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Saturday, January 28, 2023

कहानी: 'वेब कैम' में देखिए'



मोबाइल की रिंग बजी और भतीजे अविनाश का नाम देख चाचा अतुल कुमार उठ बैठे ।
-'हाँ बच्चा बोलो! '  
-'प्रणाम गुरुजी ।'
-'खुश रहो। शतायु भवः ! कब आ रहे हो ? इतवार को ही पोते के आने की खुशी में डिनर है। सारा बंदोवस्त हो गया है। गाना-बजाना भी रखा है। शहर की जानी-मानी आर्केस्ट्रा पार्टी को बुक किया है... भाई साहब और भाभी भी साथ आ रहे है ना ?'
-'गुरूजी ! वेरी सॉरी, हम लोगों का आना नहीं होगा।" 
-'क्या ???..... इतने सारे लोगों को दावत दे रखी है, सारे इनविटेशन कार्ड्स बँट गए हैं, जिसे जो एडवांस देना था दे चुका हूँ, और तुम कह रहे हो  नहीं आओगे ? ...इंडिया आने से बहुत पहले तुमसे बात कर ली थी, तुम्हारी रज़ामंदी के बाद ही मैंने सारा आयोजन किया है। पिछले हफ़्ते भाभी और भाई साहब से भी बात हुई थी, उन्हें एक-एक बात की जानकारी है। क्या हो गया अचानक? कौन सी आफ़त आ पड़ी है ?'
-' गुरुजी आपकी बहू सीमा इन दिनों मायके में है। वह कह रही थी कि आपका पोता अमन अपने नाना-नानी से ऐसा चिपक गया है कि नाना-नानी उसे छोड़ना नहीं चाह रहे हैं।' 
"भाईसाहब क्या कह रहे हैं?"
-'पापा कह रहे हैं तुम लोगों को क्या करना क्या नहीं करना तुम लोग तय करो, जो उचित लगे वही करो।'
-'और तुम्हें क्या उचित लगा ? यही कि चाचा से वेरी सॉरी कह दो ? यही कि बूढ़े चाचा-चाची के सेंटिमेंटस को पैरों तले रौंद दो ? ऐसा तो तुम्हारा संस्कार न था !.......कोलकाता से पटना है ही कितना दूर ?... रात को ट्रेन में बैठो और सुबह पहुँच जाओ फिर चाहे इतवार को ही रात की गाड़ी पकड़ लो या अगले दिन सुबह की गाड़ी।' 
- 'ऐसा ही प्रोग्राम बनाने के लिए मैंने आपकी बहू से कहा था मगर उसका मूड ही नहीं है। चाचा जी ! आपकी बहू बड़े घर की बेटी है, सारी सुख-सुविधाएँ भोगती आ रही है, उसके पचास नखरें हैं, मैं जोर-ज़बरदस्ती भी नहीं कर सकता...ये लीजिए सीमा आ गयी है, आप ज़रा उसे समझाइए, शायद आपकी बात मान जाए।'

-'चाचा जी प्रणाम ! मैं सीमा।'
-'खुश रहो। सदा सुहागिन रहो ! तुम लोग कब आ रहे हो ?'
 -"चाचा जी, इस बार आना नहीं होगा। अविनाश ने आपसे नहीं कहा था क्या ? मैंने तो पहले ही उसे बता दिया था कि आपको सूचित कर दें। मात्र पंद्रह दिन की छुट्टी बड़ी मुश्किल से मिल पायी है, छह दिन बीत गए हैं। सात साल बाद आयी हूँ । मायके में रहना जरूरी है, यहाँ रिश्तेदारों से भी मिलना हैं, कई जरूरी काम भी है, बच्चे के साथ इतना भागम-भाग मुझसे नहीं हो पाएगा।' 
-'हवाट ! अमेरिका से इंडिया आ सकती हो और कोलकाता से पटना के लिए भागम-भाग ?'
- 'चाचाजी, अमन रो रहा है, मैं इन्हें देती हूँ...'

