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Friday, May 5, 2023

‌‌ला‌‌पता हो गए सिंहसाहब


   ‌‌पा‌र्क में एक दिन पता चला कि सिंहसाहब लापता हो गए हैं । उनके घर से उनकी बहू आई थी ख़ोज-ख़बर लेने। उन्हीं से पता चला कि सिंह साहब सात दिन से घर नहीं लौटे।
--' क्या ? सात दिनों से लापता ? घर से मात्र सात गज दूर और यहां तक आने में सात दिन लग गए ?' मेरे मुंह से बरबस निकल गया।
--' घर की मुखिया का यह सम्मान ? किसी का किसी से कोई मतलब है ही नहीं?'
बहू ने उत्तर में कहा -' घर में किसी से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं समझते,जब मर्ज़ी घर से निकल जाते हैं। एक बार बड़े बेटे से बहस होने के बाद गुस्सा दिखाकर घर से निकल गये थे, पांच दिन बाद लौट आए थे। पता चला था कि वे बनारस गये थे अपने मित्र के घर। सिंहसाहब का एक भाई कर्नल और एक भाई वाइस चांसलर हैं। उन दोनों को ख़बर कर दी गई है। पिछले बार भी भाइयों के कारण ही वे घर वापस लौट आएं थे। '
--' यह कब की बात है ?'
--' दो साल पहले की।'
--' अर्थात् तब उनकी पत्नी जीवित नहीं थीं। '
         ' रिटायर्ड कार्नर ' में मौजूद कुछ लोगों ने बहू की बात सुनी । सुनने के बाद एसोसिएशन के सचिव ने कहा- ' आपके ससुरजी हमारे एसोसिएशन के सदस्य नहीं हैं और न ही यहां बैठने वाले किसी से सम्बन्ध रखते थे । इस वज़ह से हमें उनके बारे में जानकारी नहीं है। वृद्ध आदमी पत्नी के देहांत के बाद ऐसे ही गुमसुम रहते हैं,अब आपसे जो कुछ सुना हमें भी डर सताने लगा है। आखिर हम सब बूढ़े हैं। हम चिन्ता में रहेंगे । ख़बर मिलने पर कृपया हमें सूचित करिएगा । '
बिना कुछ बोले सिर का पल्लू खींच कर बहू निकल गई ।
सिंहसाहब का पूरा नाम क्या है किसी को मालूम नहीं। अपना परिचय देते हुए वे कहते हैं -' मुझे सिंह कहते हैं ।' 
-' सिंह? सिंह तो सरनेम होगा। पूरा नाम क्या है? '‌
--' नाम का क्या काम ? यहां तो सभी लोग सरनेम से सम्बोधन देते हैं । यहां जाति को ही प्रमुखता दी जाती है। सिंह साहब, ठाकुर साहब, शर्माजी, त्रिपाठी जी, पंडित जी, श्रीवास्तव साहब, राय साहब आदि आदि।'
--' फिर भी नाम तो होगा ही । '
--' क्यों नहीं होगा ? नाम तो आपका भी है किन्तु शायद ही किसी को आपका नाम मालूम हो। लोग तो आपको भी सरनेम से सम्बोधन देते हैं। ठाकुर हूं, आप मुझे ठाकुरसाहब भी कह सकते हैं ।'
सिंहसाहब ने कभी किसी से नहीं कहा कि वे क्या करते थे, किस विभाग में थे, किस पद से रिटायर हुए थे। अपने परिवार के बारे मे भी किसी से कुछ नहीं कहते थे। लोग तरह-तरह के कयास लगाते। 
