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Monday, September 5, 2022

कहानी: पत्नी की तस्वीर

इन दिनों लगभग पूरा इलाहाबाद शहर बाढ़ग्रस्त है। गंगा और यमुना दोनों लेवल से ऊपर बह रही है। हफ्तेभर से कभी तेज तो कभी धीमी बारिश हो रही है। मोरी गेट बंद है। बख्शी बाँध पर दरार पड़ने की खबर से अल्लापुर, नागवासुकी, दारागंज, काटजूनगर, गायत्री नगर, चांदपुर सलोरी आदि क्षेत्रों में रहने वाले भयभीत एवं चौकस है। दरार रोकने के लिए सेना मेहनत कर रही है।

कल शाम को मूसलाधार बारिश शुरू हुई थी और देर रात तक बारिश होती रही। देखते-देखते हमेशा की तरह सम्पूर्ण अल्लापुर मोहल्ला जलाशय में तब्दील हो गया। इस साल कुछ ज्यादा ही पानी है। गोपीबाबू के कमरे में तीन फुट पानी इकट्ठा हो गया। पाँच फुट कद के सत्तर वर्षीय गोलमटोल गोपीबाबू आधी रात से एक-एक सामान इधर-उधर हटाकर पानी से बचाने की कोशिश में लगे हुए हैं। घुप्प अंधेरे में वे एक-एक सामान टटोलते और उस दौरान मेज, कुर्सी, स्टूल, आलमारी आदि से ठोकरें खाते। अकस्मात उन्हें अपनी पत्नी की तस्वीर का ख़्याल आता है और वे बाकी चीजों से ध्यान हटाकर उसे ही ढूँढ़ने लगते ।

मोहल्ले का लगभग हर मकान डूबा हुआ है। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि पानी कहीं कम तो कहीं ज्यादा है मगर जाने क्यों पानी निकलने के बाद सभी लोग यही कहते कि उनके घर के भीतर पानी नहीं घुसा था, फाटक तक आया था या कहेंगे पानी चबूतरे से नीचे था या फिर कहेंगे कि आँगन में थोड़ा-बहुत पानी आया था।

सम्भव है कि गोपीबाबू भी यही कह दें कि उनके घर के भीतर पानी नहीं लगा था चबूतरे के नीचे था क्योंकि सड़कों से पानी उतरते ही फाटक से लगा गोपीबाबू का पैंतीस फिट चौड़ा और बारह फिट लम्बा चबूतरा घुल जाने के बाद साफ-सुथरा नज़र आने लगेगा और मकान का ग्राउंड फ्लोर जो सड़क से काफ़ी नीचे है, का जमा पानी गोपीबाबू खुद बाल्टी से निकालकर फेंक देंगे फिर वाइपर चलाकर फर्श साफ कर देंगे।

यह सब गंदा काम गोपीबाबू के बेटों को पसंद नहीं है। वे पिता से कहते हैं चार-छह रोज पड़ा रहे ना सब उसी तरह, क्या फ़र्क पड़ता है, मौसम साफ़ होने पर लेवर मिल जायेगा। मगर गोपीबाबू को मकान ख़राब में पड़  होने के साथ-साथ बच्चों की सेहत की चिंता है। इससे पहले भी पाँच-सात बार मकान के भीतर पानी घुसा था और हर बार गोपीबाबू ने अपने ही हाथों से सफ़ई की थी।

