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Friday, October 22, 2021

कहानी- हम जीना चाहते थे



चोरी का इल्ज़ाम अर्चना सह नहीं पायी और उसने अपना काम स्वाभिमान से छोड़ दिया।
शुरू शुरू में नमिता अच्छी थी, काम की बातें करतीं और कायदे से भी करतीं मगर थोड़े दिनों के बाद वह पूरी तरह से मालकिन बन गईं ।
--"दाल में नमक ज्यादा, देख कर काम किया करो ..........चाय में चीनी कम देख कर काम किया करो....... उमर तो कम नहीं है, नमक, चीनी का का अंदाज भी मालूम नहीं है ? .............. रोटी मोटी कर देती हो, लोई बनाकर दिखा दिया था, रोज़ रोज़ बताना पड़ेगा क्या ?.............जब देखो तब गैस फुल रहता है, फ़िज़ूल का गैस जलता है, पैसा क्या आसमान से टपकता है ?............. तीन तीन विम बार दे चुकी हूं, अभी भी दो दिन बाकी है महीना ख़त्म होने में, पहले वाली दो विम बार में चला लेती थी........आगे से टाइम का ख्याल रखा करो देर करने से कैसे चलेगा...... आज फिर पंद्रह मिनट की देरी, अब पैसा काटना पड़ेगा । समय से नहीं आ सकती तो बता दो कामवालियों की कमी नहीं है यहां .....। "
इतनी टोका-टोकी होने लगी कि अर्चना की समझ से बाहर होने लगा कि वह क्या करे और क्या न करे, क्या देखे और क्या न देखे । किन्तु करे तो क्या करे, सब कुछ सहना पड़ता है पेट की खातिर ।
 मंगलवार का दिन था । मंगल को नमिता का पति व्रत रहते हैं, अर्चना को याद नही था । टेबिल पर जब नमिता ने देखा कि खाना तो उतना ही बना है, तब वह बोली -- " तुझे मालूम नहीं है आज मंगलवार है बाबूजी व्रत रहते हैं ? "
अर्चना बोली --"  पिछले मंगलवार को तो बाबूजी खाना खाये थे न, मैंने सोचा कि व्रत रखना बन्द हो गया ।"
--"पिछली बार मेरे बहनोई आ गये थे उनका साथ देने के लिए नहीं रखें थे । मालूम नहीं तुझे ?"
---" इतना याद रहता तो मैं बनाती ही क्यो ?"
---" सब समझती हूं । घास थोड़े ना खाती हूं....... एक बार और तुमने ऐसा किया था मैंने तुम्हें घर ले जाने के लिए दे दिया था, दो बार और दे दिया था खाना बच गया था इसलिए.....मजा मिल गया तुझे आज तूने जानबूझकर बनाया है । सीधे चोरी न करके ऐसे चोरी कर रही है ...."
अर्चना अपना आपा खो बैठी --" मेमसाब आप  खुद भी बता सकती हैं क्या बनना है कितना बनना है ... आज मेरा बुरा समय आया है तो आप अनाप-शनाप बोली जा रही हैैं ।"
--- " बद्तमीज़ ! छिनाल ! तू मेरी बराबरी करती है ! जानती है मेरी हैसियत़ ?  "
अर्चना ने आव देखा न ताव तनफनाती हुई घर से बाहर निकल कर फाटक पर खड़े-खड़े बोली--   
" इंसान के जब बुरे दिन आते हैं तब उस पर कुत्ते भी पेशाब कर देते हैं..... चोरी का आरोप  लगा रही हैं ! .... इतना अहंकार ! निकल जाएगा सारा घमंड तेरा तभी समझेगी । इंसान के दिन बदलने में एक मिनट लगता है..... डायन, बद्तमीज, छिनाल कहती है , बद्तमीज़ औरत, कभी मेरी अवस्था तुमसे अच्छी थी.......डायन मैं कुलीन ब्राह्मणी हूं, श्राप देती हूं  तुम्हें.......।" 
अर्चना तेज डगों से निकल गई ।
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चोरी का इल्ज़ाम और छिनाल शब्द अर्चना को भीतर तक हिला दिया । शादीशुदा औरत के लिए चरित्र ही सबसे बड़  पूंजी होती है, आज वह ग़रीब बन गई है तो उसके चरित्र के बारे में कुछ भी कह दे ! आंखों से आंसू जो बहना शुरू हुआ तो अविरल धारा बहती चली गई ।   रातभर वह छटपटाती , करवटें बदलती, उसका अतीत सागर की लहरों सा तट पर आता और रिक्तता बोध करा कर चला जाता ।
कितना सुन्दर था उसका जीवन ! दादा दादी का प्यार, मां बाप का साया, गांवों के भोले-भाले लोग, घर के चारों ओर हरे भरे खेत, पेड़ों पर चढ़ना, डालो पर झूलना, स्कूल की वे सहेलियां, स्कूल के टीचरों की खट्टी-मीठी डांट सबकुछ आंखों के सामने तैरने लगा । और फिर अट्ठारह वर्ष होते-होते कालीप्रसाद जैसे सुपुरुष, खाते-पीते घर के व्यक्ति को वरमाला पहनाना। कितनी सुखद थी  जिन्दगी !
मगर मात्र पांच मिनट में वह अर्श से फर्श पर आ पड़ी थी ।
दीपावली की वह भयानक रात ! अनार में आग लगाते ही अनार बर्स्ट हो गया था, कालीप्रसाद चीख उठे थे और  कालीप्रसाद की आर्तनाद सुन किचन से दौड़ पड़ी थी अर्चना, दरवाज़ें की हैंडिल में उसकी साड़ी फंसने से वह गिर पड़ी थी ।
