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Thursday, January 12, 2023

कहानी : बनवारी जीत गया


वकील ने जब बनवारी से कहा कि उच्च न्यायालय ने उसके पक्ष में निर्णय सुनाया है, पाँच-सात दिन में जजमेन्ट की कापी मिल जाएगी, फिर आदेश की कापी लेकर वह दफ्तर जाकर ड्यूटी ज्वाइन करें तो वह खुशी से झूम उठा। 'बनवारी जीत गया' 'बनवारी जीत गया' बोलकर घर में बच्चों जैसा चिल्लाने लगा। मिन्नत पर रखी हुई दाढ़ी बनवाकर गंगा नदी में बहाया, गंगा किनारे स्थित लेटे हनुमान जी के मन्दिर पर ग्यारह किलो लड्डू चढ़ाकर प्रसाद बाँटा। वकील साहब के घर भी एक किलो लड्डू दे आया। दो दिन बाद पति-पत्नी ने सत्यनारायण की कथा सुनी।

मगर उसकी सारी खुशी तब गम में तब्दील हो गयी जब वह अदालत का अंग्रेजी में दिया गया चार पेज का आदेश लेकर वकील के घर पहुँचा। बहुत देर तक आदेश पढ़ने के बाद वकील ने कहा कि जजमेन्ट में यह लिखा हुआ है कि दोनों पक्षों को सुनने के बाद अदालत इस नतीजे पर पहुँची है कि बनवारी के आचरण में कोई दोष अवश्य रहा होगा तभी उसे नौकरी से निकाल दिया गया था किन्तु उसे उसके दोषों से अवगत नहीं कराया गया था और न ही सुधरने का अवसर दिया गया था। जो कि 'नैसर्गिक न्याय' के विरूद्ध था। इसलिए अदालत ने यह राय जाहिर की है कि बनवारी को अभी भी अवसर प्रदान किया जा सकता है। कोर्ट के आदेश के मुताबिक प्रशासन बनवारी को दुबारा काम पर रख कर परख सकता है कि इस समय वह नौकरी में रखने योग्य है या नहीं।

वकील की बात सुनकर बनवारी चीख उठा- 'क्या ? शुरू से शुरू ? सात साल की सर्विस बेकार? इतने बरस बेकार ? छियालिस की उम्र में फिर से कैजुअल लेबर ?. ..मुझसे सारे जूनियर रेगुलर हो गये, कई पढ़े-लिखे लड़के बाबू बन गए और मैं... यह कैसा आदेश ? यह कैसा इन्साफ वकील साहब ?... इस दो टूक फैसले के लिए बारह वर्ष लग गए ?... छह साल फालतू ट्रिबुनल में पड़ा रहा, छह साल यहाँ। तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख। जब देखिए सरकारी वकील गायब रहते। मुश्किल से तारीखें लगती, उसके लिए भी रूपए देने पड़ते, आप भी अर्जी लगा देते थे बार-बार आपने मेरी लाइफ चौपट कर दी है। मुझे झूठा दिलासा देते रहे, रूपए ऐंठते रहें। मैं तो बर्बाद हो गया हूँ। बुढ़ापे के लिए कुछ रूपए पिताजी ने बचा कर रखा था, वो भी पाई-पाई निकल गया। मुकदमें के चक्कर में मेरे बच्चे अनपढ़ रह गये। आपको पहले बता देना चाहिए था कि मुकदमें में दम नहीं है।'

बनवारी ने अपना आपा खो दिया। वह अनर्गल बकने लगा। चीखने चिल्लाने लगा। वकील साहब के बेटे और दो अन्य लोगों ने उसे यह कहते हुए घर से निकाल दिया- 'ऑर्डर लेकर दफ्तर जाओ देखो क्या होता है। तुम्हारा भला ही होगा। तुम जीत गये हो। ठंडे दिमाग से काम लो।'

घर लौट कर बनवारी गुमसुम बैठा रहा। न कुछ खाया-पीया, न किसी से बातचीत की। शाम से रात, रात से भोर। बनवारी बिड़बड़ाता रहा, कभी घर के भीतर और कभी घर के बाहर चबूतरे पर लेटता। भोर होते-होते वह घर से निकल गया किसी से कुछ कहे बिना ।

