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Friday, July 8, 2022

शहादत


सुबह अख़बार पलटता हूं । ' स्थानीय समाचार'
(पेज थ्री ) के स्थान पर लिखा हुआ है '‌ शहर की कहानियां '!
कहानी की नयी परिभाषा देखकर पत्रकार मित्र से पूछता हूं --" क्या अब समाचार को भी कहानी माना जाएगा ?"
ख़ुद को जायज़ ठहराते हुए वह कहता है कि अंग्रेजी न्यूज चैनलों में लम्बे अरसे से न्यूज़ रीडर द्वारा " मेन स्टोरिज आफ द डे आर " कह कर समाचार पढ़ा जा रहा है ।
काफ़ी देर तक बहस चली । मैं दफ़्तर पहुंचता हूं । सुबह से हल्की-हल्की बारिश हो रही थी, दोपहर होते-होते तेज़ हो गई।
आज दफ़्तर में अघोषित' रेनी डे' है । कार्यालय में कर्मचारी नहीं है तो काम भी नहीं है मेरी मेज पर।
कहानी की तलाश में मैं अपनी डायरी पलटता हूं।
  ' कारगिल' युद्ध से संबंधित छोटी-बडी घटनाओं का ज़िक्र है इसमें । कारगिल युद्ध की पृष्ठभूमि पर उपन्यास लिखने के इरादें से मैंने उन तमाम तथ्यों तथा घटनाओं का उल्लेख कर रखा जो अत्यंत हृदय विदारक एवं हतप्रभ करने वाली थी।
             मेरे नोट्स में बेशुमार लोगों की मार्मिक कहानियों का शुमार है जिनकी चीखें युद्धोन्मत्त लोगों की विजय डंका की शोर में विलीन हो जाती हैं।
               मेरी आंखों के सामने उस शोकातुर वृद्ध पिता का क्रुद्ध चेहरा आ जाता है जिसकी आवाज़ प्रायः मेरे कानों में गूंजती हैं --" मुझे नाज़ है अपने बेटे पर देश की खातिर उसने  अपनी आहुति दी है । मगर यह देखना चाहिए कि इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार कौन है ? इतने सारे आतंकवादी कैसे घुस आए ? इसकी सूचना पहले क्यों नही मिली ? समय रहते क्यों नही कारवाई की गई थी ? इतनी सारी मौतें क्यो हुईं ? इसका जिम्मेदार कौन ?.......... उनसबो को में गुनहगार मानता हूं । गुनहगार को उसके किए की सज़ा मिलनी ही चाहिए ।"
एक दर्दनाक कथा ! एक क्षुब्ध पिता की कथा जो कभी भी स्मरणीय कथा में तब्दील हो सकती है, किन्तु नहीं हो पाएगी । अनुत्तरित रह जायेंगे सारे प्रश्न । मेरे पत्रकार मित्र ने शायद ठीक ही कहा था ऐसे प्रश्न किसी-किसी को क्षणिक उद्वेलित तो करते हैं किन्तु आहत किसी को नहीं । जटिल प्रश्नों का उत्तर जानना बौद्धिक विलासिता  है इस युग में ।        
पलक झपकते ही शोकातुर पिता का चेहरा लुप्त हो जाता है और इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि ट्रैजेडी में कमिक्स आ जाता है ।‌‌ टेलीविजन की स्क्रीन पर विश्वसुंदरी कोमल त्वचा का राज़ बताने लगती है, और अंग-अंग की कोमलता का राज जानने के लिए पारखी नजरें तल्लीन हो जाती है  ' मधुशाला ' में ।   
डायरी का पन्ना पलटता हूं । कारगिल के दुर्गम पथ पर बोफोर्स धमाका, बोफोर्स की कहानी, बोफोर्स तोप पर चल रहा अंतहीन विवाद, जवानों की लाशें, ताबूतों की खरीदारी में कमीशन खाने का आरोप, सबूत के अभाव में लाशों का दुखान्त आदि सोचते-सोचते एक और करुण कथा मंडराने लगती जो शायद ही इतिहास के पन्नों में दर्ज़ हो पाये ।      
कथा है पाकिस्तान के एक युवती की । क्या नाम था उसका मालूम नहीं । नाम कुछ भी रहा हो कथाकार को उससे मतलब नहीं। वैसे कहानी के लिए उसका नाम रेहाना रखता हूं।