            मोहल्ले वालों ने उन दोनों की ख़बर पुलिस को सौ नम्बर पर दे दी थी । सुबह जब आंखों की पट्टी खोली गई थी और डॉक्टर ने धीरे-धीरे  आंखों की पलकें खोल कर देखने को कहा तब कालीप्रसाद फफक-फफक कर रोने लगे । वे बोलें ' कुछ नहीं दिख रहा ' , गहन अन्धकार है ।'......  उनकी आंखों की रोशनी चली गई थी । किन्तु डाक्टरों ने ढांढस बंधाया । कहा कि बेहतर इलाज होने पर आंखों की रोशनी वापस आ सकती है ।
अर्चना की साढ़े सात महीने की प्रेग्नेंसी थी । गर्भ में पनपता बच्चा मर चुका धा, गर्भपात करा कर अर्चना की जान बचायी जा सकी थी। दुबारा गर्भधारण करने की उम्मीद कम हो गई थी । 
            कालीप्रसाद की आंखों की रोशनी वापस पाने के लिए अर्चना ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । बड़े-बड़े नेत्र विशेषज्ञों को दिखाया, कोलकाता ले गयी किन्तु सारा पैसा बेकार गया । 
फिर रिश्तेदारों के सुझाव पर चिन्नई ले गयी । बड़ा लम्बा आपरेशन हुआ तब जाकर इतना फ़ायदा हुआ कि एक आंख से बहुत ज़रा सा दिखने लगा जिससे कम से कम अपना नित्य क्रिया ख़ुद ही करने लायक बन गए ।
पांच लाख से ज्यादा जमा पूंजी खर्च हो गयी, थोड़े बहुत गहने थे वो भी लगभग सभी चले गये किन्तु सब-कुछ व्यर्थ गया क्योंकि कालीप्रसाद नौकरी के अयोग्य घोषित कर दिए गए और वे किसी भी काम योग्य नहीं रह गये थे ।
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अर्चना के सामने अब जीवन यापन करने का घोर संकट था । करे तो क्या करे ! 
उसके पास अब कुछ न था एक छोटे-से मकान के सिवा।
अर्चना ने पुरोहित बनने की सलाह दी जिस पर विमर्श के बाद उसका पति राजी हो गए ।
अर्चना अपने पति को सत्यनारायण की कथा, लक्ष्मी व्रतकथा, सरस्वती पूजा, शनिपूजा आदि के मंत्र एवं कथा बार-बार पढ़कर सुनाते और बार- बार सुनते-सुनते कालीप्रसाद ने सबकुछ अच्छे से कंठस्थ कर लिया । थोड़े दिनों के बाद कालीप्रसाद को एक मिठाई की दुकान पर काम मिला ।
उस दुकान में बिक्री प्रारंभ होने से पहले कालीप्रसाद देवी देवताओं की पूजा करते जिसके एवज उन्हें चार बर्फी या पेड़ा तथा दस रुपए नकद राशि प्रतिदिन मिलता ।
अर्चना कालीप्रसाद का हाथ थामे ले जाती हर जगह । यह थी उसके पुरोहित जीवन की शुरूआत ।
एक दुकान से एक और बड़ी दुकान में वही काम, दुकान खुलने से पहले पूजा-अर्चना करना । फिर एक शनि मंदिर में प्रति शनिवार पूजा का काम मिला । फिर धीरे-धीरे सरस्वती पूजा, लक्ष्मी पूजा, सत्यनारायण की कथा सब करने लगें । अर्चना ने बख़ूबी साथ निभाया ।
लेकिन अच्छे दिन बहुत दिनों तक नहीं रहे ।
बनर्जी दादा के घर सत्यनारायण कथा थी।
जब सारे लोग एकाग्रचित्त होकर कथा सुन रहे थे तब देर से आयी एक महिला अचानक चीख उठी -- " छि: छि: छि: छि: अर्चना ! तुम्हें शर्म नहीं आती ? ज़रा सा भी भगवान का भय डर नहीं है मन में ? शालिग्राम शिला छू रही है ?........."
उपस्थित सभी महिलाएं पूजा छोड़ उसे देखने लगी अवाक् होकर। यह थी रुपा आइच, बनर्जी दादा के पडोसिन मिसेज बोस की भांजी।
रुपा के आचरण से  क्षुब्द  होकर मिसेज बोस बोली --" तुमने मेरी नाक कटवा दी । बेकार ही मैंने तुम्हें आने के लिए कहा था । "
--" अच्छा हुआ जो मैं आ पहुंची । ऊपर वाला जो कुछ करता भलाई के लिए करता । मैं क्या अपने लिए परेशान हूं ? मुझे क्या करना, मैं तो चली जाऊंगी, मिसेज बनर्जी तुम्हारी पडोसीन हैं । उनका अहित हो जाए ये तो तुम नहीं चाहोगी
 ना ? "
इस बीच कालीप्रसाद का ध्यान भंग हुआ था और दो-दो बार उन्होंने इशारा किया शांति बनाए रखने के लिए । अर्चना ने भी हाथ जोड़कर कहा- " पूजा हों जाने दीजिए शान्ति से । पूजा के बाद इस औरत को जो बोलना बोले । मैं भाग नहीं जाऊंगी । एक एक बात का उत्तर दूंगी । "
--"ज़वाब क्या देगी कुलटा ?" रुपा चीखी।
---" मै हाथ जोड़ रही हूं ऐसे ही दु:ख कम नहीं, पूजा नहीं हो पायेगी तो सभी का अकल्याण होगा। तू भी नही बचेगी । "
--" कुलटा हमें श्राप दे रही है ?" रुपा आइच उठकर कमरे से बाहर निकल गई ।
महिलाओं में सुगबुगाहट पैदा हो गई। सच्चाई जानने के लिए सब व्याकुल हो उठे । दो महिला उठकर बाहर दालान में चली गयी । पीछे-पीछे मिसेज बनर्जी भी गयी । तीन चार बुजुर्ग महिलाओं को छोड़कर बाकी सभी पीछे-पीछे
