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Wednesday, September 14, 2022

कहानी- कहानी की तलाश


 कहानी की तलाश 
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मैं इन दिनों परेशानी में हूँ। 
मुझे एक कहानी की तलाश है।

एक ऐसी कहानी की तलाश है जिस पर फिल्म बन सके, एक ऐसी कहानी जिसे वरिष्ठ कथाकार अव्वल मान लें, मुझे एक ऐसी कहानी की तलाश है जिसे जाने-माने आलोचक भी तरजीह दें और यही मेरी परेशानी का कारण बना हुआ है।

'फिल्मांकन' के लिए मुझे जरा-सी चिन्ता नहीं है क्योंकि फिल्म निर्माता बड़े-से बड़े सर्जन को मात देने का कौशल रखते हैं। कहानी में ज्यादा धचर-पचर होगा तो व्यावसायिक फिल्म न सहीं आर्ट फिल्म तो बन ही जायेगी।

कहानी प्रतियोगिता में अव्वल आने के लिए मुझे निर्णायक मण्डल में रहनेवाले वरिष्ठ कथाकारों के मन को छूना पड़ेगा। कौन कथाकार मेरी कहानी पढ़ेगा इसकी भी चिन्ता नहीं है मुझे, क्योंकि कई 'जेनुइन' कथाकारों ने मुझे सराहा है, कईयों से प्रशस्तिपत्रनुमा नोट्स मिल चुके हैं और इसी कारण मुझे इत्मिनान है कि मुझे जिस कहानी की तलाश है वह अगर मेरे जेहन से सही ढंग से उतर जाय तो अपने आप बात बन जायेगी वर्ना टाँय-टॉय फिस्स ।

जेनुइन कथाकार किसी 'इज़्म' (वाद) का नहीं होता है। वह सिर्फ़ कथा सुनाता है और सुनता है। वह उस कथा को सुनता है और सुनाता है जो जीवन मन्थन से निकलती हो किन्तु आलोचकों का ध्यान आते ही कथाकार परेशान हो जाता है। आलोचकों में ऐक्य नहीं है। उनमें मतभेद है, मनभेद है। वे मार्क्सवादी हैं, प्रगतिशील हैं। वे आलराउण्डर हैं, कलावादी हैं, फलाँवादी हैं। वे सारे जहाँ हैं अडिग हैं, दल-बदल के कट्टरविरोधी वे अपने-अपने वैचारिक दृष्टिकोण में पक्का पण्डित, कट्टर तालिबानी हैं।

कहानी की तलाश में मेरा मस्तिष्क कभी वैचारिकी की इस गली तो, कभी उस गली में झाँकता-ताकता और फिर निराश होकर एक ' कमरे का देश' में लौट आता है।

आलोचक महोदय की वैचारिक प्रतिबद्धता की जानकारी मिलने से ऐसी कहानी गढ़ने की कोशिश की जा सकती है जो उसकी कसौटी में खरा उतरे। किन्तु नहीं, मैं वैसा नहीं करूँगा. ..मुझे किसी प्रकार का बन्धन पसन्द नहीं है। मैं बन्धनमुक्त हूँ, आवारा हूँ। आवारा बने रहना चाहता हूँ. इसी नैतिक आवारापन के कारण मेरा कथाकार हवा और पानी की तरह हर इंसान को स्पर्श करता हुआ चलता है और इसी क्रम में उसने जाना कि यह जरूरी नहीं कि हर पूँजीपति, हर सफेदपोश, हर प्रशासक, हर राजनेता, हर धनी व्यक्ति बुरा होता है।

और इस प्रकार पुरस्कार योग्य कहानी की तलाश मेरे जीवन में विषाद घोल देती है। मेरा आत्मविश्वास डिगने लगता है।

मुझे यकीन नहीं हो रहा है कि इससे पहले मैंने दर्जनों कहानियाँ लिखी हैं। इस समय रात का ग्यारह है। कागज के टुकड़ों से टोकरी अटी पड़ी है। कमबख्त कहानी नहीं बन पा रही है। अभी तक कुछ लाइनें ही मनपसन्द लिख पाया हूँ।

रात्रि नौ बजे से अब तक चार-पाँच बार मेरी पत्नी भोजन के लिए बुला चुकी है, अब अचानक मेरे कमरे में दाख़िल होकर पिल पड़ती है-"क्या आज भी खाली पेट सो जाने का इरादा है ? कब से बुला रही हूँ, बाद में कह देंगे भूख नहीं है, आप नहीं खाते हैं तो मेरा भी खाने का मन नहीं होता है. .इससे पहले मैंने कभी आपको इतना परेशान होते नहीं देखा ? आप क्या ख़ास किस्म की कहानी लिखना चाह रहे हैं ?"
- "यह ख़ास किस्म की कहानी से आपका अभिप्राय ?"
- "अभिप्राय यह है कि आप क्या ऐसी कहानी लिखना चाह रहे हैं जिसे लेकर विवाद हो जाय और आप चर्चा में आ जायें ? क्या आप अपने 'गुरु' और उनके 'मठ' पर कीचड़ उछालने की कोशिश कर रहे हैं? या कि 'चड्ढी के नीचे हीरे जेवरात.......' 1 लिखकर नारी को बेआबरू कर अपनी मर्दानगी और कलम का बोल्डनेस दिखाना चाह रहे हैं? या कि 'विश्व सुन्दरी ने उसे वियाग्रा की गोली दी', ...........या फिर मोटी-मोटी औरतों को देख लगता कि वे 'बाल्टी भर के हगती होंगी' जैसी अश्लील चीजें लिखकर आप क्या 'हासिल' करना चाहते हैं ? नेम एण्ड फेम ? पुरस्कार ? ये जो पाठकों के प्रशंसा-पत्र आते रहते हैं ये पुरस्कार से कम हैं क्या ? किसी-किसी कहानी के लिए आपके पास अनेक खत आते हैं, वैसी ही एक कहानी लिखिए जिससे अनेक प्रतिक्रियाएँ, प्रशंसनीय पत्र आ सके, अपने आप पुरस्कार आ जाएगा।" 
-"मेरी परेशानी का कारण तुम जानती हो। कारण है समालोचकों का विखण्डित समाज।"
-"पुरस्कार देने के लिए निर्णायक मण्डल के सदस्य न कथाकार होते हैं, ना ही समालोचक, निर्णय लेते समय वे सिर्फ़ पाठक होते हैं, जागरूक पाठक।" 
पत्नी का संवाद सुनकर मैं स्तब्ध, हतप्रभ। मैं अचकचाकर कह उठता हूँ-"समथिंग स्पेशल करना चाहता हूँ।"

वह भावुक होकर कहती हैं-"समथिंग स्पेशल के चक्कर में आप दुनियादारी से कटते जा रहे हैं, अपने आप से भी कट रहे हैं, दीनता की मनोस्थिति में रहकर समाज को क्या परोसेंगे आप ?.....मेरी ठुड्डी पर यह मस्सा दो महीने से उगा हुआ है........ दुखता है.. . आपको कहाँ ?"
फुरसत मुझे खुद पर कोफ़्त होने लगती है।

          भोजन से पेट भरता है, शरीर को ऊर्जा मिलती है किन्तु कदाचित् आत्मा की तृप्ति के लिए आहार व निद्रा त्यागना आवश्यक हो जाता है।

मैं त्यागता हूँ। उसके क़रीब जाकर उसकी ठुड्डी को तनिक ऊपर रोशनी की ओर उठाता ..वह पलकें मूँद लेती है... वाकई उसका मस्सा उसकी व्यथा-कथा सुना रहा था।
ऑपरेशन करवाना पड़ेगा। 

उसके मुखड़े पर दुबारा कोई दुखनेवाला मस्सा न उग पाये इसका ध्यान रखने का कसम खाता हूँ।

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सुमन की व्यथा
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एक जागरूक पाठक की हैसियत से पत्नी द्वारा कही गयी उस रात की बातें मेरे दिल और दिमाग को कचोटने लगीं।

मुझे कथाकार सआदत हसन मण्टो का ख्याल आया। जब कभी उनके सामने कहानी लिखने का संकट आता उनकी बेगम कहा करती-"आप सोचिए नहीं........ कलम उठाइए
और लिखना शुरू कर दीजिए।” और कदाचित् मिस्टर मण्टो का अफ़साना जेब से उछलकर बाहर आ जाता था।

मण्टो की सारी कहानियाँ पुरस्कार के योग्य थीं जबकि पुरस्कार पाने के मकसद से उन्होंने कोई कहानी नहीं लिखी।

दफ़्तर में अपने कक्ष में बैठा हुआ हूँ। यह पेंशन वितरण कार्यालय है। इन दिनों मैं पेंशन वितरण अधिकारी का चार्ज संभाले हुआ हूँ।

मैं फुरसत में हूँ। आज का काम निपटा चुका हूँ। यहाँ का काम बैंक जैसा है, रोज का रोज। दफ़्तर बन्द होने में एक घण्टा पच्चीस मिनट बाकी है। लगभग पूरा दफ़्तर हो चुका है।

मेरे अलावा यहाँ मेरे दो अंधीनस्थ अधिकारी और अन्य दो कर्मचारी हैं। वे मेरी 'निगाहों में 'एक्सलेण्ट' वर्कर हैं और वे दोनों 'एक्सलेण्ट' बने रहना चाहते हैं।

मेरे चेम्बर के बाहर एक विराट् हॉल है। कहीं किसी कोने में वे सब अलाव जलाये हाथ सेंक रहे होंगे। आज का तापमान शून्य डिग्री है। तापमान कुछ भी हो, बिजली हो, या न हो मुझे तो फुल टाइम रहना है, आखिर अधिकारी जो हूँ। 

पर्दा हटाकर एक महिला भीतर झाँकती है। मैं हाथ से तशरीफ़ रखने का संकेत देता हूँ।

अपना नाम बताकर वह कहती है कि वह फलाँ रिटायर्ड अनुभाग अधिकारी की पत्नी है। उसके पति को छह हजार पाँच सौ छप्पन रुपये पेंशन मिलती है जिसमें से वह उसे मात्र पाँच सौ रुपए खर्चे के लिए देते हैं।

मैंने कहा-"यह आप लोगों का निजी मामला है, इससे इस ऑफिस का क्या लेना देना ? काम की बात करिए।" 

उसने कहा- "काम से आयी हूँ, काम की ही बात कर रही हूँ। दो मिनट सुन लीजिए पूरी बात सीरियस प्रॉब्लम नहीं होती तो इतनी ठण्ड में घर ही पर न बैठी रहती। मेरे मोहल्ले के बुज़ों ने कहा कि आप अच्छे अधिकारी हैं, औरों के दुःख-दर्द सुनते हैं, मदद करते हैं, उन सबों ने आपसे मिलने को कहा।"

मैं सहज भाव से कहता हूँ-"मैडम ! एक पेंशनभोगी अगर अपनी बीबी को हाथ खर्च के लिए पाँच सौ देते हैं तो यह मिसाल देने लायक बात है।" 

वह खिन्न होकर कहती है-"अगर मिसाल देने लायक बात होती तो मैं आपके पास आती ही क्यों ? पाँच सौ हाथ खर्च के लिए नहीं, मेरे खाने-पीने, नहाने धोने, कपड़े-लत्ते के लिए मिलते हैं। क्या पाँच सौ रुपए से गुजर-बसर होता है ?....मैं आपसे यह रिक्वेस्ट करने आयी हूँ कि आप मेरे नाम से दो हजार रुपए का चेक काटिएगा, बाकी उनके नाम मैं आपके नाम एक एप्लीकेशन लिखकर ले आयी हूँ।” 

मैं जिज्ञासु होता हूँ। मैं गौर करता हूँ कि उसके चेहरे पर ज़र्द उदासी है। इस हाड़ काँप शीत में वह एक प्राचीन बांग्लादेशी शाल ओढ़ी हुई है। उसका घिसा हुआ टाँका लगा हवाई चप्पल और सूखी-फटी एड़ियों के ठीक ऊपर सफेद मैला साड़ी का किनारा उसकी कथनी पर मुहर लगा रहा था। 

मुझे हमदर्दी होने लगती है। माता-पिता ने क्या सोचकर बेटी की शादी की थी और क्या परिणाम हुआ..... .मगर क्यों हुआ ? कैसे हुआ ? कब हुआ ? गुनाहगार कौन ? 

मैं कहता हूँ-“देखता हूँ क्या किया जा सकता है। पहले आप अपनी एक्चुअल समस्या बताइए।"

-“मेरी समस्या पुरानी है। जटिल भी है। किन्तु एक्चुअली समस्या यह है कि पिछले छह माह से एक जून खाती हूँ, भूखमरी के कगार पर हूँ। रिटायरमेण्ट के बाद ढाई वर्ष तक वे मुझे पन्द्रह सौ प्रतिमाह देते रहे, किसी तरह चल जाता रहा किन्तु छह माह पहले उन्हें लकवा मार गया था। अभी भी बिस्तर पकड़े हुए हैं। पेंशन बिल पर अँगूठे का निशान लगाकर मेरा बेटा यहाँ से चेक ले जाता है फिर कैसे क्या होता है हमें मालूम नहीं है। मगर मेरा बेटा मुझे पाँच सौ देता है। मैं और माँगती हूँ तो नहीं देता है।" 

-"आपके पति होशो हवास में अँगूठे का छाप देते हैं या फिर आपका बेटा जोर जबरदस्ती करवा लेता है ?"

-"पूरे होश में। पहले तो मैं लड़-झगड़कर, उधम मचाकर जरूरत भर की रकम ले लेती थी मगर अब मैं थक चुकी हूँ, शरीर साथ नहीं देता, ऊँचा बोलने में कष्ट होता हौ. ..मुझे कष्ट देने में उन्हें आनन्द मिलता है।"

उसकी बातें अटपटी लगती हैं। मुझे उस पर यकीन नहीं होता है। हकीकत जानने के लिए मैं तहकीकात करता हूँ-"आपने तलाक़ क्यों नहीं दे दिया था ? डिवोर्स हो गया होता तो यह प्रॉब्लम नहीं आती। जब इतनी परेशानी थी तो डिवोर्स ले ही लेना चाहिए था। आपकी मुश्किल आसान हो जाती। उनके वेतन से आपको हिस्सा बल्कि अपना हक मिल जाता।"

-मैं चाहती थी। मैं तलाक़ दे देना चाहती थी। पहल नहीं कर सकती थी। मजबूरी थी।" 

-"बुढ़ापे में रिटायरमेण्ट के बाद ऐसी समस्या ? बुढ़ापे में ही लाइफ पार्टनर की अहमियत समझ में आती है, जवानी में मनमुटाव, नोंक-झोंक होती रहती है, तलाक़ भी हो जाता है। लेकिन आप लोग बुढ़ापे में."

-"नहीं सर! बुढ़ापे में नहीं, लम्बे समय से। बल्कि शुरू से बुढ़ापे में ज्वालामुखी फूट पड़ा है।"

-"आपके पति ने इस दफ्तर में इतने वर्ष नौकरी की, यहाँ के सभी जानते हैं कि वह एक शरीफ आदमी हैं, उनके बारे में कभी किसी ने कोई किस्सा नहीं सुना, बड़ा अजीब लग रहा है यह सब विश्वास नहीं हो रहा है....इस दफ्तर के लोगों को तो एक-दूसरे की बेडरूम तक की ख़बर रहती है।"

-"विश्वास नहीं हो रहा है तो छानबीन करवा लीजिए। सर! मैं आपको वैम्प लग रही हूँ क्या ?...... इंसान के जब बुरे दिन आते हैं तो उस पर कुत्ते भी पेशाब कर देते हैं। पता नहीं और क्या कुछ सुनने के लिए जिन्दा रहना पड़ेगा। मेरा घर शाहगंज में है, मकान नम्बर एफ-५०१/२१/० आप जाँच करवा लीजिए, सच्चाई जान जाएँगे। मोहल्ले का बच्चा-बच्चा मेरे घर का किस्सा जान चुका है। कोई भी इस अभागिन की कहानी सुना देगा।"

मैं महसूस करता हूँ कि अनचाहे ही मैंने उसे जलील कर दिया है। खुद को सँभालते हुए मैं कहता हूँ-"नहीं, अविश्वास नहीं। मैं सोच रहा था यह कैसी कहानी है ?"

-"यह कहानी है घुटन की। नारी के घुटन की कहानी है। पुरुष प्रधान समाज में पुरुष द्वारा नारी को पालतू जानवर से भी बदतर ज़िन्दगी जीने को विवश करने की कहानी है। यह कहानी है एक खूबसूरत अभागिन की, एक अभागिन जिसके लिए खूबसूरती वरदान नहीं अभिशाप सिद्ध हुई। एक बेकसूर की जो रौंदी जाती रही, जिन्दगीभर रौंदी जाती रही। टूटती रही, मरती रही, मर-मरकर जीती रही।"

उसकी बातों को सुनने के बाद मैं उसे देखने के नज़रिए से देखता हूँ। वाकई बेहद खूबसूरत है वह । खण्डहर बता रहा है इमारत क्या चीज थी। पचास की दहलीज पर होगी, अभी भी उसका रूप देखने योग्य है।

मैं कहता हूँ-"जी, आप खूबसूरत हैं। किन्तु आप....... "

-"किन्तु विन्तु नहीं, अपने समय में मैं उतनी खूबसूरत थी जितनी आप कल्पना कर सकते हैं और वही खूबसूरती मेरे जीवन में अभिशाप बनी।"

- "अभिशाप ? किस तरह ? कोई दुर्घटना घटी थी ?" 

- "कह सकते हैं....... जिस दिन मेरी सुहागरात थी उसी दिन बहू भात था। रात को इन्होंने अपने दोस्त-यारों से परिचय करवाया था। हँसी-ठिठोली में किसी ने कहा “तू बड़ा भाग्यवान है, बन्दर के गले में मोती का हार", किसी ने कहा था "पकड़कर रखना भाभी कहीं हीरोइन बनकर बम्बई भाग न जाय"। एक ने तो हदें पार कर दी थी।...... उसने कहा था “तू इस चीज़ को एक रात के लिए दे दे मैं जिन्दगी भर तेरा गुलाम बना रहूँगा”......सारी बातें घरकर गयी थी। जाने कितनी रातें, कितने दिन चौपट हुए उन सारे दोस्त यारों से उन्होंने दोस्ती ख़त्म कर दी......मुझे वह शक की निगाहों से देखते....... दफ़्तर जाते तो बाहर से ताला डालकर, बच्चे बड़े होने लगे तो ताला नहीं डालते पर घर लौटकर बच्चों से पूछते मैंने खिड़की से तो नहीं झाँका था, छत पर तो नहीं चढ़ी थी। कभी-कभार दस-पन्द्रह दिनों के लिए दौरे पर जाते तो अपनी सौतेली माँ को अपने भाई के घर से ले आते थे रखवाली के लिए और वह चुड़ैल कहाँ नारी दमन के ख़िलाफ उस मर्द को समझायेगी उल्टा तेल छिड़कती थी अक्सर मेरा मन चाहता अपने ऊपर तेल छिड़ककर मुक्ति पा लूँ। एक दिन अपने ऊपर तेल डाल चुकी थी, माचिस की तीली भी ले ली थी मगर धड़ाम से गिरने की आवाज़ और मेरे बेटे की चीख सुनायी दी......मैं दौड़ गयी थी, वह सीढ़ी से गिर पड़ा था, सिर फूट गया था......उसके बाद दुबारा साहस नहीं जुटा सकी थी। बच्चों की खातिर मैं जीती रही, सहती गयी। मन-ही-मन सुबकती रही, अपना आँसू पीती रही, हर रोज़ पीती रही। मैं तिल-तिल मरती रही, मर-मरकर जीती रही। सोचा था बच्चे बड़े हो जायेंगे तो मेरी पीड़ा समझेंगे, दुःख बाँट लेंगे मगर बड़ावाला अपने बाप पर गया, बना भी अपने बाप का नारी जात के प्रति उसकी सोच, उसकी भावना बाप जैसी मेरी कोख से जन्मा वह नर पुरुषसत्ता का उत्तराधिकारी बना......दूसरा बेटा अपने बाप से डरता, बाप के मुँह पर कुछ नहीं कहता किन्तु मेरा ख्याल रखता, मुझे सपोर्ट करता...... मैं तो जैसे पैदा ही हुई थी दुःख-दर्द झेलने.......दूसरा बेटा बीस वर्ष का था, इण्टर पास, मगर चालाक चतुर, तेज-तर्रार एकदम अपने नाना जैसा। वैसा ही कद, वैसी ही काठी, बहादुर, मृदु स्वभाव का 'कारगिल' युद्ध के दौरान फौज में भर्ती होने के लिए 'दानापुर' गया था...... बेरोजगारी इतनी कि दस की ज़रूरत हो तो दस हजार पहुँच जाते हैं।..... दानापुर का वह किस्सा आपने सुना होगा, ट्रेंच में अनेक लड़के गिर पड़े थे, भगदड़ मची थी, गोलियाँ चली .........सेलेक्शन से पहले ही मेरा बच्चा शहीद हो गया था। देश के लिए कुर्बान होने का शौक था उसे एन० सी० सी० करता था, एन० सी० सी० का ड्रेस पहनकर सैलूट मारकर मुझसे कहता 'जयहिन्द !' मैं आशीर्वाद दिया करती 'तेरी इच्छा पूरी हो....... जय हिन्द ! मेरे लाल जय हिन्द।'तू वर्दी पहनकर शहीद हो गया होता तो तेरी माँ आज न रोती ...सुमन का आँचल खाली हो गया। क्या बचा है अब मेरे जीवन में? मैं जीयूँ तो किसके लिए, रोऊँ तो किसके लिए ?"

