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Monday, May 8, 2023

बहू का स्वार्थ


         जाड़े का मौसम । दोपहर का वक्त़। मीठी-मीठी सर्द हवा और सुनहरी धूप तन-मन को सुकून दे रहा है। पार्क लगभग खाली है ।
        मैदान के चारों ओर क्यारियों में खिले रंग- बिरंगे फूल देखते ही बनता है।‌‌ मैं इधर देखूं या उधर समझ में नहीं आता कि मैं किधर देखूं । कितना मनभावन ! पार्क के बीचों-बीच एक लैम्प पोस्ट है, पूरा पार्क तो क्या एक किलोमीटर दूर तक एक दर्जन हैलोजेन लाइटें रोशनी बिखेरती हैं । इस समय एक नीलकंठ ( नीले कंठ एवं नीले डैनों वालवाला पक्षी। ) आकर लैम्प पोस्ट पर बैठा । बड़े दिनों के बाद इस पक्षी का दर्शन हुआ । टीवी टावर और मोबाइल टावर के लगातार फैलते रहने से ढेर सारे पक्षियों का दर्शन दुर्लभ हो गया है।
नीलकंठ के बैठते ही एक आदमी कहां से तेज डगों से चलकर लैम्प पोस्ट से थोड़ी दूरी पर रुक गया फिर दोनों हाथों से पक्षी को नमस्कार किया । इसकी गर्दन नील होने के कारण सामान्य मान्यता है कि नीलकंठ महादेव का प्रतीक है ।
दूसरी छोर पर झूला और झाड़ी के पीछे से निकल आई एक महिला। लगता है कि आज उसके साथ वह वृद्ध व्यक्ति जिनका हाथ पकड़ कर वह महीनों से ले आती रहीं, टहलाती रही, नहीं आये हैं । उसके साथ दो-ढाई साल का बच्चा जिसका नाम है सोनू ,मुझे देखते ही दूर से नन्हे-नन्हे पांवों से दौड़कर मेरे पास आता है, कभी हाथ पकड़ कर टहलाता तो कभी मेरे पास बैठ कर मेरी गल-मुच्छों पर हाथ सहलाता । अपना पोता तो नहीं है, नाती है पर वह भी सात समंदर पार रहता है, बच्चे के कोमल स्पर्श से मुझे अद्भुत सुखानुभूति होती है । शायद हर दादा-दादी, नाना- नानी को भी सुख की अनुभूति इसी तरह होती होगी। सोनू फिर मेरे पास दौड़ा चला आ रहा है । 
सोनू की मम्मी ने अत्यंत भक्तिभाव से  नीलकंठ को नमन किया ।
नीलकंठ वहां से उड़कर विशाल आंवला वृक्ष पर बैठ गया।
साल में एक बार कार्तिक महीने में आंवले लगने पर महिलाएं उस वृक्ष की पूजा करती हैं। वेदों में प्रकृति की पूजा पर विशेष बल दिया गया है क्योंकि प्रकृति हमारी मां है।
सोनू अब मेरे पास आ पहुंचा । हाथ पकड़ कर मुझे उठाने लगा । 
मैं उठने के मूड में नहीं था चूंकि मैं कहानी ढूंढने आया था, ध्यान लगाकर सारी चीजों को याद करना चाहता था मगर सोनू अपने इरादे में अडिग था । बच्चे के आगे ‌‌‌‌हार मानना ही था सो उठ गया उसकी हाथ थामे । वह जिधर ले जाना चाहता था, मैं उधर ही चलने लगा ।
इधर-उधर घुमाकर सोनू मुझे झाड़ी के पीछे जहां उसकी मां बैठी थी, ले गया । खड़ी होकर सोनू की मां ने मेरा चरण स्पर्श कर स्वागत किया। फिर बोली -"अंकलजी  बैठिए। आपको बाबूजी बहुत याद कर रहे थे। आप काफ़ी दिनों से दिखाई नहीं दिए । मैंने सोनू से कहा था वह आपसे कह दे मगर बदमाश आपको पकड़ कर ले आया ।"
मैंने कहा -" नहीं नहीं सोनू बहुत प्यारा बच्चा है ।"
-" अंकलजी यह लड़का दिनभर नकदम किए रहता है।"
मैंने हंसते हुए कहा--" ये तो अच्छी बात है । बच्चे जितना उछल-कूद करेंगे उतना ही हेल्थ ठीक रहेगा। ...कहां है आपके बाबूजी ?" 
-"आज नहीं आयें, बोलें इच्छा नहीं है । अंकल पहले आप बैठ जाइए न !"
मै बेंच पर बैठ गया । सोनू झूला झूलने लगा । मैंने पूछा -" बाबूजी आपके कौन हैं ? पिता या ससूर ?"
--"वे मेरे ससुरजी हैं । फौज में सिपाही थे । पांच साल पहले रिटायर हुए थे ।"
-"क्या नाम है आपका ? कहां रहती हैं ?"
-" मेरा नाम है प्रिया, यहीं अलकापुरम में 'त्रिपथगा ' अपार्टमेंट में अपना एक छोटा सा फ्लैट है। मेरा मायका धनवाद में है ,ससुराल उन्नाव में है।"
-" पति क्या करते हैं ?" 
-" सोनू के पापा भी आर्मी में हैं, सुबेदार मेज़र । उन्हे ज़्यादातर नॉन फैमिली स्टेशन में पोस्टिंग मिलती है । जब फैमिली स्टेशन मिलता है तब वे हम सबको ले जाते हैं । वैसे सालभर में एक बार लम्बी छुट्टी लेकर घर आ जाते हैं ।"
--" उन्नाव में कहां ? अपना घर है ?"
- " उन्नाव जिले के तहसील ' बांगरमऊ ' के अंतर्गत एक गांव में बाबूजी के नाम एक छोटा सा पक्का मकान है । दस बिघा खेत था । बाबूजी एकलौता बेटा थे। उनके पिता ने उन्हें उत्तराधिकारी बना दिया था । हमारी एक ननद है, उसकी शादी गांव में एक किसान परिवार में हुई थी।‌ बाबूजी बहुत अच्छे आदमी थे, उन्होंने दो बिघा जमीन अपनी बेटी के नाम कर दिए थे ।"
-"‌ बाबूजी के कितने बेटे हैं ?"
-"दो बेटे। सोनू के पापा छोटे हैं । बड़ा बेटा किसान हैं ।"
-" मतलब कि दो भाइयों के चार-चार बिघा खेत हैं । सोनू के पिता के नाम जो खेत है उसका देखभाल कौन करता है ? आप के जेठ जी ?"
-" जी नहीं । बाबूजी ने 'अधिया' दिया है ।"
-" हिसाब-किताब कैसे रखा जाता है, आपलोग जाते हैं क्या ?" 
--" नहीं । जिसे खेत दिया गया है वह ईमानदार आदमी हैं। जब खेत लहलहाता है या जब सूखा पड़ता है वह विडियो कालिंग करके दिखा देता है । समय-समय जानकारी देता रहता, रुपए भी ऑन लाइन भेज देता है । सोनू के पापा जब छुट्टी पर आते हैं तब एक-दो दिन के लिए 'बांगरमऊ' हो आते हैं ।"
--" बांगरमऊ में अब मोटा-मोटी सब सुविधाएं उपलब्ध हैं । अच्छा स्कूल-कालेज, बाजार, डॉक्टर । अस्पताल के लिए उन्नाव है ही बगल में । कानपुर भी दूर नहीं । आपका अपना मकान है, खेत है, गांव में खुली हवा छोड़कर यहां क्यो आ गयीं ?"
