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Sunday, June 20, 2021

कहानी- मोक्षदायिनी

कहानी -- मोक्षदायिनी 

सम्पादकीय टिप्पणी --" पाप धोने  वाली गंगा  मिया मे हमारे पाप  इतने  इकट्ठे हो गए  हैं कि अब  वे  पलटकर  हमे ही  सताने  लगे  हैं । गंगा  की गुहार  से  अनजान  अपने  स्वार्थों के लिए हम उसे  मिटाने पर आमादा  है । " -- अनिल सिद्धार्थ , सम्पादक 

जेठ की दोपहर रमादेवी का शव लेकर हम पहुंचे गंगा के तट पर जानलेवा लू. बालू के कण तेज़ हवा के साथ बदन में चुभ रहे हैं. कानों में रूमाल बांधे हुए हूं, सिर पर टोपी और जेब में है प्याज़, घने वृक्ष के नीचे, चबूतरे पर बैठे-बैठे चारों ओर देख रहा हूं. थोड़ी दूर चाय की दुकान पर एक बुजुर्ग श्मशान-बंधुओं के नाम लिख रहे हैं. मैं जाकर लिस्ट देखता हूं. अपना नाम नोट करवाकर लौट आता हूं.

पड़ोसी होने के नाते झख मारकर मुझे आना पड़ा है वरना ऐसी भयंकर गर्मी में मैं कहां आनेवाला. आज इतवार न होता, तो बला टल जाती.

मुझ जैसे ही और चार-छह लोग लोक-लाज की खातिर आ पहुंचे हैं. वे सब अपने-अपने वाहनों से आये हैं. सभी इधर-उधर छितरे हुए हैं.

शव जलना शुरू होने की देर नहीं कि लोक-लाज से बंधे लोग बिना किसी औपचारिकता के चंपत हो जायेंगे. उनकी भी क्या गलती. ऐसे मौसम में किसी की भी तबियब खराब हो सकती है.

रमादेवी की मौत जब भोर रात को हुई थी, तो सुबह-सुबह धूप तेज़ होने से पहले ही अर्थी उठा लेनी चाहिए थी. सूरज सिर के ऊपर आते-आते लोग अपने- रहे. अपने घर लौट गये होते.

रमादेवी के बेटे संतोष का ऐसा ही प्लान था. उसने भाई-बहन को आधी रात में ही खबर कर दी थी कि मां मरणासन्न है, शीघ्र आ जाये. बहन अपने पति के साथ आधी रात ही में आ गयी थी, मगर छोटा भाई राजेश देर से आया और आते ही लाश देखकर भड़क उठा. उसने कहा, 'यह स्वाभाविक मृत्यु नहीं लग रही है. मुंह से फेन निकल रहा है. नाक टेढ़ी हो गयी है. शरीर से दुर्गंध आ रही है. मां को जहर देकर मारा गया है.'

उसकी बातों से सभी लोग हक्के-बक्के हो गये. सभी ने रमादेवी के शव को गौर से देखा फिर संदेह की दृष्टि से संतोष को देखने लगे.

अप्रत्याशित हमले से संतोष के होश उड़ गये. संभलने में उसे थोड़ा सा वक़्त लगा. फिर उसने गुस्सा झाड़ा, 'क्या पागलपने की बात करते हो? तुम्हे मालूम है। तुम क्या कह रहे हो?"

"खूब अच्छी तरह मालूम है. मैंने जो देखा, लोग जो देख रहे हैं मैंने वहीं कहा. यह ज़हरीली लाश नहीं है, तो क्या है ? "

संतोष ने अपना आपा खो दिया, उसने कहा- 'यह तुम्हारी पगलौटी नहीं, तो और क्या?.... हम क्यों मारेंगे उन्हें? क्या था उनके पास? ज़मीन-जायदाद, रुपये-पैसे, सोना दाना कुछ भी नहीं था. पेंशन भी नहीं पूरी तरह मुझ पर डिपेंडेंट थीं. जबकि तुम ज्यादा कमाते हो, दो रुपये देकर कभी मदद नहीं की खोज-खबर तक नहीं ली, महीने भर से वह परेशान थी, पूरे शरीर में बड़े-बड़े दाने निकल आये थे. मुंह के भीतर तक दाने निकल आये थे, खा-पी नहीं सकती थी. राजेश, राजेश रटती रह गयी. मैने दो-दो बार तुमसे कहा कि आकर मिल लो, पर तुम ऐसे लायक बेटे कि झांकने नहीं आये. अब बेसिर-पैर के लांछन लगा रहे हो.

