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Saturday, August 14, 2021

कविता- उल्टा पुल्टा


उल्टी गिनती
        गिन रहा  हूं
सबकुछ उलटते पलटते
        देख रहा  हूं ।

बमों को गेंद
       सांप को रस्सी
दुर्ग को मकान कहते
         सुन रहा  हूं ।

झूठ को सच
          सच को  झूठ
शासकों को बोलते
          सुन रहा  हूं ।

निर्दोष को कैद होते
           दोषी को माला पहनाते
विफलताओं पर जश्न मनाते
            देख सुन रहा  हूं ।

ज्ञान को अन्धकार में
             मूर्खो को ज्ञान बघारते
ईमानदार को ईमान बेचते
              देख रहा  हूं ।

सूझ-बूझ को कायरता
              बड़बोले को निर्भीकता
बहुरूपता को महानता
            कहते  सुन रहा  हूं ।

धर्म के नाम अधर्म
               ग़रीबों से नफ़रत
नेताओं की बादशाहत
                देख रहा  हूं ।

जीर्ण किन्तु निर्भीक
                नाउम्मेद नस्लों में
आखिरी व्यूह ज्ञाता को
                ढूंढ रहा हूं ।

उल्टी  गिनती
         गिन रहा हूं
सब कुछ उलटते पलटते
         देख रहा हूं ।
            

सुभाष चन्द्र गांगुली
--------------------------
* ' काव्य गंगा ' संकलन' 1998 में प्रकाशित ।
* ' जर्जर कश्ति ' 1999 मे प्रकाशित ।
Written in April,1998. Rewritten on 12/8/2021.



Friday, August 13, 2021

कविता - बाजार

 

बाजार मेरे घर को अपने गिरफ्त में ले चुका है
प्रतिस्पर्धा बाजार मे नहीं :
अपने पास पड़ोस सगे संबंधियों से है ।
घर का ड्राइंग रूम, डायनिंग रूम
और टायलेट स्मार्ट बन चुके हैं ,
बेडरूम, किचन स्मार्ट बनने को आतुर है :
धृतराष्ट्र जैसा मैं अपने घर को :
बेआब्रू ,बाजारू होते देख रहा हूं ।

आपसी संवाद में नये- नये प्रोडाक्टस
नये- नये पोशाक, लेटेस्ट स्मार्टफोनस
लेटेस्ट एसी, लेटेस्ट कारें, लोनस, व्यवसाइटस
और विज्ञापनों की चर्चा हाबी रहती है ।
दिन रात टीवी पर दिखाए जा रहे विज्ञापनों ने
ले लिया है सेल्समैन और डेमो की जगह, 
अपने ही घर में मौजूद हैं सेल्स एजेंट्स :
उन्हें दिख गया है मुझमें एक पूंजीपति :
धीरे धीरे  हो रही है खाली
रिटायरमेंट के बाद के लिए रखी  पूंजी ।

जिस रफ्तार से बाजारवाद बढ़ रहा है
मुझे पूरा यकीन है
कि दुनिया से विदा लेते समय
अपने घर से नहीं
बाजार से विदा लूंगा मैं ।
और तब तक मेरा जीर्ण-शीर्ण शरीर
अति आधुनिक सभ्य समाज के लिए मिसफिट
दूध न देने वाली बूढ़ी गाय की तरह
अपने ही मकान के पीछे 
ओसारे से लगे कमरे में पड़े पड़े
 खिड़की से तारों को निहारते- निहारते
जल्द से जल्द शरीर त्याग कर शून्य में
विलीन हो जाने की आस में मरता जीता रहेगा ।

बाजार के ताल में ताल मिलाने के फेर में
कर्ज पर कर्ज लेकर ई एम आई भरते भरते
वे डूबेंगे, सबको लेकर डूबेंगे :
बाजारू प्रतिस्पर्धा के इस दुष्परिणाम से 
सम्पूर्णतः बेखबर हैं वें ।