--" क्या बताऊं घर की बातें बताने में भी बुरा लगता है !"
-" नहीं-नहीं तब रहने दीजिए । मैंने तो यूंही पूछ लिया था।"
-" नहीं आप पिता तुल्य हैं , वैसे छिपाने वाली कोई बात नहीं । मेरे पिताजी धनवाद कोल माइंस में काम करते थे । उस समय मेरी उम्र उन्नीस साल थी । मै पिताजी के साथ उनके एक मित्र के बेटे की बहूभात में गयी थी । वहीं पर बाबूजी ने मुझे पसंद किया था । दो दिन बाद शादी की बात पक्की कर मेरे हाथ में शगुन दे गये थे । "
-" वाह इन्टरेस्टिंग ! क्या दामादजी ने नहीं देखा था ?"
-" देखा था न ! बाबूजी  व्हाट्स ऐप पर वीडियो कॉल कर दिखा दिए थे और बात भी करा दिए थे।"
-" कितने दिनों के बाद शादी हुई थी ?"
-" दो महीने बाद ।"
-" मात्र दो महीने बाद ?"
-" जी । मैंने तो बीए में एडमिशन ले लिया था, मैं शादी के लिए एकदम तैयार नहीं थी ।‌‌‌‌‌‌‌‌ पिताजी ने कहा कि यह रिश्ता घर चलकर आया है, लड़का अच्छा है, घर-दुआर सब अच्छा है ईश्वर की कृपा है, कोई डिमांड नहीं है । ईश्वर की यही इच्छा है, अकारण ठुकरा देना ठीक नहीं होगा । बाद में लड़का मिलने में दिक्कत हो सकती है ।"
-" रोचक कहानी है। बाबूजी अच्छे इन्सान है, दामाद भी अच्छा, तो परेशानी किस बात की 
   थी ?"
-" अंकल ! मेरे पिताजी बहुत साधारण नौकरी करते थे, वेतन कम था, शादी के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे । हमलोग दो बहन एक भाई है। बाबूजी का कोई डिमांड नहीं था फिर भी पिताजी जितना कर सकते थे, किए थे ।"
-" तो इस कारण से सतायी गयी थी ? किसने सताया था ?"
-" पहले सास सताती थी फिर इसी बात पर जेठानी सताने लगी थी । जेठानी के घर से काफ़ी रुपए मिले थे, सामान गहने भी मिले थे । मुझे बात-बेबात ताने उलाहने दिया करते "ग़रीब बाप की बेटी खाली हाथ चली आई है ऊपर से नखरें दिखाती है । सात जन्मों का फल है जो इतने बड़े घर में आ गई ।‌‌‌‌‌‌‌‌ इतने बरस बीत गए एक बच्चा भी नहीं दे पायी !" 
    
--"क्या बाबूजी कुछ नहीं बोलते थे ?"
--" कहते थे न ! तभी तो उतने दिनों तक मैं वहां रह पायी थी । वे मेरे पक्ष में खड़े रहते थे । उन्होंने मुझे अपनी ही बेटी मान लिया था । मेरे विरुद्ध कुछ भी सुनने को तैयार नहीं रहते थे। अक्सर इसी कारण मांजी से अनबन हो जाता था । सोनू के पापा जब-जब घर आते अपने कानों से घरवालों की बात सुनकर कहते -" दुःखी मत होना । सब ठीक हो जाएगा । भगवान के घर देर है अंधेर नही। " फिर उन्होंने वन बीएचके फ्लैट खरीदकर हमें ले गए । थोड़े दिनों के बाद मुझे मायके पहुंचा दिए थे । सोनू का जन्म वहीं हुआ था । "
--" बहुत अच्छा । आख़िरकार भगवान ने प्रार्थना सुन लिया ।"
--"  अंकल घर छोड़ने के बाद मुझे सबलोगों की बात बहुत याद आती रही मगर बाबूजी को मैंने बहुत ज़्यादा मिस किया । अक्सर बाबूजी का फोन आया करता। मेरे माता-पिता से वे मेरा हाल- चाल नियमित लिया करते थे ।
--" अच्छा ! बहुत भाग्यशाली हैं आप !"
--"जब मैं बेटे को लेकर उन्नाव में बाबूजी को दिखाने गई थी तो उन्होंने मेरे हाथ पकड़ कर इशारे से कहा था कि वे मेरे साथ रहना चाहते हैं । मैंने इनसे कहा कि मैं ले जाना चाहती हूं, उन्हें सेवा-सुश्रुषा की ज़रूरत है।  बाबूजी को, उनके बेटे ने हामी भर दी । हम अपने साथ ले आएं ।"
--" क्या हुआ था आपके ससुरजी को ?"
 --" पैरालिटिक अटैक हुआ था, बड़ी मुश्किल से उठ पाये थे, अभी भी बात नहीं कर पाते ।"
--"तभी मैंने दो-तीन बार हाथ जोड़कर नमस्कार किया था किन्तु वे केवल हाथ उठाये थे ।"
--" वैसे डॉक्टर बोल रहे थे कि थोड़े दिनों में साफ़-साफ़ बोलने लगेंगे ।"
--"अच्छा हम उठते हैं। भगवान सबको ऐसी बहू दें, आजकल ऐसी बहुएं मिलती कहां । "
--" अंकलजी ! उनके साथ रहने में मेरे ख़ुद का भी स्वार्थ है ।"
--" स्वार्थ ! वह क्या ?"
--" सोनू को दादा का भरपूर प्यार मिलता है, और मुझे बल मिलता है कि मैं अकेली नहीं हूं । अकेली रहती हूं तो अपने लिए खाना पकाने की इच्छा नहीं होती । सोनू डेढ़ साल तक दूध पर था, उसके लिए खाने की चिंता नहीं रहती, दिनभर टीवी सीरियल और पिक्चर, और मोबाइल ; कभी कुछ पका लेती, कभी कुछ मंगवा लेती । अब हमें नियम से रहना पड़ता है, बुजुर्ग आदमी समय से नाश्ता, समय से खाना, बिस्तर लगाना, बिस्तर उठाना, उनके साथ-साथ मेरा लाइफ भी डिसिप्लिन्ड हो गया है !" 