दिनभर की इंतज़ारी के बाद जब शाम तक बनवारी घर नहीं लौटा तो उसके पास पड़ोस के दो-चार लोग तथा परिवार के सभी उसे ढूँढ़ने के लिए निकल पड़े। 

* * *

अपने भाई बहनों में वह अकेला ग्रेजुएट था। पढ़ाई में ठीक-ठाक था। किन्तु बी0ए0 पास करने के बाद तमाम प्रयासों के बाद भी तीन साल तक जब कोई नौकरी नहीं जुटा पाया तब मोटरकार ड्राइविंग सीख कर गाड़ी चलाने लगा। अपना काम और अपनी कमाई से उसने समझौता कर लिया था। जब कभी ज़्यादा पैसों की ज़रूरत होती तो वह दूर का सफर पकड़ लेता।

महीनों बाद बनवारी के पिता ने एक सरकारी दफ्तर के बड़ेबाबू के मार्फत दैनिक मजूरी के आधार पर दफ्तर की गाड़ी चलाने का काम ढूँढ़ निकाला और बनवारी को ज्वाइन करवाया। यही था बनवारी के जीवन का टर्निंग पाइन्ट । संघर्ष की शुरूआत।

कैजुअल लेबर बनने के बाद उसकी आमदनी आधी हो गई। बीबी बच्चों की जरूरतें पूरी नहीं कर पाता। एक दिन उसने नौकरी छोड़ने का मन बना लिया किन्तु उसके पिता ने उसे रोका। उन्होंने समझाया कि तीन-चार साल काम करने के बाद उसकी सेवा नियमित हो जाएगी, पढ़ा लिखा होने के कारण वह आगे चलकर बाबू, बड़ा बाबू बन जाएगा, विभागीय इम्तहान पास कर लेने पर अधिकारी तक बन सकता है। कई ऐसे लोगों के नाम गिनाते हुए उन्होंने कहा कि सरकारी नौकरी तो मिलने से रहा, पीछे के रास्ते से नौकरी पाने का यही एक उपाय है। उन्होंने समझाया कि सारी सुख सुविधाएँ, पदोन्नति, पेंशन सब कुछ हासिल करने के एवज में चार-पाँच साल की तंगी, तकलीफ क्या मायने रखती। बनवारी को बात समझ में आ गयी और उसने वही नौकरी जारी रखी।

सात वर्ष कैजुअल लेबर की हैसियत से काम करने के बाद एक दिन बनवारी को पंद्रह दिनों के लिए बिठा दिया गया। पंद्रह दिनों के बाद जब बनवारी दफ्तर गया तो लेबर इंचार्ज ने दस रोज बाद मिलने कहा। यह सिलसिला करीब दो महीना चला फिर एकदिन लेबर इंचार्ज ने कहा कि वह घर बैठे जब ज़रूरत होगी, बुला लिया जाएगा। 

इंचार्ज से बिना कुछ कहे बनवारी सीधा अनुभाग अधिकारी से मिला और पूछा "बताइए मुझे क्यों बैठा दिया गया?"

'जगह नहीं है।' अधिकारी ने कहा।

-'जगह नहीं? दसियों जगह खाली पड़ी हुई है। मुझसे जूनियर लोग सब लगे हुए हैं, तीन नये लड़कों को मेरे साथ बैठा दिया गया था वे भी रख लिए गये हैं। बताइए मुझे क्यों नहीं ड्यूटी दे रहे हैं? मैं काफी पुराना हूँ। मेरे साथ ऐसा अन्याय नहीं कर सकते। क्या कारण है बताइए।'

अधिकारी ने कहा- 'आई एम सॉरी ऊपर का आदेश है मेरी मर्जी नहीं चलेगी।'

-बड़े साहब के घर का नौकर थोड़े ना हूँ जो उनकी मर्जी चलेगी? दफ्तर के नियम-कानून क्या ताक पर धरे रह जायेंगे?' बनवारी ने उत्तेजित होकर कहा।

