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Monday, December 26, 2022

कहानी- शिल्पी का वह चाक



करीब तीन दशक बाद मुझे उस शहर में जाने का अवसर मिला जहाँ मेरा बचपन बीता था। दफ़र के काम से मैं उत्साहित हो उठा। भूले बिछड़े लोगों के साथ भूली बिछड़ी यादों को ताजा कर कुछ समय बिताने का सुख का आनन्द कुछ अलग ही होता है। बिना टाइम लगाये मैंने कार्यालय प्रशासन को दौरे पर जाने की सहमति दे दी।

मैं ट्रेन पर सवार हुआ। चौदह घन्टे की यात्रा। रात हो गई। खाना खा लिया। एसी चल रही है। कम्बल ओढ़कर लेटा। उत्तेजना में नींद नहीं आ रही। आँखों के सामने अतीत के पन्ने खुलते जा रहे हैं।

पढ़ाई-लिखाई समाप्त होने पर मुझे घर से दूर दूसरे शहर में नौकरी मिली थी। घर और शहर छोड़ते समय मुझे बहुत तकलीफ़ हो रही थी क्योंकि मैं हमेशा के लिए बहुत कुछ छोड़ कर जा रहा था। मेरे घर के पास रहने वाले कुम्हार और उनके परिवार को हमेशा मिस करूँगा यह सोचकर दुःखी था । कुम्हार के बेटे मेरे बचपन के मित्र थे, और कुम्हार और उनकी पत्नी मुझे बहुत दुलार देते। मैं चाचा-चाची कहा करता । मेरा पूरा बचपन उन्हीं लोगों के साथ बीता था। फिर मैं अपने विद्यार्थी जीवन में व्यस्त हो गया था,
उनके बच्चे भी बड़े होते-होते पिता के काम में शामिल हो गये थे। वे सब मुझे 'भइया ' कहके पुकारते ।
अन्तिम दिन तक मेरा सम्बन्ध बना रहा उस परिवार से स्टेशन के लिए निकलने से पहले मैं उन लोगों से मिलने गया।
मैंने कहा 'मैं जा रहा हूँ।' 
परिवार के सभी एक जगह आकर खड़े हो गये। कुम्हार बोले-'फिर आना। इस शहर में, आना होगा तो मिलना ज़रूर।' 
कुम्हार की पत्नी बोली-'अब का अइहें। मकानौ बेच दिए हैं।' वह अपना आँसू पोंछने लगी। अविरल आँसू बहने लगें। दूसरा बेटा बोला- "भइया आप तो साब बन गये, हमार बाबू को कलाकार वाला 'मेडल' मिला रहा, सरकार से कहिके पिनसान उनसन दिला देहें तो हमार लोगन का भला होय जाई।' 
'अच्छा, देखूंगा। पता लगाऊँगा।' मेरा गला रुँध गया। पूरे परिवार की भावुकता देख मेरा हृदय भारी हो गया। मैं निःशब्द शब्द ढूंढ रहा था। मैं निकल गया।
पता नहीं मैं क्या कहना चाहता था या कुछ कहना था भी पर उस पल मुझे लगा कि मुझे बहुत कुछ कहना है। दरअसल में उन दोनों के पैर छूना चाहता था, मेरे बचपन के दोस्तों को गले से लगाना चाहता था पर मैं कुछ नहीं कर सका था। एक अजीब सी दूरी महसूस किया था मैंने रास्ते भर एक ही प्रश्न मुझे कचोटता रहा यह कैसा गैप ? किसने रोका था मुझे? आखि़र यह गैप हीं क्यों ? यह कैसा संस्कार ? कौन जिम्मेदार है इसके लिए ?... यह गलत है। मुझे अपनी गलती सुधारनी होगी।
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मेरी आँखों के सामने मेरे बचपन के दिन तैरने लगे।
शहर की भीड़ से दूर नदी पास के इलाके में धीरे-धीरे लोग बस रहे थे। सस्ती जमीन मिल रही थी इसलिए दूरी और असुविधाओं के बावजूद पिताजी ने थोड़ी सी जमीन खरीदी थी फिर दफ़र से लोन लेकर एक छोटा सा मकान बनवा लिया था। 