--" अच्छा लगा तुम्हारी दलील । बेटी चाहे जिस स्वार्थ से तुमने ससुर को साथ रखा, सेवा करती हो, बाबूजी का भरपूर आशीर्वाद तुम्हें मिल ही रहा है, तुमको मेरा भी भरपूर आशीर्वाद । 



© सुभाषचंद्र गांगुली 
31/03/2023
( 'कहानी कहानियां पार्क की'' के अंतर्गत 18/03/2023 से शुरू 20/04/2023को खत्म हुआ)
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Friday, May 5, 2023

माया महा ठगिनी


रिटायर्ड कार्नर के अध्यक्ष न्यायाधीश सुधीर मल्लिक को एक रिटायर्ड अनिल दास ने आवेदन देकर उनकी नीजी समस्या की सुनवाई कर समस्या का निदान के लिए मार्ग दर्शन की गुहार लगाई।
एसोसिएशन के अध्यक्ष महोदय ने एक तिथि बता दी और एसोसिएशन के सचिव के जरिए सभी सदस्यों तथा अनिल दास एवं माया राय की उपस्थिति सुनिश्चित करने का आग्रह किया।
       अपने रिटायरमेंट के एक -डेढ महीने बाद अनिल दास रिटायर्ड कार्नर पर आये थे। उन्होंने एसोसिएशन का मेम्बर बनने का आग्रह किया था लेकिन उस समय पूरे बीस सदस्य थे इसलिए उनसे कहा गया कि वे अपना आवेदन-पत्र सचिव प्रभात कुमार जी को दे दें, जगह ख़ाली होने पर सदस्य बना लिया जाएगा, इस बीच वे चाहें तो सदस्यों के साथ बैठ सकते हैं।
       अनिल दास के बारे में किसी को ज्यादा कुछ मालूम नहीं था सिवाय इसके कि वे कहीं प्राइवेट नौकरी करते थे। वह बहुत खूबसूरत हैंडसम व्यक्ति थे। सुन्दर कद काठी, काले घुंघराले बाल, हृष्ट पुष्ट। भले ही रिटायर हो गए थे, हैंडसम इतना कि अनचाहे ही निगाहें चली जाती।
क़रीब दो महीने तक हफ़ में एक दो बार कार्नर पर आकर बैठते रहे, जगह मिलने पर बैठ जाते वर्ना खड़े खड़े बातें करते थोड़ी देर फिर निकल जाते। उसी दौरान टहलने आती एक खूबसूरत कम उम्र वाली महिला माया राय जिसका नाम था, को अनिल दास से आंख मिचौली करते हुए देखा गया। एक दिन कार्नर के दूसरी छोर पर देखा कि वे दोनों एक बेंच पर थोड़ी दूरी बनाकर बैठे हुए थे। दो चार दिन उसी तरह बैठे दिखें । आहिस्ता-आहिस्ता दूरी दूर हो गई, हाथ में हाथ डाल कर चलने लगे दोनों । थोड़े दिनों तक चले उसी तरह । थोड़े दिनों बाद दोनों को पार्क में नहीं देखा गया।
महीनों बाद अनिल दास कार्नर पर हाजिर होकर अपनी नीजी समस्या के बारे में थोड़ी देर बातें की फिर वे अनिल दास को साथ लेकर अध्यक्ष महोदय के आवास पर राय मशविरा करने गए। 
पता चला कि अनिल दास का पार्क में जिस महिला से परिचय हुआ था उस महिला से तीन महीने पहले शादी की थी किन्तु जब वह हर्ट अटैक के कारण अस्पताल में भर्ती थे तब वो औरत सोना दाना रुपए पैसे सब लेकर फरार हो गई। 
अध्यक्ष महोदय ने उसे अपने मोहल्ले के थाने में नंबर नोट कर दें। पत्र प्राप्ति के दो महीने बाद कमिटी द्वारा विस्तृत चर्चा के उपरांत ही कोई राय दी जाएगी।
थोड़े दिनों बाद ' रिटायर्ड कार्नर एसोसिएशन ' के सचिव के पत्र पाकर निश्चित तिथि पर अनिल दास उपस्थित हुए। 
पुलिस ने माया को भी हाजिर किया। एक महिला पुलिस उसे लेकर आई हैं।
पेंशनर्स एसोसिएशन के सचिव ने महिला पुलिस से पूछा कि उस औरत के साथ वो क्यों आईं है तो उन्होंने जानकारी दी कि अनिल दास द्वारा दर्ज़ कराई गई एफआईआर तथा जज साहब के पत्र पाकर थानेदार साहब ने कारवाई की। 
इसे गोंडा के गांव से गिरफ़्तार किया गया। तीन दिन के लिए पुलिस रिमांड पर लिया गया है।
            सभा शुरू होते ही अनिल दास द्वारा दिया गया पत्र जो कि उनकी नवविवाहिता पत्नी माया द्वारा ठगे जाने से संबंधित था सचिव द्वारा पढ़ा गया। 
अनिल दास से अपनी बात रखते के लिए कहा गया। अनिल दास ने कहा --"माया से मेरी मुलाकात इसी साल इसी पार्क में हुई। पहली मुलाकात में ही मैं उसकी ख़ूबसूरती से आकृष्ट हो गया था। आंखें चार होने पर मेलजोल हुआ, निकटता बढ़ी फिर एक दिन हम दोनों ' जुबली पार्क ' घूमने गए तो इसने एकबारगी शादी के लिए प्रोपोज कर दिया...." 
माया चीख उठी " जज साहब यह आदमी झूठ बोल रहा है।जज साहब मैं इसकी पत्नी नहीं हूं। "
माया से कहा गया कि उन्हें भी पंद्रह मिनट का टाइम दिया जाएगा, उनकी बारी जब आयेगी तभी बोले।
अनिल दास पुनः बोलने लगे " मैंने कुछ समय मांगा फ़िर हां कह दिया। उसने तब यह शर्त रखी कि शादी धूमधाम से, रीति-रिवाज से नहीं होगी बल्कि किसी मन्दिर में करनी होगी। ना-नुकुर कर मैंने उसकी शर्त मान ली। मैंने इनको पंद्रह लाख के गहने खरीद दिए। रिटायरमेंट पर जो रुपए मिले थे क़रीब आधा गहनों पर यह सोच कर खर्च कर दिया कि ये अच्छा इनवेस्टमेंट होगा, बैंक में व्याज बारह प्रतिशत से घटते-घटते अब पांच पर उतर आया, शेयर मार्केट का कोई भरोसा नहीं। गहनों से रुपए सुरक्षित और पत्नी भी खुश होगी। हमे थोड़ी सी भी भनक नहीं लगी कि यह औरत नहीं नागिन है......"
माया फिर चीख उठी। उसे फिर शांत कराया गया।
हफ़ दस दिन बीता न था कि इसकी फरमाइश बढ़ती गई। रोजाना होटल का खाना और तरह तरह की फरमाइशें।पूरा न करने पर उपद्रव करती। इसने मेरा जीना दुभर कर दिया । 
इतना बवाल इतना बवाल कि खाना पीना सोना सब मेरे लिए कठिन होता गया । 
तबियत बिगड़ी। बिगड़ती चली गई। एक दिन तेज बुखार, कम्पन और उठ बैठने पर चक्कर। होश रहते रहते मैंने दोस्त अविनाश को अपना हाल बताते हुए अविलम्ब घर आने के लिए कहा। मुझे बेहोश अवस्था में ' हार्ट केयर ' नर्सिंग होम ले जाया गया था। मुझे जब होश आया तो मैंने खुद को आईसीयू में पाया।  ़़......... जब मेरी छुट्टी होनेवाली थी, मैं अपने छोटे मोबाइल से अनेक फोन किया, घंटियां बजीं किन्तु फोन नहीं उठा । तब मैंने अविनाश से रिक्वेस्ट किया कि वह माया से मिलकर कहे कि अस्पताल का भुगतान करने के लिए मेरी अलमारी के लाकर में रखे रुपए में से दो हजार नगद और मेरा डेबिट कार्ड तुम्हें दे दे, साथ में मेरा स्मार्टफोन भी ले आएं। ........
