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Wednesday, July 28, 2021

कहानी- कुबेर

        
                         
दोपहर से छिटपुट बारिश हो रही थी । शाम होते होते बारिश तेज हो गई । बादल फटने के साथ-साथ बिजली गुम हो गई । कुर्सी से उठकर मैंने खिड़की का पल्ला खोला। मूसलाधार बारिश होने लगी थी। मुझे चिंता होने लगी एक डेढ़ घंटे की तेज बारिश से मेरे मोहल्ले में वाटर लॉगिंग हो जाती है । पानी की स्थिति जानने के लिए थोड़ी-थोड़ी देर पर मैं घर पर फोन करने लगा । मैंने जब चौथी बार फोन किया तो मेरे बेटे ने जवाब दिया 'क्यों फिजूल में परेशान कर रहे हैं ? मालूम तो है कितनी देर में कितना पानी इकट्ठा होता है । यह कहकर उसने फोन काट दिया । उसने बड़ी बेरहमी से फोन रखा । मुझे सॉरी तक बोलने का अवसर नहीं दिया ।

देखते-देखते अंधकार छा गया, पूरा दफ़्तर खाली हो गया । केयरटेकर ने मुझे कमरा खाली करने को कहा।  मैं उठ गया । अभी भी बारिश तेज थी । मेरे पास बरसाती नहीं थी । पानी में भीगने से मेरी रीढ़ की हड्डी दर्द करने लगी है फिर भी मजबूरन मुझे निकलना पड़ा क्योंकि मेरे मन में वाटर लॉगिंग का भूत सवार था । मात्र दो मिनट में मैं पानी से तर हो गया। मेरे इलाके में पानी लग चुका था। स्कूटर के पहिए पानी में डूब गए। जोखिम उठाते हुए बचते बचाते जैसे-तैसे घर पहुँचा। देर तक हॉर्न बजाया। बूढ़ी माँ ने फाटक खोला।  गाड़ी बंद करते ही मैं घनघोर अंधेरे में फँस गया । किसी ने दीया तक नहीं जलाया था। ड्राइंग रूम से ठहाके की आवाज आयी । साहबजादा यार दोस्तों के साथ गपशप में मशगूल था । गलियारे से भीतर प्रवेश करते ही लाडली बेटी पूछती 'डी. डी. एल. .जे. का कैसेट लाये हैं ?' मैं निरुत्तर । दीवारों के सहारे मैं आहिस्ता-आहिस्ता सीढ़ी पर चढ़ने लगा । मेरी बेटी पीछे से दौड़ती हुई सीढ़ी पर चढ़ने लगी । मैंने कहा- 'आहिस्ता आहिस्ता गिर जाओगी । ऊपर पहुँछकर मैंने कहा 'जरा मोमबत्ती जला देना।' 'एक मिनट अनुराधा का फोन है ।' 'उससे फिर बात कर लेना, मैंने कहा।  उसने झुंझलाकर उत्तर दिया- 'एक मिनट, गम खाइए ना। अनुराधा मेरी बेटी के साथ पढ़ती है, उसके पिता टेलीफोन डिपार्टमेंट में काम करते हैं अनुराधा प्रायः रोज ही फोन करती, घंटों बातें करती है, दीवार के सहारे मैं बाथरूम पहुँचा । कमीज और बनियान उतारी फिर एक झाडू उठाकर छत पर चला गया । मुझे छत का पानी निकालना था। चार साल पहले जब नया कमरा बना था जमीन नहीं बन पायी थी। पानी इकट्ठा हो जाता है । पानी निकालने के लिए काफ़ी मेहनत करनी पड़ती है । पिछले चार साल से परेशानी झेलता चला आ रहा हूँ । कमर में प्रॉबलम के मारे झुकना मना है, झुकता हूँ क्या करूँ ? न तो मेरा कहा कोई मानता और ना ही मेरे मुँह पर इन्कार करता है । छत की जमीन बनवाने के लिए पाँच सात हजार की जरूरत है जिसे मैं जुटा नहीं पाया था । काटपीट के बाद जो तनख़्वाह हाथ में आती उससे तीन दिन का खर्चा ही मुश्किल से चलता है । मुझसे कम वेतन पाने वाले लोगों की कुतुबमीनार जैसी ऊँची उठती इमारतों और उन लोगों की ठाट बाट देख मेरे घर वाले मुझे बेवकूफ़ समझते हैं। उनका ख़्याल है कि मेरे दकियानूसी विचारों के कारण उन्हें तकलीफ़ होती है । उनका स्पष्ट विचार है कि मुझे भी दो नंबरी कमाई करनी चाहिए । आये दिन वे ताने उलाहने देते हैं--'बस नाम भर के आफिसर हैं आप! जब भी किसी चीज की फ़रमाइश करो तो कहते हैं अगले महीने में।'