किसी ने कहा था कि सिंहसाहब सतर्कता विभाग में हैं। ये लोग अपना वास्तविक परिचय नहीं देते।
सिंहसाहब पार्क में नियमित रूप से नहीं आते रहें, कभी-कभी आते रहें। दो चार राउंड मारने के बाद किसी बेंच पर बैठ जाते रहें। अकेला। अकेले ही रहना पसंद था उन्हें।
क़रीब तीन साल पहले पत्नी के देहांत के बाद और भी ख़ामोश हो गये थे। 
पार्क में ' रिटायर्ड कार्नर ' के लोग उन्हें नापसंद करते थे। वे कहते कि सिंहसाहब के पास एक ही कहानी थी। वे अपने जीवन में कहां-कहां घूमें, और उनकी पत्नी के विछोह का दर्द। अत्यंत भावुक होकर एकबार उन्होंने कहा था-' जब तक वह थी घर में मेरा सम्मान था, मेरे पास सबकुछ था, वह मेरे महत्व को बनाए रखती, बेटे बहू सब महत्व दिया करते थे, उसके जाते ही मैं अर्श से फर्श पर गिर पड़ा, मेरा अस्तित्व संकट में पड़ गया ।'
पार्क में वाकिंग करते-करते सिंह साहब से मेरा दुआ-सलाम होने लगा था। एक बार उन्होंने ख़ुद ही मुझे पास बुलाकर अपने पास बिठाकर परिचय लिया। फिर जब कभी पार्क में आते मुझे बुलाकर बैठाते, बातें करते।
मैं बंगाली हूं जानकर मुझसे कोलकाता की बातें अनेक बार किए थे। टूटी-फूटी बांग्ला भी बोल लेते। 
उन्हें कोलकाता बहुत ज़्यादा पसंद था। वहां की भाषा, साहित्य, संस्कृति, खुलापन, जीवन शैली सबकुछ पसंद था।
वे असम, मेघालय मिजोरम, अरुणाचल, नागालैंड के बारे में ख़ूब बोलते थे किन्तु किस सम्बन्ध में उन राज्यों में जाया करते थे या कहां कितने दिन रहें कभी नहीं कहा, पूछने पर सवाल टाल जाते।
बात चाहे किसी भी विषय पर होता, घूम फिर कर पत्नी की बात पर आ जाते वे। भावुक हो जाते, गला भर आता, आंखें नम हो जातीं और वे ख़ामोश हो जातें। मैं भी ख़ामोशी से उठ जाता।
सिंहसाहब ने कई बार अपने बाग, खेत और बंगले की बात कर चुके थे। उनके बार-बार आग्रह करने पर एक दिन मैं उनके साथ जाने के लिए राजी हो गया।
पार्क से निकल कर दस कदम की दूरी पर रोड पर आ गया । बायें जाने पर मेन रोड, दायें जाने पर 'न्यू टाउनशिप' के और भीतर। हम दायीं ओर घूम गये।
सिंहसाहब ने हाथ उठाकर आगे दिखाते हुए कहा - 'वो जहां सड़क ख़त्म होती है वहां एक गहरा चौड़ा नाला है।'
-- ' बाप रे वहां तक जाना है ? वो तो दूर है ! नाला पार कर फिर कितना दूर ?'
--' नहीं-नहीं उससे आगे ही आ जाएगा मेरा घर।
नाले पर पुल नहीं है। नाले के पार किसी को अगर जाना होगा तो तीन किलोमीटर घूमना पड़ेगा। नाला पार कर बायीं ओर बहुत बड़ा एरिया है जो कैंटोनमेंट कहलाता है। दायें तरफ़ उत्तर की ओर जाने पर अनेक गांव हैं, फिर गंगा मैया मिलेगी।