दोनों काफ़ी देर तक एक दूसरे को भला-बुरा कहते

तनातनी ख़त्म करने के लिए बहन और बहनोई ने पहल की. दोनों ने राजेश को अहसास दिलाया कि उसने भारी ग़लती की है. संतोष के सारे रिश्तेदार, पड़ोसी जो भी उपस्थित थे सबने उन दोनों की हां में ही मिलायी. अंततः अफ़सोस जाहिर करते हुए राजेश ने अपनी बातें वापस लीं, माफ़ी मांगी, फिर भी संतोष का मुंह फूला हो रहा.

गंगा किनारे में जिस वृक्ष के नीचे बैठा हुआ हूं यह सड़क से लगा हुआ है. यहां से दस क़दम चलकर बीस बाइस गज बलुआ मिट्टी की काल से उतरकर लगभग एक किलोमीटर ऊबड़-खाबड़ जमीन, दलदल पार कर नदी के पास रमादेवी की अर्थी रखी गयी है. वहीं पर चिता जलायी जायेगी. वहीं दो-तीन गज की दूरी पर गंगा की धार बह रही.

गंगा सूख गयी है. संकरा, सर्पीला, गंदा नाला लग रही है. नदी की चौड़ाई आधी से भी कम हो गयी होगी और गहराई तो इतनी कम कि कुछ लोग तैरते-तैरते डुबकी मारने के बाद उठ खड़े हो रहे हैं. कहीं-कहीं वे लोग थोड़ा बहुत पैदल चलते हुए दिख रहे हैं.

हवा इतनी तेज़ है, किंतु नदी का जल ठहर-सा गया है. कहीं कोई लहर नहीं. तेज़ हवा के दौरान तालाब में जिस तरह की तरंगें उठती हैं बिल्कुल वैसी ही तरंगें दिख रही हैं.

दक्षिण दिशा में पचास गज़ की दूरी पर एक सुअर मरा पड़ा है. कुत्ते उसे नोच रहे हैं. एक दूसरे को ठेल कर आगे बढ़ने की होड़ है उनमें मंदिरों के सामने प्रसाद लेने का दृश्य मेरी आंखों के सामने आ जाता है.

के थोड़ी-थोड़ी देर बाद लू के साथ सड़ांध का थपेड़ा मेरी नाक के भीतर से दाखिल होकर अंतड़ी में कंपन पैदा कर रहा है. गंगा के उस छोर पर दुनियादारी से बेखबर बीस-पच्चीस भैंसें दलदल और अल्पजल में कलेजे को शीतल कर रही हैं. और नदी के उस पार खुला मैदान दूर क्षितिज में जाकर मिल गया है. धू-धू करती दस-बीस फीट ऊंची उठती हवा बादलों का आकार लेकर लहरा रही हैं जो अभी तक अप्रदूषित है. गंगा प्रदूषण इकाई के पास मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा है. 'गंगा मइया, जीवन दइया, इसे बचाओ बहना
भइया.' और 'भागीरथी करे गुहार मुक्त करो गंगा की धार.'मगर गंगा मइया को भाई-बहन सब मिलकर कैसे बचायेंगे ? किस तरह से मुक्त होगी, गंगा की धार? उपाय कहीं नहीं लिखा है, मुझे याद आता है कि इलाहाबाद, कानपुर, वाराणसी, मुरादाबाद, कन्नौज, गढ़ मुक्तेश्वर कहाँ भी सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट नहीं है, सभी जगहों के नालों का पानी सीधे गंगा में विलीन हो जाता है. क्या करेंगे बहना भइया ?

