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Saturday, January 28, 2023

कहानी: 'वेब कैम' में देखिए'



मोबाइल की रिंग बजी और भतीजे अविनाश का नाम देख चाचा अतुल कुमार उठ बैठे ।
-'हाँ बच्चा बोलो! '  
-'प्रणाम गुरुजी ।'
-'खुश रहो। शतायु भवः ! कब आ रहे हो ? इतवार को ही पोते के आने की खुशी में डिनर है। सारा बंदोवस्त हो गया है। गाना-बजाना भी रखा है। शहर की जानी-मानी आर्केस्ट्रा पार्टी को बुक किया है... भाई साहब और भाभी भी साथ आ रहे है ना ?'
-'गुरूजी ! वेरी सॉरी, हम लोगों का आना नहीं होगा।" 
-'क्या ???..... इतने सारे लोगों को दावत दे रखी है, सारे इनविटेशन कार्ड्स बँट गए हैं, जिसे जो एडवांस देना था दे चुका हूँ, और तुम कह रहे हो  नहीं आओगे ? ...इंडिया आने से बहुत पहले तुमसे बात कर ली थी, तुम्हारी रज़ामंदी के बाद ही मैंने सारा आयोजन किया है। पिछले हफ़्ते भाभी और भाई साहब से भी बात हुई थी, उन्हें एक-एक बात की जानकारी है। क्या हो गया अचानक? कौन सी आफ़त आ पड़ी है ?'
-' गुरुजी आपकी बहू सीमा इन दिनों मायके में है। वह कह रही थी कि आपका पोता अमन अपने नाना-नानी से ऐसा चिपक गया है कि नाना-नानी उसे छोड़ना नहीं चाह रहे हैं।' 
"भाईसाहब क्या कह रहे हैं?"
-'पापा कह रहे हैं तुम लोगों को क्या करना क्या नहीं करना तुम लोग तय करो, जो उचित लगे वही करो।'
-'और तुम्हें क्या उचित लगा ? यही कि चाचा से वेरी सॉरी कह दो ? यही कि बूढ़े चाचा-चाची के सेंटिमेंटस को पैरों तले रौंद दो ? ऐसा तो तुम्हारा संस्कार न था !.......कोलकाता से पटना है ही कितना दूर ?... रात को ट्रेन में बैठो और सुबह पहुँच जाओ फिर चाहे इतवार को ही रात की गाड़ी पकड़ लो या अगले दिन सुबह की गाड़ी।' 
- 'ऐसा ही प्रोग्राम बनाने के लिए मैंने आपकी बहू से कहा था मगर उसका मूड ही नहीं है। चाचा जी ! आपकी बहू बड़े घर की बेटी है, सारी सुख-सुविधाएँ भोगती आ रही है, उसके पचास नखरें हैं, मैं जोर-ज़बरदस्ती भी नहीं कर सकता...ये लीजिए सीमा आ गयी है, आप ज़रा उसे समझाइए, शायद आपकी बात मान जाए।'

-'चाचा जी प्रणाम ! मैं सीमा।'
-'खुश रहो। सदा सुहागिन रहो ! तुम लोग कब आ रहे हो ?'
 -"चाचा जी, इस बार आना नहीं होगा। अविनाश ने आपसे नहीं कहा था क्या ? मैंने तो पहले ही उसे बता दिया था कि आपको सूचित कर दें। मात्र पंद्रह दिन की छुट्टी बड़ी मुश्किल से मिल पायी है, छह दिन बीत गए हैं। सात साल बाद आयी हूँ । मायके में रहना जरूरी है, यहाँ रिश्तेदारों से भी मिलना हैं, कई जरूरी काम भी है, बच्चे के साथ इतना भागम-भाग मुझसे नहीं हो पाएगा।' 
-'हवाट ! अमेरिका से इंडिया आ सकती हो और कोलकाता से पटना के लिए भागम-भाग ?'
- 'चाचाजी, अमन रो रहा है, मैं इन्हें देती हूँ...'

- 'हाँ अविनाश ! बहू को सुना। तुम्हारा क्या कहना है ?? 
"मेरा मन तो जाने का था मगर...'
- मगर क्या? पंद्रह दिनों में एक दिन भी चाचा-चाची के लिए नहीं निकाल सकते हो?"
-'चाचा जी ! सीमा यह भी कह रही थी कि आपका छोटा सा दो बेडरूम का फ्लैट है, ए0सी0 भी नहीं है, मई की गर्मी एक ही कूलर अमन को तकलीफ़ होगी. ...मात्र एक साल का, बच्चा अभी तक गर्मी नहीं झेली, कहीं फोड़ा-फुंसी निकल आये या लू लग जाए। जरा सोचिए आप ही का पोता है, कहीं सचमुच कुछ हो जाए तो सीमा मेरी जान खा लेगी।'
-'ओ०के०फाइन। मैं तुम लोगों के लिए होटल 'लवकुश' में दो दिन के लिए लक्जरी रूम बुक करा देता हूँ, एक ए0सी0 कार भी तुम्हारे डिस्पोजल में रहेगी, अपने पोते के लिए, इतना करने का दमखम अभी भी इस बूढ़े में है।'
-'चाचा जी, प्रोग्राम तो आपके घर के सामने खुले पार्क में है ना? मई की गर्मी, रात तक गर्म हवा चलती है।'
- 'पचास बहाने बनाते शर्म नहीं आती तुमको ?... जाने कब से पोते की आस में बैठा हुआ हूँ, कुलदीपक को कलेजे से लगाने के लिए मैं व्याकुल हूँ... तुम्हारी चाची की निष्प्राण सी देह में जान आ जाने की एक आख़िरी उम्मीद भी है मेरा कुलदीपक। सम्भव है कि उसे गोद में लेते ही उसकी बंद जुबान में जुम्बिश आ जाए...मुझे कुछ नहीं सुनना है, बहुत बोल चुके हो, यू विल हैव टू कॅम, यह तुम्हारे गुरू का आदेश है। चाचा की बात नहीं माननी है तो न मानो, गुरु आज्ञा पालन करना तुम्हारा धर्म है। हिंदू धर्म में गुरु का क्या स्थान है यह तुम्हें उपनयन संस्कार के समय ही बता दिया गया था, भूल कैसे गये? तुम धर्म पथ पर रहो, गुरू का शतकोटि आशीर्वाद लो। ईश्वर तुम्हारा मंगल करेगा। कुलदीपक को रिसीव करने के लिए मैं स्टेशन में मौजूद रहूंगा।' अतुल कुमार ने फोन काट दिया।
गुरू होने के नाते चाचा अतुल कुमार भतीजे अविनाश पर कुछ ज़्यादा ही अधिकार जताते हैं और अधिकारपूर्वक बातें करते हैं।

                    पटना आने से पहले अविनाश के पिता और चाचा दोनों के परिवार एक ही मकान में एक साथ वर्षों रहे हैं। अविनाश का जन्म-कर्म सब कुछ चाचा की आँखों के सामने हुआ। विज्ञान के अध्यापक अतुल कुमार ने अविनाश को बचपन से इंटरमीडिएट तक नियमित गणित और विज्ञान विषयों को पढ़ाया, उसे इंजीनियर बनने के योग्य बनाया। उपनयन संस्कार में मंत्र देने के कारण अविनाश उन्हें 'गुरुजी' का सम्बोधन देता है। 
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गुरू होने के नाते चाचा ने अविनाश को अपनी संतान से कमतर कभी नहीं देखा।

            अतुल कुमार चार भाई हैं। चारों भाइयों के बीच अविनाश के पिता के ही दो बेटे हैं बाकी सभी की बेटियाँ है। बेटियाँ अपने-अपने ससुराल में हैं। अविनाश का भाई जो अविनाश से दस वर्ष का बड़ा है पिछले बीस वर्षों से अमेरिका में रह रहा है। उसकी एक ही बेटी है।

जब से अविनाश के घर बेटा जन्मा वह बच्चा अविनाश के ताऊ, चाचा, पिता सभी के आँखों का तारा बन गया। किंतु कुलदीपक अमन के आने की सबसे अधिक खुशी शायद चाचा की हुई है और अविनाश इस बात से अनभिज्ञ नहीं है।

पोते की जन्म की ख़बर पाकर महीने भर बाद अतुल कुमार ने 'अखण्ड रामायण पाठ करवाया, अपार्टमेंट में एक-एक घर जाकर मिठाइयाँ बाँटी मिठाइयाँ देते हुए उन सबों से कहा- "भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन ली है, मेरा बेटा तो लौट नहीं सकता मगर भगवान ने मुझे मेरा पोता लौटा दिया है। आप लोग मेरे कुलदीपक को आशीर्वचन दीजिए, उसकी दीर्घायु की कामना करिए।'

महीनों से वे कहते रहे 'पोता आने वाला है। दादा-दादी से मिलने के लिए वह अमेरिका से आ रहा है। उसके आने पर हम खुशियाँ बांटेंगे, भव्य पार्टी देंगे बातें करते-करते खुशी के मारे उनकी आँखें भर आती, कंठ रूंध जाता।

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               अतुल जी का अपना एक बेटा था। बेटे की शादी के दो वर्ष बाद बहू ने पुत्र जन्म देकर खुशियाँ भी झोली में डाली थीं। पुत्र जन्म के एक महीने बाद मायके से लौट कर पोते को दादी की गोद में डालते हुए उसने बड़े दम्भ से कहा था- 'भगवान के लिए अब आप मेरे माता-पिता को कोसना छोड़ दीजिए। मेरे पिता जी मुँह माँगा दहेज तो न दे सके थे पर मैंने मांगी गयी दहेज को सूद समेत लौटा दिया है। मैं पराये घर की बेटी हूँ। यह लड़का तो आपके खानदान का है, सिर्फ़ इस कुल का । आपका वंशज ।