काफ़ी मेहनत के बाद छत का पानी निकाल दिया। अब मेरी कमर टूट चुकी थी । थक के एक कोने बैठ गया । मुझे खुली छत नंगे बदन देखकर सामने वाले मकान से एक लड़के ने कहा--"अंकल जी! ठंड लग जायेगी ।' मन में सोचा अच्छा बेटा इमेज बना रहे हो । उधर तुम्हारा बाप दिनभर खटता रहता है, मैंने फिर भी कहा, 'हाँ जा रहा हूँ । थैंक यू । मैं भीतर जाने लगा तो बिजली चमक उठी, इसी बीच पत्नी की आवाज़ सुनाई पड़ी । बड़े अच्छे मूड में गाना गा रही थी । 'माने ना पायलिया शोर करे।' शायद पड़ोसन के घर गई थी गाना गाते-गाते अचानक चुप हो गई फिर बिजली सी कौंधती हुई आयी और बोली, 'अरे ! आप कब आये ? चाय बनाऊँ या थोड़ी देर में?' मैंने कहा 'बनाओ । ठंड लग रही है । उसने कहा 'मैं गर्म कर दूँगी....अभी चाय लाती हूँ ।' आँचल लहराती हुई वही गीत गाती हुई वह नीचे उतर गई । मेरे शरीर में ठंड ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया । मुझे छींके आने लगीं । मुझे गीले कपड़े बदलने थे । मेरी बेटी अब टी. वी. देख रही थी, मैंने गला खंखारा, उसने देखा तक नहीं, आदेश देकर उसका मूड ऑफ करना उचित नहीं समझा । मैंने खुद अपना कपड़ा ढूँढ लिया ।

कपड़ा बदल तख़त पर बैठा ही था कि पत्नी चाय ले आयी । चाय थमाकर वह भी टी. वी. देखने में व्यस्त हो गयी । टी. वी. देखते-देखते वह अपनी मौजूदगी का एहसास कराने लगती--'आज अच्छी बारिश हुई है...कौन-कौन सी तरकारी लाये? सब्जी ताजी है ना...पिंटू को न्यू पोर्ट की जींस कब दिलवायेंगे ? उसे मोटरसायकिल कब दिलवायेंगे ? पिंटू आपसे ख़फ़ा है, दफ़्तर से एडवांस क्यों नहीं लेते ?.... अगले महीने के बजट में मेरी साड़ी है ना ? मालूम है न हम-दोनों का मैरिज डे है ? '  चित्रहार, खत्म होते ही बेटी उठकर अपने कमरे में चली गयी । पत्नी ने टी. वी. बन्द कर दिया । कमरे से बाहर निकलते निकलते पत्नी ने कहा 'कल पिक्चर जाना है, दो सौ रुपए दे दीजिएगा । मेरी इच्छा हुई कि थोड़ी देर के लिए हिटलर बन जाऊँ, हर एक चीज तहस-नहस कर दूँ मगर किसी तरह खुद को काबू में रखा ।

मेरे दिल की धड़कनें तेज ही गई थीं, सिर की नसें फरफरा रही थीं, पैर काँप रहे थे, कमर ऐंठ रही थी ब्लड प्रेशर की दवाईयाँ ले लीं, नींद की गोली भी ले ली फिर निढाल गंदे बिस्तर पर लेट गया । मेरी बूढ़ी माँ सीढ़ी चढ़ हाँफती हुई कमरे आ सिरहाने बैठी, मेरे सिर पर हाथ फेरती हुई बोली-- 'तबियत ख़राब है क्या ?' मैं आँख चुराना चाहता था, मैंने लाइट बुझा दी फिर कहा-- 'थकान महसूस कर रहा हूँ, आज आफिस में ज्यादा काम था....मैंने नींद की गोली ले ली है, सोना चाहता हूँ । बहू से कहना वह खाना खा ले, मुझे डिस्टर्ब ना करे.... मैं खाना नहीं खाऊँगा, इच्छा नहीं है... माँ! मुझे नींद आ रही है । माँ चली गई ।

