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Wednesday, August 31, 2022

कहानी- बेटी की विदाई


हावड़ा स्टेशन पहुँचने के बाद पता चला कि दीपक और सन्ध्या की टैक्सी से दो ट्रैक नहीं उतारे गये थे। कन्यादान का सारा सामान उसी ट्रंक में रखा हुआ था। इस खबर कोहराम मच गया। मिनटों में खुशी का माहौल गम में तब्दील हो गया। दीपक के पिता भोलानाथ सुध-बुध खो बैठे। मन ही मन बुदबुदाते हुए वह छोटी-सी परिधि में चक्कर काटने लगे। उनकी आँखों में खून उतर गया। सन्ध्या की सास का चाक-चौंध पार्लरी चेहरा विकृत हो गया। उसके मुख से अपशब्दों की बौछारें निकलने लगी- "छिः छिः। छि: कैसी मनहूस लड़की है, छोकरी अभी घर नहीं पहुँची और इतनी बड़ी आफत! अभी तो सामान गुम हुआ है, आगे जाने और क्या क्या होना है... है, ना जाने किस पापिन को साथ लिये जा रही हूँ... ..बहू नहीं जैसे डायन ....... दीपक के पापा को मैंने पहले ही कहा था कि बराबरी में रिश्ता करना चाहिए मगर वह किसी की सुनते कहाँ ? कहने लगे सन्ध्या साक्षात् लक्ष्मी है, आते ही घर में धन की बारिश होगी. बारिश होगी! लो संभालो अब इस डायन को. .अरे बाबू की बेटी कभी भाग्यवती थोड़े न होती। बड़ी किस्मत लेकर आती तो बड़े घर में जन्म लेती। "

चोंच चलाने में सन्ध्या की ननद भी पीछे नहीं रही।

इसी बीच मेरे एक मित्र ने मेरे कानों में फुसफुसाकर कहा-"कहीं ऐसा तो नहीं कि सन्ध्या के बाप ने कोई चाल चली हो।" मैंने तपाक से इसकी बात काटकर कहा "चुप रहो, वैसे ही आग तेज है अब तुम उसमें ईंधन मत डालो।"

दीपक की माँ चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी। दीपक ने कई बार "माँ" कहकर चुप कराने की कोशिश की। आहत सन्ध्या घूँघट उठाकर कभी सास को, कभी ननद को, कभी पति को देखती । वह जानना चाहती थी कि उसकी गलती कहाँ थीं ?

दीपक की बारात में मैं इलाहाबाद से गया था। दीपक समेत कुल तीस लोग बाराती थे। कन्यापक्ष के लगभग सौ लोग थे। समारोह का आयोजन अति सामान्य था। देखकर लग रहा था किसी ग़रीब की शादी है। सन्ध्या के आत्मीय-स्वजन ने दीपक और उसके पिता भोला बाबू की तारीफ़ के पुल बाँध दिये-"वाह क्या दूल्हा कितना नेक और .......दीपक चाहता तो क्या कुछ हासिल नहीं कर सकता था ? आज के सरल... युग •में बिना दहेज के भला कौन ऐसी शादी करने को तैयार होता है ? सन्ध्या की तकदीर वाकई अच्छी है, उसके दोनों हाथों में लड्डू है। बेचारे सन्ध्या के बाप की हैसियत ही क्या है ? सात जन्म तपस्या करने पर ऐसा घर-बर मिलता है।" एक ने दबी जुबाँ में यह टिप्पणी घर दी-"कहीं कोई खोट न हो, दहेज के बगैर राजी क्यों हो गये ?" इस बात पर तीखी प्रतिक्रिया करते हुए एक बूढ़े ने कहा- "किसी बुराई को आप यूनिवर्सल नहीं बना सकते, हर जमाने में हरेक तरह के लोग रहे हैं, भले भी बुरे भी. ..अपना दीपक हीरा है हीरा! दीया लेकर ढूँढने से भी ऐसा लड़का मिलना मुश्किल है।" बात खत्म होने से पहले ही शंका जाहिर करनेवाले सज्जन दाँये-बाँये खिसक गये। मगर कुल मिलाकर दूल्हा-दुल्हन की तारीफ़ ही तारीफ़ हुई।

ट्रेन छूटने में अभी भी तीन घण्टे का समय था। पंचांग देखकर कुल पुरोहित ने विदाई का शुभ मुहूर्त्त निकाला था। उन्हीं के कहने पर घर से लड़की की विदाई ट्रेन टाइम से बहुत पहले कर दी गयी थी।