            मगर वंशज प्राप्ति का सुख अतुल कुमार के नसीब में न था । जब वह बच्चा तीन माह का था अतुल कुमार का बेटा अपनी साली की शादी में सपरिवार मीदनापुर गया हुआ था, वापसी में माओवादी हमले में उसकी बस चिथड़ी हो गयी थी, कोई भी न बचा था।
वह हादसा एक ऐसा बज्रपात था कि उसने अतुल कुमार की पत्नी के अस्तित्व को ही हिला कर रख दिया था। काफ़ी दिनों तक वह रोती-बिलखती बहू की बातों को दुहराती वह चीख उठतीं यह तुमने कैसा बदला लिया ? तुम कहती तो तुम्हारे पैरों पर मत्था टेककर माफ़ी मांग लेती। धीरे-धीरे उसकी दुर्बल देह निस्तेज, निष्क्रिय होती चली गई। एक दिन उन्हें तेज बुखार चढ़ा, दिमागी बुखार था। इलाज से बुखार तो उतर गया था किंतु उसकी जुबान हमेशा के लिए बंद हो गयी थी। एलोपैथी, होमियोपैथी, नैचुरोपैथी, वेद-हकीम, तंत्र-मंत्र, मंदिर-गिरजा सभी दुकानें सजी की सजी रह गयीं।

बेजान दीवारों को देखते और पत्नी का निरीह सा चेहरा और शब्दों भरी आँखों को निहारते हुए अतुल कुमार के जीवन के बीस वर्ष बीत गए थे।
पत्नी की दुर्दशा के लिए अतुल कुमार ख़ुद को कोसते हुए कहते हैं-प्रायः मैं उसे बेवज़ह डाँट कर कहता था क्या चपर-चपर करती रहती हो, जब देखो फ़ालतू  बकवक, इतनी बातूनी कि कान पक जाते है। अनावश्यक चिल्लाती रहती हो, धीरे से भी तो बोला जा सकता है। और वह नाराज़ होकर कहा करती आपको मालूम तो है मैं ऊँचा सुनती हूँ, आप चुप रहते हैं तो मुझे लगता आपने सुना ही नहीं, इसलिए जोर से बोलना पड़ता है...मेरे दोनों कान तरस गए हैं उसकी बोली सुनने के लिए एक चलती-फिरती लाश बन गयी है वह... पहले पता रहता तो उसकी आवाज़ टेप करके रख लेता, कितना अच्छा कंठ था उसका, कितना सुंदर गाना गाती थी, मैं अभागा उसके गाने की कदर न कर सका। मुझे प्रायश्चित करना ही था, सो कर रहा हूँ...फिर भी मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी है।'

अतुल कुमार की दर्द भरी दास्तान सुनने की आदी बन चुका था मैं। मार्निंग वाक् में हम दोनों साथ-साथ होते। उनके पास कहने के लिए एक ही कहानी थी। और मुझे मालूम था कि मुझे एक ही कहानी सुननी है फिर भी मैं सुनता क्योंकि मुझे यकीन था कि उसी से उनका जीवन गतिशील बना रहेगा।

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दो दिन बाद अतुल कुमार ने अविनाश को फोन मिलाया- -' हैलो ! अविनाश स्पीकिंग'...
-'चाचा बोल रहा हूं । परसो इतवार है। कब आ रहे हो ? किस गाड़ी से? '
- ' वेरी सॉरी, चाचा जी आपसे तो कह दिया था कि सम्भव नहीं है।' 
-"अरे! मैंने जो इतना सारा इंतज़ाम कर रखा है...'
-'बटन दबाइए मना कर दीजिए, और क्या करना? लोकल मामला ही तो है... बल्कि आप ऐसा करिए कि पटना लोकल न्यूज पेपर या 'विविध भारती' में विज्ञापन दे दीजिए कि विशेष कारणवश प्रोग्राम कैंसिल करना पड़ रहा है । आजकल कोई बुरा-उरा नहीं मानता बल्कि दावत-सावत एवैड करते हैं। टाइम ही किसके पास है, अधिकतर लोग लिफ़ाफ़ा में 'व्यवहार' भेजकर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा देते हैं।'
-'चलो वह मेरी समस्या है। मैं देखूंगा क्या करना, क्या नहीं करना... मगर यह बताओ शिष्य, क्या पोता देखने का मेरा सपना अधूरा रह जायेगा ?" 
-‘अगली मर्तबा आऊँगा तो जरूर मिलूँगा या फिर पहले से ख़बर कर दूँगा आपलोग यहीं आ जाइएगा।'
-'अगली मर्तबा ? शादी करके तुम चले गये फिर अब आये हो सात वर्ष बाद और तुम्हारा बड़ा भाई, शादी करके गया तो गया, अठ्ठारह वर्ष बीत गए।' 
-"नहीं चाचाजी, यहाँ माता-पिता है, आना तो होगा ही।
"कल क्या होगा किसने जाना ! अस्सी के क़रीब पहुँच रहा हूँ, पचास ठो रोग है, आँखों की रोशनी लगभग जा चुकी है और तुम्हारी चाची मुझसे पाँच साल की छोटी, पर लगती है मुझसे दस साल बड़ी... खैर ! कर ही क्या सकता हूँ, सब प्रभु की मर्जी । पोते का दर्शन हो जाता तो मन तृप्त हो जाता।'
-'अरे! अभी तक आपने पोते का दर्शन नहीं किया?'
-"क्या? क्या बोला?"
'फेसबुक' 'हवाटस ऐप पर पोते के सैकड़ों फोटो मैंने लगा रखा है, आप भी अपना एक प्रोफाइल बना लीजिए या फिर आप अपना 'मेल आइडी' बताइए मैं 'ई-मेल' कर दूंगा। आपके पास तो कम्प्यूटर होगा ही, नेट का कनेक्शन भी होगा।'
-'न मेरे पास कम्प्यूटर है और ना ही मुझे उसका ज्ञान है... और फिर जिसे कभी नहीं देखा उसका फोटो देखकर मन भी तो नहीं भरेगा....एक बार आ जाते मैं अपने लाल को देख लेता... तुमने गुरु आज्ञा भी नहीं माना...।'
-'चाचाजी, बुरा न मानिएगा, मेरे पापा मुझ पर इतना दबाव नहीं डालते जितना आप डाल रहे हैं...पापा तो 'फेस बुक' में फोटो देखकर मस्त रहते हैं। 
-"तुम्हारे पापा अमन के पैदा होने से पहले तुम्हारे पास चले गये थे, तीन महीने पहले ही लौटे हैं, पोते को दिन-ब-दिन बड़े होते देखे, उसे गोद में खिलाये, वे तो बिना फोटो देखे ही पोते को मन-मस्तिष्क में महसूस कर सकते हैं, मगर जरा मेरे बारे में सोचो मैंने उसे कभी नहीं देखा, उसका फोटो और किसी बच्चे का फोटो मेरे लिए एक बराबर, है कि नहीं?... आख़िर तुमने गुरू, की बात भी नहीं मानी... आई एम वेरी सॉरी माई सन। शायद मेरी ही गलती थी, मैं कुछ ज़्यादा ही 'गुरु दक्षिणा' पाने की उम्मीद कर रहा था।'
-'गुरू जी, प्लीज नाराज़ न होइए मै अमेरिका पहुँचकर आपको फोन करूंगा, टाइम बता दूंगा, आप किसी 'साइबर कैफे' में चले जाइएगा, मैं अमन को आपसे मिला दूंगा। उसे आप 'वेब कैम' में देखिएगा चलता-फिरता, जीता-जागता, शरारत करता हुआ, तुतलाता हुआ हर हरकत की झलक आप देख पायेंगे, आप उसे जी भर देखिएगा, जी भर बातें करिएगा।'
-"तुमने मेरे सारे अरमानों पर पानी फेर दिया, माठा कर दिया। होपलेस !'
-"पता नहीं क्यों आजकल के बूढ़े चीजों को समझना नहीं चाहते, खामख़ाह सेंटिमेंटल हो जाते हैं, वही घिसी-पिटी बातें, वही दकियानूसी सोच... पता नहीं मैंने क्या माठा कर दिया, बेवज़ह तिल का ताड़ बना रहे हैं। बी प्रैक्टिकल, लिव विद द टाइम चाचाजी ! लाइफ़ इज मूविंग वेरी फ़ास्ट़ मैंने कहा ना आपको अमन को देखने की इतनी इच्छा है तो 'वेब कैम' में देखिए।' 
अतुल कुमार की आँखों से आँसू बहने लगे, दिल की धड़कने तेज हो गयी, गला भर आया।

             शायद अविनाश ने फोन काट दिया था। आगे बोलने और सुनने के लिए कुछ शेष न था । मगर थरथराते होठों से अतुल कुमार अपनी बातें फोन पर मुँह लगाये कहते गये- 'मैं तुझे कैसे समझाऊँ दूधमुँहे पोते को इन बूढ़े हाथों में लेकर सीने से लगाकर कैसी सुखानुभूति होती है, पता नहीं कोई मुझसे ज्यादा पढ़ा-लिखा विद्वान आदमी या कोई कवि उस अनुभूति को शब्दों में कैद कर पाया है या नहीं, मैं तो इतना ही जानता हूँ कि दूध मुँह पोते के गालों में गाल लगाकर उसकी देह-गंध को जेहन में एक बार उतार लेता तो मेरे जर्जर क्षीण शरीर में एक दैविक ऊर्जा संचारित हो जाती... कुलदीपक का वह कोमल पावन स्पर्श मेरी अंतिम सांस तक मेरे अंतरमन में बना रहता...रुको रुको मेरी पत्नी को शायद दूसरा सदमा पहुँचा है, उसकी आँखों की पुतलियों कुछ क्षणों से स्थिर देख रहा हूँ..।' 

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© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "मोक्षदायिनी" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2021)
* ' साहित्य भारती ' उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की पत्रिका में 2011 में प्रकाशित।
'वैब कैम में देखिये' में  सुख, सुविधा ने सहजता को कितना बेदखल कर दिया है चाचा जो गुरु भी है, दुर्घटना में अपना सब कुछ खो चुके हैं और जीवन की इस रिक्तता को अमरीका में रह रहे भतीजे के बेटे  की साल गिरह अपने घर पर  मनाकर भरना चाहते है, उस पोते को हाथ से छूकर, गोद में बिठाकर जिस खुशी को पाना चाहते हैं उसे घर छोटा, समय नहीं है, पत्नी को मायके भी जाना है आदि अनर्गल कारण बताकर सारे आयोजन को ख़त्म कर देना, चाचा के प्रेम, पढाना लिखाना सब भूल जाना,उनके आग्रह पूर्ण निवेदन तक को अस्वीकार कर जन्मदिन को वैब कैमरा में देखने की बात कहकर मनोभावों पर आधात करता है ।
प्रोफेसर सुनीता त्यागी
( रिटायर्ड )
पीजी कॉलेज, बिजनौर 



