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Tuesday, July 12, 2022

कहानी : बोधि



सीमा जब तीन साल की थी तभी उसे बनारस में पुश्तैनी मकान में रहने के लिए भेज दिया गया था, वज़ह यह थी कि उसकी मां न तो सास के साथ मिलजुल कर रह पातीं और न ही दो बच्चों को सम्भाल पातीं।
जब वह पंद्रह वर्ष की हुई और नवीं कक्षा में पहुंची तब उसकी दादी का देहान्त हो गया । सीमा अपने पिता के घर पर रहने लगी ।
सीमा को पिता के घर की हरेक बात अजीबो-गरीब लगने लगी । 
दादी ने उसे जो ज्ञान दिया था, जिन मनिषियों के अनमोल वचन, गीता, रामायण और उपनिषदों की बातें याद करायी थी , पिता के घर पर सारी चीजें उसके विपरीत हुआ करती ।
रहन-सहन, ठांट-बांट, दफ़्तर के एक दो लोगों का
देर रात घर पर आकर खुसुर-फुसुर करना आदि से वह समझ चुकी थी कि कहीं कोई गड़बड़ी है।
          एक दिन सीमा को पता चला कि सालभर पहले जिस पुल का उद्घाटन मंत्री ने किया था और जिस काम के लिए तारीफ़ों के पुल बांध दिया था लोगों ने, वह पहली बारिश में बाढ़ से ढह गया था और उसके लिए उसके पिता समेत कुल सात लोगों को सस्पेंड कर दिया गया था फिर थोड़े समय बाद सस्पेंशन ऑर्डर वापस ले लिया गया था । ठेकेदार को ग्रेफ्तार कर जेल भेज दिया गया था । ठेकेदार ने पत्रकारों से कहा था कि जब चालीस प्रतिशत कमीशन देना पड़ता है तो कहां से अव्वल काम होगा । 
सीमा ने जब अपनी मां से इस सम्बंध में पूछा तो उसकी मां ने कहा कि यह एक सामान्य सी बात है । मां ने समझाया कि नीचे से ऊपर तक कमीशन पहुंचाना पड़ता है, उसके पिता कोई ग़लत काम नहीं करते, वे अपने हिस्से की रकम ही लेते हैं, यह ' धरम की ही कमाई' है । 
मां ने आगे बताया -" जमाना बहुत आगे निकल गया है, ग़रीबी से लोगों को घृणा होती है इसलिए सभी ऊपरी कमाई के फेर में रहते हैं , अब तो ये हमारे सिस्टम में है, तुम्हारे पिता तभी नौकरी कर सकेंगे जब वह सिस्टम के साथ रहे, वर्ना मंत्री अफसर उसे ही दोषी बनाकर आउट कर देगा । पुरानी शिक्षा पुराने समय के लिए ठीक थी, उस ज्ञान से आज नहीं चल पाएगी । युग बदल गया है, लगातार बदल रहा है, अब तो हमें आभासी दुनिया में रहने की आदत पड़ गई है जहां झूठ भी सच, ईमानदारी ढकोसला, ये मानकर चलना चाहिए कि "आल इज वेल" ।"
सीमा की उम्र कम, आज की दुनिया से कटी हुई, उसके दिमाग में जो साफ्ट वायर डाल दिया गया उसके अलावा कुछ भी रीसिव करने को तैयार नहीं । 
सीमा खोयी-खोयी सी रहने लगी । उसे अवसाद सा हो गया । दादी ने सीमा को बताया था कि अन्याय का विरोध करना चाहिए। अन्याय सहना भी अन्याय होता है।