जा पहुंची ।
कालीप्रसाद अब जोरों से सत्यनारायण की कथा सस्वर पढ़ने लगें ।
बाहर जो महिलाएं एकत्र हुईं  उनसे रुपा बोली
 --" अर्चना के पिता को मेरे पिता बड़ी अच्छी तरह जानते थे । इसकी सही जाति की जानकारी किसी को नहीं है । इसका पूरा परिवार बांग्लादेश से शरणार्थी बनकर आया था । मेरे पिताजी भी बांग्लादेश से आए थे। पिताजी जमींदार के बेटे थे । पिताजी कहते थे ये लोग नीच  जाति की है। नमो शुद्र । किसी भी शुभ कार्य में ये लोग शामिल नहीं हो सकते ........... शादी के लिए इसके बाप ने ख़ुद को कुलीन ब्राह्मण बता दिया था, बाहर से आया था इसका बाप । बाहर से आये लोगों की जिसकी जो मर्जी बोल दिया वही फाइनल। सर्टिफिकेट तो सब लोग ला नहीं पाये थे । वैसे जन्म वंश प्रमाणपत्र रखता ही कौन ? शादी के समय बड़ा बवाल मचा था.......... ससुराल वालों ने उसके हाथ का जल तक ग्रहण नहीं किया था । सबों न बोलचाल बन्द कर दिया था । दोनों को घर से निकलने का आदेश दिया था पूरे परिवार ने । बाप के पाप के कारण यह कमिनी बांझ रह गई है, पति अंधा हो गया । अब इस कुलटे के शालिग्राम शिला छूने के कारण इस परिवार का सर्वनाश हो जाएगा ।"
' सर्वनाश ' सुनते ही मिसेज बनर्जी के शरीर में बिजली सा करेंट दौड़ गया । वह दौड़ कर बैठक से अपने पति को बुला लायी फिर बोलीं
 -- " ये हैं रुपा आइच क्या बोल रही है अर्चना के बारे में।"
पतिदेव ने कहा " बहुत देर से बकवास मैं सुन रहा हूं । भूसा भरा हुआ है तुम्हारे और इसके दिमाग में । लगता है गोबर खाकर बड़े हुए हो । पूजा करने का अधिकार हर व्यक्ति को है...... रुपा का टाइटल 'आइच ' है, इसका पदवी 'सरकार' यानी लाला थी । वह कहती हैं न ?"
--" मगर अर्चना नमो शुद्र है उसे छूने का अधिकार नहीं है ।"
-- " चलो मान लिया तुम्हारी बात । अब बोलो ब्राम्हण की पत्नी ब्राह्मणी होगी कि नहीं ? पति का जो गोत्र रहता है वही गोत्र पत्नी का भी होता है ........पता नहीं रुपा किस जाति की है "
औरतें एक दूसरे का मुंह ताकने लगीं । रुपा का चेहरा तमतमा उठा था बनर्जी दादा की बातों से । वह पलट गई घर जाने के लिए, उसके पीछे-पीछे तीन चार महिलाएं भी निकल गयीं । मिसेज बनर्जी रोकने की कोशिश कर रही थी ।
 बनर्जी दादा बोले "जाने दो जिसे जाना है, कथा का प्रसाद छोड़कर जाने का परिणाम क्या होता है वह सत्यनारायण कथा में ही है ।"
बनर्जी दादा को पूरा सुने बगैर रुपा आइच और उसके पीछे-पीछे तीन चार महिलाएं निकल गई । 
बाहर जो गोलमाल हो रहा था उससे अनभिज्ञ कालिप्रसाद ने पूरी निष्ठा से पूजा पाठ सम्पन्न किया , फिर जोरो से मंत्रोच्चारण कर शांतिजल छिड़काव किया । पुरोहित ने सर्व शांति, पूरी पृथ्वी तक की शांति के लिए गंगा जल छिडकाया । मगर फिर भी अशांति बनी रही ।
प्रसाद वितरण के बाद जब सारे लोग जा चुके थे तब मिसेज बनर्जी ने अर्चना से पूछा बात क्या थी तो उसने बताया कि चट्टोग्राम में उन दोनों का घर दुआर अगल-बगल था, जमीन-ज़ायदाद को लेकर दोनों के परम पिताओं के बीच आये दिन गाली-गलौज, मारपीट, थाना कचहरी होती रही, आख़िरकार कोर्ट से अर्चना के परदादे की जीत हुई थी । तभी से दो वंशों की दुश्मनी चली आ रही है । अफसोस ! दोनों परिवारों को बांग्लादेश छोड़ना पड़ा था, यहां आ गयें तब भी हिन्दू मुस्लिम जैसी आपसी लड़ाई भीतर ही भीतर ।
उसने यह भी बताया कि उसके पिता का नाम प्रदीप चट्टोपाध्याय था, और रुपा के पिता का नाम था अजित कुमार आइच । 'आइच' उनको टाइटल के रूप में मिला था। उन लोगों की पदवी थी सरकार । कालीप्रसाद बन्धोपाध्याय हैं, जब से पूजा करने लगे भट्टाचार्य हो गयें ।
कालीप्रसाद  और अर्चना मोटी दक्षिणा और चढ़ावा पाकर खुशी-खुशी घर से निकले ही थे कि रुपा ने रास्ते में घेर लिया और उसके साथ थी मिसेज बोस । 
रुपा बोली --" कमिनी ! क्या है तुझमें जो मेरा आदमी अभी भी सोता मेरे साथ और नाम तेरा लेता है । क्या गुल खिलाया था तूने ?"
--" चुप कर शैतान । तेरा पति आशिष 'मंडल' बंगाली मुसलमान है, वह मुझसे एकतरफा प्यार करता था । उसने जब प्रोपोज किया था तभी मैने रीफियूज कर दिया था...... इतने सालों से वह तेरा नहीं बन पाया इसका मतलब कमी तुझमें है। तू तो अपने बाप की उपाधि ' आइच' लिखती है, '  मंडल ' लिखने में शर्म आती है क्या ? बंगाली मुसलमान है तो बोल ना ।  जा भाग रास्ता छोड़। भाग !"