अगले दिन सुबह आठ बजे टेलीफोन की आवाज से मेरी नींद खुली । मैं हाँफ रहा था, पसीने से तर था । मैंने एक सपना देखा, एक भयानक सपना । मैंने देखा एक विराट, पर्वत के शिखर पर एक विकट राक्षस खड़ा था । उस राक्षस के सिर पर एक स्वर्ण मुकुट था । पर्वत के चारों ओर छोटे-छोटे पहाड़नुमा टीले थे, नोटों के टीले। एक टीले के ऊपर मेरी बेटी टेलीफोन थामे बैठी थी । मैंने आवाज लगायी....बेटी सुनो !' उसने चीत्कार किया- 'एक मिनट। अनुराधा का फोन है ।' एक बेशकीमती साड़ी पहन, आँचल लहराती पर्वत के चारों ओर नाचती झूमती मेरी पत्नी गाना गा रही थी और उसका गीत 'माने ना पायलिया शोर करे आसमान से टकराकर मेरे कानों पर प्रहार कर रहा था । मेरा लाडला बेटा उस विराट पर्वत के बीचो बीच फँसा था जिस पर वह राक्षस खड़ा था । वह राक्षस मेरे बेटे से कह रहा था--'आ, आ, ऊपर चढ़ जा... मुकुट ले ले....मैं कुबेर हूँ मेरा मुकुट ले ले...तू जींस और मोटरसायकिल के लिए हाय हाय कर रहा है ? तू मेरा मुकुट ले ले, तुझे दुनिया का सारा सुख मिल जाएगा.... आ आ ।'

मेरे बेटे की निगाहें कंगूरे पर टिकी थीं, उसका पैर बार बार फिसल रहा था । मेरी निगाहें ज्यों ही उसके धूल सने पैर और खून रिसते घुटनों पर पड़ीं मैंने आर्तनाद किया--पिंटू! पिंटू मत चढ़, मत चढ़ बेटा, लौट आ. यह यमदूत है, तू उसके चक्कर में मत पड़ । थोड़े में खुश रहना सीख, संतोष धन सबसे बड़ा धन है ।' पिंटू ने पीछे पलट कर देखा और कहा "पापा! आप कायर हैं, बुद्ध हैं, धन के बगैर दुनिया में सुख नहीं मिलता...अपना पेट तो कुत्ते के पिल्ले भी पाल लेते हैं....खाक आप आफिसर है, धिक्कार है.... मुझे स्वर्ण मुकुट लेना है, किसी भी कीमत पर लेना है चाहे मेरी जान ही क्यों ना चली जाए ।'

उसने अपनी यात्रा जारी रखी। जब वह स्वर्ण मुकुट के बहुत करीब था, चारों ओर हो हल्ला होने लगा, "पकड़ो", "पकड़ो", "मारो", "मारो", गोलाबारी होने लगी, भयभीत हो कर पिंटू गिर पड़ा, वह एक वृक्ष पर अटक गया । उसे उस हाल देख राक्षस ने अट्टहास किया और हुंकार कर बोला-- अरे मूर्ख तूने मेरी जीवनी नहीं पढ़ी ? मैं कुबेर हूँ.... हा...हा: ......हा..... ।' मैं दौड़ रहा था मैं अपने बेटे को किसी कीमत पर खोना नहीं चाहता था, मैं अपने बेटे को वापस पाना चाहता था। 

सुभाष चन्द्र गांगुली
__1993 Revised in 1996
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*अखबार ' हिन्दुस्तान ' दिनांक 2/12/1998 में प्रकाशित ।
*पत्रिका ' जनवचन ' अक्टूबर-- दिसम्बर 2000
*पत्रिका ' अंचल भारती' देवरिया अंक 74 अगस्त 1998 में प्रकाशित ।
* कार्यालय पत्रिका ' तरंग ' 12/1999
*'समय संवाद' 1999 
*बांग्ला अनुवाद  ' झिलमिल' पत्रिका, सम्पादक बाबुल भट्टचार्या, इलाहाबाद  1999
* बांग्ला अनुवाद ' शेषेर लाइन ' कहानी संग्रह 10/2003 में प्रकाशित ।

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