- 'हाँ अविनाश ! बहू को सुना। तुम्हारा क्या कहना है ?? 
"मेरा मन तो जाने का था मगर...'
- मगर क्या? पंद्रह दिनों में एक दिन भी चाचा-चाची के लिए नहीं निकाल सकते हो?"
-'चाचा जी ! सीमा यह भी कह रही थी कि आपका छोटा सा दो बेडरूम का फ्लैट है, ए0सी0 भी नहीं है, मई की गर्मी एक ही कूलर अमन को तकलीफ़ होगी. ...मात्र एक साल का, बच्चा अभी तक गर्मी नहीं झेली, कहीं फोड़ा-फुंसी निकल आये या लू लग जाए। जरा सोचिए आप ही का पोता है, कहीं सचमुच कुछ हो जाए तो सीमा मेरी जान खा लेगी।'
-'ओ०के०फाइन। मैं तुम लोगों के लिए होटल 'लवकुश' में दो दिन के लिए लक्जरी रूम बुक करा देता हूँ, एक ए0सी0 कार भी तुम्हारे डिस्पोजल में रहेगी, अपने पोते के लिए, इतना करने का दमखम अभी भी इस बूढ़े में है।'
-'चाचा जी, प्रोग्राम तो आपके घर के सामने खुले पार्क में है ना? मई की गर्मी, रात तक गर्म हवा चलती है।'
- 'पचास बहाने बनाते शर्म नहीं आती तुमको ?... जाने कब से पोते की आस में बैठा हुआ हूँ, कुलदीपक को कलेजे से लगाने के लिए मैं व्याकुल हूँ... तुम्हारी चाची की निष्प्राण सी देह में जान आ जाने की एक आख़िरी उम्मीद भी है मेरा कुलदीपक। सम्भव है कि उसे गोद में लेते ही उसकी बंद जुबान में जुम्बिश आ जाए...मुझे कुछ नहीं सुनना है, बहुत बोल चुके हो, यू विल हैव टू कॅम, यह तुम्हारे गुरू का आदेश है। चाचा की बात नहीं माननी है तो न मानो, गुरु आज्ञा पालन करना तुम्हारा धर्म है। हिंदू धर्म में गुरु का क्या स्थान है यह तुम्हें उपनयन संस्कार के समय ही बता दिया गया था, भूल कैसे गये? तुम धर्म पथ पर रहो, गुरू का शतकोटि आशीर्वाद लो। ईश्वर तुम्हारा मंगल करेगा। कुलदीपक को रिसीव करने के लिए मैं स्टेशन में मौजूद रहूंगा।' अतुल कुमार ने फोन काट दिया।
गुरू होने के नाते चाचा अतुल कुमार भतीजे अविनाश पर कुछ ज़्यादा ही अधिकार जताते हैं और अधिकारपूर्वक बातें करते हैं।

                    पटना आने से पहले अविनाश के पिता और चाचा दोनों के परिवार एक ही मकान में एक साथ वर्षों रहे हैं। अविनाश का जन्म-कर्म सब कुछ चाचा की आँखों के सामने हुआ। विज्ञान के अध्यापक अतुल कुमार ने अविनाश को बचपन से इंटरमीडिएट तक नियमित गणित और विज्ञान विषयों को पढ़ाया, उसे इंजीनियर बनने के योग्य बनाया। उपनयन संस्कार में मंत्र देने के कारण अविनाश उन्हें 'गुरुजी' का सम्बोधन देता है। 
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गुरू होने के नाते चाचा ने अविनाश को अपनी संतान से कमतर कभी नहीं देखा।

            अतुल कुमार चार भाई हैं। चारों भाइयों के बीच अविनाश के पिता के ही दो बेटे हैं बाकी सभी की बेटियाँ है। बेटियाँ अपने-अपने ससुराल में हैं। अविनाश का भाई जो अविनाश से दस वर्ष का बड़ा है पिछले बीस वर्षों से अमेरिका में रह रहा है। उसकी एक ही बेटी है।

जब से अविनाश के घर बेटा जन्मा वह बच्चा अविनाश के ताऊ, चाचा, पिता सभी के आँखों का तारा बन गया। किंतु कुलदीपक अमन के आने की सबसे अधिक खुशी शायद चाचा की हुई है और अविनाश इस बात से अनभिज्ञ नहीं है।