सौ गज चलकर हम दायें घूम गये। बायें हाथ बंगला दिखाकर बोले ' यही मेरा घर है '।
एक बड़ा सा ऊंचा फाटक । दो-तीन बार कॉल बेल बजाया फिर ख़ुद ही भीतर हाथ डालकर फाटक खोल दिया। भीतर प्रवेश करते ही मै खुश हो गया। बायीं ओर ख़ूबसूरत बगीचा, बीच में ख़ूबसूरत मखमली घास का लान। बाउंड्री के पास आम, आंवला और एकदम किनारे बेल का पेड़। 
मैं जब तक देखता रहा तब तक विराट् चबूतरे पर खड़े-खड़े वे कॉल बेल बजाते रहे।
अत्यंत निराश होकर चबूतरे पर रखी पांच सात बेंत की कुर्सियों में से एक मेरे लिए ले आएं। लॉन में रख कर बोले ' बैठिए इस पर' । तब तक मैं कदम बढ़ाकर चबूतरे से दूसरी कुर्सी उठा लाया। उन्होंने कहा ' ये कुर्सियां 'शान्ति निकेतन' की हैं ।'
थोड़ी देर बाद वे उठ खड़े हुए और बोले 'मै अभी आता हूं। चाय के लिए बोल दूं।'
मैंने कहा ' रहने दीजिए।' मगर वे माने नहीं। उठकर चबूतरे पर दरवाज़े के पास कॉल बेल का स्वीच पुश किया। चार-पांच बार पुश किया। फिर दो मिनट बाद लौटकर वे कुर्सी पर बैठ गये। अनमने भाव से बैठे रहें।
मैंने कहा-' सिंह साहब मुझे आज्ञा दीजिए।'
-'अरे नहीं नहीं। बिना चाय पानी के कैसे जाएंगे ? आप इस समय हमारे गेस्ट हैं। दालान पार कर किचन और बाथरूम है, सुनाई नहीं दे रही होगी। देखता हूं, पीछे भी दरवाज़ा है। मेरा अपना कमरा बैक साइड में हैं।'
-'आपका बगीचा बहुत सुन्दर है।'
-' अभी आपने देखा ही कहां ? आइए।'
 मैं उठकर उनके पीछे-पीछे चलने लगा। मकान के बग़ल से। पार्किंग एरिया बहुत बड़ा है। एक दर्जन मोटरकारें खड़ी हो सकती हैं। पीछे जाकर मैं दंग रह गया। मकान के बाद बागान ।
सिंहसाहब बोले -' आप बाग़ान देखिए, मैं दो मिनट मे आता हूं, चाय नाश्ता के लिए कह दूं।'
       बहुत बड़ा बाग़ । अनगिनत पेड़ पौधे। अमरूद, अनार, सन्तरा, पपीता, नींबू, नारंगी, शरीफा, बेर ,केला, क्या नहीं है। पूरे मैदान का  चक्कर लगा कर मैं थक चुका था।
क़रीब पंद्रह मिनट बाद सिंह साहब वापस आये।
देखा उनका चेहरा तमतमाया हुआ है। मैंने कहा यह बाग़ तो बहुत बड़ा है।'
वे बोले- ' जहां से नाला शुरू होता है लगभग वहीं तक यानी कि यहां से तक़रीबन तीन सौ गज। यह मकान छह बिस्वा जमीन पर है। दो बिस्वा कवर्ड एरिया। मेरे मकान के बायें तरफ़ सीधा सड़क तक पूरी जमीन मेरी है। डेढ़ एकड़ से अधिक। एक किसान के जिम्मे है सालों से। वही सबकुछ करता है। इन दिनों खरीफ की बुआई चल रही है। जो कुछ उगता, मिलता, आधा मेरा होता है। किसान ही हिसाब रखता है। ईमानदार हैं।'
मैंने पूछा ' यह पुश्तैनी मकान है?'
