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Thursday, January 12, 2023

कहानी- फकीर


अपने कार्यालय के भीतर प्रवेश करते समय मैंने देखा कि पंडित की चाय की दुकान पर बहुत भीड़ है, हो-हल्ला हो रहा था। भीड़ देख पास से गुजरने वाले रुकते जा रहे थे। लंच के समय हम उसी दुकान पर मजमा लगाते। राजनीतिक चर्चायें
करते, हँसी-मजाक करते। हमने उस जगह का नाम 'नुक्कड़' रखा था। मुझे दफ्तर के भीतर लगी बायोमैट्रिक मशीन पर अंगूठे का निशान देकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की जल्दी थी। यह मशीन हाल ही में आयी थी। सुबह-शाम उसे अंगूठा दिखाना होता और टाइम नोटिंग के साथ हमारी उपस्थिति दर्ज हो जाती।

हाजिरी वाच करने के लिए मशीन हमारी बॉस बन गयी थी और हम सब अंगूठाछाप । मशीन से छुटकारा पाते ही मैं दो-चार साथियों के साथ 'नुक्कड़' पहुँचा। देखा कि बेंच पर फकीर का मृत शरीर पड़ा हुआ हैं।

चाय की दुकान पर एक फकीर क़रीब साल भर से आने लगा था। शुरू-शुरू में वह किसी से बात न करता, चुपचाप एक कोने बैठा रहता। कभी-कभार दिन-दिन भर बैठा रहता। कोई चाय पिलाता तो पी लेता, कोई कुछ खाने देता तो खा लेता फिर चला जाता। वह कहाँ से आता, कहाँ जाता इसकी जानकारी किसी को नहीं थी। हम सब उसे 'फकीर' कहते। आज जब उसकी लाश लावारिस पड़ी हुई थी तो उसका ठिकाना जानना सबके लिए आवश्यक हो गया।

एक बार हमारी किसी राजनीतिक चर्चा में वह फकीर टपक पड़ा था और शिक्षा सुधार पर उसने अपनी बात बहुत अच्छी तरह से रखी। तब हमें पता चला कि वह एक पढ़ा-लिखा, ज्ञानी आदमी है। नाटा कद, थुलथुल शरीर, आँखें सुर्ख लाल, नाखून बड़े-बड़े और गंदै, पान की पीक लम्बी-बेतरतीब दाड़ियों में चिपकी हुई, तेल-चिट्टा वस्त्र पहना हुआ, कंधे पर एक मैला झोला लटकाया वह आधा बूढ़ा अक्लमंद और पढ़ा-लिखा भी हो सकता है यह सभी के लिए हैरानी की बात थी।

उस दिन के बाद से जब कभी वह आता, हमारे ग्रुप के पास ही बैठता, हमारी बातों को दिलचस्पी से सुनता। अमूनन वह चुप रहता, पर जब कभी बोल पड़ता तो हम सब उसे ध्यान से सुनते। उसके बारे में किसी को सटीक जानकारी नहीं थी। हमारे नुक्कड़ के साथी कॉमरेड सुरेश को पता चला था कि वह फ़कीर स्टुडेंट लाइफ से कम्यूनिस्ट था। बहुत अच्छा स्टुडेंट था। किसी कॉलेज में पॉलिटिकल साइंस का लेक्चरर बन गया था। उस कॉलेज के स्टुडेंटस को प्रेरित कर स्टुडेंटस यूनियन बनवाया था। यूनियन बन जाने के बाद विद्यार्थियों को उकसाने के आरोप में पहले निलम्बित हुआ था फिर दो साल बाद उसे बर्खास्त कर दिया गया था। उसने कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाकर नौकरी हासिल कर ली थी। किन्तु थोड़े समय बाद दूसरे आरोपों के आधार पर उसे बर्खास्त कर दिया गया था। उसने दुबारा कोर्ट की शरण ली थी। लम्बे समय तक मुकदमा चला था। वह मुकदमा जीत गया था। कोर्ट के आदेश के मुताबिक बीते वर्षों के देय राशि उसे प्राप्त हुई थी। सुरेश ने यह भी जानकारी दी कि उस फकीर ने समस्त प्राप्ति रकम अनाथालयों, विकलांग केन्द्रों, कुष्ट रोगी संस्थानों, में दान कर दिया था। आगे की जानकारी सुरेश को नहीं थी।

सुरेश की बातों को फ़कीर ने दो-दो बार यह कह कर काट दिया था कि उसे कोई भ्रम हुआ है। उसने यही कहा था कि वह फ़कीर है थोड़ा बहुत पढ़ लेता है, अख़बार पढ़ना उसकी पुरानी आदत है उसीसे उसे देश के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी है। सुरेश भी बहुत श्योर नहीं था कि यह वही आदमी है। सुरेश की बात आयी और गयी, हमारा कौतुहल बना रहा।