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बनर्जी दादा के घर जो कुछ अप्रिय घटा था वह ख़बर आग की तरह पूरे शहर में फ़ैल गई । जितनी मुंह उतनी बातें । बात जितनी थी उससे ज़्यादा नमक मिर्च लगकर फैलीं।
अर्चना के बारे में बोला गया झूठ इतना फैला कि फैलते -फैलते वही सच सा बन गया।
एक दिन सुबह-सुबह मिठाई की दुकान पर पहुंचे तो देखा नया पुरोहित बैठे हुए थे, कालीप्रसाद की छुट्टी कर दी गई । फिर एक दिन दूसरे मिठाई वाले ने भी मना कर दिया । कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि नीच जाति की औरत पंडित से शादी करने पर पंडिताइन नहीं बन जाती । दोनों ने कितनी कोशिशें की मगर सब कुछ व्यर्थ गया जब दुकानदार ने यह कहा कि बिना आग धुंआ नहीं निकलती ।
मगर धुंआ तो निकली थी बिना आग के ही ।
खानदानी रंजिश और  रुपा की ईर्ष्या के चलते रुपा ने जिस तरह से डंके की चोट पर बोला गया झूठ हिटलरी झूठ की तरह सच मान लिया लोगों ने । और झूठ जब सच का लबादा ओढ़कर घूमें तो फिर सच को स्थापित करना मुश्किल होता है, अर्चना उसी सच का शिकार हो गयी।
 जब महीनों बीत गए  कालीप्रसाद को किसी ने नहीं बुलाया तब अर्चना ने नमिता सिंह के घर पर काम पकड़ लिया था । लेकिन मात्र दो महीने ही बीते थे कि काम छोड़ना पड़ा था ।
नमिता सिंह के घर पर जो घटना घटित हुई उसकी चर्चा भी मोहल्ले की औरतों की बातचीत के दौरान खूब हुई । नमिता ने सबसे कहा कि एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी , दो टके की औरत अपनी औकात भूल गयी, नमिता ने उसे धक्के मारकर भगा दिया । 
सभी औरतों ने नमिता का पक्ष लेकर तय किया कि ऐसी कामवाली जो इस तरह से चोरी करे, जो अपने अन्नदाता को श्राप दे उसे कोई काम पर नहीं रखेगा ।
महीनों बीत गए कहीं से भी दो पैसे की आमदनी का जुगाड नहीं लगा । पूजा पाठ कर थोड़ा बहुत जो जमा था सब निकल गया दाल भात खाकर प्राण बचाए रखने में फिर पहुंच गए भूखमरी की कगार पर । 
एक जोड़ा झूमका बचा हुआ था बुरे दिन के लिए, अब उसका भी नम्बर आ गया ।
झुमके को बेचकर जो रुपए मिले उससे  अर्चना ने दुकानदारी शुरू की । शैम्पू, साबुन, क्रीम, सिन्दुर, परफ्यूम आदि नित्य प्रयोजनिय सामान किट बैग में भरकर मोहल्ले में बेचने निकल जाती । 
पूरा एक हफ्ता बीता, अपने मोहल्ले में एक दो सामान ही बेच पायी, अधिकतर महिलाएं ना कह देती । 
अपना मोहल्ला छोड़कर वह दूसरे मोहल्ले में जाने लगी । अकेली ।
ऐसे कामों के लिए अकेला घूमने से कम उम्र वाली महिलाओं के सामने सामान्यतः समस्याएं आती हैं । फिर अगर सुन्दर हो तो और आफ़त । अर्चना अभी मात्र सत्ताइस साल की थी । बेहद खूबसूरत। 
चलते फिरते आवारा लड़के फब्ती कसते । घरों में जाकर पहले महिलाओं को पूछती, कहीं कहीं महिला न रहने पर भी महिला के लिए लेना है कह कर सामान देखने के नाम उसका मुंह जोहते, उलूल-जुलूल सकते, गंदी हरकतें करते । एकबार  एक ने उससे कहा " बैठिए यहां बैठक में अभी मैं बीबी को भेजता हूं ।"  वह भीतर चला गया ।
फिर जो कुछ हुआ था उसै अर्चना जितना भूल जाना चाहती उतना ही उसे याद आता .......पति से वो सारी बातें कहना चाहती मगर लाज शरम के मारे वह कह न सकी थी। सामान बेचना बंद कर दिया था । उसने कहा था उसका शरीर साथ नहीं देता । दिन-ब-दिन उसका डिप्रेशन  बढ़ता गया,अब वह किसी काम लायक़ नहीं रही।
महीनों बीत गए दोनों भूखमरी  के कगार पर पहुंच गए । किसी ने भी उन दोनों की सुध न ली ।
और फिर एक दिन दोनों ने ज़िंदगी से मुक्ति पा ली ।
और उसका पता तब चला जब घर के बाहर कुत्ते इकट्ठे होकर विलाप कर रहे थे और गली में दुर्गंध फैला हुआ था । पुलिस ने दरवाजा तोड़ा था ।
पता चला कि दोनों ने सुइसाइड नोट छोड़ा था जिस पर लिखा था --" हम दोनों अपनी-अपनी इच्छा से मर रहे हैं । इसके अलावा कोई उपाय नहीं था।हम जीना चाहते थे किन्तु समाज ने हमें जीने ना दिया । यह कैसा समाज जहां इंसानियत नहीं है । यह कैसा समाज जहां जातियों के आधार पर एक दूसरे को नीचा समझता है और यह कैसा समाज जहां पीढ़ी दर पीढ़ी दुश्मनी चलती रहती है ।"

