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Friday, October 22, 2021

कहानी- हम जीना चाहते थे



चोरी का इल्ज़ाम अर्चना सह नहीं पायी और उसने अपना काम स्वाभिमान से छोड़ दिया।
शुरू शुरू में नमिता अच्छी थी, काम की बातें करतीं और कायदे से भी करतीं मगर थोड़े दिनों के बाद वह पूरी तरह से मालकिन बन गईं ।
--"दाल में नमक ज्यादा, देख कर काम किया करो ..........चाय में चीनी कम देख कर काम किया करो....... उमर तो कम नहीं है, नमक, चीनी का का अंदाज भी मालूम नहीं है ? .............. रोटी मोटी कर देती हो, लोई बनाकर दिखा दिया था, रोज़ रोज़ बताना पड़ेगा क्या ?.............जब देखो तब गैस फुल रहता है, फ़िज़ूल का गैस जलता है, पैसा क्या आसमान से टपकता है ?............. तीन तीन विम बार दे चुकी हूं, अभी भी दो दिन बाकी है महीना ख़त्म होने में, पहले वाली दो विम बार में चला लेती थी........आगे से टाइम का ख्याल रखा करो देर करने से कैसे चलेगा...... आज फिर पंद्रह मिनट की देरी, अब पैसा काटना पड़ेगा । समय से नहीं आ सकती तो बता दो कामवालियों की कमी नहीं है यहां .....। "
इतनी टोका-टोकी होने लगी कि अर्चना की समझ से बाहर होने लगा कि वह क्या करे और क्या न करे, क्या देखे और क्या न देखे । किन्तु करे तो क्या करे, सब कुछ सहना पड़ता है पेट की खातिर ।
 मंगलवार का दिन था । मंगल को नमिता का पति व्रत रहते हैं, अर्चना को याद नही था । टेबिल पर जब नमिता ने देखा कि खाना तो उतना ही बना है, तब वह बोली -- " तुझे मालूम नहीं है आज मंगलवार है बाबूजी व्रत रहते हैं ? "
अर्चना बोली --"  पिछले मंगलवार को तो बाबूजी खाना खाये थे न, मैंने सोचा कि व्रत रखना बन्द हो गया ।"
--"पिछली बार मेरे बहनोई आ गये थे उनका साथ देने के लिए नहीं रखें थे । मालूम नहीं तुझे ?"
---" इतना याद रहता तो मैं बनाती ही क्यो ?"
---" सब समझती हूं । घास थोड़े ना खाती हूं....... एक बार और तुमने ऐसा किया था मैंने तुम्हें घर ले जाने के लिए दे दिया था, दो बार और दे दिया था खाना बच गया था इसलिए.....मजा मिल गया तुझे आज तूने जानबूझकर बनाया है । सीधे चोरी न करके ऐसे चोरी कर रही है ...."