मुझे उस पर दया आती है बल्कि 'एम्पैथी' होती है किन्तु मेरे पास उसकी समस्या का निदान नहीं है।

जब तक यह कथानक आगे नहीं बढ़ेगा मेरी कहानी संरचना पूरी नहीं होगी। इसे आगे बढ़ाने की मंशा से मैं कहता हूँ-“आपको अपनी समस्या लेकर नारी संगठन के पास जाना चाहिए था।"

- "पेंशन का दफ़्तर आपका है, भुगतान आप करते हैं, संगठन से क्या मतलब है ?"

-"पेंशन तो बाद की बात है। प्रॉब्लम क्रानिक है। पूरी जिन्दगी आप उत्पीड़न सहती रहीं, मर-मरकर जीती रहीं, इस पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए आपको नारी संगठन, ह्यूमन राइट्स, अदालत कहीं-न-कहीं जाना चाहिए था। " 

-"मैं गयी थी। 'नारी मुक्ति संगठन' की सचिव मिसेज अंजना से मिली थी। वह बोली जब तक मेरे पति मुझे लात-घूँसा मारकर घर से निकाल नहीं देते, जब तक पति द्वारा दी गयी प्रताड़ना का सबूत मैं अपने बदन पर पड़े दागों से प्रस्तुत न कर सकूँ, जब तक मैं दो-चार चश्मदीद गवाह पेश न कर सकूँ तब तक प्रताड़ना सम्बन्धी मामला बनता नहीं है. ..वह मेरा मजाक उड़ाकर बोली कि पति-पत्नी का कलह, आपस की नोक झोंक घर-घर की कहानी है। वह बोली मैं अगर लिखित शिकायत करूँ तो वह अख़बारों में छपवाकर मेरे पति की मिट्टी पलीद कर सकते हैं। बेनकाब हो जाने के बाद प्रताड़ना करना मुश्किल हो जाएगा... मैं सहमत नहीं हुई थी। ऊपर थूकने से अपने ही ऊपर थूक गिरता । यह भी सम्भव था कि वह मुझ पर लात घूँसा जमाने लगते। मिसेज अंजना बोली कि उसके पति हाईकोर्ट में सीनियर एकवोकेट हैं, वह अगर अपने पति को मेरा केस टेकअप करने के लिए राजी करवा लेती तो मुझे बिना डिवोर्स के ही प्रतिमाह अच्छी रकम तथा मेण्टल टॉर्चर के कम्पेनसेशन के रूप में एक मुश्त मोटी रकम दिलवा देंगे। उसने पति की फीस इक्कीस हजार बतायी थी। बिना उत्तर दिये, बिना नमस्ते किये उसके घर से मैं लौट आयी थी।.. ...मैंने क्या कुछ नहीं किया था। एक बड़े ज्योतिष ने मुझे यह नग पहनने को कहा था। उसने कहा था इसे पहनने से मेरी शनि की साढ़े साती उतर जायेगी। इसे पहनने के लिए मैंने अपना झुमका बेच दिया था।"

अपनी व्यथा-कथा सुनाते-सुनाते उसकी आँखें बार-बार छलछला जातीं। आवेदन-पत्र मेरी ओर बढ़ाकर वह कहती-"सर। इसमें मेरी प्रार्थना है, आप चाहें तो जाँच करवा लीजिएगा! काईण्डली मेरे नाम से दो हजार रुपये का चेक जारी करने का ऑर्डर कर दीजिएगा! पता नहीं, ऊपर कोई भगवान् है या नहीं फिर भी यह अभागिन आपके लिए दुआ माँगेगी।”

अब मैं अजीब उलझन में फँस गया हूँ। कहानी ऐसा मोड़ ले लेगी मैंने इसकी कल्पना भी न की थी और न ही इससे पहले कभी इतना बुरा फँसा था।

मैं कम्प्यूटर का माउज चलाता हूँ। सरसरी निगाह से एक-एक रूल पढ़ता हूँ, बार बार अप एण्ड डाउन करता हूँ, दिमाग पर प्रेशर भी डालता हूँ, मगर कहीं कुछ नहीं दिखता। मैं जान रहा था मेरा यह कम्प्यूटर भानुमती का पिटारा है, पूरी दुनिया को देने के लिए इसके पास कुछ-न-कुछ होगा जरूर मगर यह तो ऊँची दुकान फीका पकवान निकला। सुमन की ओर मुखातिब होकर भारी हृदय से मैं कहता हूँ-"सॉरी मैडम! कोई नियम नहीं है जिससे मैं आपकी मदद करूँ।"

"नहीं है तो बनाइए, नया नियम बनाइए। जमाना कितनी रफ्तार से बदला है, हर पल हर क्षण बदलता जा रहा है और आपके नियम वहीं के वहीं हैं ? जब तक मैं अपने घर की इज़्ज़त को सड़क पर न उतार फेकूँ, इस दफ़्तर के बाहर या कचहरी के सामने आमरण अनशन पर न बैठूं या पति की मौत न हो जाए क्या तब तक मुझे अपना हक नहीं मिल पायेगा ? यह कैसा नियम है ?"

-"सॉरी मैडम! मुझे आपसे हमदर्दी है, आपकी व्यथा और आपका आक्रोश मैं समझ रहा हूँ किन्तु नियमों के मुताबिक आपको अलग से मिलने का हक तब तक नहीं प्राप्त होता है जब तक आपका डिवोर्स न हो जाए .....या फिर उनकी मौत।”

वह चीख उठती-"पता नहीं यह कैसा नियम, कैसा विधान है यह। पति जीवित रहे तो भूखा मरूँ, मर जाये तो भरपेट खाऊँ। मेरा सुहाग रहे तो कुछ भी मेरा नहीं, न रहे तो सब कुछ मेरा.......मौत भी तो नहीं आती है उनको, मैं तो कब से उनकी मौत की कामना कर रही हूँ।”

वह रोने लगती है। फूट-फूटकर रोती है। मैं उसे रोने देता हूँ। सुबकना, आँसू पीते रहता सेहत के लिए अच्छा नहीं है। रोने से मन का बोझ उतर जाता है, निर्णय लेने की क्षमता विकसित होती है। वह रोती है। मैं उसे रोने देता हूँ। 

मेरे अधीनस्थ दोनों अधिकारी दरवाजे के बाहर कान लगाये खड़े हैं, वे इसके आदी हो चुके हैं। उन्हें मालूम है मेरा यह कमरा कथापीठ है। अपाहिज़ों, आश्रितों, मासूम बच्चों की मार्मिक कथाओं से भरा हुआ है यह कमरा।

अब कथानक को उसके मुकाम तक पहुँचाने के लिए एक टर्निंग पॉइण्ट की ज़रूरत है। अभी इसी वक़्त अगर उसका पति कमरे में दाखिल हो जाए और उसकी पीठ पर हाथ रखकर कहे- "चलो घर! सुमन! मुझे अपने किये पर पछतावा है, मैं भी तड़प तड़पकर जीता रहा, न जी सका, न ही मर सका, तुम भी तो मुझे एहसास दिला सकती थी कि तुम मेरी रहोगी, सिर्फ़ मेरी, तो मेरे मन के भीतर का खौफ निकल जाता।चलो सुमन। चलो घर। तुम मुझे माफ नहीं करोगी ?"

और फिर वह महिला कुर्सी से उठकर पति के वक्ष पर मस्तक पटकने लगे तो कहानी का सुखद अन्त हो जाएगा। फिल्मों से जनता को सुखान्त की आदत पड़ चुकी है।

मगर कथानक की गम्भीरता के मद्देनज़र कथाकार अपने विविध अनुभवों के आधार पर एक मार्मिक, हृदय विदारक अन्त खोज लेता है।

सुमन के बेटे का फोन आता है। पेंशन वितरक अधिकारी सुमन को सूचित करता है कि वह पति की मौत की कामना कर रही थी, ऊपरवाले ने सुन ली है। वह अब नहीं रहे।

ख़बर सुनकर सुमन चीख उठती है, मुट्ठियाँ भींच लेती है, फिर रोती-कलपती दोनों मुट्ठियों को जोर-जोर से मेज पर पटकती है, हरी काँच की चूड़ियाँ चूर-चूर होकर

बिखर जाती हैं और सुमन की गोरी कलाइयों से खून रिसने लगता है।

लेकिन कहानी का अन्त कितना ही मार्मिक क्यों न हो, कहानी कितनी अव्वल क्यों न हो, पहली रीडिंग के बाद दूसरी रीडिंग में पाठक उसे खारिज कर देगा अगर वह उसके अनुभव से न गुजरे और सच्चाई की कसौटी पर खरी न उतरे।

कोरी कल्पना को थोपने की बजाय कथाकार कहानी को उसके स्वाभाविक, वास्तविक अन्त पर ख़त्म करता है।

पेंशन नियमावली में उस प्रताड़ित, विक्षिप्त, मदद की गुहार लगाती महिला के लिए कोई नियम न मिल पाने से कथाकार आहत होता है। सुमन के पति द्वारा किया गया अपराध एक ऐसा अपराध है जिसे पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था में दण्डनीय अपराध नहीं माना गया है। जब तक यातना दाग या जख्म की शक्ल में दिखायी न दे तब तक उस यातना को दण्डनीय अपराध नहीं माना जा सकता है। यातना जब जघन्य, हिंसक, निर्मम रूप ले लेती है तभी वह कानून के दायरे में आती है।

वैसे कानून के हाथ लम्बे होते हैं। अंजना के पति की हथेली में अगर वह प्रताड़ित महिला इक्कीस हजार दूँस देती तो कानून हाथ विशालकाय होकर पाताल से कोई द्रव्य ढूँढ़ लाता जो उसकी शनि की साढ़े साती उतार फेंकता। मैं महसूस करता हूँ कि उसकी मदद करना कहीं-न-कहीं मेरी नैतिक जिम्मेदारी

है। सुमन की समस्या आज की जटिल समस्या है, नारी अस्मिता की समस्या है। उसके आवेदन पत्र को मैं अपने पास रख लेता हूँ।

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शहादत
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सुबह अखबार पलटता हूँ। 'स्थानीय समाचार' (पेज थ्री) के स्थान पर लिखा हुआ है 'शहर की कहानियाँ । 

कहानी की नयी परिभाषा मेरे दिमाग में नहीं घुसी फोन मिलाकर अपने पत्रकार मित्र से पूछता हूँ-"क्या अब से समाचार को भी कहानी माना जाएगा ?"

खुद को सही ठहराते हुए वह कहता है कि अंग्रेजी न्यूज चैनेल में बहुत दिनों से न्यूज रीडर द्वारा 'मेन स्टोरिज ऑफ दि डे आर' कह के समाचार पढ़ा जा रहा है। काफ़ी देर तक बहस चली। मैं दफ्तर पहुँचता हूँ। सुबह से हल्की-हल्की बारिश हो रही थी, दोपहर होते-होते तेज हो गयी।

आज दफ्तर में अघोषित 'रेनी डे' है। मेरा बच्चा सुबह मना रहा था कि स्कूल में 'रेनी डे' हो जाय किन्तु हुआ नहीं, सारे स्कूल खुले हुए थे। 

कार्यालय में कर्मचारी नहीं है सो कोई 'कर्म' भी नहीं है।
कहानी की तलाश में मैं अपनी डायरी पलटता हूँ। 

'कारगिल' युद्ध से सम्बन्धित छोटी-बड़ी घटनाओं का जिक्र है इसमें 'कारगिल' की पृष्ठभूमि पर उपन्यास लिखने के इरादे से मैंने उन तमाम तथ्यों तथा घटनाओं को नोट कर रखा है जो अत्यन्त हृदय विदारक व हतप्रभ करनेवाली थी। 

मेरे नोट्स में उन बेशुमार लोगों की मार्मिक कहानियों का शुमार है जिनकी चीखें युद्धोन्मत्त लोगों के विजय डंका के शोर में विलीन हो जाती हैं।

मेरी आँखों के सामने उस शोकातुर वृद्ध पिता का क्रुद्ध चेहरा आ जाता है जिसकी आवाज़ प्रायः मेरे कानों में गूँजती है-"मुझे नाज़ है अपने बेटे पर देश की खातिर उसने अपनी आहुति दे दी। मगर यह देखना चाहिए इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार कौन है? इतने सारे आंतकवादी कैसे घुस आये ? इसकी सूचना पहले क्यों नहीं मिली ? समय रहते कार्यवाई क्यों नहीं की गयी ? इतनी सारी मौतें क्यों हुई ? इसका जिम्मेदार कौन ?.... मैं उन्हें गुनाहगार मानता हूँ। गुनाहगार को उसके किये की सजा मिलनी चाहिए।"

एक दर्दनाक कथा। एक क्षुब्ध पिता की कथा जो कभी भी स्मरणीय कहानी में तब्दील नहीं हो पायेगी। अनुत्तरित रह जायेंगे उनके प्रश्न। मेरे पत्रकार मित्र ने शायद ठीक ही कहा था ऐसे प्रश्न किसी-किसी को क्षणिक उद्वेलित तो करते हैं किन्तु आहत किसी को नहीं। जटिल प्रश्नों का उत्तर जानना बौद्धिक विलासिता है इस युग में।

पलक झपकते शोकातुर पिता का चेहरा लुप्त हो जाता है और इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि ट्रेजेडी में कामिक्स आ जाता है। टेलीविजन के स्क्रीन पर विश्वसुन्दरी अपनी कोमल त्वचा का राज़ बताने लगती है और अंग-अंग की कोमलता का राज़ जानने के लिए पारखी नज़रें तल्लीन हो जाती हैं 'मधुशाला' में।

डायरी का पन्ना पलटता हूँ। कारगिल के दुर्गम पथ पर बोफोर्स धमाका, बोफोर्स की कामयाबी, बोफोर्स पर चल रहा अन्तहीन विवाद, जवानों की लाशें, ताबूत की खरीद फरोख्त में कमीशन खाने का आरोप, सबूत के अभाव में लाशों का दुखान्त आदि तमाम किस्सों के बारे में सोचते-सोचते मेरे मानस पटल पर और एक करुण कथा मण्डराने लगती है जो शायद ही इतिहास के पन्नों में दर्ज हो पाये।

कथा है पाकिस्तान की एक युवती की क्या नाम था उसका मालूम नहीं है। नाम भी रहा हो कथाकार को इससे मतलब नहीं है। वैसे कहानी के लिए उसका नाम कुछ रेहाना रखता हूँ। रेहाना का शौहर आर्मी अफ़सर, अपनी मर्दानगी, अपना ज़ज्बा दिखाता हुआ मुल्क की सरहद पारकर आ पहुँचा था इस मुल्क में और शिकार हुआ था हिन्दुस्तानी फौज का ।

उस आर्मी अफ़सर की लाश को पाकिस्तानी फौजी हुकूमत ने लेने से इनकार कर दिया था।

पाकिस्तान का दावा था कि उसका कोई भी फौजी युद्ध में शिरकत नहीं कर रहा था। घुसपैठ करनेवाले आतंकवादी थे।

रेहाना को क्षोभ है कि उसके बहादुर शौहर के नसीब में उसके वतन की छह की जमीन भी न थी।

फुट रेहाना का आखिरी ख़त हवा में लहराता हुआ दिखायी देता है। रेहाना ने लिखा था- "उस दिन हमारी पैंतालीस मिनट की बात फोन पर मैं तुम्हें बहुत कुछ कहना चाहती थी, कह नहीं पायी.......कल मेरा जन्मदिन है और सण्डे को तुम्हारा, मगर तुम्हारे बिना सब कुछ बेमानी लगता है........ की दुआ माँगती हूँ.... ..पाँच बार नमाज़ अदा करती हूँ, तुम्हारी ख़ैरियत ........ दुबारा बात करना,...... .. बन्नी को तो तुमने अभी तक देखा भी नहीं, वह एकदम तुम पर पड़ी है, उसके ऊपर के दो दाँत निकल आये हैं, मैं उससे कहती हूँ 'पप्पी दो' वह दाँतों से गाल काट देती है, दिन-भर 'ताम-ताम ताम-ताम' जाने कौन-सा लफ़्ज़ निकालती और हँसती रहती है। एक नम्बर की शैतान है, तंग करती है दिन-भर जल्दी से घर लौटो और संभालो अपनी नॉटी गर्ल को.......बस अब और नहीं लिखा जा रहा है, आँखों से आँसू आ रहे हैं, खुदा सही सलामत रखे। अपना ख्याल रखना...... रेहाना।”

बन्नी अब कुछ बड़ी हो गयी है। वह जान गयी है कि हर बच्चे का अब्बू होता है। वह अपने अब्बू के बारे में पूछती है।

रेहाना अपनी बेटी से कहना चाहती है कि उसका अब्बू एक जांबाज़ फौजी अफसर था जिसने जंग में दुश्मनों के दाँत खट्टे कर दिये थे, सैकड़ों को मौत के घाट उतारकर शहीद हो गये थे। वह कहना चाहती है कि उसे अपने शौहर पर नाज़ है और बेटी को भी अपने बाप पर फ़न होना चाहिए।

मगर लाख कोशिश के बावजूद रेहाना अपनी बेटी से झूठ नहीं बोल पाती। उसका दिल गवाही नहीं देता।
कथाकार चाहता है कि रेहाना अपनी बेटी बन्नी को हकीकत से वाकिफ़ करा दे।

रेहाना अपने शौहर के कब्र के पास बन्नी को ले जाकर दिखलाना चाहती है कि उसके अब्बू के हत्यारों ने अब्बू को पाकिस्तानी झण्डे से ढँककर अपने देश की छह फुट जमीन में दफ़नाकर शहीदी सलाम दिया था।

रेहाना अपने शौहर को शहीद नहीं बोल पाती।

रेहाना दुश्मनों को दुश्मन नहीं मान पाती। हत्यारों को हत्यारा नहीं मान पाती। रेहाना जानना चाहती है गद्दार कौन है ? वह जानना चाहती है उसके पति की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है ? 