मेरा दोस्त वापस लौट कर बोला कि घर पर ताला लटक रहा है, पड़ोसी ने सूचित किया कि तीन दिन से बंद है । उधर अस्पताल में डिस्चार्ज सर्टिफिकेट तैयार होकर दो घंटे से पेमेंट का इंतजार कर रहा था, मुझे तीन बार रिमांइडर देने के बाद कमरे से निकाल कर बाहर बैठा दिया गया था। आखिरकार मेरे मित्र अविनाश ने सारा भुगतान कर मुझे लेकर घर पहुंचाया। मामूली सा ताला लटक रहा था। अविनाश ने आसानी से उसे तोड दिया ........ मुझे मित्र को रुपए वापस करना था। बेडरूम में गया, देखा उसकी अलमारी खुली हुई थी, लाकर खुला और पूरा खाली। अलमारी लगभग खाली, नयी साड़ियां, कुछ कपड़े लत्ते गायब। दो अटैची थे दोनों गायब ।
मैं समझ गया कि यह औरत सारे सामान लेकर भाग गयी । मेरी अलमारी में कपड़े जस के तस। अपना स्मार्टफोन आधे घंटे तक ढूंढने के बाद बाथरूम में मिला, स्वीच ऑफ था। फोन थोड़ा सा चार्ज होने के बाद एसबीआई योनो खोला तो देखा खजाना खाली। अलमारी का लाकर खोला तो पता चला कि डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड सब गायब। मैं अपना सुध बुध खो बैठा। दिल की धुकधुकी बढ गई। अविनाश मुझे समझाता रहा,सम्हालता रहा..... अविनाश बैंक जाकर कन्फर्म कर आया कि खाते में पैसा नहीं है।"
अनिल दास फूट फूट कर रोने लगे, सम्हालने के लिए सभा से थोड़ी दूर ले गए, फिर ढांढस बंधाने के बाद लौट कर गोल -बार पर बिठा दिया।
           फिर अध्यक्ष महोदय ने माया से अपना पक्ष रखने को कहा गया।उसका चेहरा तमतमाया हुआ था। बहुत गुस्से से वह ऊंची आवाज़ में बोली "हम लिव इन रिलेशन में चार महीने थे फिर अलग हो गए थे। इनको मालूम था कि मैं चली जाऊंगी । ये साथ रहने वाला आदमी नहीं है, ये निहायत बद्तमीज है ।"
--" आपके ऊपर आरोप है कि उन्हीं दिनों में आपने इनके घर से चालीस पैंतालीस लाख रुपए के गहने लूटी, बाइस लाख इनके बैंक खाते से निकाले। "
--" झूठ्ठा है ये आदमी, मक्कार है। अंट शंट कुछ भी आरोप लगा देता है। इसने मुझे मात्र पांच सात लाख रुपए का गहना खरीद दिया था। और पांच साड़ियां हजार बारह सौ वाली। बस। मैं अपना ही सामान लेकर गयी थी। "
-- " बिना शादी के कोई आपको छह लाख के गहने क्यो कोई दे देगा ?"
--" क्यो नही देंगा ? लिव इन रिलेशनशिप में थे हम। एक बुड्ढा एक खूबसूरत जवान लड़की को तीन चार महीने भोगेगा, मौज मस्ती लेगा फोकट में ? कोई अनपढ़ गंवार लड़की भी ऐसा नहीं करने देगी। कहावत है - " मेहरी से बड़ा सुख / खर्ची का बड़ा दुःख।" वैसा ही है यह आदमी।
माया चीख चीखकर अनर्गल बकती गई फिर बोली" मुझे जाने दिया जाए। मैं और बेज्जती नहीं करा सकती । मैं शरीफ़ बाप की शरीफ़ लड़की हूं। ये आदमी महा दुष्ट है, मुझे नहीं छोड़ रहा था, खूब झगड़ा करता, गालियां देता, यहां तक कि झोंटा खींच कर मारता था, मैं इसके जंगलीपन से छुटकारा पाना चाहती थी, अवसर मिलते ही भाग निकली। "
अनिल दास फिर उठ खड़े होकर बोले " जज साहब! यह औरत महा ठगिनी है। पंद्रह लाख के गहने जो मैंने खरीद दिए थे वो तो ले ही गई साथ ही मेरी पत्नी के तकरीबन सात सौ ग्राम गहने थे वो भी ले गयी। "
--" पत्नी की ?‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌आपकी पत्नी ?"
--"जी मेरी पत्नी । नाम भी सुना होगा आप लोगों ने। नाम था सुधा दास। समाजसेवी। अनाथालय चलाती थी। साज सज्जा का शौक नहीं था। शादी में करीब सात सौ ग्राम गहने मिले थे। कोविड के दौरान रोगियों की दिन रात सेवा की फिर खुद ही कोविड का शिकार होकर चल बसी। मैंने शादी से पहले माया को सबकुछ बता दिया था। माया ने जब हाथ बढ़ाया था तो मैंने कहा था कि मैं अपने बेटे से परामर्श कर इस पर बात करुंगा । ....... मेरा बेटा सपरिवार कनाडा में रहता है। मैंने उससे बात की। बेटे ने बहू से मशविरा कर केवल सहमति नहीं जताई बल्कि खुशी भी जताई। बेटे ने कहा कि वे लोग निश्चिंत हो जायेंगे कि उसके पिता का देखभाल करने वाला कोई है क्योंकि वृद्धावस्था में मर्दों का अकेला रहना मुश्किल होता है और बिल्कुल यही सोचकर मैंने भी यही सोचकर पहले से ही मन ही मन राजी था।बेटे ने आगे कहा कि वह मेरी शादी से एक हफ्ता पहले आकर  रजिस्ट्री मैरिज की तथा पार्टी की व्यवस्था कर देगा किन्तु यह लड़की अपनी ज़िद पर अड़ी रहीं और मन्दिर में शादी करने के लिए हमें मजबूर कर दिया। मेरे दिमाग में ये बात आई ही नहीं कि ये ठगिनी भी हो सकती है वर्ना मैं मन्दिर में शादी हरगिज न करता। विधिवत शादी की होती तो प्रमाण रहता।
अचानक अविनाश दो लोगों के साथ हाजिर हुआ। उसने उन दोनों का परिचय कराते हुए कहा कि एक मन्दिर के पूजारी है और दूसरा मन्दिर का ओनर। इन्हीके  मन्दिर में दोनों की शादी हुई थी सबूत के तौर पर इनके पास रिकॉर्ड है जिसमें मन्दिर ट्रस्ट द्वारा मन्दिर परिसर में शादी की अनुमति दी गई थी।  शादी के फोटोग्राफ्स इनके पास उपलब्ध हैं क्योंकि जो शादियां इनके मन्दिर से होती है उनके फोटोग्राफ्स ट्रस्ट द्वारा रिकॉर्ड में रखा जाता है। "
अविनाश ने यह जानकारी दी कि यह महिला किसी गिरोह की सदस्य है। नाम बदल बदल कर शादियां करती ठगती लूटती है, गिरोह में और लड़कियां हैं, ज्यादातर बूढ़ों को ही फंसाती हैं, कुछ शिकायतें पुलिस विभाग को मिली है मगर ज्यादातर लोग शिकायत दर्ज ही नहीं कराते क्योंकि उन्हें पुलिस पर भरोसा नहीं रहता, पुलिस भय दिखाकर रुपए ऐंठते हैं फिर कानूनी प्रक्रिया इतनी लम्बी चलती है कि लोग हिम्मत ही नहीं जुटा पाते। रिटायर्ड कार्नर के अध्यक्ष पूर्व न्यायाधीश के पत्र पाकर सब इंस्पेक्टर एफआईआर पर छानबीन कर रहे हैं।
    अध्यक्ष महोदय ने सलाह दी कि अनिल दास जी पुलिस जांच में पूर्ण सहयोग करें ताकि पूरे गिरोह का पर्दाफाश हो जिससे अनिल दास को इंसाफ़ मिले ।


© सुभाषचंद्र गांगुली 
31/03/2023
( 'कहानी कहानियां पार्क की'' के अंतर्गत 18/03/2023 से शुरू 20/04/2023को खत्म हुआ)
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‌‌ला‌‌पता हो गए सिंहसाहब


   ‌‌पा‌र्क में एक दिन पता चला कि सिंहसाहब लापता हो गए हैं । उनके घर से उनकी बहू आई थी ख़ोज-ख़बर लेने। उन्हीं से पता चला कि सिंह साहब सात दिन से घर नहीं लौटे।
--' क्या ? सात दिनों से लापता ? घर से मात्र सात गज दूर और यहां तक आने में सात दिन लग गए ?' मेरे मुंह से बरबस निकल गया।
--' घर की मुखिया का यह सम्मान ? किसी का किसी से कोई मतलब है ही नहीं?'
