कमी नहीं है, मुँह से निकलते ही सब कुछ हाजिर....बाबू जी ने मुन्ने को सोने का हार दिया है । माँजी ने पायल दिया है, उसकी खीरचटाई बड़ी धूम-धाम से मनायी गयी, सात-आठ सौ लोग आये थे........."

--" तू चिट्ठी क्यों नहीं लिखती ? चिट्ठी तो लिख सकती है, तू तो जैसे हम सबों को भूल गई है, चंपा की शादी में.....

--" हाँ, हाँ यहाँ सब ठीक-ठाक है, तुम्हारा बहनोई अभी लौटा नहीं है. में टी० वी० में फिल्म देख रही थी.............

--" चम्पा की शादी में तुम लोग.....

--" माँ जी मंदिर गई हुई है। आज उनका जन्मदिन है, बाबू ढेर सारी मिठाइयाँ ले आये थे...

--" क्या बकती है?....मैं रखता हूँ...मम्मी से बात करेगी ? "

--" हाँ दे जल्दी जल्दी दे, अभी-अभी बाबूजी निकल गये है, बाहरकोई आया है।

(ससुर की उपस्थिति में दीपा दिल खोलकर बात नहीं कर पा रही थी। वह अनावश्यक अपने ससुराल की तारीफ़ किए जा रही थी)

--" हाँ, बेटी, बोल! तू ठीक है ना ?"

--" हाँ माँ ! ठीक हूँ. मैं ठीक हूँ बिल्कुल ठीक हूँ तुम मेरी फिकर न करना, अपना हालचाल सुनाओ, चंपा की शादी की तैयारी चल रही है ना?"

--" हमने कार्ड भेजा, चिट्ठी पे चिट्ठी भेजी कोई जवाब नहीं दिया तुमने....चम्पा की शादी में आओगी ना ? "

--" पता नहीं....भेजें तो.....

--" प्रार्थना है ! "

--" माँ!! तुम यह क्या कह रही हो ? भला मैं क्यों न आना चाहूँ ?"

--" जमाई बेटे से मेरी ओर से प्रार्थना करना....वह नहीं आना चाहता क्या ? अब तो तुम्हारे पिता भी नहीं रहे......खैर, रखूँ? "

--" माँ!! अभी न छोड़ो !! बाबूजी घर के बाहर निकल गए हैं, इस समय घर में मैं अकेली हूँ । "

--" चंम्पा को मात्र पाँच तोला सेना दे पा रही हूँ.... देने के लिए अब मेरे पास बचा ही क्या है ? तेरे ससुर की फरमाइशें पूरी करने के लिए एक एक गहना बेचती रही, जमा राशि निकालती रही... सोचा था तेरे पिता धीरे-धीरे सब कुछ जुटा लेंगे, चम्पा की शादी तक कुछ धन इकट्ठा हो जायेगा मगर ऊपरवाले ने मुझे ऐसी मुसीबत में डाल दिया कि क्या बताऊँ.....और दिनेश भी कितना अभागा है....एम० ए०बीएड किया किन्तु एक अच्छी नौकरी नहीं जुटा पाया, जहाँ काम करता है वहाँ से उसे मात्र आठ सौ रुपये मिलते हैं, क्या होता है आठ सौ में ? उसकी बीबी है बच्चे भी हैं....

--" भईया ने तो उस बार कहा था सरकार उसके स्कूल को बहुत जल्ब अनुदान सूची में लेने वाली है, मान्यता प्राप्त स्कूल है, पिछड़ी जाति के बच्चों को वजीफा दी जाती है, अब पूरी तख्खाह़ भी मिलने लगेगी। "

--" पाँच साल से यही सुनती आ रही हूँ । वजीफ़ा बाँटा गया है दिसंबर से तनख्वा मिलेगी, फिर दिसंबर में कहेगा जुलाई से फिर दिसंबर से यही सब। लोग कहते हैं बेसिक शिक्षा अधिकारी भगवान का दफ्तर है भगवान मालिक है, सब कुछ अधर में लटका रहता है एक-एक टीचर के लिए एक एक लाख मांग रहा है, मैनेजर कहता है सब एक-एक लाख दो तो बी.एस.ए. से करवा लेगा ।"

--" एक-एक लाख ! प्राइमरी स्कूल की नौकरी के लिए ?

--" पता नहीं क्या सच है? ये मैनेजर लोग भी कम हैं क्या? वजीफ़ा से खुद रईस बन जाते है सब काम फर्जी। बहुत घोटाला है। गरीब जन्मता है मार खाने के लिए खैर! जिसके भाग्य में जो है.....

--"चम्पा की तकदीर फूटी निकली...तेरी जैसी......

-" नहीं माँ, मैं खुश मेरे पास तो सब कुछ है, तुम जितना कर सकती थी. तुमने किया है, मेरे सुख की खातिर चम्पा के लिए कुछ न रहा...मुझे सुकून है तुम्हारा दामाद भला आदमी है, वह मुझे खुश रखता है, तुम लोगों की तकलीफ़ को समझता है. चंपा की शादी के लिए मदद करना चाहता है मगर क्या बताऊँ.....चम्पा का होने वाला क्या करता है ?"

