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Monday, September 5, 2022

कहानी: पद्मा मेरी माँ


मेरा नाम है नीहाररंजन गौरीशंकर घोष तालुकदार । लोग कहते हैं मेरा यह नाम काफ़ी बड़ा है। मगर मुझे अपना नाम कतई बड़ा नहीं लगता। फिल्मों के नाम, टी० वी० सीरियलों के नाम इससे ढेर बड़े होते हैं और उन नामों पर किसी को कोई एतराज़ नहीं हुआ करता है। हाँ, एक बात जरूर देखने को मिलती है कि पूरा नाम न लेकर लोग शॉर्ट में बोलते हैं। मेरे नाम को भी लोगों ने अपने-अपने हिसाब से छोटा कर लिया है। कोई कहता है नीहार, कोई रंजन, कोई शंकर, कोई घोष और कोई कहता है तालुकदार शॉर्ट के चक्कर में मेरे पाँच-पाँच नाम हो गये हैं।

इनके अलावा भी और एक नाम है, बहुत ही खिसियाहट होती है मुझे उस नाम से। वह है अंग्रेजी स्टाइल में एन० आर० जी० यानि नीहार रंजन घोष । जब कोई मुझे दूर से एन० आर० जी० कहता है तो मैं सुनता हूँ 'एलर्जी' और इसे सुनते-सुनते मुझे अपने नाम से सचमुच एलर्जी हो गयी है।

बड़ी अजीब-सी बात है, आदमी एक और नाम छह, है ना ? इस तरह एक आदमी, एक देह, छह प्राण लेकर समाज में घूम-फिर रहा हूँ । मगर कितनी प्लैनिंग के बाद, कितने शब्दों और अर्थों को देखने के बाद, कितनी गम्भीरता से इस मुद्दे पर विचार करने के बाद माता-पिता द्वारा नाम रखा जाता है यह सभी को मालूम है फिर भी जाने क्यों लोग नामों का अपभ्रंश कर अर्थ का अनर्थ कर देते हैं। मेरे नाम को लेकर जो कुछ हुआ है उससे मैं अत्यन्त दुखी हूँ। मुझे लगता है मेरे माता-पिता की तौहीन हुई है।

अपने माता-पिता का मैं इकलौता हूँ। मेरे नाम के पीछे है विराट् इतिहास, भूगोल। अपने चार पूर्वजों के नाम मुझे मालूम है। मेरा नाम अन्य नामों से मिलता-जुलता है। सभी सुर, ताल, लय और छन्द में है। एक ही ध्वनि निकलती है। मेरा नाम नीहाररंजन गौरीशंकर घोष तालुकदार, पिता- निशीथरंजन गौरीशंकर घोष तालुकदार, दादा थे निखिलरंजन गौरीशंकर घोष तालुकदार, परदादा-नीरवरंजन गौरीशंकर घोष तालुकदार
और उनके पिता थे निर्विकाररंजन गौरीशंकर घोष तालुकदार । बस। मुझे इतनी ही जानकारी है। निर्विकाररंजन गौरीशंकर घोष तालुकदार के पिता
तथा उनके पूर्वजों यानि निर्विकाररंजन महाशय का आविर्भाव कैसे हुआ था, खानदान के प्रथम पुरुष कौन थे, कहाँ से आये थे, उसकी जानकारी मुझे नहीं है। अपनी माँ से जो कुछ सुना था जितना सुना था उतना ही मैंने लिखा। मेरे पूर्वज बंगाली थे या गैर-बंगाली, आर्य या अनार्य, हिन्दू या मुसलमान इसकी जानकारी मुझे नहीं है और उसकी जरूरत भी क्या ? 
मैं नाजायज़ नहीं हूँ इसे यकीन दिलाने के लिए पिता का परिचय देना पर्याप्त होता है और मैं तो चार-चार पूर्वजों के नाम, धाम, गोत्र सब जानता हूँ । चार पुरुषों के नाम जान लेने के बाद मैं उन्मुक्त होकर इस धरती पर राज कर सकता हूँ।
एकदम खाँटी इंसान होने का सबूत है मेरे पास।