रेहाना ख़ामोश रहती है। ख़ामोशी में वह अपनी ख़ैर समझती है। सच बोलना उसके लिए गुनाह है। गुनाहगार बनकर रेहाना अपनी और बन्नी की ज़िन्दगी बर्बाद नहीं करना चाहती है। यही इस कहानी का सच है।

शोकातुर वृद्ध पिता की तरह रेहाना अपनी भड़ास नहीं निकाल सकी थी। अपनी भड़ास निकाल दी होती तो शायद अपने ज़मीर पर अपना ऐतबार रख पाती, घूमती-फिरती लाश बनने से बच जाती।

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इच्छा मृत्यु की मांग
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कार्यालय बन्द होने में अभी भी एक घण्टा बाकी है।
इस समय मूसलाधार बारिश हो रही है। रेनकोट निकालकर मैं निकल पड़ता हूँ। फाटक के पास कोई साधन न देख मैं पैदल चल पड़ता हूँ। चलता रहता हूँ। सड़क के पॉश एरिया से गुजरता हूँ। कहीं कोई साधन नहीं दिखता है। थोड़ी-थोड़ी देर में कोई भारी वाहन गुजरता है और मैं ख़ुद को सँभालता।

सड़कों पर कहीं दो इंच, कहीं चार और कहीं-कहीं एक फुट जलभराव है। अपने घर की हालत कैसी हुई होगी यह सोचकर भयभीत होता हूँ। गंगा किनारे बाँध के नीचे बसा मेरा मोहल्ला कभी-कभार बरसात में थोड़े दिनों के लिए तालाब बन जाता है। एक बार 'मोरी गेट' खुला रह जाने से गंगा जी का पानी पूरे शहर में फैल गया था, ऊपर से हफ़्ते भर की लगातार बारिश ने और तबाही मचा दी थी। मेरा मकान छह फुट पानी में डूबा हुआ था इक्कीस दिन।

मेरे जीवन का बहुमूल्य खजाना डूब गया था। दो उपन्यासों की पाण्डुलिपियाँ और सारे कतरन जिन्हें मैंने अथक परिश्रम से उपन्यास के लिए कलेक्ट किया था, डूब गये थे। डूब गयी थी ढेर सारी दुर्लभ, बेशकीमती पुस्तकें। निमिष में दशक का श्रम पानी में डूब गया था और जलभराव ने लिख दी थी मेरे जीवन में एक असमाप्त निर्मम कहानी।

किन्तु मुझे इत्मीनान है इस बार मेरा कुछ नहीं डूबेगा इंतजाम पुख्ता है। जलभराव से न कोई कहानी बनेगी, न ही कोई कहानी मिटेगी। 

मेरी आँखों के सामने मैत्रेयी पुष्पा की कहानी 'राय प्रवीण' की बाढ़ का दृश्य आ जाता है। मैं उस कहानी के साथ आगे बढ़ता हूँ।

चलते-चलते मुझे एक चीख सुनायी देती है। बाँये देखता हूँ। बौछारों के बीच में से मैं गौर करता हूँ कि फुटपाथ से लगी गुमटी के नीचे कोई बैठा हुआ था। मैं उसे देख अनदेखा कर आगे बढ़ना चाहता हूँ। वह फिर गुहार लगाता है। मैं रूक जाता हूँ। उसके क़रीब जाता हूँ।

गुमटी के नीचे एक मोटा-सा अधेड़ उम्र का आदमी बैठा हुआ दिखता है। 

-"बोलो क्या बात है ?" है

- "कल रात से कुछ नहीं खाया, बहुत भूखा हूँ, रोटी चाहिए।"

- "रोटी क्या जेब में रहती है ?" 

- "बाबू! आपकी जेब में रोटी न सही रुपये तो होंगे ही।"

- "हट्टा-कट्टा आदमी भीख माँगते शर्म नहीं आती? जब से तुम्हारे जैसे तन्दुरुस्त लोग भीख माँगने लगे हैं लोगों ने भिखारियों पर रहम करना बन्द कर दिया है।"

मैं आगे बढ़ता हूँ फिर जाने क्यों दया आ जाती है। जेब से एक रुपये का सिक्का निकालकर उसकी ओर बढ़ाता हूँ।

वह हाथ बढ़ाकर फिर अचानक नीचे उतारकर कहता है-"दस रुपया दो।" मैं हँसकर आगे बढ़ जाता हूँ। उसकी ज़बरदस्त चीख से फिर रुक जाता हूँ। औंसा होकर वह मदद माँगता है। 

भिखारी के नाम से निकला हुआ सिक्का भी मेरी मुट्ठी में है, इसे मैं जेब में रखने से कतराता हूँ। मुझे लगता है यह सिक्का अब उसका है, इस पर अब मेरा हक नहीं है, मैं मुट्ठी खोलकर सिक्का बढ़ाता हूँ.. ..... वह झट से मेरी कलाई पकड़ लेता है। मैं सहम जाता हूँ। उसकी आँखें अँगार हो उठती हैं।

मैं शोर मचाना चाहता हूँ मगर दूर-दूर तक कोई नहीं दिखता। अति विनम्रता से मैं कहता हूँ - "छोड़ो मैं तुम्हें और देता हूँ, छोड़ो भाई और एक रूपया दूँगा।"

वह तपाक से कहता है-“दो रुपया से क्या होता है आजकल ? इतना बड़ा पेट है... .. कल शाम से यहीं हूँ। खाली पेट सोचा था सुबह कहीं निकल जाऊँगा मगर इतनी बारिश, कोई वाहन नहीं दिखता, कैसे जाऊँ ? पेट में दर्द है, भूख से पेट पीड़ा कर रहा है, सुबह बहुत दर्द था इस वक़्त थोड़ा-सा कम हुआ है, दोपहर से कोई नहीं दिखायी दिया, तुम पहले आदमी हो......भूख से पेट में कैसा दर्द होता है तुम्हें क्या मालूम ? नहीं मालूम।ए बाबू, तुम शक्ल-सूरत से साहब लगते हो, कीमती घड़ी पहने हुए हो, सोने की तीन-तीन अँगूठियाँ भी हैं, कीमती नग जड़े हुए हैं, भूखे को दस रुपया देने से तुम ग़रीब हो जाओगे क्या ? जाओ जाऊँगा।” तुम, मैं भूख से मर जाऊँगा।

वह एक झटका देकर मेरा हाथ छोड़ देता है।

अब मैं उससे नहीं डरता हूँ। मन में नाराज़गी है किन्तु अजीब मुसीबत में फँस गया हूँ। उसकी हरकत देख एक ढेला देने का मन नहीं कर रहा है और उसे बिना चले जाने में कमीनापन लग रहा है। मैं जेब टटोलता हूँ। डेढ़ रुपया निकालकर कुल ढाई रुपये बढ़ाता हूँ। वह दुबारा मेरी कलाई पकड़कर अधिकारपूर्वक कहता है- “बाबू, तुम्हारे कुछ दिये लिये दस रुपया क्या है ? हाथ का मैल है। जब से तुम कमा रहे हो किसी को दस रुपए नहीं दिये तभी ढाई रुपया निकालने में इतनी तकलीफ़ हुई। रख लो इसे।"

वह मेरा हाथ छोड़कर कहता-"मैं तुम्हारे बदरंग आत्मा को चाक-चौबन्द बना सकता हूँ। तुम मुझे दस रुपया नहीं दे सकते मैं तुम्हें बहुत कुछ दे सकता हूँ, बस तुम्हें एक काम करना पड़ेगा।"

मैं डगों को आगे बढ़ा चुका था किन्तु उसकी बातों से चकित होकर पीछे पलटकर पूछता हूँ-“बोलो तुम मुझे क्या दे सकते हो ? भीख माँग रहे हो और रंगबाजी के साथ !” 
-"मैं तुम्हें जो कुछ अपना है सब दे सकता हूँ बस तुम्हें एक काम करना पड़ेगा। इस पापी पेट की ख़ातिर मैं कभी यहाँ तो कभी वहाँ, न खाने का ठिकाना, न रहने का..... "

कौतूहल के बावज़ूद मैं उसके पागलपन में नहीं आना चाहता था। वह मेरी आत्मा को कोस चुका था, मुझे बाद में अफ़सोस न हो इस कारण मैं दस रुपया निकालकर कहता हूँ-"लो, रख लो इसे, सचमुच अगर भूखे हो तो खाना खा लेना, बारिश थम रही है। मैं चलता हूँ।"

मैं आगे बढ़ जाता हूँ। 'बैहराना' से पहले रेलवे ओवरब्रिज के पास एक 'स्टूडेण्ट्स 'भोजनालय' में टिफिन देख दिमाग में आता है क्यों न रोटी-सब्जी लेकर उस भिखारी को देकर अपनी 'बदरंग आत्मा' की थोड़ी-सी सफाई कर लूँ। ठीक ही तो कहा था उसने, मैंने कभी किसी को दस रुपये दान नहीं किया था। मगर क्या काम है उसका ? किस काम के लिए वह अपना सर्वस्व देना चाहता था ? होगा ही क्या उसके पास ऐसा भी किस्सा सुन रखा है कि भिखारी के मरने के बाद उसकी पोटली से चालीस-पचास हजार पाये गये। मगर किस काम के एवज़ वह मुझे सब कुछ देना चाहता था ? मुझे किसी से कुछ नहीं लेना है, पर एक भिखारी कां कोसना मुझे बर्दाश्त नहीं करना चाहिए। क्या कहा उसने मेरी आत्मा बदरंग है ? नहीं नेकी मुझे भी आती है। 
एक पन्नी में रोटी-सब्जी और पानी की एक पन्नी लेकर मैं पहुँचता हूँ।

आहार पाते ही वह गपागप खाने लगता है और कहता है-"बाबू माफ़ करना भूख के कारण तुम्हें उल्टा-सीधा कह गया। अल्लाहताला से मैं तुम्हारे लिये दुआ माँगूगा। तुम वाकई नेक इंसान हो खुदा तुम्हारा भला करे!”

मैं अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पाता हूँ और उससे पूछता हूँ-“मगर एक बात बताओ तुम फ़कीर हो भीख माँगकर अपना पेट भरते हो तुम मुझे क्या दे सकते हो ?” वह हाजिर जवाब देता है- "अपनी दो आँखें, दो किडनी, खून सब कुछ अपनी मर्ज़ी से दे दूँगा। तुम बेचकर रईस बन जाओगे.... "

वह हँसने लगता है। मैं गुस्सा झाड़ता हूँ-“धत् साला पागल ! मेरा भी किस पागल से पाला पड़ा है।”

मैं डगों को ज्यों ही आगे बढ़ाता वह चीख उठता- "बाबू ठहरो! बाबू !”

मैं पीछे घूमकर उसे देखता हूँ। वह एक झटके से भारी कथरी हटाता है। मैं काँप उठता हूँ। उसके दोनों पैर कटे हुए थे। दो-चार मिनट लगते हैं खुद को सँभालने में। फिर सहानुभूतिपूर्वक पूछता हूँ-"यह कब से ? कैसे ?”

उसकी आँखें छलछला उठती हैं। उसकी असहाय अवस्था देख मैं तार-तार हो जाता हूँ। इतनी करुणा, इतनी वेदना इससे पहले मैंने कभी किसी के चेहरे पर देखी न थी। मैं दुबारा पूछता हूँ-"कब से ? कैसे ? जन्म से ?"

-"नहीं। तीन साल पहले। मैं भी तुम्हीं जैसा था। हट्टा-कट्टा, फुर्तीला । कमाता खाता था, खुशहाल था। घर-द्वार, बीबी-बच्चे सब कुछ था मगर.... "

वह फूट-फूटकर रोने लगता है। "कैसे खो दिया तुमने सब कुछ ? कैसे तुम्हारे पैर.....?

-"अहमदाबाद में अपना मकान है, कारोबार था कंस ने हर बार इन्तज़ार किया था, पैदा होने के बाद कत्ल किया करता था। मनहूस, बेरहम, शैतानों ने मेरी बीबी के पेट से सात महीने के बच्चे को निकालकर मार डाला था, कोई नहीं बचा था, मेरे मासूम बच्चों को नेजों पर उछालकर मार डाला था...... मैं सबको बचाना चाहता था। मैं अकेला था और वे थे.. .. हैवानों ने मेरा यह हश्र किया....." 

-"कौन थे वे ? पहचानते हो किसी को ? पहचान पाओगे ?"

-"वही जो 'बापू' का हत्यारा था............

.........बाबू तुम बताओ मैं कौन हूँ ?.. ..
..........बाबू तुम बताओ तुम कौन हो ?.............

.........मुझे जैसी भूख लगी थी तुम्हें वैसी भूख लगती है क्या ?" 

मैं चुप रहता हूँ। मेरी चुप्पी उसके जख्म पर मरहम का काम कर सकती थी। मैं उसने आगे कहा-"मेरा एक रिश्तेदार रहनुमा बनकर मेरी ज़िन्दगी में दाखिल हुआ। वह भी इंसान की शक्ल में हैवान निकला। हड़प लिया उसने। ज़ोर ज़बरदस्ती वसीयतनामे में दस्तखत करवा लिया. छोड़ गया मुझे, लावारिस कुत्ते से बदतर जिन्दगी जीने के लिए। जिन्दा दफना दिया होता मुझे, तो भी दम तोड़ते वक़्त दुआ देता उसे, पता नहीं किस गुनाह की सज़ा भोग रहा हूँ. कमबख्त मौत भी नहीं आती है, मैं मरना चाहता हूँ........ बाबू मैं दूसरा वसीयत लिख सकता हूँ ना ? मैं जिन्दा हूँ, मैं अपना मकान बल्कि अपनी हवेली दूसरे के नाम कर सकता हूँ ना ?" 

-"हाँ कर सकते हो।"

अभी भी काले और घने बादल घिरे हुए अन्धेरा छा चुका है। घर लौटने के लिए व्याकुल हूँ मगर उसकी कहानी अभी भी अधूरी है। उसकी एक-एक बात मेरी जिज्ञासा बढ़ाती है। मैं आगे बढ़ना चाहता हूँ तो वह कहता-“बाबू थोड़ी-सी मदद कर दो तो बड़ा अहसान होगा, तुम अपना यह दस रुपया ले लो, मैं यहीं बैठा रहूँगा, तुम मुझे एक पुड़िया जहर ला दो ना!"

-“क्या ?” मैं सातवें आसमान से गिरता हूँ।

-"तुम्हें कुछ नहीं होगा। कुछ नहीं। अपनी मौत की जिम्मेदारी ख़ुद लूँगा, जैसा तुम कहोगे मैं वैसा लिख दूँगा, मैं अपनी मर्ज़ी से मौत चाहता हूँ लिख दूँगा, कोई जिम्मेदार नहीं है, कोई नहीं, लिख दूँगा मैंने ख़ुद मौत को गले लगाया है......दंगे में जो बच्चे अनाथ बने हैं उनके नाम मैं अपनी हवेली लिखना चाहता हूँ, तुम चाहोगे तो तुम्हारे नाम कर दूँगा........बाबू तुम बहुत सोचनेवाले इंसान हो, सोचो बताओ मुझे इस तरह जीते रहना चाहिए या मरना चाहिए ?"

मेरे दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं। मेरे जीवन में यह पहला अवसर है जब मैं स्वयं को इतना असहाय, लाचार और मानसिक रूप से अपंग पाता हूँ। 

बड़ी मुश्किल से कह पाता हूँ-"माफ़ करना भाई। मैं तुम्हारे काम नहीं आ सकता। तुम्हारे लिये क्या करूँ समझ नहीं पा रहा हूँ। मैं अपनी सुध-बुध खो बैठा हूँ.......... 'इच्छा मृत्यु' की इज़ाज़त नहीं है कानून में आत्महत्या अधर्म भी है.... 

तुम्हारा हाल देख मैं दुःखी हूँ.......अल्लाहताला तुम्हारी मदद करें ! हाँ...... तुम्हारी पीड़ा उजागर कर मैं एक कहानी अवश्य लिखूँगा। शायद मुझे इसी कहानी की तलाश थी। ख़ुदा हाफिज़ !"

वह अट्टाहस करता है। फिर कहता है-"क्या ? तुम कहानीकार हो ? जानते हो आज का सच क्या है ? जानते हो आज की सबसे बड़ी कहानी क्या है ? यहाँ मैं हूँ, कायर बुजदिलों की कहानी, एक जिन्दा लाश, एक-एक रोटी को मुहताज़, जिसे दुनिया का कानून एक पुड़िया जहर देने की इज़ाज़त नहीं देता, जिसमें तुम्हारे जैसा बुजदिल कहानी तलाशता है और उधर दुनिया के ठेकेदारों का दाम्भिक यन्त्र, 'स्पिरिट' मंगलग्रह में उतरकर अपने पंखों को फैलाकर फुदक-फुदककर छह अरब इंसान से अलग किसी अजूबा इंसान की खोज कर रहा है. ....... बाबू तुम कायर हो, बुजदिल हो तभी मुझ जैसों पर घड़ियाली आँसू बहाते हो और चाहते हो तुम्हें सुनकर और लोग भी घड़ियाली आँसू बहायें.. ..तुम गपोड़ी हो, गम्प मारते हो, सच बोलने की हिम्मत नहीं है तुममें। क्या तुम लिख सकते हो गाँधियों की हत्याएँ क्यों करायी गयी थीं ?......."

वह ठहाके मारकर हँसता है कुछ देर, फिर अचानक गम्भीर होकर कहता "बाबू भागो, भाग जाओ, अभी वे हत्यारे आ जायँगे, तुम्हें मार डालेंगे। तुम्हें मालूम आज शहर में दंगा हुआ है, कर्फ्यू लगा हुआ है ? बाबू भागो, भाग जाओ वे आ रहे हैं, भीड़ आ रही है, वे तुम्हारे पैर काट देंगे...... भागो, बाबू भाग जाओ. ." फिर जोरों से हँसने लगता है। मुझे अब वह पागल लगने लगता है। लगता है वह सचमुच पागल हो गया है। चारों ओर सन्नाटा, अन्धेरा, घोर अन्धेरा। उसके पैर नहीं है फिर भी मैं डरने लगता हूँ। भाग निकलता हूँ। मानो जान छुड़ाकर, जान बचाने की कोशिश में भागता हूँ, बहुत
दूर तक उसकी चीख सुनायी देती है. 

"बाबू भागो, भाग जाओ, वे आ रहे हैं, भीड़ आ रही है....वे आ रहे हैं....
भागो, भाग जाओ.. .. "

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)

Tuesday, September 13, 2022

कहानी: दूसरी रामकली



रामकली की मौत के बाद चार-चार बेटियों को लेकर प्रदीप अजीब मुसीबत में फँस गया। उसकी माँ बूढ़ी हो चुकी थीं, अस्वस्थ भी रहतीं, उनसे अब कुछ भी नहीं होता। भाभियों ने कहा कि वे अपनी-अपनी गृहस्थी से ही फुरसत नहीं पातीं उसके बच्चों को कैसे सँभालेगी। प्रदीप बच्चों को लेकर अपनी ससुराल पहुँचा तो रामकली की विधवा माँ ने 'रामकली का हत्यारा' कह के मुँह पर दरवाज़ा बन्द कर दिया।

प्रदीप के घरवाले रामकली की तेरही समाप्त होने से पहले ही लड़की की तलाश में लग गये थे मगर रामकली की व्यथा-कथा और अस्पताल से उसके फ़रार हो जाने की ख़बर किसी से छिपी नहीं रही। उसके उस क्रूर आचरण के कारण उसने सभी की हमदर्दी खो दी थी लिहाजा लड़की ढूँढ़ने के लिए एड़ी चोटी का पसीना एक करना पड़ा। दो-ढाई वर्ष तक प्रदीप की बूढ़ी माँ को बच्चों की देखरेख करनी पड़ी।

आख़िरकार प्रदीप का दूसरा विवाह तय हो गया। एक वृद्ध अपनी विधवा बेटी श्यामा को देने के लिए राजी हो गये। मगर श्याम को यह प्रस्ताव नागवार था । श्यामा अब बत्तीस वर्ष की हो चुकी थी। पन्द्रह वर्ष पहले उसकी शादी हुई थी मगर दुर्भाग्य से हफ़्ते भर बाद उसका पति ट्रक से दबकर चल बसा था।

ट्रकवाले को पकड़ लिया गया था, वह छूट भी गया था किन्तु श्यामा को कहीं से एक धेला नहीं मिला था। तभी से श्यामा अपने ग़रीब बाप के पास रहकर वीरान सी जिन्दगी बीता रही थी। एक छोटे-से स्कूल से श्यामा मात्र दो सौ रुपये पर आया। का काम करती, कभी-कभार शादी-ब्याह में बावर्ची के साथ पूड़ी बेलने का काम भी कर कुछ कमा लेती।

श्यामा अपनी हालात के साथ समझौता कर चुकी थी। दूसरी शादी के लिए वह हरगिज़ तैयार न थी और उसने कड़े शब्दों में अपनी आपत्ति व्यक्त की थी किन्तु उसके माता-पिता ने समझाया- “हम बूढ़े हो रहे हैं, हमारी मौत के बाद तुम्हें कौन देखेगा ?”