--" क्या बताऊँ। चंपा पढ़ी-लिखी है. बी० टी० सी० भी किया है, नौकरी तो मिलनी ही है किन्तु हमने कुछ दिया नहीं तो हमें मनपसंद घर-घर-वर मिला भी नहीं...लड़का कचहरी में कैजुअल लेबर है आगे चलकर चपरासी बनने की उम्मीद है , खूबसूरत पढ़ी-लिखी लड़की, बाप मरते ही अभागिन हो गई (कुछ पल रोने की आवाज होती रही थी 'माँ... माँ ! ")

--" माँ ! क्या कहूँ आपके दामाद के नाम न तो दुकान है, न ही यह मकान, सास- ससुर के कहने पर हम दोनों को उठना बैठना पड़ता है...मैं मजबूर हूँ। मैं आना चाहती हूँ. मदद करना चाहती हूँ, मगर मेरी मजबूरी.....मेरी मजबूरी है मां ।"

--" बेटी तुम्हारे पिता अब नहीं रहे, हम अपनी मजबूरी और लाचारी कैसे समझायें, वह रहते तो....तुम नहीं आओगी तो लोग तरह-तरह की बातें करेंगे, हम किस-किस को जवाब देंगे ?....तुम चाहोगी तो दामाद ना नहीं करेगा, तुम इतनी सुखी हो तो क्या दामाद तुम्हें इन्कार कर सकता है, वह तुम्हारी बात कैसे काटेगा ?"

--"माँ ! तुम्हारी परिस्थिति और दुःखों को मैं समझ रही हूँ पर मेरी जो मजबूरी है उसे तुम नहीं समझ रही हो वर्ना तुम अपनी बेटी से प्रार्थना नहीं करती और न ही वैसी बातें करती जिससे मुझे लगता कि मैं परायी हो गयी हूँ....मेरी मजबूरी है माँ, मजबूरी है, मैं अपने घर में नहीं, कारावास में हूँ।"

दीपा जोरों से रोने लगी और फिर किसने रिसीवर रखा समझ में नहीं आया। मेरा अनुमान है कि दीपा की माँ ने ही रखा था।

दीपा के क्रन्दन ने मेरे शरीर में सिहरन और मन में हलचल पैदा कर दी थी, मैंने अत्यन्त भावुक होकर दीपा की कहानी दीपा की जुबानी लिखी ताकि दीपा जैसी बेटियों को अगर सचमुच अपना जीवन कारावास लगता हो और अगर वे स्वाभिमान से जीना चाहती हैं तो वे कानूनी सलाह ले लें या मानवाधिकार संगठन या किसी नारी संगठन से सम्पर्क करें, अपने को असहाय और मजबूर मान कर पिंजड़े में कैद न रहें।


-सुभाष चंद्र गागुली
* " उत्तरा, नैनीताल से प्रकाशित पत्रिका में 1998 में ।
*(कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ से, प्रथम संस्करण: 2002)



Friday, April 22, 2022

कहानी- लाली


" लाली गंदी लड़की है, मेरी गुड़िया ले गई, मेरा सारा सामान ले गई. उससे कट्टी कर लूंगी।"

" छिः गंदी बात! लाली तेरी अच्छी सहेली है ना ? तेरी गुड़िया तो ससुराल गई है, लाली का गुड्डा तेरा दामाद है, है ना ?" माँ सुनीता ने बेटी को समझाने की कोशिश की मगर प्रिया कहाँ मानने वाली थी। वह बोली- " नहीं. लाली गंदी है, उसके साथ मैं नहीं खेलूँगी कट्टी, कट्टी। मुझे  अभी गुड़िया दिलाइए, चौका-बर्तन का सामान दिलाइए, मैं कुछ नहीं जानती।"

"ठीक है बाबा कल मैं तुझे सब खरीद दूँगी, अब चुप भी हो जाओ।"

"नहीं मुझे अभी चाहिए, अभी लाली से सब माँग लाइए।" प्रिया ने जिद्द की।

" लाली तेरी जैसी छोटी बच्ची है,वह रोएगी ना ?"