सुभाष चन्द्र गांगुली
-----------------------------
Composed on 5/2/2000, Revised on 5/4/2000. Rewritten on 5/8/2021.
Published in ' कहन सुनन' मुरादाबाद 2007

Monday, August 9, 2021

कविता- सम्बोधन


मुझे मेरे नाम से जानना
धन्धे से नहीं
मुझे मेरे नाम से बुलाना
धन्धे से नहीं
यह धमकी नहीं
सिर्फ चेतावनी है ।

यह महज इत्तेफाक है
कि तुम जिस परिवार में जन्मे
वहां तुम्हारे लिए पलना था
चांदी का चम्मच था
पीठ के नीचे था मखमल,
और जहां मैं जन्मा
वहां मेरे लिए टाट था
प्लास्टिक का चम्मच था
और पीठ के नीचे था खटमल ।

किन्तु मित्र ! यह मत भूलना
जिस प्रक्रिया से तुम आये हो
उसी प्रक्रिया से मैं भी आया हूं :
वही माटी, वही हवा ,वही जल था
जो धरती ने तुम्हें दी थी
वही मेरे लिए भी थी
जाओ पूछो अपनी मां से
क्या वह उसी तरह नहीं छटपटायी थी
जिस तरह से मेरी मां छटपटायी थी ?
पूछो क्या उसने उसी तरह दूध नहीं पिलाया था
जिस तरह मेरी मां ने मुझे पिलाया था ? 
और हां क्या उस दूध के एक एक घूंट का रंग
मेरी मां के दूध के रंग से अलग था ?
मां से पूछो उसके लिए संतान क्या होती ?
पूछो अपनी मां से उसके लिए संतान क्या होती ?
पूछो संतान को गाली देने से उसे कैसा लगता है ?
मैं निर्बल हूं माना, 
कुछ नहीं कर सकता मगर
तुम्हें गाली देकर तुम्हारी मां को 
दुःखी तो कर ही सकता हूं न ?

तुम्हें तुम्हारी मां की शांति के लिए कहता हूं
मुझे मेरे धंधे से सम्बोधन न देना
मेरे लिए जातिसूचक शब्द का प्रयोग न करना
बेवजह मेरे मुख से गाली न निकलवाना 
मुझे मेरे नाम से जानना
मुझे मेरे नाम से बुलाना
और हां नाम के साथ 
श्रीमान / मिस्टर / जी लगाना न भूलना ।

सुभाष चन्द्र गांगुली
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3 अगस्त , 2021

Sunday, August 8, 2021

कविता- पहाड़ और नदी

                 पहाड़ और नदी

वही है मेरा देश जहां है एक पहाड़
और है एक नदी

चलो ना मेरे संग !

पहाड़ की देह से चढ़ती है
अंधेरी रात और नदी से उतरती है भयंकर भूख ।

चलो ना मेरे संग !

इतने दिनों तक जो सहते आ रहे हैं अत्याचार/ कौन हैं वे ?
मुझे नहीं मालूम लेकिन वे मुझे बुला रहे हैं ।

चलो ना मेरे संग !

मुझे मालूम नहीं किन्तु वे जानते हैं मुझे
मुझे बुलाकर कहते " हम हैं सताए हुए " ।

चलो ना मेरे संग !

मुझसे कहते हैं वे : " पहाड़ और नदी के बीच
भुखमरी और यंत्रणा से त्रस्त है
अभागी तुम्हारी कौम
नहीं चाहते वे अकेले संग्राम करना
मित्र ! तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं वे "।

लाल गेंहू का क्षुद्र एक कण
आह ! कितना प्यार करता हूं मैं तुम्हें 
प्रियतमा मेरी !
संग्राम कितना ही कठीन क्यो न हो
जिन्दगी कितना ही कठीन क्यो न हो
तब भी तब भी तुम रहोगी मेरे पास ।