जब-जब सीमा की मां कामवाली बाई से कहती " पैसे क्या हराम के आते हैं, जब देखो तब नागा करती हो अब नागा करोगी तो तनख्व़ाह से काट लूंगी "  तब-तब सीमा विरोध जताती -" गरीबों को क्यों सताती हो ? अगर कभी वह नहीं आ पाती तो ख़ुद ही बर्तन मांज लिया करो । "
उसकी मां डांट कर कहती " तुझे क्या फ़र्क पड़ता, जिस दिन तुझे करना पड़ेगा उसदिन समझेगी । "
कामवाली की तबीयत जब कभी बिगड़ी सीमा ने ख़ुद ही बर्तन मांज दिया। उसकी मां ने कभी मना नहीं किया उल्टा कहा - "ठीक है आदत डाल लो, तुम्हारी दादी ने जो सिखाया वही किया करो । -
 सीमा ने गौर किया कि खाने में जो भी अन्नशेष रह जाता उसकी मां कामवाली बाई की थाली में रख देती और अगले दिन बाई से खाने के लिए कहती । अगर कोई ख़ास व्यंजन होता तो वो लोभवश खा लेती, अगर वह कहती कि महक गया तो उसकी मां मिट्टी की हांडी में डाल देने को कहती । 
भिखारी आने पर उसकी मां भिखारी के हाथ कागज या पन्नी थमा देती फिर माटी की हांडी उड़ेल दिया करतीं ।
सीमा ने गौर किया कि कूड़े में फेंकने वाली चीजों को देते समय मां अनावश्यक जोर-जोर से दो-चार बातें ‌‌‌‌‌‌‌‌‌करके लोगों का ध्यान आकृष्ट करती जिससे आस पास के लोगों को पता चले कि वह दयालु औरत है, भिखारी को खाना देती ।
उसे यह भी बुरा लगा कि गरीबों और दलितों को ऊंच-नीच, छूत-अछूत दृष्टि से देखते । सफ़ाई कर्मियों को घर के भीतर घुसने नहीं देती । एकबार सफ़ाई कर्मी को लैट्रिन धोने के लिए 
कहा, साथ ही यह भी कह दिया कि वह नहा धोकर आए । सफ़ाई कर्मी को इतना बुरा लगा कि उसने साफ़ मना कर दिया।
सीमा को मालूम था कि स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि समग्र भारतवासी आपस में सब भाई-भाई हैं, सब का खून एक सा ही है। उसे मालूम था कि स्वामीजी ने कहा था कि दरिद्र नारायण की सेवा ईश्वर की ही सेवा है । दादी ने उसे समझाया था कि ईश्वर किसी भी रूप में आ सकते हैं, भिखारी के रूप में भी आ सकते हैं । 
सीमा मां से इतनी क्षुब्ध थी कि अनेक बार उसने दादी से सुनी साधुवचनों को मां को सुनाया था किन्तु हर बार मां ने प्रत्युत्तर में कहा था कि दादी की बातें अब दकियानूसी हैं, जमाना बदल गया है, देश बदल रहा है, समय के साथ चलो  गरीबों दलितों को सिर पर नहीं चढ़ाया जाता, सिर पर चढ़ाने से वे बराबरी करने लगते हैं ।
एकबार इसी मुद्दे पर बहस करते समय मां ने झोंटी खींच कर कहा था "अभी से बड़ों के मुंह लगती है, यही सिखाया था तेरी दादी ने ?"
उस दिन सीमा दादी दादी रट लगाती हुई खूब रोयी थी।
अगले दिन सुबह जब नाश्ते के लिए बुलाया गया तो उसने कहा कि उसके पेट में दर्द है । मां ने उसे पुदीनहरा पिलाया और आराम करने के लिए कहा । सीमा अपने कमरे में चली गई। उसकी मां नहाने चली गई ।
कमरे में लेटे-लेटे सीमा मां के बारे में सोचती रही।
