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Friday, May 5, 2023

रिटायर्ड कॉर्नर


         रिटायर्ड कॉर्नर 
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 इस पार्क में बैठने की काफ़ी अच्छी व्यवस्था है । पार्क के चारों कोने सिमेन्ट के दो बड़े-बड़े बेंच बने हुए हैं । एक-एक पर कम से कम छह लोग बैठ सकते हैं । एक कोने के दोनों बेंच वृद्ध लोगों से भरे रहते हैं। मार्निंग वाक, ईवनिंग वाक के बाद सब यहीं आकर बैठते हैं ।              
  जब से यह पार्क बना है शायद तभी से रिटायर्ड लोग इसी कोने में बैठते आ रहे हैं । इसी वज़ह से इसका नाम पड़ गया है 'रिटायर्ड कॉर्नर'। 
'रिटायर्ड कॉर्नर ' कभी खाली नहीं रहता । 
दो बड़े-बड़े बेंच बारह लोगों के बैठने के लिए हैं । तीन चार नये रिटायर्ड लोग हमेशा खड़े मिलते हैं और मिलते रहेंगे । ' वेलफेयर एसोसिएशन ' बनने के बाद से  ' रिटायर्ड कॉर्नर ' यथेष्ठ व्यवस्थित हो गया है।
  हर साल एक-दो तो कभी तीन बूढ़े भगवान को प्यारे हो जाते हैं और क़रीब इतने ही लोग अवकाश प्राप्त करने के बाद बूढ़े होकर शामिल हो जाते हैं 'रिटायर्ड कॉर्नर' में।
           जिस दिन किसी की मौत की ख़बर आती है, अचानक सबके चेहरे पर उदासी छा जाती है । माहौल गमगीन बना रहता है एक दो दिन, जबकि आये दिन कोई न कोई कहता ' एक टांग शमशान की और बढ़ चुका है पता नहीं कब बुलावा आ जाए ।'
शोक सभा होती है, दिवंगत आत्मा को श्रद्धांजलि दी जाती है, प्रस्ताव पारित किया जाता है फिर भारी मन से सब प्रस्थान करते हैं अपने-अपने घरों के लिए।
   ' रिटायर्ड  कॉर्नर' से थोड़ी दूरी पर चांदनी का एक पेड़ 'गोल-बार' से घिरा हुआ है । जब कभी मीटिंग होती है उस 'गोल-बार ' पर चार-पांच लोग बैठ जाते हैं । 
             यहां बैठने वालो में एक अलौकिक आत्मिक सम्बन्ध दिखता है । कुछ लोग जिस कुर्सी से रिटायर हुए थे उसे अपने भीतर ऐसे चिपकाए रहते हैं मानो मरते दम उससे उतर नहीं पाते। फिर भी हर कोई एक दूसरे का राह देखता है । दो-तीन दिन गैप होने पर किसी न किसी का फोन पहुंच जाता है, तबियत ख़राब होने की स्थिति में कोई न कोई हाल-चाल लेता । 
       ‌‌  ' रिटायर्ड कॉर्नर ' पर बैठने वालों ने एक 'एसोसिएशन' बना रखा है। सदस्यों की संख्या बीस तक सीमित रखी गई है । कभी यह संख्या दो-तीन कम ज़्यादा होता रहता है । एक न्यूनतम सदस्यता शुल्क देना पड़ता है । कोई भी रिटायर्ड व्यक्ति सदस्यता ग्रहण कर सकता है।
            प्रायः प्रतिमाह किसी न किसी का बर्थ डे मनाया जाता है। एसोसिएशन का अपना 'कोड आफ कंडक्ट' बना हुआ है जिसका पालन करना पड़ता है । एसोसिएशन में एक मुखिया होता है जिसका चयन सभी सदस्य मिलकर हर साल जनवरी माह में करते हैं ।
एसोसिएशन का अध्यक्ष सामान्यतः भूतपूर्व न्यायाधीश, भूतपूर्व प्रोफेसर, कर्नल जैसे कोई  होते हैं।
             पेंशन तथा अन्य वित्तीय, मेडिकल सम्बन्धी मामले, सम्पत्ति विषयक मामले या अन्य
घरेलू मामले में कोई सदस्य चर्चा करना चाहते या विधिक राय लेना चाहतें हो तो अध्यक्ष द्वारा दी गई तिथि में उनकी उपस्थिति में राय- मशविरा  की जाती है, तदुपरांत राय दी जाती है ।
              यहां की एक रोचक बात यह है कि स्कूल कॉलेज लाइफ की तरह यहां भी किसी किसी का एक नाम पड़ जाता है और उसी से वह जाने जाते हैं।
रिटायर होने के बाद जब मैं यहां शामिल हुआ था मेरा पहला परिचय जिनसे हुआ था उन्हें सब 'डॉक्टर साहब' कहते थे। मैंने भी उन्हें "डॉक्टर साहब नमस्ते" कहा था, उन्होंने सिर हिलाकर उत्तर दिया था। 
