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Sunday, February 12, 2023

हस्ताक्षर का मूल्य


       
दफ़्तर से घर लौटते समय ' लुम्बिनी' हास्पिटल के सामने कम्पनीबाग के ॲपोजिट फुटपाथ पर लगी पुरानी किताबों को देख कर मैं चकित हुआ। स्कूटर खड़ी कर किताबें देखते-देखते मैंने पूछा - " यहां कब से दुकान लगाने लगे ? मैं तो तुम्हें वहीं सिविल लाइंस में ढूंढ रहा था बार-बार। इस अस्पताल के सामने बिकती भी है ?"
- " छः महीने से यहीं पर है। खूब बिकती है। इस अस्पताल के भीतर ट्रांजिस्टर, टीवी कुछ भी नहीं चला सकते। जिन्हें  कई-कई दिन ठहरना पड़ता है और जो मरीज़ पढ़ने की स्थिति में रहते हैं उनके लिए भी किताबें जाती हैं। "
- " सच ! जो लोग ठहरते हैं वे पढ़ते भी हैं ?"
-" क्यों नहीं। इस अस्पताल में मामूली लोग थोड़े ना आते हैं। यहां के रेट्स शायद सबसे हाई हैं, यहां सिर्फ़ हैसियत वाले और पढ़ें लिखे लोग आते हैं , वैसे तो अब पढ़े-लिखे लोग भी दूर होते जा रहे हैं। जब भी फ़ुर्सत मिले तो टीवी पर नज़र गड़ाए रहते हैं किन्तु यहां किताब पढ़ना उनकी मजबूरी हो जाती है । "
-"तुम यहां किताब केवल किराये पर देते हो या बेचते भी हो ?"
-" किराये पर क्यों दूं? एक किताब के लिए पचास पैसे या एक रुपया रोज़ से ज़्यादा कोई देना नहीं चाहता। क्या फ़ायदा जब पेट नहीं भरेगा उस तरह से। खरीदने वाले बड़े शौक से खरीद कर ले जाते हैं फ़िर अस्पताल छोड़ते समय हमें हाफ रेट पर बेच जाते हैं, जैसे नहान के अवसर पर एक गाय दिन में सौ-सौ बार बिक कर दान में चढ़ जाती है वैसे ही एक-एक किताब भी महीने में अनेक बार बिक जाती है।"
- " वाह भाई वाह ! क्या दिमाग है उस्ताद !‌‌
हम चलते हैं, हम तो किराये पर लेना चाहते थे। बराबर किराये पर ही लेता रहा।"
-" आप चाहेंगे तो भाड़े पर ही दे दूंगा, आखि़र आप  हमारे पुराने कस्टमर हैं ...... कौन सी किताब लेंगे सर ?" 
--" देखता हूं...... यह कितने में ‌‌‌बेचोगे ? "
- "पचास रुपए में ।"
-" पचास रुपए !!"
- " बाबूजी यह बहुत मशहूर उपन्यास है, इसकी कीमत इस समय चार सौ रुपए हैं। "
--" तुम्हें कैसे पता कि बड़ा अच्छा उपन्यास है और इस समय चार सौ की है। पढ़े थे किताब क्या ?"
-" अरे सर आप भी ख़ूब मज़ाक कर लेते है। मैं तो बस नाम-वाम पढ़ लेता हूं। बाबूजी इतनी जानकारी तो रखनी ही पड़ती है वर्ना धंधा कैसे करेंगे।"
-" मगर किताब तो काफ़ी पुरानी है, उस समय बारह रुपए की थी।"
-" उससे क्या? आज अगर आप इसे खरीदें तो आपको चारसौ देना होगा। "
- " लाओ देखें।"
किताब हाथ में लेकर जिल्द खोलते ही में दंग रह गया। उपन्यासकार ने अपने कर कमलों से         " सादर सप्रेम " लिख कर एक मशहूर साहित्यकार को भेंट किया था । आज की तारीख़ में भेंटकर्ता सिर्फ़ मशहूर ही नहीं बल्कि साहित्य के अभिन्न अंग हैं।
मुझे यह सोचकर हैरानी हुई कि जिस साहित्यकार को वह किताब भेंट की गई थी वह अब भी सक्रिय साहित्यकार हैं और वह उपन्यासकार अब इस दुनिया में नहीं हैं, उनके हस्ताक्षर को फुटपाथ पर पड़े रहने देने में मुझे अजीब कष्ट हो रहा था। इससे पहले कि वह पन्ना किसी दिन अलग हो जाए और किसी के जूते के नीचे आ जाए, मैंने उस किताब को पचास रुपए में ही खरीद लिया।

© सुभाषचंद्र गांगुली               
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पत्रिका ' दस्तक ' बहादुरगढ़ -सोनीपत
के नवम्बर 2001 अंक में प्रकाशित।

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