बहू ने उत्तर में कहा -' घर में किसी से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं समझते,जब मर्ज़ी घर से निकल जाते हैं। एक बार बड़े बेटे से बहस होने के बाद गुस्सा दिखाकर घर से निकल गये थे, पांच दिन बाद लौट आए थे। पता चला था कि वे बनारस गये थे अपने मित्र के घर। सिंहसाहब का एक भाई कर्नल और एक भाई वाइस चांसलर हैं। उन दोनों को ख़बर कर दी गई है। पिछले बार भी भाइयों के कारण ही वे घर वापस लौट आएं थे। '
--' यह कब की बात है ?'
--' दो साल पहले की।'
--' अर्थात् तब उनकी पत्नी जीवित नहीं थीं। '
         ' रिटायर्ड कार्नर ' में मौजूद कुछ लोगों ने बहू की बात सुनी । सुनने के बाद एसोसिएशन के सचिव ने कहा- ' आपके ससुरजी हमारे एसोसिएशन के सदस्य नहीं हैं और न ही यहां बैठने वाले किसी से सम्बन्ध रखते थे । इस वज़ह से हमें उनके बारे में जानकारी नहीं है। वृद्ध आदमी पत्नी के देहांत के बाद ऐसे ही गुमसुम रहते हैं,अब आपसे जो कुछ सुना हमें भी डर सताने लगा है। आखिर हम सब बूढ़े हैं। हम चिन्ता में रहेंगे । ख़बर मिलने पर कृपया हमें सूचित करिएगा । '
बिना कुछ बोले सिर का पल्लू खींच कर बहू निकल गई ।
सिंहसाहब का पूरा नाम क्या है किसी को मालूम नहीं। अपना परिचय देते हुए वे कहते हैं -' मुझे सिंह कहते हैं ।' 
-' सिंह? सिंह तो सरनेम होगा। पूरा नाम क्या है? '‌
--' नाम का क्या काम ? यहां तो सभी लोग सरनेम से सम्बोधन देते हैं । यहां जाति को ही प्रमुखता दी जाती है। सिंह साहब, ठाकुर साहब, शर्माजी, त्रिपाठी जी, पंडित जी, श्रीवास्तव साहब, राय साहब आदि आदि।'
--' फिर भी नाम तो होगा ही । '
--' क्यों नहीं होगा ? नाम तो आपका भी है किन्तु शायद ही किसी को आपका नाम मालूम हो। लोग तो आपको भी सरनेम से सम्बोधन देते हैं। ठाकुर हूं, आप मुझे ठाकुरसाहब भी कह सकते हैं ।'
सिंहसाहब ने कभी किसी से नहीं कहा कि वे क्या करते थे, किस विभाग में थे, किस पद से रिटायर हुए थे। अपने परिवार के बारे मे भी किसी से कुछ नहीं कहते थे। लोग तरह-तरह के कयास लगाते। 
किसी ने कहा था कि सिंहसाहब सतर्कता विभाग में हैं। ये लोग अपना वास्तविक परिचय नहीं देते।
सिंहसाहब पार्क में नियमित रूप से नहीं आते रहें, कभी-कभी आते रहें। दो चार राउंड मारने के बाद किसी बेंच पर बैठ जाते रहें। अकेला। अकेले ही रहना पसंद था उन्हें।
क़रीब तीन साल पहले पत्नी के देहांत के बाद और भी ख़ामोश हो गये थे। 
पार्क में ' रिटायर्ड कार्नर ' के लोग उन्हें नापसंद करते थे। वे कहते कि सिंहसाहब के पास एक ही कहानी थी। वे अपने जीवन में कहां-कहां घूमें, और उनकी पत्नी के विछोह का दर्द। अत्यंत भावुक होकर एकबार उन्होंने कहा था-' जब तक वह थी घर में मेरा सम्मान था, मेरे पास सबकुछ था, वह मेरे महत्व को बनाए रखती, बेटे बहू सब महत्व दिया करते थे, उसके जाते ही मैं अर्श से फर्श पर गिर पड़ा, मेरा अस्तित्व संकट में पड़ गया ।'
पार्क में वाकिंग करते-करते सिंह साहब से मेरा दुआ-सलाम होने लगा था। एक बार उन्होंने ख़ुद ही मुझे पास बुलाकर अपने पास बिठाकर परिचय लिया। फिर जब कभी पार्क में आते मुझे बुलाकर बैठाते, बातें करते।
मैं बंगाली हूं जानकर मुझसे कोलकाता की बातें अनेक बार किए थे। टूटी-फूटी बांग्ला भी बोल लेते। 
उन्हें कोलकाता बहुत ज़्यादा पसंद था। वहां की भाषा, साहित्य, संस्कृति, खुलापन, जीवन शैली सबकुछ पसंद था।
वे असम, मेघालय मिजोरम, अरुणाचल, नागालैंड के बारे में ख़ूब बोलते थे किन्तु किस सम्बन्ध में उन राज्यों में जाया करते थे या कहां कितने दिन रहें कभी नहीं कहा, पूछने पर सवाल टाल जाते।
बात चाहे किसी भी विषय पर होता, घूम फिर कर पत्नी की बात पर आ जाते वे। भावुक हो जाते, गला भर आता, आंखें नम हो जातीं और वे ख़ामोश हो जातें। मैं भी ख़ामोशी से उठ जाता।
सिंहसाहब ने कई बार अपने बाग, खेत और बंगले की बात कर चुके थे। उनके बार-बार आग्रह करने पर एक दिन मैं उनके साथ जाने के लिए राजी हो गया।
पार्क से निकल कर दस कदम की दूरी पर रोड पर आ गया । बायें जाने पर मेन रोड, दायें जाने पर 'न्यू टाउनशिप' के और भीतर। हम दायीं ओर घूम गये।
सिंहसाहब ने हाथ उठाकर आगे दिखाते हुए कहा - 'वो जहां सड़क ख़त्म होती है वहां एक गहरा चौड़ा नाला है।'
-- ' बाप रे वहां तक जाना है ? वो तो दूर है ! नाला पार कर फिर कितना दूर ?'