श्यामा ने कहा था अभी आप लोग कहाँ जा रहे हैं ? तब तक मैं बूढ़ी हो जाऊँगी ? पिता ने समझाया- "बेटी! जीवन का क्या भरोसा ? हम उल्टी गिनती गिन रहे हैं। कभी भी मर सकते हैं। हमारे मरने के बाद तुम्हारा क्या होगा ? कौन देखेगा ? वैसे भी तुम घर कहाँ बसा पायी ? दुबारा घर बसाने की कोशिश करो, वे लोग पैसेवाले हैं, सुखी रहोगी।"

श्यामा ने गिड़गिड़ाया- "बाबू जी हमें सजा मत दीजिए। चार-चार बेटियाँ संभालनी है। मुझसे नहीं होगा यह आदमी और उसके घरवाले ठीक लोग नहीं है। उन लोगों ने रामकली को मार डाला है, हमें भी मार डालेंगे। मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिये।"

श्यामा की माँ बोली- "बेटी तू अब बच्ची नहीं है, समझदार भी है, स्कूल जाती है, दस पढ़े-लिखे लोगों के संग उठ-बैठ चुकी है, तू बुद्धि से काम लेना तू बेवा है, हम तेरी शादी न रचाते मगर हमारे बाद तुझे कौन देखेगा ? यह दुनिया बड़ी जालिम है, तू अकेली नहीं रह पायेंगी । तुझे सब नोंच-नोचकर खायेंगे, दर-दर ठोकर खायेगी।” 

आखिरकार, श्यामा को अपनी सहमति देनी पड़ी थी।

शादी के लगभग दो बरस बाद श्यामा की कोख में बीज अंकुरित होने लगा। किन्तु इस बार प्रदीप के घर की स्थिति भिन्न थी। इस सम्बन्ध में किसी की कोई दिलचस्पी नहीं थी जबकि श्यामा ने अनचाहे ही लोगों के सामने कई बार उल्टी भी की थी। 

प्रदीप की माँ को इस बीच फालिज पड़ चुका था। वह हिलने-डुलने की स्थिति में नहीं रही। रौबीले पिता घर के एक कोने मसनद पर सीना चिपकाए फूलते साँस के दर्द को रोकने की कोशिश करते रामकली की बेटियाँ जो उनकी मदद में लगी रहती उन्हें प्रिय हो गयीं। उन्हें देख वे मुस्कुराते और सूखी हथेलियों को हिलाकर घड़ी-घड़ी आशीष देते।

रोगग्रस्त सास-ससुर के निकट बहुएँ अपने बेटों को नहीं जाने देतीं भूल से अगर कोई पोता उनके पास पहुँच जाता तो उसकी माँ चीख उठती- "कहना नहीं मानता कमीना, चमड़ी उधेड़ लूँगी तब समझेगा। कितनी बार समझाया कि वे लोग बीमार हैं तू बीमार पड़ जायेगा, बात नहीं मानता, आ तुरन्त आ।" और बेटा अगर अनसुनी कर देता तो उसकी माँ दनदनाती हुई कमरे में पहुँचती और बेटे को घसीटते घसीटते बिलबिलाती-"यह कैसा प्यार पोते का अगर भला चाहते हैं तो मत आने दीजिए अपने पास।"

घर में तीन बहू के तीन चूल्हे बन चुके थे। खेत चार भाई के नाम दो-दो बिसवा जमीन बँट चुकी थी और श्यामा के घर आने के दो दिन बाद श्यामा को चौका-चूल्हा थमा दिया गया था।

श्यामा की सन्तान संभावना से एक अकेला प्रदीप उत्साहित हो उठा। उसे फिर से आँगन में पुत्र दिखाई देने लगा। प्रदीप श्यामा के लिए साड़ी, सोने का झुमका और पायल खरीद लाया और उसे देते हुए अपनी खुशी का इजहार किया। श्थामा ने कहा "आपको फिजूलखर्ची नहीं करनी चाहिये हमारी चार-चार बेटियाँ है, उन्हें पढ़ाना लिखाना है, उनकी शादी करनी है, उनके लिए रुपये जोड़िये।"

प्रदीप आगबबूला हो गया- "ठीक से बात किया करो, लगता है तुम्हारी माँ ने तमीज नहीं सिखायी है, औरत हो औरत की तरह रहा करो। कहाँ तुम्हें खुश होना चाहिये, उल्टा बेतुकी बातें कर रही हो, बाप के घर में ऐसी साड़ी देखी भी न होगी और न ही तुम्हारे पहले पति ने ऐसा सामान दिया होगा। गँवारू जाहिल औरत! मिजाज खराब कर दिया, सारा मजा किरकिरा कर दिया।"

श्यामा ने उग्र रूप धारणकर लिया-"आपने मुझे रामकली समझ रखा है क्या? मैं श्यामा हूँ श्यामा। अपना भला-बुरा खुद तय करूंगी। अपनी गृहस्थी जैसा मैं चाहूँगी वैसा चलाऊँगी। मेरे साथ रहना हो तो ठीक से बर्ताव करियेगा वर्ना में घर छोड़कर चली जाऊँगी या अपने बदन में आग लगाकर जान दे दूँगी।"

प्रदीप ने अपना हाथ उठा लिया था मगर श्यामा की आँखों में खून उतरते देख वह सहम गया।

हफ़्ते भर बाद श्यामा चारों बेटियों को लेकर अपने मायके गयी। पन्द्रह दिन बाद जब वह लौटी तब प्रदीप ने उसे एक बड़ा सा गुड्डा भेंट किया। श्यामा ने अवाक् होकर पूछा- "इसे मुझे क्यों दे रहे हैं ?"

प्रदीप ने कहा- "बुद्ध ! जब तक पेट में बच्चा रहे इसे देखती रहना, मन प्रसन्न रहेगा और ऐसा ही गुड्डा जन्मेगा ।"

श्यामा ने गम्भीरता से उत्तर दिया-"मायके गयी थी वहीं मैंने दाई से अपनी सफाई करवा ली है। नसबन्दी करवा लीजिए, जब तक नहीं करवाते मैं गर्भ निरोधक लेती रहूँगी ले आयी हूँ।"

प्रदीप ने चीत्कार किया- "क्या ? मुझसे पूछे बगैर ? तेरी ये हिम्मत ?” और फिर उसने हाथ उठा लिया। श्यामा ने हाथ पकड़कर मुस्कुराकर कहा-"मैंने पहले ही आपसे कह दिया था मुझे रामकली मत समझियेगा। सुनिए! बेटे की आस में फिर अगर एक दो बेटियाँ आ जायें तो मुसीबतें बढ़ेंगी। बेटे और बेटी में आजकल कोई अन्तर नहीं है, बेटियाँ माँ-बाप का ख़्याल कम नहीं रखतीं और दूसरी बात मुझे भय है कि अपनी सन्तान को जन्म देने से मैं रामकली की बेटियों की सौतेली माँ बन जाऊँगी। इसलिए मैंने तय किया है कि मैं कभी भी सन्तान को जन्म नहीं दूँगी। अब आप जैसा कहिए, अगर आप कहें तो मैं घर छोड़कर ? ........"

थोड़ी देर खामोश रहने के बाद प्रदीप ने करुण मुस्कान के साथ श्यामा को गले लगा लिया। 

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)

कहानी: रामकली



डिलेवरी के सम्बन्ध में मेरी पत्नी अस्पताल में एडमिट थी। पार्ट पेयिंग कमरा था। आने-जाने पर ख़ास रोक-टोक नहीं थी, बस जब-जब डॉक्टर के आने का टाइम रहता. बाहरी लोग कमरे से थोड़ी देर के लिए निकल जाते। मैं भी घूम फिरकर पत्नी के पास चक्कर काटता। मैंने गौर किया कि प्रदीप जब कभी बाहर से भीतर प्रवेश करता 'रम्पो' 'रम्मों' करके चिल्लाता और उसकी कर्कश आवाज तथा विचित्र-सा सम्बोधन सबका ध्यान आकर्षित करता। हालाँकि यह साफ़ था कि वह अपनी पत्नी को ही पुकारता पर जाने किस धुन में मैं पूछ बैठा था-"भाई साहब! आप 'रम्मो' 'रम्मो' क्यों रटते रहते हैं ? क्या आप राम जी यानि भगवान् श्री राम को संकट में याद कर रहे हैं ?" पूछने की देर नहीं कि वह मेरे ऊपर बरस पड़ा-"आपको क्या प्रॉब्लम ? प्रॉब्लम हो तो ले जाइए ना अपनी बीबी को किसी प्राइवेट रूप में, किसने रोका है ? इस रूम के लिए मैं भी उतना ही रुपया देता हूँ जितना आप देते हैं, समझे!"

प्रदीप को गरम होते देख मैंने कहा 'सॉरी' मगर उसके बावजूद उसने मुझे इतनी खरी-खोटी सुनायी कि कमरे में शान्ति बहाल करने के लिए मैंने माफ़ी माँग ली। चूँकि हम दोनों की समस्याएँ एक जैसी थी और हम दोनों एक ही उम्र के थे हम दोनों में शीघ्र ही मित्रता हो गयी।

जिस समय हम दोनों की पत्नियों को डिलेवरी रूम के बगलवाले हॉल में ले जाया गया हम दोनों अस्पताल के बाहर एक चाय की दुकान पर आकर बैठ गये! हम दोनों में तरह-तरह की बातें होने लगीं। अपनी पत्नी को प्रदीप 'रम्मो' कह के क्यों पुकारता इसका बखान करते हुए उसने लम्बी-चौड़ी कहानी सुनायी- "जब मैं हाई स्कूल का स्टुडेण्ट था तब हमारी शादी हुई थी... .."
 बात काटकर मैंने पूछा- "क्या ? इतनी कम उम्र में ?” 
प्रदीप ने सहजता से उत्तर दिया- "गाँवों में खाने-पीने की तो कमी नहीं रहती, बड़े बुज़ुर्गों का हड़कम्प रहता है, वे लोग पुराने ख़्याल के हैं. बात सुनिए !....... पिछले छह वर्षों में मेरी पत्नी ने चार बेटियों को जन्म दिया है, लड़कियाँ ......हाँ रम्मो की ही लड़कियाँ होने के कारण मेरे परिवार, गाँव, बिरादरी में हम पति-पत्नी की कोई कदर नहीं है, मेरे माता-पिता उससे नफ़रत करते हैं, बात-बेबात मेरी बेटियों पर बरसते, दुर दुर करते, मेरी बेटियों के सामने मेरे भाइयों के बेटों को गोद में खिलाते, दुलार देते....... भाईयों की पत्नियों को प्यार से पुकारते, उनके लिए 'रामू की माँ', 'बबलू की माँ, 'चन्दा की माँ' कह के औरों से परिचय करवाते पर मेरी पत्नी के लिए कहते 'इ प्रदीपवा की औरत बा' ..एक बार का एक अजीब किस्सा सुनाऊँ। मैं अपनी पत्नी के साथ साल साहब के घर पहुँचा तो पता चला कि सलहज अस्पताल में भर्ती है और उसकी डिलेवरी हुई है। मैंने जब पूछा लड़का जन्मा या लड़की तो वह मुँह बनाकर बोले "क्या बताऊँ शर्म के मारे मेरा सिर झुका जा रहा है, नाक कट गयी है, मुँह दिखाने लायक नहीं रह गया हूँ।" 
मैं घबरा गया, सोचा शायद हिजड़ा जन्मा है. .. काफ़ी देर बाद जब वह बोले "लड़की हुई है" तो मुझे बेहद क्रोध आया फिर भी खुद को संयत रखकर बोला "इसमें शर्म की क्या बात है आपके दो बेटे हैं ही,अच्छा हुआ बेटी हुई है।" फिर जब हम अस्पताल पहुँचे तो देखा सलहज ने बेटे को जन्म दिया है.. ....... आप ही बताइए उन्होंने मुझे क्यों जलील किया ? घर तो घर, मेरे यार-दोस्त मुझे ताना मारते हैं, अक्सर वे कहते हैं- "हमनि शरेन बा शेर, हमनि तीन-तीन लइका बा, इ सरवा लोमड़ी बा"......... आप ही बताइए अगर मैं लड़के का बाप नहीं बन पाया तो इसमें मेरा क्या क्या क़सूर ? इस बात को सभी जानते हैं लड़का अपने हाथ में नहीं है पर पता नहीं क्यों कोसने में और बेइज़्ज़त करने में कोई पीछे नहीं रहता। गाँव में तो चलिए या तो लोग थोड़ा-बहुत पढ़े-लिखे हैं या अशिक्षित हैं मगर शहरों में भी ऐसी ओछी बातें हुआ करती हैं, जाने कब लोग सुधरेंगे ?"

बात करते-करते प्रदीप भावुक हो उठा। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने यकीन के साथ कहा- "मगर इस बार मैं लोमड़ी से शेर बन जाऊँगा।” मैंने पूछा- "कैसे पता ? अल्ट्रासाउण्ड करवाया था क्या ?"

उसने जवाब दिया- "नहीं, उससे बच्चे को ख़तरा रहता है, ज्योतिषियों ने मेरी और पत्नी की कुण्डली देखी है, यह देखिए मैंने तीन-तीन नग पहन रखे हैं, पत्नी ने नीलम पहना है, नगों को पहनने के लिए मैंने कोऑपरेटिव से कर्जा लिया था, इस बार लड़का ही होगा........मेरी पत्नी का नाम है रामकली, इधर कुछ दिनों से उसे मैं 'रम्मो' कहने लगा हूँ।" मुझे हँसी आ गयी। मैंने पूछा “उछलने लगा है क्या ?"

अचानक मेरे मन के भीतर का चोर भयभीत हो उठा, बेटे की तमन्ना प्रदीप से कम नहीं थी, प्रदीप को तसल्ली देते हुए मैंने कहा- "इस बार आपकी पत्नी को पुत्र लाभ होगा, मेरा मन बोल रहा है. .. पिछली मर्तबा जब मेरी पत्नी यहाँ आयी थी मैं एकदम निश्चिन्त था कि लड़का जन्मेगा, उसकी सेहत देखकर सभी औरतों ने कहा था लड़का होगा मगर लड़की जन्मी, इस बार फिर औरतों ने जोर देकर कहा है लड़का ही होगा, मैं भी उम्मीद लगाए बैठा हूँ, सुबह-शाम ऊपरवाले से प्रार्थना करता हूँ, अब देखिए क्या होता है ?"

और ठीक उसी वक़्त मेरे एक परिचित ने ख़बर दी "आज गुरुवार दोपहर को लक्ष्मी आयी है, बधाई हो!” "धन्यवाद" मैंने मुस्कुराकर कहा और अपनी नाखुशी को चेहरे पर प्रकट नहीं होने दिया।

मैं अस्पताल के भीतर पहुँचा। थोड़ी देर बाद जब लेडी डॉक्टर बाहर निकली मैंने उनसे अनुरोध किया- "डॉक्टर साहब! अभी लगे हाथ नसबन्दी का ऑपरेशन भी कर दीजिये, सुविधा होगी।" डॉक्टर ने उत्तर दिया-"अभी तो दो ही सन्तान है, दोनों ही लड़की,सोच लीजिए, जल्दी क्या है, सोच समझकर निर्णय लीजियेगा, बाद में अफ़सोस न हो।" -
“मैंने सोच लिया, सोच-समझकर निर्णय लिया है, हमने पहले से ही सोच रखा था लड़का हो या लड़की दो के बाद नहीं," मैने कहा । डॉक्टर ने फिर कहा-"देखिए बाद में पछत न हो, पत्नी से मशवरा कर लीजियेगा, दोनों की सहमति होनी चाहिये।" 
मैंने कहा-"यह निर्णय हम दोनों का है, लड़के की चाहत सभी को रहती है, मुझे भी है, आखिर मैं भी हाड़-माँस का हूँ, मेरी पत्नी की इच्छा तो मुझसे भी प्रबल है मगर मन की हर मुराद पूरी कहाँ होती। बेटे के चक्कर में परिवार बढ़ाकर हम अपना कष्ट नहीं बढ़ाना चाहते वैसे भी आजकल बेटी और बेटे में ख़ास फ़र्क नहीं रह गया है, योग्य बेटी बेटा समान होती हैं, बस आप हमें आशीर्वाद दीजिये हमारी बेटियाँ आप जैसी काबिल हो।"

थोड़ी देर बाद रामकली को डिलेवरी रूम के भीतर ले जाया गया, प्रदीप बरामदे के एक कोने फर्श पर बैठा था। भय, चिन्ता, उम्मीद तमाम भावनाएँ उसके चेहरे पर एक साथ दिखने लगीं। उसकी व्याकुलता देखकर मुझे दया आ रही थी और साथ-साथ क्रोध का कारण भी था। रामकली ने अपना दुखड़ा मेरी पत्नी को सुनाया था। अपनी विवशता के लिए रामकली प्रदीप को दोषी मानती।

रामकली जब मात्र चौदह बरस की थी तभी उसे दुल्हन बना दिया गया था। उस समय वह अपनी साड़ी भी नहीं संभाल पाती थी। दो बरस बाद उसका गौना हो गया था। जब वह पहली मर्तबा गर्भवती हुई थी उसकी सास खुश थी, उससे कोई काम नहीं लेती, आये दिन उसके मनपसन्द व्यंजन पकाकर खिलाती रामकली ने कहा था पहली गोदभराई के अवसर पर खूब धूम मची थी, घर में उत्सव जैसा माहौल था, सास ने अपने हाथों से कंगन पहनाया था, ससुर ने गले का हार भेंट किया था, घर पर लेडीज संगीत हुआ था, महिलाओं ने खूब चुहल लिया था, मंगल कामनाएँ की थीं, कईयों ने उसकी कलाई पकड़कर माथा चूमा था, सबों ने बेटे की कामना की थी। उस समय उसे लगा था वाकई में जिन्दगी बहुत ख़ूबसूरत है। शायद जिन्दगी का सबसे हसीन लम्हा वह होगा जब उसकी कोख में पल रहा शिशु भूमिष्ट होगा। मगर बेटी के जन्मते ही उसका सारा सपना चूर हो गया था, सुख गुम हो गया था, जिन्दगी में अजीब-सी नीरवता छा गयी थी। बेटी और बेटे का फ़र्क सामने आ गया था।"

रामकली ने कहा कि पहली कन्या घुटनों के बल उठी भी न थी कि वह दुबारा गर्भवती हो गयी थी। उसके सास, ससुर और पति को दुबारा आँगन में लड़का नज़र आने लगा था, सभी लोग उसका ख्याल रखने लगे किन्तु लड़की के जन्म के बाद फिर मायूसी छा गयी थी और उसके बाद तो उसकी जिन्दगी जानवर से भी बदतर हो गयी थी। सन्तान को जन्म देना और उसे भगवान् के भरोसे छोड़ देना, शायद जानवर भी बेहतर होते हैं, कम से कम नर और मादा का भेद तो नहीं जानते। तीसरी कन्या के जन्म के बाद उसके साथ वैसा सलूक होने लगा मानो उसने कोई कत्ल किया हो। सौरी भी समाप्त न हुई थी कि उसे घर का सारा काम-काज सँभालना पड़ा था। नवजात शिशु पाखाना करके पूरे बदन में मैल लगाकर पड़ी रहती पर कोई झाँकने नहीं जाता। पति की बेरुखाई की भी सीमा न थी। कारण-अकारण झगड़ा करता, बच्चों को मारता यहाँ तक कि रामकली पर भी हाथ चला देता। लड़का न होने के कारण वह रामकली को ही कोसता और प्रायः कहता "तोर माई को चार-चार लौडियों के बाद लौड़ा मिला रहा तोहर इत्ता जल्दी लौंडा कहाँ से होई, बच्चा तू पैदा करत है तोहरे में कमी है।" रामकली ने कहा था जब चौथी बार उसने प्रदीप से गर्भपात की बात कही थी तव प्रदीप ने नाराज होकर कहा था "औरतन का काम है बच्चा पैदा करना एमे परेशानी का कौन बात है, समाज मा अभिन हम मुँह दिखाई लाइक नहीं भये हैं।" और जब प्रदीप ने रामकली के गर्भपात कराने की इच्छा की बात अपनी माँ से कही तो रामकली की सास इतनी बिगड़ गयी कि उसने अपने बेटे की दूसरी शादी कर देने की धमकी दे डाली।

एकाध घण्टे बाद पता चला कि रामकली ने लड़की को जन्म दिया है लेकिन उसकी हालत खराब है, खून और दवाइयों की जरूरत है। सुनने में आया की प्रदीप को ढूँढ़ाई हो रही है। नर्स ने मुझसे प्रदीप के बारे में पूछा, उसने यह भी सूचित किया कि कुछ समय पहले तक प्रदीप बरामदे में ही बैठा हुआ था, उसे बेटी होने की खबर भी दी गयी थी। मैं प्रदीप की खोज में निकला। अस्पताल परिसर और उसके इर्द-गिर्द वह नहीं दिखायी पड़ा।

सहमी, सकपकायी रामकली की आँखों से आँसू बहने लगे। उत्पीड़न और यन्त्रणा ने उसे समय से पहले ही बूढ़ा बना दिया था, अब उसे डर लगने लगा कि आगे आनेवाले दिन और बुरे होंगे। रामकली ने दबी जुबान से कहा-"मेमसाहब! हमार सास हमका मार डाली, हमार मरद दूसर ब्याह कर लेई, आप हमार जान लै लै हमका घर न भेजे.... ." रामकली बुदबुदाती रही, उसकी आवाज अस्पष्ट, क्षीण होती गयी। फाटक के पास जाकर डॉक्टर ने आवाज लगायी "मिस्टर प्रदीप मिस्टर प्रदीप "

