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Monday, May 7, 2012

कविता- आज की नारी

बहुत हो चुका
अब नहीं सहनी
तुम्हारी यातनाएं :
मैं नारी हूं 
मैं शेरनी हूं ।
अबला नहीं 
दुर्बल, कोमल नहीं,
दुर्गे दुर्गतिनाशिनी,
काली कात्यायनी,
चामुंडे, मुंडमालिनी,
स्वाभिमानी, अभिमानी
मैं नारी ।
हो अगर झपटना
बला अपनी समझना
तुम्हारी गिद्धी आँखें
गिद्ध को दूंगी उखाड़ के 
अकल हो तो न भिड़ना
अपनी मौत न बुलाना।
वह नारी
जिसे तुम दबोचते 
अपनी जंगली पजों से 
मर चुकी।
मर चुकी
वह नारी, जिसे
बेचते कौड़ी से
बेजुबान बनाकर रखते
आजीवन कारावास में :
मर चुकी
वह नारी, जिसे
जब चाहा भोगा,
जब चाहा त्यागा
गला घोट दिया 
जला दिया 
दफ़ना दिया
इतिहास साक्षी 
जो न किया
कम किया।
कसम पवन औरअग्नि की
कसम भारत माता की
कसम इस धरती की-
जिस नारी ने संरचना की
विशाल विश्व की,
जिस नारी ने सृष्टि की 
सम्पुर्ण मानवजाति की,
जिसने बागडोर संभाली
घर घर की,
उस जननी जगधात्री
विश्वसृष्टा नारी का
अब यदि होगा अपमान
मैं अपने स्तन में 
विष भर दुँगी। 

© सुभाष चन्द्र  गाँगुली
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18/12/1996
* पत्रिका ' तमाल' फरवरी 1997 में प्रकाशित ।
* पत्रिका ' जनप्रिय ज्योति ' जुन 1997 में प्रकाशित ।
* कार्यालय पत्रिका 'तरंग ' में प्रकाशित ।
* संकलन 'क्षितिज' 12/1998 में प्रकाशित ।
* आकाशवाणी इलाहाबाद से प्रसारित ।   
* आर्यकन्या डिग्री कालेज, इलाहाबाद के गोल्डन जुबिली समारोह में वाचन ।

("भारत माँ कीगोद में" काव्य संग्रह से, प्रथम संस्करण: 2022)

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