पोते की जन्म की ख़बर पाकर महीने भर बाद अतुल कुमार ने 'अखण्ड रामायण पाठ करवाया, अपार्टमेंट में एक-एक घर जाकर मिठाइयाँ बाँटी मिठाइयाँ देते हुए उन सबों से कहा- "भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन ली है, मेरा बेटा तो लौट नहीं सकता मगर भगवान ने मुझे मेरा पोता लौटा दिया है। आप लोग मेरे कुलदीपक को आशीर्वचन दीजिए, उसकी दीर्घायु की कामना करिए।'

महीनों से वे कहते रहे 'पोता आने वाला है। दादा-दादी से मिलने के लिए वह अमेरिका से आ रहा है। उसके आने पर हम खुशियाँ बांटेंगे, भव्य पार्टी देंगे बातें करते-करते खुशी के मारे उनकी आँखें भर आती, कंठ रूंध जाता।

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               अतुल जी का अपना एक बेटा था। बेटे की शादी के दो वर्ष बाद बहू ने पुत्र जन्म देकर खुशियाँ भी झोली में डाली थीं। पुत्र जन्म के एक महीने बाद मायके से लौट कर पोते को दादी की गोद में डालते हुए उसने बड़े दम्भ से कहा था- 'भगवान के लिए अब आप मेरे माता-पिता को कोसना छोड़ दीजिए। मेरे पिता जी मुँह माँगा दहेज तो न दे सके थे पर मैंने मांगी गयी दहेज को सूद समेत लौटा दिया है। मैं पराये घर की बेटी हूँ। यह लड़का तो आपके खानदान का है, सिर्फ़ इस कुल का । आपका वंशज ।

            मगर वंशज प्राप्ति का सुख अतुल कुमार के नसीब में न था । जब वह बच्चा तीन माह का था अतुल कुमार का बेटा अपनी साली की शादी में सपरिवार मीदनापुर गया हुआ था, वापसी में माओवादी हमले में उसकी बस चिथड़ी हो गयी थी, कोई भी न बचा था।
वह हादसा एक ऐसा बज्रपात था कि उसने अतुल कुमार की पत्नी के अस्तित्व को ही हिला कर रख दिया था। काफ़ी दिनों तक वह रोती-बिलखती बहू की बातों को दुहराती वह चीख उठतीं यह तुमने कैसा बदला लिया ? तुम कहती तो तुम्हारे पैरों पर मत्था टेककर माफ़ी मांग लेती। धीरे-धीरे उसकी दुर्बल देह निस्तेज, निष्क्रिय होती चली गई। एक दिन उन्हें तेज बुखार चढ़ा, दिमागी बुखार था। इलाज से बुखार तो उतर गया था किंतु उसकी जुबान हमेशा के लिए बंद हो गयी थी। एलोपैथी, होमियोपैथी, नैचुरोपैथी, वेद-हकीम, तंत्र-मंत्र, मंदिर-गिरजा सभी दुकानें सजी की सजी रह गयीं।

बेजान दीवारों को देखते और पत्नी का निरीह सा चेहरा और शब्दों भरी आँखों को निहारते हुए अतुल कुमार के जीवन के बीस वर्ष बीत गए थे।
पत्नी की दुर्दशा के लिए अतुल कुमार ख़ुद को कोसते हुए कहते हैं-प्रायः मैं उसे बेवज़ह डाँट कर कहता था क्या चपर-चपर करती रहती हो, जब देखो फ़ालतू  बकवक, इतनी बातूनी कि कान पक जाते है। अनावश्यक चिल्लाती रहती हो, धीरे से भी तो बोला जा सकता है। और वह नाराज़ होकर कहा करती आपको मालूम तो है मैं ऊँचा सुनती हूँ, आप चुप रहते हैं तो मुझे लगता आपने सुना ही नहीं, इसलिए जोर से बोलना पड़ता है...मेरे दोनों कान तरस गए हैं उसकी बोली सुनने के लिए एक चलती-फिरती लाश बन गयी है वह... पहले पता रहता तो उसकी आवाज़ टेप करके रख लेता, कितना अच्छा कंठ था उसका, कितना सुंदर गाना गाती थी, मैं अभागा उसके गाने की कदर न कर सका। मुझे प्रायश्चित करना ही था, सो कर रहा हूँ...फिर भी मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी है।'

