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Friday, October 1, 2021

लघु कहानी- डिस्को पपीता

कार्यालय में लंच का समय । आधे घंटे का लंच । 
कार्यालय के बाहर विशाल बांउड्री के इस छोर से दूसरे छोर तक खाने पीने की अनगिनत दुकानें हैं । हम अपने कार्यालय के भीतरी फाटक से शिक्षा निदेशालय कार्यालय परिसर से होकर लगभग आधा किलोमीटर चलकर अन्य छोर पर पहुंचे । थोड़ी ही दूर पर खड़ी एक ठेले वाले की दमदार मस्तीभरी आवाज़ 'डिस्को पपीता' ' डिस्क़ो पपीता' से आकर्षित होकर पपीता खाने का मन बना लिए और हम तीन लोग उधर चल पड़े ।
हमें देख वह पपीता-नुमा गोल मटोल किंतु ठोस नाटे कद के नौजवान ने उत्साहित होकर अपनी आवाज़ को ओर बुलंद कर ली --"  ' डिस्को पपीता' ' डिस्को पपीता' जो खाये वह पछताये, जो न खाये वह भी पछताएं ।"
मैंने चकित होकर पूछा --" का हो भैया ! जरा इ बतावा कि एका जौन ना खाई ओहूका काहे पछतावे पड़ी ? एका का मतलब बा तनि समझाओ ......"
बात पूरा होने से पहले ही उसने कहा --" साहिब खाएं के आप सोचिहें एका पहिले काहे नही खाएं रहैं : .... एक बार खा लैंहे तो चस्का लग जाई  रोज़ रोज़ ऐहें..... डिस्को है ये डिस्को , एकदम फजलि आम जइसा, बड़का-बड़का और मीठा- मीठा ।........ वाह रे डिस्को पपीता' वाह !"
इस बीच वह चार पांच दोनें तैयार कर लोगों को दे चुका था । चोंच भले ही चल रहा था, हाथ कभी रुका नहीं। 
उसकी स्टाइल से हम तीनों साथी बहुत प्रभावित हुए । जेठ की चिलचिलाती धूप में सड़क किनारे नीम पेड़ के नीचे गर्म हवा के झोंके खाते पेट की खातिर वह खड़ा है किन्तु कितनी फूर्ती है उसके तन मन में । मैंने अपने मित्रों को धीरे से कहा " यार जीना तो कोई इससे सीखें, ऐसे लोगों के लिए पूस , सावन, भादों सब बराबर । एकदम मस्त मौला ।
इस बीच पपीते वाले ने एक दोना बनाकर पूछा -" मसाला तेज या नार्मल ?"
--" नार्मल " मैंने कहा।
मैंने गौर किया कि उसके बायें हाथ में रबड़ का दस्ताना, दायें हाथ में साफ़-सुथरा चाकू, हाथ के नाखून कटे हुए, मसाले का डिब्बा साफ़ सुथरा, और उसके कपड़े भी साफ़- सुथरे है । मुझे लगा कि इस आदमी का जीवन के प्रति दृष्टिकोण भी अवश्य साफ़ और स्वच्छ होगा । मेरा कवि हृदय एकबारगी पुलकित हो उठा ।
उसने दूसरा दोना तैयार कर हमारे ओर बढ़ाया ही था कि पेड़ की डाल पर बैठा पंछी की बीट उस दोने पर और एक समूचे पपीता पर गिरी ।
मुझे अफ़सोस हुआ और मेरे मुख से अनायास निकला " इश् ......!"
उसने हंसकर ऊपर वृक्ष की ओर देखा और कहा --" अबे ! डिस्को करके बीट करता ? इधर भी उधर भी ? पपीते पर न कर, मेरे सिर पर कर ।"
और फिर उस दोने को पैर के समीप डस्टबिन में फेंक दिया । समुचा पपीता नीचे टोकरी में डाल दिया।
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        अचानक एक धमाके की आवाज हुई ।
देखा बीच सड़क में एक ' हीरोपुक ' दोपहिया वाहन एक स्कूटर से टकरा गई थी । दोनों ही चालक वाहन के साथ गिर पड़े थे । स्कूटर पर सवार एक आदमी शिक्षा निदेशालय कार्यालय से निकल कर, मेरी बायीं ओर से सड़क के उस पार जा रहा था कि मेरी दायीं ओर से हीरो पुक पर सवार दो लड़के टकरा गये थे ।
कुछ लोग इधर-उधर से दौड़े-दौड़े घटना-स्थल पर पहुंचे । हम भी कदम बढ़ाकर पहुंच गए। तब तक तीनों उठ खड़े हो गए थे। 
मैंने कहा " थैंक गॉड ! किसी को ख़ास चोट नहीं आई । सबके सब बच गए । कुछ भी हो सकता था ।"
स्कूटर वाले ने स्कूटर उठा कर खड़ी  की। काफ़ी तेल बह गया था । उसका पैंट घुटने के पास ज़मीन से रगड़कर फट गया था । घुटने में चोट लगने से थोड़ा सा छिल गया था और ज़रा सा खून भी दिखा और उसका चश्मा छिटक कर टूट गया था ।
दोनों लड़के उठ खड़े हुए । उन्हें ज़रा सा खरोंच तक नहीं आया था । मगर जब लड़कों ने 'हीरो पुक' उठाया तो हैंडिल जाम पाया । तुरंत उन दोनों का माथा गरम हो गया और स्कूटरवाले से भिड़ गए । 
बहुत देर तक तू- तू मैं- मैं होती रही । एक दूसरे को दोषी ठहराते रहे ।
अंत में लड़के तैश में आकर उसकी कमीज़ का कॉलर पकड़ कर मुआवजा मांगने लगें । 
स्कूटर वाला सहम गया। जेब में हाथ डाल कर गुस्से से पूछा कितना पैसा चाहिए ? कितने में मरम्मत होगी ? 
एक लड़के ने कहा " सौ रुपया निकालिए ", दूसरे ने कहा " अमे सौ में क्या होगा, कम से कम दो सौ लगेगा ।"
स्कूटर वाले ने कहा " सौ लेना हो लो नहीं तो
फूटो ।" 
--" का फुटो...फुटो ? एक तो आंख बंद कर चला रहे थे, गिरा दिया नुकसान किया ऊपर से कहता है फुटो......."

