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Tuesday, October 5, 2021

लघु कथा- सारे जहां से अच्छा



एक दिन जब दफ़्तर से घर लौटा तो फाटक खोल कर पोर्टिको में स्कूटर पार्क करते समय देखा एक बड़ा पैकेट फर्श पर रखा हुआ है । पत्नी बोली -- " यह पार्सल कोई रख गया है। "
--" कोई रख गया है?"
--" कौन रखेगा, एक आदमी ने ही रखा है । देख लीजिए । "
--" अरे इसमें तो कोई डाक मुहर भी पढ़ा  नहीं जा रहा । स्पीड पोस्ट का कागज भी चस्पा नहीं है, तो फिर वह आया कहां से था  ?"
पत्नी बोली --" पता नहीं । "
--" डाकिया के ड्रेस में था ?"
--" याद नहीं ...... मैं सो रही थी , घंटी बजी, नींद टूटी बाहर आयी तो वह हाथ में लेने को बोला, मैंने भीतर का दरवाजा नहीं खोला, मैंने कहा फाटक खोल कर रख दो, फाटक बंद कर देना । ..... आपही ने कहा था कोई पैकेट कहां से आया क्या है जानकर ही लेना, खोलना । मैंने पूछा था, उसने कहा था " हमें मालूम नहीं, यहीं का है " मैंने फर्श पर रखने के लिए कहा था ।  "
--" उफ्फ ! क्या मुसीबत , कोई आया, सामान रखा और चला गया ?"
--" मगर सामान ठिकाने से रखा तो है । खोल कर देख लीजिए ।" पत्नी भीतर चली गई ।
बहुत देर तक मैं उस पैकेट  देखता रहा । भेजने वाले का नाम से मैं वाक़िफ न था । भेजने वाले को मेरा पूरा नाम भी पता नहीं रहा होगा । बहुत सज़ा कर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था पहला नाम । जी  हां, यह नाम तो मेरा ही है किन्तु इसके आगे भी तो है । ज्यादा हैरानी यह देख कर हुई कि मेरे घर का पता भी आधा-अधूरा लिखा था । मकान नम्बर नहीं है, केवल गली का नाम और शहर का नाम ।
अजीब टेंशन में आ गया मैं । समय पहले से बहुत ज्यादा बुरा हो गया है । हर जगह हिदायत दी जाती है कोई लावारिस सामान न उठायें, संदिग्ध पैकेट खोलने से पहले जांच- पड़ताल कर लें, सावधानी बरतें। 
मैं पैकेट को घर के भीतर नहीं लाया । मेन फाटक के भीतर दीवार की ओट पर जहां रखा हुआ था, वहीं रहने दिया ।
अगले दिन सुबह-सुबह डाकघर खुलने के समय मैं डाकघर पहुंचा । 
अपने क्षेत्र के डाकिया को ढूंढ कर निकाला । 
मैंने पूछा तो उसने कहा " पहुंचाया तो था मगर कहां से आया था पता नहीं। "
मैंने रिकार्ड देख कर बताने को कहा । वह कार्यालय के भीतर गया फिर आकर बोला -- "सेना से आया था, गुप्त रहता है, कोड नम्बर
था । "
            अब मुझे तसल्ली मिली । जिस किसी का भी होगा ठीक ही होगा । कोड नम्बर द्वारा भेजे गए पत्र, सामानों की अच्छी तरह से चेकिंग होती है । मैं अपने कार्यालय चला गया । 
शाम को फुर्सत से पैकिंग खोलने बैठा । एक के बाद एक रैपर खुलता गया ।
चार पांच परत खुलने एक बाद एक नक्काशीदार डिब्बा निकल आया । उसे खोला और खोलते ही मैं दंग रह गया। मेरी आंखों के सामने वही टिन का डिब्बा था जो बरसों पहले मेरे स्कूल बैग से गुम हो गया था । 
मुझे अतीत का वह दिन याद आ गया जिस दिन मैं उस डिब्बे के खोने से अत्यंत दुखी हो गया था।
              घटना ३ अप्रैल,१९८४ की है । उस दिन सुबह से पूरे गांव में हलचल थी । दोपहर को  अनोखी घटना घटनेवाली थी । घटना का सीधा प्रसारण आकाशवाणी व दूरदर्शन से होने की बात थी । दूरदर्शन से सीधे प्रसारण की बात अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण थी क्योंकि हमारे गांव में टीवी भी नया नया आया था । दो चार समृद्ध लोगों को ही टीवी रखने का गौरव प्राप्त था और उन्हीं लोगों ने गांव के जन-जन को देश की प्रगति की चश्मदीद गवाह बनाने का बीड़ा उठाया था ।
सारे लोग अपना-अपना काम- काज जल्दी से निपटा कर पंडालों में जाने लगे थे । 