" मैं कुछ नहीं जानती, मुझे मेरी गुड़िया चाहिए, अभी चाहिए, अभी चाहिए ।" प्रिया फूट-फूटकर रोने लगी।

"अच्छा बाबा चल, रोना-धोना बंदकर।"  सुनीता ने हार मान ली। अगले दिन सुबह-सुबह प्रिया के घर घंटी बजी। सुनीता ने दरवाज़ खोला।

लाली को देखकर उसने कहा- " क्या हुआ रे ? ये गुड़िया, ये सामान... क्यों ले आई ? अकेली क्यों ? तेरी मां रन्नो कहाँ ? "

"अम्मा बाद में आई... माँजी ! इ समनवा लौटाने आई, दीदी को दै दें " लाली ने उत्तर दिया।

" क्यों ? लौटाने क्यों आई ? यह सब तेरे बेटे के हैं।"

" मांजी हमार घर कछार मा है, एकै झोपड़ी बा, वही मा हम तीन भाई-बहिन माई बाप सब रहित हैं, बरसात मा झोपड़िया डूब जात है, हमका सड़क पे रहै पड़त है.... कल रात इ समनवा देख हमार बाबू हमका डाटिन है, कहिन ' तू कबाड़ौ ले औती तो एक रोज तरकारी खाए को मिल जात ', बाबू हमका इसब लौटावे कहिन"  लाली ने उत्तर दिया। स्कूल के लिए तैयार होकर प्रिया लाली को देख बोली--" ये तेरे खिलौने है तू रख ले। आ देख मम्मी ने हमें कित्ते खिलौने खरीद दिए हैं, इ सब तू ले जा। इसब तेरे हैं ।"

" दीदी ! हमार कमरवा खाली ए ठीक लागत है, सर छुपावै खातिर एकैठो झोपड़ी है, हम लोग गरीब है ना....तू न समझबो । " गंभीर बात करती लाली प्रिया के सामने ढेर बड़ी दिखी । प्रिया अवाक् होकर लाली को देख अर्थ समझने को कोशिश कर रही थी ।

समय के साथ-साथ दोनों बच्चों को उम्र का अहसास होने लगा । वे खेल से दूर होते गए। प्रिया के कमरे में खिलौने जस के तस धरे रहते। कभी-कभार वे दोनों कुछ देर साथ रहकर गर्द झाड़ देते । प्रिया दिनोंदिन पढ़ाई में व्यस्त होती गई । अंग्रेजी स्कूल की पढ़ाई, ढेर सारा होम वर्क, कभी इम्तहान, कभी वाद-विवाद प्रतियोगिता की तैयारी और कभी स्कूल के प्रोग्राम की तैयारी। लाली अपनी माँ के साथ आती, काम में हाथ बँटाती और काम-काज निपटाकर चुपचाप वापस चली जाती। एक दिन प्रिया ने लाली से पूछा-- " क्यों रे ! आजकल तू मुझसे बात किए बिना क्यों चली जाती है?"

लाली ने जवाब दिया--" दीदी हम पढ़ी-लिखी नाहीं हैं, का बात करी ? हमार बाबू मजूर है, माई घर-घर बर्तन माजत है, हम आपसे का बात करी ?... आप तो हमेशा पढ़त रहत हैं।" लाली के उत्तर से प्रिया मर्माहत हुई कुछ भावुक होकर उसने सुनीता से कहा--" मम्मी ! आप तो टीचर हैं लाली को क्यों नहीं लिखना-पढ़ना सिखा देती ?"

सुनीता को बेटी की बात अच्छी लगी । उसने कहा- " लाली ! तू आज से ही पढ़ाई शुरू कर दे। मैं तुझे अपने स्कूल में भर्ती करा दूंगी। अगले सत्र में सुनीता ने लाली की कक्षा चार में भर्ती करा दिया। कापी, किताब, स्कूल बैग आदि दिलवा दिया। कुछ दिन स्कूल जाने के बाद लाली को स्कूल इतना भाया, इतना भाया कि वह काम करते-करते पहाड़ा रटती, कविता सुनाती और कभी अचानक किसी शब्द का अर्थ पूछ बैठती। धीरे-धीरे उसके आचरण में बदलाव आया, अब वह काम करके वापस जाते समय प्रिया से मिलकर स्कूल की बातें सुनाती, उसके स्कूल के बारे में पूछताछ करती।

आठवीं क्लास में पहुँचते ही लाली के पिता नारायण ने लाली को स्कूल जाने से मना कर दिया। इस ख़बर से सुनीता आहत हुई। पहले उसने लगातार चार-पाँच दिनों तक रन्नो को समझाया कि वह अपने पति को मना ले मगर जब रन्नो से बात नहीं बनी तब सुनीता ने नारायण को अपने घर बुलवाया और समझाने का प्रयास किया।

'" लाली पढ़-लिखकर आगे बढ़ जाएगी तरक्की करेगी, उसकी बुद्धि तेज है, पढ़ने में ठीक है, उसे क्यों रोक रहे हो?" 
" इ सब पढ़ाई-वढ़ाई आप लोगन का है, हम गरीब हैं, हमारे पास पईसा कहाँ है?" नारायण ने कहा।

" पैसा कहाँ लगता ? उल्टा पैसा मिलता है। अब तो दलित बच्चों को वजीफ़ा दिया जाता है।"

"का पईसा मिलत है-टीचर जी ! इ साल का पईसा उ साल या दुई साल बाद ओहू आधा। दस दुआरे दस मरतबा ठोकर खाइके, बाबू को पैसा देकर ।"

" ठीक है यह चिंता मेरे ऊपर छोड़ दो, तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है। पढ़-लिखकर लाली अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी।"

