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Friday, July 1, 2022

लघुकथा- छिपकली



      बरसात के बाद का समय था, लाइट जलने के साथ-साथ अनगिनत कीड़े-मकोडे घर में आ जाते भले ही शाम से खिड़कियां बंद कर दी जाती और जाने कहां से एक दर्जन छिपकलियां भी दीवार पर मंडराने लगती ट्यूबलाइट के चारों ओर । कीड़े मकोड़े, छिपकलियों से तंग आकर ट्यूबलाइट पर प्याज या नीम के पत्ते लटका देता । कभी-कभी झाड़ू से भून डालने का व्यर्थ प्रयास करता ।
और कभी कभार लेखनी बंद कर एकटक दीवार पर चल रहे छिपकलियों का तांडव देखता। कीड़े मकोड़े बहुसंख्यक होने के बावजूद मात्र पांच सात छिपकलियों से भयग्रस्त थे । पीढ़ियों से चली आ रही है छिपकलियों का आक्रमण । शायद बहुसंख्यक कीड़ों का जीवन संघर्ष अनादि काल से चला आ रहा है।
छिपकलियां मुझे प्रचंड ताकतवर, भयानक, अजेय जीव लगती हैं । एक एक को मैं मगरमच्छ जैसा देखता, कदाचित डायनासोर जैसा कल्पना कर लेता हूं । सबसे आश्चर्य की बात है कि भले ही उन मगरमच्छनुमा छिपकलियों की गिनती उंगलियों पर थी, आपसी तालमेल और समझौता तो दूर कीड़ों को खाने के चक्कर में वे अपना खूंखार उग्र रुप धारण करके एक दूसरे के साथ जब-तब उठा-पटक में जुट जाते मानो उन सबों का पेट विशालकाय समंदर सा हो जिसमें सबकुछ समा लेने की क्षमता हो । काश मैं भी मगरमच्छ जैसा होता !
मेरी जरुरतें बहुत कम है। मुट्ठीभर अनाज, तन ढकने का आवरण और सिर के ऊपर छत, बस खुद की संतुष्टि के लिए इतना प्रर्याप्त है । मैं तो सामान्य जीवन ही जीना चाहता हूं किन्तु मेरा भी क्या नसीब है उस थोड़े के लिए भी कीड़े जैसा संघर्ष करना पड़ता है, बच बच कर चलना पड़ता है।
एक रात कीड़े जैसी जिंदगी की भावना जागृत होते ही मेरे मन में सुषुप्त अवस्था में रहने वाला विद्रोही कवि जाग उठता है और कुछ अनर्गल जुबान पर आ जाता ---" वह मारता था मच्छर / अपने ही बदन पर " या फिर " अबे, सुन बे छिपकली "।
शब्दों को कागज़ पर उतारने के लिए मैं लालायित हो गया, जैसे ही लिखने के लिए मैंने कलम उठाई, मेरे सिर पर जैसे किसीने प्रहार किया, मैंने सिर पर हाथ रखा और छिपकली को वापस दीवार पर चढ़ते हुए देख चीख उठा " छिपकली !ओ. उफ्फ...... छिपकली गिरी सिर पर "घिन लगने लगा फिर मेरी कविता की मृत्यु हो गई ।
        इतने में पत्नी किचन से दौड़ कर आयी और उल्लास से बोली--" अरे आपके सिर पर छिपकली गिरी है ! तब तो आप राजा बन जायेंगे ।"
मैंने हंसते हुए कहा "और आप रानी बल्कि महारानी बन जाएंगी । तो महारानी  फिलहाल आप थोड़ा सा पानी गरम कर दीजिए, अपना सिर धो लूं । "
वह बोली--" अरे नहीं नहीं आज सिर नहीं धोइए । गड़बड़ हो जाएगा । राजा बनने का योग शुरू हो चुका है । किसी से कहिएगा भी नहीं कि सिर पर छिपकली गिरी थी, टोना लग जाएगा .....हंसिए नहीं, खूब जय जयकार होगा, ईश्वर ने चाहा तो आप विश्वगुरु भी बन जाएंगे ।"
 तब से बीस बरस बीत गये न छिपकलियां हटी, न मेरी तरक्की हुई, बड़ी कोशिश की कि दुबारा कोई छिपकली गिरे तब शायद राजा बन जाऊं किन्तु राजा तो क्या जो तरक्की होनी थी, नहीं हुई और रिटायर होकर फकीर बन गया । 

© सुभाषचंद्र गांगुली
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Rewritten on 01/07/2022
* लघु पत्रिका ' पंखुड़ियां ' जनवरी-
मार्च 1998 अंक में प्रकाशित ।
* ' तरंग ' पत्रिका 1998मे प्रकाशित।
        

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