Thursday, January 12, 2023

कहानी : बनवारी जीत गया


वकील ने जब बनवारी से कहा कि उच्च न्यायालय ने उसके पक्ष में निर्णय सुनाया है, पाँच-सात दिन में जजमेन्ट की कापी मिल जाएगी, फिर आदेश की कापी लेकर वह दफ्तर जाकर ड्यूटी ज्वाइन करें तो वह खुशी से झूम उठा। 'बनवारी जीत गया' 'बनवारी जीत गया' बोलकर घर में बच्चों जैसा चिल्लाने लगा। मिन्नत पर रखी हुई दाढ़ी बनवाकर गंगा नदी में बहाया, गंगा किनारे स्थित लेटे हनुमान जी के मन्दिर पर ग्यारह किलो लड्डू चढ़ाकर प्रसाद बाँटा। वकील साहब के घर भी एक किलो लड्डू दे आया। दो दिन बाद पति-पत्नी ने सत्यनारायण की कथा सुनी।

मगर उसकी सारी खुशी तब गम में तब्दील हो गयी जब वह अदालत का अंग्रेजी में दिया गया चार पेज का आदेश लेकर वकील के घर पहुँचा। बहुत देर तक आदेश पढ़ने के बाद वकील ने कहा कि जजमेन्ट में यह लिखा हुआ है कि दोनों पक्षों को सुनने के बाद अदालत इस नतीजे पर पहुँची है कि बनवारी के आचरण में कोई दोष अवश्य रहा होगा तभी उसे नौकरी से निकाल दिया गया था किन्तु उसे उसके दोषों से अवगत नहीं कराया गया था और न ही सुधरने का अवसर दिया गया था। जो कि 'नैसर्गिक न्याय' के विरूद्ध था। इसलिए अदालत ने यह राय जाहिर की है कि बनवारी को अभी भी अवसर प्रदान किया जा सकता है। कोर्ट के आदेश के मुताबिक प्रशासन बनवारी को दुबारा काम पर रख कर परख सकता है कि इस समय वह नौकरी में रखने योग्य है या नहीं।

वकील की बात सुनकर बनवारी चीख उठा- 'क्या ? शुरू से शुरू ? सात साल की सर्विस बेकार? इतने बरस बेकार ? छियालिस की उम्र में फिर से कैजुअल लेबर ?. ..मुझसे सारे जूनियर रेगुलर हो गये, कई पढ़े-लिखे लड़के बाबू बन गए और मैं... यह कैसा आदेश ? यह कैसा इन्साफ वकील साहब ?... इस दो टूक फैसले के लिए बारह वर्ष लग गए ?... छह साल फालतू ट्रिबुनल में पड़ा रहा, छह साल यहाँ। तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख। जब देखिए सरकारी वकील गायब रहते। मुश्किल से तारीखें लगती, उसके लिए भी रूपए देने पड़ते, आप भी अर्जी लगा देते थे बार-बार आपने मेरी लाइफ चौपट कर दी है। मुझे झूठा दिलासा देते रहे, रूपए ऐंठते रहें। मैं तो बर्बाद हो गया हूँ। बुढ़ापे के लिए कुछ रूपए पिताजी ने बचा कर रखा था, वो भी पाई-पाई निकल गया। मुकदमें के चक्कर में मेरे बच्चे अनपढ़ रह गये। आपको पहले बता देना चाहिए था कि मुकदमें में दम नहीं है।'

बनवारी ने अपना आपा खो दिया। वह अनर्गल बकने लगा। चीखने चिल्लाने लगा। वकील साहब के बेटे और दो अन्य लोगों ने उसे यह कहते हुए घर से निकाल दिया- 'ऑर्डर लेकर दफ्तर जाओ देखो क्या होता है। तुम्हारा भला ही होगा। तुम जीत गये हो। ठंडे दिमाग से काम लो।'

घर लौट कर बनवारी गुमसुम बैठा रहा। न कुछ खाया-पीया, न किसी से बातचीत की। शाम से रात, रात से भोर। बनवारी बिड़बड़ाता रहा, कभी घर के भीतर और कभी घर के बाहर चबूतरे पर लेटता। भोर होते-होते वह घर से निकल गया किसी से कुछ कहे बिना ।

दिनभर की इंतज़ारी के बाद जब शाम तक बनवारी घर नहीं लौटा तो उसके पास पड़ोस के दो-चार लोग तथा परिवार के सभी उसे ढूँढ़ने के लिए निकल पड़े। 

* * *

अपने भाई बहनों में वह अकेला ग्रेजुएट था। पढ़ाई में ठीक-ठाक था। किन्तु बी0ए0 पास करने के बाद तमाम प्रयासों के बाद भी तीन साल तक जब कोई नौकरी नहीं जुटा पाया तब मोटरकार ड्राइविंग सीख कर गाड़ी चलाने लगा। अपना काम और अपनी कमाई से उसने समझौता कर लिया था। जब कभी ज़्यादा पैसों की ज़रूरत होती तो वह दूर का सफर पकड़ लेता।

महीनों बाद बनवारी के पिता ने एक सरकारी दफ्तर के बड़ेबाबू के मार्फत दैनिक मजूरी के आधार पर दफ्तर की गाड़ी चलाने का काम ढूँढ़ निकाला और बनवारी को ज्वाइन करवाया। यही था बनवारी के जीवन का टर्निंग पाइन्ट । संघर्ष की शुरूआत।

कैजुअल लेबर बनने के बाद उसकी आमदनी आधी हो गई। बीबी बच्चों की जरूरतें पूरी नहीं कर पाता। एक दिन उसने नौकरी छोड़ने का मन बना लिया किन्तु उसके पिता ने उसे रोका। उन्होंने समझाया कि तीन-चार साल काम करने के बाद उसकी सेवा नियमित हो जाएगी, पढ़ा लिखा होने के कारण वह आगे चलकर बाबू, बड़ा बाबू बन जाएगा, विभागीय इम्तहान पास कर लेने पर अधिकारी तक बन सकता है। कई ऐसे लोगों के नाम गिनाते हुए उन्होंने कहा कि सरकारी नौकरी तो मिलने से रहा, पीछे के रास्ते से नौकरी पाने का यही एक उपाय है। उन्होंने समझाया कि सारी सुख सुविधाएँ, पदोन्नति, पेंशन सब कुछ हासिल करने के एवज में चार-पाँच साल की तंगी, तकलीफ क्या मायने रखती। बनवारी को बात समझ में आ गयी और उसने वही नौकरी जारी रखी।

सात वर्ष कैजुअल लेबर की हैसियत से काम करने के बाद एक दिन बनवारी को पंद्रह दिनों के लिए बिठा दिया गया। पंद्रह दिनों के बाद जब बनवारी दफ्तर गया तो लेबर इंचार्ज ने दस रोज बाद मिलने कहा। यह सिलसिला करीब दो महीना चला फिर एकदिन लेबर इंचार्ज ने कहा कि वह घर बैठे जब ज़रूरत होगी, बुला लिया जाएगा। 

इंचार्ज से बिना कुछ कहे बनवारी सीधा अनुभाग अधिकारी से मिला और पूछा "बताइए मुझे क्यों बैठा दिया गया?"

'जगह नहीं है।' अधिकारी ने कहा।

-'जगह नहीं? दसियों जगह खाली पड़ी हुई है। मुझसे जूनियर लोग सब लगे हुए हैं, तीन नये लड़कों को मेरे साथ बैठा दिया गया था वे भी रख लिए गये हैं। बताइए मुझे क्यों नहीं ड्यूटी दे रहे हैं? मैं काफी पुराना हूँ। मेरे साथ ऐसा अन्याय नहीं कर सकते। क्या कारण है बताइए।'

अधिकारी ने कहा- 'आई एम सॉरी ऊपर का आदेश है मेरी मर्जी नहीं चलेगी।'

-बड़े साहब के घर का नौकर थोड़े ना हूँ जो उनकी मर्जी चलेगी? दफ्तर के नियम-कानून क्या ताक पर धरे रह जायेंगे?' बनवारी ने उत्तेजित होकर कहा।

-'तुम जो कुछ कह रहे हो हम समझ रहे हैं, तुम्हारे साथ हमारी हमदर्दी है।

'हमें किसी की हमदर्दी नहीं चाहिए। हक चाहिए। इतने वर्षों से मेहनत करता आ रहा हूँ, बीस दिन का पगार तीसों दिन की ड्यूटी। दिन-दिन भर, रात-रात भर गाड़ी चलायी और क्या करता? लगातार दो वर्ष प्रतिवर्ष दो सौ छह दिन काम करने के बाद कैजुअल लेवर को रेगुलर कर दिया जाना चाहिए। मेरे नीचे कई लोगों की नौकरी साल भर की भी नहीं हुई थी कैसे रेगुलर कर दिया गया? सरकारी आदेश के अनुसार मेरा हक बनता। आप ही ने फाइल नहीं बढ़ायी होगी।

-'हम तभी फाइल बढ़ाते हैं जब साहब का हुकुम होता है। साहब तुमसे इतना खफा है कि वह तुम्हारी सूरत तक नहीं देखना चाहते। मैंने तुम्हें कई बार समझाया था मगर तुमने सुना नहीं।...तुम्हें जिस काम पर साहब ने लगाया था उसे ठीक से नहीं किया था।' 

-'किसने कहा आपसे? साहब ने जासूसी करने कहा था हमने किया था। हमें जितनी जानकारी मिल पाती थी हम बता दिया करते थे और क्या करना था हमें? मेरे कहने से क्या अध्यक्ष महोदय हड़ताल बंद करते? मैं ठहरा कैजुअल लेबर बाबू लोगों के आन्दोलन से मेरा क्या लेना-देना?"