" टीचर जी ! हम ठहिरे मजूर-गँवार, हमार बिटिया का बियाह कौनो कुली, मजूर, रिसकावाला, खोंचावाला से होई, उ का करी पढ़के... ललिया सयानी होय गई है । स्कूल जाई तो दस जने दस मेल का बात करी...अब उ जवान होत है ओका संभालै पड़ी।"

" किस जमाने की बात कर रहे हो नारायण ? तुम्हारे ख्यालात पुराने हैं, जमाना बदल चुका है, अब तमाम लड़कियाँ स्कूल जाने लगी हैं..... पढ़-लिख लेगी तो उसे अच्छी नौकरी मिलेगी, अच्छे दिन देखेगी, सुखी रहेगी।"

" टीचर जी ! इत्ता सरल नैना। हमरे लिए कित्तौ आरक्षण हो नोकरिया है कहाँ ? नौकरी-औकरी पावै खातिर ढेर पईसा दै पड़त है, बिन लै-दै के नोकरिया मिलौ जाई तो शादी के करी ?...हमरी बिरादरी मा लड़कन का कम उमर मा शादी होय जात है, ललिया के खातिर कौनो बैठा रही का ?"

"देखो नारायण! लाली ख़ूबसूरत है, पढ़ाई का उसका मन भी है, तैयार हो जाएगी तो उसकी शादी की दिक्कत नहीं होगी, वह अपनी पसंद से शादी कर लेगी, तुम्हारी बिरादरी में न सही हमारी बिरादरी में करेगी.. किसी बिरादरी में अच्छे लड़के से कर लेगी। आराम से शादी हो जाएगी।"

" गैर बिरादरी मा शादी ? गैर बिरादरी मा ? मनपसिंद शादी ? कम्भौ नाहीं। मनपसिंद शादी ओहू दूसर बिरादरी मा, हम नाहीं चाहित। ऊँचा घर जाई तो दुई दिन ओकर खूबसूरती पे मरिहें फिर जूती तले रखिहें या लात मार भगैहें... टीचर जी ! इसब आप लोगन का समाज मा शोभा देत है, हमका हमार हाल पे रहै दें, आप हमरे लिए इत्ता सोचत हैं, ललिया का इत्ता पियार देत हैं, इ हमार भाग है।"

उस दिन के बाद लाली ने प्रिया के घर जाना बंद कर दिया। एक दिन सुनीता ने रन्नो से पूछा- " क्यों रन्नो ! लाली को क्यों नहीं लाती ?" रन्नो ने उत्तर दिया--"ओकर बाबू मना किए न। माँजी ! लाली सयानी होय गई है। अगर बिरादरीवालन का पता चल जाई कि ललिया बर्तन माँजत है तो ओको कौनो शादी न करी पंचायित वाले जुरमाना लगैहें, पूरी बिरादरी का भरपेट खियावे पड़ी तब जाइके माफ़ होई । इ जो हमही आपके घर आईथी ई बतिया केहूका मालूम थोड़े ना है, छिपाए रखित हैं। 
" क्या? इतने दिनों से आती हो और किसी को पता नहीं है ?" 
" नाही। हम चोरी छिपे आई थी। ढेर दिन तलक तो हमार मरद ही नहीं जानत रहा।"

फिर काफ़ी दिनों के बाद जब लगातार तीन-चार दिनों तक रन्नो लाली को अपने साथ ले आई तो सुनीता ने पूछा--" क्यों, अब फिर लाली को साथ लाने लगी। भय नहीं है ?"

किचन के पास जाकर खुसुर-फुसुर करके रन्नो ने कहा- " माँजी ! का बताई ललिया बदचलन होय लगी है, एक लौंडे से अंखिया लड़ावत है, ओकर नाम देवेश है, ब्राह्मण का लड़का है। हमका डर लागत है कौनो दिन ओकर संग कुछ कर बैठी।"

लाली ने माँ की बात सुन ली। उसका चेहरा तमतमा उठा। उसने प्रतिक्रिया व्यक्त की- " माँजी ! अम्मा झूठ बोल रही है । अक्सर दोपहर को जब घर खाली रहता है, एक आदमी अम्मा के पास आता है, अम्मा हमको किसी बहाने घर से भगा देती है. मैं जब घर लौटती हूँ. घर का दरवाज़ बंद पाती हूँ, जबसे मैंने अम्मा से कहा कि मैं बाबू से शिकायत कर दूँगी तब से वह आदमी नहीं आता और अम्मा भी मेरे पीछे पड़ गई है....जो लड़का मेरे घर के सामने चक्कर लगाता है वह कोई अच्छे घर का है, हमको नाम-धाम मालूम नहीं है, स्कूटर से आता है, पान की दुकान पर थोड़ी देर रुककर चला जाता है....बस एक दिन उसने मुझसे मेरा नाम पूछा था और कहा था बड़ा प्यारा नाम है, और एक दिन कहा था तुम कितनी सुंदर हो एकदम गुलाब जैसी। बस।" बेटी की बात सुनकर रन्नो दंग रह गई।