फकीर की लाश लावारिस पड़े रहने की सूचना 100 नम्बर पर थाने में दे दी गयी थी।

मैंने पंडित से पूछा-'फ़कीर कब आया था? कब मरा? कैसे मरा?' पंडित ने कहा- 'कल शाम को। मैंने चाय पिलायी, उसने बिस्किट और समोसा माँगकर खाया। करीब आठ बजे जब हम दुकान बंद करने लगे तो हमसे बोला दो बेंच छोड़ दो आज हम यहीं सोयेंगे, हमने बेंच छोड़ दी....आज सुबह जब हम आये तो वह सोया हुआ मिला, हमने उसे आवाज़ दी, कई-कई बार बुलाया, हिलाया-डुलाया, फिर हमें शक हुआ... देखा उसकी साँसें नहीं चल रही है।'

'नुक्कड़' पर जो कोई आ रहा था फकीर को एक नज़र देख पंडित से वही सवाल पूछता और पंडित भी एक ही उत्तर देता जा रहा था। पंडित बहुत ज्यादा परेशान था। उसने कहा-'लाश देखकर लगता इसने आधी रात को दम तोड़ा होगा। कल अमावश की काली रात थी, पंचाग के हिसाब से आज का दिन भी ठीक नहीं है, इस आदमी ने चतुष्पाद दोष पाया है। पता नहीं अब पुलिस वाले मुझे कितना परेशान करेंगे... मियाँ को यहीं आकर मरना था, मेरा बेंच खराब हो गया,... धंधा चौपट हो गया, पता नहीं आगे और क्या नुकसान होगा।

एक ने चुहल लिया- 'पंडित तुम्हारी किस्मत अच्छी है, फकीर को तुम इतना मानते थे तुम्हारे पास आकर मरा। हो सकता है पिछले जनम में तुम्हारे साथ इसका कोई रिश्ता रहा हो।'

पंडित तिलमिला उठा-'यहाँ साला दिमाग खराब हो रहा है और इनको मजाक सूझ रही है। आपके दुआरे कभी कोई मरेगा तब समझ में आयेगा... आप ही लोगों ने इसे सिर चढ़ाया था, इससे गपियाते बतियाते रहे, अब आप ही लोग सम्हालिए । पंडित को गरम होते देख मैंने कहा-'पंडित जाने दो उसकी बात। यह बताओ कि कल जब फकीर आया था तुमसे कुछ बातचीत हुई थी? काफी दिनों से नहीं आया था कुछ बोला था कहाँ गया था?' पंडित ने कहा-' लँगड़ी को पूछ रहा था। कह रहा था लँगड़ी भाग गयी है। बहुत दुखी था।'

दुबली-पतली सावली, एक पैर जरा सा छोटा, लाठी के बल चलती, चौतरफा टुकुर-टुकुर ताकती एक भिखारिन वर्षो से 'नुक्कड़' पर आती रही। कभी लगातार कई दिनों तक तो कभी पंद्रह-बीस रोज़ के अंतर पर उसके दो-तीन दाँत टूटे हुए थे जब वह मुँह खोलती उसकी आधी जीभ बाहर निकल आती। उसकी बोली वही समझ पाता जो उसे सुनने का आदि हो चुका था। उसे सब 'लँगड़ी अम्मा' कह कर पुकारते। उसके साथ लोगों का अजीब सा लगाव हो गया था। उसके न रहने पर लोग उसे याद करते और रहने पर उसके पीछे पड़ जाते, छेड़खानी करते।

'नुक्कड़' पर एक-एक झुंड के पास वह पहुँचती और 'ए बाबू' 'ए बाबू' की रट लगाती। कोई न कोई उससे कहता 'राम राम बोलो तो पैसा मिलेगा' और वह मुँह विचका कर कहती 'अल्लाह' 'अल्लाह'। कुछ देर तक यह सिलसिला चलता फिर शुरू हो जाती असली छेड़खानी। लोग कहते 'राम राम बोलो दस रूपए देंगे'

'राम बोलो तभी पैसा मिलेगा' कोई नोट लहराकर कहता 'राम बोलो तभी यह नोट मिलेगा' और उत्तर में वह कहती 'अल्लाह, अल्लाह।' चिढ़ाते चिढ़ाते कभी कोई कहता 'भाग लँगड़ी राम नहीं बोलेगी तो भाग' और वह लाठी उठाकर हवा में लहराकर
कहती 'नहीं बोलना। धत् धत्।' जब वह बुरी तरह से चीढ़ जाती तब जाकर कोई उसे एकाध रूपया निकाल कर दे देता।

लोगों के लिए यह तमाशा एक खेल था और उसे इस खेल की आदत पड़ चुकी थी। जब कभी वह नुक्कड़ खाली देखती निराश होती। पंडित से पूछती 'कहाँ गए बाबू लोग? आज कोई मेरे पीछे पड़ने वाला नहीं है?"