'....... रामकली के साथ कौन है ? कौन है रामकली के साथ ?" 
 उत्तर न पाकर डॉक्टर ने रामकली को उसी के हाल पर छोड़ दिया, और अपने कक्ष में चली गयी।

प्रदीप की 'रम्मी' फिर से रामकली बन गयी। वह किसी की बेटी थी, पत्नी, बुआ, भाभी, मौसी, चाची, ताई और न जाने क्या-क्या थी मगर अब उसकी हालत ट्रक में दबी सड़कछाप जानवर जैसी हो गयी थी। पूरी ताकत के साथ उसने चीखा। उसका दर्द अस्पताल की दीवारों ने दर्ज किया, बिस्तर के सफेद चादर ने अबला के शेष बचे खून को मानचित्र बनने दिया.....माँ से लिपटी भूमिष्ट शिशु अपना रोष प्रकट करने लगी, बच्ची ने मुट्ठियाँ भींच ली और भारतनुमा मानचित्र में दाग बनकर वह मृत शिशु सबका ध्यान आकृष्ट करने लगी।

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)

Tuesday, September 6, 2022

कहानी- दस्तक


सुमिता ने विदेश जाने की अपनी तैयारी पूरी कर ली। दो घण्टे बाद उसकी फ्लाइट है। राहुल ने एक बार फिर रिक्वेस्ट किया "मुझे इस हाल में छोड़कर मत जाना प्लीज। तुम्हारी ज़रूरत है।"

-"क्यों ? मेरी क्या ज़रूरत ? किस चीज की कमी है ? रुपये पैसे की दिक्कत हो तो डैडी से माँग लेना।"

काल बेल बजी। विमला ने फाटक खोला। सुमिता के पिता अजयबाबु भीतर आये। उन्होंने पूछा - "जमाई बेटा कैसी तबियत है ? कुछ बेहतर महसूस कर रहे हो ?" सुमिता बौखला उठी-"कैसा है क्या ? ठीक है। अभी तो फोन किया था आपने। खामखाह काम-काज छोड़कर चले आते हैं।"
-"खामख्वाह ? क्या बकवास करती है? मैं तो सोच रहा हूँ काम-काज का जिम्मा सेक्रेटरी को देकर यहीं आकर रहूँ।"
-"हूँ! आप क्या तान्त्रिक हैं कि झाड़-फूँक से ठीक हो जाएगा ? जब प्लास्टर खुलेगा तो ठीक हो जाएगा। फ़ालतू टेंशन पालते हैं। "
पिता अपनी बेटी को अवाक् होकर देखते रहें। ज्यों ही उनकी निगाहें सामान पर पड़ी उन्होंने पूछा- "यह क्या ? कहाँ की तैयारी है ?"
- "टोकियो जा रही हूँ, मिस जापान कम्पीटिशन में हाँग काँग भी जाना है।”
-“दया नहीं आती तुमको ? राहुल के पूरे शरीर में बैंडेज बँधा हुआ है, वह मौत से लड़ रहा है और तुम सैर-सपाटा करने चली ? अभी तो दो साल पहले तुमने 'अराउण्ड 'द वर्ल्ड' प्रोग्राम बनाकर दो दर्जन देशों का भ्रमण किया था "

बिना उत्तर दिये सुमिता टॉयलेट में चली गयी। अजय बाबू बुदबुदाते रहे-"बड़ी अजीब-सी लड़की है। लाड़-प्यार से बिगड़ गयी है। बारह साल की थी तभी माँ चल बसी थी। मेरी माँ ने उसे पाल-पोसकर बड़ा किया। सुमिता को मैं डाँटता वह मुझ पर पिल पड़ती। क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आता।"  

राहुल चुप था। असहाय, लाचार। वाकई सुमिता की दुनिया निराली है। उद्योगपति पिता की सम्पत्ति का गुमान तो है ही अपनी खूबसूरती पर इतना नाज़ है कि आई० ए० एस० पति को दो कौड़ी का समझती है। जाने कितने अवसरों पर उसने पति को अपमानित किया, पार्टियों में अपनी सहेलियों से परिचय तक नहीं करवाया। राहुल ने कई बार उसे टोका भी था मगर हर बार सुमिता ने दम्भ से कहा था-"पति के नाम का सहारा कमजोर औरतें लिया करती हैं।"

राहुल को खरी-खोटी सुनने की आदत पड़ चुकी थी। उसने कभी झंझट-बखेड़ा नहीं मोला बल्कि हमेशा उसे सहा, हमेशा उसने कहा- "तुम नादान हो, नासमझ हो ।” 

सुमिता टॉयलेट से निकली। अजय बाबू ने कहा-"तुम नहीं जाओगी।” 
सुमिता ने कहा- "डैडी प्लीज जाते समय मेरा मूड खराब न करिए। आपके लाडले दामाद के लिए डॉक्टर, अटेण्डेंट, नौकर-चाकर सब कुछ है, किसी चीज की कमी नहीं है, उसको सिर्फ़ आराम की जरूरत है, फ़ालतू बैठे-बैठे मैं क्या करूँगी ?"

- 'ह्वाट ? फ़ालतू ? वह बेचारा लाचार है, अपाहिज जैसा है और तुम कहती हो फ़ालतू क्या करोगी ?"

- "कम ऑन डैड, नाऊ यू टेल मी, मैं क्या करूंगी ? यहाँ बैठकर क्या करनाचाहिए ? .......आपको मालूम है ना जापान में कम्पीटिशन होनेवाला है, उसके लिए मुझे जज बनाया गया है ......बड़े भाग्य से ऐसे अवसर मिलते हैं, उसे क्या मैं व्यर्थ गँवा दूँ ?”

-“स्टुपिड ! लगता है तुम्हारा दिमाग वाकई ख़राब हो गया है, प्यार तो दूर हमदर्दी तक नहीं है उससे ? तुम उसकी धर्मपत्नी हो, तुम्हारा फ़र्ज क्या है यह भी सिखाना पड़ेगा ? . तुम्हें क्या करना चाहिए यह तुम्हें मालूम रहना चाहिए। क्या तुम्हें यही शिक्षा दी गयी थी ?.......... नहीं लगता है कि तुम उस माँ की बेटी हो जो मेरी ज़रा-सी छींक पर परेशान हो जाया करती थी।"

-"डैड प्लीज! मुझे रोकिए नहीं। मुझे जाना ही है। मैं आप जैसे सेण्टिमेण्टल नहीं हूँ और ना ही माँ जैसी दासी। मैं प्रैक्टिकल हूँ।"
सुमिता ने घड़ी देखी फिर तनफनाती हुई गाड़ी में बैठ गयी।

अजय बाबू का चेहरा लाल हो उठा, होंठ थरथराने लगे। दो कदम आगे बढ़कर उन्होंने चीत्कार किया- "सुमिता । तुझे मेरी कसम, अपनी भलाई चाहती हो तो मत जाओ, आई वॉर्न यू, मैं अपना आपा खो बैदूंगा, तेरा बुरा होगा।"

सुमिता चीख उठी-"सॉरी डैड, यू आर बैक-डेटेड, आपके विचार दकियानूसी है, आज की नारी पार्वती और लक्ष्मी बनकर नहीं जीना चाहती है। जमाना बदल चुका है......."

बेटी के आचरण से पिता इतने मर्माहत हुए कि बहुत देर तक एकान्त में बैठकर वे ख़ुद को टटोलते रहे। क्या उन्हीं के लाड़-प्यार से सुमिता बिगड़ गयी है ? क्या दरअसल समाज में बदलाव आ गया है ?

कुछ देर के बाद राहुल के कमरे में आकर अजय बाबू बोले-"आई एम सॉरी माई सन, मगर मैं तुम्हारा साथ दूंगा, मैं तुम्हारे पास रहूँगा, तुम अकेला नहीं महसूस करोगे।" 

राहुल ने कहा- "डैडी आप परेशान मत होइये। सुमिता भोली है, नासमझ है, बदल जायेगी, थोड़ा वक्त लग सकता है। बड़े बाप की बेटियाँ ऐसी ही हुआ करती हैं पर घर गृहस्थी बसाने के बाद सभी बदल जाती हैं । सुमिता नारी है, नारी के गुण अपने आप प्रकट होते हैं. समय की बात है।"

अजय बाबू बोले-" नहीं बेटे, तुम बहुत नेक इंसान हो, इतना कुछ होने के बाद भी तुम बुरा नहीं मान रहे हो। तुम्हारा ससुर होने के नाते मैं बेहद शर्मिन्दा हूँ, दुःखी हूँ।" 

अपना काम-काज छोड़कर अजय बाबू दामाद के घर ठहरे। पत्नी की मृत्यु के बाद वे अकेले पड़ गये थे। राहुल का साथ अच्छा लगने लगा। वे राहुल को आप बीती सुनाते, अख़बार पढ़कर सुनाते और तरह-तरह से उसका मन बहलाते, खुण रखने की कोशिश करते। 

सुमिता के लौटने का समय बीत गया पर वह नहीं लौटी। राहुल ने कहा- "डैडी जरा सुमिता की ख़बर जानने की कोशिश कीजिए।"

अजय बाबू ने बेरुखी से कहा- "उसे उसके हाल पर छोड़ दो, जहाँ भी होगी, ठीक होगी....... वह है किस काम की ? सिरदर्द ! सिरदर्द है लड़की। निकम्मी, निखट्टू, होपलेस।”

चार-पाँच दिन बाद फोन आया- "मैं सुमिता की सहेली हाँगकाँग से । सुमिता दो दिन और रुकेगी। उसकी तबीयत अचानक ख़राब हो गयी है। उसने मुझसे कहा मिस्टर राहुल कैसे हैं पूछ लो ।”

राहुल ने भड़ाँस निकाली- “उससे कह दो मैं दौड़ने लगा हूँ। आराम से हूँ, उसके बिना रह सकता हूँ। मेरे बारे में सोचना बन्द कर दे।" राहुल ने फोन काट दिया।

सहेली के फोन आने के बाद राहुल का तनाव बढ़ गया। उसने रात को खाना नहीं खाया। अजय बाबू से उसने कहा भूख नहीं है, वह सोना चाहता है। अजय बाबू ने उसके मन में मची खलबली को पढ़ लिया पर उन्होंने कहा कुछ नहीं।

बिस्तर पर लेटे-लेटे राहुल एक के बाद एक सिगरेट सुलगाता रहा और रात-भर सुमिता के साथ बिताए हुए क्षणों को याद करता रहा। उसे इस बात पर अफ़सोस होने लगा कि ना-नुकुर करते-करते उसने विवाह के लिए अपनी सहमति क्यों दे दी थी ? राहुल को याद आया कि एक दिन उसने सुमिता को तलाक देने की धमकी दे डाली थी मगर अगले ही क्षण उसे अहसास हुआ था कि सुमिता को त्यागना उसके लिए नामुमकिन है। तमाम खट्टी-मिट्ठी यादों से गुजरते हुए हठात् वह चीख उठा-"सुमिता सुमिता !” चीख सुनकर अजय बाबू उसके पास पहुँचे-"क्या हुआ ? क्या हुआ ?"

राहुल निरुत्तर । पूस की सर्दी मगर राहुल पसीने से तर-बतर पूरे कमर में सिगरेट का धुआँ कुहासा जैसा छाया हुआ था, घायल सैनिक की तरह दर्द से कराहता राहुल फर्श पर पड़ा हुआ था।

अजय बाबू ने सहारा देकर राहुल को उठाया। पानी पिलाया, नींद की गोली दी। वे बोले-"तुम्हारी दुर्दशा के लिए मैं दोषी हूँ। तुम्हारी तकलीफ़ मैं समझता हूँ। तुम चाहो तो दूसरी शादी कर सकते हो। तलाक दिलवाने में मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ।”

अजय बाबू का कण्ठ अवरुद्ध हो गया था। अगले दिन दोपहर को राहुल की नींद खुली। पिछली रात की घटना को यादकर वह शर्मिन्दा हुआ, उसने ससुर जी से क्षमा माँगने का मन बनाया। राहुल ने नौकरानी से पुछा ससुरजी कहाँ गये हैं तो उसने कहा "बड़े साब सुबे-सुबे निकल गइन। कहके गइन आपका खियाल रखा जाय। मेमसाहब लौट आइन हैं।"

-"क्या ?? कब लौटी ?" राहुल चौंका।

-“दुई घण्टा पहिले । आप सोवत रहे। आपके सिरहाने बैठिन, हालचाल पूछिन, कापी-किताब, दवाई - बवाई सिगरेट-उगरेट सब कुछ देखिन, नहाय-धोय के आपका जगावत रहिन पर हम जब बोले कि आप रात भर जागे रहे तो फिर नहीं जगाइन अब मेमसाहब आपन कमरे में लेटी हैं।"

राहुल पुनः भावुक हो गया। थोड़ी देर बाद उसने फोन पर कहा- "डॉक्टर साहब! काइण्डली मुझे फिटनेस सर्टिफिकेट दे दीजिए, मुझे लगता है मैं दफ़्तर ज्वाइन कर सकता हूँ। मुझे मदद करने के लिए कोई न कोई रहेगा।"
 डॉक्टर ने कहा- “आप एकदम से फिट हो जाइए, जल्दी किस बात की है ?"
-"डॉक्टर! बिस्तर पर पड़े-पड़े मेरा मनोबल टूट रहा है।"
- "ओ० के० ! अपना ख्याल रखियेगा।" आधे घण्टे बाद अजय बाबू घर पहुँचकर राहुल से बोले -"सुना कल से ऑफिस जाओगे ? सुना सुमिता आ गयी है ?"
-"जी, ऑफिस जाना चाहता हूँ। ऊब गया हूँ। जाऊँगा। सुमिता का आना न आना दोनों बराबर ।" अत्यन्त मायूसी से राहुल ने उत्तर दिया।

अजय बाबू की आँखें छलछला आयीं। उन्होंने कहा- "सुनो। अपना चाय बागान और अपना सारा कारोबार ट्रस्ट के नाम कर रहा हूँ। एक करोड़ रुपये से एक ट्रस्ट का गठन कर दूँगा जिसका उद्देश्य होगा अशिक्षित बच्चों को शिक्षित करना। उसमें एक ट्रस्टी तुम भी होगे। मथुरा के एक आश्रम से मेरी बात हो गयी है। दस लाख आश्रम फण्ड में दान करूँगा। बाकी जीवन वहीं बिताऊँगा।"

राहुल ने आश्चर्य व्यक्त किया-"डैडी! आपको क्या हो गया है ? यह सब क्या करने जा रहे हैं? अचानक इतने सारे निर्णय ? आपको गम्भीरता से सोचना चाहिए। फिर सोच लीजिए।” अजय बाबू ने उसे अनसुनी कर दी और कहा-"मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ। तुम अपनी जिन्दगी जैसी चाहो वैसी बिता सकते हो, मैं कुछ भी कहने-सुनने नहीं आऊँगा।"

लगभग एक साँस में अपनी बात कहकर अजय बाबू कमरे से बाहर निकल गये।

सुमिता ने रास्ता रोका - "डैडी! डैडी! डैडी सुन तो लीजिए !” 
-"कमजोर बेटियाँ बाप के नाम का सहारा लिया करती हैं।” अजय बाबू ने गम्भीर स्वर में कहा।

एक नज़र बेटी को देख पिता ने मोटरकार पर पैर रखा ही था कि बेटी रोती हुई बोली- “डैडी ! मत जाइये। मत जाइये। आप नाना बननेवाले हैं।” 

-"क्या ??" पैर पीछे खींचकर अजय बाबू बोले।

पीछे से राहुल ने खुशी व्यक्त की- “थ्री चियर्स फॉर सुमिता, हिप, हिप हुर्रे!"
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© सुभाषचंद्र गांगुली
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* पत्रिका ' जाह्णवी ' सितंबर 1999 में प्रकाशित।
कहानी प्रतियोगिता में तीसरा पुरस्कार प्राप्त।

कहानी- असली बी० ए०

कौशल किशोर उर्फ 'किंग' असली बी० ए० है मगर यह उसकी विडम्बना है कि है आये दिन उसे लोगों को यकीन दिलाना पड़ता है कि वह असली बी० ए० है।

जब उसने कैजुअल लेबर की हैसियत से दफ़्तर ज्वाइन किया था, बी० ए० पास होने के कारण लोग उसकी ख़ास कदर करते। लगभग सौ लेबरों के बीच वह अकेला ग्रेजुएट था। दो-चार इण्टर थर्ड क्लास और बाकी दर्जा आठ या उससे कम, लिहाज़ा वह अन्धो में कनवा राजा बन बैठा। राजा भी ऐसा-वैसा नहीं, अंग्रेजी जाननेवाला राजा था और इस वज़ह से लेबर इंचार्ज घनश्याम जिसे अंग्रेजी का तनिक ज्ञान न था राजा को 'किंग' कह के पुकारने लगा था। फिर घनश्याम की देखा-देखी कौशल के संगी-साथी भी किंग कहने लगे थे।

अपनी कमी को छिपाने के चक्कर में इंचार्ज किंग का इस्तेमाल करता, लिखा पढ़ी का ख़ास काम यानी नोटिंग, ड्राफ्टिंग, लेबरों का बिल आदि किंग से करवाता फिर उसे अपने हाथ से उतार लेता। किंग की इस अहमियत के कारण उसका अपना कद लेबरों के बीच इतना बढ़ा कि वह सबों का नेता बन बैठा। हरेक समस्या का निदान किंग की अगुवाई में होता। धीरे-धीरे उसका स्टेटस ऐसा बन गया कि उसे 'लेबर' का एक धेला काम नहीं करना पड़ता और न ही इंचार्ज उससे कोई काम लेता। औरों की अपेक्षा किंग को ड्यूटी भी अधिक मिलती यहाँ तक कि कदाचित् इंचार्ज अपनी कुर्सी पर ही बैठा रहता और किंग को मोर्चा सँभालने की जिम्मेदारी सौंप देता।

सात वर्ष कैजुअल रहने के बाद किंग चपरासी के पद पर रेगुलर हो गया। चपरासी बनने के बाद भी किंग को बी० ए० पास होने का सम्मान व फ़ायदा मिलता रहा। अमूमन लोग उससे चपरासी का काम नहीं लेते बल्कि उसके साथ हमदर्दी रखते और कहते 'आजकल नौकरियों की हालत ख़राब है क्या करें लोग ? बैक डोर से आना पड़ता है, जिसे जो मिल जाए वही सही, पर पढ़े-लिखों से ऐसा-वैसा काम कैसे करवाया जाय ? वैसे ही बेचारा भाग्य का मारा है।

नौकरी मिलने के तीन साल बाद किंग के साथ रेगुलर हुए कई लोग क्लर्क बन गये मगर किंग रह गया जबकि नियुक्ति के समय यानी सीनियरटी के हिसाब से उसका दूसरा नम्बर था। लोगों को कौतूहल हुआ। एक ने किंग से पूछा-"क्या बात है तुम्हारा प्रोमोशन क्यों नहीं हुआ ?"

-"मैंने इम्तहान ही कहाँ दिया था ? पत्नी की तबीयत खराब थी", किंग ने उत्तर दिया।

अगली मर्तबा फिर जब चार प्रोमोशन हुए और किंग का नहीं हुआ तो उसने वही उत्तर दिया, किन्तु तीसरी मर्तबा जब किंग की सर्विस पाँच साल की हो चुकी थी और बिना इम्तहान के सीनियरटी के आधार पर एक दर्जन प्रोमोशन हुए और किंग रह गया तब खलबली मच गयी। पूरे दफ़्तर में यह चर्चा का विषय बन गया। किंग ने साथियों को कनविंस करने की कोशिश की- "शायद मेरा करक्टर रोल (सी० आर०) ठीक नहीं है।"

भैरोशरण जिसका किंग से चोली-दामन का साथ था, ने तीखी प्रतिक्रिया की "झाँसा मारते हो ? ग्रुप डी का सी० आर० कहाँ लिखा जाता ?"