इतने में स्कूटरवाले के कार्यालय 'शिक्षा निदेशालय ' से कुछ लोग हादसे की ख़बर पाकर आ पहुंचें । 
एक ने कहा " मारे रपाटा दिमाग ठिकाने पर आ जाएगा । नान-नान लौंडे चलाने का सहूर नहीं है, मूंछें भी ठीक से नहीं निकली है, गाड़ी पर नम्बर प्लेट नहीं है....... और बेशर्म तुझे जरा सा झिझक नहीं आया तुमसे दुगने उमर के आदमी का कालर पकड़ते ......"
---- " ड्राइविंग लाइसेंस दिखाओ ।"
-----" गाड़ी का नम्बर प्लेट पढ़ा नहीं जा रहा । क्या नम्बर ? "
----" गाड़ी का कागजात दिखाओ ....."
----" भाग जाओ नहीं तो ये सामने पुलिस मुख्यालय है , बुलाऊंगा तो अंदर हो जाओगे ।"     जितनी मुंह उतनी ही बातें । 
दोनों लड़के धीमे पड़ चुके थे, किंतु लगातार बोले  जा रहे थे " गलती इन्हीं लोगों की है, और हमारे ऊपर चढ़ रहे हैं ....... दायें-बायें देखा नहीं सीधे चले आये, आंखें तो हैं बड़ी-बड़ी दिखता नहीं ?
....... अगर हम मर जाते तो ?"
                सड़क पर जाम लग चुका था, लोग बीच- बचाव कर रहे थे, भीड़ देख कर लड़के चीख उठे --" अगर हम मर जाते तो ?"
इधर स्कूटर वाले ने चीखा - " अगर मैं मर जाता....? "
अचानक भीड़ को चीर कर पपीता वाला दो पपीते लेकर पहुंचा, लड़कों के हाथ में देते हुए कहा- " मर जाते तो 'डिस्को पपीता' कहां खा पाते बेटे ? लो 'डिस्को पपीता' घर ले जाओ तबियत से खाओ...... लो लो थामो थामो ये बड़े भाई का गिफ्ट है ।" 
सब लोग इकट्ठे हंसने लगे । भीड़ तितर बितर हो गई । स्कूटर वाला धीरे- धीरे किनारे कर लिया स्कूटर ।
फिर पपीते वाले ने 'हीरो पुक'उठाया, हैंडिल घुमा कर सीधा कर दिया ।
"लो चला कर ले जाओ ।" पपीते वाले ने कहा।
गाड़ी स्टार्ट कर स्कूटर वाला निकल गया ।

सुभाष चन्द्र गांगुली
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' स्वतिपथ ' सम्पादक- कृष्ण मनु, धनबाद में 1998 में प्रकाशित ।

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