अर्चना अपना आपा खो बैठी --" मेमसाब आप  खुद भी बता सकती हैं क्या बनना है कितना बनना है ... आज मेरा बुरा समय आया है तो आप अनाप-शनाप बोली जा रही हैैं ।"
--- " बद्तमीज़ ! छिनाल ! तू मेरी बराबरी करती है ! जानती है मेरी हैसियत़ ?  "
अर्चना ने आव देखा न ताव तनफनाती हुई घर से बाहर निकल कर फाटक पर खड़े-खड़े बोली--   
" इंसान के जब बुरे दिन आते हैं तब उस पर कुत्ते भी पेशाब कर देते हैं..... चोरी का आरोप  लगा रही हैं ! .... इतना अहंकार ! निकल जाएगा सारा घमंड तेरा तभी समझेगी । इंसान के दिन बदलने में एक मिनट लगता है..... डायन, बद्तमीज, छिनाल कहती है , बद्तमीज़ औरत, कभी मेरी अवस्था तुमसे अच्छी थी.......डायन मैं कुलीन ब्राह्मणी हूं, श्राप देती हूं  तुम्हें.......।" 
अर्चना तेज डगों से निकल गई ।
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चोरी का इल्ज़ाम और छिनाल शब्द अर्चना को भीतर तक हिला दिया । शादीशुदा औरत के लिए चरित्र ही सबसे बड़  पूंजी होती है, आज वह ग़रीब बन गई है तो उसके चरित्र के बारे में कुछ भी कह दे ! आंखों से आंसू जो बहना शुरू हुआ तो अविरल धारा बहती चली गई ।   रातभर वह छटपटाती , करवटें बदलती, उसका अतीत सागर की लहरों सा तट पर आता और रिक्तता बोध करा कर चला जाता ।
कितना सुन्दर था उसका जीवन ! दादा दादी का प्यार, मां बाप का साया, गांवों के भोले-भाले लोग, घर के चारों ओर हरे भरे खेत, पेड़ों पर चढ़ना, डालो पर झूलना, स्कूल की वे सहेलियां, स्कूल के टीचरों की खट्टी-मीठी डांट सबकुछ आंखों के सामने तैरने लगा । और फिर अट्ठारह वर्ष होते-होते कालीप्रसाद जैसे सुपुरुष, खाते-पीते घर के व्यक्ति को वरमाला पहनाना। कितनी सुखद थी  जिन्दगी !
मगर मात्र पांच मिनट में वह अर्श से फर्श पर आ पड़ी थी ।
दीपावली की वह भयानक रात ! अनार में आग लगाते ही अनार बर्स्ट हो गया था, कालीप्रसाद चीख उठे थे और  कालीप्रसाद की आर्तनाद सुन किचन से दौड़ पड़ी थी अर्चना, दरवाज़ें की हैंडिल में उसकी साड़ी फंसने से वह गिर पड़ी थी ।
            मोहल्ले वालों ने उन दोनों की ख़बर पुलिस को सौ नम्बर पर दे दी थी । सुबह जब आंखों की पट्टी खोली गई थी और डॉक्टर ने धीरे-धीरे  आंखों की पलकें खोल कर देखने को कहा तब कालीप्रसाद फफक-फफक कर रोने लगे । वे बोलें ' कुछ नहीं दिख रहा ' , गहन अन्धकार है ।'......  उनकी आंखों की रोशनी चली गई थी । किन्तु डाक्टरों ने ढांढस बंधाया । कहा कि बेहतर इलाज होने पर आंखों की रोशनी वापस आ सकती है ।
अर्चना की साढ़े सात महीने की प्रेग्नेंसी थी । गर्भ में पनपता बच्चा मर चुका धा, गर्भपात करा कर अर्चना की जान बचायी जा सकी थी। दुबारा गर्भधारण करने की उम्मीद कम हो गई थी । 
            कालीप्रसाद की आंखों की रोशनी वापस पाने के लिए अर्चना ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । बड़े-बड़े नेत्र विशेषज्ञों को दिखाया, कोलकाता ले गयी किन्तु सारा पैसा बेकार गया । 
फिर रिश्तेदारों के सुझाव पर चिन्नई ले गयी । बड़ा लम्बा आपरेशन हुआ तब जाकर इतना फ़ायदा हुआ कि एक आंख से बहुत ज़रा सा दिखने लगा जिससे कम से कम अपना नित्य क्रिया ख़ुद ही करने लायक बन गए ।
पांच लाख से ज्यादा जमा पूंजी खर्च हो गयी, थोड़े बहुत गहने थे वो भी लगभग सभी चले गये किन्तु सब-कुछ व्यर्थ गया क्योंकि कालीप्रसाद नौकरी के अयोग्य घोषित कर दिए गए और वे किसी भी काम योग्य नहीं रह गये थे ।
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अर्चना के सामने अब जीवन यापन करने का घोर संकट था । करे तो क्या करे ! 