-'तुम्हारे कारण बड़े साहब की कितनी बदनामी हुई, पूरा दफ्तर बदनाम हुआ, सारे लोग जाने क्या कुछ बक रहे हैं और तुम पूछते हो कि क्या किया? बड़े लोग बड़े होते हैं, साहब ने ज़रा सा इम्पटिंस क्या दिया तुम्हारे पर निकल आये।

-'उनके बारे में किससे क्या छिपा है? किसे नहीं पता था कि दफ्तर के चौकीदार मिलिटरी कैन्टीन से दारू लाकर साहब के घर पहुँचाते थे?...फौआरा चौराहे वाला किस्सा किसे नहीं मालूम? अख़बार में ख़बर छपी थी। सड़क के किनारे गाड़ी खड़ी करके गाड़ी के अंदर क्लर्क निशिकुमारी के साथ...डॉ0 मनीष ने उन्हें मोटरकार से उतार कर नाम पूछा था फिर दो थप्पड़ मारकर उनका नशा उतार दिया था..... बताइए आपको मालूम था कि नहीं? निशि कुमारी के साथ साहब का अवैध सम्बन्ध किससे छिपा है ? देर रात तक साहब के घर पर ठहरती है, कॉलोनी के लोग क्या अन्धे हैं?'

अधिकारी का चेहरा तमतमा उठा। उन्होंने गुस्सा झाड़ा-'शट अप ! इतने दिनों में अनुशासन में रहना नहीं सीखा नौकरी क्या करोगे? अपने लिए ज़रा सा पछतावा तो दूर उल्टा जुबान लड़ा रहे हो? गेट लॉस्ट ।'

फिर उन्होंने अपने अनुभाग के लोगों को इशारा किया कि बनवारी को बाहर निकाल दिया जाए। एक ने कॉलर पकड़ा, एक ने हाथ, फिर सबों ने मिलकर उसे बाहर निकाल दिया।

बाहर निकलते-निकलते बनवारी चीखता रहा- 'साहब के घर आलमारी भेजी, कालीन, पर्दे और जाने क्या-क्या भेजा। दफ्तर का सामान बिना नियम भेजा। आप ही लोगों ने चमचागीरी कर सिर चढ़ाया। आप ही लोगों ने नेताओं से बहुत कुछ कहा...प्रशासन के दलाल हैं आप सब।
चमचे, चापलूस, कायर हैं सब के सब...मैंने किसी से कुछ नहीं कहा। मैंने कोई गलत काम नहीं किया है।'

अधिकारी ने केयरटेकर को लिखित आदेश देकर कार्यालय के भीतर बनवारी का प्रवेश वर्जित कर दिया। 
एक दिन ऑफिसर्स कॉलोनी में जाकर बनवारी ने जब साहब से मिलना चाहा तो गार्ड ने यह कह कर उसे रोक दिया कि साहब का ऑर्डर है कि उसे कॉलोनी के भीतर न घुसने दिया जाए। बनवारी ने जब जोर-जबरदस्ती घुसने की कोशिश की तो गेटकीपर ने उसे बताया कि उसकी बात न मानने पर उसे पुलिस के हवाले कर दिया जाएगा, नौकरी पर लौटने की थोड़ी-बहुत उम्मीद जो बची हुई है वह भी ख़त्म हो जाएगा।

निरुपाय होकर बनवारी ने रजिस्टर्ड डाक द्वारा कार्यालय को पत्र भेजा। पत्र में उसने जानना चाहा कि उसे किस वज़ह से बिठा दिया गया। उसने यह भी अपील की कि अगर अनजाने में उससे गलती हो गयी हो तो उसे माफ़ कर दिया जाए एवं उसे तत्काल ड्यूटी पर बुला लिया जाए।

एक महीने बाद उत्तर न पाकर उसने रिमांइडर भेजा। थोड़े-थोड़े दिनों के बाद कई रिमांइडर भेजने के बाद बनवारी ने मान लिया कि पत्र लिखने से फायदा नहीं है। उसने अपना प्रयास जारी रखा। परिवार चलाने के लिए वह फिर से प्राइवेट टैक्सी चलाने लगा।
* * *

दुबारा नौकरी हासिल करने के लिए ट्रेड यूनियन के नेताओं को काफी मशक्कत करनी पड़ी। विभिन्न कर्मचारी संगठनों द्वारा उनसबों का मुद्दा उठाया गया। विभिन्न संगठनों द्वारा सामूहिक हड़ताल करने की धमकी दी गयी। राजनेताओं द्वारा दबाव डाला गया तब जाकर धीरे-धीरे एक-एक करके सबकी वापसी हुई। किन्तु बड़े-बड़े राजनेताओं के दबाव के बावजूद सभी को कुछ न कुछ सज़ा मिली। किसी को चार तो किसी को पाँच इन्क्रिमेन्ट पीछे धकेल दिया गया, और किसी किसी की नौकरी नये सिरे शुरू हुई।

यूनियन के सारे नेताओं को बिना शर्त माफी मांगनी पड़ी। आंदोलन के दौरान काम-काज का जो नुकसान हुआ था उन सभी को उसकी जिम्मेदारी लेनी पड़ी। आरोप-पत्रों में उल्लिखित सत्य-मिथ्या आरोपों को स्वीकारना पड़ा।

नेताओं की वापसी के थोड़े समय बाद यूनियन की मान्यता बहाल कर दी गयी किंतु यूनियन चलाने के लिए कठिन शर्तें भी लगा दी गयी। यूनियन का पुनर्गठन हुआ। नेता लोग दुबारा अपने-अपने पदों के लिए चुन लिए गए। उन सबों का मनोबल टूट चुका था। यूनियन दन्त विहीन हो गया था। प्रशासन के विरूद्ध चूँ बोलने की हिम्मत किसी में नहीं थी। प्रशासन के साथ मिल-मिलाकर, चिरौरी कर अगर काम बन जाता तो ठीक अन्यथा समस्याएँ अनसुलझी रह जाती।

अपनी समस्या से निजात पाने के लिए बनवारी प्रायः नेताओं से मिला करता पर हर बार उसे एक ही उत्तर मिलता-'इस साहब के रहते तुम्हारा भला नहीं होना है।' इस पर बनवारी ने एक दिन धमकी दी कि अगर उसका मामला नहीं उठाया जाता तो वह खुदकुशी कर लेगा। यूनियन ने प्रशासन के साथ होने वाली तिमाही मीटिंग का जो एजेंडा बनाया उसमें बनवारी का मुद्दा शामिल कर लिया। मगर प्रशासन ने उसके मुद्दे को एजेंडा में शामिल करने की अनुमति नहीं दी। प्रशासन का कहना था कि कैजुअल लेबर कर्मचारी ट्रेड यूनियन के दायरे में नहीं आता। प्रशासन ने यह भी सूचित किया कि अब कुशल-अकुशल किसी प्रकार श्रमिक विभाग द्वारा नहीं रखा जाएगा। आउट सोर्सिंग होगी यानी कि ठेकेदारों के मार्फत मजूर रखा जाएगा।

नेताओं ने बनवारी को कोर्ट जाने की सलाह दी और कोर्ट में लड़ने के लिए उन सबों ने चंदा इकट्ठा करके कुछ रूपए बनवारी को दे दिए। 
* * *

पिछले आन्दोलन में हुए नुकसान के कारण सारे नेता इतने सहमे हुए थे कि यूनियन की आमसभा बुलाने से पहले जब वे एजेंडा देने जाते तभी वे कह आते कि कर्मचारियों के दिल जीतने के लिए वे लोग प्रशासन के खिलाफ कुछ औपचारिक नारेबाजी करेंगे, दो-चार शब्द प्रशासन के खिलाफ भी कहेंगे जिसे वे अन्यथा न लें।

एकाध स्वार्थपरायण नेता तो आमसभा समापन के तुरंत बाद बड़े साहब को सूचित कर देते कि मीटिंग में क्या-क्या बातें हुई, अगर किसी ने उलुल-जुलूल बका था तो किसने बका था।

उस दिन एक ऐसी ही मरियल आमसभा कार्यालय परिसर में नीम पेड़ के नीचे चल रही थी। चूँकि अखिल भारतीय कर्मचारी संघ के आह्वान पर आमसभा बुलायी गयी थी, और मुद्दा वेतन आयोग गठन करने तथा महंगाई भत्ता बढ़ाने का था, इसलिए कर्मचारियों की उपस्थिति कुछ ठीक-ठाक थी।

भाषण के दौरान अचानक एक टैम्पो हहराती कार्यालय के भीतर प्रवेश कर नीम पेड़ के पास जाकर रूक गई। गाड़ी से कई लोग उतरे। दो औरतें भी उतरी। गाड़ी के भीतर से बनवारी की लाश उतारी गयी। चारों ओर सन्नाटा पसर गया।

पाँच-छह लोगों ने बनवारी का शव ढोकर नीम के पेड़ के नीचे चबूतरे पर रखा। बनवारी की पत्नी ने चबूतरे पर चढ़कर माइक थाम लिया। वह बोली-"भाइयों! बहनों! मेरा पति मुकदमा जीत गया...फिर से कैजुअल लेबर पद पर रखने का आदेश हुआ है। छियालीस साल की उम्र में फिर से शुरू? इस आदेश से उन्हें इतना धक्का लगा कि उन्होंने आत्महत्या कर ली। नहीं रहे मेरे बच्चों के बाप, नहीं रहे मेरे.... (रुदन)... कोर्ट के चक्कर में घर का लोटा कम्बल तक बिक गया, मेरा घर उजड़ गया (रूदन) ....साहब ने उन्हें निकाल दिया था। साहब ने आरोप लगाया था कि उन्होंने ठीक से जासूसी नहीं की थी, आप लोगों का साथ दिया था....आप लोग उनके लिए कुछ नहीं कर सके, कोर्ट का रास्ता दिखा दिया...जब तक आप लोग गुलाम बने रहेंगे, डरते रहेंगे, गरीब लोगों का शोषण होता रहेगा, गरीब लोग इसी तरह मरते रहेंगे।... प्रार्थना है आप लोगों से कि कृपया दूसरा बनवारी न बनने दें।" उसके हाथ से माइक छूट गया। वह फूट-फूट कर रोने लगी। भीड़ में से किसी ने आवाज लगायी 'इनकलाब जिन्दाबाद ! भ्रष्ट प्रशासन मुर्दाबाद!"

-'मुर्दाबाद! मुर्दाबाद!' के नारे गूंज उठे। - बनवारी की बीबी को नौकरी दो!'

-"नौकरी दो! नौकरी दो!'

-'इन्साफ दो!'