-एक बार किसी ने कहा था 'यह लंगड़ी हिंदू है।'

-'अरे नहीं। यह कट्टर मुसलमान है।' उसकी बात किसी ने नहीं मानी। उसने फिर कहा- ऐसा ही है। इसे हम पहचानते हैं। रायबरेली स्टेशन में हमने इसे दो-तीन बार देखा था। पहले तंदरूस्त थी, दाँत टूटे हुए नहीं थे।'

-'हिंदू होती तो भला राम का नाम क्यों न लेती?'

- इसी खेल से ही उसका पेट भर जाता है। भले ही लोग उसके पीछे पड़े पैसा तो निकाल देते हैं वर्ना आगे बढ़ो कह कर भगा देते। भीख माँगने के लिए भी नाटक करना पड़ता है।'

कभी-कभार हँसी-हँसी में कोई न कोई उसकी लाठी पकड़ लेता या छीन लेता, कभी-कभार उसे चोट लग जाती, पट्टी बाँधनी पड़ती।

एक बार नुक्कड़ से थोड़ी दूरी पर छेड़खानी करते हुए किसी लड़के ने जब लाठी छीन ली थी तो वह औंधे मुँह गिर पड़ी थी, वह चीखने-चिल्लाने लगी थी। उसे बिलख-बिलख कर रोते देख लड़के खिसक गए थे। 

नुक्कड़ पर बैठा फकीर चीख उठा था 'अरे जालिमों ज़रा सा रहम किया करो? किसी गरीब को इस कदर न सताया करो कि वह भीख माँगने लायक भी न रह जाए।' फकीर ने सहारा देकर उसे उठाने की कोशिश की मगर वह दर्द से कराहती रही। फिर एक रिक्शेवाले की मदद से उसने उसे रिक्शे पर बिठाया, खुद भी बैठा और उपचार के लिए कहीं ले गया।

उसके बाद काफी दिनों तक न फकीर दिखा और न ही वह 'लँगड़ी अम्मा' दिखी। एक दिन जब फ़कीर आया तो पता चला था कि 'लँगड़ी अम्मा' के बाँये हाथ में फ्रैक्चर हो गया था, कमर में चोट पहुँची थी। अब वह उसके चोटिल हो जाने की वजह से फ़कीर बेहद अपसेट हो गया था ।

'लँगड़ी अम्मा' के न आने से पंडित खुश था। उसने कहा 'चलो पिंड छूटा। रोज-रोज के तमाशे से छुट्टी मिली। साली राम-राम नहीं बोलेगी, हिंदुओं के आगे हाथ फैलायेगी। जाए ससुरी नखासकोना, अटाला, जहाँ मियाँ लोग रहते। पंडित की दुकान पर अल्लाह, अल्लाह... ।'

मैंने कहा था- 'पंडित फकीर भी तो मुसलमान है, उसे क्यों फोकट में चाय पीलाते हो? रोटी भी क्यों देते हो?" पंडित ने कहा था- 'वह फकीर सचमुच फकीर है, फकीरी के कारण उसके चेहरे पर रौनक है। साधु-संतों की जात नहीं होती।

पुलिस को सूचित किए हुए आठ घंटे बीत चुके थे। अचानक एक टैम्पो नुक्कड़ पर आकर रूकी। टैम्पो से चार-पाँच युवक उतरे और वे सब लाश के सामने खड़े हो गए। फिर हमारी तरफ देख उन सबों ने एक-एक करके पूछा-फकीर कब मरा? कैसे मरा?'... 'यहाँ कब आया था? यहीं रहता था क्या? 'यह बीमारी से मरा या कि आत्महत्या की? 'किसी ने मार तो नहीं डाला इसे?'... 'थाने में रिपोर्ट लिखायी गयी की नहीं?"

हम सबको बड़ा क्रोध आया। टेंशन भी होने लगा, पता नहीं कौन लोग हैं। कॉमरेड सुरेश ने गुस्सा झाड़ा-'अमा यार पुलिसिया पूछताछ पुलिस के लिए छोड़ो। हम लोगों का चाय का अड्डा है। एक भिखारी से हमें क्या मतलब? तुम लोग कौन हो? इससे तुम लोगों का क्या सम्बन्ध था? इससे कोई रिश्तेदारी?'