मेरे घर से थोड़ी दूरी पर था कल्लू कुम्हार का मकान और उसका कारोबार। मकान क्या दो छोटी-छोटी झोपड़ियाँ और उसके सामने था एक विशाल नीम का पेड़। और उसके आगे पेड़-पौधों से भरा मैदान जहाँ बच्चे खेलने जाते, पंचायतें लगतीं।बस इसी परिधि में सिमटी हुई थी मेरी दुनिया आठ वर्ष की उम्र तक। फिर स्कूल जाने लगा तो वह भी शामिल हो गया।
उस नीम के नीचे कुम्हार दिन भर काम किया करता । चाक से निकले बर्तनों, साँचों में ढले खिलौनों, मूर्तियों को वृक्ष के दूसरी ओर पंक्तिबद्ध कर रख देता सूखने के लिए।
जेठ की गर्मी में भरी दोपहर लू में नंगे बदन कमर से घुटने तक एक धोती लपेटे वह घन्टों काम करता। पेड़ों से गिरती टहनियों और सूखे पत्ते, नीम फलों के गिरने से अक्सर काम में असुविधा होती, और बरसात में कदाचित तेज बारिश से उसके किए धरे पर पानी फिर जाता। कभी-कभार बरसात में या जाड़े में दिन दिन भर धूप न निकलने से सारे सामान गिले रह जाते। रात के अँधेरे में चूहें, बिल्लियों से भी नुकसान होता। कुम्हार की पत्नी बिलबिलाती, किस्मत को कोसती मगर कुम्हार उसे समझाता बनना बिगड़ना प्रकृति का नियम है। मैंने कुम्हार को कभी उदास नहीं देखा। सीमित संसाधनों और असुविधाओं के बावजूद वह इतना कमा लेता कि गुजर बसर हो जाता।
कुम्हार की पत्नी और बूढ़ी माँ भी अक्सर दोपहर और शाम साँचों में मिट्टी डाल कर खिलौने बनाते। जन्माष्टमी, दीपावली तथा अन्य त्योहारों से पहले कुम्हार एक से एक मूर्तियाँ अपने हाथों से बनाया करता।
खूंटे पर रखा उस चाक को कुम्हार द्वारा नवाया जाना, फिर मिट्टी के लोद पर दोनों पंजों की उँगलियों फेर कर आकार देकर धागे की मदद से आहिस्ता से वर्तन को निकालना, एक के बाद एक सामान का निकलते रहना, खिलौनों और मूर्तियों पर ब्रश से रंग चढ़ाना, स्प्रिंगदार गर्दन वाले बुढा-बुढी का गर्दन हिलना, और कुम्हार की लम्बी-लम्बी लटकती मूँछे, बड़ी-बड़ी आकर्षक आँखें और उसका प्यार मुझे इतना भाता, इतना भाता कि जब भी मौका मिलता मैं घर से भागकर उस संसार में पहुँच जाता। माँ की डॉट सुनता, थोड़ी देर घर पर रूकता किन्तु मौका देखते ही भाग जाता। और कुम्हार के पास जाकर बैठ जाता। कोई अनजान शक्ति मुझे खींच ले जाती।
       कभी-कभी चाक चलाते चलाते कुल्हड़, गिलास निकालते समय लकड़ी की काठी पर बँधा धागा मुझे थमा कर कहते 'लो इसे तुम निकालों' मुझसे नहीं होता, बना बनाया काम बिगड़ जाता में फिर मांगता वह मुस्कराते हुए दो-चार बार देते | फिर बिगाड़ने के लिए। कभी-कभार ब्रश से रंग चढ़ाते समय मेरे हाथ ब्रश थमा देते। जब मुझसे नहीं होता और छोड़ देता तो वह कहते सीखों, बेटा सीखों, रंग भरना सीख लोगे तो बड़ा कलाकार बन जाओगे एक दिन ।'
      हर खिलौने और मूर्तियों के चेहरे पर कुम्हार खुद अपने हाथों से आँखें, भौंहें,ओंठ बनाया करता