सुभाषचन्द्र गांगुली
10/11/2021
Redrafted on 1505/2123
_____________________
* पत्रिका ' स्वातिपथ' सम्पादक कृष्ण मनु अंक अप्रैल-जून 1999 में 'कालचक्र' नाम से प्रकाशित तथा सीएजी कार्यालय द्वारा प्रकाशित 'लेखापरीक्षा प्रकाश ' अक्टूबर-दिसम्बर 1998मे भी 'कालचक्र' कहानी में आमुल चूल परिवर्तन कर लिखा ।


Friday, October 8, 2021

लघु कथा- एक जिन्दा था

गंगा नदी के ऊपर लम्बे ब्रिज पर यात्रियों से ठसाठस भरी टेम्पो ( तीन पहिया वाहन) ओवरटेक करने के चक्कर में, एक  ट्रक से टकरा कर पच्चीस-तीस फिट नीचे कछार पर जा गिरा । जोर का धमाका हुआ । धमाके की आवाज़ सुनकर सारे लोग उधर दौड़े जिधर हादसा हुआ था ।
चारों ओर अफरा तफरी मच गई । थोड़ी देर के लिए आवागमन बाधित हुआ। देखते देखते सड़क पर लम्बा जाम लग गया ।
कोई देखने के लिए रुका तो कोई जाम की वज़ह से रुका रहा ।
इस बीच ट्रकवाला तेजी से चलाकर भाग निकला और लगभग दो किलोमीटर दूर स्थित टोल टैक्स वसूली अवरोध को भी पार कर गया ।
कछार पर गिरे हुए लोग दर्द से कराह रहे थे, कुछ लोग चीख रहे थे और मदद की गुहार लगा रहे थे।टेम्पो पर सवार ज़्यादातर लोग छिटक कर इधर उधर गिर पड़े थे । टेम्पो धू-धू कर जल रहा था ।  ड्राइवर समेत दो लोग टेम्पो के नीचे दब गए थे । वे बुरी तरह झुलस गए थे । अन्य लोगों की हालत गंभीर थी, दो लोगों के चेहरे जख्म़ और ख़ून से विभत्स हो गये थे । शायद वे भी आंखिरी सांस ले रहे थे ।
ब्रिज के पश्चिमी छोर पर ढलान से उतरकर ऊबड़-खाबड़ मैदान और दलदल में लगभग आधा किलोमीटर चलकर पांच छः लड़के घटनास्थल पर पहुंचे ।
किसी ने पर्स निकाला, किसी ने जेब-थैला टटोल कर जो कुछ मिला निकाल लिया, किसी ने अंगूठी उतार ली तो किसी ने घड़ी उतारी ।
एक घायल जवान आदमी के गले से एक लुटेरा जब सोने का चेन खींच रहा था तब उसने लुटेरे की कलाई पकड़ ली । लुटेरे ने बड़ी मुश्किल से ख़ुद को छुड़ाया फिर उसके मुंह और पेट पर लातें जमा दी, घायल के मुंह से खून निकलने लगा और उसने दम तोड दिया ।
एक अन्य लुटेरे ने एक की पहचान कपड़ों से कर, कपड़ों के भीतर रूपए पैसे जो कुछ था लूटा, वह मरा हुआ था, पहले उस पर थूका फिर शव पर उछल कूद किया ।
ब्रिज के ऊपर से कुछ लोग लूटेरों को लाचार और असहाय होकर देख रहे थे  । बीच-बीच में कोई न कोई रोष प्रकट कर रहा था । 
एक चायवाले ने हादसे की सूचना थाने में दे दी । 
लगभग आधे घंटे बाद नीचे कछार पर पुलिस आती हुई दिखाई दी।
अचानक दो लोगों ने ऊपर से ही चीत्कार किया - " भागों भागों पुलिस पुलिस आ रही है  ...... भागों पुलिस..... " और मिनटों में सारे लूटेरे उत्तर दक्षिण की ओर से भाग निकले ।
ऊपर से किस किस ने लूटेरों को पुलिस के आने की सूचना दी थी, पता न चला । वे  भीड़ में से थे और भीड़ में खो गए । 
किसी ने कोशिश भी नहीं की जानने की कि वे कौन थे । 
पता चला वे किसी पार्टी का वर्कर था, और जिन लूटेरों को  पुलिस आने की ख़बर दी थी वे लूटेरे भी उसी पार्टी के वर्कर थे ।
ब्रिज के ऊपर भारी संख्या में जो एकत्र हो गए थे वे उफ्फ !  उफ्फ ! चू ! चू ! करके दु:ख व्यक्त कर रहे थे लोग । अब मदद की गुहार नहीं सुनाई दे रही थी और भीड़ छंट रही थी धीरे धीरे-धीरे ।
इतने में अचानक एक पुलिस वैन आकर ब्रिज पर जहां से टेम्पो गिरी वही खड़ी हो गई। 
पुलिस देख ज़्यादातर लोग दायें-बायें देख खिसक गये । आठ दस लोग भाग न सकें और पुलिस ने उन्हें घेर लिया । पूछताछ करने लगीं।
पुलिस ने एक एक से पूछा । लोग उत्तर देते गये ।
------ " पता नहीं । मैं वहां था । आवाज सुनकर आया था । एक ने कहा।
----" सर मैं तो अभी अभी आया । "दूसरे ने कहा।
-----" मेरे सामने कुछ हुआ नहीं । " तीसरा बोला।
एक ने कहा " तखत़ पर बैठा चायवाले ने थाने में फोन किया था उसे मालूम है ।" 
चायवाले ने कहा " मैं तो इतना दूर बैठा हुआ हूं , मैंने कुछ नहीं देखा, अपने काम से फुर्सत नहीं साहेब ......."
------" तुम्हींने फोन किया था और साले तुमको मालूम नहीं ?" 
-----" साहेब हमने फ़ोन जरूर किया था आवाज़ सुनकर हम डर गये थे । रेलिंग टूट कर टेम्पो नीचे गिरी थी यही जानते है हम । "
जहां रेलिंग टूटी थी उससे थोड़ी दूर पर फुटपाथ पर बैठे एक मछली वाले को पूछने पर , उसने कहा " मुझे कुछ नहीं मालूम । मैंने गौर नही किया।"
मछली वाले और चायवाले को पुलिस पकड़ कर ले गयी । बोले "चल वहीं बयान देना । " ंं
बहुत देर तक आवागमन बाधित था । वाहनों को ब्रिज के बाहर रोक दिया गया था । तीन चार किलोमीटर लम्बा जाम लग गया था। उसका असर पूरे शहर पर पड़ था । पूरे शहर में जगह-जगह जाम लगा हुआ था ।
मगर आराम से क़रीब डेढ़ घंटे बाद एक दमकल गाड़ी घंटा बजाता हुआ, उसके पीछे कूड़ा ढोने वाला एक छोटा ट्रक और सबसे पीछे एक क्रेन  ब्रिज पर आते देखा । सभी लोग अचरज होकर उधर ही देखने लगे।
नीचे कछार का दृश्य दर्दनाक था । टेम्पो पूरा-पूरा जल चुका था । ढांचाभर रह गया था । और उसी के बगल में दो लोगों के शरीर कंकाल होकर पड़
 हुए थे । सारे लोगों के चेहरे विभत्स हो चुके थे । दूर से कौन मृत कौन जीवित पहचान पाना मुश्किल था । खून जो बहे थे अब काले पड़ चुके  थे । 
पांच छः कुत्ते घटना-स्थल पर पड़े हुए शरीरों को थोड़ी दूर से देख सूंघ कर दूर हट गये थे.......रह रह कर वे रो रहे थे ।
दमकल कर्मियों और क्रेन की सहायता से एक एक आहत और मृत शरीर को उठा कर ट्रक पर रख दिया गया । 
ट्रक के आगे सीटीनुमा हार्न बजाती हुई पुलिस की जीप और फिर बाकी वाहन चल निकले आहिस्ता आहिस्ता । अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था ।
ट्रक में फेंके गए लोगों में से एक ने हाथ हिलाकर अलविदा का संकेत दिया । 
उस दृश्य को देखकर भीड़ विचलित हो उठी किन्तु सभी स्तब्ध हतप्रभ ।गाडियां आगे चलती गयी ।
एक बूढ़ा पूरी ताकत से चीख उठा " एक जिन्दा था...... एक जिन्दा था ......" 
उसकी चीख अनसुनी रह गई । उसकी आवाज कौओं के कांव कांव, गाड़ियों की आवाज में खो गई ।