-'तुम जो कुछ कह रहे हो हम समझ रहे हैं, तुम्हारे साथ हमारी हमदर्दी है।

'हमें किसी की हमदर्दी नहीं चाहिए। हक चाहिए। इतने वर्षों से मेहनत करता आ रहा हूँ, बीस दिन का पगार तीसों दिन की ड्यूटी। दिन-दिन भर, रात-रात भर गाड़ी चलायी और क्या करता? लगातार दो वर्ष प्रतिवर्ष दो सौ छह दिन काम करने के बाद कैजुअल लेवर को रेगुलर कर दिया जाना चाहिए। मेरे नीचे कई लोगों की नौकरी साल भर की भी नहीं हुई थी कैसे रेगुलर कर दिया गया? सरकारी आदेश के अनुसार मेरा हक बनता। आप ही ने फाइल नहीं बढ़ायी होगी।

-'हम तभी फाइल बढ़ाते हैं जब साहब का हुकुम होता है। साहब तुमसे इतना खफा है कि वह तुम्हारी सूरत तक नहीं देखना चाहते। मैंने तुम्हें कई बार समझाया था मगर तुमने सुना नहीं।...तुम्हें जिस काम पर साहब ने लगाया था उसे ठीक से नहीं किया था।' 

-'किसने कहा आपसे? साहब ने जासूसी करने कहा था हमने किया था। हमें जितनी जानकारी मिल पाती थी हम बता दिया करते थे और क्या करना था हमें? मेरे कहने से क्या अध्यक्ष महोदय हड़ताल बंद करते? मैं ठहरा कैजुअल लेबर बाबू लोगों के आन्दोलन से मेरा क्या लेना-देना?"

-'तुम्हारे कारण बड़े साहब की कितनी बदनामी हुई, पूरा दफ्तर बदनाम हुआ, सारे लोग जाने क्या कुछ बक रहे हैं और तुम पूछते हो कि क्या किया? बड़े लोग बड़े होते हैं, साहब ने ज़रा सा इम्पटिंस क्या दिया तुम्हारे पर निकल आये।

-'उनके बारे में किससे क्या छिपा है? किसे नहीं पता था कि दफ्तर के चौकीदार मिलिटरी कैन्टीन से दारू लाकर साहब के घर पहुँचाते थे?...फौआरा चौराहे वाला किस्सा किसे नहीं मालूम? अख़बार में ख़बर छपी थी। सड़क के किनारे गाड़ी खड़ी करके गाड़ी के अंदर क्लर्क निशिकुमारी के साथ...डॉ0 मनीष ने उन्हें मोटरकार से उतार कर नाम पूछा था फिर दो थप्पड़ मारकर उनका नशा उतार दिया था..... बताइए आपको मालूम था कि नहीं? निशि कुमारी के साथ साहब का अवैध सम्बन्ध किससे छिपा है ? देर रात तक साहब के घर पर ठहरती है, कॉलोनी के लोग क्या अन्धे हैं?'

अधिकारी का चेहरा तमतमा उठा। उन्होंने गुस्सा झाड़ा-'शट अप ! इतने दिनों में अनुशासन में रहना नहीं सीखा नौकरी क्या करोगे? अपने लिए ज़रा सा पछतावा तो दूर उल्टा जुबान लड़ा रहे हो? गेट लॉस्ट ।'

फिर उन्होंने अपने अनुभाग के लोगों को इशारा किया कि बनवारी को बाहर निकाल दिया जाए। एक ने कॉलर पकड़ा, एक ने हाथ, फिर सबों ने मिलकर उसे बाहर निकाल दिया।

बाहर निकलते-निकलते बनवारी चीखता रहा- 'साहब के घर आलमारी भेजी, कालीन, पर्दे और जाने क्या-क्या भेजा। दफ्तर का सामान बिना नियम भेजा। आप ही लोगों ने चमचागीरी कर सिर चढ़ाया। आप ही लोगों ने नेताओं से बहुत कुछ कहा...प्रशासन के दलाल हैं आप सब।
चमचे, चापलूस, कायर हैं सब के सब...मैंने किसी से कुछ नहीं कहा। मैंने कोई गलत काम नहीं किया है।'