अगले दिन रन्नो अकेली प्रिया के घर पहुंची। उसने सुनीता को अपनी सफ़ई पेश की--" माँजी जो मरद हमरे घर आवत रहा उनकर महरारू के संग ललिया के बाप का नाजायज संबंध है, ओही खातिर दु-चार मरतवा ऊ हमरे घर आए रहे. अब लड़कन बच्चन के रहत, का बात करि एहि से दरवाजा ढकेल दिए रहे।"

एक दिन रन्नो ने खुशी-खुशी ख़बर सुनाई--"माँजी! आप लोगन की दुआ से ललिया का बियाह तय होय गवा। इ महिना डकै पे उ महिना का पूरनमासी के दिन शादी होई । गाँव जाइके देब उहाँ सबजन हैं। लड़का खात-पीयत है, खेत-खलिहान, ट्रक्टर, नलकूप सब कुछ है। दहेजौ नाहीं माँगिन...पर माँजी आपका तो मालूमै है अच्छे घर भेजे खातिर हमका तो तैयार होय पड़ी, ठीक से पठौब तो ओकर इज्जतव होई....हमार पास इत्ता पइसा कहाँ! अब आपै लोग कुछ मदद करें तो इज्जत बच जाई । चाहें तो उधारै दै दें हमरी तनख्वाह से काट लैंहें... दु-तीन हफ्ता हम न औबे, हम मालतिया से कह देब वही काम देख लेई ।'

सुनीता ने लाली की शादी के लिए एक हजार रुपया नगद, साड़ी तथा श्रृंगार का सामान भेंट किया । शादी की रात प्रिया और उसके
घरवालों ने लाली को खूब याद किया। खाना खाते-खाते सुनीता ने कहा " इस समय लाली की शादी हो रही होगी, गोरा-चिट्टा रंग, सुंदर नक्शा, लंबी काठी, काले घने लंबे बाल, भूरी-भूरी आँखे, लाल वस्त्र पहनके आज वह बिल्कुल अप्सरा लग रही होगी।"

पंद्रह-बीस दिन बाद लाली प्रिया के घर हाजिर हुई। उसे देख सुनीता चीख उठी- "अरे यह क्या हाल बना रखा है ?....तेरे माँग में सिंदूर क्यों नहीं है ?"
 " हमारी शादी नहीं हो सकती।" लाली रोने लगी। " क्यों? शादी क्यों नहीं हो पाई? कौन सी आफत आ पड़ी " सुनीता ने पूछा।

लाली ने उत्तर दिया--" माँजी ! बारात आयी थी, जयमाल भी हुआ था फिर जाने कैसे बाराती को पता चल गया कि मेरी अम्मा के साथ गैर मर्द का चक्कर है, मेरी शादी के बाद वह उसके साथ भाग जाएगी। इस बात पर काफ़ी हंगामा हुआ, आख़िर में बारात वापस चली गई... बाबू ने अम्मा को खूब मारा, माथे से खून निकल आया। अम्मा खूब रोई। दो दिन भूखी रही, किसी से बात नहीं की, फिर अगले दिन बिना किसी से कुछ कहे घर छोडकर चली गई। बहुत ढूंढ़ा गया मगर कुछ पता नहीं चला। हो सकता है उसी आदमी के साथ भाग गई हो।"

रोते-रोते वह अपने हाथों को दीवार पर पटकने लगी। दर्जन भर हरी काँच की चूड़ियाँ टूट गई। काँच के चुभन से उसकी कलाइयों से खून निकलने लगा। खून देखकर लाली चीख उठी--" मर गया भगवान मर गया अम्मा के कारण अब मेरी शादी नहीं होगी....बाबू ने पढ़ने भी नहीं दिया, क्या होगा माँजी ! मेरा क्या होगा ?"

लाली के प्रश्न का उत्तर सुनीता के पास नहीं था। उसके दुख से दुखी होकर वह भी आँसू बहाने लगी। 

प्रिया ने लाली की पीठ पर हाथ रखकर कहा--" धीरज से काम लो लाली। हिम्मत न हारो। रोने से कुछ नहीं मिलता।" लाली चुप हो गई । जाते-जाते बोली--" दीदी ! तू मेरी बचपन की सहेली है। तुझे मैं इस जनम में नहीं भूल पाऊँगी.... अब मैं तुमसे नहीं मिलूँगी, नहीं तो मेरे कारण तुम्हारी शादी नहीं हो पाएगी। "