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* मूल पोलिश कविता : पाब्लो नेरुदा
* बांग्ला अनुवाद : असित सरकार 
* हिन्दी अनुवाद : सुभाष चन्द्र गांगुली


कविता- भूल जाना चाहता हूं

         भूल जाना चाहता हूं

अगर कोई मुझसे पूछे कहां था अब तक मैं
तो मुझे कहना ही पड़ेगा" ऐसा ही होता है " 
सुनानी होगी पत्थर के नीचे छिपी/
माटी की कहानी ,
सुनानी होगी उस माटी की कहानी
बेहद धैर्य से / जिसने दे दी थी आहुति अपनी :
पंछी ने क्या खोया मालूम नहीं मुझे,
मुझे तो बस यही मालूम
पीछे एक समुद्र छोड़ आए हैं , 
और मेरी बहन फूट फूट कर रो रही थी,
न जाने क्यों अनजान हैं सारे रास्तें
न जाने क्यों गूंथा हुआ है दिन दिन से
न जाने क्यों उतर आती है / 
गहन रात्रि मेरे चारों ओर ?
न जाने क्यों बिछी हुई हैं इतनी सारी लाशें !
अगर कोई मुझसे पूछे कहां से आया हूं मैं
तो मुझे सुनानी होगी /
टूटी-फूटी असबाबो की कहानी,
सुनानी होगी दिल दहलाने वाली/
उन बर्तनों की कहानी,
धूल में मिल जाने वाली महान लोगों की कहानी
और शोकाकुल हृदय की कहानी ।

हरेक बात नहीं बनती स्मृति
वह पीला कबूतर अविस्मृत है जिसकी स्मृति
अश्रु बनकर आंखों से लुढ़कते हैं वैसे /
गले में उंगली डालने से लुढ़कते हैं जैसे, 
टप-टप  टप-टप पत्तो से कुछ रिसते जैसे,
वे उपज हैं हमारे दुक्खो के
वे अंधेरा हैं हमारे बीते हुए कल के ।

जो कुछ असंभव है हमें अच्छा लगता,
अच्छा लगता चालाक चंचल पंछी दोयल
अच्छा लगता है गुच्छ के गुच्छ वॉयलेट 
कितनी अनोखी तस्वीर है वह /
जिसमें से निकलती हो मिठी यादें
और  कई क्षण एक साथ ।

मगर रहने दे दांतों के उस पार न जाना ही बेहतर
बेवजह क्यो करे प्रहार 
उन निष्ठुर कठोर चर्मो पर ?
भलिभांति मालूम है क्या होगा उनका उत्तर ।

न जाने कितनी मौतें समुद्र तट को/ 
चीरने वाली सूरज की किरणें,
नाव की दीवार से मिली सिर की चोटें
और चुम्बन जो रह गये थे
अधूरे हाथ के अवरोध से
और ऐसे ही न जाने क्या कुछ /
 मैं भूल जाना चाहता हूं
हमेशा हमेशा के लिए,
भूल जाना चाहता हूं ।


अनुवाद : सुभाष चन्द्र गांगुली
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* मूल पोलिश कविता -- कवि पाब्लो नेरुदा
* बांग्ला ; पाब्लो नेरुदा की श्रेष्ठ कविताएं --अनुवादक - असित सरकार
* बांग्ला से हिन्दी अनुवाद --- सुभाष चन्द्र गांगुली