और लाशें? लाशें तो जलेंगी ही, और लकड़ियों पर ही जलेंगी. क्योंकि बात आस्था की जो है. आस्था की ही बात है कि जहां रमादेवी का दुबला-पतला शरीर तीन मन लकड़ी से जल सकता है वहां टालवाला तथा महाराज ने रमादेवी के बेटों को कनविंस कर लिया कि सात मन लकड़ी जलाने से अधिक पुण्य मिलेगा, चंदन काठ जलाने से पुण्य और भी बढ़ जायेगा. इस कारण से से बेटों ने एक मन चंदन और छह मन चीर ख़रीद लिया. सारा जलाशेष नालानुमा गंगा में बहा दिया जायेगा. बहाया जायेगा और भी बहुत कुछ.

शव जलाने के स्थान से सौ गज़ की दूरी पर नहाने की व्यवस्था है. वहीं लोग पानी में उतर कर मंत्र पढ़कर सूर्यदेवता को प्रणाम करते हैं, डुबकी लगाते हैं. डुबकी लगाते और नहाते समय दोनों हाथों से जली-भुनी लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़े, गुलाब के पत्ते, प्लास्टिक पन्नियां, टहनियां आदि कचरा हाथों से हटाते रहते, कदाचित मुंह में आ जाने से मुंह साफ़ करते, कुल्ला कर लेते हैं. जल के भीतर दोनों हाथ डालकर अंजुरियों में जल लेकर आचमन करते और गला सूखने पर प्यास भी बुझा लेते हैं.

वहीं जल के भीतर जहां तक हाथ जाये बोतल डालकर गंगाजल भर कर ले जाते हैं. सब का ख्याल है कि भीतर का जल स्वच्छ है, अमृत है. नित्य गंगा-स्तुति पाठ करनेवाली, सुबह-शाम पूजा उपरांत गंगाजल पीनेवाली प्रति एकादश तथा महान पर गंगा स्नान करने वाली बात-बात पर गंगाजल छिड़ककर घर को शुद्ध करने वाली, गंगा में विसर्जित होकर मोक्ष की प्राप्ति पर विश्वास रखनेवाली रमादेवी की खुशियों का कोई ठिकाना तब न था, जब सालभर पहले उनके बेटे संतोष ने गंगा के पास राधानगर कॉलोनी में मकान बनवाया और मां को अपने साथ ले आया था.

वह कहती गंगा मइया की कृपा से ही संतोष का निजी मकान बना, गंगा की कृपा से उन्हें नित्य गंगा- दर्शन और गंगा स्नान का अवसर मिला.

मगर रमादेवी को कभी-कभार हल्का-फुल्का बुखार आता, बदन में छोटे-छोटे दाने निकलते फिर ठीक भी हो जाती. दो-चार दिन गैप देती फिर गंगा स्नान करने लगती. संतोष ने मां को कई बार समझाया उन्हें पैंसठ वर्ष की उम्र में नित्य गंगा स्नान नहीं करना चाहिए, सेहत का ख्याल रखना चाहिए, वैसे भी गंगा इन दिनों काफ़ी मैली हैं मगर गंगा-उपासक रमादेवी कहां सुननेवाली. गंगा महिमा बखान करने लगती. वह कहा करती नित्य गंगा स्नान करने वाले रोग मुक्त रहते हैं. उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती हैं.

फागुन का महीना था. शहर में चेचक और हैजा फैला हुआ था. रमादेवी के बदन में भी छोटे-छोटे दाने निकल आये. रमादेवी ने नहाना, धोना बंद कर रखा था. मां शीतला की पूजा की मत्रत रखी.

दो चार दिन बाद दाने बड़े-बड़े नज़र आये, शरीर के अंग-अंग में फैल गये. रमादेवी ने खुद को घर के एक कोने में क़ैद कर लिया, खजुवाहट से आरास पाने के लिए नीम की पत्तियां मंगवा ली. बीच-बीच में वह अपने ऊपर दो चार बूंद गंगाजल छिड़क लेती और गंगाजल के दो-चार घूंट भी जाती.

किंतु तकलीफ़ कम होने के बजाये बढ़ती गयी. मुंह के भीतर तक दाने निकल आये, मुंह पर छाले दिखने लगे. आहार पर विराम लग गया. तरल पदार्थ भी मुश्किल से ले पाती. उस पर भी वह डॉक्टर बुलाने का विरोध करती रही, बार-बार यही कहती रही कि बड़ी माता है ठीक होने में समय लगता है, इस बीमारी में डॉक्टर का कोई काम नहीं है. मगर संतोष ने अंततः मां की नहीं सुनी और घर पर डॉक्टर बुला लाया.