गाँव से लौटकर कुछ दिनों तक वीरान--" सी जिंदगी बिताने के बाद जब लाली कामकाज में निकलने लगी तो एक दिन देवेश ने उसे रास्ते में रोकना चाहा मगर जवाब दिए बिना लाली आगे निकल गई । अगले दिन फिर देवेश ने उसका पीछा किया और बोला-'लाली! सुनो तो, सुनो ना... मेरे घर की नौकरानी बेला ने एक दिन माँ से कहा था तुम्हारी शादी हो गई है, अच्छे घर में हुई है...क्या हुआ बोलो, ना, तुम मुझे बेहद अच्छी लगती हो, जितना सुंदर नाम है, उतनी ही सुंदर तुम हो । किसने तुम्हें छोड़ दिया? क्यों छोड़ दिया ?...क्या तुम्हारा पति अब...लाली रो पड़ी। देवेश को ने हमदर्द जताई । लाली ने अपनी कहानी सुना दी। फिर दोनों में आए दिन मुलाकात होने लगी । देवेश उसे तरह-तरह से रिझाने लगा। लाली को लगा कि उसे जिंदगी की खोई हुई धुन वापस मिल गई । देवेश उसकी स्कूटर सुंदरता का पुजारी है। देवेश उसकी कदर करता है, देवेश उसे दिल से चाहता है । उन दोनों में चोरी-छिपे मेल जोल होने लगा। देवेश उसे पर बिठाकर कहीं दूर चला जाता होटल में खाना खाता, नौका बिहार करता । किसी विराट वृक्ष के नीचे एकांत में बैठकर प्रेम की भाषा सुनाता ।

दोनों की नज़दीकी इस हद तक बढ़ी कि लाली को एक दिन पता चला कि उसकी कोख में देवेश का बच्चा आ गया है। लाली ने देवेश को यह सूचना दी और जल्दी से शादी करने का आग्रह किया।

" छोड़ दिया? क्यों छोड़ दिया ?.... क्या तुम्हारा पति ....अबलाली रो पड़ी। देवेश ने हमदर्दी जताई। लाली ने अपनी कहानी सुना दी। फिर दोनों में आए दिन मुलाकात होने लगी । देवेश उसे तरह-तरह से रिझाने लगा । लाली को लगा कि उसे जिंदगी की खोई हुई धुन वापस मिल गई, देवेश उसकी सुंदरता का पुजारी है.देवेश उसकी कदर करता है, देवेश उसे दिल से चाहता है। उन दोनों में चोरी-छिपे मेल जोल होने लगा। देवेश उसे स्कूटर पर बिठाकर कहीं दूर चला जाता, होटल में खाना खाता, नौका बिहार करता, किसी विराट वृक्ष के नीचे एकांत में बैठकर प्रेम की भाषा सुनाता।

दोनों की नज़दीकी इस हद तक बढ़ी कि लाली को एक दिन पता चला कि उसकी कोख में देवेश का बच्चा आ गया है। लाली ने देवेश को यह सूचना दी और जल्दी से शादी करने का आग्रह किया।

देवेश ने बच्चा गिरा देने की सलाह दी। असहमत लाली शादी के लिए जिद्द करने लगी। शादी की बात टालते हुए देवेश ने कहा, उसका धंधा जमने के बाद ही वह शादी करेगा। अगले दिन देवेश ने लाली को जोर जबरदस्ती गोली खिला दी और उसके हाथ एक शीशी थमाकर हुक्म दिया कि लगातार पाँच दिनों तक गोली ले ले।

गोली का कोई असर न होते देख लाली सहम गई। उसे डर लगने लगा, कहीं देवेश उसे धोखा न दे दे। उसने फिर शादी की बात छेढ़ी मगर देवेश ने वही पुरानी बात दोहराई। लाली ने कहा- इतनी बड़ी दुनिया है, इतने काम हैं, क्या हम दोनों मिलकर इतना भी नहीं कमा पाएँगे कि किसी झोपड़ी में रहके दो जून का खाना जुटा लें?

देवेश ने रुखाई से कहा- नहीं. तुम झुग्गी-झोपड़ी में रह सकती हो. तुम्हारी आदत है। तुम अस्पताल जाकर सफाई करा लो। खेल-खेल में बहुतों के पेट में बच्चा आ जाता है, सब सफाई करवा लेती है, धंधा जमने के बाद शादी की बात सोचूँगा, वैसे भी सब कुछ देख-सुनकर करना पड़ता है। यह पांच सौ रुपया. अस्पताल जाकर करा लो।"

और फिर अचानक देवेश अदृश्य हो गया। लाली बेसब्री से राह देखती इंतज़ार करते-करते वह निराश हो गई। एक दिन इससे उससे पूछकर वह देवेश के घर पहुँची। देवेश की हवेली को देखकर वह हतप्रम हो गई। यह तो मकान नहीं, जैसे राजा-महाराजा का महल नौकर अब्दुला से लाली को पता चला कि देवेश शहर से बाहर गया हुआ है. तीन-चार दिन बाद आने की बात है।

चार दिन बाद लाली फिर देवेश के घर पहुँची। देवेश नहीं लौटा था। लाली प्रायः रोज ही पता लगाती, कभी अब्दुला से बाजार में मुलाकात करती, कभी दूर से इशारा करके उसे अपने पास बुलाकर पूछती। जब अब्दुला ने जानना चाहा कि देवेश से क्या काम है तो लाली ने कहा कि देवेश ने उसे काम पर लगाने का वादा किया है।