भिखारियों को दिए जाने वाले अन्नशेष की याद आते ही सीमा के रोंगटे खड़े हो गए । एकबारगी बिस्तर से उठ कर वह जूठे बर्तनों के पास बैठ कर भिखारी के लिए रखा खाना खाने लगी । ठीक उसी समय उसकी मां बाहर निकल आईं और सीमा को उस हाल में देख चीख उठी- " अरे अरे ये क्या कर रही हो, पागल हो गई हो क्या ? "
नफ़रत भरी आंखों से सीमा ने मां को देखा फिर निडर होकर बोली-" मैं देख रही थी कि जो खाना तुम भिखारियों को लेती हो उसे वे लोग कैसे खा लेते हैं ।"
मां आगबबूला होकर बोली -" तुम बीमार पड़ जाओगी, यही उनलोगों के लिए पौष्टिक आहार है, उनके नसीब में यह भी कहां होता है? सभी तो कह देते हैं"आगे बढ़ " , मैं तो कम से कम खाना तो देती हूं ।"
सीमा ने गुस्से से कहा " बड़ा ‌‌‌अहसान करती हो । असहाय गरीबों के साथ जो सुलूक करती हो उसके लिए भगवान तुम्हें माफ़ नहीं करेगा । तुम्हें नरक गमन करना पड़ेगा ।"
कुछ नरम होकर मां बोली -" बेवकूफ़ लड़की बीमार पड़ जाएगी तो कौन देखेगा तुझे ? किसे तकलीफ़ होगी ?"
सीमा ने हाजिर जवाब दिया " क्यो मेरे पापा तो बहुत कमाते हैं, मैं बीमार पड़ जाऊं तो अस्पताल में भर्ती कर दीजियेगा, मेरा इलाज हो जाएगा मगर तुमने कभी सोचा कि जब भिखारी लोग बीमार पड़ेंगे तो उन्हें कौन देखेगा ?"
उसकी बातों से खिन्न होकर मां ने उसे बेरहमी से मारा । सीमा फूट-फूट कर रोती हुई अपने कमरे में चली गई। मां चीखती पुचकारती दरवाज़ा पीटती रह गई किंतु सीमा ने उत्तर नहीं दिया।
    शाम को जब सीमा के पिता घर लौटें तो पत्नी ने सारा किस्सा सुनाया और कहा कि वह दिनभर बिना खाए पिए दरवाज़ा बंद कर भीतर है, खोली नहीं। पिता भावुक हो गए। वह अपने कमरे में कुछ देर बैठे, फिर सीमा के कमरे का दरवाज़ा खटखटाये और बोले-" सीमा मेरी प्यारी बेटी , मेरी गुड़िया रानी दरवाजा खोलो ! बेटी तु्म्हें क्या हो गया है, क्यों ऐसी हरकतें कर रही हो ? क्या तुम्हारे मां बाप जो कुछ कर रहे हैं सब ग़लत है ? खोलो बेटी हमसे बात करो !"
सीमा ने दरवाज़ा खोला फिर रुआंसी होकर बोली " पापा मुझे आपकी ही मां से शिक्षा प्राप्त हुई, दादी ने अपने बेटे और पोती को अलग अलग शिक्षा क्यो दी है ?"
शर्म के मारे पिता का सिर झुक गया । कुछ पल बाद उन्होंने कहा " बेटी वाकई में मैं शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूं, मेरी मां ने मुझे सही शिक्षा दी थी । तुमने मेरी आंखें खोल दी । "
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© सुभाषचंद्र गांगुली
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Written in 1997 
उन्मुक्त - समस्तीपुर
आनंद रेखा - तिलजला, कोलकाता
तरंग - एजी यूपी कार्यालय पत्रिका 1998