अधिकारी ने केयरटेकर को लिखित आदेश देकर कार्यालय के भीतर बनवारी का प्रवेश वर्जित कर दिया। 
एक दिन ऑफिसर्स कॉलोनी में जाकर बनवारी ने जब साहब से मिलना चाहा तो गार्ड ने यह कह कर उसे रोक दिया कि साहब का ऑर्डर है कि उसे कॉलोनी के भीतर न घुसने दिया जाए। बनवारी ने जब जोर-जबरदस्ती घुसने की कोशिश की तो गेटकीपर ने उसे बताया कि उसकी बात न मानने पर उसे पुलिस के हवाले कर दिया जाएगा, नौकरी पर लौटने की थोड़ी-बहुत उम्मीद जो बची हुई है वह भी ख़त्म हो जाएगा।

निरुपाय होकर बनवारी ने रजिस्टर्ड डाक द्वारा कार्यालय को पत्र भेजा। पत्र में उसने जानना चाहा कि उसे किस वज़ह से बिठा दिया गया। उसने यह भी अपील की कि अगर अनजाने में उससे गलती हो गयी हो तो उसे माफ़ कर दिया जाए एवं उसे तत्काल ड्यूटी पर बुला लिया जाए।

एक महीने बाद उत्तर न पाकर उसने रिमांइडर भेजा। थोड़े-थोड़े दिनों के बाद कई रिमांइडर भेजने के बाद बनवारी ने मान लिया कि पत्र लिखने से फायदा नहीं है। उसने अपना प्रयास जारी रखा। परिवार चलाने के लिए वह फिर से प्राइवेट टैक्सी चलाने लगा।
* * *

दुबारा नौकरी हासिल करने के लिए ट्रेड यूनियन के नेताओं को काफी मशक्कत करनी पड़ी। विभिन्न कर्मचारी संगठनों द्वारा उनसबों का मुद्दा उठाया गया। विभिन्न संगठनों द्वारा सामूहिक हड़ताल करने की धमकी दी गयी। राजनेताओं द्वारा दबाव डाला गया तब जाकर धीरे-धीरे एक-एक करके सबकी वापसी हुई। किन्तु बड़े-बड़े राजनेताओं के दबाव के बावजूद सभी को कुछ न कुछ सज़ा मिली। किसी को चार तो किसी को पाँच इन्क्रिमेन्ट पीछे धकेल दिया गया, और किसी किसी की नौकरी नये सिरे शुरू हुई।

यूनियन के सारे नेताओं को बिना शर्त माफी मांगनी पड़ी। आंदोलन के दौरान काम-काज का जो नुकसान हुआ था उन सभी को उसकी जिम्मेदारी लेनी पड़ी। आरोप-पत्रों में उल्लिखित सत्य-मिथ्या आरोपों को स्वीकारना पड़ा।

नेताओं की वापसी के थोड़े समय बाद यूनियन की मान्यता बहाल कर दी गयी किंतु यूनियन चलाने के लिए कठिन शर्तें भी लगा दी गयी। यूनियन का पुनर्गठन हुआ। नेता लोग दुबारा अपने-अपने पदों के लिए चुन लिए गए। उन सबों का मनोबल टूट चुका था। यूनियन दन्त विहीन हो गया था। प्रशासन के विरूद्ध चूँ बोलने की हिम्मत किसी में नहीं थी। प्रशासन के साथ मिल-मिलाकर, चिरौरी कर अगर काम बन जाता तो ठीक अन्यथा समस्याएँ अनसुलझी रह जाती।

अपनी समस्या से निजात पाने के लिए बनवारी प्रायः नेताओं से मिला करता पर हर बार उसे एक ही उत्तर मिलता-'इस साहब के रहते तुम्हारा भला नहीं होना है।' इस पर बनवारी ने एक दिन धमकी दी कि अगर उसका मामला नहीं उठाया जाता तो वह खुदकुशी कर लेगा। यूनियन ने प्रशासन के साथ होने वाली तिमाही मीटिंग का जो एजेंडा बनाया उसमें बनवारी का मुद्दा शामिल कर लिया। मगर प्रशासन ने उसके मुद्दे को एजेंडा में शामिल करने की अनुमति नहीं दी। प्रशासन का कहना था कि कैजुअल लेबर कर्मचारी ट्रेड यूनियन के दायरे में नहीं आता। प्रशासन ने यह भी सूचित किया कि अब कुशल-अकुशल किसी प्रकार श्रमिक विभाग द्वारा नहीं रखा जाएगा। आउट सोर्सिंग होगी यानी कि ठेकेदारों के मार्फत मजूर रखा जाएगा।