उसके पास अब कुछ न था एक छोटे-से मकान के सिवा।
अर्चना ने पुरोहित बनने की सलाह दी जिस पर विमर्श के बाद उसका पति राजी हो गए ।
अर्चना अपने पति को सत्यनारायण की कथा, लक्ष्मी व्रतकथा, सरस्वती पूजा, शनिपूजा आदि के मंत्र एवं कथा बार-बार पढ़कर सुनाते और बार- बार सुनते-सुनते कालीप्रसाद ने सबकुछ अच्छे से कंठस्थ कर लिया । थोड़े दिनों के बाद कालीप्रसाद को एक मिठाई की दुकान पर काम मिला ।
उस दुकान में बिक्री प्रारंभ होने से पहले कालीप्रसाद देवी देवताओं की पूजा करते जिसके एवज उन्हें चार बर्फी या पेड़ा तथा दस रुपए नकद राशि प्रतिदिन मिलता ।
अर्चना कालीप्रसाद का हाथ थामे ले जाती हर जगह । यह थी उसके पुरोहित जीवन की शुरूआत ।
एक दुकान से एक और बड़ी दुकान में वही काम, दुकान खुलने से पहले पूजा-अर्चना करना । फिर एक शनि मंदिर में प्रति शनिवार पूजा का काम मिला । फिर धीरे-धीरे सरस्वती पूजा, लक्ष्मी पूजा, सत्यनारायण की कथा सब करने लगें । अर्चना ने बख़ूबी साथ निभाया ।
लेकिन अच्छे दिन बहुत दिनों तक नहीं रहे ।
बनर्जी दादा के घर सत्यनारायण कथा थी।
जब सारे लोग एकाग्रचित्त होकर कथा सुन रहे थे तब देर से आयी एक महिला अचानक चीख उठी -- " छि: छि: छि: छि: अर्चना ! तुम्हें शर्म नहीं आती ? ज़रा सा भी भगवान का भय डर नहीं है मन में ? शालिग्राम शिला छू रही है ?........."
उपस्थित सभी महिलाएं पूजा छोड़ उसे देखने लगी अवाक् होकर। यह थी रुपा आइच, बनर्जी दादा के पडोसिन मिसेज बोस की भांजी।
रुपा के आचरण से  क्षुब्द  होकर मिसेज बोस बोली --" तुमने मेरी नाक कटवा दी । बेकार ही मैंने तुम्हें आने के लिए कहा था । "
--" अच्छा हुआ जो मैं आ पहुंची । ऊपर वाला जो कुछ करता भलाई के लिए करता । मैं क्या अपने लिए परेशान हूं ? मुझे क्या करना, मैं तो चली जाऊंगी, मिसेज बनर्जी तुम्हारी पडोसीन हैं । उनका अहित हो जाए ये तो तुम नहीं चाहोगी
 ना ? "
इस बीच कालीप्रसाद का ध्यान भंग हुआ था और दो-दो बार उन्होंने इशारा किया शांति बनाए रखने के लिए । अर्चना ने भी हाथ जोड़कर कहा- " पूजा हों जाने दीजिए शान्ति से । पूजा के बाद इस औरत को जो बोलना बोले । मैं भाग नहीं जाऊंगी । एक एक बात का उत्तर दूंगी । "
--"ज़वाब क्या देगी कुलटा ?" रुपा चीखी।
---" मै हाथ जोड़ रही हूं ऐसे ही दु:ख कम नहीं, पूजा नहीं हो पायेगी तो सभी का अकल्याण होगा। तू भी नही बचेगी । "
--" कुलटा हमें श्राप दे रही है ?" रुपा आइच उठकर कमरे से बाहर निकल गई ।
महिलाओं में सुगबुगाहट पैदा हो गई। सच्चाई जानने के लिए सब व्याकुल हो उठे । दो महिला उठकर बाहर दालान में चली गयी । पीछे-पीछे मिसेज बनर्जी भी गयी । तीन चार बुजुर्ग महिलाओं को छोड़कर बाकी सभी पीछे-पीछे
जा पहुंची ।
कालीप्रसाद अब जोरों से सत्यनारायण की कथा सस्वर पढ़ने लगें ।
बाहर जो महिलाएं एकत्र हुईं  उनसे रुपा बोली