-इन्साफ दो ! सैकड़ों लोगों की भीड़ बनवारी की लाश और उसके परिवार के साथ बड़े साहब के कमरे की ओर चल पड़ी।

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "मोक्षदायिनी" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2021)


कहानी- फकीर


अपने कार्यालय के भीतर प्रवेश करते समय मैंने देखा कि पंडित की चाय की दुकान पर बहुत भीड़ है, हो-हल्ला हो रहा था। भीड़ देख पास से गुजरने वाले रुकते जा रहे थे। लंच के समय हम उसी दुकान पर मजमा लगाते। राजनीतिक चर्चायें
करते, हँसी-मजाक करते। हमने उस जगह का नाम 'नुक्कड़' रखा था। मुझे दफ्तर के भीतर लगी बायोमैट्रिक मशीन पर अंगूठे का निशान देकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की जल्दी थी। यह मशीन हाल ही में आयी थी। सुबह-शाम उसे अंगूठा दिखाना होता और टाइम नोटिंग के साथ हमारी उपस्थिति दर्ज हो जाती।

हाजिरी वाच करने के लिए मशीन हमारी बॉस बन गयी थी और हम सब अंगूठाछाप । मशीन से छुटकारा पाते ही मैं दो-चार साथियों के साथ 'नुक्कड़' पहुँचा। देखा कि बेंच पर फकीर का मृत शरीर पड़ा हुआ हैं।

चाय की दुकान पर एक फकीर क़रीब साल भर से आने लगा था। शुरू-शुरू में वह किसी से बात न करता, चुपचाप एक कोने बैठा रहता। कभी-कभार दिन-दिन भर बैठा रहता। कोई चाय पिलाता तो पी लेता, कोई कुछ खाने देता तो खा लेता फिर चला जाता। वह कहाँ से आता, कहाँ जाता इसकी जानकारी किसी को नहीं थी। हम सब उसे 'फकीर' कहते। आज जब उसकी लाश लावारिस पड़ी हुई थी तो उसका ठिकाना जानना सबके लिए आवश्यक हो गया।

एक बार हमारी किसी राजनीतिक चर्चा में वह फकीर टपक पड़ा था और शिक्षा सुधार पर उसने अपनी बात बहुत अच्छी तरह से रखी। तब हमें पता चला कि वह एक पढ़ा-लिखा, ज्ञानी आदमी है। नाटा कद, थुलथुल शरीर, आँखें सुर्ख लाल, नाखून बड़े-बड़े और गंदै, पान की पीक लम्बी-बेतरतीब दाड़ियों में चिपकी हुई, तेल-चिट्टा वस्त्र पहना हुआ, कंधे पर एक मैला झोला लटकाया वह आधा बूढ़ा अक्लमंद और पढ़ा-लिखा भी हो सकता है यह सभी के लिए हैरानी की बात थी।

उस दिन के बाद से जब कभी वह आता, हमारे ग्रुप के पास ही बैठता, हमारी बातों को दिलचस्पी से सुनता। अमूनन वह चुप रहता, पर जब कभी बोल पड़ता तो हम सब उसे ध्यान से सुनते। उसके बारे में किसी को सटीक जानकारी नहीं थी। हमारे नुक्कड़ के साथी कॉमरेड सुरेश को पता चला था कि वह फ़कीर स्टुडेंट लाइफ से कम्यूनिस्ट था। बहुत अच्छा स्टुडेंट था। किसी कॉलेज में पॉलिटिकल साइंस का लेक्चरर बन गया था। उस कॉलेज के स्टुडेंटस को प्रेरित कर स्टुडेंटस यूनियन बनवाया था। यूनियन बन जाने के बाद विद्यार्थियों को उकसाने के आरोप में पहले निलम्बित हुआ था फिर दो साल बाद उसे बर्खास्त कर दिया गया था। उसने कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाकर नौकरी हासिल कर ली थी। किन्तु थोड़े समय बाद दूसरे आरोपों के आधार पर उसे बर्खास्त कर दिया गया था। उसने दुबारा कोर्ट की शरण ली थी। लम्बे समय तक मुकदमा चला था। वह मुकदमा जीत गया था। कोर्ट के आदेश के मुताबिक बीते वर्षों के देय राशि उसे प्राप्त हुई थी। सुरेश ने यह भी जानकारी दी कि उस फकीर ने समस्त प्राप्ति रकम अनाथालयों, विकलांग केन्द्रों, कुष्ट रोगी संस्थानों, में दान कर दिया था। आगे की जानकारी सुरेश को नहीं थी।

सुरेश की बातों को फ़कीर ने दो-दो बार यह कह कर काट दिया था कि उसे कोई भ्रम हुआ है। उसने यही कहा था कि वह फ़कीर है थोड़ा बहुत पढ़ लेता है, अख़बार पढ़ना उसकी पुरानी आदत है उसीसे उसे देश के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी है। सुरेश भी बहुत श्योर नहीं था कि यह वही आदमी है। सुरेश की बात आयी और गयी, हमारा कौतुहल बना रहा।

फकीर की लाश लावारिस पड़े रहने की सूचना 100 नम्बर पर थाने में दे दी गयी थी।

मैंने पंडित से पूछा-'फ़कीर कब आया था? कब मरा? कैसे मरा?' पंडित ने कहा- 'कल शाम को। मैंने चाय पिलायी, उसने बिस्किट और समोसा माँगकर खाया। करीब आठ बजे जब हम दुकान बंद करने लगे तो हमसे बोला दो बेंच छोड़ दो आज हम यहीं सोयेंगे, हमने बेंच छोड़ दी....आज सुबह जब हम आये तो वह सोया हुआ मिला, हमने उसे आवाज़ दी, कई-कई बार बुलाया, हिलाया-डुलाया, फिर हमें शक हुआ... देखा उसकी साँसें नहीं चल रही है।'

'नुक्कड़' पर जो कोई आ रहा था फकीर को एक नज़र देख पंडित से वही सवाल पूछता और पंडित भी एक ही उत्तर देता जा रहा था। पंडित बहुत ज्यादा परेशान था। उसने कहा-'लाश देखकर लगता इसने आधी रात को दम तोड़ा होगा। कल अमावश की काली रात थी, पंचाग के हिसाब से आज का दिन भी ठीक नहीं है, इस आदमी ने चतुष्पाद दोष पाया है। पता नहीं अब पुलिस वाले मुझे कितना परेशान करेंगे... मियाँ को यहीं आकर मरना था, मेरा बेंच खराब हो गया,... धंधा चौपट हो गया, पता नहीं आगे और क्या नुकसान होगा।

एक ने चुहल लिया- 'पंडित तुम्हारी किस्मत अच्छी है, फकीर को तुम इतना मानते थे तुम्हारे पास आकर मरा। हो सकता है पिछले जनम में तुम्हारे साथ इसका कोई रिश्ता रहा हो।'

पंडित तिलमिला उठा-'यहाँ साला दिमाग खराब हो रहा है और इनको मजाक सूझ रही है। आपके दुआरे कभी कोई मरेगा तब समझ में आयेगा... आप ही लोगों ने इसे सिर चढ़ाया था, इससे गपियाते बतियाते रहे, अब आप ही लोग सम्हालिए । पंडित को गरम होते देख मैंने कहा-'पंडित जाने दो उसकी बात। यह बताओ कि कल जब फकीर आया था तुमसे कुछ बातचीत हुई थी? काफी दिनों से नहीं आया था कुछ बोला था कहाँ गया था?' पंडित ने कहा-' लँगड़ी को पूछ रहा था। कह रहा था लँगड़ी भाग गयी है। बहुत दुखी था।'

दुबली-पतली सावली, एक पैर जरा सा छोटा, लाठी के बल चलती, चौतरफा टुकुर-टुकुर ताकती एक भिखारिन वर्षो से 'नुक्कड़' पर आती रही। कभी लगातार कई दिनों तक तो कभी पंद्रह-बीस रोज़ के अंतर पर उसके दो-तीन दाँत टूटे हुए थे जब वह मुँह खोलती उसकी आधी जीभ बाहर निकल आती। उसकी बोली वही समझ पाता जो उसे सुनने का आदि हो चुका था। उसे सब 'लँगड़ी अम्मा' कह कर पुकारते। उसके साथ लोगों का अजीब सा लगाव हो गया था। उसके न रहने पर लोग उसे याद करते और रहने पर उसके पीछे पड़ जाते, छेड़खानी करते।

'नुक्कड़' पर एक-एक झुंड के पास वह पहुँचती और 'ए बाबू' 'ए बाबू' की रट लगाती। कोई न कोई उससे कहता 'राम राम बोलो तो पैसा मिलेगा' और वह मुँह विचका कर कहती 'अल्लाह' 'अल्लाह'। कुछ देर तक यह सिलसिला चलता फिर शुरू हो जाती असली छेड़खानी। लोग कहते 'राम राम बोलो दस रूपए देंगे'

'राम बोलो तभी पैसा मिलेगा' कोई नोट लहराकर कहता 'राम बोलो तभी यह नोट मिलेगा' और उत्तर में वह कहती 'अल्लाह, अल्लाह।' चिढ़ाते चिढ़ाते कभी कोई कहता 'भाग लँगड़ी राम नहीं बोलेगी तो भाग' और वह लाठी उठाकर हवा में लहराकर
कहती 'नहीं बोलना। धत् धत्।' जब वह बुरी तरह से चीढ़ जाती तब जाकर कोई उसे एकाध रूपया निकाल कर दे देता।

लोगों के लिए यह तमाशा एक खेल था और उसे इस खेल की आदत पड़ चुकी थी। जब कभी वह नुक्कड़ खाली देखती निराश होती। पंडित से पूछती 'कहाँ गए बाबू लोग? आज कोई मेरे पीछे पड़ने वाला नहीं है?"

-एक बार किसी ने कहा था 'यह लंगड़ी हिंदू है।'

-'अरे नहीं। यह कट्टर मुसलमान है।' उसकी बात किसी ने नहीं मानी। उसने फिर कहा- ऐसा ही है। इसे हम पहचानते हैं। रायबरेली स्टेशन में हमने इसे दो-तीन बार देखा था। पहले तंदरूस्त थी, दाँत टूटे हुए नहीं थे।'

-'हिंदू होती तो भला राम का नाम क्यों न लेती?'