Friday, July 8, 2022

शहादत


सुबह अख़बार पलटता हूं । ' स्थानीय समाचार'
(पेज थ्री ) के स्थान पर लिखा हुआ है '‌ शहर की कहानियां '!
कहानी की नयी परिभाषा देखकर पत्रकार मित्र से पूछता हूं --" क्या अब समाचार को भी कहानी माना जाएगा ?"
ख़ुद को जायज़ ठहराते हुए वह कहता है कि अंग्रेजी न्यूज चैनलों में लम्बे अरसे से न्यूज़ रीडर द्वारा " मेन स्टोरिज आफ द डे आर " कह कर समाचार पढ़ा जा रहा है ।
काफ़ी देर तक बहस चली । मैं दफ़्तर पहुंचता हूं । सुबह से हल्की-हल्की बारिश हो रही थी, दोपहर होते-होते तेज़ हो गई।
आज दफ़्तर में अघोषित' रेनी डे' है । कार्यालय में कर्मचारी नहीं है तो काम भी नहीं है मेरी मेज पर।
कहानी की तलाश में मैं अपनी डायरी पलटता हूं।
  ' कारगिल' युद्ध से संबंधित छोटी-बडी घटनाओं का ज़िक्र है इसमें । कारगिल युद्ध की पृष्ठभूमि पर उपन्यास लिखने के इरादें से मैंने उन तमाम तथ्यों तथा घटनाओं का उल्लेख कर रखा जो अत्यंत हृदय विदारक एवं हतप्रभ करने वाली थी।
             मेरे नोट्स में बेशुमार लोगों की मार्मिक कहानियों का शुमार है जिनकी चीखें युद्धोन्मत्त लोगों की विजय डंका की शोर में विलीन हो जाती हैं।
               मेरी आंखों के सामने उस शोकातुर वृद्ध पिता का क्रुद्ध चेहरा आ जाता है जिसकी आवाज़ प्रायः मेरे कानों में गूंजती हैं --" मुझे नाज़ है अपने बेटे पर देश की खातिर उसने  अपनी आहुति दी है । मगर यह देखना चाहिए कि इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार कौन है ? इतने सारे आतंकवादी कैसे घुस आए ? इसकी सूचना पहले क्यों नही मिली ? समय रहते क्यों नही कारवाई की गई थी ? इतनी सारी मौतें क्यो हुईं ? इसका जिम्मेदार कौन ?.......... उनसबो को में गुनहगार मानता हूं । गुनहगार को उसके किए की सज़ा मिलनी ही चाहिए ।"
एक दर्दनाक कथा ! एक क्षुब्ध पिता की कथा जो कभी भी स्मरणीय कथा में तब्दील हो सकती है, किन्तु नहीं हो पाएगी । अनुत्तरित रह जायेंगे सारे प्रश्न । मेरे पत्रकार मित्र ने शायद ठीक ही कहा था ऐसे प्रश्न किसी-किसी को क्षणिक उद्वेलित तो करते हैं किन्तु आहत किसी को नहीं । जटिल प्रश्नों का उत्तर जानना बौद्धिक विलासिता  है इस युग में ।        
पलक झपकते ही शोकातुर पिता का चेहरा लुप्त हो जाता है और इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि ट्रैजेडी में कमिक्स आ जाता है ।‌‌ टेलीविजन की स्क्रीन पर विश्वसुंदरी कोमल त्वचा का राज़ बताने लगती है, और अंग-अंग की कोमलता का राज जानने के लिए पारखी नजरें तल्लीन हो जाती है  ' मधुशाला ' में ।   
डायरी का पन्ना पलटता हूं । कारगिल के दुर्गम पथ पर बोफोर्स धमाका, बोफोर्स की कहानी, बोफोर्स तोप पर चल रहा अंतहीन विवाद, जवानों की लाशें, ताबूतों की खरीदारी में कमीशन खाने का आरोप, सबूत के अभाव में लाशों का दुखान्त आदि सोचते-सोचते एक और करुण कथा मंडराने लगती जो शायद ही इतिहास के पन्नों में दर्ज़ हो पाये ।      
कथा है पाकिस्तान के एक युवती की । क्या नाम था उसका मालूम नहीं । नाम कुछ भी रहा हो कथाकार को उससे मतलब नहीं। वैसे कहानी के लिए उसका नाम रेहाना रखता हूं।