दीपक, सन्ध्या और उसका एक छोटा भाई एक टैक्सी में थे। वे समय से स्टेशन पहुँचकर हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। ट्रैफिक जाम होने के कारण हम सबों की गाड़ियाँ काफ़ी देर से पहुँची थीं। अब सामान गुम होने के कारण लोग पुरोहित में भी दोष देखने लगे और तरह-तरह की बातें करने लगे-“ऐसा डरवाया था उस पण्डित ने कि जल्दबाजी में सब कुछ चौपट हो गया. जल्दी का काम शैतान का होता है. घर से चलते समय पंचांग देखा जाना चाहिए था क्या ? ट्रेन का ड्राइवर क्या पंचांग देखकर ड्यूटी पर जाता है ? ऐसे पण्डित लोग कब बाज़ आयेंगे मालूम नहीं, बात-बात पर बेवजह भगवान् का भय दिखाते हैं और लोग भी ऐसे हैं कि उनके बहकावे में आ जाते हैं।”

इस बीच दीपक के चाचा थाने में रिपोर्ट लिखवाकर लौट आये। उन्होंने आठों गाड़ियों के नम्बर अपने पास नोट करके रखा था। टैक्सीवाले के फरार होने की ख़बर सुनते ही वह बिना किसी से कुछ कहे निकल गये थे। मगर पुलिस को नम्बर बताते समय दीपक के चाचा यह नहीं बता पाये थे कि जिस गाड़ी में दीपक बैठा था उस गाड़ी का नम्बर क्या था ? रिपोर्ट दर्ज करते समय थानेदार ने कहा था- "बाबूमोशाय ! यह महानगर है। यहाँ हर आनेवाली घड़ी अपने साथ क्या अचरज ढो लायेगी कोई भाँप नहीं सकता, हावड़ा स्टेशन पर तो बस आपकी निगाहें हटी नहीं कि कुली अदृश्य, आप उसे ढूँढ़ते रह जाइएगा। फिर टैक्सीवाले का क्या भरोसा ?. .. बहरहाल आप हमारी महानगरी में विशिष्ट अतिथि हैं इसलिए हम भरसक प्रयास करते हैं बाकी आप लोगों की किस्मत।"

लगभग दो घण्टे बीत गये। हम सब हताश होकर ट्रेन पर सवार होने के लिए अग्रसर हुए। थोड़ी दूर चले थे कि हठात् किसी ने दीपक की पीठ पर हाथ रखा, "जमाई बेटा!! अपना सामान तो लेते जाओ। टैक्सी में है आओ।"

ड्राइवर के पीछे-पीछे हमलोग दौड़कर टैक्सी के पास पहुँचे। दोनों ट्रैक उतारे गये फिर ताले खोले गये। ज्यों ही भोला बाबू ने एक ट्रंक का सामान चेक करना शुरू किया ड्राइवर बोल पड़ा-"सारा सामान जस का तस है। मेरी नीयत अगर ख़राब होती तो मैं वापस ही क्यों आता ? मैं खुद-ब-खुद आया हूँ किसी भय या दबाव से नहीं आया हूँ" "मैं शर्मिन्दा हूँ। क्या है कि हम लोग बेहद अपसेट थे, दिमाग ठीक से काम नहीं कर रहा था, नयी दुल्हन का सामान गुम हो जाना अपशकुन माना जाता है, लड़की की बदनामी होती है।" ड्राईवर बोला- “साहब! मैं भी चाहता हूँ कि बेटी की विदाई शुभ शुभ हो, किसी प्रकार की त्रुटि न रह जाए, उसकी और उसके मायकेवालों की बदनामी न हो, बेटी को किसी प्रकार का कष्ट न दिया जाए... ...मैं चाहता हूँ मेरी बेटी को ससुराल में खूब प्यार मिले, वह खूब सुख-चैन से रहे।"

बात कहते-कहते ड्राईवर की आँखों में आँसू भर आये। भोला बाबू ने पर्स से पाँच सौ का नोट निकाला और उसकी ओर बढ़ाकर कहा-"लो रख लो इसे, यह तुम्हारी बख्शीश है?" ड्राईवर ने कुछ भी लेने से इनकार कर दिया। उसने हाथ जोड़कर कहा- "इसकी ज़रूरत नहीं है, मैं अपनी मेहनत की कमाई से सन्तुष्ट हूँ।" अचानक वह अत्यन्त गम्भीर होकर बोला- "साहब! बेटियाँ अबला होती हैं, वे तो अपनी ही रक्षा नहीं कर पातीं, हीरे जेवरात की रक्षा कैसे करेंगी ?"