-"मेरा मतलब मेरे ख़िलाफ़ कोई ख़राब रिपोर्ट होगी" किंग ने अपना बयान बदला।

- "कब तक झाँसा मारते रहोगे बच्चू ? सच, सच बताओ मामला क्या है ?" भैरोशरण ने ऊँची आवाज़ में कहा।

किंग को उसकी बात पर बेहद क्रोध आया। उसने सोचा इस भैरोशरण के लिए उसने क्या कुछ नहीं किया, उसके लिए लिखा-पढ़ी करना, इंचार्ज की चिरौरी करना, प्रशासनिक अधिकारी के सामने गिड़गिड़ाना और विनती करना, यहाँ तक कि उसका काम दूसरे से करवाकर उसके खाते डाल देना। एक नम्बर का कामचोर, जुआड़ी, अपना नाम तक ठीक से लिख नहीं पाता उसकी संती बड़े भाई ने हाईस्कूल का इम्तहाल दिया था। और आज जब किंग आगे बढ़ गया है तब ऊँची आवाज़ में बोल रहा है।

किंग की इच्छा हुई कि यही सब कहते हुए दो-चार हाथ जमाकर दिमाग ठिकाने ला दे मगर मुश्किल से खुद को संयत रखकर उसने कहा- "मेरा मतलब मैं नेतागिरी करता हूँ, तुम सबों के लिए लड़ता रहा हूँ, तुम्हारी वकालत करते समय अधिकारियों के साथ ठीक से बर्ताव नहीं किया होगा, रेगुलर होने के बाद तो देख ही रहे हो कभी काम बँटवारे के मुद्दे पर, कभी वर्दी के मुद्दे पर प्रशासन को धमकी देता आया हूँ, खरी-खोटी सुनाता आया हूँ इस वज़ह से मेरे खिलाफ़ अधिकारियों ने मेरी सर्विस बुक में गुप्त रिपोर्ट लगा रखी होगी।"

मगर भैरोशरण को उसकी बात रास नहीं आयी। उसने कहा- "यह नामुमकिन है, ऐसा क्यों होगा भला ? तुमने ऐसा कुछ कभी किया भी तो नहीं और न कभी सस्पेण्ड हुए या भूख हड़ताल पर बैठे, दो-चार बार जुलूस में तुम आगे-आगे जरूर थे पर तुम्हारे पीछे हम सभी थे।" एक दिन किंग के कई साथी एकजुट होकर, किंग से बिना कुछ कहे प्रशासनिक अधिकारी से मिले। उनसे पता चला कि किंग हाईस्कूल पास नहीं है। इस समाचार से सभी लोग स्तब्ध, हतप्रद हो गये। अधिकारी महोदय से मिलने के बाद सबों ने आपस में विचार-विमर्श किया। सबों का मानना था कि अधिकारी महोदय ने झूठ बोला होगा क्योंकि प्रमोशन के लिए मात्र हाईस्कूल होना अनिवार्य है, किंग बी० ए० पास न सही इण्टर तो अवश्य होगा वर्ना वह इतना लिख-पढ़ कैसे लेता, धड़ाधड़ अंग्रेजी कैसे बोल पाता ? कईयों ने किंग को दुबारा कुरेदा और बोला- "हम तुम्हारे लिये क्या करें ? हम तुम्हारी मदद करना चाहते हैं।"

किंग खफा हो गया-"मैं बी० ए० पास हूँ। असली बी० ए०, नकलछाप नहीं हूँ, मेहनत करके डिग्री ली है.. ..मेरे ख़िलाफ़ एडवर्स रिपोर्ट अवश्य होगी, ऐसी रिपोर्ट गुप्त रखी जाती है, इस कारण अधिकारी महोदय ने तुम लोगों से नहीं कहा होगा...तुम लोगों को पूछने की ज़रूरत पड़ गयी ? मुझ पर विश्वास नहीं है क्या ? बाबू बनते ही तुम सबों का मुझसे भरोसा उचट गया ? अरे तुम्हारे कहने से थोड़े न तरक्की कर दी जायगी, मेरा जब होना होगा हो जाएगा ख़ुदा के लिए मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो, ऐसे ही मैं परेशान हूँ।"

मगर भैरोशरण चुप नहीं बैठा । वह अपनी प्रमोशन के सम्बन्ध में आयोजित पार्टी में किंग को सपरिवार निमन्त्रण देने किंग की अनुपस्थिति में उसके घर पहुँचा। उसने किंग की पत्नी से कहा-“भाभी! आप उन्हें समझाइए ना फ़ालतू नेतागिरी के चक्कर में अपना और आप सबों का नुकसान कर रहा है, नेतागिरी छोड़ दे, क्या रखा है। इसमें.......बी० ए० पास है, उसका तो कब का प्रमोशन हो गया होता मगर अब जब तीसरी मर्तबा सीनियरटी के आधार पर प्रमोशन हुआ तो उसमें भी वह रह गया।"

-"क्यों भाई साहब! उन्होंने ऐसा क्या किया ? बी० ए० पास हैं, शरीफ़ भी हैं, जहाँ तक मुझे मालूम है, शादी हुए चार साल हो गये इन्होंने वैसा कुछ नहीं किया और न ही इस बीच आपके दफ़्तर में किसी प्रकार की अशान्ति हुई। पर मुझे भी प्रमोशन न होने पर हैरानी होती है, शादी होते समय इन्होंने कहा था जल्दी बन जाएँगे, उसी बात पर ना-नुकुर करते-करते मैं राजी हो गयी थी वर्ना मैं ख़ुद एम• ए• हूँ, ईश्वर ने चेहरा-मोहरा भी ठीक-ठाक दिया है, मेरे पिता ने खर्चा भी किया था, चपरासी से कतई शादी नहीं करती.......चलिए आपके आने से कम-से-कम इतना तो पता चला कि पिछले तीन साल से लगातार प्रमोशन हो रहे हैं, वे तो मुझे यही कहते आ रहे हैं कि प्रमोशन नहीं हो रहा है, सब ठप्प हैं, सरकार ने रोक लगा रखी है ....... बड़ा झूठ ? झूठ या मक्कारी ? अभी ये घर आएँ ख़बर लेती हूँ।"

आशा का रौद्र रूप देख भैरोशरण सकते में आ गया। उसने कहा-"भाभी ! आपसे एक अनुरोध है, कृपया मेरा नाम न लीजिएगा। हमसे खामख्वाह दुश्मनी हो जाएगी, मैंने तो अपना समझकर आपसे कहा है. ..मुझ पर उसका काफ़ी अहसान है, उससे मैं आगे निकल गया, जो कम पढ़े-लिखे थे वे भी हाईस्कूल पास करके आगे निकल गये और वह बेचारा वहीं रह गया, मुझे बड़ा बुरा लग रहा है. ..अच्छा भाभी, मैं चलता यहाँ मैं आया था कृपया किंग से न कहिएगा, मैं उसे दफ्तर में दावत दे दूँगा, अगर वह ले आये तो आइएगा।"

-"ठीक है भाई साहब आपका जिक्र नहीं करूंगी, निश्चिन्त रहिए, आपने मेरा उपकार किया है, मैं आभारी हूँ.......आज मैं इनकी ख़बर लूँगी, इतना बड़ा झूठ! मेरा पति मक्कार ! हे भगवान ! किस जन्म के पाप की सजा दे रहे हैं ?"

मगर आशा ने ठण्डे दिमाग से काम लिया। किंग से कुछ कहे बिना अगले दिन वह पति के कार्यालय में पहुँची। उसकी बातों को सुनने के बाद प्रशासनिक अधिकारी ने सर्विस बुक व पर्सनल फाइल मँगवाकर किंग के हाथ का लिखा एप्लिकेशन दिखा दिया जिसमें किंग ने अपना क्वालिफिकेशन कक्षा आठ लिखा था, उन्होंने यह भी दिखा दिया कि कक्षा आठ के प्रमाण-पत्र के अलावा और कोई योग्यता प्रमाण-पत्र उपलब्ध नहीं है।

आशा के पैरों के नीचे ज़मीन खिसकने लगी। उसकी आँखों के सामने गहन अन्धकार उतर आया। उम्मीद की किरण दूर-दूर तक दिखायी न दी। उसे इतना सदमा पहुँचा कि वह अपने पति से कुछ न कह सकी।

किंग को कुछ पता न था कि क्या कुछ घट चुका था मगर वह अपनी पत्नी की उदासीनता और मौन से परेशान हो गया। उसने तरह-तरह के कयास लगाए, घुमा-फिरा कर बार-बार उससे परेशानी का कारण पूछा, उसे रिझाने की कोई कसर नहीं छोड़ी मगर एक दिन जब दफ़्तर से लौटकर उसे पड़ोसी से पता चला कि उसकी पत्नी बेटे के साथ एक अटैची ढोती हुई कहीं चली गयी तो उसकी बुद्धि फेल हो गयी।

कमरा खोलते ही उसे एक कागज मिला जिस पर आशा ने लिख रखा था-"मैं अपने मायके वापस जा रही हूँ। फ़िलहाल लौटने का इरादा नहीं है। आपको असली बी० ए० होने का सबूत देना होगा। प्रमोशन न होने का सही कारण बताना पड़ेगा तब मैं दुबारा सोचूँगी वर्ना मैं आपको तलाक़ दे दूँगी। तलाक़ इसलिए दूँगी ताकि आपकी आधी तनख़्वाह मुझे मिलती रहे जिस पर मेरा अधिकार है क्योंकि आपने मेरे साथ धोखा किया है, आपको अपने किये की सजा मिलनी चाहिए, मेरी ज़िन्दगी के साथ आपने खिलवाड़ किया है। मैं आपको माफ़ नहीं करूंगी, मुझे आसानी से तलाक़ मिल जाएगा क्योंकि आपके दफ़र के ढेर सारे लोग हकीकत जान चुके हैं, उन्हें मालूम है कि आप 'किंग' नहीं बल्कि बेगर यानी भिखारी हैं, जी हाँ, आप भिखारी हैं। कृपया मुझसे अपने सुख-चैन की भीख माँगने न आइयेगा। हो सकता है कि मेरा जवान भाई आपके साथ बदसलूकी करे, उस अपदस्थ स्थिति में मैं आपको देखना नहीं चाहूँगी क्योंकि कल तक आप हमराह, हमसफ़र, हमनवाज़ थे।"

अचानक आये झंझावात से किंग का वज़ूद चरमराने लगा। इस विषम संकट से कैसे बाहर आये उसे समझ में नहीं आ रहा था। वह अपनी सुध-बुध खो बैठा और ऐसी चुप्पी साध ली जैसे कि साँप सूँघ गया हो। कई दिनों के बाद वह अपने पुराने इंचार्ज घनश्याम से मिला। घनश्याम की हमदर्दी आशा के साथ थी। उसने कहा- "तुमने अन्याय नहीं, अपराध किया है बल्कि पाप किया है, तुम्हें जानना चाहिये था कि पाप का घड़ा आज नहीं तो कल फूटता ज़रूर है, तुम्हें जानना चाहिए था कि तुमने जो ताज़ पहन रखा है वह कभी-न-कभी उतरेगा ही और तुम किंग से बेगर बन सकते हो। वह तुम्हारी अर्धांगिनी बननेवाली थी, उससे फ़रेब नहीं करना चाहिए था भले ही तुम असली बी० ए० हो मगर यह तो कह देना चाहिए था कि तुम चपरासी हो, प्रमोशन दफ्तरी या रिकार्ड शॉर्टर में होगा, क्लर्क बनने में समय लग सकता है, हो सकता वह तुम्हें उसी तरह क़बूल कर लेती, और कुछ नहीं तो शादी के बाद तो सब कुछ साफ़-साफ़ कहना ही चाहिए था। तुमने जो कुछ किया उससे सदमा पहुँचना स्वाभाविक है। कहीं अगर उसने आत्महत्या कर ली तो मौत के लिए तुम जिम्मेदार होगे, बच नहीं पाओगे।"

किंग ने आर्त्तनाद किया- "नहीं ! नहीं ! हम ऐसा नहीं होने देंगे हम आशा के बिना नहीं रह पाएँगे. ....... घनश्याम भाई! आप हमारी मदद करिए, आप ही हमें बचा सकते हैं, आप मेरे इंचार्ज थे, आशा आपको मानती भी है, कम-से-कम उसे इतना तो बता ही दीजिए कि मैं असली बी० ए० हूँ, सकता है उसका गुस्सा ख़त्म हो जाए ।" -"ठीक है, अगर मेरे कहने से वह मान जाए तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती ? कल सुबह गोमती एक्सप्रेस से चला जाए, तुम मेरे घर आ जाना मैं तैयार रहूँगा।"

कौशलकिशोर उर्फ किंग अपने इंचार्ज घनश्याम को साथ लेकर ससुराल पहुँचा। उसे देख उसके घरवालों ने आँखें टेढ़ी कर ली और कहा कि आशा बात नहीं करेगी मगर घनश्याम के अनुरोध पर वे सुनने के लिए तैयार हो गये। किंग ने कहा- “मैं असली बी० ए० हूँ, यह रहा उसका सबूत, हाईस्कूल से बी० ए० तक के मार्कशीट और सर्टिफिकेट्स, आप लोग देख लीजिए।"

आशा ने बिना देखे तपाक से पूछा- "दफ़्तर के रिकार्ड में ये सब क्यों नहीं है ? ये सब फ़र्जी हैं, मैं किसी प्रकार के बहकावे में नहीं आती, असली बी० ए० हुए होते तो पहली बैच में प्रमोशन हो गया होता। इम्तहान में क्यों नहीं बैठे? औरों की आँखों मैं धूल झोंकिएगा, मैं आपके कार्यालय गयी थी, सारे कागज़ अपनी आँखों से देखा है।”

अप्रत्याशित हमले से किंग सकपका गया, उसके हाथ-पाँव फूलने लगे। वह असहाय होकर घनश्याम को देखने लगा, गुस्से से लाल आशा उठकर भीतर जाने लगी तो घनश्याम ने कहा- "भाभी। यही सब कहने यानी सच्चाई कहने के लिए मैं इसके साथ आया हूँ, सुन तो लीजिए इसके बाद फैसला करिएगा। गम्भीर मामला है, आप दोनों के जीवन का सवाल है।" आशा रुक गयी।

घनश्याम ने कहा- "सात साल कैजुअल रहने के बाद जब रेगुलर होने की नौबत आयी तो पता चला कि जिस तारीख़ को ये कैजुअल लेबर की हैसियत से आया था इसकी उम्र हाईस्कूल सर्टिफिकेट के मुताबिक पच्चीस वर्ष से दो महीने ज़्यादा थी लिहाज़ा वह नौकरी के अयोग्य था और वह नौकरी नहीं पा सकता था, कैजुअल में ज्वाइन करते समय ही ओवर एज था, उस समय मेरी जगह जो काम करता था उसे देख लेना चाहिए था। इसने कोर्ट जाने की बात कही पर मैंने इसे मना किया था क्योंकि पहले भी एक दो लोग ऐसे ही मामले में कोर्ट जा चुके थे पर कोर्ट ने लेबर के पक्ष में निर्णय नहीं दिया था। कहीं इसके केस में भी अदालत वहीं निर्णय सुना देती तो इसका दरवाज़ हमेशा के लिए बन्द हो जाता....... .. चूँकि किंग स्वयं मेरे रिकॉर्ड्स को हिफ़ाज़त से रखा करता था, इसने हाईस्कूल से बी० ए० तक के सारे दस्तावेज़ हटाकर एक नया एप्लीकेशन रख दिया था और साथ में एक ट्रांसफर सर्टिफिकेट (टी० सी०) जिसे एक गाँव के स्कूल से रुपये लेकर बना लाया था, लगा दिया था। उस टी० सी० के मुताबिक कैजुअल में ज्वाइन करते समय इसका डेट ऑफ बर्थ पच्चीस साल दो माह के बजाए बीस साल हो गया और इसका रास्ता साफ़ हो गया. इसकी ज़िन्दगी बेकार हो जाती, दो रोटी के लिए इसे दर-दर ठोकरें खानी पड़ती, ऐसे ही बेचारा किस्मत का मारा था। मैंने अलग से मारना नहीं चाहा इसलिए मैंने चुप्पी साध ली बल्कि यूँ समझिए कि मैंने इसकी मदद की थी, किन्तु ये 'असली बी० ए०' है....... आज तक यह राज़ ही है, आज आप दोनों की भलाई के लिए यह राज़ खोलना पड़ा। पिछले दो साल से ये हाई स्कूल का इम्तहान दे रहा है। पहली बार गणित में फेल हो गया था, पिछले साल आपकी तबियत ख़राब हो जाने के कारण दो पेपर में बैठ नहीं पाया था, जिस दिन हाई स्कूल पास हो जाएगा प्रमोशन हो जाएगा, उसके बाद अपने आप प्रमोशन होते रहेंगे !"

आशा की माँ की आँखें छलछला आयीं। उन्होंने कहा- "बेटी ! अब तू अपना गुस्सा थूक दे, इसे माफ़ कर दे। जो कुछ हुआ उसे तू अपना दुर्भाग्य मान ले, उसने भी तो कम दुःख नहीं झेला, भाग्य में जो लिखा रहता है वही होता है, भगवान् ने चाहा तो सब ठीक हो जाएगा, वह पढ़ा-लिखा समझदार लड़का है गणित में भी पास हो जाएगा।" 

आशा के पिता ने अपनी नाराज़गी जाहिर की- "इसके बाप को तो सच कहना चाहिए था, उसकी बेटी के साथ ऐसा हुआ होता तो उसे पता चलवा.........

घनश्याम बोल पड़ा - "बाबू जी ! इसके पिता को भी मालूम नहीं था, आपको सच कहता हूँ मेरे और इसके सिवा किसी को यह राज़ मालूम नहीं है, ढिंढोरा पीटने से इसकी नौकरी ख़तरे में पड़ सकती थी.....बेचारा सचमुच अभागा है, स्कूल की गलती के कारण हाईस्कूल सर्टिफिकेट में एक साल ज़्यादा लिख गया.......बेरोजगारी समस्या के चलते पच्चीस साल की उम्र तक नौकरी नहीं मिल पायी, कैजुअल लेबर में सात साल सड़ने के बाद जब चपरासी के पद पर रेगुलर होने हुआ तो पता चला ओवरएज है, नौकरी पाने के चक्कर में असली बी० ए० की डिग्री गँवानी पड़ी और कक्षा आठ दिखाना पड़ा। अब जो होना था हो गया. वह असली बी० ए० है, हाईस्कूल फिर से कर लेगा, प्रमोशन भी हो जाएगा।"

अपनी ख़ामोशी तोड़कर आशा ने कहा- "भाई साहब! आप सचमुच हमारे हितैषी हैं, हम आपके आभारी हैं, आपने इन्हें कम-से-कम एक दोष से मुक्त करा दिया........लेकिन नौकरी मिलने के बाद इन्हें 'किंग' बने रहने की क्या ज़रूरत थी! तुरन्त हाईस्कूल कर लेना चाहिए था । इन्होंने अपना अहंकार बरकरार रखा, झूठ दर झूठ बोला, मेरे साथ भी छल किया...अब इन्हें कहिए जल्दी से हाईस्कूल पास करके अपना प्रमोशन ले लें और 'असली बी० ए०' बोलना बन्द करें....मैं इन्तज़ार करूँगी।"
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© सुभाष चंद्र गाँगुली 
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( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)
* पत्रिका ' तटस्थ' जून 2002 मे प्रकाशित ।

कहानी : लौटती धार


सुजाता के दिन अब फिरते हुए नज़र आने लगे। कुछ ही दिनों पहले उसकी शादी की बात पक्की हुई है। पहले मिहिर के माता-पिता ने देखा, कुण्डली मिलायी, फिर मिहिर, उसकी बहन और चाची ने देखा तथा तीसरी और अन्तिम बार मिहिर और उसके मित्रों ने जी भरकर देखा, फोटो खींचें, हँसी-ठिठोली की और जाते समय मिहिर ने स्वयं सुजाता और उसकी माँ से रिश्ता मंजूर है।" पुरोहित ने शुभ मुहूर्त्त देखा और अगले माघ यानी सात महीने बाद विवाह होना तय हुआ।

सुजाता के माता-पिता, भाई, छोटी बहन सभी बेहद खुश हैं। पूरे घर में उत्सव सा माहौल है। घर, आँगन, दालान सर्वत्र उत्सव की ख़ुशबू लहरा रही है। सुबह से रात तक सभी की जुबान पर सिर्फ़ शादी की बात, मिहिर की तारीफ़ और मिहिर से ज्यादा गुणगान सुजाता के, “जीजू सेर, तो हमारी दीदी सवा सेर....... हमसे सहेलियाँ पूछती हैं, दीदी को क्यों नहीं आगे बढ़ने दिया, कितनी तेज थीं, गाना-बजाना, खेलकूद, पढ़ाई लिखाई सब में अव्वल "....... "हमारी बेटी सुजाता क्या मिहिर से कम है? आपने उसे पढ़ने नहीं दिया, वर्ना अब तक वह किसी ऊँचे ओहदे पर होती। हमेशा फर्स्ट आयी है। कितनी अच्छी अंग्रेजी जानती है, बी० ए० में कितने नम्बर मिले थे..! भगवान् के घर देर है, अन्धेर नहीं । आख़रकार उसने अच्छा योग्य वर भेजा न!"....कल तक जो सुजाता सबकी आँखों की किरकिरी थी, आज वह आँखों की पुतली बन गयी।

सुजाता से अब घर का कोई भी काम नहीं लिया जाता है, उल्टा उसे आराम करने को कहा जाता है। कदाचित् छोटी बहन बिट्टू अगर उसे खाना परोसने या किसी काम में हाथ बँटाने बुलाती, तो उसकी माँ तत्काल कहतीं, "रहने दो, उसे मत तंग करो, मैं कर देती हूँ।"

-“अरे माँ, थोड़ा-बहुत काम करने से वह दुबली नहीं हो जाएगी, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से आलसी ही हो जाएगी।"

-"चुप कर तेरी दीदी इतनी मेहनती है, बहुत काम कर चुकी है। अब दो-चार दिन आराम कर लेने दे। ससुराल में तो काम ही काम, फुर्सत कहाँ मिल पाएगी, देख न हमें! कितने सारे लोग शादी में आएंगे, रंग-रूप ठीक रखना है......... चन्द दिनों की मेहमान है अब वह।"

पिता और भाई भी सिवाय पानी पिलाने के कोई आदेश नहीं देते।

 सुजाता को अपने घर पर अतिथि बने रहना बड़ा अजीब लगने लगा। इस अद्भुत अनूठे अनुभव को उसने सँजोए रखना चाहा और एक-एक दिन की घटना को, घर के सदस्यों की मीठी-मीठी बातों को, वह अपनी डायरी में दर्ज करने लगी।

सुजाता का आज का अनुभव उसके पिछले दो वर्षों के अनुभव के ठीक विपरीत है। सुबह उसकी आँख खुलती महरी के दस्तक देने पर दो-तीन आवाज़ के बाद अगर सुजाता ज़वाब नहीं देती, तो उधर से माँ की आवाज़ आती, "बुचिया, बुचिया !"