रेहाना का शौहर आर्मी अफसर अपनी मर्दानगी, अपना जज़्बा दिखाता हुआ मुल्क की सरहद पार कर आ पहुंचता इस मुल्क में और शिकार हुआ था हिन्दुस्तानी फौज का ।
उस आर्मी अफसर की लाश को पाकिस्तानी फौजी हुकूमत ने लेने से इंकार कर दिया था ।
पाकिस्तान का दावा था कि उसका कोई भी फ़ौजी युद्ध में शिरकत नहीं कर रहा था। 
रेहाना को मलाल है कि उसके बहादुर शौहर के नसीब में उसके वतन की छह फुट जमीन भी न थी ।
रेहाना का आख़री ख़त हवा में लहराता हुआ दिखाई देता है । रेहाना ने लिखा था " उस दिन हमारी पैंतालीस मिनट की बात फोन पर...... मैं तुम्हें बहुत कुछ कहना चाहती थी पर नहीं कह पाई........कल मेरा बर्थडे है और सन्डे को तुम्हारा । मगर तुम्हारे बिना सबकुछ बेमानी लगता है........ पांच बार नमाज़ अदा करती हूं, तुम्हारी खैरियत की दुआ मांगती हूं..... दुबारा बात करना । बन्नी को तो तुमने अभी देखा भी नहीं, वह एकदम तुम पर गयी है, उसके ऊपर के दो दांत निकल आए हैं, मैं उसे कहती हूं पप्पी दो, वह दांतों से गाल काट देती है, दिनभर ताम ताम ताम ताम न जाने कौन सा लफ्ज़ निकालती रहती और हंसती रहती है। एक नम्बर की शैतान, दिनभर तंग करती है । जल्दी से घर लौटो और सम्भालो अपनी नाॅटी गर्ल को......बस अब और नहीं लिखा जा रहा है, आंखों में आंसू आ रहे हैं, ख़ुदा सही सलामत रखें .... अपना ख्याल रखना ।"
        बन्नी अब बड़ी हो गई है । वह जान गई है कि हर बच्चे का अब्बू होता है । वह अपने अब्बू के बारे में जानना चाहती है ।
 रेहाना अपनी बेटी से कहना चाहती है कि उसका अब्बू एक जांबाज फौजी अफसर था जिसने जंग में दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए थे, सैकड़ों को मौत की घाट उतार कर शहीद हो गए थे । वह कहना चाहती है कि उसे अपने शौहर पर नाज़ है और बेटी को भी अपने बाप पर फख्र होना चाहिए।
मगर लाख कोशिशों के बावजूद रेहाना अपनी बेटी को झूठ नहीं बोल पाती। उसका दिल गवाही नहीं देता ।
कथाकार चाहता है कि रेहाना अपनी बेटी को हक़ीक़त से वाक़िफ करा दें। रेहाना अपने शौहर के कब्र के पास बन्नी को दिखलाना चाहती है कि उसके अब्बू के दुश्मनों ने अब्बू को पाकिस्तानी झंडे से ढक कर अपने देश के छह फुट जमीन में दफना कर शहीदी सलाम दिया था।
रेहाना अपने शौहर को शहीद नहीं बोल सकती ।
रेहाना दुश्मनों को दुश्मन नहीं मान पाती, हत्यारो को हत्यारा नहीं मान पाती । रेहाना जानना चाहती है गद्दार कौन है ? वह जानना चाहती है कि उसके पति की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है ? 
रेहाना ख़ामोश रहती, ख़ामोशी में ही वह अपना ख़ैर समझती है । सच बोलना उसके लिए गुनाह है । गुनहगार बनकर रेहाना ख़ुद की और अपनी बेटी की ज़िंदगी बर्बाद नहीं करना चाहती । यही इस कहानी का सच है ।
शोकातुर वृद्ध पिता की तरह रेहाना अपनी भंड़ास नहीं निकाल नहीं सकी थी । काश वह अपनी भंड़ास निकाल पाती तो शायद अपने जमीर पर अपना एतबार रख पाती और घुमती फिरती लाश बनने से बच जाती ।

