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Wednesday, August 31, 2022

कहानी- बेटी की विदाई


हावड़ा स्टेशन पहुँचने के बाद पता चला कि दीपक और सन्ध्या की टैक्सी से दो ट्रैक नहीं उतारे गये थे। कन्यादान का सारा सामान उसी ट्रंक में रखा हुआ था। इस खबर कोहराम मच गया। मिनटों में खुशी का माहौल गम में तब्दील हो गया। दीपक के पिता भोलानाथ सुध-बुध खो बैठे। मन ही मन बुदबुदाते हुए वह छोटी-सी परिधि में चक्कर काटने लगे। उनकी आँखों में खून उतर गया। सन्ध्या की सास का चाक-चौंध पार्लरी चेहरा विकृत हो गया। उसके मुख से अपशब्दों की बौछारें निकलने लगी- "छिः छिः। छि: कैसी मनहूस लड़की है, छोकरी अभी घर नहीं पहुँची और इतनी बड़ी आफत! अभी तो सामान गुम हुआ है, आगे जाने और क्या क्या होना है... है, ना जाने किस पापिन को साथ लिये जा रही हूँ... ..बहू नहीं जैसे डायन ....... दीपक के पापा को मैंने पहले ही कहा था कि बराबरी में रिश्ता करना चाहिए मगर वह किसी की सुनते कहाँ ? कहने लगे सन्ध्या साक्षात् लक्ष्मी है, आते ही घर में धन की बारिश होगी. बारिश होगी! लो संभालो अब इस डायन को. .अरे बाबू की बेटी कभी भाग्यवती थोड़े न होती। बड़ी किस्मत लेकर आती तो बड़े घर में जन्म लेती। "

चोंच चलाने में सन्ध्या की ननद भी पीछे नहीं रही।

इसी बीच मेरे एक मित्र ने मेरे कानों में फुसफुसाकर कहा-"कहीं ऐसा तो नहीं कि सन्ध्या के बाप ने कोई चाल चली हो।" मैंने तपाक से इसकी बात काटकर कहा "चुप रहो, वैसे ही आग तेज है अब तुम उसमें ईंधन मत डालो।"

दीपक की माँ चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी। दीपक ने कई बार "माँ" कहकर चुप कराने की कोशिश की। आहत सन्ध्या घूँघट उठाकर कभी सास को, कभी ननद को, कभी पति को देखती । वह जानना चाहती थी कि उसकी गलती कहाँ थीं ?

दीपक की बारात में मैं इलाहाबाद से गया था। दीपक समेत कुल तीस लोग बाराती थे। कन्यापक्ष के लगभग सौ लोग थे। समारोह का आयोजन अति सामान्य था। देखकर लग रहा था किसी ग़रीब की शादी है। सन्ध्या के आत्मीय-स्वजन ने दीपक और उसके पिता भोला बाबू की तारीफ़ के पुल बाँध दिये-"वाह क्या दूल्हा कितना नेक और .......दीपक चाहता तो क्या कुछ हासिल नहीं कर सकता था ? आज के सरल... युग •में बिना दहेज के भला कौन ऐसी शादी करने को तैयार होता है ? सन्ध्या की तकदीर वाकई अच्छी है, उसके दोनों हाथों में लड्डू है। बेचारे सन्ध्या के बाप की हैसियत ही क्या है ? सात जन्म तपस्या करने पर ऐसा घर-बर मिलता है।" एक ने दबी जुबाँ में यह टिप्पणी घर दी-"कहीं कोई खोट न हो, दहेज के बगैर राजी क्यों हो गये ?" इस बात पर तीखी प्रतिक्रिया करते हुए एक बूढ़े ने कहा- "किसी बुराई को आप यूनिवर्सल नहीं बना सकते, हर जमाने में हरेक तरह के लोग रहे हैं, भले भी बुरे भी. ..अपना दीपक हीरा है हीरा! दीया लेकर ढूँढने से भी ऐसा लड़का मिलना मुश्किल है।" बात खत्म होने से पहले ही शंका जाहिर करनेवाले सज्जन दाँये-बाँये खिसक गये। मगर कुल मिलाकर दूल्हा-दुल्हन की तारीफ़ ही तारीफ़ हुई।