         कभी-कभार जब मेरे हाथों में ब्रश रहता मैं आँखें बनाने की कोशिश करता, गड़बड़ हो जाने पर चुपके से नज़रें बचाकर रख देता किन्तु जब कभी कुम्हार की पत्नी देख लेती मुझे डाँट पड़ती। कुम्हार तुरन्त मुस्कराकर कहते 'ठीक है ठीक है, मत डोंटो उसे में ठीक कर लूँगा।'
             कुम्हार की पत्नी मुझे बहुत दुलार भी करती। कभी-कभी वह अपने तीनों बेटों के साथ मुझे भी रोटी-सब्जी, रोटी आचार कुछ न कुछ खाने देती, कभी अपने हाथ से खिला भी देती थी। आये दिन वह मुझे कोई न कोई खिलोना देती जिसे मैं जन्माष्टमी पर उनके बच्चों के साथ मिलकर अपने घर झाँकी सजाता।
      मेरे घर पर खिलौने की भरमार हो गयी थी। पिताजी अनेक बार कुम्हार से कह चुके थे कि मुझे मुफ़् में खिलौने न दिया करें मेरी आदत बिगड़ जायेगी मगर वे नहीं सुनते।
          कुम्हार की कलाकृतियों में झलकता था भारतीय संस्कृति, जीवन दर्शन। ग्राम्य तथा शहरी जीवन शैली और विविधताओं में एकता के चित्रण को बहुत सूक्ष्मताओं के साथ उकेरता था। जो कोई देखता खूब प्रशंसा करता।
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एक बार किसी नेता के प्रयास से कुम्हार को उसके उत्कृष्ट कार्य के लिए 'श्रेष्ठ' कलाकार' पुरस्कार मिला था। पुरस्कार में एक चमचमाता चाँदी का मेडल, कुछ नगद राशि और एक प्रशस्ति-पत्र मिले थे। सम्मान समारोह में बड़े नेताके हाथ से पुरस्कार प्राप्त करने की तस्वीर पूरी रिपोर्ट के साथ कई समाचार पत्रों में छपी थी। पुरस्कार लेते समय वह रो पड़ा था।
          कुम्हार की पत्नी प्रशस्ति-पत्र और एक अख़बार लेकर मोहल्ले में घूम-घूम कर सबको दिखाती, पढ़े-लिखे लोगों से पूछती प्रशस्ति-पत्र में क्या लिखा है, बार-बार सुनकर गद्गत होती ।         उस पुरस्कार से मोहल्ले में कुम्हार का सम्मान बढ़ गया था। पढ़े-लिखे लोगों में उसका जिक्र होते ही लोग 'शिल्पी' को सम्बोधन देते। पूरे शहर में कुम्हार की ख्याति फैल गई थी
 एक व्यापारी कुम्हार से खिलौने और मूर्तियाँ थोक भाव में खरीदने लगा था। वह खरीद कर शहर में ऊँचे दाम में बेचता। मगर कुम्हार को सुविधा हुई। बेचने की चिन्ता ख़त्म हो गई। उसकी बिक्री बढ़ गई। आमदनी बढ़ी। कुम्हार ने एक पक्का कमरा, छोटा सा किचन व बाथरूम बनवा लिया था।
  मगर अच्छे दिन बहुत अल्पकालिक थे, आर्थिक स्थिति कहीं ठहर सी गयी थी। उदारीकरण, वैश्वीकरण के चलते आधुनिकीकरण की होड़ शुरू हो गयी थी। मिट्टी के सामान की माँगों में कमी आने लगी। कुल्हड़, प्याले, दीये प्लास्टिक ने सेंध लगा दिया। सम्पन्न लोग फिज खरीदने लगे। दफ्तरों में कहीं-कहीं वाटर कुलर दिखने लगे। मटके, झाँझर की माँग घटने लगी। किन्तु सब कुछ घटित हो रहा था धीरे-धीरे, इतना धीरे की इस शिल्प और व्यवसाय से जुड़े लोग रोजी-रोटी का विकल्प तलाशने की ज़रूरत ही नहीं समझ पाये थे।