Saturday, August 7, 2021

कविता- संतुष्टि


कभी कभी ख्याल आता
मुझसे ज्यादा  खुशनसीब है
वह गरीब,
वह कभी भुट्टा कभी खीरा
और कभी मुंगफली बेचता,
उसे बिच्छू डंक मारता
उसके बदन से ज़रा सा खून नहीं निकलता
उसके बदन पर खटमल सैर करता
उसे बिल्कुल पता नहीं चल पाता,
सामान झटक कर चील उड़ान भरता
वह सिर उठाकर मन ही मन मुस्कराता
वह गरीब कभी सत्तु खाकर
कभी रोटी प्याज,कभी दाल भात
तो कभी खाली पेट सो जाता है
फिर भी उसके चेहरे पर मुस्कान रहता
क्योंकि मुस्कराने के लिए
उसे सभ्य समाज से ट्रेनिंग नहीं लेनी पड़ी
जीवन की गूढ़ रहस्य जानने के लिए
उसे दर्शनशास्त्र का अध्ययन नहीं करना पड़ा
फिर भी उसे दर्शनशास्त्र का ज्ञान है
क्योंकि जीवन को उसने देखा है
बड़े करीब से देखा है
तभी शायद वह सबकुछ सहता है
तभी शायद उसके चेहरे पर संतुष्टि दिखती है।


सुभाष चन्द्र गांगुली
------------------------
12/41997
Revised on 7/8/2021

Friday, August 6, 2021

कविता- बेटे की तमन्ना


उसे मालूम नहीं
कि उसकी तस्वीर मेरी डायरी में है,
बीस बरस से है ।
उसका बचपन उसकी यादें
कैद है मेरी आत्मा में ।
कहने को तो वह मेरा बेटा नहीं है,
मेरी आत्मा किन्तु उसे बेटा मानती है ।
मेरा अपना कोई बेटा नहीं है
मेरी दो दो बेटियां हैं,
उन्हें ढेर सारा प्यार देता हूं मैं,
उनकी शादी के लिए पाई पाई जोड़ता हूं 
विदाई के लिए खुद को तैयार करता हूं,
हरेक दिन खुद को तैयार करता हूं,
मगर व्यर्थ हो जाता है मेरा सारा प्रयास ।
प्रायः एक तूफान उठता है मेरे मन में
बेटियों को तो मेरे मकान से चले जाना है
चले ही जायेंगे वे ,
बेटे और बेटी का यह अंतर
मेरे हृदय को झकझोर देता है
अभेद्य वेदना छिन्न- भिन्न कर देती है मुझे ।
मेरी आत्मा मेरे तन से निकल कर,
डायरी की तस्वीर पर अटक जाती है ।
वह लड़का जिसे मैं बेटा मानता हूं
मुझे बहुत चाहता है ,
मुझे यकीन है कि वही बनेगा
मेरे बुढ़ापे का सहारा ।
प्रायः मैं एक सपना देखता हूं,
मेरा बेटा मेरे सिरहाने बैठा हुआ है
मेरे सूखे होंठों पर जल डाल रहा है,
मेरी चिता पर मुखाग्नि दे रहा है 
उसकी आंखों से लगातार आंसू बह रहे हैं ।
मेरी डायरी में जब्त उस बेटे को
जो अब जवान हो चुका है ,
 मैं जानने नहीं देता 
मेरे मन में क्या है ,
उसे जानने नहीं देता
कि उसे कितना प्यार मैं करता ।
उसे मालूम नहीं है
उसके लिए क्या कुछ रख छोड़ूंगा,
उस डायरी में सबकुछ दर्ज है ।
उसे मैं कुछ नहीं जानने देता,
भय है मुझे उसे खो देने का ।
आखिर यही क्रूर सच्चाई उगलने के कारण
तमाम पिताओं ने खो दिया हैं न बेटों को ?
आखिर बेटे भी पराये हो जाते हैं ना ?
बेटे की अतृप्त तमन्ना
आखिरी सांस तक बनी रहेगी ।
मैं  बेटे को मरते दम खोना नहीं चाहता,
कोई भी पिता अपने बेटे से
अलग नहीं होना चाहता , 
" बेटा बेटा बेटा, मेरा बेटा !"
मैं चीख रहा था ।
            
             ( 2)

नींद टूटी तो देखा
मेरी आंखों के सामने दोनों बेटियां खड़ी थी
दूर दूर से अपने अपने ससुराल से आयी थी ।
बेहोशी हाल में मुझे दो दिन पहले ही
अस्पताल में भर्ती किया गया था ।
एहसास हुआ मुझे 
बेटीयां क्या होती है
बेटा-बेटी में भेद करना , थी मेरी मूर्खता ।
डायरी को गंगा में बहा दिया। 