© सुभाषचंद्र गांगुली
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कहानी 'कहानी की तलाश' संग्रह-
संस्करण 2006 का एक टुकड़ा।
( Posted on 8/7/2022)

 
 

Saturday, July 2, 2022

लघुकथा- ऋणी



      उस दिन कार्यालय में विशिष्ट अतिथि आने के कारण दफ़्तर से निकलते निकलते सांझ ढल चुकी थी । संयोग से उस दिन मैं दिनभर भूखा रह गया था। दो बिस्किट और चाय पीकर घर से चला था । दिनभर दफ़्त में आए वी• आई •पी • की आवभगत और अन्य व्यवस्था देखने में इतना व्यस्त था कि टिफिन खाने तक का टाइम नहीं मिल पाया था ।
आफिस छोड़ते समय मैंने मन बनाया था कि शाम को  गवर्नमेंट प्रेस के सामने शाम को लगने वाले मछली बाजार से मछली खरीद कर घर पहुंचूंगा, और रात को जम कर माछ भात खाऊंगा। 
दफ़्तर के फाटक से निकलते ही पुलिस मुख्यालय के सामने किसी ने पुकारा - " भाईसाहब ! ज़रा ठहरिए ।"
मैंने ब्रेक लगाया । गाड़ी रुकते ही एक छह फुट का खाकी वर्दी पहना हुआ एक आदमी गाड़ी पर झट से चढ़ बैठा और बोला -" चलिए ।"
मैंने गाड़ी का क्लच छोड़ा और गाड़ी आगे बढ़ने लगी ।
दस गज भी न चले थे कि उसने कहा -" मुझे रेलवे स्टेशन जाना है ।"
--" मुझे गवर्नमेंट प्रेस के सामने से मछली खरीदना है फिर वापस लौट कर इधर से ही घर लौटना है । मेरा घर गंगा किनारे भारद्वाजपुरम में है ।"
उसने कहा --" आपको जहां उतारना उतार दीजिएगा, सवारी नहीं मिली इसलिए आपको कष्ट दे रहा हूं । क्या करूं आठ बजे का ट्रेन है, आज ही इसे राइट टाइम आना था, बीस बाइस मिनट बचे हैं, टिकट भी लेना है.... ये साहब लोगों को भी दफ़्तर बंद होते समय सारा काम याद आता है। अभी थोड़ी देर पहले मीटिंग खत्म हुई । मेरा घर कानपुर में है, पोस्टिंग भी वहीं है।
चलते चलते मेरी निगाहें मछली बाजार पर गयी, अंधेरे में मोमबत्तियां, दीए जगमगाते दिखें, लगभग आधी दुकानें उठ चुकी थी बाकी सभी दुकानें बढ़ाने की तैयारी कर रहे थे।
मैंने कहा -"देखिए वही है मेरा मछ्ली बाजार।"
उसने तपाक से कहा-" मुझे यहीं उतार दीजिए ।"
चूंकि मैं स्टेशन तक छोड़ने का मन बना चुका था मैं आगे बढ़ता गया । थोड़ा सा हिलकर उसने कहा--"‌ भाईसाहब ! मछली बाजार पूरा-पूरा बंद हो जाएगा, उतार दीजिए, मैं चला जाऊंगा ।"
मैंने कहा -"चुपचाप बैठे रहिए, हिलिए डुलिए नहीं, अभी लगभग एक किलोमीटर और है ।"
--" अरे सर आप थके हारे हैं, ऐसे ही देर हो गई है, बाजार भी बंद हो जाएगा । आप बुजुर्ग आदमी ."
--" मैं क्या आपको कन्धे पर ढो रहा हूं ? मैं पब्लिक सर्वेन्ट हूं, आप भी वही है, कल समय से हम-दोनों को ड्यूटी पर पहुंचना है । ये ट्रेन मिस हो जाए तो अगला दो घंटे बाद ही । वो देखिए आ गया स्टेशन ।"
ठीक चबूतरे के सामने मैंने गाड़ी रोकी। मैंने घड़ी देखी, अभी भी बारह मिनट बाकी । मैंने कहा -" वो रहा टिकट काउंटर, एकदम खाली ।"
स्कूटर से उतर कर वह मेरे सामने खड़े हो गए । शर्ट पर जड़ें तीन स्टार चमचमाते हुए नजर आए । उसने टोपी उतारी, अदब से मस्तक झुका कर नमन किया, अपना नाम बताया फिर दोनों हाथों से मेरे घुटनों को स्पर्श किया और बोला " मैं आपका ऋणी हूं, कभी जरूरत पड़े तो याद कर लीजिएगा । ये मेरा विजिटिंग कार्ड।"
उनके आचरण से अभिभूत होकर मैं बोला --"आपने प्रणाम कर ऋण चुका दिया है, अब मैं ऋणी हो गया । फिर मिलेंगे ।"

© सुभाषचंद्र गांगुली
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* Rewritten on 02/07/2022
* पत्रिका ' मृदुलय ' आगरा के 05+06/1998के अंक में प्रकाशित।
 