स्कूल में प्रार्थना के तुरंत बाद हेडमास्टर साहब ने एलान किया कि दो पीरियड के बाद स्कूल की घंटी बजेगी , घंटी बजते ही सभी बच्चे अपना- अपना स्कूल बैग क्लासरूम में रख कर महुआ पेड़ के नीचे एकत्र होंगे और फिर वहां से सारे बच्चों को ग्राम प्रधान के घर के सामने मैदान में लगे पंडाल में ले जाया जाएगा।
लम्बी लाइन में हम सब बच्चे चलने लगे थे। हर एक क्लास टीचर क्लास के बच्चों के सबसे आगे थे । 
पंडाल पहुंच कर हम सब ज़मीन पर बैठ गए । टीवी का कार्यक्रम निश्चित समय पर प्रारंभ हुआ । चारों ओर सन्नाटा पसर गया। बच्चे बूढ़े अधेड़ सब ध्यानमग्न होकर टीवी देखने लगे ।
अचानक देखा टीवी स्क्रीन पर नीले आसमान के ठीक नीचे शून्य में एक आदमी तैर रहा। उसका पूरा शरीर ढका हुआ था , शीशे से उसका मुंह भी ढका हुआ था । उसका नाम कैप्टन राकेश शर्मा कहा गया । 
देश के प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी भी उस दृश्य को देख रही थी । राकेश शर्मा का चेहरा देखते ही इन्दिरा जी के चेहरे पर खुशी उमड़ पड़ी । प्रसन्नचित्त मुद्रा में उन्होंने पूछा --" आपको अंतरिक्ष से भारत कैसा लग रहा है ? "
अंतरिक्ष में तैरते हुए बड़े गर्व से राकेश शर्मा ने बताया " सारे जहां से अच्छा" ।
उसके इस उत्तर से इन्दिरा जी के साथ पूरा देश झूम उठा । तालियों की गड़गड़ाहट से कान फटने लगे । स्कूल लौटते समय रास्ते भर हम अपने टीचरों के साथ लयबद्ध तरीके से " सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा / हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसिता हमारा....." गाते गये ।
स्कूल से लौटते ही लंच का टाइम हो गया ।
लंच करने के लिए जब स्कूल बैग खोला तो देखा कि लंचबॉक्स गायब था ।
लंचबॉक्स क्या हिमालय पाउडर का एक खाली डिब्बा जिसमें दो सादी रोटी और एक ढेला गुड़ था । उन दिनों हमारी घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी । फिर भी मैं यह सोच कर खुश हुआ कि हमारी हालत किसी से तो बेहतर है, मेरी सूखी रोटियां किसी के काम तो आई। 
मगर ज्योंहि मुझे ख्याल आया कि डिब्बे के कारण मुझे डांट खानी पड़ेगी, मैं परेशान हो गया और बहुत देर तक मैं डिब्बा ढूंढता रहा । 
छुट्टी होने के साथ ही साथ सारे बच्चे जोश और उल्लास से शोर मचाते हुए अपने अपने क्लासों से निकल गयें। सभी के लबों पर एक ही लाइन थी " सारे जहां से अच्छा / हिन्दुस्तान हमारा है " ।
 पुरानी यादें ताजा हो गईं।
मैंने बड़े कौतूहल से डिब्बा खोला । डिब्बे में एक चिट्ठी थी। चिठ्ठी में लिखा था --" मित्र मैं क़सूरवार हूं तुम्हारे टिफिन का, कर्ज़दार भी हूं । सच कहूं दोस्त ! तुम्हारी उन रोटियों ने मुझे जीवनदान दिया था , तुम्हरा डिब्बा भी काम आया था । इस समय तुम्हारी कृपा से खाने पीने की कमी नहीं है लेकिन तुम्हारा डिब्बा मेरे लिए बोझ बना हुआ है।
यह बार बार मुझे मेरे अतीत की याद दिलाता है।
सम्वेदना से जुड़े रहने के कारण इसे मैं फेंक भी न सका । 
तुम्हारा स्कूली लंचबॉक्स तुम्हें लौटा रहा हूं । तुम्हारे कारण एक दिन मेरा भूख मिटा था । तुम्हारा कर्ज़ा मैं चुका नहीं सकता लेकिन दोस्त को गिफ्ट तो दे ही सकता हूं । छोटा-सा गिफ्ट है, कबूल करो ! कभी उधर जाना हुआ तो अवश्य मिलूंगा । याद है ना " सारे जहां से अच्छा " 
तुम्हारा दोस्त -- अविनाश
मुझे याद आ गया कि मैं भी कभी बहुत गरीब था। रोटी और गुड़ स्कूल का टिफिन धा, खुद को बहुत गरीब समझता था मगर वह बेचारा ! 

सुभाष चन्द्र गांगुली
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' पंजाब केसरी ' 31/03/1999 में प्रकाशित ।

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