 खानदान के पहले व्यक्ति निर्विकाररंजन गौरीशंकर घोष तालुकदार साहब जमींदार
थे । बरिशाल जिले के मशहूर घोष जमींदार अपने खास भारी-भरकम व्यक्तित्व, रोबीला मिज़ाज और दयालु स्वाभाव के लिए प्रजा के प्यारे थे। जमींदार साहब जब आगे चलकर एक 'तालुक' के मालिक बन बैठे तब लोगों ने 'तालुकदार साहब कहना शुरू किया और उन्होंने भी 'घोष' पदवी के साथ 'तालुकदार' शब्द जोड़ लिया।

वृद्धावस्था में तालुकदार साहब शिवजी के उपासक बन गये थे। दिन-रात साधना आराधना करते-करते वे साधक बन गये थे। शिव-दुर्गा की मूर्ति अपने हाथों से तैयार कर भव्य मन्दिर की स्थापना की, उस मन्दिर का नाम था 'गौरीशंकर मन्दिर।

माँ ने कहा था, वह मन्दिर काफ़ी जाग्रत था। लोगों का विश्वास था कि उस मन्दिर में अन्तमन से ईश्वर से कुछ माँगने पर ईश्वर भक्त की मनोकामना पूरा करते । इस कारण कुछ लोग उसे मनकामेश्वर मन्दिर कहा करते थे। इस बात का प्रचार हो जाने के बाद जब कभी मन्दिर की बात उठती तो लोग कहा करते 'गौरीशंकर ठाकुर का मनकामेश्वर मन्दिर किन्तु जिन्हें जमींदार साहब को ठाकुर कहने में आपत्ति थी वे कहते 'गौरीशंकर घोष तालुकदार महाराय का मनकामनेश्वर मन्दिर।

उक्त गौरीशंकर महाशय का वास्तविक नाम था रंजन घोष मन्दिर बनाने के बाद रंजनबाबू रात-दिन पूजापाठ में लीन रहने लगे, एकदम से साधक, जमीन-जायदाद से दूर-दूर का सम्बन्ध नहीं रहा, इस कारण उनके भक्तवृन्दों ने उनका नाम रखा 'निर्विकार रंजन गौरीशंकर घोष तालुकदार।'

उस महान पिता के ज्येष्ठ पुत्र नीरव घोष ने कुल-मर्यादा बरकरार रखने के लिए अपना नाम पिता के नाम से मिलाते हुए रखा नीरवरंजन गौरीशंकर घोष तालुकदार और तभी से एन० आर० जी० घोष तालुकदार रखना वंश परिचय व परम्परा के लिए अनिवार्य बन गया।

एक ग़रीब की चार कन्याओं में सबसे बड़ी कन्या थी मेरी माँ ख़ूबसूरत थी। घोष जमींदार खानदान के निशीथरंजन गौरीशंकर घोष तालुकदार यानि मेरे पिता ने स्वयं माँ से शादी करने की इच्छा व्यक्त की थी। माँ ने कहा था उनकी सास उन्हें बनारसी साड़ी, गहने, साज-श्रृंगार का सामान देकर अपने हाथों से सजाकर उन्हें वरण कर ले गयी थी। मायके में माँ का नाम था पूंटी । एक ही नाम था। माँ कहती थी ग़रीब का सुन्दर क्या असुन्दर क्या, नाम रखना होता है रख दिया जाता है। किन्तु जमींदारों में पूंटी नाम नहीं चलेगा। इस कारण उनका नाम रखा गया था नीलांजना।