भोला बाबू का चेहरा तमतमा उठा। वह चीखकर बोले-"क्या ? तुमने ट्रंक खोला था।" ड्राईवर ने उत्तर दिया- "हाँ साहब! आपके बेटे को उतारने के बाद मेरी गाड़ी में कई लोग बैठे और उतरे। जब एक परिवार अपना सामान चढ़ाने लगा तो देखा इसमें सामान है। जाने कितने लोग चढ़े और उतरे मुझे अचानक ख़्याल आया कि इसमें कन्यादान यानी दहेज का सामान हो सकता है मगर मैं निश्चिन्त नहीं था। मैंने सोचा इसके भीतर कहीं बम या स्मगलिंग का सामान न हो जिससे मेरे ऊपर आफ़त आ जाए। कौतुहलवश मैंने ट्रक खोला। ढेर सारे रत्न जड़ित आभूषण देखकर मैं दंग रह गया। मैं बेटी के घर जा रहा था मगर मुझे मालूम था कि आप लोग बॉम्बे मेल से जायेंगे .... साहब! आज आज से बीस साल पहले इसी महानगरी में मेरी तीन साल की बेटी खो गयी थी.. अगर वह मेरे पास रहती तो वह आपकी बेटी के बराबर की होती आज मैं अपनी बेटी की विदाई कर रहा हूँ।" उसका गला भर आया, आँखों से आँसू लुढ़क गये, आँखों को पोंछते हुए वह टैक्सी के अन्दर घुस गया और गाड़ी स्टार्ट करके निकल गया।

उसके चले जाने के बाद तुरन्त बाद ट्रंक खोले गये। एक-एक सामान देखा गया। सारा का सारा आँखों के सामने था तब भी पूरा प्रकरण एक गल्प-सा लग रहा था। लेकिन सन्ध्या के पिता ने कई लाख रुपए के सामान किस उपाय से जुटाये थे यह हमसबों के लिए जिज्ञासा और चर्चा का विषय बन गया।

सामान मिलने के बाद दीपक के माता-पिता के खुशी का ठिकाना न था। दीपक की माँ बोली- "सचमुच मेरी बहू सौभाग्यवती है। लक्ष्मी है मेरी बहू वर्ना, महँगा सामान हाथ से निकल जाने के बाद वापस कहाँ मिल पाता ? मैंने तो अपनी जिन्दगी में ऐसी बात कभी नहीं सुनी. ......... बिलकुल गल्प सा लगता है। ऐसी कहानी मैंने पढ़ी भी नहीं......... यह मेरी बहू की तकदीर ही है.. हो भी क्यों न, आखिर ऊँचे कुल की .. कन्या जो है।” किसी ने कहा- "ताऊ कुल पुरोहित है, घर में नित्य पूजा पाठ होता है। सामान तो मिलना ही था।" ननद भी खुशी जाहिर करने में किसी से पीछे नहीं थी।

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)
** अखबार ' स्वतंत्र भारत ' दिनांक 20/09/1998 में प्रकाशित ।
** महालेखाकार कार्यालय,उप्र की पत्रिका' तरंग में  01/03/1999 में प्रकाशित ।
**पत्रिका ' महकम ' गुरुमखी लिपि में नाभा, पंजाब में 11/2004 में प्रकाशित ।
** पत्रिका ' विमर्श ' वर्ष 2005 में प्रकाशित ।

Friday, August 19, 2022

कहानी- बच्चा


शिवानी माँ बननेवाली है। एडवांस स्टेज पर है। घर के सभी सजग हैं, परेशान भी हैं। उसकी देखभाल के लिए उसकी सास, ससुर, ननद, मौसी आये हुए हैं। इतने सारे लोगों के आने के पीछे एक दूसरा कारण भी है, वह है शिवानी की उद्विग्नता व उतावलापन, जिसकी वजह से राजन के अलावा घर के सभी तथा पास-पड़ोस वाले उसे एवनॉर्मल समझ रहे हैं।

राजन को उसकी माँ ने कहा- "बेटा तू मेरा कहा मान शिवानी को एक बार मेण्टल हॉस्पिटल में दिखा ले। उसका गुमसुम रहना, मन ही मन बुदबुदाना और बार-बार यह पूछना कि बच्चा जिन्दा है या नहीं, अच्छे लक्षण नहीं हैं। उसके हाव-भाव हमें ठीक नहीं लग रहे हैं।"

-"माँ ! तुम खामख्वाह चिन्ता कर रही हो। तुम्हारी बहू को वैसा कुछ नहीं हुआ। वह ठीक है, बिलकुल ठीक है। तुम समझने की कोशिश करो। पिछली बार का हादसा इतना भयानक था कि अभी वह उस सदमे से उबर नहीं पायी है। तुम अगर नहीं समझोगी तो कौन समझ पायेगा ?" राजन ने कहा।

उसे पागल राजन के तर्क से उसकी माँ सहमत नहीं हो पायी। वह चुप हो गयी। पास बैठी राजन की बहन सीमा से चुप नहीं रहा गया। उसने कहा-"पता नहीं क्यों तुम नहीं मान रहे हो ? क्या यह बेहयाई नहीं कि सुबह-शाम वह तुमसे कहे कि पेट पर कान लगाकर सुनो बच्चा मूव कर रहा है या नहीं और दिन-रात इसी बात को लेकर परेशान रहना, हम सबको परेशान करना, पागलपन नहीं तो और क्या है ? हमें तो लग रहा है कुछ दिनों में भाभी एकदम पागल हो जाएगी और हमें डर है जो बच्चा जन्मेगा कहीं वह मानसिक रूप से एक बार मेण्टल हॉस्पिटल के डॉक्टर मेहता को दिखा लो. ....... भाभी का बेवज़ह तुमसे भिड़ना, बात-बेबात हम सबसे उलझना......!"