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'शिल्पी' परिवार से मिलने के लिए मैं निकला। 'बादशाहपुर' 'बादशाहपुर' पूछता गया मगर टेम्पो वाले रूके नहीं, एक ने रूका भी तो समझ नहीं पाया कि मैं कहाँ जाना चाहता हूँ। वही रिक्शेवालों के साथ भी हुआ। आख़रकार में रिक्शे पर चढ़ बैठा और बोला 'चलो'। उसने पूछा 'कहाँ' ?
-- 'मालगोदाम से आगे बादशाहपुर ।'
- 'बाबू हम नये आदमी। जानता नहीं। बाहर से आये है। मालगोदाम मालूम है।' 'चलो उससे थोड़ी दूर पर है, मैं रास्ता बता दूंगा।'
मालगोदाम से आगे आ गया, और आगे, कुछ नहीं समझ में आ रहा है किधर है। यह हाई वे है। रात को ट्रकें दौड़ती हैं दिन में लगभग खाली रहती थी, जाना मैं सायकिल से सरपट दौड़ता, इसके दोनों तरफ दूर-दूर तक पेड़-पौधे, खेत, झोपड़े, दो-चार छोटे-छोटे मकान और कहीं-कहीं जानवर बँधे दिखते थे।
  ‌‌‌‌‌      अब सड़क के दोनों तरफ़ बाजार ही बाजार, छोटी बड़ी इमारतें, बहुमंजिली इमारतें, मॉल, बैंक, असंख्य गाड़ियाँ, बेशुमार लोग। बाजार के पीछे कहीं कुछ नहीं दिखता।
           यही सड़क आगे चलकर कहीं दाँये घूम जाती है। मैं वहीं बाँये मुड़ता था, दूर से 'खड़ी कुँआ दिखता, रास्ता न गड़बड़ा जाए उसे ध्यान में रखता, लोगों से भी कहता 'खड़ी कुंआ' से बाँये टर्न करिएगा, मेरे घर के लिए।' 'खड़ी कुंआ' की याद आते ही मैंने रिक्शा छोड़ दिया। पास ही होना चाहिए।
इधर-उधर भटकने के बाद एक बुजर्ग आदमी की चाय की दुकान पर चाय पीने बैठ गया। बहुत पुरानी दुकान मैंने पूछा- 'खड़ी कुंआ किधर है?" -'खड़ी कुआँ' ? 
वह चौंका। फिर बोला-'कभी था। कबका पट गया। जाना कहाँ है?'
- -बादशाहपुर ।' 
-'इ काली सड़क से सीधे जाइए। जहाँ कुँआ रहा वहीं एक माँ शारदा की मन्दि है, मन्दिर के बगल से चलते रहिएगा, दूर से दिख जाएगा एक बड़ा सा बोर्ड, उसी पर लिखा मिलेगा 'शारदानगर' ।
- 'शारदानगर ?... 
-'नहीं, मुझे बादशाहपुर जाना है।'
- 'हाँ हाँ बाबूजी वही है। नाम बदल गया है। पूरा इलाका अब शारदानगर कहलाता है। किसी जमाने बादशाहपुर के नाम से ही जाना था।' 
-- 'कभी मैं रहता था बादशाहपुर में, मेरे घर के पास कल्लू कुम्हार का घर था, उसे सब जानते थे।"
-'जी। जी बाबूजी। सब उधर है। कई गाँव थे। बादशाहपुर, कासिमपुर, वीरपुर, कुम्हार टोली सब मिलाकर 'बादशाहपुर' था अब वही -शारदानगर' कहलाता है।'
उन्हें धन्यवाद देकर मैं आगे बढ़ गया पड़ा। 'शारदानगर' प्रवेश कर गया। विशाल मार्केट। चारों और दुकान ही दुकान । हर घर पर दुकान। सैकड़ों दुकानें। गलियों के दोनों तरफ दुकानें। पता नहीं मैं किस भू-भूलैया में फँसा । गली से बाहर निकल रहा हूँ, फिर घूम-फिर कर किसी इलेक्ट्रानिक दुकान के ही सामने बड़ी मेहनत के बाद एक दो दुकानदार मिल गये जिन्हें मै पहले से जानता। 
उनसे पता चला कि यह शहर का सबसे बड़ा 'इलेक्ट्रानिक मार्केट' है। दूर-दूर से लोग आते है यहाँ । मार्केट इतना तेज फैला कि कुछ लोगों ने अधिक किराये के लालच में अपना मकान किराये पर उठाकर और कहीं जाकर बस गये। बहुतों ने मोटी रकम देख अपना मकान व्यापारियों को बेच दिया। कहीं-कहीं लोग ऊपर रहते हैं नीचे के कमरे में दुकान है। उसने मुझे समझाया मार्केट से किधर से निकल कर मैं अपने पुराने मकान पहुँच सकूँगा ।
          में चलने लगा। जब में रहता था उन दिनों यहाँ मकानों की गिनती उँगलियों पर थी। कच्चे-पक्के मकान थे सबके सब मेन रोड पक्की थी बाकी सब कच्ची । सायकिलें चलती । बिजली भी नहीं थी। घर-घर में चांपाकल था, दूर-दूर कुँए दिखते थे। अब सब लुप्त। आम, अमरूद, महुआ, नीम आदि से भरे इस जगह पर पेड़ ढूँढ़ना पड़ रहा है अब। एक व्यक्ति से मैंने पूछा तालाब के बगल से मुझे कुम्हार टोली के पास अपनी बस्ती में जाना है, तालाब किधर है ?' वह बोला 'तालाब तो कब का पट गया था। उस पर अपार्टमेन्ट खड़ा हो गया। वो रहा।'
 -'उफ्फ! तालाब भी ?... कब?'
-दो-तीन साल पहले।'
-"बहुत बुरा हुआ। अनर्थ हुआ। कभी मैं यहाँ रहता था। यह तालाब लाइफ लाइन हुआ करता गाँवों का। सूखा पड़ने पर वही बचाता।' 
मैं आगे बढ़ता गया। अपने पुराने मकान के पास पहुँचा। कुम्हार की जमीन पर अब एक दो मंजिला पक्का मकान खड़ा था। नीम का पेड़ गायब। खेत का मैदान भी इमारतों से भर गया था। कुम्हार और उसके परिवार की जानकारी लेने के लिए परिचित व्यक्ति ढूँढ़ने लगा।