सुभाष चन्द्र गांगुली 
----------------------------------------
' काव्य गंगा ' दिल्ली में प्रकाशित जुलाई 1997 मे  तथा लघु पत्रिका ' साहित्य पारिजात ' फरवरी 1998 में प्रकाशित ।
 Revised on 8/8/2021





Tuesday, August 3, 2021

कविता- आईना



परदादा से मिले
मेरे मकान के बेडरूम में,
बर्मिस पलंग के पीछे दीवार पर
जर्मन की बड़ी दीवार घड़ी है
उसी के ठीक नीचे
लंदन का एक बड़ा आईना टंगा है
न जाने कब से,
शायद सौ साल से ।
देखता आ रहा हूं खुद को उस आईने में
तब से, होश संभाला जब से ।
बड़ी खूबसूरत, बड़ा भोलाभाला
लगता है चेहरा अपना, 
देखा नहीं बदलते चेहरा अपना
देखा नहीं बूढ़ा होते, कुरुप होते
जैसा देखा औरों को ।


सुभाष चन्द्र गांगुली
___________________
22/2/1992
' मध्यांतर ' 5/6/1997 में प्रकाशित ।

कविता- महासागर से महाशून्य तक



ना  है  जेट
ना कोई राकेट
है भूमंडल मेरे पाकेट
और आसमां के सितारे
सारे   के   सारे
मुठ्ठी में ही है मेरे ।

घूमता हूं मैं ग्रह उपग्रह में
भू-मंडल से भू-मंडल में
मगन खिलाड़ी' के खेल में
खेलता टूटते सितारों से
सतरंगी इंद्रधनुष के रंगों से
बिखरते  बादलों  से ।

आता नहीं शून्य से कोई
आता अगर शून्य से कोई
मैं  हां  मैं, और  वो  भी ।
असीमित में सीमित मै
सीमित में असीमित मैं
शून्य में  मैं  ही मैं ।

डूबते को तिनके का सहारा
जीने वालों का मैं  सहारा
तिनका सा मैं सबका सहारा ।
जनम पर होती खुशी मुझको
मरण पर भी होती खुशी मुझको
जुदाई पर मिलती हैं राहत मुझको ।

स्वर्ग अमृत का है मुझमें
पित्त नर्क का मुझमें
नृत्य का ताल मुझमें
बहती है गंगा मुझसे ।
सागर महासागर है मुझमें
पाप पूण्य स्रोत मुझसे ।

जुगनू भरे पेड़ देखा मैंने
मांसाहारी पेड़ देखा मैंने । 
नाई मोची भिखारी मैं
दुराचारी मैं, सदाचारी मैं
राजा मैं प्रजा भी मैं
साधु मैं महात्मा ईश्वर मैं ।

अंत जहां किसी का
शुरुआत वहीं उसीका
शुरुआत जहां किसी का
अंत भी वहीं उसी का ।
शुरू अंत एक दूजे का
शुरू से मैं अनन्त का ।

हो अगर कुछ अपराजेय
अकेला पाप अपराजेय
हो अगर कोई अजेय 
अकेला मैं अजेय
हो अगर कोई नश्वर
अकेला मैं नश्वर ।

दुर्दांत मेरी शक्ति
रोशनी मैं दिखाता
संघर्ष मैं सिखाता
मुक्ति मैं दिलाता
अंधेरे में भटकता 
उजास को देखता

शक्तियों का मैं संचालक
नुमाइश का मैं निदेशक
महासागर से आसमां को
आसमां से महासागर को,
आसमां मेरा ब्रह्मांड मेरा
मैं तेरा और तू है मेरा ।


सुभाष चन्द्र गांगुली
----------------------------------------
मूल: अंग्रेजी में 'From ocean to sky '
Published in a magazine in November 1979.