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Sunday, June 25, 2023

मेरी कथा यात्रा

   


देश की आजादी के समय मैं एक वर्ष का था। लगभग पांच वर्ष की उम्र से मुझे सबकुछ याद है।
पांच साल की उम्र तक घर आंगन और छत पर उछल-कूद किया करता था। दादी मेरा ख्याल रखती थी। खाना खिलाते समय सुलाते समय दादी मुझे कहानियां सुनाया करतीं थीं। उनकी कहानियां छोटी छोटी शिक्षाप्रद या फिर परियों की कहानियां हुआ करती। कदाचित मनगढ़ंत कहानी सुना देती या फिर किसी अन्य कहानी से जोड़ देती।
दादी ने एक कहानी सुनाई थी। एक लड़का बड़ा अभागा जन्मा था। उसके जन्म के बाद डॉक्टर ने उसकी मां को बच्चे को अपना दूध पिलाने के लिए मना कर दिया था। क्यों कि मां के खून में टीवी के किटाणु पाये गये थे।
दादी ने कहा कि जब यह बात अस्पताल में फ़ैल गई तब एक दलित महिला जिसने दो दिन पहले एक बच्चे को जन्म दिया था नर्स से कहलवाया कि वह दूध पिलाने के लिए तैयार है। बच्चे के माता पिता दोनों राजी हो गए थे। 
दादी बहुत देर चुप थी। मैंने पूछा ' फिर ? '
दादी ने कहा था कि फिर वह लड़का बड़ा होकर बहुत बहादुर निकला। थोड़ा सा बड़ा होकर मां को घुमाने ले गया। लड़का घोड़े पर सवार था और मां पालकी में बैठी थी। बीच रास्ते में डाकुओं ने हमला किया, घोड़े से उतर कर ढाल तलवार लेकर भीषण युद्ध कर डाकुओं को मार गिराया।
पालकी से उतरकर उसकी नयी मां ने बेटे को गले से लगा लिया और कहा किस्मत अच्छी थी जो खोका ( लड़का)साथ था वर्ना नामालूम क्या कुछ हो गया होता।
जब मैं कक्षा छह में पहुंचा तब पता चला कि दादी ने जो कहानी सुनाई थी वह कहानी रवीन्द्र नाथ टैगोर की कविता ' वीर पुरुष ' थी और जब मैं इंटर में था तब पता चला था वह अभागा जन्मा लड़का कोई और नहीं मैं ही था। और दादी चुप इसलिए रह गई थी क्योंकि वह नहीं कहना चाहती थी कि मेरी मां मेरी दूसरी मां थी।
किन्तु दादी ने जो कहानी सुनाई थी उससे उसने मेरे मन में एक बड़ी कहानी की बीज बो दी थी जो आगे चलकर एक लम्बी कहानी ' खून का रंग '  बना जो प्रतिष्ठित पत्रिका ' कथ्य रूप ' में सन् 2001 में छपी थी। पहले यह लघु उपन्यास धा किन्तु बार बार काट छांट कर मैंने उसे लम्बी कहानी बना दी ताकि अधिक से अधिक लोग पढ़ सकें।
जब मैं कक्षा पांच में था तब पता चला था कि वह दादी मेरे पिताजी की बुआ थी जो पिताजी के बुरे वक्त पर परिवार को सम्हालने आयी थी। 
आज की तारीख़ में ऐसी दादियां विरले ही मिलेंगी।
मेरे जमाने में पांच वर्ष की उम्र तक बच्चों को बाल गोपाल माना जाता था। लाड प्यार से पाला जाता था। बालक बालिकाओं में पांच- सात साल तक कोई भेद नहीं था पांच किलो बस्ता तो क्या पांच सौ ग्राम वजन भी नहीं दिया जाता था। संस्कृत में श्लोक भी है --" लालयते पञ्च वर्षाणि ,ताडयाते दश वर्षाणि/प्राप्ते सम्प्राते षोडशे वर्षे पुत्र मित्र समाचरेत  ।" 