सम्भ्रान्त उस जमींदार वंश की राजरानी मेरी माँ देश विभाजन के समय अकस्मात् सब कुछ खोकर मुझे छाती से लिपटाकर चली आयी थी शहर इलाहाबाद में । पूर्वी पाकिस्तान से सपरिवार आते समय बीच रास्ते में बिछड़ गयी थी वह । ईस्ट बंगाल की सरहद पारकर इस देश के पश्चिम बंगाल में रहकर हजारों शरणार्थियों के मुँह गौर से देखने के बाद, महीनों बाद जब वह मायूस होकर पश्चिम बंगाल छोड़ने का मन बना चुकी थी तब एक दिन हठात् मेरी माँ की मुलाकात 'बसिरहाट' कस्बे में 'गौरीशंकर' मन्दिर के पुजारी से हो गयी। उनसे पता चला कि मुसलमानों ने मेरे पिता जी के पास से सोना दाना, रुपया-पैसा सब कुछ छीनकर उन्हें मार डाला था। पुजारी जी अन्य किसी की जानकारी नहीं दे सके थे ।

पुरोहित से पिता जी के सम्बन्ध में जान लेने के बाद माँ ने अपना सिन्दूर मिटाकर सफेद धान पहन लिया था और विधवा की भेस में आ पहुँची थी इस शहर में, रिफ्यूजी कॉलोनी में छोटा-सा एक आवास मिल गया था, फिर कुछ समय बाद उच्च पदस्थ एक बंगाली की मदद से 'गवर्नमेण्ट प्रेस' में एक सामान्य नौकरी मिल गयी थी। दफ़्तर के फार्म में उन्होंने अपना नाम लिखाया था 'शान्ति' और अपने पिता का नाम 'अमिताभ सरकार ' ।

माँ कहा करती अतीत की याद आते ही उनके रोंगटे खड़े हो जाते। वह अतीत को भूल जाना चाहती थी किन्तु फिर भी वह आये दिन कुछ अतीत की कहानी सुनाती। वह कहती थी कि मुझे अतीत की जानकारी रहनी चाहिये, अतीत की जानकारी न रहने से पिता, दादा, आदिवास आदि की जानकारी न दे पाने से लोग मुझे लावारिस या अवैध सन्तान मान सकते हैं, मुझे बेवज़ह झंझट बखेड़ा का सामना करना पड़ सकता है और इस देश में अपने पूर्वजों का परिचय जो जितना बढ़-चढ़कर दे पाता है उसका उतना ज्यादा सम्मान होता है। इसी कारण से उन्होंने मुझे वंशगाथा कण्ठस्थ करवा दिया था। मैं केवल एक ग़रीब विधवा की सन्तान नहीं हूँ, ग़रीब दरिद्र होने के बावज़ूद मैं त्याज्य ताच्छिल्य नहीं हूँ । मैं जमींदार का वंशज हूँ।

शान्ति देवी अब इस दुनिया में नहीं है अब उन्होंने 'देह रखा' है। जी हाँ, उन्होंने देह ही रखा है। लोग कहते हैं साधु-सन्त, महान् लोग मरते नहीं, देह रखते हैं। महाप्रभु निर्विकाररंजन गौरीशंकर घोष तालुकदार के वंशज की गृहवधू साधारण औरत नहीं हो सकती है, वह थी असाधारण । जिन्होंने जमींदार वंश का दिया बुझने नहीं दिया वह मर नहीं सकती। 

धन्य मेरी माँ जिसकी असीम कृपा से मैं अपने गौरवमयी अतीत के बूते मस्तक ऊँचा रख समाज में उच्च कुल, ऊँची जात समझे जानेवाले लोगों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रहा हूँ। मेरा गौरवमय अतीत मेरे रोम-रोम में मजबूत वर्तमान बना हुआ है। कोई पूछे या न पूछे मैं स्वयं कहता हूँ " मेरा आदिवास था बरिशाल।" मैं जमींदार खानदान का वंशज हूँ। कहीं भी 'बरिशाल' शब्द सुनता हूँ तो चौंक उठता हूँ, जिज्ञासा होती है।