--' नहीं-नहीं उससे आगे ही आ जाएगा मेरा घर।
नाले पर पुल नहीं है। नाले के पार किसी को अगर जाना होगा तो तीन किलोमीटर घूमना पड़ेगा। नाला पार कर बायीं ओर बहुत बड़ा एरिया है जो कैंटोनमेंट कहलाता है। दायें तरफ़ उत्तर की ओर जाने पर अनेक गांव हैं, फिर गंगा मैया मिलेगी।
सौ गज चलकर हम दायें घूम गये। बायें हाथ बंगला दिखाकर बोले ' यही मेरा घर है '।
एक बड़ा सा ऊंचा फाटक । दो-तीन बार कॉल बेल बजाया फिर ख़ुद ही भीतर हाथ डालकर फाटक खोल दिया। भीतर प्रवेश करते ही मै खुश हो गया। बायीं ओर ख़ूबसूरत बगीचा, बीच में ख़ूबसूरत मखमली घास का लान। बाउंड्री के पास आम, आंवला और एकदम किनारे बेल का पेड़। 
मैं जब तक देखता रहा तब तक विराट् चबूतरे पर खड़े-खड़े वे कॉल बेल बजाते रहे।
अत्यंत निराश होकर चबूतरे पर रखी पांच सात बेंत की कुर्सियों में से एक मेरे लिए ले आएं। लॉन में रख कर बोले ' बैठिए इस पर' । तब तक मैं कदम बढ़ाकर चबूतरे से दूसरी कुर्सी उठा लाया। उन्होंने कहा ' ये कुर्सियां 'शान्ति निकेतन' की हैं ।'
थोड़ी देर बाद वे उठ खड़े हुए और बोले 'मै अभी आता हूं। चाय के लिए बोल दूं।'
मैंने कहा ' रहने दीजिए।' मगर वे माने नहीं। उठकर चबूतरे पर दरवाज़े के पास कॉल बेल का स्वीच पुश किया। चार-पांच बार पुश किया। फिर दो मिनट बाद लौटकर वे कुर्सी पर बैठ गये। अनमने भाव से बैठे रहें।
मैंने कहा-' सिंह साहब मुझे आज्ञा दीजिए।'
-'अरे नहीं नहीं। बिना चाय पानी के कैसे जाएंगे ? आप इस समय हमारे गेस्ट हैं। दालान पार कर किचन और बाथरूम है, सुनाई नहीं दे रही होगी। देखता हूं, पीछे भी दरवाज़ा है। मेरा अपना कमरा बैक साइड में हैं।'
-'आपका बगीचा बहुत सुन्दर है।'
-' अभी आपने देखा ही कहां ? आइए।'
 मैं उठकर उनके पीछे-पीछे चलने लगा। मकान के बग़ल से। पार्किंग एरिया बहुत बड़ा है। एक दर्जन मोटरकारें खड़ी हो सकती हैं। पीछे जाकर मैं दंग रह गया। मकान के बाद बागान ।
सिंहसाहब बोले -' आप बाग़ान देखिए, मैं दो मिनट मे आता हूं, चाय नाश्ता के लिए कह दूं।'
       बहुत बड़ा बाग़ । अनगिनत पेड़ पौधे। अमरूद, अनार, सन्तरा, पपीता, नींबू, नारंगी, शरीफा, बेर ,केला, क्या नहीं है। पूरे मैदान का  चक्कर लगा कर मैं थक चुका था।
क़रीब पंद्रह मिनट बाद सिंह साहब वापस आये।
देखा उनका चेहरा तमतमाया हुआ है। मैंने कहा यह बाग़ तो बहुत बड़ा है।'
वे बोले- ' जहां से नाला शुरू होता है लगभग वहीं तक यानी कि यहां से तक़रीबन तीन सौ गज। यह मकान छह बिस्वा जमीन पर है। दो बिस्वा कवर्ड एरिया। मेरे मकान के बायें तरफ़ सीधा सड़क तक पूरी जमीन मेरी है। डेढ़ एकड़ से अधिक। एक किसान के जिम्मे है सालों से। वही सबकुछ करता है। इन दिनों खरीफ की बुआई चल रही है। जो कुछ उगता, मिलता, आधा मेरा होता है। किसान ही हिसाब रखता है। ईमानदार हैं।'
मैंने पूछा ' यह पुश्तैनी मकान है?'
वह तपाक से बोले-' नहीं । साठ के दशक में, साठ साल पहले मैंने इसे खरीदा था। तब यहां आबादी थी नहीं । दूर-दूर तक पक्का मकान नहीं 
था किंतु धीरे-धीरे मकान बन रहे थे, बहुत फासले पर दो-चार मकान दिखते थे । नगर निगम जमीन कब्ज़ा कर रहा था, औने-पौने दामों पर लोग जमीन निकाल रहे थे । मुझे लगा कि शहर में कहीं जमीन नहीं है, नदी काफ़ी दूर तक खिसक चुकी है, और इस क्षेत्र का विकास कभी न कभी होगा, यहां सस्ते दामों में जमीन खरीद लेना अच्छा हो सकता है। 
-'मुझे मेरे पिता ने उत्साहित किया था, कुछ आर्थिक मदद भी की थी, पूरी जमीन मैंने बीस हजार रुपए  में खरीदा था।'
-' कितने दूरदर्शी थे आप और आपके पिता ,दाद देनी पड़ेगी !' बाग़ में खड़े-खड़े सिंह साहब ने सारी कहानी सुना दी।
             हम दोनो लान में लौट कर अपने-अपने स्थानों पर बैठ गये। सिंह साहब का गोरा चेहरा अभी भी गुस्से से लाल था। पता नहीं क्या माज़रा ! यहां से निकल लेना अच्छा होगा, सोचकर मैं एकबारगी उठ खड़ा हुआ। उन्होंने तत्काल हाथ पकड़ कर बैठा दिया और कहा- ' बैठिए। पहली बार मेरे घर आयें है ऐसे कैसे जा सकते ! पत्नी रहतीं तो कितनी खातिर करतीं आपकी , कितना खुश होती। अतिथि आप्यायन करना उसे पसन्द था। आपके पुस्तक विमोचन समारोह में मैं उन्हें ले गया था ।
 जब से ' अमर उजाला ' और 'इंद्रप्रस्थ भारती' में पत्नी ने आपकी कहानियां पढ़ी थी, वह आपकी प्रशंसक बन गई थी। उनके रहते मैंने कई बार आपको आने के लिए कहा था। पत्नी ने एक बार कहा था 'अपने कहानीकार मित्र को चाय पर बुलाइए ।'
पत्नी की बात करते हुए सिंहसाहब भावुक हो गएं । आंखों की कोर पोछते हुए सिंहसाहब मकान के पीछे जाने लगें । कामवाली बाई को आते देख वे बोले-' गीता जरा चबूतरे से बेंत की मेज लाकर यहां रख दो और भीतर जाकर देखो बहू ने चाय बना ली होगी। साथ में पानी भी ले आना ।
गीता गयी तो गई। क़रीब पंद्रह मिनट तो हो  गयें। उनको उठते देख मैंने कहा-'आती ही होगी। इतना बड़ा मकान है आपका, आने जाने में पंद्रह मिनट तो लगता ही है।' थोड़ी देर बाद गीता आई। मुंह लटकाकर खड़ी रही।
सिंहसाहब बोले-' क्या बात है?'
गीता बोली-' बीबी जी ने कहा बोल दो बहू जी खाना खाकर सो गयी है। बाबूजी का खाना उनके कमरे में रख दिया दिया है।'
सिंहसाहब ने अपना आपा खो दिया। न आव देखा न ताव, तेज डगों से मकान के पीछे जाने लगें।
मैंने दो बार चिल्लाया ' सिंहसाहब ! सिंह साहब ! आप परेशान न होइए ।' 
मुझे अनसुनी कर वे निकल गयें।
मैं बार-बार घड़ी देख रहा था। मेरे भोजन का टाइम ओवर हो चुका था। पत्नी भूखी बैठी होगी। उफ्फ़ ! कहां फंस गया मैं ! 