बात काटकर राजन ने कहा- "बहन ! तुम भाग्यवती हो जो ऊपरवाले ने बिना रुलाए तुम्हारे बाग में फूल भर दिये हैं। शिवानी की पीड़ा तुम नहीं समझ पाओगी। तुम अगर शुरू से उसके साथ रहती तो तुम भी उसे उसी तरह समझती जैसा मैं समझ रहा .....और इसमें बुराई भी क्या है कि वह अपने पति से सब कुछ कहती है। मुझसे और आप सबसे वह नहीं कहेगी तो फिर कहाँ जाएगी यह सब कहने ? आखिर उसकी साँसों में मेरी साँसे भी चलती हैं।"

राजन की बात सुनकर सीमा दंग रह गयी। उसने कहा- "इन सब बातों में मैं नहीं पड़ना चाहती। इस अजीब दमघोंटू वातावरण में मेरा दिमाग खराब हो जाएगा कल्ल मैं घर जाऊँगी। मेरे साथ माँ भी लौटेगी, क्यों माँ ?"

- "बहन! तुम जाना चाहो तुम्हारी इच्छा, जानेवालों को कौन रोक सकता है मगर मेरा कहा मानो शिवानी एकदम ठीक है.. ..तुम लोगों के रहने से घर में रौनक है, तुम लोगों के रहने से हमें बल मिलता है, पिछली बार मैं अकेला न पड़ता तो शायद बच्चा बच जाता, यह नौबत नहीं आती।" अपना इरादा बदलते हुए शिवानी ने कहा- "ठीक है भईया जब हम पर इतना भरोसा है तो हम रुक जाते हैं. . तुम्हारी सहनशक्ति की दाद देनी पड़ेगी।"

समय और समाज ने राजन को सब कुछ सिखा दिया है वरना वह तो इतना संवेदनशील और कोमल हृदय का था कि एक दिन जब उसके दफ्तर में चार दोस्तों ने उसे जलील किया था तो वह वहीं रो पड़ा था, और दोपहर को दफ़्तर से घर लौटकर लेटे-लेटे सुबकने लगा था।

शिवानी ने घबराकर पूछा था- "क्या हुआ ? तबीयत ठीक नहीं है क्या ?...... ऑफिस में सब ख़ैरियत तो ? कहिए ना क्या प्रॉब्लम ?...... डॉक्टर को बुला दूँ ?"

काफ़ी कुरेदने के बाद राजन ने कहा था-"दफ़्तर के कई लोग चाय की दुकान पर मेरी खिल्लियाँ उड़ा रहे थे।" -“खिल्लियाँ उड़ा रहे थे ? मतलब ? क्या कह रहे थे वे ?"

-"वे लोग मेरे पिता न बन पाने का मज़ाक उड़ा रहे थे।" - " आप कर भी क्या सकते हैं? जो कुछ कर सकते थे किया। डॉक्टर, ज्योतिष,

मन्दिर-मस्जिद, झाड़-फूँक, पूजा-पाठ, ताबीज़-नग.. ....... कुछ भी तो नहीं बचा। हजारों रुपये फूँक चुके हैं। बच्चा होना न होना, होने के बाद उसका जीना मरना सब ऊपरवाले की इच्छा पर है. ......."वक़्त से पहले और किस्मत से ज्यादा" कहावत भी है...... आप घटिया लोगों से दोस्ती न रखिए, दूर रहिए, वे आपके दोस्त नहीं हैं, सच्चे दोस्त बुरे वक़्त पर मनोबल बढ़ाते हैं, हँसी नहीं उड़ाते हैं...... बेवज़ह सिर फोड़ने से क्या लाभ ? इंसान को सब कुछ थोड़े न मिल जाता है, मन की हर मुराद अगर पूरी हो जाती तो दुनियावाले ईश्वर से अपनी पूजा करवा लेते। दुनिया में हम आप अकेले थोड़े ही हैं, हम जैसे बहुत अभागे हैं.. . अब शान्त भी हो जाइए।"