नहीं, जिज्ञासा की वज़ह माँ से सुनी हुई कहानी की सत्यता की जाँच करनी नहीं बल्कि यह जानने की कोशिश की अगला मेरे जमींदार खानदान के वंश का है या नहीं । अगर कहीं पता चले कि वह जमींदार के नौकर के ख़ानदान का है तो बस उसके समक्ष जमींदारी ठाट-बाट, हाव-भाव लेकर इस तरह पेश आऊँ कि उसे भी पता चल जाये कि जमींदारी खून का बर्ताव कैसा होता है।

लगभग दो माह पूर्व गोलकबाबू की दुकान में लुंगी छाँटते-छाँटते हठात् कानों में आया 'आइते शाल जाइते तारि नाम बरिशाल' (आते शाल (शाल वृक्ष) जाते शाल, उसी का नाम है बरिशाल)। मैं चौंका। पीछे मुड़कर देखा एक अर्धबूढ़ा मुसलमान। कौतूहलवश मैंने पूछा - " आप क्या बरिशाल के हैं ?" वह मुझे एकटक देखते रह गये। स्तब्ध, हतप्रभ । मैंने अपना सवाल दुहराया।
वह अपना चश्मा उतारकर अपनी लम्बी-लम्बी दाढ़ी को दोनों हाथों से दबाकर सामने दीवार पर टँगे आइने में ख़ुद को देखकर मुझसे बोले--“देखो ! ज़रा गौर से देखो सामने आइने में, मैं एकदम तुम जैसा हूँ, मेरी उम्र में तुम दाढ़ी रख लो, तो हूबहू मुझ जैसे लगोगे.. .. है ना ? कौन हो तुम ? तुम्हारा क्या परिचय है ?" मैंने अपना कण्ठस्थ किया हुआ वंश परिचय उन्हें सुनाया।

थोड़ी देर तक उन्हें देखते रहने के बाद मुझे लगा कि वह एक खूँखार आतंकवादी है, और अपनी इस सोच से मैं सहम गया । मैं पुनः लुंगी छाँटने लगा ।

बगल से आकर उन्होंने अचानक बड़ी जोर से मेरी कलाई पकड़ ली। मैं चीख उठा। वह बोले-“चलो मेरे साथ। अभी, इसी वक़्त । यहीं मेरा घर है।" 
-"क्यों ? क्यों भला ?" मैंने हाथ छुड़ाने की कोशिश की।
- "मुझे तुम्हारी ज़रूरत है। बेहद ज़रूरी काम है। यहाँ सब कुछ कहना सम्भव नहीं है।"

मैंने किसी तरह अपना हाथ छुड़ा लिया। उनके साथ न जाने पर मैं अड़ा रहा मगर अन्त तक छुटकारा नहीं मिल पाया। गोलकबाबू के पोते ने मुझसे कहा-- "जाइये ना दादा वह इतना ख़ुशामद कर रहे हैं, आपके देश के ही हैं, शायद कुछ विशेष सुनना या कहना चाहते हैं। वह भले आदमी हैं, यहीं रहते हैं, सामनेवाली गली में । बहुत अच्छी तरह हम उन्हें जानते हैं, खामख्वाह डर रहे हैं आप।"
इस बीच उस आदमी ने मेरा हाथ दुबारा थाम लिया था। उनका पूरा शरीर थरथरा रहा था।

एक बार मन में आया कि चीत्कार कर भीड़ इकट्ठा करूँ मुसलमान इस समय बरिशाल का अर्थ है 'बांग्लादेश' क्या पता आतंकवादी भी हो सकते हैं। फिर भी अपना लोभ संभाल न सका, आख़र मन का तार बरिशाल से जुड़ा हुआ जो था। जाते समय गोलकबाबू के पोते से मैंने कहा- "भाई तुम्हारे कहने पर इनके साथ जा रहा हूँ..... देखना।"

उनके घर पहुँचते ही मेरी निगाहें नेमप्लेट पर पड़ी-"डॉक्टर निशात अहमद खान"।

भीतर जाकर एक कमरे में दाखिल हुआ। छोटा-सा कमरा पूरा कमरा अस्त-व्यस्त ।
लकड़ी की कुर्सी पर मैं बैठ गया। सामने तख्त पर वह बैठें।'

"आप मुसलमान हैं ?" मैंने कहा।

-"हाँ मुसलमान।"

-"खाँटी मुसलमान ?”