देखते-देखते बीस-बाईस दिन बीत गए। अभी तक देवेश की कोई सूचना नहीं मिली थी । लाली की हैरानी का अंत न था। एबॉर्शनवाली दवाई की पूरी शीशी खत्म कर चुकी थी मगर कोई फर्क नहीं पड़ा। शर्म-हया त्यागकर अस्पताल पहुँची, सारी बातें उसने साफ-साफ कह दी, मगर डाक्टरों ने कहा, अब संभव नहीं है, देर हो चुकी है। लाली गिड़गिड़ाई डॉक्टर मेम साहब! इस बच्चे को जन्म देना मेरे लिए संभव नहीं है...मजबूरी में मुझे अपनी जान देनी पड़ेगी...मैं अपने शरीर में आग लगा लूंगी।"

"बेटी अगर हम तुम्हारे बच्चे को नष्ट करने की चेष्टा करें तो तुम्हारी जान जा सकती है । अगर तुम्हारी मौत हो जाए तो हमलोगों को सजा होगी...तुम क्यों हिम्मत हार रही हो ? तुम उस लड़के से मिलने की कोशिश करो, नहीं तो तुम उसके घरवालों से मिलो, अपनी बात कहो...तुम्हें इतनी जल्दी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए, लड़कियाँ बहुत जल्दी हार मान लेती हैं, यही कारण है कि मर्द जात शदियों से जुल्म करते जा रहे हैं ।" एक बुजुर्ग डॉक्टर ने लाली को समझाया।

अगले दिन हिम्मत बाँधकर लाली देवेश के घर पहुंची । अब्दुला उस दिन घर पर नहीं था । घर की नौकरानी बेला ने दरवाजा खोला । लाली ने देवेश के बारे में पूछा । जब पता चला कि वह अभी तक नहीं लौटा तो उसने उसके पिता से मिलने की बात कही। देवेश के पिता ने अंदर बुलवाया। लाली ने उनसे सारी बातें कहीं।

सुनते ही देवेश के पिता ने लाली के मुख पर कई तमाचे जड़ दिए। और बोले--" जाने किस मनहूस का पाप लिए फिर रही नीच जात की छोकरी छिनाल! गंदी नाली का कीड़ा! अरे तेरे ऊपर तो मेरा बेटा पेशाद भी नहीं करेगा...किसने तुझे भेजा है? कितने रुपए चाहिए ? और फिर एक बंडल नोट लाली के ऊपर फेंककर बोले-भाग, भाग यहाँ से, दुबारा यहाँ आने की जुर्रत की तो तुझे और तेरे घरवालों की बोटी-बोटी काटकर गिद्धों को खिला दूंगा, भाग जा !"

नोटों का बंडल जमीन पर पड़ा रहा । दर्द से कराहती, भय से थरथराती लाली भाग खड़ी हुई। 

इस घटना के बाद जब कई दिनों तक लाली नहीं दिखी तब अब्दुला ने एक दिन मुलाकात की ।

लगातार कई दिनों तक मिलने के बाद एक दिन अब्दुल ने लाली से कहा--" लाली! मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ। मैं क्या करूँ मुझे समझ में नहीं आता, तुमसे कहने में मैं डर रहा था। मैं मुसलमान हूँ ना। मेरा घर बांग्लादेश में है। मैं बंगाली मुसलमान हूँ...किन्तु लाली मैं सच कहता हूँ कोई हिंदू लड़का तुम्हें जितना प्यार दे सकता है उससे कम प्यार मैं नहीं दूंगा, मैं तुम्हारे लिए सब कुछ कर सकता हूँ कुछ भी मुझसे शादी करोगी ?... तुम्हें लेकर यहाँ से कहीं दूर चला जाऊँगा, कोई जानने नहीं पाएगा, बोलो मुझसे शादी करोगी ?...मैं हट्टा-कट्टा हूँ, मेहनत कर लेता हूँ. कहीं भी काम कर लूँगा...तुम्हें बांग्लादेश ले चलूँगा, वहाँ मेरे अपने लोग रहते हैं, अच्छे लोग हैं, मेरे घर के सामने तालाब है, खूब मछलियाँ होती हैं, मैं पकड़कर लाऊँगा, तुम पका सकती हो ना ? मुझे माछ-भात बहुत पसंद है....लाली ! तुम चुप क्यों ही? नाराज हो गई हो क्या मुसलमानों से नफ़रत करती हो क्या?"

लाली रुआँसी होकर बोली- बस, बस अब्दुला बस करो। इतना न " बोलो कि मैं अपना सर फोड़ लूँ या अपनी जान दे दूँ।"

अब्दुला अवाक् होकर लाली को देखता रहा। कुछ पल बाद फिर बोला--" लाली ! तुम अपना सर क्यों फोड़ोगी? क्या तुम्हें मैं पसंद नहीं हूँ? क्या तुम सचमुच मुसलमानों से नफरत करती हो ?"