सुभाष चन्द्र गांगुली
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' लघुकथा अंक '--' अविरल मंथन'अंक १५ में 'चीख' शीर्षक से
सितम्बर २००१ में प्रकाशित ।
सम्पादक--राजेन्द्र वर्मा ३/२९ विकास नगर, लखनऊ
 

Tuesday, October 5, 2021

लघु कथा- सारे जहां से अच्छा



एक दिन जब दफ़्तर से घर लौटा तो फाटक खोल कर पोर्टिको में स्कूटर पार्क करते समय देखा एक बड़ा पैकेट फर्श पर रखा हुआ है । पत्नी बोली -- " यह पार्सल कोई रख गया है। "
--" कोई रख गया है?"
--" कौन रखेगा, एक आदमी ने ही रखा है । देख लीजिए । "
--" अरे इसमें तो कोई डाक मुहर भी पढ़ा  नहीं जा रहा । स्पीड पोस्ट का कागज भी चस्पा नहीं है, तो फिर वह आया कहां से था  ?"
पत्नी बोली --" पता नहीं । "
--" डाकिया के ड्रेस में था ?"
--" याद नहीं ...... मैं सो रही थी , घंटी बजी, नींद टूटी बाहर आयी तो वह हाथ में लेने को बोला, मैंने भीतर का दरवाजा नहीं खोला, मैंने कहा फाटक खोल कर रख दो, फाटक बंद कर देना । ..... आपही ने कहा था कोई पैकेट कहां से आया क्या है जानकर ही लेना, खोलना । मैंने पूछा था, उसने कहा था " हमें मालूम नहीं, यहीं का है " मैंने फर्श पर रखने के लिए कहा था ।  "
--" उफ्फ ! क्या मुसीबत , कोई आया, सामान रखा और चला गया ?"
--" मगर सामान ठिकाने से रखा तो है । खोल कर देख लीजिए ।" पत्नी भीतर चली गई ।
बहुत देर तक मैं उस पैकेट  देखता रहा । भेजने वाले का नाम से मैं वाक़िफ न था । भेजने वाले को मेरा पूरा नाम भी पता नहीं रहा होगा । बहुत सज़ा कर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था पहला नाम । जी  हां, यह नाम तो मेरा ही है किन्तु इसके आगे भी तो है । ज्यादा हैरानी यह देख कर हुई कि मेरे घर का पता भी आधा-अधूरा लिखा था । मकान नम्बर नहीं है, केवल गली का नाम और शहर का नाम ।
अजीब टेंशन में आ गया मैं । समय पहले से बहुत ज्यादा बुरा हो गया है । हर जगह हिदायत दी जाती है कोई लावारिस सामान न उठायें, संदिग्ध पैकेट खोलने से पहले जांच- पड़ताल कर लें, सावधानी बरतें। 
मैं पैकेट को घर के भीतर नहीं लाया । मेन फाटक के भीतर दीवार की ओट पर जहां रखा हुआ था, वहीं रहने दिया ।
अगले दिन सुबह-सुबह डाकघर खुलने के समय मैं डाकघर पहुंचा । 
अपने क्षेत्र के डाकिया को ढूंढ कर निकाला । 
मैंने पूछा तो उसने कहा " पहुंचाया तो था मगर कहां से आया था पता नहीं। "
मैंने रिकार्ड देख कर बताने को कहा । वह कार्यालय के भीतर गया फिर आकर बोला -- "सेना से आया था, गुप्त रहता है, कोड नम्बर
था । "
            अब मुझे तसल्ली मिली । जिस किसी का भी होगा ठीक ही होगा । कोड नम्बर द्वारा भेजे गए पत्र, सामानों की अच्छी तरह से चेकिंग होती है । मैं अपने कार्यालय चला गया । 
शाम को फुर्सत से पैकिंग खोलने बैठा । एक के बाद एक रैपर खुलता गया ।
चार पांच परत खुलने एक बाद एक नक्काशीदार डिब्बा निकल आया । उसे खोला और खोलते ही मैं दंग रह गया। मेरी आंखों के सामने वही टिन का डिब्बा था जो बरसों पहले मेरे स्कूल बैग से गुम हो गया था । 
मुझे अतीत का वह दिन याद आ गया जिस दिन मैं उस डिब्बे के खोने से अत्यंत दुखी हो गया था।
              घटना ३ अप्रैल,१९८४ की है । उस दिन सुबह से पूरे गांव में हलचल थी । दोपहर को  अनोखी घटना घटनेवाली थी । घटना का सीधा प्रसारण आकाशवाणी व दूरदर्शन से होने की बात थी । दूरदर्शन से सीधे प्रसारण की बात अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण थी क्योंकि हमारे गांव में टीवी भी नया नया आया था । दो चार समृद्ध लोगों को ही टीवी रखने का गौरव प्राप्त था और उन्हीं लोगों ने गांव के जन-जन को देश की प्रगति की चश्मदीद गवाह बनाने का बीड़ा उठाया था ।