- "मतलब ? क्या कहना चाहते हो तुम ?" विस्मित होकर वे बोले । "यानि आप मुसलमान या बंगाली मुसलमान यानि बंगाली से मुसलमान बने हैं या फिर....." सहज-सरल ढंग से मैंने प्रश्न दागा। -- -"एकदम खाँटी मुसलमान इस्लाम मेरा धर्म, कुरान धर्मग्रन्थ मेरे अब्बू का नाम था जनाब निसार अहमद खान ।" 
-"क्या आप अपने पूर्वजों के नाम जानते हैं? कम-से-कम चार पुश्तों के नाम बताइए जैसा मैंने बताया था। "
-"दादा का नाम था नफ़ीस अहमद खान, उनके अब्बा का नाम नसीम अहमद खान, उनके अब्बा का नाम था नवाज अहमद खान ।" 
-"हरेक नाम 'न' अक्षर से ?"
- "इसका मतलब ?"
-"नहीं कुछ नहीं। यूँ ही मेरे पूर्वजों के नाम भी 'न' अक्षर से जनाब नवाज़ अहमद खान से पहले कौन थे ? मेरा मतलब आपके ख़ानदान का पहला मर्द कौन था ?" 
-"मालूम नहीं किसे मालूम रहता है? मगर इस तरह की अजीब बातें क्यों कर रहे हो ?" अत्यन्त खिन्न होकर वे बोले।
-"क्योंकि मुझे अपने बारे में भी वैसा ही कौतूहल है.... आपके पूर्वज कहाँ से आये थे ? अरब, इराक या तुर्की से ? आपका ओरिजन कहाँ का है ?" 
-"मालूम नहीं। ठीक-ठीक मालूम नहीं है पर मैंने सुना है कि मुझसे सात-आठ पीढ़ी पहले के लोग राजपूत थे । चौहान लिखते रहे किस शताब्दी में, किसकी बादशाही में, किस मजबूरी या किस प्रलोभन में उन्होंने इस्लाम अपनाया था मुझे मालूम नहीं है, कहीं कुछ लिखित भी नहीं है, सब कुछ सुनी हुई कहानी है, किन्तु तुम अगर बिना सबूत माँगे सिर्फ़ नाम सुनकर यकीन कर लो तो मान लो किसी नफ़ज़ अहमद खान का नाम था विक्रमसिंह चौहान और उन्होंने ही इस्लाम मज़हब अपनाया था..... बैठो। मैं आ रहा

हूँ, तुम्हें जिस वज़ह से यहाँ ले आया हूँ...... फजूल की बातों में खामख्वाह वक्त ख़राब
हो रहा है।"

भीतर के कमरे में जाकर लोहे का ट्रंक खोलकर हाथ में एक फोटो लिये हुए उच्छ्वसित होकर वे बोले -“देखो देखो इसे मैं बिलकुल तुम्हारे जैसा था। वैसी ही सूरत, वैसी ही शक्ल, कद-काठी, हाव-भाव कुछ वैसा देखो गौर से...... है ना ?"