थोड़ी देर में भीतर से लडने-झगड़ने की आवाज़ आने लगी। कुछ-कुछ साफ़ सुना 'आपने क्या इसे होटल समझ रखा है ? जब खुशी आर्डर करते हैं....... जाने कब रिटायर हो गए हैं और अभी भी ख़ुद को आई जी समझ रहे हैं....... बहुत गुरूर है आपको अपने ज़मीन जायदाद पर । उसी कारण इतनी दबंगई आपकी। क्या चाहते हैं आप ? सब आपके कहने पर उठक-बैठक करें ? बेचारी आराम कर रही थी। अगले महीने से आप पूरी पेंशन दीजिएगा, पचास हजार में क्या होता है ?'
मेरा सिर भन्नाने लगा। दिल की धुक-धुकी बढ़ गई। मैं उठकर चलने लगा, फाटक पर पहुंचा ही था कि सिंह साहब भीतर से निकल कर चबूतरे पर  खड़े-खड़े आवाज़ लगाई ' दादा जी रुक जाइए।'
मैं रुक गया। मेरे पास आकर वे बोले -' मेरा बड़ा बेटा चीख रहा था। वकील है । वकालती चलती नहीं। अक्सर बात-बेबात झगड़ता है, अपना मानसिक संतुलन खो देता है।' 
सिंह साहब का गला भर आया। उनका हाथ पकड़ कर मैंने कहा ' सिंह साहब मैं भी बूढ़ा हूं, सब समझता हूं ।'
                    देखते-देखते चार महीने बीत गए। सिंह साहब पार्क में नहीं दिखाई दिए। इस बीच रिटायर्ड कार्नर के एक सदस्य से जानकारी मिली कि सिंहसाहब ने मकान बेच दिया है। उनके दोनों बेटों को क्रेता से मकान खाली करने की नोटिस मिली है। तीस दिन का समय दिया गया है। उसने कहा कि सिंहसाहब कहां है पता नहीं चला।
                जब से सिंहसाहब के घर वह अप्रिय घटना घटी थी और सात दिन बाद उनकी बहू आकर बोली थी कि सिंहसाहब सात दिन से लापता है तब से सिंह साहब की याद हमें सताती रही है, किन्तु उनके बारे में जानकारी प्राप्त करने का उपाय नहीं था।
जाड़े में मैं धूप में टहलता हूं। धूप मिल जाती है और घूमना -फिरना भी हो जाता है।
टहलते-टहलते मैं पार्क पहुंचाने वाली मेन रोड पर पहुंच गया। दूर से दिखाई दिया कि सिंहसाहब के घर से थोड़ी दूर मेन रोड पर पुलिस वैन, पीएसी ट्रक और कुछ मोटर कारें खड़ी थी। 
एक परिचित व्यक्ति जो उधर से आ रहे थे, मैंने उनसे पूछा- 'आगे क्या हुआ कुछ पता है ? '
उन्होंने कहा- ' सुना ठाकुरसाहब के घर डिप्टी कलेक्टर पुलिस फोर्स के साथ पहुंचे हैं जिसने ख़रीदा उसे मकान पर कब्जा देने।
--' बेच दिया ! ठाकुरसाहब है यहां ?'
--' पता नहीं।'
--आपके पास उनका फोन नंबर है ?'
--'जी नहीं।' वह आगे निकल गया।
मेरी जिज्ञासा बढ़ गई। पांच-सात कदम आगे बढ़ कर रुक गया। सामने से जाना मुश्किल था क्योंकि काफ़ी भीड़ थी। मैं दूसरे रास्ते से पीछे की ओर पहुंच गया। एक छोर से दूसरी छोर तक भीड़ ही भीड़। 
सिंहसाहब का खेत उजड़ चुका था। कच्ची सड़क पर खेत के बाउंड्री पर लगे कांटा तार और लोहे का फाटक हटा दिया गया था। हरा भरा खेत अब मैदान दिख रहा था। दर्जनों मजदूर काम करते हुए दिखे। ड्रिलिंग मशीन से बोरिंग चल रहा था।
समूह में जगह-जगह लोग उसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। किसी को सटीक जानकारी नहीं थी । क़रीब हफ़्तेभर बाद 'रिटायर्ड कार्नर' के एक सदस्य से जानकारी मिली कि सिंहसाहब ने अपना ज़मीन-जायदाद एक पूंजीपति को साठ करोड़ में बेच दिया है। उस खेत पर एक मॉल बनेगा और मकान के स्थान पर एक मल्टीस्टोरिड अपार्टमेंट। 
सिंहसाहब ने दोनों बेटों को दो-दो करोड़ और किसान को एक करोड़ रुपए दिए हैं । 
बाकी राशि से एक भव्य सुख-सुविधा सम्पन्न वृद्धाश्रम बनेगा जिसके लिए एक ट्रस्ट का गठन किया गया है । सिंहसाहब भी एक ट्रस्टी हैं'। 


© सुभाषचंद्र गांगुली 
31/03/2023
( 'कहानी कहानियां पार्क की'' के अंतर्गत 18/03/2023 से शुरू 20/04/2023को खत्म हुआ)
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रिटायर्ड कॉर्नर


         रिटायर्ड कॉर्नर 
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 इस पार्क में बैठने की काफ़ी अच्छी व्यवस्था है । पार्क के चारों कोने सिमेन्ट के दो बड़े-बड़े बेंच बने हुए हैं । एक-एक पर कम से कम छह लोग बैठ सकते हैं । एक कोने के दोनों बेंच वृद्ध लोगों से भरे रहते हैं। मार्निंग वाक, ईवनिंग वाक के बाद सब यहीं आकर बैठते हैं ।              
  जब से यह पार्क बना है शायद तभी से रिटायर्ड लोग इसी कोने में बैठते आ रहे हैं । इसी वज़ह से इसका नाम पड़ गया है 'रिटायर्ड कॉर्नर'। 
'रिटायर्ड कॉर्नर ' कभी खाली नहीं रहता । 
दो बड़े-बड़े बेंच बारह लोगों के बैठने के लिए हैं । तीन चार नये रिटायर्ड लोग हमेशा खड़े मिलते हैं और मिलते रहेंगे । ' वेलफेयर एसोसिएशन ' बनने के बाद से  ' रिटायर्ड कॉर्नर ' यथेष्ठ व्यवस्थित हो गया है।
  हर साल एक-दो तो कभी तीन बूढ़े भगवान को प्यारे हो जाते हैं और क़रीब इतने ही लोग अवकाश प्राप्त करने के बाद बूढ़े होकर शामिल हो जाते हैं 'रिटायर्ड कॉर्नर' में।
           जिस दिन किसी की मौत की ख़बर आती है, अचानक सबके चेहरे पर उदासी छा जाती है । माहौल गमगीन बना रहता है एक दो दिन, जबकि आये दिन कोई न कोई कहता ' एक टांग शमशान की और बढ़ चुका है पता नहीं कब बुलावा आ जाए ।'
शोक सभा होती है, दिवंगत आत्मा को श्रद्धांजलि दी जाती है, प्रस्ताव पारित किया जाता है फिर भारी मन से सब प्रस्थान करते हैं अपने-अपने घरों के लिए।
   ' रिटायर्ड  कॉर्नर' से थोड़ी दूरी पर चांदनी का एक पेड़ 'गोल-बार' से घिरा हुआ है । जब कभी मीटिंग होती है उस 'गोल-बार ' पर चार-पांच लोग बैठ जाते हैं । 