गोपीबाबू का विशाल चबूतरा कभी बगीचा हुआ करता था। जब-जब उन्हें दफ़र से दौरे पर नहीं भेजा जाता तब-तब उनकी सुबह और शाम बगीचे में ही बीतती। फल-फूलों से लदा वह बगीचा मकान की शान हुआ करती थी। मकान के पास से गुजरने वाले बगीचे में एक बार ज़रूर नजर डालते। आज उस जगह दो सायकिलें, तीन मोपेड और पाँच-छः मोटर सायकिलें हैं। एक साइड में छह गमले हैं। सारे वाहन उनके तीन बेटे और पोते-पोती के हैं और गमले उनके खुद के। चबूतरा पार करके चार सीढ़ी उतरना पड़ता है। यह ग्राउंड फ्लोर है। साठ के दशक में जब अल्लापुर में मकान बनाना मना था, जगह-जगह खाई और तालाब थे उस समय का कन्स्ट्रक्शन है ग्राउंड फ्लोर । सीढ़ी से उतरते ही एक हालनुमा कमरा है जिसमें कभी गोपीबाबू सपरिवार रहते थे। कमरे के सामने है दालान, दालान के दाँये किचन, स्टोर और दालान पार कर विशाल आँगन, अनार और अमरूद के दो बड़े-बड़े पेड़ और दूसरी छोर पर दो छोटे-छोटे कमरे है। हाल के सिवा पूरा का पूरा भूतल इन दिनों खाली पड़ा हुआ है। गोपीबाबू के कमरे में फर्नीचर के अलावा ढेर सारी चीजें है जिन्हें उनके बेटे आलतू फ़ालतू समझते हैं और कबाड़ी के हाथ बेच देने को कहते हैं मगर गोपीबाबू पूर्वजों के सामानों को मरते दम कलेजे से चिपकाये रखना चाहते हैं। कमरे में पच्चीस पावर का एक बल्व डिप-डिप करता रहता है, उसके इर्द-गिर्द मकड़ी ने जाले पूर रखे हैं। भूतल का बाकी हिस्सा अंधेरा रहता है, भूतहा लगता है।

भूतल जितना प्राचीन लगता उतना ही आधुनिक है ऊपर के तीन तल्ले में बने तीनों फ्लैट जिनमें गोपीबाबू के बेटे अपने-अपने परिवार के साथ रहते हैं। ऊपर जाने की सीढ़ी बाहर से है, ग्राउंड फ्लोर से कुछ लेना-देना नहीं है।

बच्चों को पढ़ाने लिखाने व बेटी की शादी के खर्च के बावजूद वह महलनुमा 'प्रेमा भवन' किस प्रकार तैयार हुआ, उसके लिए उन्होंने क्या कुछ नहीं किया यह किस्सा सुनाते हुए गोपीबाबू कभी नहीं थकते। जब से वे रिटायर हुए हैं घूमते-टहलते जिस किसी से उनकी मुलाकात हो जाती दो-चार बातों के बाद ही वे अपनी निजी जिंदगी का किस्सा सुनाते, उपलब्धियों गिनाते और अगले से वाहवाही लूटते। गोपीबाबू कहते हैं कि तीस साल की कड़ी मेहनत और त्याग का परिणाम है। 'प्रेमा भवन'। लगभग पूरी जिंदगी वे दौरे पर रहे, दौरे पर दतुन से दाँत साफ किए, बदन पर शुद्ध मिट्टी रगड़कर नहाये बिना साबुन के कपड़े धोये, धर्मशाला के कमरों में रात-रात भर सोते-जागते रहे मगर दस प्रतिशत देकर होटल की रसीद बनवाये और टूथपेस्ट, बोरोलिन, अगरवली, मोमवली, माचिस, कापी, कागज आदि जो भी सामान टूर प्रोग्राम के दौरान प्राप्त कर पाते अपने घर ले आते एक टाइम खाना खाकर, एक टाइम का पैसा बचाते आदि सुनाकर वे बताते कि पाई-पाई दातों से दबाकर ही इतना बड़ा महल बना पाना सम्भव हुआ।

गोपीबाबू बड़े गर्व से कहते हैं कि आज रिटायरमेंट के बाद भी वह किसी के मुहताज नहीं है। 'शंकर भोजनालय से दोनों टाइम उनका 'टिफिन' घर पर आ जाता है। सामने चाय की दुकान पर चाय-नाश्ता करते हैं। छह लाख रूपये एम०आई०एस० में धरा हुआ है, दो लाख की फिक्सड डिपाजिट है, व्याज की रकम तथा पेंशन के बूते एक पोते को एम०बी०ए० और एक को इंजीनियरिंग पढ़ाते हैं। बड़े दंभ से वे कहत हैं कि खाली हाथ बनारस से आये थे और सेठ बन गए हैं।