            आदमी अपना बचपन और विद्यार्थी जीवन कभी भूलता नहीं। मैं और मेरे दो मित्र बचपन में मेरी बहन और उसकी सहेलियों के साथ खेलता था। गुड्डा -गुड्डी की शादी भी रचाई थी। मेरी मां ने घराती बाराती के लिए पूड़ी सब्जी, रायता, खीर भी बनाई थी। इस पुतुल खेला से  निकली थी कहानी ' लाली ' जो जनसत्ता दीपावली विशेषांक 1999 में प्रकाशित हुई थी। यह मेरे प्रथम कहानी संग्रह ' सवाल ' में है। भूमिका लिखते हुए अमरकांतजी ने इसका विशेष उल्लेख किया था।
 मेरे बचपन की सहेली पार्वती जब विधवा हो गई और 'अनुकम्पा' के आधार पर किसी एक बेटे को अनुकम्पा के आधार पर नौकरी देने की बात लेकर दो बेटों में कलह होने लगा था तब उसके बचपन के खेल के साथी वृद्ध अनिल पांडेय पार्वती के घर पंहुचते हैं कलह निवारण का उपाय बताने। कहानी ' अनुकम्पा ' कहानी संग्रह 'सवाल' में है।
जब मैं पांच वर्ष का हुआ तब रीति अनुसार बसन्त पंचमी के दिन मां सरस्वती के सामने पिताजी ने मेरे हाथ स्लेट खड़िया थमाकर पुरोहित द्वारा मंत्रोच्चारण के साथ बांग्ला में अ आ क ख लिखाना शुरू कराया। 
सात वर्ष पूर्ण होने पर एंग्लो बंगाली इंटर कॉलेज में कक्षा चार में भर्ती कराया गया । कक्षा चार और पांच मे बांग्ला मीडियम, परीक्षाएं मौखिक।‌ कक्षा छह से हिन्दी मीडियम, लिखित परीक्षा। 
अंग्रेजी एक विषय के रूप में शुरू। ABCD से।
मेरे समय में हिन्दी मीडियम के  स्कूल कॉलेज बहुत अच्छे थे। 
हाईस्कूल 1961 में इंटर 1963 में उसी विद्यालय से किया। उन दिनों नम्बर नहीं लुटाये जाते थे आज की तरह। नम्बर देते थे सुनार के तराजू की तरह। साढ़े तीन, पौने चार, सव चार, साढ़े चार, पौने पांच इस तरह। सांइस में मार्क्स  मिलते थे मगर कम,आर्ट्स में तो  लगभग साठ प्रतिशत  से अधिक पाना लगभग नामुमकिन था। 
इंटर में हिन्दी साहित्य से अच्छा परिचय हुआ। लगभग सभी चोटी के साहित्यकारो से परिचित हुआ। प्रेमचंद की एक पतली सी किताब दस बारह कहानियों की। इतनी अच्छी लगी थी कि गर्मी की छुट्टियों में उनकी और कहानियां पढ़ी, उपन्यास पढ़ा। आगे चलकर  मोपाशा, शरतचंद्र, चेखाव, गोर्की, हेमिंग्वे अनगिनत बड़े कथाकारों को पढ़ा किन्तु मैं प्रेमचन्द को अब तक का श्रेष्ठतम कथाकार मानता हूं। 
  सन् 1965 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बीए पास किया। अंग्रेजी मजबूत करने तथा अंग्रेजी साहित्य से परिचित होने के लिए अंग्रेजी साहित्य एक विषय के रूप में चुना था।
बीए पास करने के बाद 1965 में ही यूनिवर्सिटी में कॅनवोकेशन हुआ था। प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री आये हुए थे। उन दिनों पाकिस्तान से युद्ध चल रही थी। भाषण देते देते किसी ने आकर उनसे कुछ कहा, 'एक मिनट' कह कर वे थोड़ा साइड में चले गए, फोन पर कुछ निर्देश दिए होंगे फिर माइक के पास आकर युद्ध के सम्बन्ध में बड़ी चुटिले अंदाज में बोले कि वे छिप छिपकर आयें, कुछ सलवार कमीज़ पहन कर आएं इत्यादि। मैंने देखा कि एक बहुत ही गंभीर परिस्थिति में कितने ठंडे दिमाग से काम करते हैं। यह मेरे लिए अनुकरणीय था। 