 --" अर्चना के पिता को मेरे पिता बड़ी अच्छी तरह जानते थे । इसकी सही जाति की जानकारी किसी को नहीं है । इसका पूरा परिवार बांग्लादेश से शरणार्थी बनकर आया था । मेरे पिताजी भी बांग्लादेश से आए थे। पिताजी जमींदार के बेटे थे । पिताजी कहते थे ये लोग नीच  जाति की है। नमो शुद्र । किसी भी शुभ कार्य में ये लोग शामिल नहीं हो सकते ........... शादी के लिए इसके बाप ने ख़ुद को कुलीन ब्राह्मण बता दिया था, बाहर से आया था इसका बाप । बाहर से आये लोगों की जिसकी जो मर्जी बोल दिया वही फाइनल। सर्टिफिकेट तो सब लोग ला नहीं पाये थे । वैसे जन्म वंश प्रमाणपत्र रखता ही कौन ? शादी के समय बड़ा बवाल मचा था.......... ससुराल वालों ने उसके हाथ का जल तक ग्रहण नहीं किया था । सबों न बोलचाल बन्द कर दिया था । दोनों को घर से निकलने का आदेश दिया था पूरे परिवार ने । बाप के पाप के कारण यह कमिनी बांझ रह गई है, पति अंधा हो गया । अब इस कुलटे के शालिग्राम शिला छूने के कारण इस परिवार का सर्वनाश हो जाएगा ।"
' सर्वनाश ' सुनते ही मिसेज बनर्जी के शरीर में बिजली सा करेंट दौड़ गया । वह दौड़ कर बैठक से अपने पति को बुला लायी फिर बोलीं
 -- " ये हैं रुपा आइच क्या बोल रही है अर्चना के बारे में।"
पतिदेव ने कहा " बहुत देर से बकवास मैं सुन रहा हूं । भूसा भरा हुआ है तुम्हारे और इसके दिमाग में । लगता है गोबर खाकर बड़े हुए हो । पूजा करने का अधिकार हर व्यक्ति को है...... रुपा का टाइटल 'आइच ' है, इसका पदवी 'सरकार' यानी लाला थी । वह कहती हैं न ?"
--" मगर अर्चना नमो शुद्र है उसे छूने का अधिकार नहीं है ।"
-- " चलो मान लिया तुम्हारी बात । अब बोलो ब्राम्हण की पत्नी ब्राह्मणी होगी कि नहीं ? पति का जो गोत्र रहता है वही गोत्र पत्नी का भी होता है ........पता नहीं रुपा किस जाति की है "
औरतें एक दूसरे का मुंह ताकने लगीं । रुपा का चेहरा तमतमा उठा था बनर्जी दादा की बातों से । वह पलट गई घर जाने के लिए, उसके पीछे-पीछे तीन चार महिलाएं भी निकल गयीं । मिसेज बनर्जी रोकने की कोशिश कर रही थी ।
 बनर्जी दादा बोले "जाने दो जिसे जाना है, कथा का प्रसाद छोड़कर जाने का परिणाम क्या होता है वह सत्यनारायण कथा में ही है ।"
बनर्जी दादा को पूरा सुने बगैर रुपा आइच और उसके पीछे-पीछे तीन चार महिलाएं निकल गई । 
बाहर जो गोलमाल हो रहा था उससे अनभिज्ञ कालिप्रसाद ने पूरी निष्ठा से पूजा पाठ सम्पन्न किया , फिर जोरो से मंत्रोच्चारण कर शांतिजल छिड़काव किया । पुरोहित ने सर्व शांति, पूरी पृथ्वी तक की शांति के लिए गंगा जल छिडकाया । मगर फिर भी अशांति बनी रही ।
प्रसाद वितरण के बाद जब सारे लोग जा चुके थे तब मिसेज बनर्जी ने अर्चना से पूछा बात क्या थी तो उसने बताया कि चट्टोग्राम में उन दोनों का घर दुआर अगल-बगल था, जमीन-ज़ायदाद को लेकर दोनों के परम पिताओं के बीच आये दिन गाली-गलौज, मारपीट, थाना कचहरी होती रही, आख़िरकार कोर्ट से अर्चना के परदादे की जीत हुई थी । तभी से दो वंशों की दुश्मनी चली आ रही है । अफसोस ! दोनों परिवारों को बांग्लादेश छोड़ना पड़ा था, यहां आ गयें तब भी हिन्दू मुस्लिम जैसी आपसी लड़ाई भीतर ही भीतर ।