अतुल कुमार की दर्द भरी दास्तान सुनने की आदी बन चुका था मैं। मार्निंग वाक् में हम दोनों साथ-साथ होते। उनके पास कहने के लिए एक ही कहानी थी। और मुझे मालूम था कि मुझे एक ही कहानी सुननी है फिर भी मैं सुनता क्योंकि मुझे यकीन था कि उसी से उनका जीवन गतिशील बना रहेगा।

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दो दिन बाद अतुल कुमार ने अविनाश को फोन मिलाया- -' हैलो ! अविनाश स्पीकिंग'...
-'चाचा बोल रहा हूं । परसो इतवार है। कब आ रहे हो ? किस गाड़ी से? '
- ' वेरी सॉरी, चाचा जी आपसे तो कह दिया था कि सम्भव नहीं है।' 
-"अरे! मैंने जो इतना सारा इंतज़ाम कर रखा है...'
-'बटन दबाइए मना कर दीजिए, और क्या करना? लोकल मामला ही तो है... बल्कि आप ऐसा करिए कि पटना लोकल न्यूज पेपर या 'विविध भारती' में विज्ञापन दे दीजिए कि विशेष कारणवश प्रोग्राम कैंसिल करना पड़ रहा है । आजकल कोई बुरा-उरा नहीं मानता बल्कि दावत-सावत एवैड करते हैं। टाइम ही किसके पास है, अधिकतर लोग लिफ़ाफ़ा में 'व्यवहार' भेजकर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा देते हैं।'
-'चलो वह मेरी समस्या है। मैं देखूंगा क्या करना, क्या नहीं करना... मगर यह बताओ शिष्य, क्या पोता देखने का मेरा सपना अधूरा रह जायेगा ?" 
-‘अगली मर्तबा आऊँगा तो जरूर मिलूँगा या फिर पहले से ख़बर कर दूँगा आपलोग यहीं आ जाइएगा।'
-'अगली मर्तबा ? शादी करके तुम चले गये फिर अब आये हो सात वर्ष बाद और तुम्हारा बड़ा भाई, शादी करके गया तो गया, अठ्ठारह वर्ष बीत गए।' 
-"नहीं चाचाजी, यहाँ माता-पिता है, आना तो होगा ही।
"कल क्या होगा किसने जाना ! अस्सी के क़रीब पहुँच रहा हूँ, पचास ठो रोग है, आँखों की रोशनी लगभग जा चुकी है और तुम्हारी चाची मुझसे पाँच साल की छोटी, पर लगती है मुझसे दस साल बड़ी... खैर ! कर ही क्या सकता हूँ, सब प्रभु की मर्जी । पोते का दर्शन हो जाता तो मन तृप्त हो जाता।'
-'अरे! अभी तक आपने पोते का दर्शन नहीं किया?'
-"क्या? क्या बोला?"
'फेसबुक' 'हवाटस ऐप पर पोते के सैकड़ों फोटो मैंने लगा रखा है, आप भी अपना एक प्रोफाइल बना लीजिए या फिर आप अपना 'मेल आइडी' बताइए मैं 'ई-मेल' कर दूंगा। आपके पास तो कम्प्यूटर होगा ही, नेट का कनेक्शन भी होगा।'
-'न मेरे पास कम्प्यूटर है और ना ही मुझे उसका ज्ञान है... और फिर जिसे कभी नहीं देखा उसका फोटो देखकर मन भी तो नहीं भरेगा....एक बार आ जाते मैं अपने लाल को देख लेता... तुमने गुरु आज्ञा भी नहीं माना...।'
-'चाचाजी, बुरा न मानिएगा, मेरे पापा मुझ पर इतना दबाव नहीं डालते जितना आप डाल रहे हैं...पापा तो 'फेस बुक' में फोटो देखकर मस्त रहते हैं। 
-"तुम्हारे पापा अमन के पैदा होने से पहले तुम्हारे पास चले गये थे, तीन महीने पहले ही लौटे हैं, पोते को दिन-ब-दिन बड़े होते देखे, उसे गोद में खिलाये, वे तो बिना फोटो देखे ही पोते को मन-मस्तिष्क में महसूस कर सकते हैं, मगर जरा मेरे बारे में सोचो मैंने उसे कभी नहीं देखा, उसका फोटो और किसी बच्चे का फोटो मेरे लिए एक बराबर, है कि नहीं?... आख़िर तुमने गुरू, की बात भी नहीं मानी... आई एम वेरी सॉरी माई सन। शायद मेरी ही गलती थी, मैं कुछ ज़्यादा ही 'गुरु दक्षिणा' पाने की उम्मीद कर रहा था।'
-'गुरू जी, प्लीज नाराज़ न होइए मै अमेरिका पहुँचकर आपको फोन करूंगा, टाइम बता दूंगा, आप किसी 'साइबर कैफे' में चले जाइएगा, मैं अमन को आपसे मिला दूंगा। उसे आप 'वेब कैम' में देखिएगा चलता-फिरता, जीता-जागता, शरारत करता हुआ, तुतलाता हुआ हर हरकत की झलक आप देख पायेंगे, आप उसे जी भर देखिएगा, जी भर बातें करिएगा।'
-"तुमने मेरे सारे अरमानों पर पानी फेर दिया, माठा कर दिया। होपलेस !'
-"पता नहीं क्यों आजकल के बूढ़े चीजों को समझना नहीं चाहते, खामख़ाह सेंटिमेंटल हो जाते हैं, वही घिसी-पिटी बातें, वही दकियानूसी सोच... पता नहीं मैंने क्या माठा कर दिया, बेवज़ह तिल का ताड़ बना रहे हैं। बी प्रैक्टिकल, लिव विद द टाइम चाचाजी ! लाइफ़ इज मूविंग वेरी फ़ास्ट़ मैंने कहा ना आपको अमन को देखने की इतनी इच्छा है तो 'वेब कैम' में देखिए।' 
अतुल कुमार की आँखों से आँसू बहने लगे, दिल की धड़कने तेज हो गयी, गला भर आया।