डॉक्टर ने कहा कि उन्हें किसी चीज़ की एलर्जी हो गयी है, संभव है कि जल से इन्फेक्शन हो गया हो. वैसे किस चीज़ की एलर्जी है यह खून, पेशाब, खाद्य पदार्थ आदि तमाम परीक्षण के बाद ही पता चल पायेगा. उन्होंने एक मरहम लिख दिया. कुछ एंटी एलर्जी दवाइयां लिख दीं और किसी चर्मरोग विशेषज्ञ को दिखाने की सलाह दी. रमादेवी अपनी ही बात पर अडिग थी. मगर संतोष ने डांट डपटकर, ज़ोर-ज़बरदस्ती कर बहू से मरहम लगवा दिया और दवाइयां पानी में घोलकर पिला दी.

तीन दिनों तक दवाइयों का कोई असर न होते देख, मौत से दो दिन पहले संतोष ने चर्मरोग विशेषज्ञ बुलाया. उन्होंने कहा रमादेवी को त्वचा रोग हो गया है जो अक्सर पानी या कीचड़ या किसी अन्य गंदी चीज़ से हो जाता है. समय रहते पकड़ में आ जाने से हालात इतनी खराब न होती. उन्होंने संतोष को लापरवाही बरतने के लिए भला बुरा कहा. मरहम तथा दवाइयां जारी रखी. कुछ जांच परीक्षण की बात कही, और कहा कि शरीर पर किसी प्रकार का पानी का इस्तेमाल न किया जाये, न ही मुंह, सिर धुलाया जाये. पीने और मुंह पोंछने के लिए कुनकुने पानी का प्रयोग किया जाये.

संतोष ने घबराते हुए कहा, 'डॉक्टर साब! मां बात नहीं सुनती रोने लगती है. कहती है बड़ी माता है, गंगाजल छिड़कती है, पीती भी है देखिए कितनी सारी बोतलें..."

एक बोतल उठाकर डॉक्टर ने कहा- 'इसमें भी गंगाजल है? तलछट में मिट्टी की कितनी मोटी परत है, देख रहे हैं.'

रमादेवी ने बुदबुदाया- 'ये डॉक्टर लोग न गंगा नहाते न पूजा करते हैं, ये क्या जाने? गंगा का पानी अमृत हैं. सालों खराब नहीं होता."

डॉक्टर को हंसी आ गयी. उन्होंने कहा- 'माताजी आप इस समय थोड़ा सा सहयोग कीजिए. गंगा की कृपा से आप ठीक हो जायेंगी, फिर स्नान करना, जल भी पीना. हो सकता 'बड़ी माता' ही निकली है, परीक्षण के बाद ही पता चल पायेगा. थोड़ा सा धीरज धरिए.'

शव जलने, नहाने-धोने, सारा काम संपन्न होते-होते सूरज ढल गया. दूर-दूर तक इक्के-दुक्के तारे भी दिखने लगे. लू का प्रकोप अभी भी खत्म नहीं हुआ, हवा अभी भी गर्म है. इस गरमी में दिन भर धूप में तरबूज, खरबूजा, खीरा, ककड़ी, आम पना, गन्ना रस आदि बेचनेवाले तथा दिनभर सवारी ढोने वालों की रोटी की क़ीमत क्या होती

होगी यह कुछ-कुछ मुझे समझ में आया. जब हम घर लौटे तो संतोष की पत्नी ने कागज़ात देकर संतोष से कहा- 'ये डॉक्टर साहब ने भिजवाया है. कागज़ों को ध्यान से पढ़ने के बाद संतोष ने कहा, 'गंगाजल की जो बोतलें डॉक्टर साहब परीक्षण के लिए ले गये थे, उनमें विषाक्त कीटाणु पाये गये हैं.'

© सुभाष चंद्र गांगुली
( "मोक्षदायिनी" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2021)
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* "अमर उजाला" Sunday आनंद ( रविवार 20 जून  2012 )
* पत्रिका "कथाबिम्ब " सम्पादक- अरविन्द सक्सेना, अप्रैल-जून 2011



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