उसने यह भी बताया कि उसके पिता का नाम प्रदीप चट्टोपाध्याय था, और रुपा के पिता का नाम था अजित कुमार आइच । 'आइच' उनको टाइटल के रूप में मिला था। उन लोगों की पदवी थी सरकार । कालीप्रसाद बन्धोपाध्याय हैं, जब से पूजा करने लगे भट्टाचार्य हो गयें ।
कालीप्रसाद  और अर्चना मोटी दक्षिणा और चढ़ावा पाकर खुशी-खुशी घर से निकले ही थे कि रुपा ने रास्ते में घेर लिया और उसके साथ थी मिसेज बोस । 
रुपा बोली --" कमिनी ! क्या है तुझमें जो मेरा आदमी अभी भी सोता मेरे साथ और नाम तेरा लेता है । क्या गुल खिलाया था तूने ?"
--" चुप कर शैतान । तेरा पति आशिष 'मंडल' बंगाली मुसलमान है, वह मुझसे एकतरफा प्यार करता था । उसने जब प्रोपोज किया था तभी मैने रीफियूज कर दिया था...... इतने सालों से वह तेरा नहीं बन पाया इसका मतलब कमी तुझमें है। तू तो अपने बाप की उपाधि ' आइच' लिखती है, '  मंडल ' लिखने में शर्म आती है क्या ? बंगाली मुसलमान है तो बोल ना ।  जा भाग रास्ता छोड़। भाग !"
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बनर्जी दादा के घर जो कुछ अप्रिय घटा था वह ख़बर आग की तरह पूरे शहर में फ़ैल गई । जितनी मुंह उतनी बातें । बात जितनी थी उससे ज़्यादा नमक मिर्च लगकर फैलीं।
अर्चना के बारे में बोला गया झूठ इतना फैला कि फैलते -फैलते वही सच सा बन गया।
एक दिन सुबह-सुबह मिठाई की दुकान पर पहुंचे तो देखा नया पुरोहित बैठे हुए थे, कालीप्रसाद की छुट्टी कर दी गई । फिर एक दिन दूसरे मिठाई वाले ने भी मना कर दिया । कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि नीच जाति की औरत पंडित से शादी करने पर पंडिताइन नहीं बन जाती । दोनों ने कितनी कोशिशें की मगर सब कुछ व्यर्थ गया जब दुकानदार ने यह कहा कि बिना आग धुंआ नहीं निकलती ।
मगर धुंआ तो निकली थी बिना आग के ही ।
खानदानी रंजिश और  रुपा की ईर्ष्या के चलते रुपा ने जिस तरह से डंके की चोट पर बोला गया झूठ हिटलरी झूठ की तरह सच मान लिया लोगों ने । और झूठ जब सच का लबादा ओढ़कर घूमें तो फिर सच को स्थापित करना मुश्किल होता है, अर्चना उसी सच का शिकार हो गयी।
 जब महीनों बीत गए  कालीप्रसाद को किसी ने नहीं बुलाया तब अर्चना ने नमिता सिंह के घर पर काम पकड़ लिया था । लेकिन मात्र दो महीने ही बीते थे कि काम छोड़ना पड़ा था ।
नमिता सिंह के घर पर जो घटना घटित हुई उसकी चर्चा भी मोहल्ले की औरतों की बातचीत के दौरान खूब हुई । नमिता ने सबसे कहा कि एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी , दो टके की औरत अपनी औकात भूल गयी, नमिता ने उसे धक्के मारकर भगा दिया । 