             यहां बैठने वालो में एक अलौकिक आत्मिक सम्बन्ध दिखता है । कुछ लोग जिस कुर्सी से रिटायर हुए थे उसे अपने भीतर ऐसे चिपकाए रहते हैं मानो मरते दम उससे उतर नहीं पाते। फिर भी हर कोई एक दूसरे का राह देखता है । दो-तीन दिन गैप होने पर किसी न किसी का फोन पहुंच जाता है, तबियत ख़राब होने की स्थिति में कोई न कोई हाल-चाल लेता । 
       ‌‌  ' रिटायर्ड कॉर्नर ' पर बैठने वालों ने एक 'एसोसिएशन' बना रखा है। सदस्यों की संख्या बीस तक सीमित रखी गई है । कभी यह संख्या दो-तीन कम ज़्यादा होता रहता है । एक न्यूनतम सदस्यता शुल्क देना पड़ता है । कोई भी रिटायर्ड व्यक्ति सदस्यता ग्रहण कर सकता है।
            प्रायः प्रतिमाह किसी न किसी का बर्थ डे मनाया जाता है। एसोसिएशन का अपना 'कोड आफ कंडक्ट' बना हुआ है जिसका पालन करना पड़ता है । एसोसिएशन में एक मुखिया होता है जिसका चयन सभी सदस्य मिलकर हर साल जनवरी माह में करते हैं ।
एसोसिएशन का अध्यक्ष सामान्यतः भूतपूर्व न्यायाधीश, भूतपूर्व प्रोफेसर, कर्नल जैसे कोई  होते हैं।
             पेंशन तथा अन्य वित्तीय, मेडिकल सम्बन्धी मामले, सम्पत्ति विषयक मामले या अन्य
घरेलू मामले में कोई सदस्य चर्चा करना चाहते या विधिक राय लेना चाहतें हो तो अध्यक्ष द्वारा दी गई तिथि में उनकी उपस्थिति में राय- मशविरा  की जाती है, तदुपरांत राय दी जाती है ।
              यहां की एक रोचक बात यह है कि स्कूल कॉलेज लाइफ की तरह यहां भी किसी किसी का एक नाम पड़ जाता है और उसी से वह जाने जाते हैं।
रिटायर होने के बाद जब मैं यहां शामिल हुआ था मेरा पहला परिचय जिनसे हुआ था उन्हें सब 'डॉक्टर साहब' कहते थे। मैंने भी उन्हें "डॉक्टर साहब नमस्ते" कहा था, उन्होंने सिर हिलाकर उत्तर दिया था। 
जब पता चला उनकी उम्र तीरानवे वर्ष है तो मैं दंग रह गया था। अपने जीवन में इस उम्र में इतना फिट वृद्ध आदमी मैंने कभी नहीं देखा था। आंखें सही, दांत सही, श्रुति सही, स्मृति शक्ति ठीक, शुगर नहीं, हाथ पैर सबकुछ सही।   
क़रीब सालभर बाद चलते वक्त वे ज़रा सा लड़खड़ा गये थे। एक ने उन्हें सम्हाल लिया था। मैंने जब उन्हें छड़ी लेने की सलाह दी तो वे मुस्कराकर " थैंक यू " बोले थे।
अगले दिन पता चला कि वे घर पर भी उसी तरह लड़खड़ा कर गिर पड़े थे। डॉक्टर आते-आते वे दम तोड चुके थे।
जब तेरही का कार्ड रिटायर्ड कॉर्नर पर पहुंचा तो मैंने गौर किया कि कहीं पर ' डॉक्टर ' नहीं लिखा था। उनका नाम था बाबूलाल नागर।
पूछने पर पता चला कि वे जल संस्थान में जल की शुद्धता की जांच प्रयोगशाला में किया करते थे इस कारण से उनका नाम पड़ गया था डॉक्टर साहब।
                    रिटायर्ड कॉर्नर में नब्बे पार और एक व्यक्ति को मैंने दो साल देखा था। शारिरिक रुप से मोटामोटी ठीक थे। ऊंचा सुनते थे। कान में मशीन लगाते थे। उन्हें सब ' सतगुरु ' कहा करते । उन्हें सनातन धर्म का बहुत अच्छा ज्ञान था। वेद, पुराण,उपनिषद, गीता,भागवत के बारे में जब भी पार्क में आते चर्चा करते, समझाते। 
दो साल बाद जब वे बिरान्वे वर्ष के थे बेटे का ट्रांसफर हो गया था, वे भी चले गए थे। कब चले गए थे पता नहीं चला था।
उनकी मृत्यु के बाद उनके एक रिश्तेदार तेरही का कार्ड देने आए थे। उनसे पता चला था कि सतगुरु का नाम था इंद्रजीत श्रीवास्तव । तीस के दशक के मैट्रिक पास, सहायक पोस्टमास्टर के पद से चालीस साल पहले रिटायर हुए थे।  वे चालीस साल से ज़्यादा किसी महापुरुष के सान्निध्य में थे।  आध्यात्म पर उनकी चार बहुत महत्वपूर्ण किताबें हैं। इन सब बातों की जानकारी हम सब रिटायर्ड कॉर्नर में बैठने वालों के लिए एकदम नई थी ।
सौ साल पूरे होने में एक महीना रह गया था तभी सतगुरु ने प्राण त्याग किया था। उस महापुरुष को शत् शत् नमन।
                    कहानी लिखते-लिखते और एक रोचक प्रसंग याद आ गया। वे कॉर्नर के नियमित सदस्य थे। उन्हें सब ' इन्जीयर साहब ' बोला करते । इनका नाम मालूम नहीं। जब परिचय हुआ था तब बोले थे' मुझे इन्जीयर कहते हैं। मैं पीडब्ल्यूडी में अधिशासी अभियंता था।'
 बात चाहे किसी विषय पर हो, चर्चा के दौरान उनकी राय पूछे जाने पर वे गम्भीर मुद्रा में कहा करते 'इसमे टेक्निकल पेंच है,विशद चर्चा की जरूरत है, बताऊंगा बाद में।' 
एकबार इन्जीयर साहब ने कहा था ' कल एक कागज पर लिखकर अपना फोन नंबर दीजिएगा, मेरे पास आपका नम्बर नहीं है।'
-' अरे अभी लिजिए, मैं मिस कॉल देता हूं, आप सेव कर लीजिएगा।'
-' नहीं नहीं ये सब हमसे होता नहीं। मेरे पास नोकिया का छोटा सा फोन है ।'
-' छोटा बड़ा क्या, इसमें भी सेव होता । आपके पास स्मार्टफोन नहीं है?'
-' नहीं। था,  बहू को दे दिया। ये सब नये जमाने का है । '
-' इसका मतलब यह है कि ऑनलाइन पेमेंट आप नहीं करते,सब कैश। सरकार कहती है अधिक से अधिक ऑनलाइन पेमेंट करें और मिनिमम कैश।'
-' कहने दीजिए। ज़रा सा इधर से उधर हुआ तो डूब जाएगा रुपया ।'
-' अरे आप तो इन्जीयर थे।'
-' मैं बिल्डिंग इन्जीयर था। पन्द्रह साल हो गए रिटायर हुए।'
चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी।
  
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© सुभाषचंद्र गांगुली 

31/03/2023
( 'कहानी कहानियां पार्क की'' के अंतर्गत 18/03/2023 से शुरू 20/04/2023को खत्म हुआ)
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