मगर राजन शान्त नहीं हो पाया था। रात को वह भूखा ही सो गया। देर रात तक करवटें बदलता रहा। सुबह जब नींद टूटी उसने देखा शिवानी नींद में है। सूर्य की सुनहरी मृदु किरणों ने उसके चेहरे पर रुमानियत भर दी है। राजन उसे एकटक निहार रहा था कि उसकी साँसों की ऊष्मा से शिवानी की पलकें खुल गयीं। शिवानी की चाहत भरी निगाहों में डूबकर राजन ने कहा- "तुम्हारा चेहरा आज भी वैसा ही है जैसा विवाह के समय देखा था।"

शिवानी के चेहरे पर करुण मुस्कान उभर आयी। उसने तकिये के नीचे से एक कागज निकालकर राजन को दिया। उस लम्बे कागज में दुनिया की उन महान हस्तियों के नाम थे जो निस्सन्तान थे। राजन ने उस कागज को काफ़ी देर तक देखा, लम्बी सूची को बार-बार पढ़ा, उसकी आँखें नम हो आयीं, फिर एकबारगी खिलखिलाकर हँस पड़ा।

इस घटना के थोड़े दिनों के बाद और विवाह के पूरे दस वर्ष बाद शिवानी की सूनी कोख में उम्मीद का बीज अंकुरित होने लगा। शिवानी और राजन के मन की खुशी का ज्वार उफनने लगा मगर तीसरे महीने में गर्भपात हो जाने से सारी खुशियों पर पानी फिर गया। ऐसी ही दुर्घटना और एक बार फिर घटी। तीसरी बार शिवानी ने आठ माह पूरे कर लिये। उसकी सास ने धूमधाम से गोदभरायी की। राजन ने बेडरूम में बच्चों की ढेर सारी तस्वीरें टाँग दी। बच्चे का पलना लटका दिया, बच्चे के लिए दूध की कटोरी और चाँदी का चम्मच खरीद लिया।

एक रात शिवानी ने सिरदर्द और बुखार महसूस किया। डॉक्टर की सलाह से उसने दवाई ले ली। आधी रात उसे इतना बुखार चढ़ा कि वह उल्टा सीधा बोलने लगी। राजन ने डॉक्टर को फोन मिलाया। घण्टी बजती रही, किन्तु किसी ने उठाया नहीं। उसने कई बार फोन मिलाया मगर व्यर्थ गया। निरुपाय होकर उसे भोर का इन्तज़ार करना पड़ा। रात भर वह शिवानी के माथे पर जलपट्टी देता रहा। उजाला होते ही राजन शिवानी को अस्पताल ले गया। नर्स ने शिवानी को एडमिट कर लिया और डॉक्टर को फोन करके शीघ्र अस्पताल पहुँचने का आग्रह किया। जाँच करने के बाद डॉक्टर ने कहा- "बच्चे के गले में फन्दा पड़ गया है, उसकी मृत्यु हो गयी है। "

राजन चीख उठा- "आप तो बराबर कह रहे थे कि सब ठीक है, फिर क्यों ऐसा हुआ ? आप रात को बुलाते तो मैं रात को ले आता...... आप जान-बूझकर रात को फोन ऑफ रखते हैं, ताकि आपको फोन की घण्टी सुनायी न दे, रात भर आपका फोन खराब था फिर सुबह-सुबह अपने आप ठीक कैसे हो गया ? पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था.........अब बात समझ में आयी आप धूर्त हैं. "

डॉक्टर ने आश्चर्यचकित होकर राजन को देखा, फिर कहा-"आपका उत्तेजित होना स्वाभाविक है, आई कैन अण्डरस्टैण्ड इट, आपकी दिमागी हालत इस वक़्त ठीक नहीं है। आप कुछ भी कह सकते हैं, मगर कीप कूल। दिमाग ठण्डा रखिए......जो कुछ हुआ है वह एक हादसा था, कल रात भी अगर आप ले आते तो भी मैं कुछ नहीं कर मूव कर रहा था या नहीं और अगर समझ भी लेती तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, हादसे पाता, कोई कुछ नहीं कर पाता, बुखार के कारण शिवानी नहीं समझ पायी थी कि बच्चा के बाद ही पता चलता।"

डॉक्टर ने आपरेशन करके मृत बच्चे को निकाल दिया। शिवानी के जिद्द करने पर बच्चे को उसकी बगल में रखा, शिवानी उससे कुछ इस तरह लिपट गयी मानो वह जीवित हो। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि बच्ची मृत थी, वह बार-बार अपनी उँगलियाँ को नाक के पास ले जाती, उसके वक्ष के ऊपर रखती।

राजन की माँ ने कहा- "उसकी अन्त्येष्टि कर दो। कहीं बहा दो या दफना दो।" राजन का दिल दहल उठा-"जिस सन्तान ने साँस तक नहीं ली थी उसकी अन्त्येष्टि । तुम भी क्या किस्मत लेकर जन्मे हो राजन!"

