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Monday, December 19, 2022

लघुकथा : व्यवहार


          
मेरी इकलौती बेटी की शादी में मेरा अज़ीज़ दोस्त राजेश के न आने से मै थोड़ा दुःखी था, चिंतित भी था। वह कुशल है,शहर में भी है फिर न आने का कारण क्या है जानना पड़ेगा।
हमारे कार्यालय में हम उम्र लोगों का एक ग्रुप था।
नौकरी में आने की उम्र का अंतर दो चार साल का रहा होगा। इस ग्रुप में जाति-धर्म का भेदभाव नहीं था। प्रायः लंच में कार्यालय के बाहर ' गुप्ता जी की चाय की दुकान ' पर मुलाकात होती रहती। 
हम सबों की शादियां हुई, बच्चे हुए, अवसरों पर एक दूसरे के घर आना-जाना होता । शुभ अवसरों पर एक दूसरे की खोज-खबर लेते, किसी के न आने पर उपस्थित न होने का कारण पूछते।
सामूहिक कार्यों में सपरिवार हाजिर होते-होते एक दूसरे से पारिवारिक सम्बन्ध हो गया था।
घनिष्ठता के मामले में राजेश मेरा सबसे घनिष्ठ मित्र था। उसका कारण शायद यह भी रहा कि  हम दोनों की नियुक्तियां एक ही दिन एक ही साथ हुई थी, दोनों अगल-बगल बैठ कर वर्षों काम किए।
मेरे घर से काफ़ी दूर था राजेश का घर, क़रीब बीस-बाइस किलोमीटर । बीच में नदी पार करने के लिए है बहुत लम्बा पुल। उसके तीनों बच्चों की शादियों में उतनी दूर खटारा स्कूटर लेकर दो बार जाड़े में कंपकंपाते हुए सपत्नी पहुंचा था।
उसकी पिता की मृत्यु होने पर कार्यालय से छुट्टी लेकर उसके घर गया था । दाह-संस्कार के उपरांत घर आते-आते काफ़ी रात हो गई थी।
यह सारी बातें मुझे यकायक यादें आने लगी जब मैंने देखा कि मेरी इकलौती कन्या की शादी में राजेश नहीं आया।
विवाह समारोह के तीन-चार माह बाद पेंशन कार्य हेतु मेरा दफ़्तर जाना हुआ था। मैं सालभर पहले रिटायर हुआ था, राजेश तब भी कार्यरत था।
राजेश से मिला, हालचाल लिया फिर पूछा " बेटी की शादी में मैं देर रात तक तुम्हारा राह देख रहा था।"
उसने बेरुखी से उत्तर दिया " भेज तो दिया था।"
मैंने आश्चर्य व्यक्त किया " कोई तो आया नहीं था। न तुम, न तुम्हारे परिवार का कोई।"
उसने तैश में कहा " लिफ़ाफ़ा पहुंचा था कि नहीं? 'व्यवहार' मिला था न ?"
उत्तर देने का मन नहीं कर रहा था फिर भी कहा 
" आज मैं तुम्हें नहीं बता पाऊंगा और न ही तुम समझ पाओगे कि मुझे क्या नहीं मिला।"
बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए मैं बाहर निकल आया।
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© सुभाषचंद्र गांगुली 

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