लाली रो पड़ी फिर अचानक खुद को संभाल कर बोली-- "अब्दुला तुम कितने भोले हो ! तुम मुझसे पहले क्यों नहीं मिले ? तुम्हें पाकर मेरा सात जनम सफल हो जाता.....अब मैं तुम्हारे लायक नहीं रह गई, मैं बर्बाद हो चुकी हूँ...समझ में नहीं आता मैं क्या करूँ ?"

" क्या? क्या कह रही हो लाली ? मैं समझा नहीं। " अब्दुला ने कहा।

लाली चीख उठी-उस देवेश के बच्चे ने मेरी इज्जत लूट ली है। एक दिन जब घर पर कोई नहीं था उसने जोर जबरदस्ती की उसका बच्चा मेरे पेट में आ गया है। "

अब्दुला का खून खौल उठा--" क्या ? तुमको भी ? तुम उस लफंगे के चक्कर में कैसे फँस गई ? तुम्हें मालूम उसने कितनों को खराब किया है ? पिछले साल एक लड़की ने उसके कारण आग में जलकर जान गँवा दी थी, बेला उसकी रखैल है....मैं उस हरामी को नहीं छोड़ेगा, नहीं छोडूंगा, साला भागकर जाएगा कहाँ, मैं उसका खून पी जाऊँगा। "

" नहीं अब्दुला तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे।" लाली घबराकर बोली। मगर अब्दुला कुद्ध हो उठा--" लाली तेरी कसम, मैं उसे जान से मार डालूँगा।"

लाली ने कहा-"अब्दुला तुझे मेरी कसम, अगर सचमुच तू मुझे प्यार  करता है तो तू कुछ नहीं करेगा, किसी से कुछ कहेगा भी नहीं... जो कुछ करना है मैं करूंगी । मैं उसके किए की सजा दूंगी।"

थोड़े दिनों के बाद पता चला कि जिस दिन देवेश घर लौटा था । उसी दिन उसकी हत्या हो गई। पुलिस ने काफ़ी छानबीन की मगर कोई सुराग नहीं मिल पाया । अब्दुला फरार था। वह कहाँ से आया था, कहाँ चला गया, इस बात की जानकारी देवेश के पिता को नहीं था। अब्दुला पर संदेह किया गया किन्तु चूंकि देवेश के घर का सारा सामान जस का तस था इस कारण से पुलिस ने उसके हाथ होने की बात खारिज कर दी।

कई बरस बाद पश्चिम बंगाल के मालदा शहर में प्रिया ने लाली को देखा। लाली ने मुँह चुराकर भागना चाहा, मगर प्रिया ने उसे रोक लिया " अरे लाली तुम? यहीं रहती हो ? यह लड़का तुम्हारा है?"

थोड़ी देर चुप रहने के बाद लाली ने कहा--" नहीं देवेश का....देवेश के बच्चे को जन्म देना पड़ा था, कोई उपाय न था।" 
 "देवेश का बच्चा ? " प्रिया चकित हुई।
 "हाँ वह मक्कार मेरे पीछे पड़ गया था, उसकी भोली सूरत और चिकनी-चुपड़ी बातों में मैं आ गई थी, उसने मुझे सपना दिखाया था। मैंने उससे साफ-साफ कहा था 'मैं छोटी जात की हूँ, मेरी माँ गैरमर्द के साथ भाई गई है क्या यह सब जानकर भी तुम मुझे अपनाओगे ? साहस है ?" 
उसने कहा था " इसमें तुम्हारा क्या कसूर है ? मैं जात-पात नहीं मानता, मैं आज के युग का हूँ। और फिर वह हरामी मुझे निचोड़कर भाग खड़ा हुआ।"

 " सुना था देवेश की हत्या हो गई थी। किसने हत्या की थी?" प्रिया ने पूछा।

 लाली का चेहरा एकबारगी सिहर उठा। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने कहा- दीदी में चलती हूँ।"

"बोल ना मुझसे क्या भय ? " प्रिया ने पूछा ।

"देवेश की हत्या नहीं वध हुआ था, मैंने उसका वध किया था ।" उत्तेजित होकर लाली ने कहा।

" तुमने ? किसी ने शक नहीं किया?"

मेरा नाम लेकर देवेश के पिता अपने खानदान को बदनाम नहीं करवाना चाहेंगे, मुझे मालूम था, उसी रात को मैंने शहर छोड़ दिया था...अच्छा मैं चलती हूँ, अब्दुला इंतज़ार कर रहा होगा, मेरे पहुँचने के बाद ही वह खाना खाएगा।"

"अब्दुला!!!"

"अब्दुला' मेरे लिए खुदा है । वह मेरा पति हैं ।"

-सुभासचन्द्र गांगुली
* (कहानी संग्रह: सवाल तथा अन्य कहानियाँ से, प्रथम संस्करण: 2002)
* ' जनसत्ता ' दीपावली विशेषांक  November /1999