नेताओं ने बनवारी को कोर्ट जाने की सलाह दी और कोर्ट में लड़ने के लिए उन सबों ने चंदा इकट्ठा करके कुछ रूपए बनवारी को दे दिए। 
* * *

पिछले आन्दोलन में हुए नुकसान के कारण सारे नेता इतने सहमे हुए थे कि यूनियन की आमसभा बुलाने से पहले जब वे एजेंडा देने जाते तभी वे कह आते कि कर्मचारियों के दिल जीतने के लिए वे लोग प्रशासन के खिलाफ कुछ औपचारिक नारेबाजी करेंगे, दो-चार शब्द प्रशासन के खिलाफ भी कहेंगे जिसे वे अन्यथा न लें।

एकाध स्वार्थपरायण नेता तो आमसभा समापन के तुरंत बाद बड़े साहब को सूचित कर देते कि मीटिंग में क्या-क्या बातें हुई, अगर किसी ने उलुल-जुलूल बका था तो किसने बका था।

उस दिन एक ऐसी ही मरियल आमसभा कार्यालय परिसर में नीम पेड़ के नीचे चल रही थी। चूँकि अखिल भारतीय कर्मचारी संघ के आह्वान पर आमसभा बुलायी गयी थी, और मुद्दा वेतन आयोग गठन करने तथा महंगाई भत्ता बढ़ाने का था, इसलिए कर्मचारियों की उपस्थिति कुछ ठीक-ठाक थी।

भाषण के दौरान अचानक एक टैम्पो हहराती कार्यालय के भीतर प्रवेश कर नीम पेड़ के पास जाकर रूक गई। गाड़ी से कई लोग उतरे। दो औरतें भी उतरी। गाड़ी के भीतर से बनवारी की लाश उतारी गयी। चारों ओर सन्नाटा पसर गया।

पाँच-छह लोगों ने बनवारी का शव ढोकर नीम के पेड़ के नीचे चबूतरे पर रखा। बनवारी की पत्नी ने चबूतरे पर चढ़कर माइक थाम लिया। वह बोली-"भाइयों! बहनों! मेरा पति मुकदमा जीत गया...फिर से कैजुअल लेबर पद पर रखने का आदेश हुआ है। छियालीस साल की उम्र में फिर से शुरू? इस आदेश से उन्हें इतना धक्का लगा कि उन्होंने आत्महत्या कर ली। नहीं रहे मेरे बच्चों के बाप, नहीं रहे मेरे.... (रुदन)... कोर्ट के चक्कर में घर का लोटा कम्बल तक बिक गया, मेरा घर उजड़ गया (रूदन) ....साहब ने उन्हें निकाल दिया था। साहब ने आरोप लगाया था कि उन्होंने ठीक से जासूसी नहीं की थी, आप लोगों का साथ दिया था....आप लोग उनके लिए कुछ नहीं कर सके, कोर्ट का रास्ता दिखा दिया...जब तक आप लोग गुलाम बने रहेंगे, डरते रहेंगे, गरीब लोगों का शोषण होता रहेगा, गरीब लोग इसी तरह मरते रहेंगे।... प्रार्थना है आप लोगों से कि कृपया दूसरा बनवारी न बनने दें।" उसके हाथ से माइक छूट गया। वह फूट-फूट कर रोने लगी। भीड़ में से किसी ने आवाज लगायी 'इनकलाब जिन्दाबाद ! भ्रष्ट प्रशासन मुर्दाबाद!"

-'मुर्दाबाद! मुर्दाबाद!' के नारे गूंज उठे। - बनवारी की बीबी को नौकरी दो!'

-"नौकरी दो! नौकरी दो!'

-'इन्साफ दो!'

-इन्साफ दो ! सैकड़ों लोगों की भीड़ बनवारी की लाश और उसके परिवार के साथ बड़े साहब के कमरे की ओर चल पड़ी।

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "मोक्षदायिनी" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2021)


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