शायद उन दिनों ग्रैजुएशन करना बड़ी बात थी, पोस्ट ग्रेजुएट होना तो और भी बड़ी बात थी, पोस्ट ग्रेजुएट बहुत ही कम मिलते थे। इसलिए कन्वोकेशन में जो गाउन मिलता था उसे पहनकर फोटो खिंचवाकर घरों की दीवारों पर टांग दिया करते थे। आज यह एक कहानी जैसी लगती है।
    ‌‌‌‌‌बीएमें अंग्रेजी साहित्य पढ़ते हुए मुझे अंग्रेजी साहित्य से प्यार हो गया और मैंने एम ए अंग्रेजी साहित्य से किया 1967 में। मुझे लगा कि अंग्रेजी साहित्य ने मुझे काफ़ी समृद्ध किया।
 दो महीने बाद मै उपाधी महाविद्यालय, पीलीभीत पहुंचा इंटरव्यू देने। चूंकि मुझे गाड़ी पकड़नी थी मैंने प्रिंसिपल साहब से अनुरोध किया था कि वे अगर मेरा इंटरव्यू पहले करा दें तो बड़ी कृपा होगी। 
मैं समय से पहले ही कमरे के बाहर बैठा हुआ था। प्रिंसिपल साहब के कमरे में तीन लोग बैठे हुए थे। कैंडिडेट्स के कागजात देख रहे थे। किसी ने मेरे कागजात देख कर कहा देखिए इनके मार्क्स। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट,गुड सेकेंड डिवीजन, क्या मार्क्स 54,56,48,42,50,60,57,58,62 इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का है ! इनसे क्या पूछना।‌‌मैं शर्मा रहा था और नर्वस भी था। सचमुच मुझसे ज्यादा कुछ नहीं पूछा गया था। आज की पीढ़ी को शायद ही मालूम होगा कि उन दिनों इलाहाबाद यूनिवर्सिटी को 'ऑक्सफोर्ड ऑफ एशिया' कहा जाता था।  फर्स्ट क्लास बहुत ही कम मिलते थे। लोग शान से कहते थे फोर सेकेंड डिवीजनर।
 मुझे तीन हफ़्ते बाद पीलीभीत डिग्री कॉलेज से नियुक्ति पत्र मिल गया था। मैं जाने की तैयारी कर ही रहा था कि मुझे इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में लेक्चरर पद की नियुक्ति पत्र मिला।  मैंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी चुना। 
उन्ही दिनों देश में 'भाषा विवाद' राजनेताओं की कृपा से एक वृहद आन्दोलन का रुप ले चुका था। दक्षिण बनाम उत्तर। दक्षिण भारत हिन्दी का विरोध कर रहा था तो उत्तरी भारत अंग्रेजी का। परिणामस्वरूप सामान्य अंग्रेजी जिसे कम्पल्सरी इंग्लिश भी कहा जाता था और बीए, बीएससी बीकॉम में अनिवार्य था हटा दिया गया। इंटर और हाईस्कूल में भी अनिवार्य नहीं रह गया था। विद्यार्थी खुश नेता खुश। नतीजतन हिन्दी मीडियम में पढ़ने वाली पूरी एक पीढ़ी अंतरराष्ट्रीय भाषा से महरूम रह गए। खामियाजा भुगतना पड़ा। 
1967-68 पूरा सेशन पढ़ाने के बाद यूनिवर्सिटी में एक्सटेंशन नहीं मिला।
भाषाविद डॉक्टर हरदेव बाहरी ने हिन्दी अंग्रेजी शब्दकोश संकलन अक्षर 'अ से म' तक का ऑफर दिया ।यह मेरी अभिरुचि काम था । मैंने तीन साल में काम पूरा किया था।
      1969 की  बात।  मैं काम की तलाश में था कि एक दिन मेरे मोहल्ले के एक एजी ऑफिस के कर्मचारी मेरे घर आकर पूछा कि क्या मैं एजी ऑफिस में काम करने को तैयार हूं। मैंने उनके हाथ अप्लीकेशन दे दिया। एक महीने बाद एजी  ऑफिस में ही लिखित परीक्षा तथा शाम को इंटरव्यू दिया। एक महीने बाद नौकरी मिल गई।