शाम को दोनों हाथों में बच्चे को सम्भालकर आहिस्ता-आहिस्ता डगों को बढ़ाकर राजन श्मशान की ओर चल पड़ा। चलते-चलते उसने हठात् महसूस किया कि बच्ची का पैर हिल रहा है। वह स्तम्भित होकर रुक गया। दो-चार बार बच्ची के पैरों को जोरों से हिलाया फिर उल्टे पाँव दौड़ता हुआ अस्पताल में दाखिल हुआ- "डॉक्टर साहब! देखिए । मेरी बेटी जिन्दा है, जिन्दा है।"

-"आई एम सॉरी शी वॉज बार्न डेड। तुम्हें भ्रम हुआ है।"

-"अभी थोड़ी देर पहले इसने पैर चलाया था। मैं गलत बोल रहा हूँ क्या ? पूरे होशोहवास में हूँ।"

डॉक्टर ने राजन की पीठ थपथपायी और अस्पताल की गाड़ी से श्मशाम भेज दिया।

राजन का मनोबल अब पूरी तरह टूट चुका था। वह अधिकतर खामोश, अनमना, गुमसुम बैठा रहता, भाग्य और भगवान को कोसता। वह अक्सर कहा करता "शिवानी! तुम्हारी बेटी बिलकुल तुम्हारी जैसी थी। तुम्हारे जैसे घने बाल, तुम्हारी जैसी गोरी, तुम्हारी जैसी खूबसूरत आँखें, सब कुछ हू-ब-हू तुम जैसा।”

शिवानी तसल्ली देती- "आप मुझे देखिए, जरा मेरे बारे में सोचिए, मैं दिन-भर अकेली रहती हूँ, न घर में चैन न बाहर फिर भी भूले रहने की चेष्टा करती हूँ। आप ही अगर इस तरह रहेंगे तो मेरा क्या होगा ? मैं किस तरह जीऊँगी ? किसके लिए जीऊँगी ?"

एक दिन राजन शिवानी के साथ गंगा तट पहुँचा। इधर-उधर टहलने के बाद एक जगह रुककर उसने कहा- "देखो! देखो शिवानी ! इस आधी ईंट को मैं ढूँढ रहा था, यहीं पर तुम्हारी बेटी को मैंने दफनाया था, वह हमेशा के लिए सो गयी है, यहीं सोयी हुई है......देखोगी ?....... एकदम तुम्हारी जैसी शिवानी, एकदम तुम जैसी।" शिवानी पीछे मुड़कर दौड़ने लगी, राजन भी उसके पीछे-पीछे चलने लगा।

घर लौटकर अत्यन्त भावुक होकर शिवानी ने कहा-"हमारे जीवन का सुनहरा समय सिर्फ बच्चे को जन्म देने की कोशिश में निकलता जा रहा है। मेरी मानिए, अनाथाश्रम चलिए, एक बच्चा ले आते हैं। हमारा आँगन भी खुशियों से भर जाएगा।" राजन खीझ उठा- "शिवानी इससे पहले भी तुम कई बार कह चुकी थी। बेकार की

बातें मत किया करो। मुझे बच्चा चाहिए लेकिन वह बच्चा जो प्रेम का प्रतीक हो। हम दोनों डॉक्टर ने आपरेशन करके मृत बच्चे को निकाल दिया। शिवानी के जिद्द करने पर बच्चे को उसकी बगल में रखा, शिवानी उससे कुछ इस तरह लिपट गयी मानो वह जीवित हो। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि बच्ची मृत थी, वह बार-बार अपनी उँगलियाँ को नाक के पास ले जाती, उसके वक्ष के ऊपर रखती।

राजन की माँ ने कहा- "उसकी अन्त्येष्टि कर दो। कहीं बहा दो या दफना दो।" राजन का दिल दहल उठा-"जिस सन्तान ने साँस तक नहीं ली थी उसकी अन्त्येष्टि । तुम भी क्या किस्मत लेकर जन्मे हो राजन!"