जब पता चला उनकी उम्र तीरानवे वर्ष है तो मैं दंग रह गया था। अपने जीवन में इस उम्र में इतना फिट वृद्ध आदमी मैंने कभी नहीं देखा था। आंखें सही, दांत सही, श्रुति सही, स्मृति शक्ति ठीक, शुगर नहीं, हाथ पैर सबकुछ सही।   
क़रीब सालभर बाद चलते वक्त वे ज़रा सा लड़खड़ा गये थे। एक ने उन्हें सम्हाल लिया था। मैंने जब उन्हें छड़ी लेने की सलाह दी तो वे मुस्कराकर " थैंक यू " बोले थे।
अगले दिन पता चला कि वे घर पर भी उसी तरह लड़खड़ा कर गिर पड़े थे। डॉक्टर आते-आते वे दम तोड चुके थे।
जब तेरही का कार्ड रिटायर्ड कॉर्नर पर पहुंचा तो मैंने गौर किया कि कहीं पर ' डॉक्टर ' नहीं लिखा था। उनका नाम था बाबूलाल नागर।
पूछने पर पता चला कि वे जल संस्थान में जल की शुद्धता की जांच प्रयोगशाला में किया करते थे इस कारण से उनका नाम पड़ गया था डॉक्टर साहब।
                    रिटायर्ड कॉर्नर में नब्बे पार और एक व्यक्ति को मैंने दो साल देखा था। शारिरिक रुप से मोटामोटी ठीक थे। ऊंचा सुनते थे। कान में मशीन लगाते थे। उन्हें सब ' सतगुरु ' कहा करते । उन्हें सनातन धर्म का बहुत अच्छा ज्ञान था। वेद, पुराण,उपनिषद, गीता,भागवत के बारे में जब भी पार्क में आते चर्चा करते, समझाते। 
दो साल बाद जब वे बिरान्वे वर्ष के थे बेटे का ट्रांसफर हो गया था, वे भी चले गए थे। कब चले गए थे पता नहीं चला था।
उनकी मृत्यु के बाद उनके एक रिश्तेदार तेरही का कार्ड देने आए थे। उनसे पता चला था कि सतगुरु का नाम था इंद्रजीत श्रीवास्तव । तीस के दशक के मैट्रिक पास, सहायक पोस्टमास्टर के पद से चालीस साल पहले रिटायर हुए थे।  वे चालीस साल से ज़्यादा किसी महापुरुष के सान्निध्य में थे।  आध्यात्म पर उनकी चार बहुत महत्वपूर्ण किताबें हैं। इन सब बातों की जानकारी हम सब रिटायर्ड कॉर्नर में बैठने वालों के लिए एकदम नई थी ।
सौ साल पूरे होने में एक महीना रह गया था तभी सतगुरु ने प्राण त्याग किया था। उस महापुरुष को शत् शत् नमन।
                    कहानी लिखते-लिखते और एक रोचक प्रसंग याद आ गया। वे कॉर्नर के नियमित सदस्य थे। उन्हें सब ' इन्जीयर साहब ' बोला करते । इनका नाम मालूम नहीं। जब परिचय हुआ था तब बोले थे' मुझे इन्जीयर कहते हैं। मैं पीडब्ल्यूडी में अधिशासी अभियंता था।'
 बात चाहे किसी विषय पर हो, चर्चा के दौरान उनकी राय पूछे जाने पर वे गम्भीर मुद्रा में कहा करते 'इसमे टेक्निकल पेंच है,विशद चर्चा की जरूरत है, बताऊंगा बाद में।' 
एकबार इन्जीयर साहब ने कहा था ' कल एक कागज पर लिखकर अपना फोन नंबर दीजिएगा, मेरे पास आपका नम्बर नहीं है।'
-' अरे अभी लिजिए, मैं मिस कॉल देता हूं, आप सेव कर लीजिएगा।'
-' नहीं नहीं ये सब हमसे होता नहीं। मेरे पास नोकिया का छोटा सा फोन है ।'
-' छोटा बड़ा क्या, इसमें भी सेव होता । आपके पास स्मार्टफोन नहीं है?'
-' नहीं। था,  बहू को दे दिया। ये सब नये जमाने का है । '
-' इसका मतलब यह है कि ऑनलाइन पेमेंट आप नहीं करते,सब कैश। सरकार कहती है अधिक से अधिक ऑनलाइन पेमेंट करें और मिनिमम कैश।'
-' कहने दीजिए। ज़रा सा इधर से उधर हुआ तो डूब जाएगा रुपया ।'
-' अरे आप तो इन्जीयर थे।'
-' मैं बिल्डिंग इन्जीयर था। पन्द्रह साल हो गए रिटायर हुए।'
चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी।
  
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© सुभाषचंद्र गांगुली 

31/03/2023
( 'कहानी कहानियां पार्क की'' के अंतर्गत 18/03/2023 से शुरू 20/04/2023को खत्म हुआ)
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दिनांक  24/ 4/2024 अमर  उजाला 

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