 इतना ही सरल था केंद्र सरकार नौकरी पाना। बैंक मैनेजर को भी क्षमता थी नियुक्त करने का। एक महीने बाद मुझे बैंक से भी नियुक्ति पत्र मिला, मैं गया नहीं था। 
दो अवसर और मिले थे डिग्री कॉलेज के लिए। किन्तु एजी ऑफिस की नौकरी में प्रमोशन, पेंशन, मेडिकल सुविधा देखते हुए और अंग्रेजी की दुर्दशा देखकर मैं कहीं गया नहीं।
1971 की बात। मैं बांग्ला में कहानी और इंग्लिश में कविता आदतन लिखता ही था। एक रात बादल सरकार का नाटक पढ़ कर लेटे लेटे 'एवं इन्द्रजीत ' के चारों चरित्रों अमल विमल कमल एवं इंद्रजीत के बारे में सोचता रहा। सोचते सोचते अचानक चार पुरुष पात्रों का आविर्भाव हुआ। उन सबोका हुलिया, बर्ताव, संवाद,मंच पर उनका अभिनय सबकुछ मेरे मानस पटल पर छा गया। बिस्तर से उठ कर आधी रात मैंने पूरी की पूरी कहानी के रूप में बांग्ला में लिख ली। 
अगले दो तीन दिनों में उसका नाट्य रूपांतरण कर उसका नामकरण किया 'चतुरंग ' ! एक बांग्ला प्रकाशक ने उसे छापा था। हावड़ा, हुगली शोधपुर वर्धमान अनेक जगहों से मंचस्थ होने की खबर मिली थी। मेरे मोहल्ले के दुर्गोत्सव में मंचस्थ किया गया था और मैंने भी एक रोल प्ले किया था।
1975 में ऑफिसर्स ग्रेड एग्जाम क्लियर कर लिया। 
1980-82 ऑडिट कार्य के लिए उत्तर प्रदेश में घूमता रहा। तब उत्तराखंड यूपी में ही था। पहाड़ों में गया, जिला जिला, तहसील, दूर दराज क्षेत्रों के गांवों में भी गया, तरह तरह के लोगों के रहन सहन,सुख दुःख सब जानने का अवसर मिला। शहरों से भिन्न भारतीय जीवन।
जहां कहीं कुछ नज़र आता या कुछ स्ट्राइक करता उसे डायरी में नोट करता। सबकुछ काम आया कहानी लेखन में।
कार्यकाल में मुझे और दो प्रोमोशन मिले थे और दो दशकों तक वरिष्ठ लेखाधिकारी पद पर काम किया था। उस दौरान ढेर सारे अनुभव प्राप्त हुए, हर तपके के लोगों से सम्पर्क हुआ, अलग अलग लोग अलग मानसिकता, अलग अलग परेशानियों से साक्षात हुआ। वे सब मेरी कहानियों में प्रकट हुए किसी न किसी तरह।
           टेहरी टॉप से उतरते समय एक विशाल वृक्ष पर एक जीप को देखा था। ड्राइवर से पता चला था कि वह गाड़ी लुढ़क गई थी। सेना की मदद से लोगों को निकाल लिया गया था। 
आगे चलकर प्रशासनिक अनुभव को समेटते हुए यह कहानी ' सवाल 'के रूप में निकली जो दस्तक के कहानियों का शताब्दी अंक में 09/1998 में छपी थी। लालबहादुर वर्मा ने लिखा था कि कहानी सवाल शताब्दी अंक की उपलब्धि है।
1986 से रिटायरमेंट तक सारा काम मैंने हिन्दी में किया । भाषा का विकास करने में मददगार सिद्ध हुई।
मेरे पास पेंशन वितरण अधिकारी का चार्ज था। उसी अनुभव से निकली थी ' कहानी की तलाश ' कहानी की सुमन की दर्दनाक कहानी। उसी अनुभव से बनी थी ' आख़िरी लाइन ' के डॉक्टर राय की कहानी ।