- इसी खेल से ही उसका पेट भर जाता है। भले ही लोग उसके पीछे पड़े पैसा तो निकाल देते हैं वर्ना आगे बढ़ो कह कर भगा देते। भीख माँगने के लिए भी नाटक करना पड़ता है।'

कभी-कभार हँसी-हँसी में कोई न कोई उसकी लाठी पकड़ लेता या छीन लेता, कभी-कभार उसे चोट लग जाती, पट्टी बाँधनी पड़ती।

एक बार नुक्कड़ से थोड़ी दूरी पर छेड़खानी करते हुए किसी लड़के ने जब लाठी छीन ली थी तो वह औंधे मुँह गिर पड़ी थी, वह चीखने-चिल्लाने लगी थी। उसे बिलख-बिलख कर रोते देख लड़के खिसक गए थे। 

नुक्कड़ पर बैठा फकीर चीख उठा था 'अरे जालिमों ज़रा सा रहम किया करो? किसी गरीब को इस कदर न सताया करो कि वह भीख माँगने लायक भी न रह जाए।' फकीर ने सहारा देकर उसे उठाने की कोशिश की मगर वह दर्द से कराहती रही। फिर एक रिक्शेवाले की मदद से उसने उसे रिक्शे पर बिठाया, खुद भी बैठा और उपचार के लिए कहीं ले गया।

उसके बाद काफी दिनों तक न फकीर दिखा और न ही वह 'लँगड़ी अम्मा' दिखी। एक दिन जब फ़कीर आया तो पता चला था कि 'लँगड़ी अम्मा' के बाँये हाथ में फ्रैक्चर हो गया था, कमर में चोट पहुँची थी। अब वह उसके चोटिल हो जाने की वजह से फ़कीर बेहद अपसेट हो गया था ।

'लँगड़ी अम्मा' के न आने से पंडित खुश था। उसने कहा 'चलो पिंड छूटा। रोज-रोज के तमाशे से छुट्टी मिली। साली राम-राम नहीं बोलेगी, हिंदुओं के आगे हाथ फैलायेगी। जाए ससुरी नखासकोना, अटाला, जहाँ मियाँ लोग रहते। पंडित की दुकान पर अल्लाह, अल्लाह... ।'

मैंने कहा था- 'पंडित फकीर भी तो मुसलमान है, उसे क्यों फोकट में चाय पीलाते हो? रोटी भी क्यों देते हो?" पंडित ने कहा था- 'वह फकीर सचमुच फकीर है, फकीरी के कारण उसके चेहरे पर रौनक है। साधु-संतों की जात नहीं होती।

पुलिस को सूचित किए हुए आठ घंटे बीत चुके थे। अचानक एक टैम्पो नुक्कड़ पर आकर रूकी। टैम्पो से चार-पाँच युवक उतरे और वे सब लाश के सामने खड़े हो गए। फिर हमारी तरफ देख उन सबों ने एक-एक करके पूछा-फकीर कब मरा? कैसे मरा?'... 'यहाँ कब आया था? यहीं रहता था क्या? 'यह बीमारी से मरा या कि आत्महत्या की? 'किसी ने मार तो नहीं डाला इसे?'... 'थाने में रिपोर्ट लिखायी गयी की नहीं?"

हम सबको बड़ा क्रोध आया। टेंशन भी होने लगा, पता नहीं कौन लोग हैं। कॉमरेड सुरेश ने गुस्सा झाड़ा-'अमा यार पुलिसिया पूछताछ पुलिस के लिए छोड़ो। हम लोगों का चाय का अड्डा है। एक भिखारी से हमें क्या मतलब? तुम लोग कौन हो? इससे तुम लोगों का क्या सम्बन्ध था? इससे कोई रिश्तेदारी?'

एक ने उत्तर दिया- 'नहीं। हमसे कोई रिश्तेदारी नहीं। मेरा नाम है रामदास, यह मेरा छोटा भाई और ये हैं हमारे दोस्त... फाफामऊ में मेरा लकड़ी का टाल है। 1 यह फकीर है। ये दिनभर इधर-उधर घूमता फिर रात को टाल पर लौट आता। वहीं ठहरता, कभी नहीं भी लौटता, कहाँ रात बीताता, हमें मालूम नहीं। पूछने पर जवाब नहीं देता था।'

'मतलब कि तुम्हारा किरायेदार था ? -'जी नहीं फ़कीर था। नेक इन्सान था इसलिए हमने रहने दिया था। दो साल पहले टाल के बाहर चाय की दुकान पर आया था, रात का वक्त, तेज बारीश होने लगी थी, यह चाय की दुकान पर फँसा रहा, मैंने टाल पर ठहरने दिया था। तब से वह टाल पर ठहरने लगा था।'

शाम ढलते-ढलते पुलिस आ पहुँची। पुलिस की जीप देखते ही कई लोग खिसक गए। गाड़ी से उतरकर दरोगा ने पंडित से पूछताछ की। कॉमरेड सुरेश ने कहा-'यह रामदास और इसके साथी लोग हैं, फकीर रात को इसके यहाँ रूकता था।" दरोगा ने रामदास से कहा- 'क्यों?' रामदास ने वही सारी बातें दुहरायी जो वह हमें बता चुका था और कहा-'पिछले चार महीने में वह हमारे यहाँ तीन-चार बार आया। इसका एक झोला हमारे यहाँ बहुत दिनों से टंगा हुआ था, आज जब इसके मरने की ख़बर मिली तो मैंने झोला खोलकर देखा। दो-चार कपड़ा-लत्ता, फालतू चीजें, कुछ कागज मिले... हाथ का लिखा यह कागज भी झोले में था। इसके हिसाब से इसने अपना रूपया-पैसा अपने गाँव की जमीन और मकान अपनी बीबी के नाम से कर 'दिया है।'

दरोगा ने कहा- 'क्या ? बीबी? बीबी भी रहती है? हम सब एक दूसरे का मुँह ताकने लगे।

रामदास नर्वस होकर बोला-'अकेला रहता था। अकेला ही आया करता था।' 

दरोगा ने पूछा-'रूपया पैसा कहाँ है? झोले में कितने रूपए थे?' रामदास सकते में आ गया। वह बोला 'हुजूर, एक पैसा नहीं था उसमें ... भगवान कसम एक सिक्का तक नहीं था।... अता-पता जानने के लिए मैंने उसका झोला टटोला था।' 'यहाँ क्या करने आये?'

- "यह कहने के लिए कि यह मुसलमान है। यह अपना जात-धर्म किसी से बोलता नहीं था। न पूजा-पाठ करता, न नमाज़ पढ़ता। हमने सोचा हिंदू समझकर कोई जला देगा तो अधर्म हो जाएगा।'

शक की निगाहों से दरोगा उसे देखता रहा। काफी देर तक ज़िरह करने के बाद दरोगा ने सिपाहियों को निर्देश दिया 'इसे जाने न देना पकड़ कर रखो।' फिर दरोगा ने फकीर की तलाशी ली। उसकी सदरी और लम्बी कमीज़ की जेबों से बैंक खाता, पेंशन भुगतान पुस्तिका मिली। 

पेंशन की किताब खोलकर बोला-'डॉक्टर वाजिद अली, स्थायी पता-मुजफ्फरपुर... तीन महीने पहले इसने शादी की थी।'
हम सब एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। दरोगा बोला-'आप में से कोई इसकी बीबी को पहचानता है?"

कॉमरेड सुरेश ने कहा-'हम लोग यही जानते कि ये अकेला था, न कभी किसी को साथ लाया, न ही कभी किसी का जिक्र किया था।'
दरोगा उठ खड़ा हुआ। हमारी ओर घूमकर बोला-'इसकी बीबी का नाम है विमला देवी, उम्र पचास। फिर पेंशन किताब का पन्ना हमें दिखाकर पूछा- देखिए आप लोग इस तस्वीर को, इस औरत को कभी देखा हैं इसके साथ? 

लगभग सामूहिक स्वर में हम चीख उठे-'अरे! यह तो अपनी लँगड़ी अम्मा है।

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "मोक्षदायिनी" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2021)

Wednesday, January 11, 2023

कहानी- आखिरी उम्मीद



बहुत देर से मकान ढूँढते ढूँढ़ते जया को मकान मिल ही गया। बाउन्ड्रीवाल के फाटक पर नेमप्लेट पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था- अमर परिहार-एडवोकेट स्ट्रीट लाइट की मध्यिम रोशनी में नाम पढ़ा जा रहा था, फिर भी जया ने करीब से जाकर देख लिया।

दस कदम की दूरी पर वकील साहब का चेम्बर। काम में तल्लीन थे ये वकील साहब। आहिस्ता से फाटक खोल तीन सीढ़ी चढ़कर जया ने चिक हटाकर झाँका, हाँ, अमर परिहार ही है। कुछ अकुलाहट से जया ने गला खखारा, हाथ हिलने से चूड़ियाँ भी खनक उठी। अमर ने सिर उठाकर देखा फिर कहा-'आइए अन्दर ।

बैठिए।" भीतर दाखिल होते ही जया को देख अमर जरा सा विचलित हो उठा। सहमी, सकपकायी, सिर पर पल्लू डाली उस औरत को कुछ पल देखने के बाद उसने कहा- 'आज का काम ख़त्म। ऐसा करिए आप अपना नाम और फोन नम्बर लिख दीजिए, कल मैं आपको टाइम दूँगा।'

-'मैं ज्यादा टाइम नहीं लूँगी सर ।'

- नहीं आज नहीं होगा, कल जरूरी केस है। मैं थका हुआ हूँ. सोने का टाइम भी हो गया है।'

- प्लीज सर। मात्र दस मिनट मुझे सुन लीजिए। बहुत जरूरी है।... शायद मैं कल न आ पाऊँ।' जया ने अपना घुंघटा हटाते हुए कहा। घुँघट हटते ही अमर उसको अपलक देखता रह गया। वह शब्द ढूँढ़ने लगा। 

जया ने कहा-'आपने ठीक ही पहचाना। मैं जया... जया चन्द्रा थी पहले।'

कोलाहल विहीन रात किन्तु उन दोनों के मन में अजीब सा कोलाहल । जया बहुत कुछ बोलना चाहती और अमर यह जानने के लिए बेताब था कि परायी स्त्री इतनी रात को अकेली क्यों मिलने आयी है?