वह तपाक से बोले-' नहीं । साठ के दशक में, साठ साल पहले मैंने इसे खरीदा था। तब यहां आबादी थी नहीं । दूर-दूर तक पक्का मकान नहीं 
था किंतु धीरे-धीरे मकान बन रहे थे, बहुत फासले पर दो-चार मकान दिखते थे । नगर निगम जमीन कब्ज़ा कर रहा था, औने-पौने दामों पर लोग जमीन निकाल रहे थे । मुझे लगा कि शहर में कहीं जमीन नहीं है, नदी काफ़ी दूर तक खिसक चुकी है, और इस क्षेत्र का विकास कभी न कभी होगा, यहां सस्ते दामों में जमीन खरीद लेना अच्छा हो सकता है। 
-'मुझे मेरे पिता ने उत्साहित किया था, कुछ आर्थिक मदद भी की थी, पूरी जमीन मैंने बीस हजार रुपए  में खरीदा था।'
-' कितने दूरदर्शी थे आप और आपके पिता ,दाद देनी पड़ेगी !' बाग़ में खड़े-खड़े सिंह साहब ने सारी कहानी सुना दी।
             हम दोनो लान में लौट कर अपने-अपने स्थानों पर बैठ गये। सिंह साहब का गोरा चेहरा अभी भी गुस्से से लाल था। पता नहीं क्या माज़रा ! यहां से निकल लेना अच्छा होगा, सोचकर मैं एकबारगी उठ खड़ा हुआ। उन्होंने तत्काल हाथ पकड़ कर बैठा दिया और कहा- ' बैठिए। पहली बार मेरे घर आयें है ऐसे कैसे जा सकते ! पत्नी रहतीं तो कितनी खातिर करतीं आपकी , कितना खुश होती। अतिथि आप्यायन करना उसे पसन्द था। आपके पुस्तक विमोचन समारोह में मैं उन्हें ले गया था ।
 जब से ' अमर उजाला ' और 'इंद्रप्रस्थ भारती' में पत्नी ने आपकी कहानियां पढ़ी थी, वह आपकी प्रशंसक बन गई थी। उनके रहते मैंने कई बार आपको आने के लिए कहा था। पत्नी ने एक बार कहा था 'अपने कहानीकार मित्र को चाय पर बुलाइए ।'
पत्नी की बात करते हुए सिंहसाहब भावुक हो गएं । आंखों की कोर पोछते हुए सिंहसाहब मकान के पीछे जाने लगें । कामवाली बाई को आते देख वे बोले-' गीता जरा चबूतरे से बेंत की मेज लाकर यहां रख दो और भीतर जाकर देखो बहू ने चाय बना ली होगी। साथ में पानी भी ले आना ।
गीता गयी तो गई। क़रीब पंद्रह मिनट तो हो  गयें। उनको उठते देख मैंने कहा-'आती ही होगी। इतना बड़ा मकान है आपका, आने जाने में पंद्रह मिनट तो लगता ही है।' थोड़ी देर बाद गीता आई। मुंह लटकाकर खड़ी रही।
सिंहसाहब बोले-' क्या बात है?'
गीता बोली-' बीबी जी ने कहा बोल दो बहू जी खाना खाकर सो गयी है। बाबूजी का खाना उनके कमरे में रख दिया दिया है।'
सिंहसाहब ने अपना आपा खो दिया। न आव देखा न ताव, तेज डगों से मकान के पीछे जाने लगें।
मैंने दो बार चिल्लाया ' सिंहसाहब ! सिंह साहब ! आप परेशान न होइए ।' 
मुझे अनसुनी कर वे निकल गयें।
मैं बार-बार घड़ी देख रहा था। मेरे भोजन का टाइम ओवर हो चुका था। पत्नी भूखी बैठी होगी। उफ्फ़ ! कहां फंस गया मैं ! 
थोड़ी देर में भीतर से लडने-झगड़ने की आवाज़ आने लगी। कुछ-कुछ साफ़ सुना 'आपने क्या इसे होटल समझ रखा है ? जब खुशी आर्डर करते हैं....... जाने कब रिटायर हो गए हैं और अभी भी ख़ुद को आई जी समझ रहे हैं....... बहुत गुरूर है आपको अपने ज़मीन जायदाद पर । उसी कारण इतनी दबंगई आपकी। क्या चाहते हैं आप ? सब आपके कहने पर उठक-बैठक करें ? बेचारी आराम कर रही थी। अगले महीने से आप पूरी पेंशन दीजिएगा, पचास हजार में क्या होता है ?'