1993 स्थानीय पाक्षिक पत्रिका ' के सम्पादक रवींद्र कालिया जी ने मुझसे आग्रह किया कि 'इलाहाबाद का बंग समाज ' विषय पर मै लेख लिखूं जिसमें बंगालियों का योगदान शिक्षा, साहित्य, संगीत, व्यापार आदि में क्या रहा दिखे। काम मेरे लिए चैलेंज था। मैंने सब ढूंढ निकाला। सात आठ कड़ियां में धारावाहिक निकला। मेरा आत्मविश्वास बढ़ा।
2000 कहानी 'पलंग ' पत्रिका 'साक्षात्कार ' में 05/2000 में छपी थी। 13 अगस्त को ' जनवादी  लेखक संघ ' के तत्वावधान में प्रोफेसर दूधनाथ सिंह की अध्यक्षता में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के निराला सभागार में विशद चर्चा हुई थी। प्रोफेसर दूधनाथ सिंह ने कहा कि पलंग मध्य वर्ग के बदलते स्वरूप की कहानी है। श्री गांगुली ने बड़ी खूबसूरती से एक अर्थशास्त्र को दूसरे अर्थशास्त्र में हस्तांतरण की समस्या दर्शाया। कथाकार श्री श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा कि कहानी में पिछड़ा वर्ग आगे बढ़ता है। पलंग शीर्षक से ही दो कहानियों से तुलना करते हुए उन्होंने इस कहानी को बेहतर बताया। 
यह कहानी मेरे लिए मील का पत्थर साबित हुई।
  2002 पहला हिन्दी कहानी संग्रह ' सवाल तथा अन्य कहानियां ' अनुभूति प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुई थी। भूमिका कथाकार अमरकांत ने लिखी थी। कुल अठ्ठारह चर्चित कहिनिया थी। अनेक समीक्षाएं छपी थी। 2005 और 2011 में और दो संस्करण छपे थे।
2002 में ही बांग्ला कहानी ' शेषेर लाइन ' ( अपनी ही हिन्दी कहानी 'आखिरी लाइन' का अनुवाद) किसी पत्रिका में छपी थी, पढ़ने के लिए कोलकाता के प्रकाशक' विश्वज्ञान प्रकाशन ' ने कहानी पाठ के लिए रवीन्द्र सदन,कोलकाता में आयोजित प्रोग्राम में बुलाया। तीन कोलकाता वासी भी पढ़ें ।तदुपरांत उस पर चर्चा हुई थी। सुनील गंगोपाध्याय, अनन्दा शंकर राय,नवेंदु घोष के हस्ताक्षर से प्रशस्ति पत्र मिला था। ंं
कहानी ने इतनी बाहवाही लूटी कि प्रकाशक ने मुझसे पुस्तक प्रकाशन हेतु कहानियां मांग ली।
मेरे लिए यह उत्साहवर्धक अवसर था। मैंने हिन्दी संग्रह की कहानियां बांग्ला में लिख कर भेज दी।
2003 अक्टूबर  में बांग्ला कहानी संग्रह 'शैषेर लाइन' शीर्षक से अट्ठारह कहानियों का संग्रह प्रकाशित हो गया और विमोचन कोलकाता में ही रवीन्द्र सदन में दिसंबर 2003मे ख्यातिप्राप्त समालोचक डॉ सरोज मोहन मित्र ने किया था। उन्होंने ही पुस्तक की लम्बी चौड़ी समीक्षा लिखी थी। डॉक्टर मित्र ने लिखा " उनकी कहानियों के लिए कल्पना नहीं करना पड़ता। लगता है जैसे सारे चरित्र, सारी घटनाएं पाठकों की अभिज्ञता में ही मौजूद हैं। साधारणतया कहानियों में ( बांग्ला कहानी ) नारी पुरुष प्रेम एवं यौवनता ही प्रधानता पाता है। सुभाष की कहानियां सम्पूर्णतया भिन्न है। प्यार मोहब्बत के बाहर भी हमारे जीवन में कितनी समस्याएं हैं, ढेर सारी हृदयविदारक घटनाएं हैं, सुभाष ने उन्हीं सबको प्रधानता दी है ।"
सुनील गंगोपाध्याय ने संक्षिप्त प्राक्कथन लिखा था। इस संग्रह ने मुझमें भरपूर ऊर्जा भर दिया।