तस्वीर को देखकर मैं दंग रह गया, वाकई मुझ जैसा। मेरे शरीर में सिहरन पैदा हो गयी। वे उल्लसित होकर बोले-"अवाक् हो गये हो, है ना? इसे तुम अपनी ही तस्वीर समझ रहे हो, है ना ?"
-"जी हाँ मेरी ही तस्वीर लग रही है बल्कि मुझ जैसा।"
- "जैसा-वैसा नहीं, ध्यान से देखो...... इस पर एक मूँछ बना दो और ठुड्डी पर
एक गाढ़ा काला तिल, फिर कहोगे-जी हाँ यह है निहाररंजन....... क्या कहा था?"
-"निहाररंजन गौरीशंकर घोष तालुकदार।"

-"स्ट्रेंज। कोई फ़र्क नहीं है...... तुम देख रहे हो मुझे लग रहा है मैं ख़ुद अपनी तस्वीर देख रहा हूँ....... मेरी जवानी मेरे सामने मौजूद है।"

-"इसमें आश्चर्य होने का क्या है ? आप बेवज़ह इतना उत्तेजित क्यों हो रहे हैं ?

सुना है पृथ्वी पर एक शक्ल के चार इंसान हुआ करते हैं, इत्तफ़ाख़ से हम दो इस देश में हैं अन्य दो लोग शायद अमेरिका और साउथ अफ्रीका में होंगे। एक गोरा, एक काला।"
- "कोलकाता में कहाँ रहते हो ?"
-"श्याम बाजार में।"
-"दिल्ली में कैसे ?"
-"ससुराल में महावीर एनक्लेव में।" - "कोलकाता में कब से ? जन्म से ?"
-"नहीं। चार साल से नौकरी पाने के बाद। इक्कीस वर्ष की उम्र तक इलाहाबाद में था।"
-"माँ-बाप ?"
-"नहीं हैं। जब मैंने ठीक से चलना नहीं सीखा था पिता जी चल बसे थे। माँ का देहान्त दो साल पहले हुआ थे, मेरी शादी के तुरन्त बाद।"
-"रिश्ते-नाते ?"
"कोई नहीं है सिवाय ससुरालवालों के।"
-"ऐसा नहीं होता है। कोई न कोई होगा जरूर। तुम लोगों ने किसी से सम्बन्ध नहीं रखा होगा।"
-"नहीं कोई नहीं है, अगर होंगे भी तो मुझे किसी की जानकारी नहीं है। आप तो बारिशाल के हैं क्या आपने मेरे पूर्वजों के बारे में सुना नहीं ? पाँच पुश्तों ने जमींदारी की थी, दूर-दूर तक लोग जानते थे।"

-"मेरे अब्बू जानते रहे होंगे......मैं भी तुम जैसा बरिशाल को सीने से लगाया हुआ हूँ। साँस साँस में बरिशाल चलता है। ढेर सारी यादें! मीठी-मीठी यादें! बरिशाल में पद्मा रहती थी।" 
-"पद्मा ? पद्मा तो नदी का नाम है।"
.-"हाँ नदी.......मेरी पद्मा ठीक नदी की तरह बह रही है मेरी ज़िन्दगी में। दिन रात, अनवरत ...... पद्मा बंगाली घर की थी। हिन्दू । उन्नीस, बीस या इक्कीस वर्ष की और मैं तुम जैसा........ ढाका यूनिवर्सिटी में पी० एच० डी० कर रहा था, पद्मा बी० ए० में थी, बी० ए० फाइनल में क्या ख़ूबसूरती ! जन्नत की हूर थी वह। जैसा रूप वैसा ही गुण। सौम्य, शान्त, धीर स्थिर जिस्म के पोर-पोर में कल-कल नाद एकदम पद्मा नदी जैसी वैसा ही मीठा था उसका कण्ठस्वर। लोग उसे कोकिलकण्ठी कहते थे। आज भी उसकी आवाज गूंज रही है मेरे कानों में।" 
-"आपको भी गाना बजाना पसन्द है ? तब तो आपने मेरी माँ का गाना ही सुना होगा। मेरी माँ अच्छी गायिका थी। नाम था पूंटी। उसका मायका फरीदपुर में था। माँ कहती थी पूंटी के नाम पर इतनी भीड़ उमड़ती थी कि कदाचित्, भीड़ बेकाबू हो जाती थी।" 
-“ऐसी ही थी मेरी पद्या। लेकिन मैंने तुम्हारी माँ का नाम नहीं सुना ना ही कभी फरीदपुर जाना हुआ था।"