मगर सब कुछ रहने के बावजूद इस वक्त गहरी, सूनी रात में गोपीबाबू बिड़बड़ाते हुए जो कुछ कह रहे हैं उससे यह साफ है कि उनकी स्थिति बेहद दयनीय है, दुनिया का सबसे ग़रीब सबसे बेचारा इंसान वहीं है। एकाकीपन उन्हें दीमक की तरह चाट रहा है। भीतर से खोखले हो गए हैं। फिलहाल गोपीबाबू इस बात से अत्यन्त हताश है कि वे अपनी पत्नी की तस्वीर बचा नहीं पा रहे हैं। म फ्रेम में मढ़ा वह पेंटिंग किधर से लुढ़का, किधर वह गया पता नहीं चल पा रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी ने हिफाज़त से रख दिया हो? मगर नहीं, जिन्हें जिंदा बाप की याद नहीं आयी उन्हें तस्वीर की याद क्यों आयेगी?

पत्नी की वह एकलौती तस्वीर उनके लिए दुनिया की सबसे अनमोल चीज थी। पत्नी के गुजरे हुए बीस वर्ष हो गए हैं। पत्नी के देहांत के बाद श्राद्ध के दिन जब फोटो की जरूरत पड़ी थी तो पता चला कि घर पर एक भी फोटो नहीं है।

बड़ी मुश्किल से जो उसे प्राप्त किए थे।

गोपीवाल की पत्नी पुराने जमाने की आम औरतों की तरह ही थी। कम पढ़ी-लिखी, काम-काजी, गृह-कर्म में निपुण संस्कारी, धार्मिक और घोर संसारी घर से बाहर निकलना तो क्या निहायत प्रयोजन न होने पर फाटक पर या छत पर नहीं जाती। किसी घरेलू अनुष्ठान में फोटो खिंचवाना भी होता तो घूंघट से आधा मुँह क कर, सामूहिक फोटो में शामिल होती।

बहुत स्मरण करने पर गोपीबाबू को याद आया कि अमुक-अमुक अवसरों पर ग्रुप फोटो खिंचवाया गया था। बहुत ढूंढने के बाद जब पता चला कि कहीं भी उसकी तस्वीर नहीं है तो गोपीबाबू ने यह मान लिया कि वह अलबम जिसमें पत्नी की एक दो तस्वीरें रहीं होगी सन् सत्तर की बाढ़ की भेंट चढ़ गई होगी। 

क़रीब दस बरस बाद गोपीबाबू को फिर पत्नी की तस्वीर की ज़रूरत महसूस हुई। तब ये रिटायर होकर पोते-पोती के साथ अधिकांश समय बिताने लगे थे। प्रायः रोज ही बच्चे गोपीबाबू से पूछते 'दादी जी देखने में कैसी थी?" गोपीबाबू कभी कहते तुम्हारी बुआ जैसी कभी कहते तुम जैसी कभी कहते 'सीता जैसी' तो कभी कहते 'माँ दुर्गा जैसी' बच्चे तो बच्चे थे, उनकी जिज्ञासा बढ़ती गयी और सबों ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। 'क्या उनकी तीन आंखें थी?' 'क्या उनके दस हाथ थे?' 'क्या वह बुआ जैसी मोटी थी?' 'उनकी नाक कैसी थी?' 'उनकी आँखें काली थी या भूरी?

बच्चों के प्रश्नों से गोपीबाबू ने खुद को क़सूरवार समझा। उन्हें लगा कि जब वे अपनी माँ की तस्वीर पचास वर्ष से बड़े जतन से रखे हुए हैं और दीवार पर टंगी उस तस्वीर पर हर पुण्य तिथि पर माला पहनाना नहीं भूलते तो पत्नी की तस्वीर भी रहनी चाहिए थी। वंश परिचय के लिए कम से कम तीन पीढ़ी तक की तस्वीरें रहनी ही चाहिए तभी न वे स्वयं माता-पिता और पूर्वजों की तस्वीरें सुरक्षित रखे हुए हैं। दिमाग में इस विचार के कौंधते ही अपनी पत्नी की तस्वीर हासिल करने के लिए गोपीबाबू व्याकुल हो उठे।