मेरे घर से थोड़ी दूरी पर रहने वाले भोलाबाबू के घर कॉलबेल बजाया। अस्सी पार कर चुके थे। अपना नाम, पिताजी का नाम बताने से उन्होंने मुझे पहचाना, घर पर बिठाया।

भोलाबाबू ने जानकारी दी कि कुम्हार को मिट्टी नहीं मिल पाती थी, ठेला लेकर दो लड़के दस बारह किलोमीटर दूर से मिट्टी ले आते रहे उस से थोड़ा बहुत काम चलता था, दाल-रोटी मिल जाती थी, बाद में शहरीकरण के बढ़ते वो भी मिलना बन्द हो गया था। अफसोस जताते हुए भोलाबाबू चकबंदी के दौरान स्कूल, खलियान आदि के लिए भूमि छोड़ते समय कुम्हारों के लिए ज़रा भी भूमि नहीं छोड़ी। व्यवसाय में मंदी तो पहले से ही थी बाद में रोटी भी छिन गई। उन्होंने आगे बताया कि कुपोषण के कारण एक बेटे का देहान्त हो गया था। एक बेटे को दमे की बीमारी हो गयी थी। कुम्हार को भी टी०बी० हो गया था। मकान गिरवी रखना पड़ा था पत्नी के चाँदी के गहने, पीतल के बर्तन बिक गए थे, यहाँ तक कि कुम्हार को पुरस्कार में जो 'मेडल' मिला था उसे भी बेचना पड़ा था। और इन सबके बावजूद दूसरा बेटा और कुम्हार दोनों चल बसे थे

कर्जा न चुका पाने के लिए मकान और खाली पड़ी जमीन भी छीन गई थी। कुम्हार की बूढ़ी माँ, पत्नी और एक बच्चा कहाँ चले गये किसी को मालूम नहीं । खेद व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा 'स्वार्थी, लालची नेताओं ने विदेशों का कबाड़ खरीद कर भारत के प्राचीन, गौरवमय शिल्प का नाश कर दिया। ग्रामोद्योग,

हस्तकलाओं को नष्ट करने का जो कुचक्र अँग्रेजो ने रचा था वह आज भी जारी हैं।' अब शायद थोड़ी देर और ठहरता तो मैं फूट-फूट कर रो पड़ता। एकबारगी उठकर मैं बाहर निकल आया।

कुम्हार का वह कर्मभूमि और अपने बचपन के दिनों को याद करने के लिए फिर उस स्थल के निकट गया।

देखा शिल्पी का वह चाक उस भवन पर चढ़ने की सीढ़ियों के नीचे नाली के ऊपर पायदान बना हुआ है।