मेरा सिर भन्नाने लगा। दिल की धुक-धुकी बढ़ गई। मैं उठकर चलने लगा, फाटक पर पहुंचा ही था कि सिंह साहब भीतर से निकल कर चबूतरे पर  खड़े-खड़े आवाज़ लगाई ' दादा जी रुक जाइए।'
मैं रुक गया। मेरे पास आकर वे बोले -' मेरा बड़ा बेटा चीख रहा था। वकील है । वकालती चलती नहीं। अक्सर बात-बेबात झगड़ता है, अपना मानसिक संतुलन खो देता है।' 
सिंह साहब का गला भर आया। उनका हाथ पकड़ कर मैंने कहा ' सिंह साहब मैं भी बूढ़ा हूं, सब समझता हूं ।'
                    देखते-देखते चार महीने बीत गए। सिंह साहब पार्क में नहीं दिखाई दिए। इस बीच रिटायर्ड कार्नर के एक सदस्य से जानकारी मिली कि सिंहसाहब ने मकान बेच दिया है। उनके दोनों बेटों को क्रेता से मकान खाली करने की नोटिस मिली है। तीस दिन का समय दिया गया है। उसने कहा कि सिंहसाहब कहां है पता नहीं चला।
                जब से सिंहसाहब के घर वह अप्रिय घटना घटी थी और सात दिन बाद उनकी बहू आकर बोली थी कि सिंहसाहब सात दिन से लापता है तब से सिंह साहब की याद हमें सताती रही है, किन्तु उनके बारे में जानकारी प्राप्त करने का उपाय नहीं था।
जाड़े में मैं धूप में टहलता हूं। धूप मिल जाती है और घूमना -फिरना भी हो जाता है।
टहलते-टहलते मैं पार्क पहुंचाने वाली मेन रोड पर पहुंच गया। दूर से दिखाई दिया कि सिंहसाहब के घर से थोड़ी दूर मेन रोड पर पुलिस वैन, पीएसी ट्रक और कुछ मोटर कारें खड़ी थी। 
एक परिचित व्यक्ति जो उधर से आ रहे थे, मैंने उनसे पूछा- 'आगे क्या हुआ कुछ पता है ? '
उन्होंने कहा- ' सुना ठाकुरसाहब के घर डिप्टी कलेक्टर पुलिस फोर्स के साथ पहुंचे हैं जिसने ख़रीदा उसे मकान पर कब्जा देने।
--' बेच दिया ! ठाकुरसाहब है यहां ?'
--' पता नहीं।'
--आपके पास उनका फोन नंबर है ?'
--'जी नहीं।' वह आगे निकल गया।
मेरी जिज्ञासा बढ़ गई। पांच-सात कदम आगे बढ़ कर रुक गया। सामने से जाना मुश्किल था क्योंकि काफ़ी भीड़ थी। मैं दूसरे रास्ते से पीछे की ओर पहुंच गया। एक छोर से दूसरी छोर तक भीड़ ही भीड़। 
सिंहसाहब का खेत उजड़ चुका था। कच्ची सड़क पर खेत के बाउंड्री पर लगे कांटा तार और लोहे का फाटक हटा दिया गया था। हरा भरा खेत अब मैदान दिख रहा था। दर्जनों मजदूर काम करते हुए दिखे। ड्रिलिंग मशीन से बोरिंग चल रहा था।
समूह में जगह-जगह लोग उसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। किसी को सटीक जानकारी नहीं थी । क़रीब हफ़्तेभर बाद 'रिटायर्ड कार्नर' के एक सदस्य से जानकारी मिली कि सिंहसाहब ने अपना ज़मीन-जायदाद एक पूंजीपति को साठ करोड़ में बेच दिया है। उस खेत पर एक मॉल बनेगा और मकान के स्थान पर एक मल्टीस्टोरिड अपार्टमेंट। 
सिंहसाहब ने दोनों बेटों को दो-दो करोड़ और किसान को एक करोड़ रुपए दिए हैं । 
बाकी राशि से एक भव्य सुख-सुविधा सम्पन्न वृद्धाश्रम बनेगा जिसके लिए एक ट्रस्ट का गठन किया गया है । सिंहसाहब भी एक ट्रस्टी हैं'। 


© सुभाषचंद्र गांगुली 
31/03/2023
( 'कहानी कहानियां पार्क की'' के अंतर्गत 18/03/2023 से शुरू 20/04/2023को खत्म हुआ)
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