सारे लोग अपना-अपना काम- काज जल्दी से निपटा कर पंडालों में जाने लगे थे । 
स्कूल में प्रार्थना के तुरंत बाद हेडमास्टर साहब ने एलान किया कि दो पीरियड के बाद स्कूल की घंटी बजेगी , घंटी बजते ही सभी बच्चे अपना- अपना स्कूल बैग क्लासरूम में रख कर महुआ पेड़ के नीचे एकत्र होंगे और फिर वहां से सारे बच्चों को ग्राम प्रधान के घर के सामने मैदान में लगे पंडाल में ले जाया जाएगा।
लम्बी लाइन में हम सब बच्चे चलने लगे थे। हर एक क्लास टीचर क्लास के बच्चों के सबसे आगे थे । 
पंडाल पहुंच कर हम सब ज़मीन पर बैठ गए । टीवी का कार्यक्रम निश्चित समय पर प्रारंभ हुआ । चारों ओर सन्नाटा पसर गया। बच्चे बूढ़े अधेड़ सब ध्यानमग्न होकर टीवी देखने लगे ।
अचानक देखा टीवी स्क्रीन पर नीले आसमान के ठीक नीचे शून्य में एक आदमी तैर रहा। उसका पूरा शरीर ढका हुआ था , शीशे से उसका मुंह भी ढका हुआ था । उसका नाम कैप्टन राकेश शर्मा कहा गया । 
देश के प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी भी उस दृश्य को देख रही थी । राकेश शर्मा का चेहरा देखते ही इन्दिरा जी के चेहरे पर खुशी उमड़ पड़ी । प्रसन्नचित्त मुद्रा में उन्होंने पूछा --" आपको अंतरिक्ष से भारत कैसा लग रहा है ? "
अंतरिक्ष में तैरते हुए बड़े गर्व से राकेश शर्मा ने बताया " सारे जहां से अच्छा" ।
उसके इस उत्तर से इन्दिरा जी के साथ पूरा देश झूम उठा । तालियों की गड़गड़ाहट से कान फटने लगे । स्कूल लौटते समय रास्ते भर हम अपने टीचरों के साथ लयबद्ध तरीके से " सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा / हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसिता हमारा....." गाते गये ।
स्कूल से लौटते ही लंच का टाइम हो गया ।
लंच करने के लिए जब स्कूल बैग खोला तो देखा कि लंचबॉक्स गायब था ।
लंचबॉक्स क्या हिमालय पाउडर का एक खाली डिब्बा जिसमें दो सादी रोटी और एक ढेला गुड़ था । उन दिनों हमारी घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी । फिर भी मैं यह सोच कर खुश हुआ कि हमारी हालत किसी से तो बेहतर है, मेरी सूखी रोटियां किसी के काम तो आई। 
मगर ज्योंहि मुझे ख्याल आया कि डिब्बे के कारण मुझे डांट खानी पड़ेगी, मैं परेशान हो गया और बहुत देर तक मैं डिब्बा ढूंढता रहा । 
छुट्टी होने के साथ ही साथ सारे बच्चे जोश और उल्लास से शोर मचाते हुए अपने अपने क्लासों से निकल गयें। सभी के लबों पर एक ही लाइन थी " सारे जहां से अच्छा / हिन्दुस्तान हमारा है " ।
 पुरानी यादें ताजा हो गईं।
मैंने बड़े कौतूहल से डिब्बा खोला । डिब्बे में एक चिट्ठी थी। चिठ्ठी में लिखा था --" मित्र मैं क़सूरवार हूं तुम्हारे टिफिन का, कर्ज़दार भी हूं । सच कहूं दोस्त ! तुम्हारी उन रोटियों ने मुझे जीवनदान दिया था , तुम्हरा डिब्बा भी काम आया था । इस समय तुम्हारी कृपा से खाने पीने की कमी नहीं है लेकिन तुम्हारा डिब्बा मेरे लिए बोझ बना हुआ है।
यह बार बार मुझे मेरे अतीत की याद दिलाता है।
सम्वेदना से जुड़े रहने के कारण इसे मैं फेंक भी न सका । 
तुम्हारा स्कूली लंचबॉक्स तुम्हें लौटा रहा हूं । तुम्हारे कारण एक दिन मेरा भूख मिटा था । तुम्हारा कर्ज़ा मैं चुका नहीं सकता लेकिन दोस्त को गिफ्ट तो दे ही सकता हूं । छोटा-सा गिफ्ट है, कबूल करो ! कभी उधर जाना हुआ तो अवश्य मिलूंगा । याद है ना " सारे जहां से अच्छा " 
तुम्हारा दोस्त -- अविनाश
मुझे याद आ गया कि मैं भी कभी बहुत गरीब था। रोटी और गुड़ स्कूल का टिफिन धा, खुद को बहुत गरीब समझता था मगर वह बेचारा ! 