-"शादी के बाद अलबत्ता उन्होंने किसी मंच पर गाया नहीं...सम्भ्रान्त परिवार की बेटियाँ और औरतें उस जमाने मंच पर नहीं चढ़तीं........मेरे पिता की मृत्यु के बाद माँ ने हमेशा के लिए गाना गाना बन्द कर दिया था.....कभी-कभार मैंने उन्हें गुनगुनाते सुना। मैं कहा करता "माँ तुम गाना गाया करो, खुश रहोगी, तनाव मुक्त रहोगी, मंच पर गाना गाओ, नाम-यश तो होगा ही, पैसे भी कमा लोगी।" उत्तर में माँ कहती-"नहीं बेटा अब सम्भव नहीं है। गला नहीं चलता। लगता है जैसे किसी ने आवाज़ छीन ली है, इसी गले की आवाज़ सुनकर तुम्हारे पिता जी मुग्ध हो गये थे, इतना प्यार कर बैठे... ..अब इस गले से सुर नहीं निकल सकता।" उत्तर देते-देते माँ का गला रुंध आता था, आँखों से आँसू छलक जाते थे।"

- "मेरी पद्मा बरिशाल की मशहूर गायिका थी। क्या कण्ठ। मैं भी तुम्हारे पिता जैसा उसके कण्ठ का कायल हो गया था। अनचाहे उसके मोहब्बत में दूब गया था। बेपनाह मोहब्बत किया था मैंने उससे मैंने पद्मा से कहा था नौकरी मिलते ही मैं उसे ले जाऊँगा....... अचानक शुरू हो गया, लड़ाई-झगड़ा, दंगा-फसाद, लूटमार, मार-काट, चारों ओर लग गयी आग........बरिशाल पहुँचते-पहुँचते देर हो गयी थी। पहुँचकर देखा पद्मा का मकान जलकर राख ...... मगर मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी, आज भी उसी उम्मीद में जिन्दा हूँ। मुझे यकीन है उससे मेरी मुलाकात होगी, जरूर होगी।”

"आपने दुबारा शादी नहीं की ?" 
"शादी ? दुबारा ? शादी मन का मेल होता है, दो जेहन के मेल को शादी कहते हैं. .....खुदा के घर देर हो सकता है अँधेरे नहीं होता, ख़ुदा इंसाफ़ करेगा।"
 -"आपकी पद्मा ने अगर देश छोड़ा होगा तो इस देश में आयी होगी, यहाँ ढूंढ़ा आपने ?"
-“उसी के लिए मैं यहाँ आया हूँ। मैंने जब सुना किसी ने उसे कोलकाता में देखा था तब मैं कोलकाता पहुँचा। बीस साल वहीं था। मदरसा में पढ़ाया करता था। रहता था खिदिरपुर में बीस बरस उसे खोजा। गली-गली में, ट्राम बस में, मन्दिर-मस्जिद में, दक्खिनेश्वर में, बेलूर में, सागर संगम के मेले में......कोई जगह नहीं छोड़ी कहीं नहीं दिखी।"
- "कोलकाता मानव- महासमुद्र है आपने जिस तरह खोजा है उस तरह किसी को ढूँढ़ निकालना नामुमकिन है।" 
-"एक क्या दस-दस मानव-महासमुद्र में भी मेरी पद्मा हो तो मेरी आँखों से बच नहीं सकती। वह कोलकाता में नहीं है......इतना बड़ा मुल्क कहाँ देखूं उसे ?"
- "दिल्ली में कब से रह रहे हैं ?"
-"पाँच-छह साल हुए। बैठो, एक मिनट।"
 खान साहब भीतर के कमरे में जाकर एक तस्वीर लिये बाहर आकर बोले-"देखो। देखो-देखो यह है मेरी पद्मा। कहीं देखा है इसे ? चिन्हा पहचाना लग रहा है क्या ? जरा याद करो. ..क्यों बेमिसाल है ना मेरी पद्मा ? तुम देख रहे हो मुझे महसूस हो रहा है कि मैं स्वयं उसे देख रहा हूँ....... मैं भी तुम जैसा हैण्डसम था, मेरी कितनी तारीफ़ करती थी पद्या.......क्या अभी भी देखे जा रहे हो ? पहचानते हो ?"
-"जी, काफ़ी पहचाना-पहचाना सा याद नहीं आ रहा...
-"इलाहाबाद में ?"
-"पता नहीं। याद नहीं आ रहा।"
- "तुम बल्कि इस फोटो को अपने पास रखो, ऐसी सूरत कहीं देखोगे तो पहचानने में आसानी होगी।"