दरवाज़ा खोलकर भीतर आने की देर नहीं कि माँ का फ़रमान, "बुचिया! जल्दी से हाथ-मुँह धोकर पापा को चाय दे आ....... बबलू और बिट्टू को नींद से जगा उठ जायँ, तो चाय दे दे।"

सुजाता सबको चाय पहुँचाती फिर बाथरूम जाकर साफ-सुथरी होकर खुद अपनी चाय ले लेती। कभी-कभार उसकी चाय ठण्डी हो जाती और चूल्हे पर खाना पकने के कारण ठण्डी चाय दोबारा गर्म कर पाना सम्भव नहीं हो पाता या फिर उसके लिए चाय ही नहीं बचती, तो सुजाता नर्मी से विरोध जताती, "माँ मेरी चाय ? मेरा भी ख़्याल रखना चाहिए ?"

माँ की त्योरियाँ चढ़ जातीं, “तू क्या मेहमान है, जो तेरे लिये इंतज़ार करूँ ? दस घण्टा बाथरूम में रहोगी, तो चाय ठण्डी हो ही जाएगी। अब जैसी है, वैसी पी ले। रोज-रोज फ़ालतू गैस जलती है।" कभी कहतीं, "नहीं बची, तो नहीं बची, नशा बुरी चीज़ है।"

सुजाता चाय पी या ना पी, पिता की आवाज से चौंकती, "बुचिया ! अभी तक अख़बार नहीं लायी ? देख, जल्दी से ले आ, वरना कोई उठा लेगा।"

सुजाता अख़बार लेकर जाती, तो उसका भाई बबूल चिल्लाता, “ए बुचिया ! स्पोर्ट्सवाला पेज इधर दे जा। अभी थोड़ी देर में ले जाना, एक बात रोज-रोज कहनी क्यों पड़ती है ?"

इधर सब्जीवाला गुहार लगाता, “आलू, टमाटर, गोभी, बैंगन....दीदी !”
माँ चीखती, "बुचिया! जा सब्जी ले ले, सुन ! देख ले डलिया में क्या है, क्या नहीं है, बिना देख-सुनकर ले लेती है, तो ज़रूरत से ज़्यादा तरकारी बनानी पड़ती है, फ़ालतू खर्चा होता है। टमाटर देखकर लेना, लाल-लाल और थोड़ा कड़ा हो। उस दिन सारा फेंकना पड़ा था। रोज-रोज तरकारी खरीदती है, फिर भी ताज़ा-बासी, अच्छा-बुरा नहीं पहचान पाती, पैसा बेकार जाता है! और सुन ! मिर्चा अलग से माँग लेना। फोकट में देता है, फिर भी नहीं लेती।" माँ की इस तरह की बातें सुजाता एक कान से सुनती, दूसरे से निकाल देती है। आदत पड़ चुकी थी।

- "माँ ! ग्यारह रुपये पचास पैसे।"

-"ठीक से जोड़ लिया है न ? मिर्चा का तो जोड़ा नहीं ?"

उधर दूधवाले की सीटी बजने लगी।
दूधवाला तूफान मेल है, ज़रा-सा सब्र नहीं कर सकता, सीटी पर सीटी बजाता। खीझकर माँ कहती, "बुचिया वहाँ खड़े-खड़े क्या कर रही है? सुनायी नहीं देता ? क्या मैं दौड़ू ? जा, जल्दी से दूध ले ले, बर्तन ठीक से धो लेना।"

-"पहले रुपये तो दीजिए, सब्जीवाला कब से खड़ा है।" सुजाता झुंझलाती। 

- "दूधवाला एक घण्टा खड़ा रहेगा क्या ? अभी चला जाएगा तो हाय-हाय करना पड़ेगा। तू दूध ले ले, मैं सब्जीवाले को दे देती हूँ...साढ़े ग्यारह कैसे हुआ ? तुझे वह जो दाम बता देता है, तू वही मान लेती है, मोल-भाव करना पड़ता है! पता नहीं किस राजकुमार के घर जायगी, कैसे गृहस्थी संभालेगी !”

थोड़ी-सी फुरसत मिलती, तो सुजाता अख़बार लेकर बैठती। अभी पन्ना भी नहीं पलट पाती कि बबलू का हुक्म होता, “बुचिया ! मेरी कमीज़ प्रेस कर दे। कल तूने बनियान साफ़ नहीं की थी, आज कर देना।" 
कमीज़ पर आयरन चलाती, तो माँ की आवाज़ सुनायी देती, "बुचिया! पापा की पैंट-शर्ट निकाल दे और टिफिन तैयारकर बैग में रख देना।"

इसी तरह दिन-भर चरखी जैसी चक्कर काटती बुचिया। कहने को तो उसकी माँ की गृहस्थी माँ ही सँभालती, हिसाब-किताब भी वहीं रखती, लेकिन अनगिनत छोटे-बड़े काम, जिन पर शायद ही किसी का ध्यान जाता हो, बुचिया को करना पड़ता। सुबह से रात तक इतनी मर्तबा 'बुचिया बुचिया' सुनती कि सुनते-सुनते कान थक जाते, हाथ पैर दुखने लगते। थककर चूर होकर जब बुचिया बिस्तर पर निढाल होती, तो एकदम शव-सी पड़ी रहती। कदाचित् सपने में 'बुचिया' सुनकर एकबारगी नींद से उठ बैठती। किन्तु तब भी बेचारी को सुनना पड़ता, "बुचिया कुछ नहीं करती, जब देखो, तब रिकार्ड प्लेयर बजाकर गाना सुनती है या टी० वी० के सामने बैठी रहती है। सिलाई-बुनाई कर सकती है, घर का दो पैसा बच सकता है।"

बुचिया को ताने- उलाहने सुनने, घरवालों की रूखाई देखने और सुनने की आदत पड़ चुकी थी। सुजाता करे, तो क्या करे, कहे तो किससे कहे, कुछ नहीं समझ पाती। वह तो बस भाग्य को कोसती और भगवान् के सामने गिड़गिड़ाती, "हे भगवान ! मुझे लड़की का जन्म क्यों दिया ? लड़की बनाया, तो उस घर में क्यों भेजा, जहाँ लड़की के हाथ पीले करने के लिए ढेर रुपए खर्च करने पड़ते हैं ? उस घर में क्यों भेजा, जहाँ हिटलर जैसा बाप है, जिसके आगे किसी की नहीं चलती ? उस घर में क्यों भेजा, जहाँ बेटियों को थोड़ा-बहुत पढ़ने तो दिया जाता है, लेकिन आगे बढ़ने नहीं दिया जाता है।"

सुजाता ने अपनी भावनाओं को, मन की पीड़ाओं को डायरी में दर्ज़ कर रखा है। सुजाता ने लिखा कि जब वह स्टूडेण्ट थी, उसकी हर प्रगति व प्रशस्ति पर उसके माता-पिता बल-बल खाते, उसकी बातों को गम्भीरता से लेते, उसे बढ़ावा देते, मगर अब जब पढ़ाई-लिखाई छोड़, दो वर्ष से बिन ब्याही बैठी हुई थी, उसकी स्थिति अपने ही घर में दासी की हो गयी थी, जिसे तन ढँकने के कपड़े और दो टाइम खाना खाने के एवज़ में कोल्हू जैसा खटना पड़ता। अब वह सुजाता नहीं, बेजुबान आज्ञाकारी 'बुचिया' बन चुकी थी। सुजाता ने लिखा था कि जब वह एम० ए० में थी और आगे बढ़ने के लिए भरपूर मेहनत कर रही थी, तभी अचानक उसके पिता ने उसे कॉलेज जाने से मना कर दिया था।

उसके पिता के कान भरनेवाला था उसका अपना भाई बबलू। बबलू ने कई बार सुजाता से कहा था कि वह अपने क्लास के लड़कों से बातें न किया करे, मगर सुजाता ने हर बार जवाब में कहा था, "इसमें कौन-सी बुराई है भइया ? हम साथ-साथ पढ़ते हैं, दिन-भर क्लास-रूम में रहते हैं, बातें यूँ ही हो जाती हैं, मैं अकेली थोड़े ना हूँ। सभी लड़कियाँ लड़कों से बातें किया करती हैं।"

मगर जिस दिन बबलू घर पर बेतुकी बात करने लगा था और राजीव नाम के एक लड़के के साथ ख़ामख़्वाह उसका नाम जोड़ा था, उस दिन सुजाता ने अपना आपा खो दिया था और कहा था, "भइया, तुमने तो यूनिवर्सिटी का मुँह नहीं देखा है, को-एजूकेशन क्या होती है, तुम क्या जानोगे ?” उस दिन बबलू ने धमकी देकर कहा था, “खूब समझता हूँ और तुम्हें भी अच्छी तरह से समझाऊँगा बहुत उड़ रही है, तेरे पर काटने पड़ेंगे।”

बबलू ने सुजाता के जीवन में जो जहर घोला था, उसकी ख्वाहिश को जिस तरह लिए सुजाता उससे घृणा करती है। किन्तु यह अजीब-सी विडम्बना है कि घृणा के बावजूद से कुचल दिया था, जिस ढंग से उसकी ज़िन्दगी के अमन-चैन को छीन लिया था, उसके सुजाता को बबलू के हाथ में राखी बाँधनी पड़ती है। राखी बाँधकर जब बबलू बहन को आशीर्वाद देता है, तो सुजाता मन ही मन कहती, "भइया, तुम जुग-जुग जीओ, सुखी रहो। पर तुमने मेरे साथ जो कुछ किया है, उसके लिए मैं तुम्हें कभी माफ़ नहीं करूँगी, कभी नहीं। अगले जन्म में तुम जैसा मनहूस भाई भगवान मुझे ना दे, यही कामना हर रक्षाबन्धन के दिन करूँगी।"

शादी तय हो जाने से सुजाता खुश है। खुश है कि उसे इस दमघोटू वातावरण से मुक्ति मिलेगी, खुश है कि उसे उसके भाई की सूरत नहीं देखनी पड़ेगी, खुश है कि अब उसे 'बुचिया, ए बुचिया' करके कोई नाक दम नहीं करेगा। खुश है कि मोहल्ले की चाची जी, ताई जी, नानी जी, बुआ जी उसे कनखियों से नहीं देखेंगी और अब वे लोग उसकी मौज़ूदगी में उसकी माँ से शादी की इंक्वायरी नहीं करेंगी और सुजाता खुश है कि उसके रिश्तेदार अब खतों के अन्त में नहीं लिखेंगे, सुजाता की शादी का क्या हुआ ?

सुजाता नवीन सपनों की उधेड़बुन में लग गयी। उसके होनेवाले जीवनसाथी ने उसके सर्टिफिकेट व मार्कशीट देखकर उसकी प्रतिभा की तारीफ़ तो की ही थी, साथ ही साथ अचरज भी व्यक्त किया था कि उसने अपने कैरियर को मँझधार में डूबने क्यों दिया। मिहिर ने उससे कहा था कि उसे पढ़-लिखकर नौकरी करनी चाहिए। उत्तर में सुजाता ने कहा था कि उसके खानदान में बेटियों को अधिक पढ़ाने की प्रथा नहीं है, सिर्फ़ अच्छी व कुशल गृहिणी बनने की तालीम दी जाती है। घरवाले नौकरी चाकरी के विरोधी है। मिहिर ने उससे कहा था कि अगर वह लिख-पढ़कर कुछ बनना चाहेगी, तो वह पूरा साथ देगा, क्योंकि उसकी इच्छा है कि उसकी बीबी कमाऊ हो, ताकि दोनों की आमदनी से जीवन का स्तर बेहतर हो ।

सुजाता के मन की अतृप्त इच्छा अचानक जाग उठी। अति उत्साह के साथ उसने सारे सर्टिफिकेट, मार्कशीट, प्रशस्ति-पत्रों तथा तमाम नोट्स व किताबों को बटोरकर इकट्ठा किया। धूल की परतों को हटाकर सारी पुस्तकों पर कवर चढ़ाया और अलमारी में सजा दीं। अब वह सुबह अपनी मर्ज़ी से माँ के साथ काम में थोड़ा-बहुत हाथ बँटाती, फिर किताब खोलकर बैठ जाती। उसे पढ़ते देख उसकी माँ उत्साहित हो उठी, उन्होंने बेटी की पीठ थपथपायी और ब्याह के बाद पढ़ाई चालू करने की बात कही। सुजाता ने माँ के आग्रह को देख पढ़ाई शुरू करने की इच्छा जाहिर की। थोड़े दिनों की बाद वह यूनिवर्सिटी जाने लगी। वह मन लगाकर पठन-पाठन करने लगी और साथ-साथ नौकरी पाने के लिए कम्पीटिशन की तैयारी करने लगी।

मगर जब चार-पाँच महीने बाद सुजाता का इम्तहान निकट था, सुजाता ने अचानक गौर किया कि उसके अध्ययन में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं है, बल्कि उसके पिता और भाई दोनों ही उसे यूनिवर्सिटी जाने से मना करने लगे। उसकी माँ ने जुबान पर ताला लगा दिया था। उनके चेहरे पर ना पहले जैसी खुशी थी और ना ही गम था। वह ज्यादातर गुमसुम रहतीं, चुपचाप अपने काम में लीन रहती और मन ही मन बुदबुदातीं।

सुजाता ने गौर किया कि उसके माता-पिता जब कभी आपस में बात करते, उस दौरान अगर वह दाख़िल हो जाती, तो तुरन्त बातचीत का विषय बदल जाता या फिर सन्नाटा पसर जाता। सुजाता को लगा कि शायद घरवाले उसकी शादी की बात उसके सामने नहीं करना चाहते।

फिर धीरे-धीरे उसके पिता और भाई हुक्म चलाने लगे। सुबह होते ही शुरू हो जाता 'बुचिया' 'बुचिया'। सुजाता वज़ह ढूँढ़ती। यूनिवर्सिटी में शीतकालीन अवकाश था। सुजाता दिन-रात पढ़ना चाहती, किन्तु बार-बार किताब बन्द कर हुक्म का पालन करना पड़ता। एक दिन परेशान होकर वह झुंझला उठी, "आप लोगों ने मेरा जीना दूभर कर रखा है। सिर पर इम्तहान सवार है, जब तब डिस्टर्ब करते हैं।"

-"किसके लिए पढ़ रही है तू ? मैं तो कहती हूँ यह पढ़ाई बढ़ाई बन्द कर घर बैठ। ज़्यादा लिख-पढ़ लेगी, तो तेरी शादी नहीं हो पायेगी।" माँ ने हताशा व्यक्त की। 

- "क्या ?" सुजाता स्तब्ध, हतप्रभ। किसी ने कुछ नहीं कहा।

सुजाता ने जब काफ़ी कुरेदा, तब उसकी माँ कमरे के भीतर जाकर लिफ़ाफ़ा ले आय और सुजाता को थमा दिया।

लिफ़ाफ़ा खोलते ही सुजाता सातवें आसमान से गिरी। उसकी तस्वीर और साथ में था एक पत्र । पत्र में लिखा था

"अत्यन्त दुःखी होकर मैं आपको आपकी बेटी की तस्वीर लौटा रहा हूँ। आपका घर-द्वार, आपके घर के लोग हमें बहुत अच्छे लगे थे। सुजाता बेटी की जितनी प्रशंसा करूँ, नाकाफ़ी होगी। किन्तु क्या बताऊँ, मेरे बेटे ने अभी पिछले हफ़्ते फोन पर बताया कि वह वर्किंग गर्ल से शादी करना चाहता है। उसने एक लड़की की सूचनी भी दी है। ऐसी स्थिति में मैं नहीं समझता कि बेटे को जोर-जबर्दस्ती राजी करवाना उचित होगा। आपकी बेटी सुजाता के लिए मंगल कामनाएँ करता हूँ।”

पत्र पढ़ते-पढ़ते सुजाता रूआँसी हो गयी। सुजाता ने देखा उसकी माँ पलंग पर बैठकर सुबक रही हैं, आँसुओं को रोकने की कोशिश कर रही हैं। अपना मनोबल मजबूत कर सुजाता ने कहा, "माँ! ऊपरवाला जो कुछ करता है, भलाई के लिए ही करता है। कहावत है शादियाँ स्वर्ग में तय होती हैं...... आप लोग बेवज़ह दिल छोटा न करें। मैं अपनी पढ़ाई जारी रखूँगी, इम्तहान दूँगी। मैं नौकरी की तलाश करूँगी, नौकरी कर लूँगी, तो किसी के भरोसे नहीं रहना पड़ेगा। किसी के आगे झुकना पड़ेगा, न दहेज का लफड़ा और ना लोगों की बेतुकी बातें।" बगलवाले कमरे से पिता ने कर्कश स्वर में कहा, "बुचिया! ज़्यादा बोलने लगी है। हम तेरे लिये फिर से लड़का ढूंढ़गे। कल से पढ़ाई-लिखाई बन्द । यह मेरा आदेश है।"

सुजाता पिता के सम्मुख जाकर दृढ़ता से बोली, “पापा! पिछली मर्तबा जब मैं घर बैठ गयी थी, उस समय सर्टिफिकेट के मुताबिक मैं अट्ठारह की नहीं थी। अब मैं अपना निर्णय लेने में सक्षम हूँ.. ...मै पीछे लौटनेवाली नहीं हूँ। आप अगर मेरा खर्च नहीं उठाएँगे, तो ना सही। मैं स्वयं अपना रास्ता ढूँढ़ लूँगी। यह मेरा फैसला है।" सुजाता के उत्तर से माता-पिता दोनों स्तब्ध रह गये।

सुजाता की शादी क्यों कैंसिल हो गयी, इसका जवाब देते-देते सुजाता के माता पिता तंग आ गये। पूरे मोहल्ले में, रिश्तेदारों में तरह-तरह की बातें होने लगीं। हर रोज कभी भाई या कभी बहन किसी से कुछ सुनकर घर आकर कहते और तत्काल घर का वातावरण गर्म हो जाता। लोगों को जवाब देने के भय से सुजाता की माँ ने घर से बाहर निकलना बन्द कर दिया। जाने-अनजाने उनका आचरण सुजाता के प्रति ख़राब होने लगा। छोटी-छोटी बातों पर वे रूठ जातीं और सुजाता पर गुस्सा उतारती बहुत दिनों तक सुजाता ने यह सोचकर माँ से कुछ नहीं कहा कि माँ की निराशा और बेटी की चिन्ता उनके आचरण में झलकती है, लेकिन एक दिन जब सुजाता दूध गैस पर चढ़ाकर पढ़ने लगी थी और दूध गाढ़ा होते-होते जलकर राख हो गया था और सुजाता दौड़कर किचन में खड़े-खड़े 'च्च-च्च' करके अफ़सोस करने लगी थी, उस समय उसकी माँ पीछे से आकर बरस पड़ी थी, "पता नहीं तेरा मन कहाँ पड़ा रहता है! तेरे कारण कितना नुकसान हुआ है!” तब सुजाता ने अपना धीरज खो दिया था, "माँ! मेरी तस्वीर क्या लौट आयी, आप सबों ने मेरा जीना दूभर कर दिया है... . अच्छा होता वे लोग तस्वीर ना लौटाकर थोड़ी-सी मोहलत माँग लिए होते, कम से कम और कुछ दिनों तक मैं सुजाता तो बनी रहती। माँ! मेरी तस्वीर लौट आयी है, तो इसमें मेरा क्या क़सूर ?. ..अब से अपनी गृहस्थी आप खुद सँभालिए, सब लोग अपना-अपना काम खुद किया करें। सभी सक्षम हैं.... .. अब मैं और बुचिया नहीं बनूँगी।"

माहौल गर्म हो उठा। माँ का चेहरा तमतमा उठा, होंठ फड़फड़ाने लगे, कटाक्ष दृष्टि से बेटी को देखने लगीं। फनफनाती हुई सुजाता कमरे से बाहर निकलने लगी कि उसके पिता हाथ में एक पैकेट मिठाई लेकर प्रसन्नचित्त मुद्रा में कमरे के भीतर दाख़िल हुए और उल्लसित होकर बोले, "अभी-अभी इण्टरनेट में रिजल्ट देखकर आ रहा हूँ, सुजाता को बैंक की नौकरी मिल गयी है। वेल डन माई गर्ल, खूब तरक्की करो! मे गॉड ब्लेस यू।"

खुशी के मारे सुजाता उछल पड़ी। उसने माता-पिता का चरण स्पर्श किया। माँ ने बेटी को गले से लगाया। अपार खुशी का इज़हार करते हुए पिता बोले, “मुझे नाज़ है बेटी तुम पर, तुमने चमत्कार कर दिखाया। तुमने मेरी सोच बदल डाली। मुझे अब तुम्हारी शादी के लिए चप्पलें नहीं घिसनी पड़ेंगी, रिश्ते खुद चलकर आएँगे।" कुछ शर्मिन्दगी से सुजाता बोली, "पापा बस । मैंने इतना कमाल नहीं किया है। आजकल तो यह आम बात है, लड़कियाँ क्या कुछ नहीं कर रही हैं।”

अगले दिन सुबह-सुबह फोन की घण्टी बजी। सुजाता की माँ ने रिसीवर उठाकर कुछ सुना, कुछ कहा, फिर सुजाता की ओर रिसीवर बढ़ाकर कहा, "लो बेटी, एक और खुशखबरी.."