वर्षों पहले वे दोनों यूनिवर्सिटी में एक ही क्लास में थे। इसी जया को वह दिलोजान से चाहता था। उसकी एक अदा पर उसके मन के सारे तार झनझना उठते। अमर हमेशा उससे बात करने का बहाना ढूँढ़ता। बड़ी कोशिश के बाद उससे दोस्ती करने में वह कामयाब हो गया था। करीब साल भर बाद एक दिन अमर ने अवसर देख कर अपने प्रेम का इज़हार कर दिया था किन्तु उत्तर में जया ने जो कुछ कहा था उससे अमर इतना मर्माहत हुआ था कि वह अभी भी उस सदमे से उबर नहीं पाया था। जया ने कहा था कि उसका मेलजोल महज एक दोस्ती थी जो एक ही क्लास में साथ-साथ उठने बैठने से हो जाता है। जया ने यह भी कहा था कि अमर का प्यार एकतरफा प्यार था जो यंग लड़कों को अक्सर हो जाता है।

आज जब जया परायी स्त्री है और मुसीबत के मारे आयी हुई है तो अमर को हमदर्दी होने लगी। उसका पुराना प्रेम सामने आकर खड़ा हो गया। अकेली इतनी रात को क्यों आयी है जान लेना उचित होगा। 

उसने पूछा- 'इतनी रात तुम अकेली आयी हो?"

-‘जी। अकेली हूँ।'

'तुम परायी स्त्री.... अकेली? मेरे घर? क्या चाहती हो? किस काम से आयी ?... तुम्हें पता मैं अनमैरिड हूँ अकेला हूँ हाँ, साथ में मेरी माँ और मेरी बुआ रहती है।

- मालूम है। मुझे तुम्हारे बारे में सब कुछ मालूम है। 

-'मालूम है? अच्छा बोलो अपनी बात किस काम से आयी हो?" 

जया बोली- 'सोचा मरने से पहले तुमसे एक बार मिल लेना चाहिए। मन के भीतर बहुत घुटन है, मन की बात कह देनी जरूरी है... मन का बोझ हल्का हो जाने से चैन से मर पाऊँगी।' जया की आँखों से अविरल आँसू बहने लगे। कंठ सँघ गया। अमर आसमान से गिरा। 

वह चीख कर बोला- 'क्या ? मरने की बात कहाँ से आ गयी? केस क्या है? क्या तुम बीमार हो? कोई लाइलाज बीमारी हो गयी है क्या?.
...क्या हुआ? क्या प्राबलम जल्दी से बोलो।' 

-'बीमारी शरीर में नहीं, मन में है, बल्कि मेरे जीवन में, लाइलाज बीमारी, मौत से ही मुक्ति मिलेगी।'

"मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है, सीधा-सीधा बोलो क्या बात है ?.... तुम्हारी शादी किसी अच्छे आदमी के साथ हुई थी न?

-खाक अच्छी शादी के बाद पाँच साल बड़ी मुश्किल से मैंने झेला, जैसे-तैसे मन मारकर एडजस्ट करने की कोशिश की, तमाम अत्याचारें सही मगर हालात बद से बदतर होती चली गयी। अब वह घर, घर नहीं नरक है। आत्महत्या के सिवा अब कोई उपाय नहीं है।'

- क्या? क्यों? आत्महत्या के सिवा कोई उपाय क्यों नहीं? उपाय ढूँढना पड़ता है। मैं वकील हूँ, हम लोग हार नहीं मानते कभी भी।

नहीं कोई उपाय नहीं। उस नीच, दुराचारी के हाथ से बचने का कोई और उपाय नहीं है। जिन्दा रहूंगी तो वह मुझे वेश्या बना देगा या जान से मार डालेगा।' अमर स्तब्ध, हतप्रभ। उसकी जिज्ञासा बढ़ती गयी। उसने कहा- 'तुम्हारा पति ऐसा क्यों करेगा? मेरा मतलब उसने तुम्हारे साथ ऐसा क्यों करना चाहा ? मुझे साफ-साफ बताओ शायद मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकूँ।'

जया का क्रोध फूट पड़ा 'एकदम नीच, कमीना, दुराचारी। रातोरात धनवान बन जाना चाहता था। जब मेरी शादी हुई थी, उसकी एक जनरल स्टोर की दुकान थी। ज्यादा कमाने के फेर में उसे बंद कर मोटर सायकिल, स्कूटर पार्टस की दुकान खोली। घाटा हुआ। फिर भारी कर्जा लेकर टी0वी0 की दुकान खोली। उसमें भी घाटा हुआ। फिर दूसरा धन्धा । इस क्रम में खड़े होने की जगह वह बैठने लगा, कर्ज पर कर्ज़ फिर इतनी कम रकम रह गयी कि वह कहीं का नहीं रहा। मैंने दफ्तर से लोन लेकर दिया, मैंने कहा आप फिर से जनरल स्टोर की दुकान खोल लीजिए, जब मेरी शादी हुई थी मैं खुश थी, मुझे ज्यादा पैसा नहीं चाहिए, मैं खुद भी तो कमाती हूँ।'

उसने कहा 'मैं जोरू का गुलाम नहीं हूँ, अपना निर्णय खुद ले सकता हूँ। मुझे धन बटोरना है, सारा सुख भोगना है, अभी इसी वक्त, बुढ़ापे में नहीं।.... मेरे पिताजी ने बुरे दिन के लिए जो रकम बचाकर रखा था, हड़कम्प मचाकर, मुझ पर अत्याचार कर, और अधिक अत्याचार करने की धमकी देकर पिताजी से सब ले लिया। फिर एक बड़ी सी दवाई की दुकान खोली, थोड़े दिनों के बाद फिर पैसा, पैसा करने लगा, मेरे सारे गहने बिक गए, मैंने सोचा चलो अब खत्म होगा बवाल...उसकी दवाई की दुकान ठीक-ठाक चलने लगी, मगर उसने दुकान को दौड़ाना चाहा। हमसे कहा दफ्तर से छुट्टी लेकर या चाहे बिना वेतन दुकान पर बैठो, तुम्हारी खूबसूरती कैश करनी है... मैंने आपत्ति की। मैं हरगिज़ नहीं बैठना चाहती थी, मगर वह भी हाथ धोकर पीछे पड़ गया, कहा-सुनी हुई, नोक-झोक हुई, हफ्तों बोलचाल बंद था...मेरे बीमार पिता ने उसे समझाया पर उसने उनके साथ बदसलूकी की... फिर उसने मुझे घर पर कैद कर दिया, बात-बेबात लात-जूता मारने लगा, किसी से मिलने नहीं देता, बात नहीं करने देता, मुझ पर निगरानी रखने के लिए एक नौकरानी को लगा दिया... मैंने हालात के साथ समझौता कर लिया, सोचा अगर इसी में मेरी मलाई हो...दुकान पर बैठने लगी, दुकान की आमदनी सचमुच बढ़ती गई। मगर उसकी जरूरतें और बुरी आदतें भी बढ़ती गई। वह हमेशा एक ही बात लेकर परेशान रहता था, कैसे धन जुटाया जाय, किधर से पैसा आये। उसके सिर पर हमेशा धन का भूत सवार रहता था। डुप्लिकेट दवाइयां भी बेचता था। जब में उससे कहती कि डुप्लीकेट दवाई से जानें जा सकती, बीमारियाँ ठीक नहीं होगी तो वह कहा करता कि धन की कदर सब जगह होती है, धन बटोरने का हरेक तरीका सही है, धनी आदमी का कोई ऐब नहीं ढूँढ़ता, धनी आदमी की बुराई कोई नहीं देखता

अमर ने आश्चर्य व्यक्त किया-'मकान, दुकान, तुम्हारी खुद की कमाई सब कुछ तो था फिर....

जया और उत्तेजित हो गई। उसने कहा- 'पिशाच था वह, पिशाच। उसने मेरी कोख में पल रहा बच्चा गिरवा दिया। उसने कहा पहले धन बटोर ले बच्चा-बच्चा बाद में देखा जाएगा। उसने कहा तुम अपनी खूबसूरती से दसियों लाख कमा सकती हो, उन पैसों से हम फैक्ट्री खोल लेंगे, करोड़ों बना लेंगे, दुनिया हमारी जूती के नीचे फिर तुम रानी बनकर ऐश करोगी।'

- अमर ने पूछा 'क्या?... तुम्हारे घर वालों ने शादी से पहले खोज-खबर नहीं ली थी?' अमर ने पूछा।

जया ने कहा- 'ली थी। क्यों नहीं लेते, मगर किसी के मन के भीतर कैसी-कैसी बदइच्छाएं रहती, किसके मन के भीतर कितना पाप है यह कौन जान सकता?... मैंने उसे छोड़ देने की ठान ली, घर से निकल रही थी कि नशे में धूत उस शैतान ने मुझे दबोच लिया। मेरी चोंटी पकड़ कर धमकी दी 'अगर तूने चालाकी करने की तो कोशिश की मैं तुझे और तेरे माँ-बाप को जान से मार डालूँगा', फिर दो-चार दिन बाद उसने कहा 'कल रात पूरे मेकअप में रहना, खूब सज-धज कर अपना मूड भी ठीक रखना, एक नेता के घर जाना है, बहुत बड़ा नेता है, उसने कहा है कि गैस एजेन्सी या पेट्रोल पम्प खुलवा देगा। हमारे बहुत अच्छे दिन आ जायेंगे। ड्राइवर लेने आयेगा, चुपचाप चली जाना उसके साथ.... नेताजी के साथ किसी प्रकार की बेहूदी हरकत न करना। अगर तूने बदतमिजी की तो अंजाम बुरा होगा।'

रात को ड्राइवर आया था, मैं गाड़ी पर सवार हुई थी, रास्ते में टॉयलेट जाने के बहाने अपने कार्यालय के सामने मैंने गाड़ी रुकवाई। कार्यालय में घुसकर पीछे के दरवाज़े से भाग निकली, भागते-भागते एक टेम्पो में बैठकर रेलवे स्टेशन पहुँची किसी ट्रेन के नीचे मर जाने के लिए, देखा बनारस आने वाली ट्रेन सामने खड़ी है, एक बारगी तुम्हारा ख्याल आया... एक आखिरी उम्मीद... शायद तुम कोई रास्ता फिर मुझे यह भी लगा कि मरने से पहले मुझे तुमको अपनी सफाई देनी चाहिए नहीं तो मरने के बाद भी तुम मुझे माफ़ नहीं करोगे....।' अमर की चिन्ता और जिज्ञासा लगातार बढ़ती जा रही थी। उसने अवाक होकर पूछा- 'माफी! किस बात की माफी ?*

मुझे मालूम था कि तुम मुझे बहुत चाहते हो, मैं भी तुम्हें प्यार करने लगी थी पर मैं क्या करती... तुम मुझसे तीन साल के छोटे हो। बीबी उम्र में बड़ी नहीं हो सकती, कोई स्वीकार नहीं करता, जिन्दगी में कई तरह की दिक्कतें भी आती है... मैंने अपना प्यार मन में ही दबा लिया था...शायद मेरे जीवन की सबसे बड़ी गलती यही थी कि मैंने इस सच्चाई को तुमसे छिपायी थी, पहले ही कह दी होती तो सालों से मेरे मन में गुनहगार होने का बोझ न रहता...न ही तुम्हारे मन में मेरे प्रति कोई घृणा होती... मैंने तुम्हें धोखा नहीं दिया था... अब मेरे मन का बोझ उतर गया...मुझे अब चलना चाहिए...।' -'कहाँ ठहरी हो? कहाँ जाओगी?'