:-" आपके पास और भी तस्वीर है या नहीं ?" - "नहीं। एक ही है। मगर मुझे इसकी ज़रूरत नहीं है। वह मेरी आँखों में कैद है।"

- "नहीं। आप ही रखिये इसे। इसकी मदद से ढूँढ़ना असम्भव है। अब तो आपकी पया बूढ़ी हो गयी होगी....सफेद बाल, पिचके गाल, हाड़-माँस मिलकर एक या फिर मोटा, थुलथुल, बाई चांस कहीं मुलाकात हो भी जाये तो आप अवाक् होकर देखते रह जायेंगे, सोचेंगे क्या यही है मेरी 'लोलिता' ?"

- "बस, बस करो। मेरी पद्मा बदसूरत नहीं हो सकती है। अल्लाहताला ने मन लगाकर एक ही मॉडल तैयार किया था, मेरी तकदीर ख़राब थी तुम रख लो इसे, सम्भव है कहीं ना कहीं वह दिख जाये, मुलाकात होने से कहना उसका निशात आज भी उसकी राह देख रहा है।"

- "अच्छा चलता हूँ, इज़ाज़त दीजिये।"

- "ठहरो!......मेरी पद्मा का गजदन्त है। हँसने पर दोनों गालों में डिम्पल पड़ता है, पद्मा नदी जैसी झरझर झरझर हँसी झरती है।"

-"मेरी माँ का भी गजदन्त था, गालों में गड्ढे भी बनते थे मगर वह परम सुन्दरी नहीं थी, सिर्फ़ सुन्दरी...न जाते कितनी औरतों के गजदन्त रहते हैं, न जाने कितनी औरतों के गड्ढे होते हैं जाने कितने चेहरे एक जैसे प्रतीत होते हैं, देखकर लगता है पहले कहीं देखा है....... ख़ैर । तस्वीर रखता हूँ, शायद काम दे।" 
- "सुनो! अगर वह नाम पद्मा कहे तो उससे उसके पिता का नाम पूछना, उनका नाम था अमिताभ सरकार।"

माँ का चेहरा मेरी आँखों के सामने खिल उठा, गालों के दोनों गर्त और गजदन्त साफ़ दिखने लगे। मैंने पूछा- "क्या तुम ही हो पद्मा ? मेरी माँ ? ज़नाब निशात अहमद खान की बेगम ?"

उत्तर मिला- "नहीं! मैं हूँ नीलांजना देवी, जमींदार गौरीशंकर घोष तालुकदार वंश के पंचम पुरुष की वधू।" पंचतत्त्व के समस्त शक्तियों को अपने शरीर में खींचकर मैं अपने गौरवमय अतीत को लेकर बाहर निकल आया।

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
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( "कहानी की तलाश" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2006)
** ' नया ज्ञानोदय ' 20040 में प्रकाशित ।
** ' विमर्श ' 2005 में प्रकाशित ।

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