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Saturday, July 2, 2022

लघुकथा- ऋणी



      उस दिन कार्यालय में विशिष्ट अतिथि आने के कारण दफ़्तर से निकलते निकलते सांझ ढल चुकी थी । संयोग से उस दिन मैं दिनभर भूखा रह गया था। दो बिस्किट और चाय पीकर घर से चला था । दिनभर दफ़्त में आए वी• आई •पी • की आवभगत और अन्य व्यवस्था देखने में इतना व्यस्त था कि टिफिन खाने तक का टाइम नहीं मिल पाया था ।
आफिस छोड़ते समय मैंने मन बनाया था कि शाम को  गवर्नमेंट प्रेस के सामने शाम को लगने वाले मछली बाजार से मछली खरीद कर घर पहुंचूंगा, और रात को जम कर माछ भात खाऊंगा। 
दफ़्तर के फाटक से निकलते ही पुलिस मुख्यालय के सामने किसी ने पुकारा - " भाईसाहब ! ज़रा ठहरिए ।"
मैंने ब्रेक लगाया । गाड़ी रुकते ही एक छह फुट का खाकी वर्दी पहना हुआ एक आदमी गाड़ी पर झट से चढ़ बैठा और बोला -" चलिए ।"
मैंने गाड़ी का क्लच छोड़ा और गाड़ी आगे बढ़ने लगी ।
दस गज भी न चले थे कि उसने कहा -" मुझे रेलवे स्टेशन जाना है ।"
--" मुझे गवर्नमेंट प्रेस के सामने से मछली खरीदना है फिर वापस लौट कर इधर से ही घर लौटना है । मेरा घर गंगा किनारे भारद्वाजपुरम में है ।"
उसने कहा --" आपको जहां उतारना उतार दीजिएगा, सवारी नहीं मिली इसलिए आपको कष्ट दे रहा हूं । क्या करूं आठ बजे का ट्रेन है, आज ही इसे राइट टाइम आना था, बीस बाइस मिनट बचे हैं, टिकट भी लेना है.... ये साहब लोगों को भी दफ़्तर बंद होते समय सारा काम याद आता है। अभी थोड़ी देर पहले मीटिंग खत्म हुई । मेरा घर कानपुर में है, पोस्टिंग भी वहीं है।
चलते चलते मेरी निगाहें मछली बाजार पर गयी, अंधेरे में मोमबत्तियां, दीए जगमगाते दिखें, लगभग आधी दुकानें उठ चुकी थी बाकी सभी दुकानें बढ़ाने की तैयारी कर रहे थे।
मैंने कहा -"देखिए वही है मेरा मछ्ली बाजार।"
उसने तपाक से कहा-" मुझे यहीं उतार दीजिए ।"
चूंकि मैं स्टेशन तक छोड़ने का मन बना चुका था मैं आगे बढ़ता गया । थोड़ा सा हिलकर उसने कहा--"‌ भाईसाहब ! मछली बाजार पूरा-पूरा बंद हो जाएगा, उतार दीजिए, मैं चला जाऊंगा ।"
मैंने कहा -"चुपचाप बैठे रहिए, हिलिए डुलिए नहीं, अभी लगभग एक किलोमीटर और है ।"
--" अरे सर आप थके हारे हैं, ऐसे ही देर हो गई है, बाजार भी बंद हो जाएगा । आप बुजुर्ग आदमी ."
--" मैं क्या आपको कन्धे पर ढो रहा हूं ? मैं पब्लिक सर्वेन्ट हूं, आप भी वही है, कल समय से हम-दोनों को ड्यूटी पर पहुंचना है । ये ट्रेन मिस हो जाए तो अगला दो घंटे बाद ही । वो देखिए आ गया स्टेशन ।"
ठीक चबूतरे के सामने मैंने गाड़ी रोकी। मैंने घड़ी देखी, अभी भी बारह मिनट बाकी । मैंने कहा -" वो रहा टिकट काउंटर, एकदम खाली ।"
स्कूटर से उतर कर वह मेरे सामने खड़े हो गए । शर्ट पर जड़ें तीन स्टार चमचमाते हुए नजर आए । उसने टोपी उतारी, अदब से मस्तक झुका कर नमन किया, अपना नाम बताया फिर दोनों हाथों से मेरे घुटनों को स्पर्श किया और बोला " मैं आपका ऋणी हूं, कभी जरूरत पड़े तो याद कर लीजिएगा । ये मेरा विजिटिंग कार्ड।"
उनके आचरण से अभिभूत होकर मैं बोला --"आपने प्रणाम कर ऋण चुका दिया है, अब मैं ऋणी हो गया । फिर मिलेंगे ।"

© सुभाषचंद्र गांगुली
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* Rewritten on 02/07/2022
* पत्रिका ' मृदुलय ' आगरा के 05+06/1998के अंक में प्रकाशित।
 

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