एक ने उत्तर दिया- 'नहीं। हमसे कोई रिश्तेदारी नहीं। मेरा नाम है रामदास, यह मेरा छोटा भाई और ये हैं हमारे दोस्त... फाफामऊ में मेरा लकड़ी का टाल है। 1 यह फकीर है। ये दिनभर इधर-उधर घूमता फिर रात को टाल पर लौट आता। वहीं ठहरता, कभी नहीं भी लौटता, कहाँ रात बीताता, हमें मालूम नहीं। पूछने पर जवाब नहीं देता था।'

'मतलब कि तुम्हारा किरायेदार था ? -'जी नहीं फ़कीर था। नेक इन्सान था इसलिए हमने रहने दिया था। दो साल पहले टाल के बाहर चाय की दुकान पर आया था, रात का वक्त, तेज बारीश होने लगी थी, यह चाय की दुकान पर फँसा रहा, मैंने टाल पर ठहरने दिया था। तब से वह टाल पर ठहरने लगा था।'

शाम ढलते-ढलते पुलिस आ पहुँची। पुलिस की जीप देखते ही कई लोग खिसक गए। गाड़ी से उतरकर दरोगा ने पंडित से पूछताछ की। कॉमरेड सुरेश ने कहा-'यह रामदास और इसके साथी लोग हैं, फकीर रात को इसके यहाँ रूकता था।" दरोगा ने रामदास से कहा- 'क्यों?' रामदास ने वही सारी बातें दुहरायी जो वह हमें बता चुका था और कहा-'पिछले चार महीने में वह हमारे यहाँ तीन-चार बार आया। इसका एक झोला हमारे यहाँ बहुत दिनों से टंगा हुआ था, आज जब इसके मरने की ख़बर मिली तो मैंने झोला खोलकर देखा। दो-चार कपड़ा-लत्ता, फालतू चीजें, कुछ कागज मिले... हाथ का लिखा यह कागज भी झोले में था। इसके हिसाब से इसने अपना रूपया-पैसा अपने गाँव की जमीन और मकान अपनी बीबी के नाम से कर 'दिया है।'

दरोगा ने कहा- 'क्या ? बीबी? बीबी भी रहती है? हम सब एक दूसरे का मुँह ताकने लगे।

रामदास नर्वस होकर बोला-'अकेला रहता था। अकेला ही आया करता था।' 

दरोगा ने पूछा-'रूपया पैसा कहाँ है? झोले में कितने रूपए थे?' रामदास सकते में आ गया। वह बोला 'हुजूर, एक पैसा नहीं था उसमें ... भगवान कसम एक सिक्का तक नहीं था।... अता-पता जानने के लिए मैंने उसका झोला टटोला था।' 'यहाँ क्या करने आये?'

- "यह कहने के लिए कि यह मुसलमान है। यह अपना जात-धर्म किसी से बोलता नहीं था। न पूजा-पाठ करता, न नमाज़ पढ़ता। हमने सोचा हिंदू समझकर कोई जला देगा तो अधर्म हो जाएगा।'

शक की निगाहों से दरोगा उसे देखता रहा। काफी देर तक ज़िरह करने के बाद दरोगा ने सिपाहियों को निर्देश दिया 'इसे जाने न देना पकड़ कर रखो।' फिर दरोगा ने फकीर की तलाशी ली। उसकी सदरी और लम्बी कमीज़ की जेबों से बैंक खाता, पेंशन भुगतान पुस्तिका मिली। 

पेंशन की किताब खोलकर बोला-'डॉक्टर वाजिद अली, स्थायी पता-मुजफ्फरपुर... तीन महीने पहले इसने शादी की थी।'
हम सब एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। दरोगा बोला-'आप में से कोई इसकी बीबी को पहचानता है?"

कॉमरेड सुरेश ने कहा-'हम लोग यही जानते कि ये अकेला था, न कभी किसी को साथ लाया, न ही कभी किसी का जिक्र किया था।'
दरोगा उठ खड़ा हुआ। हमारी ओर घूमकर बोला-'इसकी बीबी का नाम है विमला देवी, उम्र पचास। फिर पेंशन किताब का पन्ना हमें दिखाकर पूछा- देखिए आप लोग इस तस्वीर को, इस औरत को कभी देखा हैं इसके साथ? 

लगभग सामूहिक स्वर में हम चीख उठे-'अरे! यह तो अपनी लँगड़ी अम्मा है।

© सुभाष चंद्र गाँगुली 
( "मोक्षदायिनी" कहानी संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2021)

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