             शायद अविनाश ने फोन काट दिया था। आगे बोलने और सुनने के लिए कुछ शेष न था । मगर थरथराते होठों से अतुल कुमार अपनी बातें फोन पर मुँह लगाये कहते गये- 'मैं तुझे कैसे समझाऊँ दूधमुँहे पोते को इन बूढ़े हाथों में लेकर सीने से लगाकर कैसी सुखानुभूति होती है, पता नहीं कोई मुझसे ज्यादा पढ़ा-लिखा विद्वान आदमी या कोई कवि उस अनुभूति को शब्दों में कैद कर पाया है या नहीं, मैं तो इतना ही जानता हूँ कि दूध मुँह पोते के गालों में गाल लगाकर उसकी देह-गंध को जेहन में एक बार उतार लेता तो मेरे जर्जर क्षीण शरीर में एक दैविक ऊर्जा संचारित हो जाती... कुलदीपक का वह कोमल पावन स्पर्श मेरी अंतिम सांस तक मेरे अंतरमन में बना रहता...रुको रुको मेरी पत्नी को शायद दूसरा सदमा पहुँचा है, उसकी आँखों की पुतलियों कुछ क्षणों से स्थिर देख रहा हूँ..।' 

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© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "मोक्षदायिनी" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2021)
* ' साहित्य भारती ' उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की पत्रिका में 2011 में प्रकाशित।
'वैब कैम में देखिये' में  सुख, सुविधा ने सहजता को कितना बेदखल कर दिया है चाचा जो गुरु भी है, दुर्घटना में अपना सब कुछ खो चुके हैं और जीवन की इस रिक्तता को अमरीका में रह रहे भतीजे के बेटे  की साल गिरह अपने घर पर  मनाकर भरना चाहते है, उस पोते को हाथ से छूकर, गोद में बिठाकर जिस खुशी को पाना चाहते हैं उसे घर छोटा, समय नहीं है, पत्नी को मायके भी जाना है आदि अनर्गल कारण बताकर सारे आयोजन को ख़त्म कर देना, चाचा के प्रेम, पढाना लिखाना सब भूल जाना,उनके आग्रह पूर्ण निवेदन तक को अस्वीकार कर जन्मदिन को वैब कैमरा में देखने की बात कहकर मनोभावों पर आधात करता है ।
प्रोफेसर सुनीता त्यागी
( रिटायर्ड )
पीजी कॉलेज, बिजनौर 



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