शाम को दोनों हाथों में बच्चे को सम्भालकर आहिस्ता-आहिस्ता डगों को बढ़ाकर राजन श्मशान की ओर चल पड़ा। चलते-चलते उसने हठात् महसूस किया कि बच्ची का पैर हिल रहा है। वह स्तम्भित होकर रुक गया। दो-चार बार बच्ची के पैरों को जोरों से हिलाया फिर उल्टे पाँव दौड़ता हुआ अस्पताल में दाखिल हुआ- "डॉक्टर साहब! देखिए । मेरी बेटी जिन्दा है, जिन्दा है।"

-"आई एम सॉरी शी वॉज बार्न डेड। तुम्हें भ्रम हुआ है।"

-"अभी थोड़ी देर पहले इसने पैर चलाया था। मैं गलत बोल रहा हूँ क्या ? पूरे होशोहवास में हूँ।"

डॉक्टर ने राजन की पीठ थपथपायी और अस्पताल की गाड़ी से श्मशाम भेज दिया।

राजन का मनोबल अब पूरी तरह टूट चुका था। वह अधिकतर खामोश, अनमना, गुमसुम बैठा रहता, भाग्य और भगवान को कोसता। वह अक्सर कहा करता "शिवानी! तुम्हारी बेटी बिलकुल तुम्हारी जैसी थी। तुम्हारे जैसे घने बाल, तुम्हारी जैसी गोरी, तुम्हारी जैसी खूबसूरत आँखें, सब कुछ हू-ब-हू तुम जैसा।”

शिवानी तसल्ली देती- "आप मुझे देखिए, जरा मेरे बारे में सोचिए, मैं दिन-भर अकेली रहती हूँ, न घर में चैन न बाहर फिर भी भूले रहने की चेष्टा करती हूँ। आप ही अगर इस तरह रहेंगे तो मेरा क्या होगा ? मैं किस तरह जीऊँगी ? किसके लिए जीऊँगी ?"

एक दिन राजन शिवानी के साथ गंगा तट पहुँचा। इधर-उधर टहलने के बाद एक जगह रुककर उसने कहा- "देखो! देखो शिवानी ! इस आधी ईंट को मैं ढूँढ रहा था, यहीं पर तुम्हारी बेटी को मैंने दफनाया था, वह हमेशा के लिए सो गयी है, यहीं सोयी हुई है......देखोगी ?....... एकदम तुम्हारी जैसी शिवानी, एकदम तुम जैसी।" शिवानी पीछे मुड़कर दौड़ने लगी, राजन भी उसके पीछे-पीछे चलने लगा।

घर लौटकर अत्यन्त भावुक होकर शिवानी ने कहा-"हमारे जीवन का सुनहरा समय सिर्फ बच्चे को जन्म देने की कोशिश में निकलता जा रहा है। मेरी मानिए, अनाथाश्रम चलिए, एक बच्चा ले आते हैं। हमारा आँगन भी खुशियों से भर जाएगा।" राजन खीझ उठा- "शिवानी इससे पहले भी तुम कई बार कह चुकी थी। बेकार की बातें मत किया करो। मुझे बच्चा चाहिए लेकिन वह बच्चा जो प्रेम का प्रतीक हो। हम दोनों की शक्ल की सन्तान, जिसे पालने में स्वर्ग का सुख मिले। पराया बच्चा पराया होता है।" अपनी बढ़ती उम्र और शारीरिक दुर्बलता से शिवानी की परेशानी बढ़ने लगी थी। डॉक्टर ने सलाह दी कि अब गर्भधारण करना उचित नहीं होगा। अपंग बच्चा जन्म ले सकता है। शिवानी की जान को भी ख़तरा हो सकता है।

किन्तु शिवानी और राजन दोनों की ही अवधारणा थी कि पिछली बार बुखार तेज होने के साथ ही अगर अस्पताल पहुँच जाती तो ख़तरा टल सकता था। इस बार अतिरिक्त सावधानी बरतने की ज़रूरत है। अच्छे डॉक्टर की देखरेख में रहने की ज़रूरत है।

देखते-देखते एक साल बीत गया। किसी प्रकार की सम्भावना न देख राजन ने कहा- "शिवानी ! अब लग रहा है सारी संभावनाएँ खत्म हो गयी हैं। चलो, 'मदर टेरेसा' के आश्रम से एक बच्चा ले आयें।”

-"आपने बहुत अच्छा सोचा है।" राजन का हाथ पकड़कर शिवानी ने अपनी प्रसन्नता व्यक्त की।

उन दोनों की कहानी सुनने के बाद 'मदर' ने उन्हें तीन माह बाद बुलाया। दूसरी मुलाकात के बाद 'मदर' ने बच्चा देने का आश्वासन दिया, किन्तु उन्होंने दो शर्तें रखीं “पहली, आप दोनों एकदम सुनिश्चित कर लें कि अब सन्तान होने की कोई सम्भावना नहीं है, और दूसरी, जिस सन्तान को मैं दूँगी उसके रूप-रंग, जाति-धर्म और लिंग के बारे में आप लोग पहले से जानकारी नहीं चाहेंगे, उसे राजी-खुशी ले जाएँगे।" उन दोनों ने 'मदर' की दोनों शर्तें मान लीं।

'मदर' ने कहा- "आज से तीन माह बाद यानी अगस्त की पहली तारीख को सुबह आठ बजे आप दोनों एक साथ आइएगा।"