- "बधाई हो! मैं बहुत खुश हूँ......... बधाई !!”

-“हैलो! हैलो........ . सुजाता खुश हूँ....... बधाई !!"

-"हैलो! हैलो!........सुजाता न ?”

-“जी! मैं सुजाता।”

-" मेरी बधाई क़बूल नहीं करोगी ?. ...मैं मिहिर ।"

- "सॉरी रांग नम्बर !" सुजाता ने गुस्से से रिसीवर पटक दिया। सुजाता के माता-पिता बेटी की आँखों में एक चमकती धार को लौटता देख रहे थे।
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© सुभाष चंद्र गाँगुली
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( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)
* पत्रिका ' वनिता ' अगस्त 2010 मे प्रकाशित ।

कहानी: बर्थ डे

उस दिन संजय की माँ का जन्मदिन था। संजय अपनी माँ आशा से बहुत पहले से ही कहता आ रहा था कि वह जन्मदिन के रोज स्कूल नहीं जायेगा, घर पर रहकर माँ का जन्मदिन मनायेगा किन्तु आशा ने सुबह-सुबह उससे कह दिया कि वह बेवजह नागा न करे, स्कूल से लौटकर बर्थ डे मनाए।

इसी बात को लेकर माँ और बेटे में काफ़ी देर तनातनी चली क्योंकि आशा ने पहले उसकी बात पर हामी भर दी थी।

दोनों अपनी-अपनी बात पर अडिग थे और जब आशा ने डाँट लगायी तो संजय अपनी बात मनवाने के लिए रोने लगा। आख़िरकार आशा ने हार मान ली और संजय से कहा- "ठीक है रोना-धोना बन्द करो, अभी पढ़ाई-लिखाई कर लो फिर जो कुछ मनवाना-वना है कर लेना।"

मगर मामला यहाँ शान्त नहीं हुआ। स्कूल न जाने की बात सुनकर संजय के पिता सतीश नाराज़ हो गये और बेटे को डाँटने-फटकारने लगे।

आशा ने जब बेटे की तरफ़दारी की तो सतीश ने संजय को दो-चार हाथ रसीद कर दिया फिर आशा से कहा- "मेरे रुपए क्या हराम के आते हैं ? खून-पसीना एक करके कमाता हूँ, इंगलिश स्कूल में कितनी मोटी फीस भरनी पड़ती है नहीं मालूम तुम्हें ? नौ सौ रुपया पर मन्थ, जुलाई में एक साथ साढ़े चार हजार दिया था वह अलग, अगले महीने से कोचिंग जायेगा उसके लिए कल ही तीन हजार रुपया एडवांस में जमा करना पड़ा नहीं मालूम? खामख्वाह टेंशन पैदा करती हो।"

-“टेंशन आप पैदा कर रहे हैं या मैं? पढ़ने तो बैठ गया है। दिनभर पढ़ाई-लिखाई करके, एनज्वॉय करेगा। मैंने उससे कह दिया है।" -“खाक पढ़ेगा। फाँकी मारेगा। तुम्हारे चक्कर में लड़का बर्बाद हो जाएगा। भेजो उसे स्कूल । "

-"कभी किसी ने मेरा 'बर्थ डे' नहीं मनाया अब बेटा खुशियाँ मनाना चाहता तो आपको अच्छा नहीं लग रहा है। ख़ुद तो याद नहीं रखते 'बर्थ डे' कब है, मैरिज डे कब है, अब बेटा सेलिब्रेट करना चाहता है तो आपको अच्छा नहीं लग रहा है। सुबह सुबह छोटी-सी बात को लेकर इतना गर्मा रहे हैं दिनभर के लिए मूड खराब कर दिया........

-"ऐसे ही लड़का लबड्डुस है, मार्क्स अच्छे नहीं आते, पढ़ाई में मन नहीं लगता, कन्सन्ट्रेट नहीं कर पाता तभी न वास्तुविदों से कंसल्ट करके घर में पढ़ने-लिखने बैठने की जगह, किताब रखने की जगह सब कुछ बदला गया ? उस पर भी रुपए खर्च हुए। राहू की दशा ठीक करने के लिए गोमेद पहनाया, क्या कुछ नहीं कर रहा हूँ उसे आगे बढ़ाने के लिए ?........तुम्हारा 'बर्थ डे' है तो क्या सब कुछ थम जाए ? सारे लोग हाथ पर हाथ धरे बैठ जाए ? उससे कहो जल्दी से तैयार होकर स्कूल जाए....... चलो तुम्हारे 'बर्थ डे' की खुशी में शाम को होटल ले चलूँगा। जल्दी घर आ जाऊँगा।"

उधर माता-पिता की नोंक-झोंक से त्रस्त संजय आँसू बहाता हुआ किताब का पेज गीला कर चुका था। उस दृश्य को देख आशा का मन तार-तार हो गया और वह कमरे से निकलकर पति से बोली - "अजी रहने दीजिए आज टेंशन में पढ़ भी नहीं पा रहा है। एक दिन न जाने से क्या बिगड़ जायेगा ? मन में तनाव रहेगा तो स्कूल में भी मन नहीं लगेगा। एकाध दिन तो उसकी भी सुननी चाहिए।"

सतीश का गुस्सा भड़क उठा। उसने कहा- "टेंशन हो रहा है! स्कूल में मन नहीं लगेगा! तुम्हारे इस गँवारू रवैये की जानकारी पहले रहती तो मैं कर्जा लेकर पच्चीस हजार डोनेशन देकर एडमीशन ही न करवाता। इंगलिश स्कूल में एक-एक दिन की पढ़ाई माने रखती है। ऐसे ही थोड़े ना लोग हजार तकलीफ़ उठाकर इंगलिश स्कूल में भेजते हैं ? तुम क्या जानोगी कितना नुकसान होता है, ख़ुद जो पढ़ी हो देहाती स्कूल में।"

फिर दनदनाते संजय के कमरे में घुसकर उसका कान उमेठकर सतीश बोले-“कान खोलकर सुन लो आइन्दा कभी स्कूल न जाने का बहाना बनाया तो मार-मारकर चमड़ी उधेड़ लूँगा। तुम्हें आई० ए० एस०, डॉक्टर, इंजीनियर कुछ बनना है। क्लास सेवेंथ में हो, अभी से मेहनत करोगे तभी आगे बढ़ पाओगे। जाओ जल्दी से तैयार होकर भागो, देर हो जायेगी तो सौ रुपया फाइन भरना पड़ेगा।”

आशा बोली- “जा बेटा जा, पापा कह रहे हैं ना शाम को होटल ले चलेंगे।" थोड़ी देर बाद आशा ने पति से कहा-"अजी आप जरा उसे स्कूल छोड़ दीजिए ना ! बच्चा है, देर हो गयी है, स्कूल में सजा मिलने के डर से साइकिल भगायेगा, थक जायेगा...... अभी साइकिल भी ठीक से चला नहीं पाता... "

इस पर भी सतीश ने गुस्सा झाड़ा-"फ़ालतू दिमाग चाट रही हो। दूध पीता बच्चा नहीं है। उसकी उम्र में मैं बहुत कुछ किया करता था। पेड़ों पर चढता. स्वीमिंग करता, कुश्ती लड़ता। तुम्हारे प्यार से लड़का इनडिसीप्लीण्ड होता जा रहा है।" निरुपाय संजय रोता-बिलखता जल्दी-जल्दी ड्रेस पहनकर साइकिल उठाकर भागा।

संजय के जाने के बाद पता चला कि जल्दीबाजी में स्कूल टिफिन संजय की मेज पर ही रह गया है। आशा ने जब सतीश से टिफिन पहुँचाने को कहा तो सतीश ने खिसियाहट से कहा- "लापरवाही तुम करोगी और डाँड़ मैं हूँ ? स्कूटर क्या पानी से चलती है ? एक दिन नाश्ता न करने से मर नहीं जाएगा तुम्हारा लाडला जाओ जल्दी से खाना तैयार करो मैं तैयार हो रहा हूँ। सुबह से टेंशन के मारे सिर फटा जा रहा है। एक कप कड़क चाय बनाकर ले आओ।"

स्कूल से घर लौटने का समय बीतता गया, संजय के वापस न आने पर आशा का तनाव बढ़ता गया। पाँच मिनट, दस मिनट, पन्द्रह मिनट करते-करते डेढ़ घण्टा बीत गया। आशा भीतर-बाहर करती रही, बार-बार दीवार घड़ी देखती रही, सूरज का ढलान और सड़क की ओर देखती रही। फिर जब सूरज ढलने को हुआ तो वह घर से निकलकर गली के मुहाने जाकर खड़ी रही कुछ देर, फिर पी० सी० ओ० से संजय के स्कूल और सतीश के दफ्तर में कई-कई बार फोन मिलाया मगर सारी घण्टियाँ व्यर्थ गयीं।

सतीश रोज़ाना दफ़्तर बन्द होने के बाद दफ़्तर के 'मनोरंजन क्लब' में ताश पीटकर रात दस ग्यारह बजे तक कभी हँसता-मुस्कुराता और कभी मुँह लटकाये घर लौटता। आशा शुरू-शुरू में बहुत पीछे पड़ी थी मगर सतीश को ऐसी लत पड़ गयी थी कि बिना फड़ पर बैठे और पेग लड़ाए उसे चैन न पड़ता।

मगर उस दिन सतीश ने जल्दी घर लौटने का वायदा किया था क्योंकि होटल ले जाना था। इससे पहले भी दो-तीन बार सतीश वादा खिलाफी कर चुका था। बहाना भले ही दफ्तर के काम का बनाया था, दारू की बू से आशा ने सच्चाई जान ली थी।

संजय ने कभी देर भी की हद से हद आधा घण्टा-पौन घण्टा। कभी ट्रैफिक जाम के कारण तो कभी किसी मन्त्री के आने से ट्रैफिक घुमा देने के कारण। आशा ने अड़ोस पड़ोस पूछा, शहर में कोई ऐसी-वैसी बात तो नहीं हुई, फिर दो-चार लोगों से मदद माँगी, स्कूल- दफ्तर जाकर ख़बर लेने की विनती की। सबों ने परेशानी सुनी पर कहा किसी ने कुछ नहीं, क्योंकि सतीश अपने मकान के दो तरफ दो बड़े-बड़े नेम प्लेट में नाम के अक्षरों से बड़े अक्षरों में 'सुपरवाइजर' टाँगकर सबसे बड़ा अधिकारी जो बना हुआ था और बीबी, बेटे को हिदायत देता "अचुआ-पचुआ से न मिला करो, स्टेटस का ख्याल रखा करो।"

आखिरकार अत्यन्त व्याकुल होकर आशा ने घर पर ताला डालकर दफ्तर जाने का मन बना लिया।

उसने ताला डाला ही था कि सतीश के दफ़्तर का बिरजू घर के दरवाजे पर, अपनी मोटर साइकिल रोकी और कहा-“भाभी जी कहाँ जा रही हैं ? अच्छा हुआ आप पहले से ही तैयार हैं, सतीश साहब ने मुझे भेजा है, आपको ले चलने के लिए।"

-"क्या ??" आशा भौंचक ।

-"जी! उन्होंने ही भेजा है आपको ले चलने के लिए।"

-"कहाँ ? वे कहाँ ? आज तो उनको सीधा घर लौटना था। संजय अभी तक घर नहीं लौटा है मैं परेशान हूँ। मैं बार-बार फोन ट्राई कर रही हूँ, मुझे कहाँ पर बुलाया है, क्यों बुलाया है ? क्या हुआ है ?..

- "निश्चिन्त रहिए। सब ठीक है। संजय साहब के साथ है. .अरे! आज तो आपका 'बर्थ डे' है, हैप्पी बर्थ डे ! चलिए! वे दोनों आपका इन्तज़ार कर रहे हैं...... आइए बैठिए !......अरे! आपके पति ने ही मुझे भेजा है, आप अपनी मर्जी से थोड़े ना मेरे साथ चल रही हैं, साहब के आदेश पर ही. ..इससे पहले आपने मुझे एक-दो बार देखा है, पहचानती तो हैं, आइए बैठिए।"

- "भाई साहब आप मुझसे कुछ छिपा रहे हैं। कुछ छिपा रहे हैं, पता नहीं मेरा मन घबरा रहा है....... मैं किसी से हँसकर दो बातें करूँ उन्हें पसन्द नहीं और आज आपके पीछे बैठने के लिए उन्होंने कैसे भेज दिया ? फिर संजय साइकिल से स्कूल जाता है, स्कूल यूनिफार्म में है, वे क्लब जाते हैं, संजय अपने पिता के पास कैसे-क्यों पहुँच गया ? सच-सच बताइए क्या बात है ?"

रास्ते भर आशा इसी तरह की बातें दोहराती गयी और हर बार बिरजू सहज स्वाभाविक ढंग से कहता गया- "भाभी आप अकारण परेशान हो रही हैं। आलतू फालतू क्यों सोच रही हैं ? आज शाम आपको सिविल लाइंस में होटल में जाना था ना।"

- "जी हाँ, होटल की बात तो सही है मगर "

सिविल लाइंस में होटल के पास बिरजू ने अपनी मोटर साइकिल रोकी। होटल के स्टैण्ड में गाड़ी खड़ी की। आशा को थोड़ा-सा सुकून मिला ही था कि बिरजू को होटल के सामने नर्सिंग होम की ओर जाते देख वह सहम गयी। घबराती हुई तेज डगों से वह बिरजू के पीछे-पीछे चलती गयी। बिरजू बिना पीछे पलटे चलते-चलते नर्सिंग होम में इमरजेंसी वॉर्ड के पास जाकर रुक गया। सतीश को देख आशा चीख उठी-"क्या हुआ ? क्या हुआ मेरे बेटे को ? बताइए ना क्या हुआ ? आप चुप क्यों है ?"

गम्भीर मुद्रा में सतीश ने उत्तर दिया- “शान्त रहो। नथिंग सीरियस तुम्हारा बेटा साइकिल से गिर पड़ा था। सिर पर थोड़ी-सी चोट आयी है, जरा-सा खून निकला था, सोचा अच्छे डॉक्टर को दिखा दूँ सो यहाँ ले आया....... अभी ठीक हो जाएगा।" -"कब गिरा ? कैसे गिरा ? कहाँ गिरा ? किससे टकराया ? सिर पर चाट आयी ? ज्यादा तो नहीं लगी? और कहाँ-कहाँ चोट लगी ? हाथ-पैर तो नहीं टूटा ? कितना

खून निकला ?" आशा ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। सतीश बार-बार कहता गया- "शान्त रहो। ख़ास बात नहीं। मामूली-सी चोट है। अभी ठीक हो जाएगा।"

'वे तीनों 'इमरजेंसी' के सामने चुपचाप खड़े-खड़े एक-दूसरे के मुँह ताकते, डॉक्टर और नर्स को अन्दर-बाहर होते देख रहे थे। क़रीब पौन घण्टे बाद एक डॉक्टर 'इमरजेंसी' से बाहर निकले और सतीश को अपने पास बुलाकर बोले-“फ़िलहाल आपका बेटा ठीक है, होश आ गया है। अच्छा हुआ जो काफ़ी ब्लड निकल गया था, समय रहते आ पहुँचा था। खोपड़ी से क्लॉट की सफाई कर दी है। मगर अभी बहत्तर घण्टे निगरानी रखनी पड़ेगी। देख-सुन और बोल नहीं पा रहा है। बहत्तर घण्टे बाद ही 'इम्प्रूवमेण्ट' समझ में आयेगा। इस बीच आप लोग उससे नहीं मिल पायेंगे।"

सतीश ने कहा- "प्लीज ! एक बार मिलने तो दीजिए। हम लोग दूर से देख तो लें।" - "सॉरी! ही इज नॉट यट आउट ऑफ डेंजर ।"

-"डॉक्टर साहब प्लीज! उसे किसी भी कीमत पर बचाइए रुपए पैसे की चिन्ता मत कीजिए। मुझे अपने दफ्तर के सी० जी० एच० एस० से सब मिल जायगा। प्लीज! उसे बचाइए !"

-“धीरज रखें! ऊपरवाले से प्रार्थना कीजिए। मे गॉड ब्लेस यू!" आशा थोड़ी दूरी पर सुबक रही थी। वह डॉक्टर के हाव-भाव से समझ चुकी थी कि उसका इकलौता बेटा अब ऊपरवाले के भरोसे हैं। उसकी आँखों से अनवरत आँसू निकलते रहे। दोनों हाथों से सिर थामकर वह फर्श पर बैठ गयी।

कुछ देर बाद एक नर्स इमरजेंसी कमरे से बाहर निकली और इधर-उधर देख आशा के समीप आकर रुक गयी। आशा उठ खड़ी हुई।

नर्स ने पूछा- "आप ही संजय की माँ है ?"

-"जी मैं ही हूँ, मैं हूँ। कैसा है मेरा बेटा ?"

नर्स ने कुछ टाफियाँ और एक ग्रीण्टिग कार्ड बढ़ाकर आशा से कहा- "आज सुबह जब आपका बेटा आया था, खून से लथपथ था। उसका पैंट और शर्ट पुलिस जाँच के बाद ही दिया जायगा। पैंट के जेब से यह सामान मिला।"

ग्रीण्टिग कार्ड खोलकर आशा ने देखा और अवाक् होकर एकटक देखती रह गयी। ग्रीण्टिग कार्ड संजय के हाथ का बना हुआ था जिसमें रंगों से भरा एक सुन्दर-सा माँ का चित्र था और उसके नीचे लिखा हुआ था "हैप्पी बर्थ डे टू यू मम्मी! हैप्पी बर्थ डे !”


© सुभाष चंद्र गाँगुली 
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( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)
* पत्रिका -' क्रांतिमनु ' 1998मे