ट्रेन छूटने में अभी भी तीन घण्टे का समय था। पंचांग देखकर कुल पुरोहित ने विदाई का शुभ मुहूर्त्त निकाला था। उन्हीं के कहने पर घर से लड़की की विदाई ट्रेन टाइम से बहुत पहले कर दी गयी थी।

दीपक, सन्ध्या और उसका एक छोटा भाई एक टैक्सी में थे। वे समय से स्टेशन पहुँचकर हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। ट्रैफिक जाम होने के कारण हम सबों की गाड़ियाँ काफ़ी देर से पहुँची थीं। अब सामान गुम होने के कारण लोग पुरोहित में भी दोष देखने लगे और तरह-तरह की बातें करने लगे-“ऐसा डरवाया था उस पण्डित ने कि जल्दबाजी में सब कुछ चौपट हो गया. जल्दी का काम शैतान का होता है. घर से चलते समय पंचांग देखा जाना चाहिए था क्या ? ट्रेन का ड्राइवर क्या पंचांग देखकर ड्यूटी पर जाता है ? ऐसे पण्डित लोग कब बाज़ आयेंगे मालूम नहीं, बात-बात पर बेवजह भगवान् का भय दिखाते हैं और लोग भी ऐसे हैं कि उनके बहकावे में आ जाते हैं।”

इस बीच दीपक के चाचा थाने में रिपोर्ट लिखवाकर लौट आये। उन्होंने आठों गाड़ियों के नम्बर अपने पास नोट करके रखा था। टैक्सीवाले के फरार होने की ख़बर सुनते ही वह बिना किसी से कुछ कहे निकल गये थे। मगर पुलिस को नम्बर बताते समय दीपक के चाचा यह नहीं बता पाये थे कि जिस गाड़ी में दीपक बैठा था उस गाड़ी का नम्बर क्या था ? रिपोर्ट दर्ज करते समय थानेदार ने कहा था- "बाबूमोशाय ! यह महानगर है। यहाँ हर आनेवाली घड़ी अपने साथ क्या अचरज ढो लायेगी कोई भाँप नहीं सकता, हावड़ा स्टेशन पर तो बस आपकी निगाहें हटी नहीं कि कुली अदृश्य, आप उसे ढूँढ़ते रह जाइएगा। फिर टैक्सीवाले का क्या भरोसा ?. .. बहरहाल आप हमारी महानगरी में विशिष्ट अतिथि हैं इसलिए हम भरसक प्रयास करते हैं बाकी आप लोगों की किस्मत।"

लगभग दो घण्टे बीत गये। हम सब हताश होकर ट्रेन पर सवार होने के लिए अग्रसर हुए। थोड़ी दूर चले थे कि हठात् किसी ने दीपक की पीठ पर हाथ रखा, "जमाई बेटा!! अपना सामान तो लेते जाओ। टैक्सी में है आओ।"

ड्राइवर के पीछे-पीछे हमलोग दौड़कर टैक्सी के पास पहुँचे। दोनों ट्रैक उतारे गये फिर ताले खोले गये। ज्यों ही भोला बाबू ने एक ट्रंक का सामान चेक करना शुरू किया ड्राइवर बोल पड़ा-"सारा सामान जस का तस है। मेरी नीयत अगर ख़राब होती तो मैं वापस ही क्यों आता ? मैं खुद-ब-खुद आया हूँ किसी भय या दबाव से नहीं आया हूँ" "मैं शर्मिन्दा हूँ। क्या है कि हम लोग बेहद अपसेट थे, दिमाग ठीक से काम नहीं कर रहा था, नयी दुल्हन का सामान गुम हो जाना अपशकुन माना जाता है, लड़की की बदनामी होती है।" ड्राईवर बोला- “साहब! मैं भी चाहता हूँ कि बेटी की विदाई शुभ शुभ हो, किसी प्रकार की त्रुटि न रह जाए, उसकी और उसके मायकेवालों की बदनामी न हो, बेटी को किसी प्रकार का कष्ट न दिया जाए... ...मैं चाहता हूँ मेरी बेटी को ससुराल में खूब प्यार मिले, वह खूब सुख-चैन से रहे।"