गोपीबाबू के ससुराल का अब कोई जीवित न था। गोपीबाबू ने अपने रिश्तेदारों को फोटो के लिए लिखा मगर किसी से कोई फोटो न मिला। कइयों ने तो अचरज व कौतूहल व्यक्त कर ऊलूल-जुलूल लिख मारा। लिखा कि पत्नी की मृत्यु के एक दशक बाद अचानक फोटो की आवश्यकता क्यों पड़ गयी? लिखा कि पत्नी के न रहने पर उनका चेहरा वे कैसे भूल गये? इतने साल साथ रहने के बाद भी फोटो क्यों नहीं रखा? अवांछित प्रश्नों से गोपीबाबू इतने आहत हुए कि इस सम्बन्ध में उन्होंने आगे मौन रखना बेहतर समझा।

एक दिन एक अद्भुत घटना ने गोपीबाबू के तन-मन को झकझोर कर रख दिया। गोपीबाबू के पास एक अजनबी का पत्र पहुंचा। पत्र कुछ इस प्रकार था- 'आपके एक रिश्तेदार जो मेरे मित्र है, से मालूम हुआ कि आप अपनी बीबी की तस्वीर पाने के लिए बेहद परेशान है। इस सम्बन्ध में में आपकी मदद कर सकता हूँ आपको मैं पार्सल द्वारा तस्वीर भेज सकता था किन्तु ऐसा करना मैंने मुनासिब नहीं समझा क्योंकि मेरे बारे में आपकी जिज्ञासा एवं उस तस्वीर से मेरा क्या सम्बन्ध है यह बात आपके मन में बनी रह जाती। मैं अपने घर का पता दे रहा हूँ, आप चाहे तो मुझसे सम्पर्क कर सकते हैं, उम्मीद है कि आपकी समस्या, सुलझ जायेगी आपका दिनेश। 
पत्र पढ़कर गोपीबाबू की नींद हराम हो गई।

गोपीबाबू की पत्नी प्रेमा कक्षा पाँच तक ही स्कूल गई थी फिर संयुक्त परिवार के काम-काज में हाथ बंटाने लगी थी।अट्ठारह वर्ष पूरे होते-होते विवाह हो गया था। उसके बाद बच्चों के लालन-पालन और गृहस्थी में तल्लीन रही, उसने कभी भी घर की ड्योढ़ी पार नहीं की थी, किसी गैर मर्द के साथ सम्बन्ध रहने का सवाल ही नहीं उठता, फिर भी एक अजनबी के पास उसकी तस्वीर कैसे पहुंची? 

सभी जान गये थे कि प्रेमा की तस्वीर नहीं मिल पायी थी अब मिल जाने के बाद सभी को यह बताना पड़ेगा कि एक गैर मर्द के पास से तस्वीर प्राप्त हुई है, यह भी बताना पड़ेगा कि उसके पास तस्वीर पहुँची कैसे। 

 चिंतन-मंथन के बाद गोपीबाबू ने सोचा बेहतर होगा चुप रहना और तस्वीर को हासिल न करना। 

 काफ़ी दिनों तक चुप रहने के बाद वे खुद को रोक न सके और तस्वीर पाने के लिए ख़ासतौर पर उसकी राज जानने के लिए वे दिल्ली पहुँच गए।

दिनेश के एक कमरे के फ्लैट में प्रवेश करते ही गोपीबाबू की निगाहें तस्वीरों से पटी हुई चारों दीवारों पर अनायास घूमने लगी। चौदह वाई ग्यारह साइज के कमरे का शायद ही किसी दीवार का कोई स्थान खाली था जहाँ कोई और फोटो फ्रेम टाँगना सम्भव रहा हो।

कुछ अनौपचारिक बातों के पश्चात् गोपीबाबू जब चित्रों को देखने की मनशा से उठ खड़े हुए तो एक दीवार के कोने में एक तस्वीर देख ये विस्मित हुए, काफ़ी देर तक एकटक देखने के बाद वे आश्वस्त हुए कि वह प्रेमा की ही तस्वीर है। गोपीबाबू की दिल की धड़कने तेज़ हो गयी और होठ थरथराने लगे। अपने दोनों हाथों से सिर थामकर वे सोफे पर धँस गए।