सभी औरतों ने नमिता का पक्ष लेकर तय किया कि ऐसी कामवाली जो इस तरह से चोरी करे, जो अपने अन्नदाता को श्राप दे उसे कोई काम पर नहीं रखेगा ।
महीनों बीत गए कहीं से भी दो पैसे की आमदनी का जुगाड नहीं लगा । पूजा पाठ कर थोड़ा बहुत जो जमा था सब निकल गया दाल भात खाकर प्राण बचाए रखने में फिर पहुंच गए भूखमरी की कगार पर । 
एक जोड़ा झूमका बचा हुआ था बुरे दिन के लिए, अब उसका भी नम्बर आ गया ।
झुमके को बेचकर जो रुपए मिले उससे  अर्चना ने दुकानदारी शुरू की । शैम्पू, साबुन, क्रीम, सिन्दुर, परफ्यूम आदि नित्य प्रयोजनिय सामान किट बैग में भरकर मोहल्ले में बेचने निकल जाती । 
पूरा एक हफ्ता बीता, अपने मोहल्ले में एक दो सामान ही बेच पायी, अधिकतर महिलाएं ना कह देती । 
अपना मोहल्ला छोड़कर वह दूसरे मोहल्ले में जाने लगी । अकेली ।
ऐसे कामों के लिए अकेला घूमने से कम उम्र वाली महिलाओं के सामने सामान्यतः समस्याएं आती हैं । फिर अगर सुन्दर हो तो और आफ़त । अर्चना अभी मात्र सत्ताइस साल की थी । बेहद खूबसूरत। 
चलते फिरते आवारा लड़के फब्ती कसते । घरों में जाकर पहले महिलाओं को पूछती, कहीं कहीं महिला न रहने पर भी महिला के लिए लेना है कह कर सामान देखने के नाम उसका मुंह जोहते, उलूल-जुलूल सकते, गंदी हरकतें करते । एकबार  एक ने उससे कहा " बैठिए यहां बैठक में अभी मैं बीबी को भेजता हूं ।"  वह भीतर चला गया ।
फिर जो कुछ हुआ था उसै अर्चना जितना भूल जाना चाहती उतना ही उसे याद आता .......पति से वो सारी बातें कहना चाहती मगर लाज शरम के मारे वह कह न सकी थी। सामान बेचना बंद कर दिया था । उसने कहा था उसका शरीर साथ नहीं देता । दिन-ब-दिन उसका डिप्रेशन  बढ़ता गया,अब वह किसी काम लायक़ नहीं रही।
महीनों बीत गए दोनों भूखमरी  के कगार पर पहुंच गए । किसी ने भी उन दोनों की सुध न ली ।
और फिर एक दिन दोनों ने ज़िंदगी से मुक्ति पा ली ।
और उसका पता तब चला जब घर के बाहर कुत्ते इकट्ठे होकर विलाप कर रहे थे और गली में दुर्गंध फैला हुआ था । पुलिस ने दरवाजा तोड़ा था ।
पता चला कि दोनों ने सुइसाइड नोट छोड़ा था जिस पर लिखा था --" हम दोनों अपनी-अपनी इच्छा से मर रहे हैं । इसके अलावा कोई उपाय नहीं था।हम जीना चाहते थे किन्तु समाज ने हमें जीने ना दिया । यह कैसा समाज जहां इंसानियत नहीं है । यह कैसा समाज जहां जातियों के आधार पर एक दूसरे को नीचा समझता है और यह कैसा समाज जहां पीढ़ी दर पीढ़ी दुश्मनी चलती रहती है ।"

सुभाषचन्द्र गांगुली
10/11/2021
Redrafted on 1505/2123
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* पत्रिका ' स्वातिपथ' सम्पादक कृष्ण मनु अंक अप्रैल-जून 1999 में 'कालचक्र' नाम से प्रकाशित तथा सीएजी कार्यालय द्वारा प्रकाशित 'लेखापरीक्षा प्रकाश ' अक्टूबर-दिसम्बर 1998मे भी 'कालचक्र' कहानी में आमुल चूल परिवर्तन कर लिखा ।


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