रेहाना का शौहर आर्मी अफसर अपनी मर्दानगी, अपना जज़्बा दिखाता हुआ मुल्क की सरहद पार कर आ पहुंचता इस मुल्क में और शिकार हुआ था हिन्दुस्तानी फौज का ।
उस आर्मी अफसर की लाश को पाकिस्तानी फौजी हुकूमत ने लेने से इंकार कर दिया था ।
पाकिस्तान का दावा था कि उसका कोई भी फ़ौजी युद्ध में शिरकत नहीं कर रहा था। 
रेहाना को मलाल है कि उसके बहादुर शौहर के नसीब में उसके वतन की छह फुट जमीन भी न थी ।
रेहाना का आख़री ख़त हवा में लहराता हुआ दिखाई देता है । रेहाना ने लिखा था " उस दिन हमारी पैंतालीस मिनट की बात फोन पर...... मैं तुम्हें बहुत कुछ कहना चाहती थी पर नहीं कह पाई........कल मेरा बर्थडे है और सन्डे को तुम्हारा । मगर तुम्हारे बिना सबकुछ बेमानी लगता है........ पांच बार नमाज़ अदा करती हूं, तुम्हारी खैरियत की दुआ मांगती हूं..... दुबारा बात करना । बन्नी को तो तुमने अभी देखा भी नहीं, वह एकदम तुम पर गयी है, उसके ऊपर के दो दांत निकल आए हैं, मैं उसे कहती हूं पप्पी दो, वह दांतों से गाल काट देती है, दिनभर ताम ताम ताम ताम न जाने कौन सा लफ्ज़ निकालती रहती और हंसती रहती है। एक नम्बर की शैतान, दिनभर तंग करती है । जल्दी से घर लौटो और सम्भालो अपनी नाॅटी गर्ल को......बस अब और नहीं लिखा जा रहा है, आंखों में आंसू आ रहे हैं, ख़ुदा सही सलामत रखें .... अपना ख्याल रखना ।"
        बन्नी अब बड़ी हो गई है । वह जान गई है कि हर बच्चे का अब्बू होता है । वह अपने अब्बू के बारे में जानना चाहती है ।
 रेहाना अपनी बेटी से कहना चाहती है कि उसका अब्बू एक जांबाज फौजी अफसर था जिसने जंग में दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए थे, सैकड़ों को मौत की घाट उतार कर शहीद हो गए थे । वह कहना चाहती है कि उसे अपने शौहर पर नाज़ है और बेटी को भी अपने बाप पर फख्र होना चाहिए।
मगर लाख कोशिशों के बावजूद रेहाना अपनी बेटी को झूठ नहीं बोल पाती। उसका दिल गवाही नहीं देता ।
कथाकार चाहता है कि रेहाना अपनी बेटी को हक़ीक़त से वाक़िफ करा दें। रेहाना अपने शौहर के कब्र के पास बन्नी को दिखलाना चाहती है कि उसके अब्बू के दुश्मनों ने अब्बू को पाकिस्तानी झंडे से ढक कर अपने देश के छह फुट जमीन में दफना कर शहीदी सलाम दिया था।
रेहाना अपने शौहर को शहीद नहीं बोल सकती ।
रेहाना दुश्मनों को दुश्मन नहीं मान पाती, हत्यारो को हत्यारा नहीं मान पाती । रेहाना जानना चाहती है गद्दार कौन है ? वह जानना चाहती है कि उसके पति की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है ? 
रेहाना ख़ामोश रहती, ख़ामोशी में ही वह अपना ख़ैर समझती है । सच बोलना उसके लिए गुनाह है । गुनहगार बनकर रेहाना ख़ुद की और अपनी बेटी की ज़िंदगी बर्बाद नहीं करना चाहती । यही इस कहानी का सच है ।
शोकातुर वृद्ध पिता की तरह रेहाना अपनी भंड़ास नहीं निकाल नहीं सकी थी । काश वह अपनी भंड़ास निकाल पाती तो शायद अपने जमीर पर अपना एतबार रख पाती और घुमती फिरती लाश बनने से बच जाती ।

© सुभाषचंद्र गांगुली
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कहानी 'कहानी की तलाश' संग्रह-
संस्करण 2006 का एक टुकड़ा।
( Posted on 8/7/2022)

 
 

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