आश्रम की एक शिष्या ने जानकारी दी कि कठिन परीक्षा के बाद ही 'मदर' बच्चा भेंट करती है।

किन्तु इसी बीच शिवानी ने फिर गर्भधारण कर लिया था। यह दूसरा अवसर है जब वह अपनी मंजिल के बहुत करीब है। डॉक्टर द्वारा दी गयी तारीख़ के हिसाब से अभी तीन दिन बाकी थे कि शिवानी अचानक बाथरूम में फिसल गयी। उसे तत्काल अस्पताल में एडमिट कराया गया। ऑपरेशन करके बच्चा निकाला गया। शिवानी की हालत नाजुक हो गयी। उसे ऑक्सीजन पर रखा गया। रात भर वह स्पेशल केयर यूनिट में रही।

भोर होते-होते शिवानी होश में आ गयी। उसकी निगाहें बिस्तर पर नवजात शिशु को तलाशने लगीं। नर्स ने कहा- "लड़की हुई है......कुछ कॉम्प्लिकेशन के कारण उसे चिल्ड्रेन हॉस्पिटल में भेजा गया है।"

स्टैण्ड पर लटकती ग्लूकोज की बोतल व थोड़ी दूर पर रखी ऑक्सीजन सिलेण्डर को देख शिवानी चकित हुई। दिनभर में नर्स कई बार भीतर गयी और बाहर निकली। हर बार शिवानी ने बेटी के बारे में पूछा। हर बार नर्स ने कहा घबराने की कोई बात नहीं है, वह ठीक हो जाएगी, शिवानी ने कई बार राजन से मिलने की इच्छा जाहिर की, हर बार नर्स ने कहा डॉक्टर और नर्स के अलावा कोई भी अन्दर नहीं आ सकता है। थोड़ा इन्तजार करना पड़ेगा।

शाम को दोनों हाथों से बच्चे को सम्भालते हुए राजन कमरे के भीतर दाखिल हुआ। बच्चे को शिवानी के पास लिटाकर राजन शिवानी को देखने लगा। बच्ची रोने लगी। शिवानी ने अपनी देह को हल्का तिरछा किया। कुछ देर तक उसे ध्यान से देखने के बाद उसे अपनी छाती से लिपटा लिया। बच्ची शान्त हो गयी।

पलंग पर टेक लगाकर शिवानी की ओर पीठ कर राजन ने कहा- "शिवानी। तुम्हारी बेटी शिवानी! तुम्हारी बेटी.......शिवानी!......तुम्हारी बेटी......."

"आप पिता बन गये हैं।" शिवानी ने मृदु स्वर में कहा। 
राजन ने एक साँस में कहा- "बच्चेदानी को निकाल देना पड़ा था वरना तुम्हें बचाना सम्भव न होता...... तुम्हारी ननद से सब कुछ सुनने के बाद 'मदर' ने इस लड़की को दिया. ...सात दिन पहले इसे जन्म देने के बाद इसकी माँ.....

-"मैं हूँ ना...... आपने ठीक ही किया है, मैं तो कब से कह रही थी...... इधर आइए, देखिए इसे। यह बिलकुल वैसी ही है ना जिसे आपने दफनाया था? इसकी सूरत मेरी जैसी है ना ? यह मुझ पर पड़ी है ना ? यह हमारी अपनी बेटी लग रही है ना ?"

राजन खुशी से उछल पड़ा, पीछे पलट शिवानी को देखकर उसने कहा- "हाँ, हो शिवानी। तुम एकदम ठीक कह रही हो, हमारी ही बेटी है.....देखो! देखो! यह किलकारी मारकर हंस रही है....... अभी से बाप को पहचानने लगी है, मेरे पास आना चाहती है।"

राजन ने दोनों हाथ बच्चे को और बढ़ा दिया। शिवानी ने उसके हाथों को अपने हाथों में लेकर चूमा। उसकी आँखें नम हो गयीं।

राजन ने शिवानी को गौर से देखा। वाकई उसकी सारी उत्तेजना खत्म हो गयी थी। उसके चेहरे पर अद्भुत चमक थी। वह दुनिया की सबसे खूबसूरत नारी लग रही थी, और उसकी बगल में वह बच्ची उसकी अपनी सन्तान लग रही थी।

अचानक राजन का ध्यान शिवानी के सिर के सफेद बाल पर अटक गया। उसने उस बाल को आहिस्ता से उखाड़ लिया और खिड़की के क़रीब जाकर उसे नीचे फेंक दिया, फिर उस लम्बे बाल को हवा में लहराते, नीचे उतरते देखने लगा था।


© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)
** ' इन्द्रप्रस्थ भारती ' अक्टूबर--दिसम्बर 2002 में प्रकाशित ।