©  सुभाष चंद्र गाँगुली 

( "मोक्षदायिनी" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2021)
* ' शिल्पी ' नाम से ' युद्धरत आम आदमी ' में   भी 1997 में प्रकाशित हुई थी। 2020 में दुबारा लिखा।
* 'शिल्पी का चाक' ग्राम्य जीवन की प्यार भरी संस्कृति और सादगी, हस्त कला के हुनर की खूबसूरती और ख्याति को मशीनीकरण से बढ़ते उत्पाद व शहरों के चारों तरफ फैलते बाजार से मृत प्राय होने के दर्द ने आंख गीली कर दी । बादशाहपुर के 'शारदा नगर' बनते उसकी  कलात्मक खूबसूरती का ख्याति लब्ध घूमता चाक हमेशा के लिए ठहर गया .।

प्रोफेसर सुनीता त्यागी
( रिटायर्ड)
पीजी कॉलेज, बिजनौर 

Monday, December 19, 2022

लघुकथा : व्यवहार


          
मेरी इकलौती बेटी की शादी में मेरा अज़ीज़ दोस्त राजेश के न आने से मै थोड़ा दुःखी था, चिंतित भी था। वह कुशल है,शहर में भी है फिर न आने का कारण क्या है जानना पड़ेगा।
हमारे कार्यालय में हम उम्र लोगों का एक ग्रुप था।
नौकरी में आने की उम्र का अंतर दो चार साल का रहा होगा। इस ग्रुप में जाति-धर्म का भेदभाव नहीं था। प्रायः लंच में कार्यालय के बाहर ' गुप्ता जी की चाय की दुकान ' पर मुलाकात होती रहती। 
हम सबों की शादियां हुई, बच्चे हुए, अवसरों पर एक दूसरे के घर आना-जाना होता । शुभ अवसरों पर एक दूसरे की खोज-खबर लेते, किसी के न आने पर उपस्थित न होने का कारण पूछते।
सामूहिक कार्यों में सपरिवार हाजिर होते-होते एक दूसरे से पारिवारिक सम्बन्ध हो गया था।
घनिष्ठता के मामले में राजेश मेरा सबसे घनिष्ठ मित्र था। उसका कारण शायद यह भी रहा कि  हम दोनों की नियुक्तियां एक ही दिन एक ही साथ हुई थी, दोनों अगल-बगल बैठ कर वर्षों काम किए।
मेरे घर से काफ़ी दूर था राजेश का घर, क़रीब बीस-बाइस किलोमीटर । बीच में नदी पार करने के लिए है बहुत लम्बा पुल। उसके तीनों बच्चों की शादियों में उतनी दूर खटारा स्कूटर लेकर दो बार जाड़े में कंपकंपाते हुए सपत्नी पहुंचा था।
उसकी पिता की मृत्यु होने पर कार्यालय से छुट्टी लेकर उसके घर गया था । दाह-संस्कार के उपरांत घर आते-आते काफ़ी रात हो गई थी।
यह सारी बातें मुझे यकायक यादें आने लगी जब मैंने देखा कि मेरी इकलौती कन्या की शादी में राजेश नहीं आया।
विवाह समारोह के तीन-चार माह बाद पेंशन कार्य हेतु मेरा दफ़्तर जाना हुआ था। मैं सालभर पहले रिटायर हुआ था, राजेश तब भी कार्यरत था।
राजेश से मिला, हालचाल लिया फिर पूछा " बेटी की शादी में मैं देर रात तक तुम्हारा राह देख रहा था।"
उसने बेरुखी से उत्तर दिया " भेज तो दिया था।"
मैंने आश्चर्य व्यक्त किया " कोई तो आया नहीं था। न तुम, न तुम्हारे परिवार का कोई।"
उसने तैश में कहा " लिफ़ाफ़ा पहुंचा था कि नहीं? 'व्यवहार' मिला था न ?"
उत्तर देने का मन नहीं कर रहा था फिर भी कहा 
" आज मैं तुम्हें नहीं बता पाऊंगा और न ही तुम समझ पाओगे कि मुझे क्या नहीं मिला।"
बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए मैं बाहर निकल आया।
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© सुभाषचंद्र गांगुली