Friday, July 1, 2022

लघुकथा- छिपकली



      बरसात के बाद का समय था, लाइट जलने के साथ-साथ अनगिनत कीड़े-मकोडे घर में आ जाते भले ही शाम से खिड़कियां बंद कर दी जाती और जाने कहां से एक दर्जन छिपकलियां भी दीवार पर मंडराने लगती ट्यूबलाइट के चारों ओर । कीड़े मकोड़े, छिपकलियों से तंग आकर ट्यूबलाइट पर प्याज या नीम के पत्ते लटका देता । कभी-कभी झाड़ू से भून डालने का व्यर्थ प्रयास करता ।
और कभी कभार लेखनी बंद कर एकटक दीवार पर चल रहे छिपकलियों का तांडव देखता। कीड़े मकोड़े बहुसंख्यक होने के बावजूद मात्र पांच सात छिपकलियों से भयग्रस्त थे । पीढ़ियों से चली आ रही है छिपकलियों का आक्रमण । शायद बहुसंख्यक कीड़ों का जीवन संघर्ष अनादि काल से चला आ रहा है।
छिपकलियां मुझे प्रचंड ताकतवर, भयानक, अजेय जीव लगती हैं । एक एक को मैं मगरमच्छ जैसा देखता, कदाचित डायनासोर जैसा कल्पना कर लेता हूं । सबसे आश्चर्य की बात है कि भले ही उन मगरमच्छनुमा छिपकलियों की गिनती उंगलियों पर थी, आपसी तालमेल और समझौता तो दूर कीड़ों को खाने के चक्कर में वे अपना खूंखार उग्र रुप धारण करके एक दूसरे के साथ जब-तब उठा-पटक में जुट जाते मानो उन सबों का पेट विशालकाय समंदर सा हो जिसमें सबकुछ समा लेने की क्षमता हो । काश मैं भी मगरमच्छ जैसा होता !
मेरी जरुरतें बहुत कम है। मुट्ठीभर अनाज, तन ढकने का आवरण और सिर के ऊपर छत, बस खुद की संतुष्टि के लिए इतना प्रर्याप्त है । मैं तो सामान्य जीवन ही जीना चाहता हूं किन्तु मेरा भी क्या नसीब है उस थोड़े के लिए भी कीड़े जैसा संघर्ष करना पड़ता है, बच बच कर चलना पड़ता है।
एक रात कीड़े जैसी जिंदगी की भावना जागृत होते ही मेरे मन में सुषुप्त अवस्था में रहने वाला विद्रोही कवि जाग उठता है और कुछ अनर्गल जुबान पर आ जाता ---" वह मारता था मच्छर / अपने ही बदन पर " या फिर " अबे, सुन बे छिपकली "।
शब्दों को कागज़ पर उतारने के लिए मैं लालायित हो गया, जैसे ही लिखने के लिए मैंने कलम उठाई, मेरे सिर पर जैसे किसीने प्रहार किया, मैंने सिर पर हाथ रखा और छिपकली को वापस दीवार पर चढ़ते हुए देख चीख उठा " छिपकली !ओ. उफ्फ...... छिपकली गिरी सिर पर "घिन लगने लगा फिर मेरी कविता की मृत्यु हो गई ।
        इतने में पत्नी किचन से दौड़ कर आयी और उल्लास से बोली--" अरे आपके सिर पर छिपकली गिरी है ! तब तो आप राजा बन जायेंगे ।"
मैंने हंसते हुए कहा "और आप रानी बल्कि महारानी बन जाएंगी । तो महारानी  फिलहाल आप थोड़ा सा पानी गरम कर दीजिए, अपना सिर धो लूं । "
वह बोली--" अरे नहीं नहीं आज सिर नहीं धोइए । गड़बड़ हो जाएगा । राजा बनने का योग शुरू हो चुका है । किसी से कहिएगा भी नहीं कि सिर पर छिपकली गिरी थी, टोना लग जाएगा .....हंसिए नहीं, खूब जय जयकार होगा, ईश्वर ने चाहा तो आप विश्वगुरु भी बन जाएंगे ।"
 तब से बीस बरस बीत गये न छिपकलियां हटी, न मेरी तरक्की हुई, बड़ी कोशिश की कि दुबारा कोई छिपकली गिरे तब शायद राजा बन जाऊं किन्तु राजा तो क्या जो तरक्की होनी थी, नहीं हुई और रिटायर होकर फकीर बन गया । 

© सुभाषचंद्र गांगुली
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Rewritten on 01/07/2022
* लघु पत्रिका ' पंखुड़ियां ' जनवरी-
मार्च 1998 अंक में प्रकाशित ।
* ' तरंग ' पत्रिका 1998मे प्रकाशित।