कुछ देर बाद दिनेश ने कहा 'आप जो कुछ अनुमान लगा रहे हैं वह गलत है। इस तस्वीर की कहानी अनोखी है... प्रेमा के पिता यानि आपके ससुर और मेरे पिता दोनों मित्र थे। बनारस में दोनों अगल-बगल रहते थे। जब मैं नौ-दस वर्ष का था और प्रेमा तीन-चार वर्ष की थी तभी बातों-बातों में उन लोगों ने तय किया था कि हम दोनों की शादी के जरिए उन दोनों की मित्रता के सम्बन्ध को रिश्तेदारी में बदलेंगे...एक-दो साल बाद मेरे पिता का ट्रांसफर गाज़ियाबाद हो गया था, फिर कई साल बाद दिल्ली में, मेरे पिता जी रेलवे में सर्विस करते थे... वर्षों बाद एक रिश्तेदार की शादी में बनारस जाना हुआ था, उसी विवाह में प्रेमा आयी हुई थी। उस समय वह बहुत सुन्दर थी, पन्द्रह-सोलह की रही होगी...मैंने अपनी माँ से कभी हँसी-हँसी में पिता और मित्र चाचा के बीच हुई हम दोनों की शादी की बात की याद दिलायी। मेरे पिताजी ने अपने मित्र से बात छेड़ी। प्रेमा के पिता ने कहा था कि वे उसकी शादी जल्द करना चाहते हैं। अगर साल-दो साल में मुझे कहीं भी सरकारी नौकरी मिल जाए तो वे राजी-खुशी शादी कर देगें... प्रेमा को शायद ही इस सम्बन्ध में कुछ मालूम रहा होगा... अभी जब मेरा बनारस जाना हुआ था तब मुझे पता चला था कि आप उसकी तस्वीर के लिए परेशान है। अचानक मुझे याद आया कि मेरे अलबम में उसकी तस्वीरें हैं। मुझे दो ग्रुप फोटो मिले। एक जब वह दो-ढाई वर्ष की थी और दूसरी जब वह पन्द्रह-सोलह की थी...दूसरी तस्वीर को देखकर मैंने उसकी यह काल्पनिक तस्वीर बनायी है। इसमें उसकी उम्र पच्चीस के करीब रखने की कोशिश की है। मेरा यह मानना है कि उस उम्र में उसका चेहरा ऐसा ही रहा होगा... आपको अगर लगता हो कि यह तस्वीर उसी की है या उससे मिलती-जुलती है तो इसे आप ले जाइए, आपके पोते-पोती की दादी की तस्वीर मिल जायेगी।'

गोपीबाबू बोले-'आप सचमुच बहुत बड़े कलाकार हैं... पहली झलक में मुझे लगा था यह चेहरा उससे मिलता-जुलता है मगर बार-बार देखकर लगने लगा कि यह उसी की तस्वीर है, इससे काम हो जाएगा....इसकी कीमत अनमोल है। आप कितनी कीमत लेंगे?' 

-मैं इसकी कीमत नहीं ले सकता। प्रेमा मेरे पिता के घनिष्ठ मित्र की बेटी थी... ।

- प्रेमा से आपकी आख़री मुलाकात कब हुई थी ?"

-'अभी आपसे कहा न जब वह पन्द्रह-सोलह की थी। हम लोग शादी अटेंड करने बनारस गये थे...वहीं पर दोनों परिवारों का ग्रुप फोटो खिंचवाया गया था।'
 थोड़ी देर के लिए सन्नाटा पसर गया। इस बीच गोपीबाबू दिनेश को एकटक देखते रहे फिर उन्होंने पूछा-'आपका परिवार कहाँ है?"

-'मैं अकेला हूँ। मेरा कोई नहीं है।' -'क्यों शादी नहीं की थी या.....