2004  ' नया ज्ञानोदय ' पत्रिका में कहानी 'पद्मा मेरी मां ' प्रकाशित हुई थी। देश विभाजन के कारण भारत में आये शरणार्थियों की व्यथा कथा, किस्से सबकुछ सुनता रहा, कुछ विश्वास होता रहा और कुछ अविश्वास। मैं सबकुछ वर्षों से डायरी में नोट किया करता।‌उसीमे से पहले बनी थी कहानी ' खून का रंग ' फिर निकली यह कहानी। इस कहानी को गम्भीर साहित्यकारों ने पढ़ा, प्रतिक्रियाएं मिली। प्रोफेसर प्रणय कृष्ण, अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी ने लिखा " 'पद्मा मेरी मां ' जैसी कहानी लिखकर कोई कथाकार खुद को सराह सकता है। देश विभाजन की पृष्ठभूमि में व्यक्ति की पहचान, विरासत, वल्दियत सबकुछ को फिर से जांचने परखने और महसूस करने की जरूरत को उभारती यह कहानी आज के भारत में और भी ज्यादा प्रासंगिक हो उठी है। इस कहानी में लेखक ने बहुत कुछ ऐसा अनकहा छोड़ दिया है जो पाठकों को देर तक और दूर तक मथता रहे और वे स्वयं सत्य के साक्षात्कार तक पहुंचे। "
2005 'कहानी की तलाश ' कहानी संग्रह के लिए मैंने शेखर जोशी को पांडुलिपि देते हुए मैंने प्राक्कथन  लिख देने का अनुरोध किया, उन्होंने कहा कि समय लगेगा, मैंने कहा ठीक है सर। दो तीन महीने बाद उन्होंने मुझसे कहा  ' कहानी की तलाश ' कहानी में पांचवां अध्याय अगर आप निकाल दे तो बेहतर होगा क्योंकि वह गम्भीर विमर्श का विषय है।' कुछ देर बातचीत के बाद पांचवां अध्याय यानी पांचवीं कहानी जो सबसे बड़ी थी, तकरीबन बीस पेज मैंने निकाल लिया। उन्होंने कहा कि मैं फिर से सोच लूं। मैंने कहा 'सर ये मेरी कहानी के हक में है। आभारी हूं आपका।'
वह कहानी 'मेरी प्रतिनिधि कहानियां' जो प्रकाशानाधीन है, में संकलित है। 
ऐसी ही घटना और घटित हुई थी। मेरी एक ' कहानी है 'बेटी की विदाई ' ( 2006 में प्रकाशित 'कहानी की तलाश ' संग्रह में) हाथ का लिखा दस पेज। काफी दिनों बाद मैंने उसे करीब चौबीस पेज तक खींच दिया। दफ़्तर में मैं अपने कमरे में काम कर रहा था। कवि व लेखक श्रीरंग किसी के साथ आएं, मैं ज्यादा व्यस्त था। मैंने कहानी देते हुए कहा  'अभी फ्री हो जाऊंगा तब तक आप जरा इसे पढ़ लीजिए।' दोनों मिलकर पढ़ें फिर बार-बार वहीं पर पलट कर देख रहे थे जहां मैंने पहले कहानी खत्म की थी। और एक दूसरे से मशविरा कर रहे थे। मैंने पूछा ' क्या हुआ ? '
श्रीरंग बोलें ' आपकी कहानी शायद यहीं खत्म हो जाती है।' मैंने उनसे पांडुलिपि ली फिर उन्ही के सामने चौदह पेज निकाल कर फाड़ कर टोकरी में डाल दिया। कभी कभार लेखक को निर्मम होना पड़ता है है, होना चाहिए आखिर वह पाठकों के लिए ही तो लिखते हैं। 
 लिखने के लिए बहुत कुछ है किन्तु मैंने सीमा में रखा। सुधी पाठकों का आशीर्वाद साथ रहें तो इस चौथे संकलन के बाद भी कथा यात्रा जारी रहेगी।

                                       सुभाषचन्द्र गांगुली
                                   
 



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