बात कहते-कहते ड्राईवर की आँखों में आँसू भर आये। भोला बाबू ने पर्स से पाँच सौ का नोट निकाला और उसकी ओर बढ़ाकर कहा-"लो रख लो इसे, यह तुम्हारी बख्शीश है?" ड्राईवर ने कुछ भी लेने से इनकार कर दिया। उसने हाथ जोड़कर कहा- "इसकी ज़रूरत नहीं है, मैं अपनी मेहनत की कमाई से सन्तुष्ट हूँ।" अचानक वह अत्यन्त गम्भीर होकर बोला- "साहब! बेटियाँ अबला होती हैं, वे तो अपनी ही रक्षा नहीं कर पातीं, हीरे जेवरात की रक्षा कैसे करेंगी ?"

भोला बाबू का चेहरा तमतमा उठा। वह चीखकर बोले-"क्या ? तुमने ट्रंक खोला था।" ड्राईवर ने उत्तर दिया- "हाँ साहब! आपके बेटे को उतारने के बाद मेरी गाड़ी में कई लोग बैठे और उतरे। जब एक परिवार अपना सामान चढ़ाने लगा तो देखा इसमें सामान है। जाने कितने लोग चढ़े और उतरे मुझे अचानक ख़्याल आया कि इसमें कन्यादान यानी दहेज का सामान हो सकता है मगर मैं निश्चिन्त नहीं था। मैंने सोचा इसके भीतर कहीं बम या स्मगलिंग का सामान न हो जिससे मेरे ऊपर आफ़त आ जाए। कौतुहलवश मैंने ट्रक खोला। ढेर सारे रत्न जड़ित आभूषण देखकर मैं दंग रह गया। मैं बेटी के घर जा रहा था मगर मुझे मालूम था कि आप लोग बॉम्बे मेल से जायेंगे .... साहब! आज आज से बीस साल पहले इसी महानगरी में मेरी तीन साल की बेटी खो गयी थी.. अगर वह मेरे पास रहती तो वह आपकी बेटी के बराबर की होती आज मैं अपनी बेटी की विदाई कर रहा हूँ।" उसका गला भर आया, आँखों से आँसू लुढ़क गये, आँखों को पोंछते हुए वह टैक्सी के अन्दर घुस गया और गाड़ी स्टार्ट करके निकल गया।

उसके चले जाने के बाद तुरन्त बाद ट्रंक खोले गये। एक-एक सामान देखा गया। सारा का सारा आँखों के सामने था तब भी पूरा प्रकरण एक गल्प-सा लग रहा था। लेकिन सन्ध्या के पिता ने कई लाख रुपए के सामान किस उपाय से जुटाये थे यह हमसबों के लिए जिज्ञासा और चर्चा का विषय बन गया।

सामान मिलने के बाद दीपक के माता-पिता के खुशी का ठिकाना न था। दीपक की माँ बोली- "सचमुच मेरी बहू सौभाग्यवती है। लक्ष्मी है मेरी बहू वर्ना, महँगा सामान हाथ से निकल जाने के बाद वापस कहाँ मिल पाता ? मैंने तो अपनी जिन्दगी में ऐसी बात कभी नहीं सुनी. ......... बिलकुल गल्प सा लगता है। ऐसी कहानी मैंने पढ़ी भी नहीं......... यह मेरी बहू की तकदीर ही है.. हो भी क्यों न, आखिर ऊँचे कुल की .. कन्या जो है।” किसी ने कहा- "ताऊ कुल पुरोहित है, घर में नित्य पूजा पाठ होता है। सामान तो मिलना ही था।" ननद भी खुशी जाहिर करने में किसी से पीछे नहीं थी।

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)
** अखबार ' स्वतंत्र भारत ' दिनांक 20/09/1998 में प्रकाशित ।
** महालेखाकार कार्यालय,उप्र की पत्रिका' तरंग में  01/03/1999 में प्रकाशित ।
**पत्रिका ' महकम ' गुरुमखी लिपि में नाभा, पंजाब में 11/2004 में प्रकाशित ।
** पत्रिका ' विमर्श ' वर्ष 2005 में प्रकाशित ।

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