-समय रहते अच्छी नौकरी मिल जाती तो शादी कर लेता। छोटी-मोटी नौकरी मिल रही थी, मैंने की नहीं... मैं चित्रकार हूँ, पेंटिंग के अलावा फोटोग्राफी करता हूँ। गुजर-बसर हो जाता है। अब बुढ़ापे में ठीक-ठाक कमा लेता हूँ, जब शादी की उम्र थी तब मेरी कमाई इतनी नहीं थी कि घर बसाने का साहस जुटा पाता।

किसी तरह से गोपीबाबू को प्रेमा की तस्वीर प्राप्त हुई थी वह किस्सा गोपीबाबू ने मुझे सुनाया था। दिनेश की साफगोई के बावजूद गोपीबाबू के मन में था कि दिनेश ने सच्चाई छिपायी होगी बात कुछ और रही होगी। गोपीबाबू के मन में दिनेश के प्रति उपजे संदेह को मैं यह कह कर दूर नहीं कर सका था कि प्रेमा का चाँद सा मुखड़ा जिस किसी ने दो बार देखा होगा भूला नहीं होगा। ऐसा होना स्वाभाविक था। दिनेश जैसा मैं भी अगर चित्रकार हुआ होता तो मैं ही उसका स्केच उतार दिया होता।

पत्नी की तस्वीर ढूँढते ढूँढ़ते भोर हो गयी किन्तु गोपीबाबू को सफलता नहीं मिल पायी। निराश होकर वे चीखने-चिल्लाने लगे-'रात भर से परेशान हूँ, स्टूल पर तस्वीर रखी हुई थी पता नहीं किधर चली गई...कोई क्यों नहीं आता है मदद करने? बबलू ! मुन्ना !... कहाँ चले गये सबके सब? बरसात का पानी तुम लोगों के कानों के भीतर घुस गया है क्या? कानों में कीड़े पड़े है क्या?...यहाँ रात भर सो न सका, जिन्दा हूँ या...'

ऊपर बार्जे में खड़े-खड़े परिवार के लगभग सभी लोग वाटर लॉगिंग का नज़ारा देखने में मगन थे। गोपीबाबू की चीख सुनकर सभी नीचे ताकने लगे। बबलू ने कहा- 'आप वहाँ पानी के भीतर क्या कर रहे हैं? मैं जान रहा था कि आप रात को मुन्ना भइया के घर में सो गये होंगे।'

गोपीबाबू ने कुछ नर्मी से कहा- 'यहीं स्टूल पर पेंटिंग रखी हुई थी, स्टूल तैर रहा है, तस्वीर किधर गई पता नहीं मिल जाये तो अभी भी सूखे कपड़े से पोछ कर पंखे के नीचे रख देने से शायद ठीक हो जाए, बड़ी मुश्किल से तस्वीर मिल पायी थी, अब दूसरी तस्वीर मिलनी भी नहीं है, आओ अब तुम लोग ढूँढ़ो।'

बबलू और मुन्ना ने अनसुनी कर दी। गब्बू नीचे उतर कर मोटर साइकिल की सीट पर बैठे-बैठे झल्लाया-'यहाँ सारे लोग परेशान है, जाने क्या-क्या डूब गया है। लोगों का, कल रात से बिजली गुल है, रातभर सो नहीं पाये, फूल पत्तों के सारे गमले चौपट हो गए हैं, मोटरसाइकिलें खराब हो रही है, अभी तक चाय नहीं बन पायी. .. आपको तो बस अपनी पत्नी की तस्वीर की ही पड़ी है। बुढ़ापे में दिमाग... ।' गोपीबाबू की आँखों में खून उतर आया। पूरी ताकत से वे चीख उठे-'साला सुअर ! वह तेरी माँ थी।'

 गोपीबाबू के पैर फिसल गए, वे पानी के भीतर फर्श पर गिर पड़े और पानी की एक ऊँची उठती लहर गब्बू के मुँह पर थपेड़ा मारकर निकल गयी।

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "मोक्षदायिनी" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2021)
* पत्रिका ' पाखी ', लखनऊ अगस्त 2009 में प्रकाशित ।
* वैचारिकी 2010


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