सुभाष चन्द्र गांगुली
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' पंजाब केसरी ' 31/03/1999 में प्रकाशित ।

Friday, October 1, 2021

लघु कहानी- डिस्को पपीता

कार्यालय में लंच का समय । आधे घंटे का लंच । 
कार्यालय के बाहर विशाल बांउड्री के इस छोर से दूसरे छोर तक खाने पीने की अनगिनत दुकानें हैं । हम अपने कार्यालय के भीतरी फाटक से शिक्षा निदेशालय कार्यालय परिसर से होकर लगभग आधा किलोमीटर चलकर अन्य छोर पर पहुंचे । थोड़ी ही दूर पर खड़ी एक ठेले वाले की दमदार मस्तीभरी आवाज़ 'डिस्को पपीता' ' डिस्क़ो पपीता' से आकर्षित होकर पपीता खाने का मन बना लिए और हम तीन लोग उधर चल पड़े ।
हमें देख वह पपीता-नुमा गोल मटोल किंतु ठोस नाटे कद के नौजवान ने उत्साहित होकर अपनी आवाज़ को ओर बुलंद कर ली --"  ' डिस्को पपीता' ' डिस्को पपीता' जो खाये वह पछताये, जो न खाये वह भी पछताएं ।"
मैंने चकित होकर पूछा --" का हो भैया ! जरा इ बतावा कि एका जौन ना खाई ओहूका काहे पछतावे पड़ी ? एका का मतलब बा तनि समझाओ ......"
बात पूरा होने से पहले ही उसने कहा --" साहिब खाएं के आप सोचिहें एका पहिले काहे नही खाएं रहैं : .... एक बार खा लैंहे तो चस्का लग जाई  रोज़ रोज़ ऐहें..... डिस्को है ये डिस्को , एकदम फजलि आम जइसा, बड़का-बड़का और मीठा- मीठा ।........ वाह रे डिस्को पपीता' वाह !"
इस बीच वह चार पांच दोनें तैयार कर लोगों को दे चुका था । चोंच भले ही चल रहा था, हाथ कभी रुका नहीं। 
उसकी स्टाइल से हम तीनों साथी बहुत प्रभावित हुए । जेठ की चिलचिलाती धूप में सड़क किनारे नीम पेड़ के नीचे गर्म हवा के झोंके खाते पेट की खातिर वह खड़ा है किन्तु कितनी फूर्ती है उसके तन मन में । मैंने अपने मित्रों को धीरे से कहा " यार जीना तो कोई इससे सीखें, ऐसे लोगों के लिए पूस , सावन, भादों सब बराबर । एकदम मस्त मौला ।
इस बीच पपीते वाले ने एक दोना बनाकर पूछा -" मसाला तेज या नार्मल ?"
--" नार्मल " मैंने कहा।
मैंने गौर किया कि उसके बायें हाथ में रबड़ का दस्ताना, दायें हाथ में साफ़-सुथरा चाकू, हाथ के नाखून कटे हुए, मसाले का डिब्बा साफ़ सुथरा, और उसके कपड़े भी साफ़- सुथरे है । मुझे लगा कि इस आदमी का जीवन के प्रति दृष्टिकोण भी अवश्य साफ़ और स्वच्छ होगा । मेरा कवि हृदय एकबारगी पुलकित हो उठा ।
उसने दूसरा दोना तैयार कर हमारे ओर बढ़ाया ही था कि पेड़ की डाल पर बैठा पंछी की बीट उस दोने पर और एक समूचे पपीता पर गिरी ।
मुझे अफ़सोस हुआ और मेरे मुख से अनायास निकला " इश् ......!"
उसने हंसकर ऊपर वृक्ष की ओर देखा और कहा --" अबे ! डिस्को करके बीट करता ? इधर भी उधर भी ? पपीते पर न कर, मेरे सिर पर कर ।"
और फिर उस दोने को पैर के समीप डस्टबिन में फेंक दिया । समुचा पपीता नीचे टोकरी में डाल दिया।
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        अचानक एक धमाके की आवाज हुई ।
देखा बीच सड़क में एक ' हीरोपुक ' दोपहिया वाहन एक स्कूटर से टकरा गई थी । दोनों ही चालक वाहन के साथ गिर पड़े थे । स्कूटर पर सवार एक आदमी शिक्षा निदेशालय कार्यालय से निकल कर, मेरी बायीं ओर से सड़क के उस पार जा रहा था कि मेरी दायीं ओर से हीरो पुक पर सवार दो लड़के टकरा गये थे ।
कुछ लोग इधर-उधर से दौड़े-दौड़े घटना-स्थल पर पहुंचे । हम भी कदम बढ़ाकर पहुंच गए। तब तक तीनों उठ खड़े हो गए थे। 
मैंने कहा " थैंक गॉड ! किसी को ख़ास चोट नहीं आई । सबके सब बच गए । कुछ भी हो सकता था ।"
स्कूटर वाले ने स्कूटर उठा कर खड़ी  की। काफ़ी तेल बह गया था । उसका पैंट घुटने के पास ज़मीन से रगड़कर फट गया था । घुटने में चोट लगने से थोड़ा सा छिल गया था और ज़रा सा खून भी दिखा और उसका चश्मा छिटक कर टूट गया था ।
दोनों लड़के उठ खड़े हुए । उन्हें ज़रा सा खरोंच तक नहीं आया था । मगर जब लड़कों ने 'हीरो पुक' उठाया तो हैंडिल जाम पाया । तुरंत उन दोनों का माथा गरम हो गया और स्कूटरवाले से भिड़ गए । 
बहुत देर तक तू- तू मैं- मैं होती रही । एक दूसरे को दोषी ठहराते रहे ।
अंत में लड़के तैश में आकर उसकी कमीज़ का कॉलर पकड़ कर मुआवजा मांगने लगें । 
स्कूटर वाला सहम गया। जेब में हाथ डाल कर गुस्से से पूछा कितना पैसा चाहिए ? कितने में मरम्मत होगी ? 
एक लड़के ने कहा " सौ रुपया निकालिए ", दूसरे ने कहा " अमे सौ में क्या होगा, कम से कम दो सौ लगेगा ।"
स्कूटर वाले ने कहा " सौ लेना हो लो नहीं तो
फूटो ।" 
--" का फुटो...फुटो ? एक तो आंख बंद कर चला रहे थे, गिरा दिया नुकसान किया ऊपर से कहता है फुटो......."

इतने में स्कूटरवाले के कार्यालय 'शिक्षा निदेशालय ' से कुछ लोग हादसे की ख़बर पाकर आ पहुंचें । 
एक ने कहा " मारे रपाटा दिमाग ठिकाने पर आ जाएगा । नान-नान लौंडे चलाने का सहूर नहीं है, मूंछें भी ठीक से नहीं निकली है, गाड़ी पर नम्बर प्लेट नहीं है....... और बेशर्म तुझे जरा सा झिझक नहीं आया तुमसे दुगने उमर के आदमी का कालर पकड़ते ......"
---- " ड्राइविंग लाइसेंस दिखाओ ।"
-----" गाड़ी का नम्बर प्लेट पढ़ा नहीं जा रहा । क्या नम्बर ? "
----" गाड़ी का कागजात दिखाओ ....."
----" भाग जाओ नहीं तो ये सामने पुलिस मुख्यालय है , बुलाऊंगा तो अंदर हो जाओगे ।"     जितनी मुंह उतनी ही बातें । 
दोनों लड़के धीमे पड़ चुके थे, किंतु लगातार बोले  जा रहे थे " गलती इन्हीं लोगों की है, और हमारे ऊपर चढ़ रहे हैं ....... दायें-बायें देखा नहीं सीधे चले आये, आंखें तो हैं बड़ी-बड़ी दिखता नहीं ?
....... अगर हम मर जाते तो ?"
                सड़क पर जाम लग चुका था, लोग बीच- बचाव कर रहे थे, भीड़ देख कर लड़के चीख उठे --" अगर हम मर जाते तो ?"
इधर स्कूटर वाले ने चीखा - " अगर मैं मर जाता....? "
अचानक भीड़ को चीर कर पपीता वाला दो पपीते लेकर पहुंचा, लड़कों के हाथ में देते हुए कहा- " मर जाते तो 'डिस्को पपीता' कहां खा पाते बेटे ? लो 'डिस्को पपीता' घर ले जाओ तबियत से खाओ...... लो लो थामो थामो ये बड़े भाई का गिफ्ट है ।" 
सब लोग इकट्ठे हंसने लगे । भीड़ तितर बितर हो गई । स्कूटर वाला धीरे- धीरे किनारे कर लिया स्कूटर ।
फिर पपीते वाले ने 'हीरो पुक'उठाया, हैंडिल घुमा कर सीधा कर दिया ।
"लो चला कर ले जाओ ।" पपीते वाले ने कहा।
गाड़ी स्टार्ट कर स्कूटर वाला निकल गया ।

सुभाष चन्द्र गांगुली
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' स्वतिपथ ' सम्पादक- कृष्ण मनु, धनबाद में 1998 में प्रकाशित ।