-'कहीं नहीं। पता नहीं कहाँ जाऊँगी...अब तक मेरे सुइसायड नोट को लेकर कोहराम मच गया होगा।'

-'सुइसायड नोट?"

'घर से निकलते समय सुइसायड नोट रख लिया था। दफ्तर के दरवाजे से निकलते वक्त चौकीदार को लिफाफा देकर कहा था कि मेरे अधिकारी को वह लिफाफा अगले दिन दे दे।' वापस जाने के लिए जया चिक हटाकर कमरे से निकली ही थी कि अमर ने उसकी कलाई पकड़ ली। उसने कहा- 'कायर, बुजदिल आत्महत्या करते हैं... पढ़ी-लिखी लड़कियों के साथ भी इतना अमानवीय अत्याचार और तुम उसे छोड़ दोगी? क्या लड़कियाँ इसी तरह सतायी जाती रहेगी? तुम्हें हार नहीं मानना चाहिए, लड़ना चाहिए। उसे उसके किए की सजा भुगतनी पड़ेगी, तुम्हें इंसाफ मिलेगा, मैं तुम्हारी मदद करूँगा, तुम्हारी लड़ाई में मैं साथ रहूँगा । हिम्मत न हारो।'

जया शान्त हो गई। अमर के सीने में सिर रख कर रोते-रोते बोली, 'अमर! मुझे बहुत डर लग रहा है।' अमर ने कहा, 'मन से भय निकाल कर फेंक दो। तुम्हें अत्याचार के खिलाफ लड़ना होगा....सब ठीक हो जाएगा... मुझ पर भरोसा रख सकती हो...तुमसे तीन साल का छोटा सही, मैं तुम्हें संभाल सकता हूँ।"

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "मोक्षदायिनी" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2021)

कहानी- बुड्ढे को मरने दो


उस रोज अपने मोहल्ले में चम्पा की शादी थी।

शादी घर में दूर-दूर से रिश्ते-नाते आये हुए थे। सुबह से स्टीरियो फुल वॉल्यूम में बज रहा था। घर के बाहर खुली जगह लड़के-लड़कियाँ गाने के साथ-साथ तालियों पीट कर डान्स कर रहे थे।

उधर सामने बगल वाले घर में नब्बे वर्ष के वृद्ध दादाजी की हालत बहुत खराब थी। मौत दरवाज़े पर दस्तक दे चुकी थी। वे अन्तिम साँसें ले रहे थे। बाहर के रिश्तेदारों, शहर के परिचित लोगों को तबियत ख़राब होने की ख़बर दे दी गयी थी, फिर भी परिवारजन हिम्मत नहीं हारे थे। दादाजी को बचाने का पुरजोर कोशिश कर रहे थे। डॉक्टर नर्स घर पर थे। दादाजी को आक्सीजन दिया जा रहा था।

पड़ोस का शोरगुल पड़ोसी को रास नहीं आ रहा था। दादाजी ने भी दो-दो बार विरक्ति प्रकट किया था। घर की बहू ने एक बार रिक्वेस्ट किया था कि साउन्ड बन्द कर दे। मगर उन लोगों ने अनसुना कर दिया था। आखिरकार दादाजी के पोते और कई लोगों ने मिलकर स्टीरियों बन्द करने का अनुरोध किया।

कहने की देर नहीं कि लड़की का भाई चीख कर बोला 'नहीं बन्द होगा।' उसके ना बोलते ही दादा जी का पोता भड़क उठा। बहस होने लगी। लड़की का भाई झगड़ने लगा। डान्स करने वाले लड़के भी झगड़े में शामिल हो गये। काँव-काँव में किसी को किसी की बात सुनाई नहीं दे रही थी। भीड़ देखकर भीड़ बढ़ने लगी। बाजा बजाने वाला भी स्टीरियो बन्द कर भीड़ में खड़ा हो गया। तब कहीं समझ में आया मामला क्या है। पाँच-सात मिनट बाद ही दादाजी के पोते निराश होकर वापस घर के भीतर चले गये। उनके साथ भीतर से निकले अन्य दो लोग तमाशा देख रहे थे।

फिर लड़की का भाई, नाचने गाने वाले बच्चों तथा एकत्रित भीड़ आपस में ही उलझ गए। सबकी राय अलग-अलग थी। किसी ने कहा बाजा बजाना चाहिए किन्तु साउन्ड धीरे कर दिया जाए। एक ने कहा 'अभी बन्द कर दिया जाए बाद में बजाना।' एक ने कहा 'दिन भर के लिए बन्द रखो रात को जब बारात आयेगी तब बजा लेना किसी ने कहा 'अमे यार छोड़ो पास पड़ोसी के दर्द का ख्याल रखना चाहिए फिर वे तो पूरे मोहल्ले के दादाजी हैं। एक बूढ़े ने कहा, 'हमारे टाइम में ये सब शोर मचाने वाले बाजे नहीं थे, शहनाई बजती थी शान्ति से शादियों होती रही। जितना-जितना पैसा होता जा रहा है, दिखावा बढ़ता जा रहा है।' बुड्ढ़ा बीमार या जवान बीमार, कौन मरा कौन जी रहा किसी को फर्क नहीं पड़ता। कितना बुरा वक्त आ गया। 'हे राम'

इस बूढ़े की बात सुन कर लड़की के भाई गुस्से से बोला- 'स्टीरियो किसने बन्द किया? बजाओ नहीं थमेगा कौन रोज-रोज शादी होती है। धूमधाम से शादी होगी. ...बुड्ढे को मरने दो!"

लगभग आधा घण्टा अनावश्यक हो हल्ला हुआ। पता नहीं क्यों लोग गुस्सैल और झगड़ालू होते जा रहे हैं। असहिष्णुता बढ़ रही है। अपने बचपन में मैंने ऐसी घटना न घटते देखा था और न ही सुना था बल्कि मुझे याद है एक बार ऐसा हुआ था कि दुर्गा पूजा मैदान के पास एक बुजुर्ग महिला का देहान्त हो जाने के कारण एक दिन दिन भर लाउडस्पीकर नहीं बजा था, रात को नाटक भी नहीं खेला गया था। ऐसा ही कहीं न कहीं हुआ करता था।

दोपहर बारह बजे दादा जी ने प्राण त्याग किया। दो बजे तक अर्थी उठने की बात हुई। चूंकि दादा जी प्रतिष्ठित व्यक्ति थे तथा उस मोहल्ले के पुराने वाशिन्दे थे, उनकी मौत की ख़बर आग की तरह फैल गई और देखते-देखते सैकड़ों लोग श्रद्धान्जलि के लिए आ पहुँचें। भीड़ लगातार बढ़ती जा रही थी। छोटा सा मैदान पूरा भर गया। कहाँ शादीघर, कहाँ स्टीरियो डान्स कुछ अता-पता न था।

दादाजी के पोतों ने अपने प्रिय दादाजी की अन्तिम यात्रा को स्मरणीय बनाने के लिए ताम-झाम किया। दादाजी के शव को एक खुले वाहन पर रखा गया। मिनटों में फूलों और फूल मालाओं से लाश ढक गया। गाजे-बाजे के साथ राम-नाम सत्य है, हरि का नाम सत्य है नारों के साथ शव यात्रा शुरू हुई। अपार जनसमूह लम्बी कतार में पीछे-पीछे चलने लगा। बीच-बीच में आहिस्ता-आहिस्ता चलती मिनी ट्रक के ऊपर से दो लोग फल-फूल, मखाने, बतासे, खजूर, चौअन्नी, अठन्नी, एक रूपए के सिक्के लुटाते रहे। लूट की चीजों को बटोरने की होड़ में लड़को बच्चों में आपस में छीना झपटी, हाथापाई भी होती रही।

दाह-संस्कार सम्पन्न होते ही मैं अपने घर के लिए रवाना दिया। मेरा घर दादाजी के मकान से कुछ ही 'दूर था। रात आठ बजे का समय था। गली में प्रवेश करते ही अजीब सा सन्नाटा देख में सिहर उठा। शादीघर में किसी प्रकार का हलचल नहीं, कुछ झालर जरूर जल रहे थे मगर गाना-बजाना गायब। एक कुत्ता बार-बार जबड़ा फैलाकर रोने जैसा आवाज निकाल रहा था जिससे एक लड़का इतना चिढ़ रहा था कि वह बार-बार ढेला मारकर उसे भगाने की कोशिश कर रहा था। कुल मिलाकर अजीब सा गमगीन वातावरण था जनमानव शून्य कोलाहल विहीन निस्तब्ध कफ्यू-ग्रस्त रातों की तरह लगने वाली एक रात।

अकुलाहट से मेरे दिल की धड़कने तेज हो गयी। तेज उगों से में चम्पा के घर पहुंचा। मैंने घंटी बजायी। एक अपरिचित व्यक्ति बाहर निकले। उससे मालूम हुआ कि चम्पा के पिता को ब्रेन हैमरेज हो गया था। गम्भीर हालत में उन्हें अस्पताल ले जाया गया था। आईसीयू में रखा गया था। थोड़ी देर पहले उन्होंने दम तोड़ दिया था। उनकी उम्र मात्र पैंतालीस वर्ष थी।

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "मोक्षदायिनी" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2021)